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सोलहवीं पहेली – चातुर्वर्ण्ये -क्या ब्राह्मण उनकी उत्पत्ति से परिचित हैं

प्रत्येक हिंदू का यह मूल विश्वास है कि हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था दैवीय है। इस दैवीय व्यवस्था के तीन आधार हैं। प्रथम, समाज चार वर्णों में विभक्त है- 1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य और 4. शूद्र। द्वितीय, चारों वर्णों की स्थिति एक-दूसरे से जुड़ी है। उसमें चरण-दर-चरण असमानता है। ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि है। क्षत्रिय ब्राह्मणों के नीचे हैं, परन्तु वैश्यों और शूद्रों से ऊपर हैं। वैश्य ब्राह्मणों और क्षत्रियों से नीचे हैं, परन्तु शूद्रों से ऊपर हैं। शूद्र सबसे नीचे हैं। तृतीय, चारों वर्णों का व्यवसाय निश्चित है। ब्राह्मणों का व्यवसाय अध्ययन-अध्यापन है, क्षत्रियों का कार्य लड़ना है। वैश्यों का कार्य व्यापार है और शूद्रों का शारीरिक श्रम से तीनों वर्णों की सेवा करना है। यह हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था कहलाती है। यह हिंदूधर्म की आत्मा है। वर्ण-व्यवस्था को छोड़कर हिन्दुओं में ऐसा कुछ नहीं है, जिसमें वे अन्य धर्मों से भिन्न हों। इस कारण यह आवश्यक है कि इस बात का विवेचन किया जाए कि वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन कैसे हुआ?

इसकी उत्पत्ति की व्याख्या के लिए हमें हिन्दुओं के प्राचीन शास्त्रों का मंथन करना होगा कि वे इस विषय में क्या कहते हैं?

I

यह अच्छा होगा कि सर्वप्रथम वेदों के विचारों को देखा जाए। इस विषय पर ऋग्वेद के दसवें मण्डल के नब्बेवें श्लोक में इस प्रकार कहा गया हैः

  1. “पुरुष के एक सहस्त्र शीश हैं, एक सहस्त्र चक्षु, एक सहस्त्र चरण। वह पृथ्वी पर सर्वत्र परिपूर्ण व्यापक है। उसने दस अंगुलियों से हर छोर से समस्त भूमंडल को आच्छादित कर रखा है।” “पुरुष स्वयं सम्पूर्ण (ब्रह्मांड) है जो वर्तमान है। (जो

यह 33 पृष्ठों का टंकित आलेख है। संशोधन लेखक ने स्वयं किए हैं। सभी पृष्ठ अलग-अलग थे और टैग से बंधे थे। शीर्ष पृष्ठ लेखक ने हाथ से लिखा है। – संपादक

भावी है) वह अमरता का स्वामी है, भोजन से उसका विस्तार होता है। 3. उसकी महानता ऐसी है और पुरुष सर्वश्रेष्ठ है। सारी सृष्टि उसका क्षेत्र है और उसका तीन चौथाई अविनाशी अंश अंतरिक्ष में है। 4. पुरुष का तीन चौथाई अंश उर्ध्व है, उसका एक चौथाई अंश यहां पुनः विद्यमान है, फिर उसका सर्वत्र विलय हो गया। उन सभी पदार्थों में जो भक्षण करते हैं और भक्षण नहीं करते। 5. उससे विराज उत्पन्न हुआ और विराज से पुरुष। जन्म लेते ही वह धरती से आगे बढ़ गया, आगे भी और पीछे भी। 6. जब देवी ने पुरुष की आहुति से यज्ञ किया, वसंत उसका घी था, ग्रीष्म लकड़ी और शरद समिधा। 7. यह बलि पुरुष जो सर्वप्रथम जन्मा, उन्होंने बलि घास पर जला दिया। उसके साथ देवताओं, साध्यों और ऋषियों ने आहुति दी। 8. इस ब्रह्मांड यज्ञ से दही और मक्खन उपलब्ध हुए। इससे वे नभचर और थलचर बने जो वन्य और पालतू हैं। 9. ब्रह्मांड यज्ञ से ऋग्वेद और सामवेद की ऋचाएं निकलीं, छंद और यजुस निकले। 10. उससे अश्व जन्मे और दोनों जबड़ों वाले सभी पशु जन्मे, मवेशी जन्मे और उसी से अजा मेष जन्मे। 11. जब (देवों के) पुरुष को कितने भागों में काटकर विभाजित कर दिया। उसका मुख क्या था? उसकी कितनी भुजाएं थीं? (कौन से दो तत्व) उसकी जंघाएं और चरण बताई गई हैं। 12. ब्राह्मण उसका मुख था, राजन्य उसकी भुजाएं बनीं, जो वैश्य (बना) वह उसकी जंघाएं थीं, शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए। 13. उसकी आत्मा (मानस) से चन्द्रमा, उसके चक्षु से सूर्य, उसके मुख से इन्द्र और अग्नि, उसके श्वास से वायु बनी। 14. उसकी नाभि से मारुत बना, उसके शीर्ष से आकाश बना, उसके चरणों से धरती उसके कर्ण से दिशाएं और इस प्रकार विश्व बना। 15. जब देवता यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने पुरुष को एक बलि-जीव के रूप में बांधा। इसके लिए सात छड़ियों की, सात टुकड़ों की समिधा चढ़ाई गई। 16. इस यज्ञ में देवताओं ने आहुति दी। ये प्रथम अनुष्ठान थे। इन शक्तियों ने आकाश से कहा पूर्व साध्य, देवतागण कहां हैं।”

इस मंत्र वृंद का सर्वविदित नाम “पुरुष सूक्त” है और यह जाति और वर्ण-व्यवस्था का शास्त्रीय सिद्धांत माना जाता है।

अन्य वेदों में इस सिद्धांत की कहां तक पुष्टि की गई है?

