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अध्याय – 6 – वीज़ा की प्रतीक्षा: आत्मकथात्मक नोट्स

एक और घटना इससे अधिक प्रभावशाली हैं 6 मार्च, 1938 को भंगियों की एक सभा केसरवाड़ी (वूलम मिल के पीछे) दादर, बम्बई में भी इंदुलाल यादनीक की अध्यक्षता में हुई थी। इस सभा में एक भंगी लड़के ने अपना अनुभव निम्नलिखित शब्दों में बयान कियाः

“मैंने 1933 में वर्नाक्यूलर अन्तिम परीक्षा उत्तीर्ण की। मैंने चतुर्थ श्रेणी तक अंग्रेजी पढ़ी है। मैंने बम्बई नगरपालिका की विद्यालय समिति को अध्यापक के पद के लिए अर्जी दी लेकिन मैं असफल रहा क्योंकि वहाँ कोई स्थान खाली नहीं था। उसके बाद, मैंने अहमदाबाद के पिछड़ा वर्ग अधिकारी को तलाती गांव (पटवारी) के पद के लिए अर्जी दी और मुझे सफलता मिल गई। 19 फरवरी, 1936 को मेरी नियुक्ति तलाती के पद पर खेड़ा जिला के बोरसाद तालुका में मामलातदार के कार्यालय में हुई।

यद्यपि मेरा परिवार आरम्भ में गुजरात में रहता था, इससे पहले मैं कभी गुजरात नहीं गया था। यह पहला अवसर था जबकि मैं वहाँ गया। मैं नहीं जानता था कि सरकारी कार्यालयों में भी छुआछूत होगी। इसके अलावा मैंने अपने आवेदन-पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा था कि मैं हरिजन हूँ। इसलिए मुझे आशा थी कि कार्यालय के मेरे साथियों को पहले से ही मालूम होगा कि मैं कौन हूँ। ऐसी स्थिति में जब मैं तलाती के पद का कार्यभार संभालने के लिए उपस्थित हुआ तो मुझे मामलातदार-कार्यालय के क्लर्क के व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ।

कार्कून ने तिरस्कारपूर्ण ढंग से पूछा, “तुम कौन हो?” मैंने उत्तर दिया, “महोदय मैं एक हरिजन हूँ।” उन्होंने कहा, “पीछे हटो और फासले पर खड़े हो। तुमने मेरे इतने पास खड़े होने की हिम्मत कैसे की। तुम कार्यालय में हो, यदि बाहर होते तो मैं तुम्हें छह लात मारता, तुमने यहाँ नौकरी में आने का साहस कैसे किया?” उसके पश्चात् उसने मुझे अपना प्रमाण-पत्र और तलाती के रूप में नियुक्ति का आदेश जमीन पर डालने को कहा। फिर उसने उनको उठा लिया। जब मैं बोरसाद के मामलातदार कार्यालय में नौकरी कर रहा था तो मैंने पाया कि मुझे पीने का पानी लेने में काफी कठिनाई होती थी। कार्यालय के बरामदे में पीने के पानी के कुछ डिब्बे रखे हुए थे। पानी के इन डिब्बों को एक आदमी के हवाले किया गया था जिसका काम आवश्यकता पड़ने पर कार्यालय के क्लर्कों को पानी देना होता था। उसकी अनुपस्थिति में वे स्वयं भी पानी ले सकते थे और पानी पी सकते थे। मेरे मामले में यह असंभव था। मैं डिब्बों को छू नहीं सकता था क्योंकि मेरे छूने से पानी अपवित्र हो जाता। अतः मैं उस आदमी की दया पर निर्भर रहता था। मेरे प्रयोग के लिए एक जंग लगा छोटा-सा बर्तन रख दिया गया था। कोई उसे छूता नहीं था या कोई मेरे लिए उसे धोता नहीं था। लेकिन इस बर्तन में ही वह आदमी मेरे लिए पानी गिराता था। मैं पानी तभी ले सकता था जब वह आदमी हाजिर होता था। यह पानी वाला मुझे पानी देना पसन्द नहीं करता था। यह देखकर कि मैं पानी पीने आ रहा हूँ तो वह खिसक जाया करता था जिसके कारण मुझे पानी नहीं मिल पाता था। जिन दिनों मुझे पानी नहीं मिलता था वे कम नहीं थे।

मुझे आवास के मामले में भी इसी प्रकार की कठिनाई का सामना करना पड़ा। मैं बोरसाद में अजनबी था। कोई सवर्ण हिन्दू मुझे मकान देना नहीं चाहता था। हिन्दुओं के नाराज होने के डर के कारण बोरसाद का कोई अछूत मुझे ठहराने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि मैं वहां क्लर्क रहूं क्योंकि यह एक ऊंचा पद था। भोजन के मामले में तो और ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ऐसा कोई स्थान या व्यक्ति नहीं था जिससे मैं अपना खाना ले सकता। मैं सुबह व शाम भाज़ा खरीदता था, गाँव के बाहर एकान्त में उन्हें खाता था और मामलातदार-कार्यालय के बरामदे के खड़ंजों पर सो जाता था। इस प्रकार मैंने 4 दिन गुजारे। यह सब मेरे लिए असह्य हो गया। उसके बाद मैं जैंट्राल पर रहने गया जो मेरे पूर्वजों का गाँव था। ऐसा मैंने डेढ़ माह तक किया।

