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अध्याय – 2 – वीज़ा की प्रतीक्षा: आत्मकथात्मक नोट्स

1916 में मैं भारत लौटा। मुझे बड़ौदा के माहमहिम महाराजा ने उच्च शिक्षा के लिए  अमरीका भेजा था। 1913 से 1917 तक मैंने न्यूयॉर्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। 1917 में मैं लन्दन आया और लन्दन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में स्नातकोत्तर विभाग में दाखिला ले लिया। अपनी शिक्षा पूरी किए बिना 1918 में मुझे भारत लौटना पड़ा। चंकि मुझे बड़ौदा राज्य ने शिक्षा दिलाई थी, मैं रियासत की सेवा करने के लिए बाध्य था। तदनुसार, भारत पहुँचने पर मैं सीधा बड़ौदा गया। मैंने बड़ौदा की नौकरी अपने वर्तमान उद्देश्य के लिए किन कारणों से छोड़ी, वे इस मामले से बिल्कुल असंगत हैं। इसलिए उनका उल्लेख नहीं करना चाहता। मेरा सम्बन्ध बड़ौदा में मेरे सामाजिक अनुभवों से है। अतः मैं केवल उनका ही ब्यौरा दूंगा।

यूरोप और अमरीका में मेरे पाँच वर्ष रहने से मेरे मन में ऐसी कोई भावना नहीं रह गई थी कि मैं एक अछूत हूँ और वह कि एक अछूत जब कभी भारत आता है तो वह अपने लिए और दूसरों के लिए एक समस्या बन जाता है। लेकिन जब मैं स्टेशन के बाहर आया तो मेरा दिमाग इस प्रश्न से अत्यन्त क्षुब्ध हुआ “कहाँ जाऊं। कौन मुझे लेगा।” मैं बहुत क्षुब्ध था। हिन्दुओं के होटल थे जिन्हें विशीस कहते थे, मैं जानता था। वे मुझे जगह देंगे नहीं। उनमें जगह लेने का मात्र रास्ता अपने आपको हिन्दू बताना था। लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं था क्योंकि मैं जानता था कि मेरी असलियत का पता लग गया, जो लगना ही था, तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे। बड़ौदा में मेरे मित्र थे, जो अमरीका में पढ़ने के लिए आए हुए थे। “यदि मैं वहां जाऊं तो क्या वे मेरा स्वागत करेंगे?” मैं अपने को आश्वस्त नहीं कर सका। वे अपने घर में एक अछूत को जगह देकर लज्जित महसूस कर सकते हैं। मैं स्टेशन की छत के नीचे कुछ समय खड़ा सोचता रहा, कहाँ जाऊँ, क्या करूँ। तब मेरे दिमाग में यह बात आई कि मैं पूछूं कि शिविर में कोई जगह है। तब तक सभी यात्री जा चुके थे। मैं अकेला रह गया था। कुछ टांगे वाले, जिनको कोई सवारी नहीं मिली थी, मेरी ओर देख रहे थे और मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने उनमें से एक को बुलाया और उससे पूछा कि क्या वह जानता है कि शिविर में कोई होटल है। उसने कहा कि एक पारसी की सराय है और वे पेईंग गैस्ट रखते हैं। यह सुनकर कि वहाँ एक सराय है जो पारसी चलाते हैं मेरा हृदय प्रफुल्लित हुआ। पारसी ज़ारोष्ट्रियन धर्म को मानते हैं। वहां मुझे इस बात का कोई डर नहीं था कि वे मेरे साथ अछूतों जैसा व्यवहार करेंगे क्योंकि उनका धर्म छुआछूत नहीं मानता। प्रसन्नचित्त और आशा तथा खुले दिमाग से निडर होकर मैंने अपना सामान ताँगे में रखा और ताँगेवाले को शिविर की ओर पारसी सराय में चलने के लिए कहा।