सामवेद के मंत्रों में पुरुष सूक्त सम्मिलित नहीं किया गया, न इसमें वर्ण-व्यवस्था की कोई अन्य व्याख्या की है।

यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं, ‘श्वेत’ और ‘कृष्ण’।

कृष्ण यजुर्वेद में तीन संहिताएं और मंत्रों का समूह है। ये हैं कठ संहिता, मैत्रयणी संहिता और तैत्तिरीय संहिता।

श्वेत यजुर्वेद में मात्र एक संहिता है – वाजसनेयी संहिता।

कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रयणी और कठ संहिताओं में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का कोई संदर्भ नहीं है, न उसमें वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति का मूल बताने का कोई प्रयास है।

कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता और श्वेत यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में वर्ण-व्यवस्था के संबंध में कुछ संकेत हैं।

वाजसनेयी संहिता में वर्ण-व्यवस्था के आरंभ के संबंध में केवल एक प्रसंग है। दूसरी ओर तैत्तिरीय संहिता में दो प्रसंग हैं। इन दोनों प्रसंगों के संदर्भ में दो बातें उल्लेखनीय हैं। प्रथम यह कि इन दोनों में रंच-मात्र भी साम्य नहीं है। वे नितांत भिन्न हैं। दूसरे यह कि एक में तो श्वेत यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता से पूर्णतः साम्यता है। तैत्तिरीय संहिता का मूल पाठ निम्न प्रकार से है जिसे स्वतंत्र व्याख्या कहा जा सकता है-

“वह (वृात्य) भावावेश से भर उठा तब राजन्य प्रकट हुआ।”

“जिसके घर यह जाने वाला वृात्य अतिथि रूप में आता है, उसे वह (राजा) स्वयं से श्रेष्ठ जानकर उसका सम्मान करें। ऐसा करके वह राजपद अथवा अपनी सत्ता पर आघात नहीं करता। उससे ब्राह्मण प्रकट हुआ और क्षत्रिय। उन्होंने कहा “हम किस में प्रवेश करें आदि”

वाजसनेयी संहिता में सम्मिलित व्याख्या जो तैत्तिरीय संहिता1 से साम्य रखती हैं, इस प्रकार हैं-

“उसने एक के साथ स्तुति की। प्राणी बने, प्रजापति राजा थे। उन्होंने तीन के साथ स्तुति की, ब्राह्मण की रचना हुई। ब्राह्मणस्पति शासक थे। उन्होंने पांच के साथ स्तुति की, विद्यमान पदार्थ उत्पन्न हुए। ब्राह्मणस्पति शासक थे। उन्होंने सात के साथ स्तुति की, सात ऋषिगण उत्पन्न हुए। धातृ शासक थे। उन्होंने नौ के साथ स्तुति की,  पितृ उत्पन्न हुए। अदिति स्वामी थे। उन्होंने ग्यारह के साथ स्तुति की, ऋतुएं उत्पन्न हुए। आर्तव स्वामी थे। उन्होंने तेरह के साथ स्तुति की, मास उत्पन्न हुए। वर्ष राजा था। उन्होंने पन्द्रह के साथ स्तुति की, क्षत्रिय उत्पन्न हुआ। इन्द्र राजा थे। उन्होंने सत्रह के साथ स्तुति की, पशु उत्पन्न हुए। बृहस्पति राजा थे। उन्होंने उन्नीस के साथ स्तुति की, शूद्र और आर्य (वैश्य) उत्पन्न हुए। दिवस और रात्रि शासक थे। उन्होंने इक्कीस के साथ स्तुति की, अविभाजित खुरधारी पशु उत्पन्न हुए। वरुण राजा थे। उन्होंने तेईस के साथ स्तुति की, लघु पशु उत्पन्न हुए। पुशान राजा थे। उन्होंने पच्चीस के साथ स्तुति की, वन्य-जीव उत्पन्न हुए। वायु राजा थे। (ऋ-वे-10-90,8) उन्होंने सत्ताईस के साथ स्तुति की, धरती और स्वर्ग विलग हुए। वसु, रुद्र और आदित्य

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  1. खण्ड, 4. प्रपाठक, 3. श्लोक 10

उनसे विलग हो गए, वे राजा थे। उन्होंने उन्तीस के साथ स्तुति की, वृक्ष उत्पन्न हुए। सोम राजा थे। उन्होंने इकत्तीस के साथ स्तुति की, प्राणी उत्पन्न हुए। मास के पक्ष राजा थे। उन्होंने इकत्तीस के साथ स्तुति की, विद्यमान पदार्थ शांत हो गए। प्रजापति परमेष्ठी राजा थे।”

यहां यह उल्लेनीय है कि न केवल ऋग्वेद और यजुर्वेद में ही असमानता है, बल्कि यजुर्वेद की दो संहिताओं में ही, वर्णों की उत्पत्ति जैसे महत्वपूर्ण विषय पर विषमता है।

अब हम अर्थर्ववेद पर आते हैं। इसमें भी दो व्याख्याएं हैं। उसमें पुरुष सूक्त सम्मिलित है। यद्यपि, जिस क्रम में ऋग्वेद के मंत्र हैं, वह वैसा नहीं है। महत्वपूर्णबात यह है कि अथर्ववेद पुरुष सूक्त से संतुष्ट नहीं है। इसकी अलग व्याख्या भी है। एक व्याख्या निम्नलिखित1 हैः

“सर्वप्रथम ब्राह्मण उत्पन्न हुआ। उसके दस सिर और दस मुख थे। उसने सर्वप्रथम सोमपान किया, उसने विष को प्रभावहीन किया।

“देवता राजन्य से भयभीत थे, जब वह गर्भ में था। उन्होंने उसे बंधन-ग्रस्त कर दिया जब वह गर्भ में था। परिणामस्वरूप, वह राजन्य बंधनयुक्त उत्पन्न हुआ। यदि वह अजन्मा निर्बंध होता तो वह अपने शत्रुओं का वध करता। राजन्य, कोई अन्य जो चाहे कि वह बंधन-मुक्त उत्पन्न हो और अपने शत्रुओं का हनन करता रहे तो उसे वे एन्द्र ब्राह्स्पत्य आहुतियां दें। राजन्य के लक्षण इन्द्र जैसे हैं और ब्राह्मण बृहस्पति है। ब्राह्मण के माध्यम से ही कोई राजन्य को बंधन-मुक्त कर सकता है। स्वर्णबंध, एक उपहार, स्पष्ट रूप से उसे बंधन से मुक्त करता है।”

एक अन्य व्याख्या, उन व्यक्तियों का उल्लेख करती है, जो मनु की संतति है, उनका निम्नांकित उद्धरण2  में उल्लेख हैः

