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सातवीं पहेली – समय परिवर्तन या ब्राह्मण यह कैसे घोषित करते हैं कि वेद उनके सभी शास्त्रें से तुच्छ हैं ?

                                                                         I

हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में, 1- वेद, 2- ब्राह्मण, 3- आरण्यक, 4- उपनिषद्, 5- सूत्र, 6- इतिहास, 7- स्मृत और 8- पुराण शामिल हैं।

जैसा कि कहा गया है, एक समय उनका महत्व एक समान था। उनके बीच श्रेष्ठता अथवा हीनता, पवित्रता अथवा लौकिकता, संशय अथवा संशय हीनता का कोई भेद नहीं था।

बाद में, जैसा कि हमने कहा है, वैदिक ब्राह्मणों ने सोचा कि वेदों और दूसरे धार्मिक साहित्य में अंतर होना चाहिए। उन्होंने वेदों को न केवल अन्य साहित्य से श्रेष्ठ घोषित कर दिया, अपितु उन्हें पावन और अमोघ भी बना दिया। वेदों को संशय रहित स्थापित करने के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने पवित्र ग्रंथों को दो वर्गों में विभाजित कर दिया। 1- श्रुति और 2- अश्रुति। प्रथम विभाजन में उन्होंने आठ अंगों में से केवल दो को श्रेष्ठ रखा। 1- संहिता और 2- ब्राह्मण। शेष को उन्होंने अश्रुति घोषित कर दिया।

II

यह बताना संभव नहीं कि यह अंतर सर्वप्रथम कब उत्पन्न हुआ। परन्तु यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है कि किस आधार पर यह भेद किया गया। इतिहास और पुराणों को क्यों छोड़ दिया गया? आरण्यक और उपनिषद् क्यों छांट दिए गए? सूत्रें को क्यों छोड़ दिया गया? यह तो समझा जा सकता है कि इतिहास और पुराणों को श्रुति से

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अंग्रेजी में यह 21 पृष्ठीय टाइप की हुई पाण्डुलिपि थी जिसका मूल शीर्षक ‘‘वेदों का दमन’’ है जिसमें लेखक ने त्रुटियों को स्वयं ठीक किया था। यह अध्याय पूर्ण है क्योंकि लेखक ने अंतिम पैरा अपने हाथ से सही किया था – संपादक

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अविकसित थे कि उन्हें शायद ब्राह्मणों में सम्मिलित कर लिया गया। साथ ही यह बात भी समझ में आती है कि आरण्यकों का श्रुति के अंग के रूप में उल्लेख करना अनावश्यक था कि ये श्रुति का अंग है। उपनिषद् और सूत्रें का प्रश्न एक पहेली बना हुआ है। इन्हें श्रुति से अलग क्यों रखा गया? उपनिषदों के प्रश्न पर एक अन्य अध्याय में अलग से चार किया गया है। यहां तो सूत्रें के बारे में विचार करना है क्योंकि सूत्रें को समाहित न करने का पार पाना कठिन है। यदि यह बात तर्कसम्मत है कि ब्राह्मणों को श्रुति में सम्मिलित किया जाना चाहिए तो उसी कसौटी पर यह बात खरी नहीं उतरती कि सूत्रें को शामिल क्यों न किया जाए, जैसा कि प्रोफेसर मैक्समूलर कहते है :

‘‘हम इस बात को समझ सकते हैं कि किस प्रकार कोई देश अपनी राष्ट्रीय काव्य रचना का श्रेय किसी लौकिक पुरुष को दे सकता है। विशेष रूप से तब जब कि उस काव्य में देवों को संबोधित प्रार्थनाएं और मंत्र समाविष्ट हों। परन्तु ब्राह्मण ग्रंथों के गद्य-साहित्य के विषय में यह कहना कठिन है। ब्राह्मण ग्रंथ स्पष्ट रूप से मंत्रें की अपेक्षा बाद की रचनाएं हैं। इसी कारण इन्हें श्रुति में समाहित किया गया होगा कि इनकी सामग्री ब्रह्म-ज्ञान से मुक्त है और उनकी