सराय दो मंजिला इमारत थी जिसके भूतल पर एक बूढ़ा पारसी अपने परिवार के साथ रहता था। वह देखभाल करने वाला था और जो लोग वहाँ ठहरने के लिए आते थे उनको भोजन देता था। ताँगा वहाँ पहुँचा तो पारसी रखवाला मुझे ऊपर ले गया। मैं ऊपर चला गया और ताँगेवाला चालक मेरा सामान ऊपर ले गया। मैंने उसे पैसे दिए और वह चला गया। मैं प्रसन्न हुआ कि अन्ततः मैंने अपने ठहरने के लिए जगह ढूँढने की समस्या हल कर ली है। मैं कपड़े उतार रहा था क्योंकि मैं आराम करना चाहता था। इस बीच सराय का रखवाला अपने हाथ में एक किताब लेकर आया। चूँकि मैं अर्धनग्न अवस्था में था उसने देख लिया है कि मैंने सदरा या कास्ती जो पारसी पहनते हैं नहीं पहने हुए था। यह देखते ही उसने तेज आवाज में पूछा कि मैं कौन हूँ? यह जानते हुए कि यह सराय पारसी सम्प्रदाय द्वारा केवल पारसियों के लिए चलाई जा रही है, मैंने उससे कहा कि मैं हिन्दू हूँ। यह जानकर वह स्तब्ध रह गया और कहने लगा कि मैं सराय में नहीं ठहर सकता। उसके व्यवहार से मुझे बड़ा धक्का लगा ओर मैं ठण्डा पड़ गया। मेरे मन में फिर प्रश्न आया कि कहाँ जाऊँ? अपने को सँभालते हुए मैंने उसे बताया कि मैं हिन्दू हूँ मुझे यहाँ ठहरने में कोई आपत्ति नहीं है यदि उसे कोई आपत्ति न हो। उसने उत्तर दिया, “तुम कैसे रह सकते हो। मुझे उन सबका रजिस्टर में नाम लिखना होता है जो यहाँ ठहरते हैं।” मुझे उसकी समस्या समझ में आई। मैंने कहा कि मैं रजिस्टर में लिखने के लिए कोई पारसी नाम रख लेता हूँ। “यदि मुझे कोई एतराज नहीं है तो तुम क्यों एतराज करते हो। तुम्हें कोई हानि नहीं होगी, यदि मैं यहाँ ठहरता हूं, तो तुम्हें कुछ कमाई होगी।” मैं समझ गया कि वह मुझे रखने के लिए तैयार है। स्पष्ट है कि उसके पास काफी समय से कोई पर्यटक नहीं आया था और हव थोड़ा पैसा कमाने का अवसर खोना नहीं चाहता था। वह इस शर्त पर राजी हो गया कि मैं डेढ़ रुपया प्रतिदिन ठहरने के लिए दूँगा और उसके रजिस्टर में अपना कोई पारसी नाम लिखूँगा। वह नीचे चला गया और मैंने चैन की सांस ली। समस्या सुलझ गई थी और मैं प्रसन्न हुआ। लेकिन खेद है कि मेरी वह खुशी ज्यादा देर नहीं चली। लेकिन इससे पहले कि मैं उस समय में अपने निवास के दुःखद अंत का बयान करूँ, मैं यह अवश्य बताऊँगा कि मैं जो थोड़ा समय वहाँ रहा वह मैंने कैसे बिताया।

सराय की पहली मंजिल पर एक छोटा-सा शयन-कक्ष था और इसके साथ एक छोटा-सा गुसलखाना था जिसमें एक पानी का नल था। इसके अतिरिक्त एक बड़ा कमरा था। जिस समय मैं वहाँ ठहरा हुआ था बड़े हॉल में इस प्रकार के कूड़े-करकट, तख्तों, बेंचों, टूटी कुर्सियों इत्यादि से भरा हुआ था। इसके बीच में मैं अकेला था। प्रातः सराय का रखवाला ऊपर कप में चाय लेकर आया। इसके बाद वह फिर 9:30 बजे मेरा नाश्ता या सवेरे का खाना लेकर आया। तीसरी बार वह रात 8:30 को मेरा खाना लेकर आया। सराय का रखवाला मेरे पास तभी आता था जब बहुत आवश्यक होता था। और वह जब भी आया, मेरे से बात करने के लिए नहीं रुका। किसी प्रकार दिन बीत गया।