“प्रार्थनाएं और मंत्र पहले इन्द्र की उपासना में उस उत्सव में संकलित हुए जिसे अथर्वन, पिता मनु, और दधीचि ने सुशोभित किया। फ्हे रुद्र। यज्ञ से पिता मनु ने जो सम्पदा अथवा सहायता ग्रहण की, तेरे निर्देश में हमें वही सब प्राप्त हो।”

“आपके वे पवित्र उपचार, हे मरुत। वे जो बहुत मांगलिक हैं, हे शक्तिशाली देव। वे जो बहुत लाभप्रद हैं, जिनको हमारे पिता मनु ने पसंद किया है, रुद्र के वे वरदान और सहायता, हमें प्राप्त हों।”

“जो प्राचीन मित्र दैवी शक्ति से सम्पन्न था। पिता मनु ने उसके प्रति देवों की सफलता के प्रवेश द्वार की भांति मंत्र रचे थे।”

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृष्ठ 21-22
  2. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृष्ठ 162-65

“यज्ञ मनु हैं, हमारे पालक पिता”

“देवों, तुमने हमें उत्पन्न किया, पोषित किया और हमारे प्रति अनुग्रह किया;हमें पिता मनु के मार्ग से विचलित न करो।”

“वह (अग्नि) जो मनु की संतति के बीच देवताओं के उद्बोधक स्वरूप निवास करता है, वह इनका भी स्वामी है।”

“अग्नि, देवताओं सहित और मनु की संतान सहित मंत्रोच्चार से विविध यज्ञ कर रहे हैं, आदि “तुम देवों, वज और ऋभुगण जैसे देवों को प्रसन्न करते हो। मानुष की संतति के बीच शुभ दिन देवताओं के मार्ग से हमारे यज्ञ में आओ।”

“मनुष-जन ने यज्ञ में अग्नि उद्बोधक की स्तुति की।”

“मनुष्यों के स्वामी अग्नि ने जब भी कृतज्ञ मानुष-जन के आवास को प्रदीप्त किया, उसने राक्षस जन को मार भगाया।”

इस संदर्भ में स्थिति के निरूपण के लिए एक क्षण रुक कर विचार करते हुए यह बात बिल्कुल स्पष्ट होती है कि चार वर्णों की उत्पत्ति के विषय में वेदों में कोई सर्वसम्मति नहीं है। किसी अन्य वेद ने ऋग्वेद की पुष्टि नहीं की है कि ब्राह्मण प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जंघाओं से और शूद्र पैरों से।

II

अब हम ब्राह्मण साहित्य पर आएं और देखें कि इस प्रश्न पर वे क्या कहते हैं?

शतपथ ब्राह्मण की व्याख्या इस प्रकार हैः1

“प्रजापति ने” ‘‘भू” जपते हुए यह पृथ्वी बनाई, “भुवः” के साथ वायु बनाई, “स्वाहा” के साथ आकाश बनाया। ब्रह्मांड का इस संसार से सह-अस्तित्व है। अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। ‘‘भू” कहकर प्रजापति ने ब्राह्मण उत्पन्न किया, “भुवः” से क्षत्रिय, “स्वाहा” से विस बनाया। अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। भू कहकर प्रजापति ने स्वयं को उत्पन्न किया, भुवः कहकर संतति रची। “स्वाहा” से पशु उत्पन्न हुए। यह विश्व स्व, संतति और पशु है, अग्नि सर्वत्र व्याप्त है।”

शतपथ ब्राह्मण की एक अन्य व्याख्या2  है। यह निम्नांकित हैः

‘‘भाष्यकार के अनुसार यहां ब्रह्मा अग्नि रूप में विद्यमान थे। जिसमें ब्राह्मण वर्ण का रूप है। पहले यह एक मात्र (ब्रह्मांड) थे। एक रहते उनकी वृद्धि नहीं हुई। उन्होंने शक्ति से एक श्रेष्ठ क्षात्र (क्षेत्र) उत्पन्न किया अर्थात् देवताओं में वे जिनमें

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृष्ठ 17
  2. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृष्ठ 20

शक्ति है (क्षत्रणि), इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, परजन्य, यम, मृत्यु, ईशान। इस प्रकार क्षात्र से श्रेष्ठ कोई नहीं। इसलिए ब्राह्मण राजसूय यज्ञ में क्षत्रिय से नीचे बैठते हैं। वह क्षत्रिय की गरिमा स्वीकार करता है। ब्रह्मा, क्षत्रिय का उदगम है। इस प्रकार, यद्यपि राजा की श्रेष्ठता है अंत में वह उद्गम हेतु ब्राह्मण के आश्रय में जाता है। वह अति दयनीय बन जाता है। उसी के समान जिसकी श्रेष्ठता आहत होती है। 24. उसका विस्तार नहीं हुआ। उसने विस् उत्पन्न किया। देवताओं की इस श्रेणी में वसु, रुद्र, आदित्य, विश्वदेव, मारुत आते हैं। 25. उसकी वृद्धि नहीं हुई। उसने शूद्र-वर्ण पूशान उत्पन्न किया। यह पृथ्वी पूशान है। सो वह सभी का पोषण करती है। 26. उसकी वृद्धि नहीं हुई, उसने शक्ति से एक विलक्षण रूप उत्पन्न किया। न्याय (धर्म) यह शासक है (क्षात्र) अर्थात् न्याय। इस प्रकार न्याय से श्रेष्ठ कुछ नहीं। इसलिए निर्बल बलवान से त्राण  को न्याय मांगता है, जैसे एक राजा से। यह न्याय सत्य है। परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्ति के विषय में, वे कहते हैं- “यह सत्य बोलता है, क्योंकि उसमें दोनों गुण हैं।” 27. यह ब्रह्म, क्षात्र, विस् और शूद्र हैं। अग्नि के माध्यम से देवताओं में वह ब्रह्मा बन जाता है, मनुष्यों में ब्राह्मण। (दैवी), क्षत्रिय के माध्यम से (मनुष्य) एक क्षत्रिय, (दैवी) वैश्य से एक (मनुष्य) वैश्य, (दैवी), शूद्र के माध्यम से एक (मनुष्य) शूद्र बनता है। अब वह देवों में अग्नि और मनुष्यों में ब्राह्मण है, और वे वास के इच्छुक हैं।”

