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सत्रहवीं पहेली – चार आश्रम – उनका कारण और परिणति

समाज को चार वर्णों में विभाजित कर डालना ही हिंदू समाज की एक मात्र विशिष्टता नहीं है। आश्रम धर्म भी एक अन्य है फिर भी इन दोनों में एक अंतर है। वर्ण धर्म समाज के संगठन का सिद्धांत है। दूसरी ओर आश्रम किसी के व्यक्तिगत जीवन को विनियमित करने का सिद्धांत है।

आश्रम धर्म के अनुसार व्यक्ति का निजी जीवन चार चरणों में विभाजित किया गया है। 1. ब्रह्मचर्य आश्रम, 2. गृहस्थाश्रम, 3. वानप्रस्थ आश्रम और 4. संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य का सरलार्थ और भावार्थ है- अविवाहित स्थिति। इसका भावार्थ है- गुरु के पास विद्याध्यन करना। गृहस्थाश्रम का अर्थ है- वैवाहिक और पारिवारिक जीवन। संन्यास का तात्पर्य है- सांसारिकता का परित्याग। यह संसार के वीतराग की स्थिति है। वानप्रस्थ आश्रम – गृहस्थ एवं सन्यास के मध्य की स्थिति है। इसके अधीन यह समाज का अंग होता है किन्तु समाज से दूर रहता है। इसके नाम के अनुरूप अरण्य-निवास करना होता है।

हिंदुओं की मान्यता है कि समाज के कल्याण के लिए वर्ण-धर्म की भांति आश्रम-धर्म का पालन भी अनिवार्य है। वे दोनों को संयुक्त नाम देकर वर्णाश्रम धर्म कहते हैं। ये दोनों मिलकर हिंदू समाज की कठोर मर्यादाएं निर्धारित करते हैं। इससे पूर्व कि हम इसके तात्पर्य, विशदस्वरूप और इसकी उत्पत्ति पर विचार करें, यह ठीक रहेगा कि हम आश्रम-धर्म को समझ लें। आश्रम-धर्म दिर्ग्शन का साधन है।

इस सन्दर्भ में मनुस्मृति1 से कुछ प्रासंगिक अंश पुनः प्रस्तुत हैं:

“गर्भ धारण के आठ वर्ष पश्चात् उपनयन संस्कार कराया जाए। क्षत्रिय का गर्भधारण के ग्यारह वर्ष पश्चात्, किन्तु वैश्य का बारह वर्ष उपरांत।”

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  1. मनुस्मृति, अध्याय 2, पृ. 36

यह 18 पृष्ठों की पाण्डुलिपि है। यह टंकित प्रथम प्रति है जिसमें थोड़ा अंश लेखक की हस्तलिखित लिपि में है। – संपादक

“कोई द्विज यदि वेदाध्ययन नहीं करता है और अन्य (सांसारिक ज्ञान) के अध्ययन में रत रहता है तो वह शीघ्र ही, अपितु अपने जीवन काल में ही शूद्र की स्थिति प्राप्त करता है और उसके बाद उसकी संतति भी।”1

“गुरु के अधीन तीन वेदों के (अध्ययन) का व्रत छत्तीस वर्ष तक धारण किया जाए अथवा इसर्वे अर्द्धांश अथवा चतुर्थांश अथवा जब तक उनका पूरा ज्ञान न हो जाए, यह व्रत रखा जाए।”

“जो उचित क्रम से तीन वेदों, अथवा दो अन्यथा एक का भी अध्ययन, बिना नियमोल्लंघन, कर लेता है, वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे2।”

“विद्यार्थी, गृहस्थ, एकांतवासी और तापस इनकी चार स्थितियां हैं। इन सबका उद्गम गृहस्थ है।”

‘‘किन्तु सभी (अथवा) कोई भी नियम, जिसका विधानानुकूल पालन किया गया हो, ब्राह्मण को उच्च स्थिति प्रदान करता है।”