विषय-सामग्री साधारण और प्राचीन मंत्र नहीं है। ब्राह्मण ग्रंथों के अधिकांश दावों के बारे में यह कल्पना की गई होगी कि इनकी रचना ईश्वरीय है जिनका उद्गम सामान्य रहा अथवा मंत्र नहीं हो सकते। किन्तु हमें इस तर्क को मान्यता

देने की आवश्यकता नहीं, जिसके कारण ब्राह्मण ग्रंथों ने अपने को मंत्र रख्ना के समकालीन बताया है। इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि जब ब्राह्मण ग्रंथों और मंत्रें का रचनाकाल अधिक प्राचीन है तो हम इस सहज विचार को क्यों अस्वीकार कर दें कि यदि सूत्रें और भारत के लौकिक साहित्य की तुलना की जाए तो उनका महत्व समान बनता है। ऐसी घटना सामान्य है, जहां पवि= ग्रंथों का यह नियम है कि बाद की रचनाओं को प्राचीन रचनाओं से ही जोड़ दिया जाता है जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथों के साथ हुआ। किन्तु हम कठिनाई से ही यह विश्वास कर सकते हैं कि जब तक कोई पक्ष इन उपेक्षित रचनाओं के सिद्धांत विशेष की प्रामाणिकता अमान्य घोषित करने के लिए प्रयत्नशील न हो, पुराने और युक्ति-युक्त अंशों को पवित्र रचनाओं से हटा दिया जाए और उन्हें बाद की रचनाएं बता दिया जाए। तब तक ऐसी कल्पना का कोई आधार नहीं है फिर सूत्रें के साथ ऐसा क्यों हुआ। हमें ब्राह्मण और मंत्रें की अपेक्षा उनके परवर्ती होने के सिवाय ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि सूत्रें को श्रुति न बनाया जाय। क्या ब्राह्मण ग्रंथकारों को स्वयं ज्ञात था कि ऋषियों की अधिकांश रचनाओं और ब्राह्मण ग्रंथों के उद्भव के बीच युगों का अंतराल है। इस प्रश्न का उत्तरसकारात्मक है। किन्तु जिस दुस्साहस के साथ भारतीय ब्रह्मज्ञानियों ने ब्राह्मण ग्रंथों को वही पद और उनका काल मंत्रें के सामन निर्धारण किया, उससे यह प्रकट होता है कि इसका कोई विशिष्ट कारण रहा होगा कि सूत्रें को उतनी ही

पावनता और प्राथमिकता न दी जाए।’’

सूत्रें को श्रुति की श्रेणी में न रखना एक पहेली है जिसका निराकरण कियाजाना चाहिए।

इस विषय पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के समक्ष अन्य कूट प्रश्न भी हैं। उनका संबंध सूत्रें की श्रेणी में आने वाले साहित्य की विषयसामग्री में परिवर्तन और उनकी सापेक्ष प्रामाणिकता से है।

एक कूट प्रश्न साहित्य की उस श्रेणी से सम्बद्ध है जिसे ब्राह्मण कहा जाता है। एक समय ब्राह्मण ग्रंथ श्रुति की श्रेणी में आते थे। परन्तु लगता है, कालांतर में उनका यह स्थान नहीं रहा। स्मृति के निम्नांकित उद्धरण को देखने से लगता है कि मनु1 ने ‘‘ब्राह्मण ग्रंथों’’ को श्रुति की श्रेणी से हटा दिया:

‘‘श्रुति का अर्थ है वेद और ‘स्मृति’ का अर्थ है विधान। इनकी विषय-सामग्री पर तर्क नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें कर्त्तव्य-बोध है। ब्राह्मण ग्रंथ, जो बुद्धिवादी लेखों पर आधारित हैं, वे ज्ञान के इन दो स्रोतों की निंदा करें तो उन्हें संशयवादी और निंदक जानकर बहिष्कृत किया जाए —— जो कर्त्तव्य-बोध चाहते हैं, उनके लिए श्रुति सर्वोच्च सत्ता है।

ब्राह्मण ग्रंथों को श्रुति से क्यों निकाला गया?’’

