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बारहवीं पहेली – ब्राह्मणों ने देवताओं का मुकुट क्यों उतारा और देवियों की ताजपोशी की ?

सामान्यतः देवताओं की उपासना सभी करते हैं, परन्तु देवियों की पूजा अनोखी होती है इसका कारण यह है कि देवता सामान्यतः अविवाहित होते हैं और कोई पत्नियां नहीं होतीं जिन्हें देवियों का सथान दिया जा सके। देवता के विवाहित होने पर कैसा विवाद हो सकता है, यह इससे प्रकट होता है कि यहूदियों को ईसाई इस बात से सहमत नहीं कर सके कि ईसा परमात्मा के पुत्रा हैं। यहूदियों ने कहा कि ईश्वर का विवाह ही नहीं हुआ तो ईसा ईश्वर पुत्रा केसे हो सकते हैं?

हिंदुओं में स्थिति ठीक विपरीत है। वे केवल देवताओं की उपासना ही नहीं करते बल्कि वे देवियों की पूजा भी करते हैं। यह परम्परा आरंभ से ही है।

ऋग्वेद में अनेक देवियों का उल्लेख है जैसे पृथ्वी, अदिति, दिति, निश्तिग्री, इन्द्राणी, प्रिशनी, उषा, सूर्या, अग्नयी, वरुणानी, रौद्रसी, राका, सिनिवली, श्रद्धा, अरामति, अप्सरा और सरस्वती।

पृथ्वी अत्यंत प्राचीन आर्य देवी है।

उसे द्यौस, स्वर्ग अथवा पारजन्य की पत्नी कहा जाता है। पृथ्वी बहुत महत्वपूर्ण देवी है और कई देवताओं की माता कहलाती है।

अदिति भी कालक्रम की दृष्टि से प्राचीन वैदिक देवी है। उसे देवताओं की शक्तिशाली माता कहा गया है। मित्रा, आर्यमान् और वरुण उसके पुत्रा हैं। ऋग्वेद से यह पता नहीं चलता कि उसका विवाह किससे हुआ था? हम दिति के विषय में

अंग्रेजी के मूल लेख कोशीर्षक ‘‘वैदिक और अवैदिक देवियां’’ था। इस अध्याय की विषय-वस्तु और अंतिम पैरा के संदर्भ में इस  पहेली 12 में सम्मिलित किया गया है। यह अंग्रेजी में इक्कीसेपृष्ठ की टंकित प्रति थी जिसमें लेखक ने कतिपय सुधर-संशोधन किए थे और अपने हाथ से अंतिम पैरा संशोधित किया था। – संपादक

इससे अधिक कुछ नहीं जानते कि वह अदिति के समान किन्तु विपरीत देवी है। और कालातीत में हिंदू पुराणों के अनुसार देवों के शत्रु दैत्य उसी के पुत्रा हैं।

देवी निश्तिग्री इन्द्र की माता है और इन्द्राणी इन्द्र की पत्नी है। प्रिश्नी मारुत की माता है। ऊषा आकाश की पुत्री बताई गई है, भग की बहन और वरुण की संबंधी तथा सूर्य की पत्नी है। सूर्या सूर्य की पुत्री और अश्विनियों अथवा सोम की पत्नी है।

अग्नयी, वरुणानी, रौद्रसी क्रमशः अग्नि, वरुण और रुद्र की पत्नियां हैं। अन्य देवियां या तो नदियों का मानवीकरण हैं अथवा उनका विवरण प्राप्त नहीं है।

इस विश्लेषण से दो बातें स्पष्ट हैं। पहली बात यह है कि हिंदू देवता विवाह-बंधन में बंध सकते हैं और उनके भक्तों को इस बात से कोई परेशानी नहीं होती कि उनको आराध्य एक आम आदमी से इस संबंध में बेहतर नहीं है। दूसरी बात यह है कि देवताओं की पत्नियां स्वतः ही पूजनीय देवी बन जाती हैं जो देव उपासकों द्वारा पूजी जाने लगती हैं।