तैत्तिरीय ब्राह्मण में तीन व्याख्याएं हैं। प्रथम इस प्रकार हैः1

यह समस्त (ब्रह्मांड) ब्रह्मा द्वारा रचित है। मनुष्य कहते हैं कि वैश्य ऋक, ऋचाओं से बना है। वे कहते हैं यजुर्वेद के गर्भ से क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है। सामवेद से ब्राह्मण प्रकट हुआ। यह शब्द प्राचीन है, घोषित प्राचीन।

दूसरी कहती हैः2

‘‘ब्राह्मण, वर्ण देवों से प्रकट हुआ, शूद्र असुरों से”

तीसरी इस प्रकार हैः3

‘‘वह शुष्क भोजन से स्वेच्छा से दुग्ध की आहुति दे। शूद्र दुग्ध की आहुति न दें क्योंकि शूद्र शून्य से जन्मा है। वे कहते हैं कि जब शूद्र दूध चढ़ाता है, वह आहुति नहीं है। शूद्र अग्निहोत्र में दूध से आहुति न दे क्योंकि वे इसे शुद्ध नहीं करते। जब उसे छान लिया जाये, तब वह आहुति है।”

अब ब्राह्मणों के साक्ष्य को देखें;वे पुरुष सूक्त का कहां तक अनुमोदन करते हैं? उनमें से कोई नहीं करता।

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृष्ठ 17
  2. वही, पृ. 21
  3. वही, पृ. 21

III

अगली बात यह देखनी है कि वर्ण-व्यवस्था के संबंध में स्मृतियों की क्या व्याख्या है। उसका ज्ञान आवश्यक है। मनु ने इस संबंध में कहा है1:

“उस (स्वयंभू) ने इच्छा करके और अपनी देह से विभिन्न जीवों की रचना के मनोरथ से पहले सागर की सृष्टि की और उसमें एक बीज छोड़ दिया। 9. यह बीज एक स्वर्णिम अंडज बन गया। सूर्य के आकार का;उससे वह स्वयं ब्रह्मा बनकर उत्पन्न हुए, सारे संसार का जनक। 10. जलधि नाराः कहलाया क्योंकि वह नर से उत्पन्न हुआ था और क्योंकि यह उनकी प्रथम क्रिया थी, इसलिए वे नारायण जाने जाते हैं। 11.वे अजर अगोचर, विद्यमान और अविद्यमान कर्ता पुरुष से उत्पन्न हुए, इसलिए जगत में ब्रह्मा कहलाए। 12.एक वर्ष तक अंडज में रहकर महिमामय पुरुष अपनी ध्यानावस्था से युग्म बन गए।”

‘‘कि विश्व में प्राण प्रतिष्ठा हो, उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्य और शूद्रों की रचना की जो उनके मुख, भुजाओं, जंघाओं और चरणों से उत्पन्न हुए। 32. अपनी देह को दो भागों में विभक्त कर परमात्मा (ब्रह्मा) एक अंग पुरुष और दूसरा अंग नारी बन गया उसमें उन्होंने विराज की सृष्टि की। 33. हे श्रेष्ठ द्विजो, जानो कि मैं ही वह पुरुष विराज स्वयं समस्त संसार का रचयिता हूं। 34. प्राणियों की उत्पत्ति हेतु मैंने कठोर उपासना की और सर्वप्रथम दस महर्षि, महान ऋषि, जीवों के स्वामी बनाए। 35. यथा मरीचि, अत्रि, आंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेतस, वशिष्ठ, भृगु और नारद की रचना की। 36. उन्हें महान शक्ति प्रदान की, सात अन्य मनु, देवता और देवियां और अपार शक्तिमान महर्षि उत्पन्न किए। 37.यक्ष, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, अप्सरा, असुर, नाग, सरिसृप, विशाल पक्षी, और भिन्न-भिन्न पितर, 38. बिजली, गगन गर्जन, मेघ, शकुन अपशकुनकारी ध्वनियां, धूम्रकेतु और विभिन्न-विभिन्न तारागण, 39. किन्नर, कपि, मीन, विविध पक्षी, पशु, मृग, मानव, वन्य पशु और दो जबड़ों वाले पशु। 40. विशाल और लघु आकार के रेंगने वाले जीव मुख, जुएं, मक्खियां, पिस्सू, डांस, वन मक्खी, और विविध अचर पदार्थ 41. इस प्रकार अपने प्रयत्नों और अपने तपोबल से प्रत्येक जीव के पूर्व कर्मों के अनुसार समस्त चर-अचर जगत का सृजन किया।”

मनु ने अपनी ‘स्मृति’ में उन आधारभूत कारणों के विषय में एक अन्य मत प्रकट किया है, जिनके परिणामस्वरूप मनुष्यों को चार श्रेणियों2 में विभाजित किया गया हैः

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृ. 36-37
  2. वही, पृष्ठ. 41

“अब मैं संक्षेप में बताता हूं कि किस क्रम से अपने गुणानुसार आत्माएं अपनी स्थिति को पहुंचती हैं। 40. सत्व सम्पन्न आत्माएं देवता बन जाती हैं, रजोगुणयुक्त मनुष्य बनते हैं, जबकि तमोगुण वाली वन्य-जंतु होती हैं- यह तीन गतियां हैं। 43. हाथी, अश्व, शूद्र और प्रताणनीय म्लेच्छ, सिंह, बाघ और सूकर की मध्यम अंधकार स्थिति को प्राप्त होते हैं। 46. राजा, क्षत्रिय, राज पुरोहित और वे व्यक्ति जिनका मुख्य व्यवसाय वाद-प्रतिवाद है वे दुर्वासना की मध्य स्थिति को प्राप्त होते हैं। 48. भक्त, तापस, ब्राह्मण, विमानारूढ़ देवतागण, तारामंडल, दैत्यों में न्यूनतम सदगुणी होते हैं। 49. अग्निहोत्री, ऋषि, देवतागण, वेद, दिव्य ज्योर्तिपुंज, वर्ष, पितृगण, साध्यगण द्वितीय प्रकार के सदगुण युक्त होते हैं। 50. स्रष्टा ब्रह्मा, सदाचारिता, जो महान् (महत्) है, जो अव्यक्त है, उसमें सर्वाधिक सद्गुण विद्यमान होते हैं।”