III

अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते है। जो स्मृति कहलाता है। जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति हैं। स्मृतियों की संख्या लगातार बढ़ती रही और यह सिलसिला अंग्रेजों के आगमन तक जारी रहा। मित्रमिश्र 57 स्मृतियों का, नीलकंठ 97 का और कमलाकर 131 स्मृतियों का उल्लेख करते हैं। हिन्दुओं द्वारा पवित्र समझे जाने वाले धार्मिक साहित्य में स्मृति साहित्य अपेक्षाकृत अधिक है। वेदों और स्मृतियों के बीच संबंध के बारे में अनेक बातें हैं।

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  • कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि ‘वेद’ शब्द में ब्राह्मण भी संकलित हैं। यह वास्तव में एक सच्चाई है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मनु ने ‘श्रुति’ को प्रतिबंधित अर्थ में प्रयुक्त किया ताकि ‘ब्राह्मणों’ को अलग रखा जाए। इस कथन की इस बात से पुष्टि होती है कि मनुस्मृति में ब्राह्मणों का उल्लेख नहीं है सिवाय एक स्थान पर (4.100) जहां वह कहता है कि मंत्रें का ही अध्ययन किया जाना चाहिए।

 

पहली बात यह है कि जैसा बौधायन, गौतम और आपस्तम्ब को धर्मशास्त्र का स्थान प्राप्त था, स्मृति को वह मान्यता प्राप्त नहीं थी1। स्मृति का संबंध मूल रूप से संस्कारों और परम्पराओं से था समाज के विद्वान उसकी अनुमति देते और अनुशंसा करते थे। जैसा कि प्रोफेसर अल्तेकर का मत हैः

आरम्भ में अपने लक्षण और विषय-सामग्री के कारण स्मृति सदाचार के समान थी और वही उनका आधार था। स्मृतियां अस्तित्व में आईं तो स्वाभाविक था सदाचार की परिधि सिमट गई, क्योंकि उसको अधिकांशतः संहिताओं में बांध लिया गया था। उन्होंने उन प्राचीन प्रथाओं से जोड़ना आरंभ कर दिया गया जो स्मृतियों में संहिताबद्ध नहीं थी अथवा जो नवीन थी और वे आरम्भिक धर्मशास्त्रें तथा स्मृतियों में संहिताबद्ध हो गई थीं इस कारण सामाजिक मान्यता प्राप्त हो गयी थी। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि स्मृतियां वेद और श्रुति से भिन्न समझी जाती थीं। जहां तक उनकी मान्यता और प्रामाणिकता का प्रश्न था, उनका आधार नितांत भिन्न था। श्रुतियों को दैवी मान्यता थी। स्मृतियों की मान्यता सामाजिक थी। उनकी प्रामाणिकता के संबंध में पूर्व मीमांसा में दो नियमों का प्रावधान किया गया था। प्रथम नियम यह है कि यदि श्रुति के दो पाठों में भिन्नता है तो दोनों प्रामाणिक थे, और यह समझा जाता था कि वेदों ने यह विकल्प किया हुआ था कि उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लिया जाए। दूसरा नियम यह है कि यदि स्मृति का कोई पाठ श्रुति के विपरीत है तो उसे तत्काल रद्द कर दिया जाए। यह नियम कठोरता से पालन

किए जाते थे और इसका परिणाम यह हुआ कि स्मृतियों को न तो वेदों के समान स्थान मिला और न प्रामाणिकता।

यह आश्चर्यजनक बात है कि एक समय ऐसा आया जब ब्राह्मणों ने कलाबाजी खाई और स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ घोषित कर दिया। प्रोफेसर अल्तेकर ने कहा हैः

 