“और वैदिक नियमानुसार और स्मृति के अनुरूप गृहस्थ को उन सबमें श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि वह अन्य तीनों का सहायक है3 ।”

“कोई द्विज स्नातक जो नियमानुसार गृहस्थ धर्म निभा चुका हो वह दृढ़ संकल्प करे कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करेगा, अरण्य में रहेगा (निम्नलिखित नियमों का अनुसरण करेगा)।”

“जब कोई गृहस्थ यह देखे कि उसकी त्वचा में झुर्रियां पड़ने लगी हैं और उसके बाल पकने लगे हैं और उसके पुत्रें को पुत्र (पौत्र) हो गए हैं तब वह वन को प्रस्थान करे4 ।”

“परन्तु इस भांति अपने जीवन का तीसरा भाग वनों में व्यतीत के उपरांत चौथे पन में, वह सभी सांसारिकताओं का परित्याग कर तापस का जीवन बिताए।”

“तापस रूप में जो क्रम से चरणों में यज्ञ पूर्ण करके, इन्द्रियों का दमन करके, क्लांत हो जाता है (भिक्षादान और भोजन करा कर) वह मृत्यु उपरांत सुख भोगता है।”

“जब वह तीनों ऋणों से उऋण हो जाता है तो मोक्ष के लिए सुरति लगाए, जो उऋण हुए बिना मुक्ति चाहता है, उसका पतन होता है।”

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  1. मनुस्मृति, अध्याय 2, 168
  2. वही, अध्याय 3, 1-2
  3. वही, अध्याय 4, 87-9
  4. वही, अध्याय 4, 1-2

“नियमानुसार वेदाध्ययन, पवित्र विधानुसार पुत्रवान होकर, योग्यतानुसार यज्ञ करके वह अपना ध्यान मोक्ष पर लगाए।”

“कोई द्विज जो वेदाध्ययन बिना, पुत्रवान हुए बिना, यज्ञ के बिना मोक्ष चाहता है, उसका पतन होता है।”1

इन नियमों से यह स्पष्ट है कि मनु के अनुसार आश्रम-धर्म के तीन रूप हैं। प्रथम यह कि यह शूद्रों और महिलाओं के लिए नहीं है। द्वितीय यह कि ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ऐसे ही गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास अनिवार्य नहीं है। तृतीय यह कि इनका निर्धारित क्रम से पालन किया जाए। प्रथम ब्रह्मचर्य, द्वितीय गृहस्थ, तृतीय वानप्रस्थ और चतुर्थ संन्यास। कोई एक को लांघकर दूसरे आश्रम में नहीं जा सकता।

व्यक्तिगत जीवन में नियोजित अर्थ-व्यवस्था के लिए बताई जाने वाली इस आश्रम प्रणाली पर विहंगम दृष्टि डालने पर कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं। वेदों के संदर्भ में आश्रमों का यह सिद्धांत अज्ञात है। वेदों में ब्रह्मचारी का उल्लेख है, परन्तु ब्रह्मचर्य को जीवन का प्रथम और अनिवार्य सोपान बनाए जाने का कोई प्रसंग नहीं है। ब्राह्मणों ने व्यक्तिगत जीवन में ब्रह्मचर्य को अनिवार्य क्यों बनाया? आश्रम धर्म के संबंध में यह प्रथम भ्रांति है।

दूसरा प्रश्न यह है कि मनु ने व्यक्ति के लिए, एक ही क्रम में आश्रम प्रणाली क्यों रखी? इसमें संदेह नहीं रहा है कि एक समय ऐसा था, जब कोई ब्रह्मचारी तीनों में से कोई-सा भी आश्रम अपना सकता था। वह गृहस्थ बन सकता था अथवा गृहस्थ बने बिना संन्यासी भी बन सकता था। यह तुलना करें कि धर्मसूत्र इस विषय में क्या कहते हैं?