हां, मनु ऋग्वेद को मान्यता प्रदान करते हैं परन्तु उनके विचारों की तुलना करना व्यर्थ है। उसमें, मौलिकता का अभाव है। वह ऋग्वेद के ही अनुगामी हैं।

IV

यह अच्छा रहेगा कि हम रामायण और महाभारत से इस मत की तुलना करें।

रामायण का कथन है कि चारों वर्ण, मनु की संतान हैं, दक्ष की पुत्री और कश्यप1 भार्या।

“सुनो, मैं तुम्हें बताता हूं। सर्वप्रथम प्रजापतियों ने प्रारंभ किया जो सबसे पूर्व समय में जन्मे थे। सर्वप्रथम कर्दम थे, फिर वोकृत, शेष, समस्रेय, शक्तिमान बहुपुत्र, स्थाणु,मरीचि, अत्रि, प्रबल क्रतु, पुलस्त्य, आंगिरस, प्रचेतस, पुलह, दक्ष, फिर वैवस्वत, अरिष्टनेमी और गौरवमूर्ति कश्यप जो अंतिम थे। दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएं बताई जाती हैं। उनमें से अदिति, दिति, दनु, कालिका, ताम्र, क्रोध, मनु और अनला इन आठ सुन्दर कन्याओं का विवाह कश्यप से हुआ। प्रसन्न होकर कश्यप ने कहा- “तुम मेरे समान पुत्र उत्पन्न करो, तीनों लोकों का पोषण करो। अदिति, दित्ति, दनु, और कालिका तत्पर हो गईं किन्तु अन्य तैयार न हुईं। अदिति से तैंतीस देवता उत्पन्न हुए। आदित्य, वसु, रुद्र और दो अश्विनी पुत्र। कश्यप पत्नी मनु से मनुष्य जन्मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मण का जन्म मुख से हुआ, क्षत्रिय का वक्ष से, वैश्य जंघाओं से, शूद्र चरणों से जन्मे। ऐसा वेद कहते हैं। अनला से शुद्ध फलों वाले वृक्ष उत्पन्न हुए।” आश्चर्य! नितात आश्चर्य कि वाल्मीकि ने चार वर्णों की रचना प्रजापति के स्थान पर कश्यप से बताई। स्पष्ट है कि उनका ज्ञान सुनी-सुनाई बातों तक सीमित था। यह स्पष्ट है कि उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि वेद क्या कहते हैं।

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृ. 116-117

अब महाभारत चार स्थानों पर चार भिन्न-भिन्न व्याख्याएं देता है। प्रथम इस प्रकार हैः

“महान् ऋषियों की भांति भव्यता से जन्मे प्रचेता के दस पुत्र गुणवान और पवित्र प्रतिष्ठित हुए और उनसे पूर्ण गौरवशाली प्राणी उनके मुख से प्रज्ज्वलित होने वाली अग्नि से स्वाहा हो गए। उनसे दक्ष प्रचेतस जन्मे और विश्व के जनक दक्ष से ये जगत। विरनी के सहवास से मुनि दक्ष को अपने समान एक सहस्र पुत्र पुत्र प्राप्त हुए जिन्हें नारद ने मोक्ष का मार्ग बताया और सांख्य का अनुपम ज्ञान दिया। संतति वृद्धि के मनोरथ से दक्ष प्रजापति ने पचास पुत्रियां उत्पन्न कीं। उनमें से दस धर्म को दे दीं। तेरह कश्यप को, सत्ताइस काल नियंता इन्दु (सोम) को …… अपनी तेरह में से सर्वश्रेष्ठ पत्नी दक्षयानि से मारीचि पुत्र कश्यप को इन्द्र के पश्चात् अपनी शक्ति में अद्वितीय आदित्य तथा वैवस्वत प्राप्त हुए। वैवस्वत से शक्तिमान पुत्र यम वैवस्वत उत्पन्न हुआ। मार्तण्ड, (सूर्य, वैवस्वत) को बुद्धिमान और वीरपुत्र मनु उत्पन्न हुए और प्रसिद्ध यम उसका (मनु) अनुज प्राप्त हुआ। बुद्धिमान मनु धार्मिक था जिसने एक प्रजाति चलाई। इस प्रकार उससे जन्मे (परिवार) मनुष्य, मानव जाति कहलाई। हे राजन! उससे ब्राह्मण क्षत्रियों के साथ उत्पन्न हुए।”

यहां प्रतिपादित सिद्धांत ठीक वैसा ही है जैसा कि रामायण में। भिन्नता मात्र इतनी है कि महाभारत में मनु को चार वर्णों का प्रणेता कहा गया है और दूसरे, इसमें यह नहीं कहा गया है कि चार वर्ण, मनु के चार अंगों से उत्पन्न हुए।

महाभारत की दूसरी व्याख्या1 ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के समान है। वह इस प्रकार हैः

“राजा ऐसे व्यक्ति को अपना राज पुरोहित नियत करे जो दुष्टता का प्रतिरोधी हो। इस विषय में वे यह प्राचीन कथा सुनाते हैं, जिसमें इला पुत्र मातृस्वन (वायु) और पुरुरवा का संवाद सन्निहित है। पुरुरवा ने कहाः “तुम मुझे बताओ कि कब ब्राह्मण, कब अन्य तीन जातियां उत्पन्न हुईं और कब श्रेष्ठता (प्रथम की) स्थापित हुई? मातृस्वन ने उत्तर दिया-” ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ, उसकी भुजाओं से क्षत्रिय, उसकी जंघाओं से वैश्य जबकि इन तीन वर्णों की सेवा हेतु उसके चरणों से चतुर्थ वर्ण शूद्र उत्पन्न हुआ। जन्मते ही ब्राह्मण धर्मतत्व की रक्षार्थ धरती पर भूतजात का स्वामी बन गया। फिर सृष्टा ने पृथ्वी का शासक क्षत्रिय उत्पन्न किया। प्रजा की संतुष्टि को दण्ड धारण हेतु द्वितीय यम उत्पन्न किया और ब्रह्मा का यह आदेश था। इन तीन वर्णों को वैश्य धन-धान्य उपलब्ध कराए और शूद्र सेवा करें।” जब इला पुत्र ने पूछाः ‘‘वायु! मुझे बताओ, अपनी धन-सम्पदा सहित यह पृथ्वी किस के अधिकार