बड़ौदा के महाराजा ने मुझे महालेखापाल के कार्यालय में प्रोवेशनर नियुक्त किया था। मैं प्रातः करीब 10 बजे कार्यालय के लिए सराय से जाता था और शाम को देर से आठ बजे लौटता था और अधिक से अधिक समय अपने मित्रों के साथ सराय से बाहर बिताता था। रात बिताने के लिए लौटने का ख़याल मन में आने पर मैं भयभीत हो जाता था और सराय में केवल इसलिए आता था कि मरे पास आराम करने के लिए कोई दूसरा स्थान नहीं था। सराय की पहली मंज़िल पर बड़े कमरे में कोई दूसरा मनुष्य नहीं था जिससे मैं बात कर सकूँ। मैं बिल्कुल अकेला था। पूरे हॉल में अंधेरा रहता था। अंधेरा दूर करने के लिए वहाँ न बिजली की रोशनी थी और न ही कोई दीपक ही था। रखवाला मेरे प्रयोग के लिए एक छोटा-सा लालटेन लेकर आता था। उसकी रोशनी कुछ इंचों से आगे नहीं जा सकती थी। लेकिन मैंने महसूस किया कि मैं काल-कोठरी में हूं और बात करने के लिए किसी व्यक्ति का साथ चाहता था। किन्तु वहाँ कोई नहीं था। किसी व्यक्ति के साथ के अभाव में पुस्तकें मेरी साथी थीं। उनको पढ़ता ही रहता था। पढ़ने में तल्लीन होने के कारण मैं अपना अकेलापन भूल गया। लेकिन चमगादड़ों की चींचीं और उनके उड़ने से, जिन्होंने हॉल को अपना घर बना रखा था, मेरा ध्यान प्रायः भंग हो जाता था और मैं काँपने लगता था और भूलने का प्रयास करने के बावजूद मुझे याद आने लगता था कि मैं विचित्र परिस्थितियों में विचित्र स्थान पर हूँ। कई बार मुझे गुस्सा भी आया लेकिन मैंने अपने दुःख और गुस्से को यह सोचकर दबा लिया कि यद्यपि यह काल कोठरी है, फिर भी सिर छिपाने की जगह है और कोई जगह न होने से कुछ जगह होना बेहतर है। मेरी दशा हृदय-विदारक थी। जब बम्बई से मेरा भान्जा मेरा बचा हुआ सामान लेकर आया, और जब उसने मेरी हालत देखी तो इतना जोर से चिल्लाने लगा कि मुझे उसे तुरंत वापस भेजना पड़ा। मैं इस हालत में पारसी-सराय में पारसी बनकर रहता था। मैं जानता था कि मैं नाम बदलकर बहुत समय तक नहीं रह सकता और एक दिन मेरी पोल खुल जाएगी। इसलिए मैं ठहरने के लिए सरकारी बंगला लेने का प्रयास कर रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री ने मेरी अर्जी पर जल्दी गौर नहीं किया, जैसा कि मैं चाहता था। मेरी अर्जी एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी को भेजी गई और इससे पहले कि मुझे अन्तिम उत्तर मिलता, मेरी कयामत का दिन आ गया।

सराय में ठहरने का मेरा ग्यारहवाँ दिन था। मैंने प्रातः का खाना खा लिया था और कपड़े पहन लिए थे और कार्यालय जाने के लिए अपने कमरे से निकलने वाला था। जैसे ही मैं कुछ किताबें पुस्तकालय को लौटाने के लिए उठा रहा था जो मैंने रात को पढ़ने के लिए पुस्तकालय से ली थीं, मुझे ऊपर आते हुए बहुत-से लोगों की पगध्वनि सुनाई दी। मैंने सोचा कि कुछ पर्यटक ठहरने के लिए आए हैं और इसलिए मैं बाहर देख रहा था कि वे कौन हैं, तभी मैंने देखा कि एक दर्जन नाराज दिखाई देने वाले लम्बे तगड़े, जो एक-एक लाठी उठाए हुए थे, मेरे कमरे की ओर आ रहे हैं। मैं समझ गया कि वे साथी