स्मृतियों ने श्रुतियों के कुछ सिद्धातों को वास्तव में निरस्त कर दिया जो तत्कालीन युग की भावना के अनुरूप नहीं थे अथवा जिनका स्मृतियों से टकराव था। वैदिक परम्परा के अनुसार प्रातःकाल किया जाने लगा क्योंकि प्रातः स्नान दैनिक कर्यों में सम्मिलित हो गया और प्रातःकाल किया जाने लगा क्योंकि प्रातः स्नान दैनिक कार्यों में सम्मिलित हो गया। यह तरीका उपरोक्त नियम के अनुसार वैदिक प्रथा का प्रत्यक्ष उल्लंघन था। स्मृति-चंद्रिका के लेखक देवमभट्ट ने कहा है कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। श्रुति नियम को समझा गया कि उसमें पितृ-तर्पण का उल्लेख

है। पितृ-कर्म का नहीं। श्रुति साहित्य से ज्ञान होता है कि विश्वामित्र ने शुनःशेप को गोद ले लिया था। यद्यपि उनके स्वयं एक सौ पुत्र जीवित थे। इस प्रकार यह अनुमति मिलती है कि किसी व्यक्ति के भले ही उसके अपने अनेक पुत्र जीवित हों, वह किसी अन्य के पुत्र को गोद ले सकता है। परन्तु मित्रमिश्र का कथन है कि यह व्यवस्था

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  • इस विषय पर काणे मेमोरियल वाल्यूम, पृ- 18-25 पर प्रो- अल्तेकर का प्रभावपूर्ण लेख ‘धर्म के स्रोत के रूप में स्मृतियों का स्थान’ देखें।

दोषपूर्ण है। हम यह कल्पना कर सकते हैं कि स्मृतियों की प्रथाएं भी श्रुति व्यवस्थाओं पर पर आधारित हैं जो इस समय उपलब्ध नहीं है परन्तु उनका अस्तित्व माना जा सकता है। वैदिक कथन ‘‘ना शेषो ज्ञेन्याजातमस्ति’’ पुत्र गोद लेने की प्रथा के विरुद्ध है जिसे कालातीत में स्मृति साहित्य में अनुसंशित किया गया। यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि किस प्रकार स्मृति ने श्रुति को ठिकाने लगा दिया। परन्तु मित्रमिश्र का कथन है कि इस प्रथा में कोई दोष नहीं है। श्रुति का कथन मात्र अर्थवाद है। यह अपनी ओर से कोई निर्देश नहीं देतीं। दूसरी और स्मृतियों ने दत्तक पुत्र की व्यवस्था की है जिससे कि होम आदि उपयुक्त रीति से सम्पन्न हो सकें। इस प्रकार स्मृति के पाठ द्वारा अर्थवाद श्रुति को पूर्णतः निरस्त कर दिया, जिसने ऐसा विधान किया था। कालांतर में वैदिक निर्देशों के विपरीत सती प्रथा शुरू हुई। वेद आत्महनन के विरोधा में है। फि़र अपरार्क ने तर्क दिया है कि श्रुति के साथ भिन्नता होने से यह प्रथा अवैधा नहीं हो जाती क्योंकि श्रुति में एक सामान्य सिद्धातं के रूप में आत्महत्या का निषेध किया गया है। जबकि स्मृति में विधवा के संबंध में इसके अपवादी की व्यवस्था की है। सती प्रथा और दत्तक प्रथा ठीक है अथवा नहीं। यह एक भिन्न प्रश्न है। समाज ने किसी भी प्रकार उन्हें स्वीकार कर लिया। स्मृतियों ने उन्हें सैद्धांतिक मान्यता दे दी और वेदों की सत्ता के विरुद्ध मान्यता देने के लिए कहा। प्रश्न यह है कि वेदों की श्रेष्ठता के लिए इतने दिन तक संघर्ष कर के वेदों का स्थान गिरा कर स्मृतियों को क्यों वेदों के ऊपर शिरोधार्य किया गया? उन्होंने वेदों को देवों से भी अधिक मान्यता दी फिर उन्हें घसीटकर स्मृतियों से भी नीचे क्यों डाल दिया जबकि स्मृतियों को मात्र सामाजिक मान्यता प्राप्त थी? उन्होंने जो उपाय किए, वे इतने विदग्ध और कृत्रिम थे कि हमें संशय हो सकता है कि कोई निश्चित इरादा अवश्य होगा कि स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ माना जाने लगा। यह स्पष्ट करने के लिए कि उनके तर्क कितने कृत्रिम, भ्रामक, और कुंठित थे, यह उचित होगा कि उनका संक्षिप्त विवरण दिया जाए। एक कृत्रिम तर्क का उदाहरण सामने आता है जब हम बृहस्पति के कथन पर विचार करते हैं। उनके अनुसार श्रुति और स्मृति ब्राह्मण की दो आंखें हैं। यदि उनमें से एक फूट जाएगी तो वह एकाक्षी रह जाएगा। एक कुतर्क के रूप में कुमारिल भट्ट की दलील पर भी विचार किया जा सकता है। उनका तर्क अनुपलब्धा श्रुति के सिद्धातं पर आधिारित है। स्मृतियों के नाम पर यह कहा गया कि उनके मत को रद्द नहीं किया जा सकता चाहे वह श्रुति के प्रतिकूल की क्यों न हों? क्योंकि हो सकता है कि वास्तविक रूप में यह विद्यमान श्रुति एवं अनुपलब्धा श्रुति के बीच तारतम्य हो। इस प्रकार स्मृति को अनुपलब्ध श्रुति बना दिया गया।

