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अध्याय – 3 – वीज़ा की प्रतीक्षा: आत्मकथात्मक नोट्स

वर्ष सन् 1929 की बात है। बम्बई सरकार ने अछूतों की शिकायतों की जांच करने के लिए एक समिति नियुक्त की थी। मुझे समिति का सदस्य नियुक्त किया गया था। अन्याय, अत्याचार और क्रूरता के आरोपों की जाँच करने के लिए समिति को सम्पूर्ण बम्बई प्रदेश का दौरा करना था। समिति का विभाजन कर दिया गया। मुझे तथा एक अन्य सदस्य को खानदेश के दो जिले दिए गए। मैं और मेरा साथी अपना काम समाप्त करने के बाद अलग हो गए। वह किसी हिन्दू साधु से मिलने चला गया। मैं रेल से बम्बई चला गया। मैं चालीसगाँव में धुलिया लाइन पर एक गाँव में एक सामाजिक बहिष्कार के मामले की जाँच करने के लिए उतर गया, जहाँ के सवर्णों ने अछूतों के विरुद्ध सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर रखी थी। चालीसगाँव के अछूत स्टेश्न पर आए और उन्होंने मुझसे रात को उनके साथ ठहरने का निवेदन किया। मेरी मूल योजना यह थी कि मैं इस सामाजिक बहिष्कार के मामले की जाँच करने के बाद सीधा बम्बई जाऊँगा परन्तु उन्होंने बहुत आग्रह किया। मैं रात को वहाँ ठहरने के लिए राजी हो गया। मैंने गाँव जाने के लिए धुलिया की गाड़ी पकड़ी और वहाँ गया। गाँव की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त की और अगली गाड़ी से चालीसगाँव लौट आया।

चालीसगाँव के स्टेशन पर अछूत मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे हार डाले गए। महारवाड़ा अछूतों की बस्ती रेलवे-स्टेशन से कोई दो मील दूर है। और वहाँ पहुँचने के लिए एक नदी पार करनी पड़ती है जिस पर एक पुलिया बनी हुई है। स्टेशन पर कई ताँगे उपलब्ध थे। स्टेशन से महारवाड़ा पैदल भी जा सकते थे। मुझे आशा थी कि मुझे शीघ्र ही महारवाड़ा ले जाया जाएगा। लेकिन उस ओर कोई नहीं जा रहा था और मैं नहीं समझ पाया कि मुझे क्यों इंतजार करवाया जा रहा है। करीब एक घंटे के बाद एक ताँगा प्लेटफॉर्म के पास आकर रुका और मैं उसमें बैठ गया। ताँगे में ताँगेवाला और मैं दो ही

व्यक्ति बैठे थे। अन्य लोग रास्ते से पैदल गए। ताँगा 200 कदम भी नहीं चला होगा कि एक मोटरकार से टकरा गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि ताँगेवाला, जो किराए पर रोज ताँगा चलाता था, इतना अनुभवहीन कैसे हो सकता है। सिपाही समय पर जोर से न चिल्लाता और कार का ड्राइवर अपनी कार पीछे न हटाता तो गंभीर दुर्घटना हो गई होती।

हम किसी प्रकार नदी की पुलिया तक आए। इस पर कोई रोक नहीं थी जैसे कि पुल पर होती है। पांच-दस फुट की दूरी पर पत्थरों की पंक्ति थी। पत्थरों का रास्ता था। जिस सड़क से हम आ रहे थे नदी की पुलिया उसके समकोण पर थी। सड़क से पुलिया की ओर जाने के लिए तेजी से मुड़ना पड़ता था। पुलिया के बाजू में पहले पत्थर के पास ही थोड़ा घोड़ा सीधा जाने के बजाए मुड़ा और चौंक कर भाग गया। ताँगे का पहिया बाजू के पत्थर से इतनी जोर से टकराया कि मैं उछलकर पुलिया के पत्थर के खड़ंजे पर जा गिरा और घोड़ा तथा ताँगा पुलिया से नदी में जा गिरे। मैं इतनी जोर से गिरा कि बेहोश हो गया। महारवाड़ा नदी के ठीक दूसरे किनारे पर था जो आदमी मुझे सम्मान देने स्टेशन से पैदल आ रहे थे वे मुझसे पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। मुझे कंधे पर उठाया गया और पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के विलाप और चीत्कार के बीच महारवाड़ा लाया गया। इसके परिणामस्वरूप मुझे गंभीर चोटें आईं। मेरी टाँग टूट गई और मैं कई दिनों के लिए पंगु हो गया। मैं नहीं समझ सका यह सब कैसे हुआ। ताँगे पुलिया से हर रोज आते जाते हैं और ऐसा कभी नहीं हुआ कि ताँगेवाला ताँगे को पुलिया से सुरक्षित लेकर न निकला हो।

पूछताछ करने पर सही तथ्य मेरे सामने लाए गए। स्टेशन में देर होने का कारण यह था कि ताँगेवाले किसी अछूत को लाने के लिए तैयार नहीं थे। यह उनकी शान के खिलाफ था। महारों को यह सहन नहीं था कि मैं पैदल चल कर उनकी बस्ती पहुँचूं।  उन्होंने सोचा कि यह मेरे लिए गरिमामय नहीं होगा। इसलिए एक समझौता हुआ। समझौता यह हुआ कि तांगे का मालिक ताँगा किराए पर देगा किंतु चलाएगा नहीं, महार ताँगा ले सकते हैं लेकिन चलाने का इंतज़ाम खुद करेंगे। महारों ने इसे सही समाधान समझा। लेकिन वे यह भूल गए कि यात्री की सुरक्षा उसके प्रति आदर दिखाने से ज्यादा जरूरी है। यदि उन्होंने ऐसा सोचा होता तो वे मुझे गंतव्य स्थान पर सुरक्षित ले जाने के लिए ताँगेवाले का प्रबंध करने की बात पर विचार करते। तथ्य यह है कि महारों में से कोई भी ताँगा चलाना नहीं जानता था क्योंकि वह उनका पेशा नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने लोगों के बीच में से ही किसी को ताँगा चलाने को कहा। उस व्यक्ति ने लगाम अपने हाथ में ली और यह सोचने लगा कि इसमें क्या कठिनाई है। लेकिन जेसे ही वह चला, उसने अपनी जिम्मेदारी महसूस की और इतना आतंकित हुआ कि उसने घोड़े को काबू में करने का प्रयास छोड़ दिया। मेरी मान-मर्यादा को बचाने के लिए चालीसगाँव के महारों ने मेरी जिं़दगी को ही जोखिम में डाल दिया। तब मेरी समझ में आया कि एक हिन्दू ताँगेवाला, जो एक नौकर से बेहतर नहीं है, इतनी शान रखता है कि वह अपने आप को एक अछूत बैरिस्टर से भी ऊँचा समझता है।