इसके पश्चात् मामलातदार ने मुझे काम सीखने के लिए एक तालाती के पास भेजा। यह तालाती तीन गाँवों जैंट्राल, खानपुर और सेजपुर का इंचार्ज था। जैंट्राल इनका हेडक्वार्टर था। मैं दो माह तक इस तालाती के साथ जैंट्राल में रहा। उसने मुझे कुछ नहीं सिखाया और मैं एक बार भी गाँव के कार्यालय में नहीं गया। खासतौर से गाँव का मुखिया नाराज था। एक बार उसने कहा था “अरे तुम्हारा पिता, तुम्हारा भाई भंगी है जो गाँव के कार्यालय को साफ करतं हैं और तुम कार्यालय में हमारे बराबर बैठना चाहते हो। देखो, बेहतर यही है कि तुम काम छोड़ दो।”

एक दिन तालाती ने मुझे गाँव की जनसंख्या-सारणी तैयार करने सेजपुर बुलाया। जैंट्राल से मैं सेजपुर गया। मैंने देखा कि गाँव का मुखिया तथा तालाती गाँव के कार्यालय में कुछ काम कर रहे थे। मैं वहाँ गया और कार्यालय के दरवाजे के पास खड़ा हो गया और उनको नमस्कार किया लेकिन उन्होंने मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं वहाँ करीब 15 मिनट तक खड़ा रहा। मैं जीवन से पहले ही ऊब चुका था और इस प्रकार उपेक्षित तथा अपमानित होने पर मुझे गुस्सा आ गया। मैं वहाँ पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। मुझे कुर्सी पर बैठा देखकर गाँव का मुखिया और तलाती मुझसे कुछ कहे बिना वहाँ से चले गए। थोड़ी देर के पश्चात् लोग आने लगे और जल्दी ही मेरे आसपास भीड़ लग गई थी। भीड़ का नेतृत्व गाँव की लाइब्रेरी का पुस्तकालयाध्यक्ष कर रहा था। मैं समझ नहीं सका कि एक पढ़ा-लिखा आदमी यह भीड़ क्यों लाया। बाद में मुझे पता चला कि कुर्सी इसकी थी। उसने मुझे बुरी तरह गाली देना शुरू किया। रावनिया (गांव का नौकर) कों संबोधित करते हएु उसने कहा, “भंगी के इस गन्दे कुत्ते को कुर्सी पर बैठने की इजाजत किसने दी?” रावनिया ने मुझे उठा दिया और मुझसे कुर्सी छीन कर दूर ले गया। मैं जमीन पर ही बैठ गया। कुछ देर बाद भीड़ ने गांव कार्यालय में मुझे घेर लिया। क्रोधोन्मत इस भ्ीाड़ में से कुछ ने मुझे भला-बुरा कहा, कुछ ने मुझे धारिया (तेज धारदार तलवार जैसे अस्त्र) से टुकड़े-टुकड़े कर देने की धमकी दी। मैंने उनसे मुझे माफ करने और मुझ पर दया करने की याचना की। इसका भीड़ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैं नहीं समझ रहा था कि किस प्रकार अपने आपको बचाऊं। लेकिन मेरे दिमाग में यह बात आई कि जो कुछ मेरे साथ हुआ है उसके बारे में मामलातदार को लिखूं और यह भी लिखूं कि यदि भीड़ मुझे मार देती है तो किस प्रकार मेरा संस्कार किया जाए। संयोगवश मुझे विचार आया कि यदि भीड़ को पता चल गया कि वास्तव में उनके विरुद्ध मामलातदार को सूचना दे रहा हूं तो शायद वे अपने हाथ रोक लें। मैंने रवनिया से कहा कि वह मुझे एक कागज का टुकड़ा दे जो वह दे सकता था जिस पर मैं अपने पेन से मोटे अक्षरों में निम्नलिखित लिखा सकूं ताकि सभी लोग इसे पढ़ सके।

“सेवा में,

मामलातदार, बोरसाद तालुका,

महोदय,

कृपया परमार कालीदास शिवराम का विनम्र नमस्कार स्वीकार करें। आपको नम्रतापूर्वक सूचित किया जाता है कि आज मेरे ऊपर मौत मंडरा रही है। मैं अपने मां-बाप की बातों की ओर ध्यान देता तो आज ऐसी स्थिति न होती। आप मेरे माता.पिता को मेरी मृत्यु की सूचना देने की कृपा करें।”

मैंने जो कुछ लिखा था पुस्तकालयाध्यक्ष ने उसे पढ़ा और मुझे तुरन्त उसे फाड़ने के लिए कहा। मैंने ऐसा ही किया। उन्होंने मुझ पर असंख्य गालियों की बौछार कर मेरा बड़ा अपमान किया। तुम चाहते हो कि हम तुम्हें अपना तालाती कहकर पुकारें? ‘तुम एक भंगी हो और तुम कार्यालय में आकर कुर्सी पर बैठना चाहते हो?’ मैंने दया की भीख माँगी और दुबारा ऐसा न करने का वायदा किया और नौकरी छोड़ने का भी वायदा किया। मुझे शाम सात बजे तक वहाँ रखा गया जब तक कि भीड़ तितर-बितर नहीं हो गई। तब तक मुखिया और तालाती नहीं आए थे। उसके पश्चात् मैंने 15 दिन की छुट्टी ली और अपने माँ-बाप के पास बम्बई लौट आया।”