ब्राह्मणों ने स्मृतियों को वेदों से श्रेष्ठ भी नहीं तो उनके समान स्थान देते हेतु एक तीसरा उपाय खोजा। यह अत्रि स्मृति में प्राप्य है। अत्रि का कहना है कि जो स्मृतियों की सत्ता स्वीकार नहीं करते, वे शाप के भागी हो सकते हैं। अत्रि का सिद्धांत है कि ब्राह्मण श्रुति और स्मृति के संयुक्त अध्ययन की परिणति है। यदि कोई व्यक्ति मात्र वेदों का पाठ करता है और स्मृति की अवमानना करता है तो उसे तत्काल यह शाप दिया जा सकता है कि वह 21 योनियों तक वन्य जंतु बने। ब्राह्मणों ने स्मृतियों को श्रुति के समान रखने के ऐसे उपाय क्यों किए? उनका उद्देश्य क्या था? उनका अभिप्राय क्या था? प्रोफेसर अल्तेकर का कहना है कि स्मृतियों को वेदों की अपेक्षा उच्चता इस कारण दी गई है कि कालांतर में स्थापित परम्पराओं को विधि-विधान के रूप में वैधता के औचित्य को चुनौती दी जा सकती थी। यदि यही बात थी तो वैदिक काल में भी विधि-विधान थे, प्रथाएं बाद में पड़ीं और यदि दोनों के बीच कोई भिन्नता हो तो इस तर्क को समझा जा सके कि स्मृतियों के प्रगतिशील सिद्धांतों को मान्यता इस कारण दी गई कि उनमें टकराव दूर कर दिया गया था। बात ऐसी नहीं है। वेदों में विधि-विधान नहीं है। प्रोफेसर काणे का मत हैः

 