वशिष्ठ धर्म सूत्र2 का मत हैः

“चार सोपान हैं: विद्यार्थी, गृहस्थ, एकांतवास और तापस।”

“जिस व्यक्ति ने एक, दो अथवा तीन वेदों का अध्ययन विद्यार्थी धर्म का उल्लंघन किए बिना किया है, वह जिस आश्रम में जीवन बिताना चाहे, बिता सकता है।”

गौतम धर्म सूत्र3 का मत हैः

“कोई (बताता है कि) वह (जिसने वेदाध्ययन किया है) किसी भी आश्रम का चयन कर सकता है।”

धर्मसूत्रों के विचार जानने पर यह स्पष्ट है कि एक समय था, जब गृहस्थाश्रम

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  1. मनुस्मृति, अध्याय 6, 33-37
  2. मनुस्मृति, अध्याय 7, श्लोक 1, 2, 3
  3. वही, अध्याय 3, श्लोक 1 और 2

 

वैकल्पिक था। ब्रह्मचर्य के पश्चात् कोई वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता था। मनु ने विकल्प क्यों समाप्त किया और गृहस्थ को क्यों अनिवार्य बनाया? उन्होंने वानप्रस्थ से पूर्व गृहस्थ को और संन्यास से पूर्व वानप्रस्थ को निवार्य क्यों घोषित किया?

गृहस्थाश्रम के पश्चात् जीवन के दो सोपान हैं, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रश्न यह है कि मनु ने यह आवश्यक क्यों माना कि गृहस्थाश्रम के पश्चात् दो आश्रम और रखे जाएं? संन्यास-आश्रम ही क्यों पर्याप्त नहीं? वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के लिए निर्धारित नियम कुछ इतने समान हैं कि असमंजस होता है।

मनु ने वानप्रस्थ और संन्यास की जो तुलनात्मक संहिता बनाई है, उसकी सारणी निम्नांकित हैः

वानप्रस्थ के लिए संहिता

“कृषि द्वारा अर्जित समस्त प्रकार के आहार तथा समस्त संपत्ति को छोड़कर वन में जाने की इच्छा नहीं करने वाली अपनी पत्नी को पुत्रें के उत्तरदायित्व में सौंपकर तथा वन में साथ जाने की इच्छा करने वाली अपनी पत्नी को साथ में लेकर वन को जाए।” अध्या. 6-3

“पवित्र अग्नि और यज्ञ पात्र आदि लेकर ग्राम से बाहर वन में जाकर जितेन्द्रिय होकर रहे।” अध्या. 6-4

“तापस योग्य विविध पवित्र खाद्य पदार्थ, कंद-मूल, फल आदि से पूर्वोक्त पंचमहायज्ञों का विधिपूर्वक पालन करता रहे।” अध्या. 6-5

“मृग आदि का चर्म या पेड़ों का वल्कल धारण करे, सायंकाल तथा प्रातःकाल स्नान करे और सर्वदा जटा, दाढ़ी, मूंछ एवं नख को (उच्छेदन रहित) धारण करे।” अध्या. 6-6

“जो भोज्य पदार्थ हो, उसी से बलि करे, सामर्थ्यानुसार दान दे, भिक्षा दे और जल, कंद तथा फलों की भिक्षा देकर आये हुए अतिथियों का सत्कार करे।” अध्या. 6-7

“सर्वदा वेदाभ्यास में लगा रहे, ठंडा-गर्म, सुख-दुख, अपमान आदि द्वंद्वों को सहन करे, सबसे मित्रभाव रखे, मन को वश में रखे, दानशील बने, दान न ले, सब जीवों पर दया करे” अध्या. 6-8

“दर्श, पौर्णमास पर्वों को यथासमय त्याग नहीं करता हुआ विधिपूर्वक तीन अग्नियों के साथ अग्निहोत्र करता रहे।” अध्या. 6-9

“नक्षत्रेष्ठि, आग्रहायण याग, चातुर्मास्य याग, उत्तरायण याग और दक्षिणायन याग को श्रोतस्मार्त विधि से क्रमशः करे।” अध्याय 6-10