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1

में है, ब्राह्मण के अथवा क्षत्रिय के?” वायु ने उत्तर दिया, ‘‘अपनी ज्येष्ठता के आधार पर पृथ्वी पर विद्यमान समस्त सम्पदा का स्वामी ब्राह्मण है, जो कर्त्तव्य-विधान में पारंगत है, उन्हें यह ज्ञात है। ब्राह्मण जो खाता है, पहनता है, लुटाता है, वह उसी का है। वह सभी जातियों में श्रेष्ठ है। प्रथम जन्मा और सर्वश्रेष्ठ। जिस प्रकार कोई स्त्री अपना पति (पहला) छिन जाने पर अपने देवर, जेठ को दूसरा पति बना लेती है, उसी प्रकार विपत्ति में ब्राह्मण पहला आश्रय है और इसके बाद कोई और”।

महाभारत के शांति पर्व में तीसरी व्याख्या दी गई हैः1

भृगु ने उत्तर दियाः इस प्रकार ब्रह्मा ने पहले अपनी शक्ति से प्रजापतियों के समान भव्य सूर्य और अग्नि को रचा। तब स्वामी ने सत्य, धर्मनिष्ठा, कठोर-भक्ति, सनातन वेद गुणकर्म, और स्वर्ग (प्राप्ति हेतु) की शुद्धता की सृष्टि की। उसने देवता, दानव, गंधर्व, दैत्य, असुर, महाराग, यक्ष राक्षस, नाग, पिशाच और मानव, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्ण प्राणी रचे। ब्राह्मण का वर्ण गौर, क्षत्रिय का लाल, वैश्य का पीत और शूद्र का काला बनाया। तब भारद्वाज ने प्रतिवाद कियाः” यदि हर जाति के चार वर्ण (रंग) उसका परिचायक हैं तो इससे पहचान में भ्रांति होती है। लालसा, क्रोध, भय, लोभ, संताप, कुंठा, भूख, क्लांति, हम सब में समान हैं। तब जाति किस से निर्धारित होती है? स्वेद, मूत्र, मल, श्लेष्मा, पित्त और रक्त सब में समान हैं (सभी में शारीरिक विकार हैं) तब जाति किस से निर्धारित होती हैं? अवर्णित चल और अचल पदार्थ हैं, इनका वर्ण कैसे निर्धारित होता है”? भृगु ने उत्तर दिया, फ्जातियों में कोई अंतर नहीं है।”

शांति पर्व में ही चौथी व्याख्या दी गई है। वह कहती हैः

भारद्वाज ने फिर पूछा परमश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि, मुझे बताएं वे क्या गुण हैं कि जिन से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बन जाता है?” भृगु कहते हैं, फ्जो शुद्ध है, प्रसव तथा अन्य संस्कारों से पवित्र हैं, जिसको वेदों का सम्पूर्ण अध्ययन है, संस्कारों को शुद्धतापूर्वक पूर्णता से अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं, जो चढ़ावे से बचे पदार्थ ग्रहण करते हैं, अपने धर्म-गुरु से सम्बद्ध हैं, सदैव धर्मपरायण हैं और सत्य को समर्पित हैं–ब्राह्मण कहलाते हैं। उसमें सत्य के दर्शन होते हैं। जिसमें सत्य, उदारता, अनाक्रामकता, उपकारिता, सादगी, धैर्य और कठोर भक्ति परिलक्षित हैं–ब्राह्मण हैं। जो राजपद के कर्त्तव्य का पालन करता है, जिसे वेदाध्ययन का व्यसन है और जो आदान-प्रदान से प्रसन्नता अनुभव करता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। वह जो लगनपूर्वक पशुपालन करता है, जिसको कृषि कार्यों में रुचि है, जो शुद्ध है और वेदों के अध्ययन में पारंगत है- वह वैश्य है। वह जो हर प्रकार के भोजन व्यसनी है, सभी कार्य करता

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 139-40

है, जो अस्वच्छ है, जिसने वेदों का परित्याग कर दिया है, जो पवित्र कर्म नहीं करता, परम्परा से शूद्र कहलाता है और यह (जो मैंने बताया) शूद्र के लक्षण हैं और यह क ब्राह्मण में नहीं मिलते (ऐसा) शूद्र शूद्र ही रहेगा जो ब्राह्मण (ऐसा करता है) ब्राह्मण नहीं होगा।”

एक स्थान को छोड़कर अन्यत्र महाभारत वर्ण-व्यवस्था की वैदिक उत्पत्ति का समर्थन नहीं करता।

V

आइये अब यह देखें कि वर्ण-व्यवस्था के संबंध में पुराण क्या कहते हैं?

हम विष्णु पुराण से आरम्भ करते हैं। चार वर्णों की उत्पत्ति पर विष्णु पुराण में तीन सिद्धांत हैं। एक में यह आरोप मनु के सिर जाता है। विष्णु पुराण का मत हैः

“ऐहिक अण्डज से पूर्व देव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ, विश्व के शाश्वत नियंता, जो ब्रह्मा के तत्वरूप थे, जिसमें दिव्य विष्णु सन्निहित थे, जो ऋक, यजुस, साम, और अथर्ववेद के रूप में जाने जाते हैं, विद्यमान थे। ब्रह्मा के दाएं अंगूठे से प्रजापति दक्ष उत्पन्न हुए, दक्ष की पुत्री अदिति थी, उससे वैवस्त उत्पन्न हुआ, उससे मनु प्रकट हुआ। मनु के पुत्र थे इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रमसु, नाभागनिदिष्ट, करुष और पृषघ्र। कुरुष से करुषगण महाशक्तिवान क्षत्रिय उत्पन्न हुए। निदिष्ट का पुत्र नाभाग वैश्य बना।’’

यह व्याख्या अपूर्ण है। इसमें मात्र क्षत्रिय और वैश्यों की उत्पत्ति बताई गई है। उसमें ब्राह्मण और शूद्र की उत्पत्ति की कोई व्याख्या नहीं है। विष्णु पुराण में एक और भिन्न कथन है। उसके अनुसारः