पर्यटक नहीं हैं और उन्होंने इसका सबूत तुरन्त दे दिया। वे मेरे कमरे के सामने पंक्ति में खड़े हो गए और प्रश्नों की बौछार शुरू कर दी। “तुम गन्दे हो। तुम यहाँ क्यों आए? तुमने पारसी नाम रखने का साहस कैसे किया? तुम गुण्डे! तुमने पारसी सराय को प्रदूषित किया है। मैं चुपचाप खड़ा रहा, कोई उत्तर नहीं दे सका। मैं यह भी नहीं कह सकता था कि मैं पारसी ही हूं। वास्तव में यह धोखा था और धोखा खुल गया और मुझे विश्वास है कि यदि मैं अपने आपको पारसी बताता रहता, तो कुछ और धर्मान्ध पारसियों की भीड़ ने मेरी पिटाई कर दी होती और संभवतः मार ही दिया होता। मेरी नम्रता और मेरी चुप्पी ने इस दुर्भाग्य को टाल दिया। उनमें से एक ने पूछा कि कमरा कब खाली करने का मेरा इरादा है। उस समय मेरे लिए सिर छिपाने की जगह मेरे लिए मेरे जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण थी। इस प्रश्न में की गई धमकी बहुत बड़ी थी। अतः मैंने अपनी चुप्पी तोड़ी और निवेदन किया कि वे मुझे कम से कम एक सप्ताह और रहने दें क्योंकि मेरा विचार था कि मैंने मंत्री को बंगले के लिए जो अर्जी दी हुई थी उस पर इस बीच में मेरे पक्ष में फैसला हो जाएगा। लेकिन पारसी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अन्तिम निर्णय दे दिया। उन्होंने मुझे शाम तक सराय से चले जाने के लिए कह दिया। उन्होंने गम्भीर परिणामों की धमकी दी और चले गए। मैं असमंजस में था। मेरा हृदय अन्दर ही अन्दर बैठ रहा था। मैंने सबको कोसा और फूट-फूट कर रोया। अन्ततः मुझे उस सिर छिपाने की जगह से, जो मेरे लिए बड़ी कीमती थी, वंचित कर दिया गया। यह एक कैदी की कोठरी से अच्छी जगह नहीं थी। लेकिन यह मेरे लिए बहुत कीमती थी।

पारसियों के चले जाने के बाद मैं कुछ देर तक बेठा कोई रास्ता ढूंढने के बारे में सोचता रहा। मुझे आशा थी कि शीघ्र ही सरकारी बंगला मिल जाएगा और मेरी तकलीफें दूर हो जाएंगी। मेरी समस्या अस्थाई समस्या थी और मैंने सोचा कि दोस्तों के यहां जाना अच्छा होगा। बड़ौदा राज्य के अछूतों में मेरा कोई मित्र नहीं था। लेकिन दूसरे वर्गों में मेरे मित्र थे। एक हिन्दू था, दूसरा एक भारतीय ईसाई था। मैं पहले अपने हिन्दू मित्र के यहां गया और जो कुछ मेरे साथ हुआ सब कह सुनाया। वह अच्छा व्यक्ति था और मेरा व्यक्तिगत मित्र था। वह दुःखी और गुस्से में भी था। फिर भी उसने एक विचार रखा। उसने कहा, “यदि तुम मेरे घर में आते हो तो मेरे नौकर चले जाएंगे।” मैं इशारा समझ गया ओर मैंने जगह देने के लिए उस पर दबाव नहीं डाला। मैंने भारतीय ईसाई मित्र के पास जाना पसंद नहीं किया। एक बार उसने अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन मैंने पारसी सराय में ठहरना अच्छा समझ मना कर दिया था। मेरा कारण यह था कि उसकी आदतें मेरे अनुकूल नहीं थीं अब वहाँ जाने का अर्थ दो-टूक जवाब सुनना था। इसलिए मैं अपने कार्यालय चला गया। लेकिन मैं ठहरने का स्थान पाने का विचार छोड़ नहीं सका। अपने एक मित्र की सलाह पर मैंने उसके