‘‘वसन्त तथा शरद ऋतु में पैदा हुए एवं स्वयं लाये गये पवित्र मुन्यन्नों  से पुरोडश तथा उबले अन्न करूको शास्त्रनुसार अलग-अलग तैयार करे।” अध्या. 6-11

‘‘वन में उत्पन्न अत्यंत पवित्र और हविष्यान्न से देवों के उद्देश्य हवन कर बचे हुए अन्न का भोजन करें तथा स्वयं बनाये हुए लवण को काम में लायें।’’ अध्या. 6-12

“भूमि तथा जल में उत्पन्न शाकों (सब्जियों), पवित्र पुष्प, मूल तथा फल को, और पवित्र वृक्ष-उत्पादों और अरण्य-फलों से शोधित तैल का भोजन करे।” अध्या. 6-13

“मधु, मांस, पृथ्वी में उत्पन्न छत्रंक, भूस्तृण, शिग्रक और लसोड़े के फूल का त्याग करे।” अध्या. 6-14

“पूर्वसंचिता मुन्यन्न, पुराने वस्त्र और शाक कन्द एवं फल का आश्विन मास में त्याग कर दे।” अध्या. 6-15

‘‘वन में भी हल से जुती हुई भूमि में उत्पन्न या किसी के फेंके हुए अन्न को तथा ग्राम में उत्पन्न मूल और फल को क्षुधा पीड़ित होकर भी न खाए।’’ अध्या. 6-16

“अग्नि में पकाये हुए अन्न आदि को खाने वाला बने, अथवा नियम समय पर पकने वाले पदार्थों को खाने वाला बने अथवा पत्थर से पीस कर या दांतों से चबाकर खाने वाला बने।” अध्या 6-17

“भोजन पात्रों को वह खाने के बाद तुरंत धोए, या एक मास का संग्रह रखे, अथवा छः मास या वर्ष पर्यंत का समुचित प्रबंध करे।” अध्या- 6-18

“यथाशक्ति अनन को लाकर सायंकाल या दिन में या एक दिन पूरा उपवास कर दूसरे दिन सायंकाल या तीन रात उपवास कर चौथे दिन सायंकाल भोजन करे।” अध्या- 6-19

“अथवा शुक्ल तथा कृष्णपक्ष में चान्द्रायण के नियम से भोजन करे, अथवा अमावस्या तथा पूर्णिमा को दिन या रात्रि में केवल एक बार पकाई हुई ययागूका भोजन करे।” अध्या- 6-20

“अथवा वैखानस आश्रम में रहने वाला सर्वदा वेुवल समय पर पके और स्वयं गिरे हुए फल-मूल से ही जीवन निर्वाह करे।” अध्या- 6-21

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  1. मनुस्मृति, अध्याय 6, श्लोक 38-45
  2. वही, अध्याय 6, 207
  3. वही, अध्याय 6, 208

“भूमि पर लेटे तथा टहले या पैर के अगले भाग पर दिन में कुछ समय तक खड़ा रहे या बैठा रहे तथा प्रातःकाल मध्याह्नकाल तथा सायंकाल में स्नान करे।” अध्या- 6-22

“अपनी तपस्या को बढ़ाता हुआ ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि ले, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहे और शीत ऋतु में गीला कपड़ा धारण करे।” अध्या- 6-23

“तीनों समय स्नान करता हुआ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे और कठोर तपस्या करता हुआ अपने शरीर को सुखा दे।” अध्या- 6-24

“वानप्रस्थाश्रम के नियमानुसार वैतानिक अग्नि को आत्मा में रखकर वन में भी अग्नि और गृह का त्यागकर केवल मूल और फूल को खाये।” अध्या- 6-25

“सुख साधक साधनों में उद्योग को छोड़कर ब्रह्मचारी भूमि पर सोने वाला निवास-स्थान में ममस्वरहित हो पेड़ों के मूल को घर समझ कर निवास करे।” अध्या- 6-26