‘‘सभी कानून प्रथाओं के रूप में थे और प्रथाओं को मान्यता प्रदान करना आवश्यक नहीं था क्योंकि वे नागरिकों द्वारा मान्यता प्राप्त थे। दूसरे, स्मृतियों को वेदों की अपेक्ष प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता। चातुर्वर्ण्य के सिवाय जिनके विषय कमें सर्वविदित है कि पूजा अर्चना छोड़कर समाज में विकास के सभी द्वार खुले थे। स्मृतियों ने वेदों के अप्रगतिशील तत्वों जैसे चातुर्वर्ण्य सिद्धांत को ले लिया तथा उसका जमकर प्रचार किया और उन व्यवस्थाओं को समाज के एक वर्ग के मत्थे मढ़ दिया। इसी प्रकार कुछ और कारण भी हो सकते हैं, जिनके आधार पर ब्राह्मणों ने वेदों की अपेक्षा स्मृतियों को अधिक सम्मान दिया।’’ ब्राह्मणों को अपनी पहली कलाकारी से संतोष न हुआ। उन्होंने एक चाल और चली। कालांतर में स्मृतियों के पश्चात् पुराण आए। वे कुल मिलाकर 36 हैं। इसमें 18 पुराण और उतने ही उप-पुराण हैं। एक प्रकार से तो सभी पुराणों की विषय-सामग्री समान है। उनका कथ्य, विश्व की सृष्टि, पालन और संहार है। परन्तु अन्य विषयों मेंउनकी सामग्री नितांत भिन्न है। कुछ ब्रह्मा के उपासक हैं, कुछ शिव के और कुछ विष्णु के_ कुछ में वायु की, अग्नि की, और सूर्य की उपासना है तथा कुछ में अन्य देवी-देवताओं का गुणगान है।

यह बताया जा चुका है कि एक समय था जब पुराण श्रुति नहीं थे। किन्तु तदुपरांत एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। पुराणों को जिन्हें श्रुति से अलग रखने का कारण उनकी नितांत लौकिकता बताया गया था, अब वे वेदों से भी श्रेष्ठ हो गए।

वायु पुराण कहता है:1

सर्वप्रथम सभी शास्त्र, पुराण ब्रह्मा के मुख से प्रस्फुटित हुए। तदुपरांत वेद। मत्स्य पुराण वेदों से केवल पूर्ववर्ती होना ही घोषित नहीं करता बल्कि वह उनकी अनंतता के गुणों और नाद के साथ पहचान को भी श्रेष्ठ मानता है। पहले केवल वेदों को इन गुणों से सम्पन्न बताया जाता था।

वह कहता हैः2

सर्वप्रथम अविनाशी पितामह (ब्रह्म) उत्पन्न हुए, फिर वेद। उसके अंगोपांग तथा उनके पाठ के विभिन्न साधन जन्में और प्रकट हुए। ब्रह्मा ने जिन शास्त्रें को जन्म दिया उनमें सैकड़ों कोटि-कोटि मंत्रें वाले सनातन, नाद-जनित शुद्ध शास्त्र, पुराण प्रथम थे फिर उनके मुख से वेदों का उद्गम हुआ, तभी मीमांसा और न्याय और अष्ट प्रमाण सिद्धांत जन्मे।

भागवत पुराण वेदों के समान प्रामाणिकता का दावा करता है।

वह कहता हैः3

ब्रह्मार्त का निर्णय है कि पुराण भागवत कहलाता है जो वेदों के समान है। ब्रह्मवैवर्त पुराण ने साधिकार दावा किया है कि वह वेदों से श्रेष्ठ है।

वह कहता हैः4

जिस श्रद्धेय ऋषि के विषय में आपने प्रश्न किया है और जो आपकी इच्छा है वह मुझे ज्ञात है। वह है पुराणों का सार अति विख्यात ब्रह्म वैवर्त पुराण जो समस्त पुराणों, उप-पुराणों और वेदों की त्रुटियों का परिष्कार करता है।

ब्राह्मणों की यह दूसरी पहेली है जिसके अनुसार उन्होंने अपने पवित्र ग्रंथों को प्राथमिकता, प्रमुखता और प्रामाणिकता दी। वेदों के पतन की कथा यहीं समाप्त नहीं होती। पुराणों के बाद साहित्य का एक अन्य रूप उभरकर आया-तंत्र5। इनकी संख्या काफी दुर्जेय है। शंकराचार्य ने 64 तंत्र गिनाए हैं। इनके अतिरिक्त भी बहुत से होंगे।

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1- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ- 27

2- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, पृ- 28

3- और 3- म्यूर ने उद्धृत किया है, खंड 3

5- स्मृत धर्म और तांत्रिक धर्म पर और विचार के लिए इस भाग का परिशिष्ट 4 और 5 देखें।