पास जाने और उससे पूछने का फैसला किया कि क्या वह मुझे अपने पास जगह देगा। मेरे पूछने पर उसने उत्तर दिया कि कल उसकी पत्नी बड़ौदा आ रही है और वह उससे बात करेगा। बाद में मुझे पता चला कि यह बहुत ही व्यवहार-कुशल उत्तर था। वह और उसकी पत्नी मूल रूप से ऐसे परिवार से थे जो जाति के ब्राह्मण थे और ईसाई बनने के बाद पति के विचार तो उदार हो गए थे लेकिन पत्नी रूढ़िवादी रही और वह एक अछूत को अपने घर में रखने के लिए कभी तैयार न हुई होती। इस प्रकार आशा की अन्तिम किरण भी जाती रही। जब मैं अपने भारतीय ईसाई मित्र के घर से चला तो शाम के 4 बजे थे। मेरे सामने सबसे बड़ा प्रश्न था, कि कहाँ जाऊँ। मुझे सराय अवश्य छोड़नी थी और मेरा ऐसा कोई मित्र नहीं जिसके पास जाता। केवल एक ही रास्ता बचा था कि बम्बई चला जाऊँ।

बम्बई के लिए रेल रात को 9 बजे चलती थी। मुझे पाँच घंटे बिताने थे उनको मैं कहाँ बिताऊँ? क्या मैं सराय में जाऊँ? मैं सराय में जाने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मुझे डर था कि कहीं पारसी वहाँ आकर मुझ पर हमला न कर दें। मैं अपने मित्र के पास नहीं जाना चाहता था। यद्यपि मेरी दशा दयनीय थी, मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे ऊपर तरस खाए। मैंने कामथी-बाग नामक सार्वजनिक उद्यान में पांच घंटे बिताने का निश्चय किया। यह उद्यान शहर और शिविर से लगा हुआ है। मेंने वहाँ कुछ समय खाली बैठकर बिताया। मैंने कुछ समय, जो कुछ मेरे साथ हुआ, उस पर दुःख करने में बिताए और कुछ समय मां-बाप के बारे में सोचने में बिता दिए जैसे बच्चे असहाय होने पर करते हैं। मैं शाम के 8 बजे बगीचे के बाहर आया। एक ताँगे में सराय गया। सराय में ऊपर से अपना सामान नीचे ले आया। सराय का रखवाला बाहर आया लेकिन न मैं और न ही वह एक दूसरे से कुछ कह सके। उसने महसूस किया कि वह किसी न किसी प्रकार से उसे परेशानी में डालने के लिए जिम्मेवार था। मैंने उसका पैसा चुकाया। उसने चुपचाप ले लिया और चला गया। मैं बड़ी आशा के साथ बड़ौदा गया था। मैंने कई प्रस्ताव छोड़ दिए थे। वह लड़ाई का समय था। भारतीय शिक्षा-सेवा में कई स्थान रिक्त थे। मैं लन्दन में कई प्रभावशाली व्यक्तियों को जानता था लेकिन मैं किसी को तलाश नहीं पाया। मैंने सोचा कि मेरा पहला कर्त्तव्य बड़ौदा के महाराजा को अपनी सेवाएं अर्पित करना है जिसने मेरी पढ़ाई का खर्च उठाया था। लेकिन मुझे केवल ग्यारह दिन ठहरने के बाद बड़ौदा छोड़ना पड़ा और बम्बई वापस आना पड़ा। लाठियों से लैस भीति की तरह मेरे सामने खड़े एक दर्जन पाारसी और उनके सामने दया की भीख मांगते हुए मेरे भयभीत खड़े होने का दृश्य 18 वर्ष की लम्बी अवधि के पश्चात् भी मेरी दृष्टि से विलीन नहीं हुआ है। मुझे अब भी वह दृश्य बड़ी अच्छी तरह याद है और मुझे अब भी जब उसकी याद आती है तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। उस समय मुझे पहली बार मालूम हुआ कि एक व्यक्ति, जो एक हिन्दू के लिए अछूत है, वह एक पारसी के लिए भी अछूत है।