“जीवन निर्वाह के लिये केवल तपस्वी वानप्रस्थाश्रमियों के यहां भिक्षाग्रहण करे और उनका भी अभाव होने पर वन में निवास करने वाले अन्य गृहस्थ द्विजों से भिक्षा ग्रहण करे।” अध्या- 6-27

“उन वनवासी गृहस्थों का भी अभाव होने पर वन में ही निवास करता हुआ ग्राम से वृक्ष-पत्रें में या सकारों के खंडों में अथवा हाथ में ही भिक्षा को लाकर केवल आठ ग्रास भोजन करे।” अध्या- 6-28

‘‘वन में निवास करता हुआ ब्राह्मण इन नियमों को तथा शास्त्रेक्त नियमों का पालन करते हुए और आत्मसिद्धि के लिए उपनिषदों तथा वेदों में कथित वचनों का अभ्यास करे।” अध्या- 6-29

संन्यासी के लिए संहिता

“जिसमें समस्त सम्पत्ति को दक्षिणा रूप में देते हैं ऐसे प्राजापत्य यज्ञ को अनुष्ठान कर और उसमें कथित विधि से अपने में अग्नि का आरोपकर ब्राह्मण घर से संन्यास आश्रम को ग्रहण करे।” अध्या- 6-38

“जो सब प्राणियों को अभय देकर गृह से संन्यास ले लेता है, वह ब्रह्मज्ञानी तेजोमय लेाक होता है। अर्थात् वह उन लोकों को प्राप्त करता है।” अध्या- 6-39

“जिस द्विज से जीवों को लेशमात्र भी भय नहीं होता, शरीर से विमुक्त हुए उस द्विज को कहीं से भी भय नहीं होता।” अध्या- 6-40

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  1. मनुस्मृति, अध्याय 6, श्लोक 209

“पवित्र कमण्डल, दंड आदि से युक्त मौन धारण किया हुआ घर से निकला हुआ और उपस्थित इच्छा प्रवर्तक वस्तु में निःस्पृह होकर संन्यास ग्रहण करे।” अध्या- 6-41

“अकेले सिद्धि को देखता हुआ द्विज दूसरे किसी का साथ न करके अकेला ही मोक्ष के लिए चले, इस प्रकार वह किसी को नहीं छोड़ता है और न उसे कोई छोड़ता है।” अध्या- 6-42

“लौकिक अग्नि से रहित, गृह से रहित, शरीर में रोगादि होने पर भी चिकित्सा आदि का प्रबंध न करने वाला, स्थिर बुद्धिवाला, ब्रह्म का मनन करने वाला और ब्रह्म में भी भाव रखने वाला संन्यासी भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे।” अध्या- 6-43

“खपरा, पेड़ों की जड़, पुराना व मोटा या वृक्ष के वल्कल कपड़ा, अकेलापन, ममता और सबमें समान भाव, ये मुक्ति के लक्षण हैं।” अध्या- 6-44

“मरने या जीने की चाह ने करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करता रहे।” अध्या- 6-45

“ब्रह्म ध्यान में लीन योगासनों में बैठा हुआ, अपेक्षा से रहित, मांस की अभिलाषा से रहित और शरीर मात्र सहायक से युक्त मोक्ष सुख को चाहने वाला इस संसार में विचरण करे।” अध्या- 6-49

“चमत्कार और शकुन विचार, नक्षत्र विद्या, हस्तरेखा विज्ञान के चातुर्य, अंगविद्या, अनुशासन आदि के सहारे किसी भी प्रकार की भिक्षा लेने की इच्छा न करे।” अध्या- 6-50

“बहुत से वानप्रस्थों या अन्य साधुओं, ब्राह्मणों, पक्षियों, कुत्तों या दूसरे भिक्षुओं से युक्त घर में न जाए।” अध्या- 6-51