‘‘पुत्र कामना में मनु ने मित्र और वरुण की आहुति दी किन्तु होत्री पुजारी द्वारा मंत्र के गलत उच्चारण कर दिए जाने पर एक पुत्री हुई। उसका नाम इला था। तब मित्र और वरुण की कृपा से मनु से उसे सुद्युम्न नामक पुत्र का जन्म हुआ। परन्तु महादेव के कोप के कारण वह भी नारी रूप में परिवर्तित हो गया। वह नारी सोम पुत्र बुध के आश्रम के निकट विचरती रही। बुध उस पर आसक्त हो गया और उन दोनों से एक पुत्र उत्पन्न हुआ-पुरुरवा। जन्म के उपरान्त उस देवता की जो ऋक, यजुस, साम और अथर्ववेद मानस आहुति से उत्पन्न हुआ, जो यज्ञ-पुरुष का रूप है उसकी ऋषियों ने पूजा की जिन का मनोरथ था कि सुद्युम्न अपना पुरुषत्व पुनः प्राप्त कर लें। देवताओं की कृपा से इला फिर सुद्युम्न बन गया।

‘‘विष्णु पुराण के अनुसार अत्रि ब्रह्मा का पुत्र और सोम का पिता था, जिसे ब्रह्मा ने पादपों ब्राह्मणों और तारों का स्वामी बनाया। राजसूर्य यज्ञ के पश्चात् सोम मदांध हो गया और देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण कर के ले गया, जिसके लिए उसकी भर्त्सना की गई। ब्रह्मा, देवताओं और ऋषियों ने बृहस्पति की पत्नी लौटाने का अनुनय-विनय भी की। किन्तु उसने उसे नहीं लौटाया। सोम का पक्ष उष्ण-गण ने लिया जबकि अंगिरस के शिष्य रुद्र ने बृहस्पति की सहायता की। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ जिसमें देवता और दैत्यों ने क्रमशः दोनों पक्षों में युद्ध किया। ब्रह्मा बीच में पड़े और सोम को विवश किया कि वह बृहस्पति को उसकी पत्नी लौटा दें। इस बीच वह गर्भवती हो गई और एक पुत्र बुध को जन्म दिया। बहुत अनुरोध करने पर उसने स्वीकार कर लिया कि सोम ही बुध का पिता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पुरुरवा मनु की पुत्री इला और बुध का पुत्र था।

“पुरुरवा के छह पुत्र थे। उनसे ज्येष्ठतम अयुस था। अयुस के पांच पुत्र थे। नहुष, क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि, अनेनस।”

“क्षत्रवृद्ध का पुत्र था सुनहोत्र जिसके तीन पुत्र कास, लेस और गृत्समद थे। अंतिम पुत्र से शौनक उत्पन्न हुआ जिसने चार वर्ण बनाए। कास का एक पुत्र था कासिराज, उसका भी पुत्र था दीर्घतमस क्योंकि धन्वंतरि दीर्घतमस था।

तीसरे कथन के अनुसार1 वर्ण-व्यवस्था के जनक ब्रह्मा थे। वह इस प्रकार हैं:

नेत्रेय2  कहते हैं: तुमने मुझे मानव-सृष्टि के संबंध में बताया;अब हे ब्राह्मण! मुझे विस्तार से बताओ कि ब्रह्मा ने इसकी सृष्टि किस प्रकार की? मुझे बताओ, उसने कैसे और किस गुण से वर्ण बनाए और ब्राह्मण तथा अन्य के कार्य कौन-कौन से हैं? पराशर ने उत्तर दियाः 3. अपने विचार के अनुसार ब्रह्मा की कामना जगत-सृष्टि की हुई। जिनमें सत्व होता है वे उनके मुख से उत्पन्न हुए, 4. जिनमें रजोगुण होता है, वे उसके वक्ष से जन्मे, जिनमें रजोगुण और तमोगुण होता है, वे उनकी जंघाओं से जन्मे। अन्य उनके चरणों से उत्पन्न हुए जिनके मुख्य लक्षण हैं कलुष। इससे वर्ण-व्यवस्था बनी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, जो क्रमशः मुख, वक्ष, जंघा और चरणों से बने हैं।”

विष्णु पुराण में ऋग्वैदिक सिद्धांत को सांख्य दर्शन का अनुमोदन प्राप्त है।

हरिवंश पुराण में दो सिद्धांत आते हैं। एक3  के अनुसार वर्णों की उत्पत्ति मनु की एक संतान से हुईः

गृत्समद का पुत्र शुनक था, उससे शौनक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए। “विताठ पांच पुत्रें के पिता थे। वे थे सुहोत्र, सुहोत्री, गया, गर्ग और कपिल। सुहोत्र के दो पुत्र थे, कासक और राजा गृत्समति। उसके पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य थे।”

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 61-2
  2. विष्णु पुराण वार्तालाप के रूप में है जिसमें शिष्य मैत्रेय प्रश्न पूछता है और ऋषि पराशर उसके प्रश्नों का उत्तर देते हैं।
  3. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृ. 227

दूसरे आख्यान के अनुसार उनकी उत्पत्ति विष्णु से हुई जो ब्रह्मा से प्रकट हुए थे और प्रजापति दक्ष बन गए। यह इस प्रकार हैः1