इस साहित्य का रचयिता दत्तात्रेय को बताया गया है जो हिंदू त्रिमूर्ति के अवतार कहे जाते हैं। अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और शिव। उन्हें इस प्रकार तीन सर्वोच्च देवों के समान ज्ञान का संगम कहा गया है। किन्तु वे मात्र शिव पर निर्भर हैं जिन्होंने अपनी भार्या दुर्गा अथवा काली को वे रहस्यात्मक सिद्धांत और अनुभव बताए जो उनके भक्तों को ज्ञात होने चाहिए, और जिनका उन्हें अनुशीलन करना चाहिए। कहा गया है कि यह प्रामाणिक अथवा उच्च परम्परा उनके केन्द्रीय अर्थात् पंचम मुख से प्रकट हुई। क्योंकि यह परम पावन और गुह्य ज्ञान है, इसलिए यह अदीक्षितों के समक्ष प्रकट नहीं होना चाहिए। इन्हें अगम कहा गया है। इस प्रकार वे वेदों के ज्ञान निगम धर्मशास्त्रें और अन्य ग्रंथों से भिन्न हैं। तंत्र विशेष रूप से शाक्तों और उनके विभिन्न संप्रदायों के धार्मिक ग्रंथ हैं। तांत्रिकों की कई शाखाएं हैं जो अपनी भिन्न-भिन्न परम्पराओं को मानते हैं और उनके अंतरंग अनुयाइयों के अतिरिक्त अन्य की समझ के बाहर हैं। तांत्रिकों और दक्षिणाचारियों के कर्मकांड शुद्ध और वेदानुकुल बताए गए हैं, जबकि वामांचारियों को केवल शूद्रों

के लिए बताया गया है। तंत्रों के उपदेश पुराणों की तरह भक्तिमार्ग पर आधारित और उपनिषदों एवं ब्राह्मणों के कर्ममार्ग तथा ज्ञानमार्ग से श्रेष्ठ कहे जाते हैं। इनमें एक देव की आराधाना का निर्देश दिया गया है। विशेष रूप से शिव-भार्या का, जो जगतजननी कही गई है। इस सभी रचनाओं नारी गुणों को साकार मानकर प्रमुखता दी गई है। पुरुषों की प्रायः उपेक्षा की गई है। वेदों और तंत्रें में क्या संबंध है? मनुस्मृति के विख्यात भाष्यकार कुल्लूक भट्ट को यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि श्रुति के दो अंग हैं, वेद और तंत्र। इसका अर्थ हुआ वेद और तंत्र का समान स्तर है। कुल्लूक भट्ट की तरह वैदिक ब्राह्मणों ने वेदों और तंत्रें को समान माना है बल्कि तंत्र लेखक तो चार कदम आगे हैं। उनका दावा है कि वेद शास्त्र और पुराण एक सामान्य नारी के समान है, जबकि तंत्र एक कुलीन नारी की भांति है। इसका आशय यही है कि तंत्र वेदों से श्रेष्ठ हैं। इस सर्वेक्षण से एक तथ्य स्पष्ट है कि ब्राह्मणों को अपने धार्मिक साहित्य में कभी

अटल विश्वास नहीं रहा। उन्होंने यह बताने के लिए संघर्ष किया कि वेद केवल पवित्र ग्रंथ ही नहीं बल्कि संशय-रहित हैं। यही नहीं कि उन्होंने कहा है कि वेद संशय-रहित हैं अपतिु उन्होंने इस संबंधा में मनगढ़ंत सिद्धातं और तर्क प्रप्तुत किए। इसके बाद वेदों को पहले उन्होंने स्मृतियों से हीन बताया फि़र पुराणों से और अन्ततोगत्वा तंत्र से भी निचले गर्त में डाल दिया।  यह यक्ष प्रश्न है कि आखिर ब्राह्मणों ने अपने पवित्रतम ग्रंथ वेदों की यह दुर्दशा क्यों बनाई कि वे स्मृतियों, पुराणों और तंत्र तक से तुच्छ हो गए।