“बाल, नाखून और दाढ़ी-मूंछ कटवाकर, भिक्षापात्र, दण्ड तथा कमण्डल को लिये हुए, किसी प्राणी को पीड़ित न करता हुआ सर्वदा विचरण करे।” अध्या- 6-52

“उसके भिक्षापात्र धातु के न हों, छिद्र रहित हों, उनकी शुद्धि यज्ञ में चमस के समान केवल पानी से होती है।” अध्या- 6-53

“तुम्बा, लकड़ी, मिट्टी, बांस के पाच्यतियों के हों ऐसा स्वायंभुव पुत्र मनु ने कहा है।” अध्या- 6-54

“संन्यासी जीवन-निर्वाह के लिये दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करे, तथा उसको भी अधिक प्रमाण में लेने में आसक्ति न करे, क्योंकि भिक्षा में आसक्ति रखने वाला संन्यासी विषयों में भी आसक्त हो जाता है।” अध्या- 6-55

“घरों में जब धुआं दिखाई न पड़ता हो, मूसल का शब्द न होता हो, आग बुझ गयी हो, सब लोग भोजन कर चुके हों, और खाने के पत्तल बाहर फेंक दिये गये हों, तब भिक्षा के लिए संन्यासी सर्वदा निकले।” अध्या- 6-56

“भिक्षा न मिलने पर विषाद और मिलने पर हर्ष न करे। जितनी भिक्षा से जीव निर्वाह हो सके, उतने ही प्रमाण में भिक्षा मांगे। दण्ड, कमण्डल आदि की मात्र में भी आसक्ति न करे।” अध्या- 6-57

“विशेष रूप से आदर-सत्कार के साथ मिलने वाली भिक्षा की सर्वदा निंदा करे, क्योंकि पूजापूर्वक होने वाली भिक्षा प्राप्ति से मुक्त भी संन्यासी बंध जाता है।” अध्या- 6-58

“विषयों की ओर आकृष्ट होती हुई इन्द्रियों को थोड़ा भोजन और एकांतवास के द्वारा रोके।” अध्या- 6-59

“इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकने से, राग और द्वेष के त्याग से और प्राणियों की अहिंसा से मुक्ति के योग्य होता है।” अध्या- 6-60

“जब विषयों में दोष की भावना से सब विषयों से निःस्पृह हो जाता है, तब इस लोक में तथा परलोक में नित्यसुख को प्राप्त करता है।” अध्या- 6-80

“इस प्रकार सब संगों को धीरे-धीरे छोड़कर तथा सब द्वंद्वों से छुटकारा पाकर ब्रह्म में ही लीन हो जाता है।” अध्या- 6-81

“यह सब परमात्मा में ध्यान से होता है। अध्यात्म ज्ञान से शून्य ध्यान का फल कोई भी नहीं प्राप्त करता है।” अध्या- 6-82

“यज्ञ तथा देव के प्रतिपादक वेदमंत्र को, जीवन के स्वरूप के प्रतिपादक वेदमंत्र को और ब्रह्मप्रतिपादक वेदान्त में वर्णित मंत्र को जपे।” अध्या- 6-83

“वेदार्थ को नहीं जानने वाले के लिए यही वेद शरण है, और वेदार्थ जानने वाले के लिए स्वर्ग चाहने वालों के लिए भी वेद शरण है।” अध्या- 6-84

“इस क्रम से जो द्विज संन्यास लेता है वह इस संसार में पाप को नष्ट कर उत्कृष्ट ब्रह्म को प्राप्त करता है।” अध्या- 6-85