“जनमेजय2  कहता हैः फ्हे ब्राह्मण, मैंने ब्रह्मयुग (वर्णन) सुना है जो आदि युग था। मेरी भी कामना है क्षत्रिय युग के विषय में सारगर्भित और विस्तार से अनेक प्रेक्षणों के आधार यज्ञ के सोदाहरण उल्लेख का सम्पूर्ण विवरण दें। वैशंपायन ने उत्तर दिया, “मैं उस युग के विषय में बताता हूँ जिसका यज्ञों के कारण आदर है और जो मुक्ति में अनेक कर्मों की विशिष्टता से सम्पन्न है, जिसका आदर तब के मनुष्यों के कारण किया जाता है। मुक्ति के लिए अबाध धर्म किए जाते थे। ब्रह्म के प्रति चित्त की एकाग्रता थी और संयम था। ब्राह्मणों के उद्देश्य महानतम थे। ब्राह्मण अपने व्यवहार से गौरवान्वित और मर्यादित थे। संयम का जीवन व्यतीत करते थे। बाह्मणों के अनुसार अनुशासन था, वे अपने कर्त्तव्यपालन में त्रुटिहीन थे। उनका ज्ञान अथाह था। वे मननशील थे। तब सहस्रों युग व्यतीत होने पर ब्राह्मणों की सत्ता शिखर पर थी। तब ये मुनि इस विश्व के विलयन में सम्मिलित हुए। ब्रह्मा से विष्णु प्रकट हुए। इन्द्रिय ज्ञान से परे हो गए और ध्यानस्थ्ति हो गए। दक्ष प्रजापति बन गए और अनेक प्राणियों की सृष्टि की। ब्राह्मण को रूपराशि (चन्द्रमा को प्रिय) और अक्षय बनाया गया। क्षत्रियों को नश्वर तत्वों से रचा। एकांतरण से वैश्य बने और धूम्र परिष्करण से शूद्रों को बनाया गया। जब विष्णु वर्णों पर विचार कर रहे थे तो ब्राह्मण को गौर, लाल, पीत तथा नीले रंग से बनाया गया। इस प्रकार विश्व में मानव वर्णों में विभाजित हो गये। उनकी चार पहचान हुई, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। एक स्वरूप अनेक कार्य। दो पैरों पर चलने वाला अत्यंत आश्चर्यजनक शक्तिमान और अपने व्यवसाय में पारंगत। तीन उच्च वर्णों के संस्कारों का वेदों में निर्धारण हुआ। प्राणियों की योगावस्था से ब्रह्मा प्रकट हुए। विष्णु जैसी उसी ध्यानावस्था से-भगवान प्रचेतस (दक्ष) अर्थात् महान योगी विष्णु अपनी मेधा एवं ऊर्जा से ध्यानावस्था से कर्मक्षेत्र में उतरे। उन्मूलन से शूद्र उपजे;वे संस्कार रहित हैं इस कारण वे शुद्धि संस्कारों में सम्मिलित नहीं हो सकते, न पवित्र विज्ञान से उनका संबंध है, वैसे ही जैसे ईंधन के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है और लुप्त हो जाती है। उसकी यज्ञ में कोई आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार धरती पर घूमने वाले शूद्र हैं। कुल मिला कर (बलि देने के अतिरिक्त किसी उपयोग के नहीं)। अपने जन्म के कारण, उनका जीवन शुद्धता से वंचित रखा गया है और उनकी अनावश्यकता वेदों में नियत है।”

भागवत पुराण3 में भी वर्णों की उत्पत्ति की व्याख्या है। इसका कथन हैः

“कई सहस्र वर्षों के उपरांत अपने कर्मों और प्रकृतिक गुणों से विद्यमान आत्मा ने जल पर उतराते अण्डज को जीवरूप प्रदान किया। फिर पुरुष ने उसका विखण्डन कर उससे एक सहस्र जंघाएं, चरण, भुजाएं, चक्षु, मुख और शीर्ष प्रकट किए। विश्व व्यवस्थापक ने अपने सहयोगी ऋषियों के साथ विश्व की रचना की।

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 152-53
  2. हरिवंश पुराण जनमेजय और वैशंपायन के बीच संवाद है।
  3. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 156

 

उन्होंने अपनी कटि से सात अधो भुवन रचे और ऊर्ध्व मूल से और सात उर्ध्व भुवनों की रचना की। ब्राह्मण पुरुष का मुख था, क्षत्रिय उसकी भुजाएं, वैश्य उसकी जंघाओं से उपजे और शूद्र उस देव पुरुष के चरणों से जन्मे। पृथ्वी उनके पैरों से बनी, वायु उनकी नाभि से। उनके हृदय से स्वर्ग और उनके वक्ष से महालोक बने।’’

अब अंत में वायु पुराण देखें। यह क्या कहता है? इसके अनसुार मनु ने वर्ण-व्यवस्था रची।

गृत्समद का पुत्र शुनक था। उससे शौनक जन्मा। उसी के परिवार में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए द्विज मानव विभिन्न कर्मों के साथ जन्मे।

VI

कैसी अव्यवस्था है? ब्राह्मण चार वर्णों की उत्पत्ति के विषय में एकरूपता और ठोस प्रमाण क्यों नहीं प्रस्तुत करते?

वर्णों की सृष्टि के विषय में एकमत नहीं है। ऋग्वेद का कथन है कि चार वर्ण प्रजापति ने बनाए। वह यह नहीं बताता कि कौन से प्रजापति ने। हम यह जानना चाहते हैं कि किस प्रजापति ने वर्ण बनाए क्योंकि प्रजापति अनेक हैं। यह मान भी लें कि प्रजापति ने बनाए तो भी सहमति नहीं है। एक का कहना है कि ब्रह्मा ने बनाए, दूसरे का मत है कश्यप ने। तीसरे का विचार है मनु ने बनाए।

इस प्रश्न पर कि सृष्टा ने – जो भी वह रहा हो, कितने वर्ण बनाए, जिनमें समानता नहीं। ऋग्वेद के अनुसार वर्ण चार थे। परन्तु अन्य अधिकारी विद्वान कहते हैं केवल दो वर्ण बनाए गए। कुछ का विचार है ब्राह्मण और क्षत्रिय और कुछ मानते हैं ब्राह्मण और शूद्र।

संबंधों के विषय में, सृष्टा के मनोरथ के प्रश्न पर ऋग्वेद चारों वर्णों में एक के बाद एक असमानतों का नियम निर्धारित किया है जो वर्ण विशेष के उद्गम अंग के महत्व के अनुसार श्रेष्ठ या हीन है। जबकि श्वेत यजुर्वेद, ऋग्वेद के सिद्धांत से सहमत नहीं। ऐसे ही उपनिषद, रामायण, महाभारत और पुराण भी कहते हैं, किन्तु हरिवंश पुराण विस्तार से बताता है कि शूद्र द्विज हैं।

ऐसा लगता है कि इस कुटिलता का कारण चातुर्वर्ण्य की कहानी को सनातन रूप देना है जिसे ब्राह्मणों ने स्थापित परम्पराओं के विपरीत ऋग्वेद से जोड़ दिया।

उद्देश्य क्या था? ब्राह्मणों का इस सिद्धांत रचना के पीछे क्या प्रयोजन था?