वानप्रस्थ की संन्यास से और गृहस्थाश्रम की संन्यास से तुलना करने पर इनके मध्य स्पष्ट साम्यता का पता चलता है। जब वानप्रस्थ की संन्यास से तुलना करते हैं तो उनके अनुसार जीवनयापन में बहुत कम अंतर मिलता है। प्रथम यह कि वानप्रस्थ अपनी पत्नी और सम्पत्ति के अधिकार का त्याग नहीं करता है। परन्तु संन्यासी को दोनों का त्याग करना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि वानप्रस्थ का निवास स्थायी होता है, चाहे वह वनवास ही क्यों न हो। किन्तु संन्यासी का आवास स्थायी नहीं होता, यहां तक कि वनों में भी उसे स्थान-स्थान पर रमण करना होता है। तीसरे यह कि संन्यासी के लिए शास्त्रों की व्याख्या करने पर प्रतिबंध है, जबकि वानप्रस्थ के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है। जहां तक अन्य बातों का प्रश्न है, वे एक समान हैं।

गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम के बीच भी बहुत साम्य है। मूलरूप से वानप्रस्थी गृहस्थ ही है जैसे वानप्रस्थी का वैवाहिक जीवन जारी रहता है। गृहस्थी के समान वह सम्पत्ति का स्वामी रहता है। गृहस्थ की भांति वह संसार का त्याग नहीं करता। वह वैदिक धर्म का पालन करता है। गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ के बीच तीन बातों का अंतर हैः (1) गृहस्थ के भोजन और वस्त्र पहनने में कोई सादगी नहीं है, जबकि वानप्रस्थ के लिए ऐसी व्यवस्था है, (2) गृहस्थ समाज के मध्य रहता है, जबकि वानप्रस्थ को वनों में रहना होता है, (3) वानप्रस्थी, वेदांत का अध्ययन कर सकता है, जबकि गृहस्थ वेदों तक ही सीमित रहता है। शेष बातों में साम्यता है। गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम के बीच इतनी सारी साम्यताओं के रहते हुए, यह समझना कठिन है कि मनु ने गृहस्थाश्रम और संन्यास के बीच वानप्रस्थ की रचना क्यों की, क्योंकि एक आश्रम दूसरे से बिल्कुल भिन्न होता है। वास्तव में केवल तीन आश्रम हो सकते थे- (1) ब्रह्मचर्य, (2) गृहस्थ, (3) संन्यास। शंकराचार्य का मत भी ऐसा ही लगता है, जिन्होंने अपने ब्रह्म-सूत्र में, संन्यास को सही बताते हुए पूर्व मीमांसा परम्परा के विपरीत तीन ही आश्रमों की बात कही है।

मनु को वानप्रस्थाश्रम की बात कैसे सूझी? उनको प्रेरणा कहां से मिली? जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ब्रह्मचर्य के पश्चात् गृहस्थाश्रम अनिवार्य नहीं था। ब्रह्मचारी गृहस्थाश्रम अपनाए बिना सीधा संन्यासी बन सकता है। परन्तु मानव का अन्य भी एक चरण था। जो ब्रह्मचारी तुरन्त विवाह नहीं करना चाहता था, वह अरण्यमानस1 (वनवासी) बन सकता था। वे ऐसे ब्रह्मचारी थे, जो अविवाहित रहकर अध्ययन जारी रखना चाहते थे। ये अरण्यवासी आबादी से दूर वनों में रहते थे। जिन वनों में अरण्य तापस बसते थे, वे आरण्यक कहलाते थे। यह स्पष्ट है कि मनु का वानप्रस्थ दो भिन्नताओं के कारण मौलिक अरण था। 1. वह वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने से पूर्व स्वबंधित ‘अरण’ था और 2. यह अरण अवस्था, द्वितीय अवस्था के स्थान पर तृतीय अवस्था कहलाती थी। मनु का पूरा कार्यक्रम इस सिद्धांत पर आधारित था कि विवाह अनिवार्य है। कोई ब्रह्मचारी यदि संन्यासी बनना चाहता है तो उसे वानप्रस्थ में जाना होता था और वानप्रस्थ बनने के लिए गृहस्थ बनना अनिवार्य था अर्थात् उसे विवाह करना चाहिए। मनु ने विवाह से मुक्ति को असंभव बना दिया। क्यों?

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  1. राजा कुमुद मुकर्जी-एंशिएंट इंडिया एजूकेशन, पृ. 6