वैदिक काल को छोड़कर पौराणिक काल पर आते हैं तो हमारा परिचय अनेक देवियों से होता है जैसे, देवी, उमा, सती, अम्बिका, पार्वती, हेमावती, गौरी, काली, निऋति, चण्डी और कात्यायनी, दुर्गा, दसभुजा, सिंहवाहिनी, महिषासुरमर्दनी, जगत्धात्री, मुक्तकेशी, तारा, छिन्नमस्तिका, जगदगौरी, प्रत्यांगिरा, अन्नपूर्णा, गणेशजननी, कृष्णकरोर और लक्ष्मी। यह पता लगाना अत्यंत कठिन है कि इन देवियों में कौन क्या है। पहली कठिनाई तो यह है कि ये सभी अलग-अलग देवियां हैं अथवा एक देवी के कई पर्याय हैं। उनके माता-पिता के संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। न ही कोई निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उनके पति कौन हैं?

एक उल्लेख से उमा, देवी, सती, पार्वती, गौरी और अम्बिका एक ही देवी के पर्याय हैं। दूसरी ओर कुछ ने कहा है कि देवी दक्ष की पुत्री है, अम्बिका रुद्र की भगिनी है, पार्वती के संबंध में वाराह पुराण ने उसको आविर्भाव इस प्रकार बताया1 है।

ब्रह्मा जब एक बार शिव से मिलने कैलासेपर गए तो उन्हें सम्बोधन किया गया, ‘‘ब्रह्मा! शीघ्र कहो तमु मेरे पास क्यों आए हो? ’’ ब्रह्मा ने उत्तर दिया, ‘‘एक शक्तिशाली असुर अंधक (अंधकार) है जिससे सभी देव त्रास्त हैं। परित्राण के लिए आए देवों की शिकायत लेकर मैं तुम्हारे पास चला आया।’’ फिर ब्रह्मा ने उत्सुकता से शिव की ओर देखा जिन्होनें विचार कर विष्णु को अपने पास बुलाया। जैसे ही इन तीन देवों ने एक-दूसरे से नजरें मिलाई, उसकी आभा से एक नीलाभ दिव्य

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  1. विलकिंसेमें उद्धृत ‘‘हिंदू माइथालोजी’’ पृ. 290-91

 

सुंदरी अवतरित हुई, जो नील कमल की पंखुड़ियों के समान थी और रत्नाभूषणों से अलंकृत थी। वह तुरंत  ब्रह्मा, विष्णु और महेश के आगे नतमस्तक हो गई। जब उन्होंने पूछोकि वह कौन है और उसमें तीन श्यामल, श्वेत, लाल वर्ण क्यों हैं, उसने कहा, मैं आपकी दृष्टि से उत्पन्न हुई हूं। क्या आप अपनी सर्वशक्तिमान ऊर्जा से परिचित नहीं? ब्रह्मा ने उसकी प्रशंसा में कहा, ‘‘तेरा नाम त्रिकाल (भूत, वर्तमान और भविष्य) की देवी रह गा, संसार की पालक होगी और विभिन्न पूजाओं में तेरी पूजा होगी क्योंकि तू अपने भक्तों के मनोरथ पूरे करेगी। परन्तु हे देवी! तू अपने वर्णों के अनुसार तीन भाग कर ले। तब ब्रह्मा के कहे अनुसार उसने अपने रंगों के अनुसार तीन भाग कर लिए, एक श्वेत, दूसरा लाल और तीसरा श्याम। पहली अनिंद्य सुनदरी सरस्वती थी और सृष्टि रचना में उसने ब्रह्मा का हाथ बंटाया, लाल वर्ण की विष्णुप्रिया लक्ष्मी थी, जिसने विश्व कोपालन किया, तीसरी पार्वती थी, जिससे शिव को अनेक गुण और शक्ति प्राप्त हुई।

यह बताने का प्रयास किया गया है कि सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती एक ही देवी के तीन रूप हैं। हमें ध्यान रहता है कि सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी है। लक्ष्मी विष्णु की और पार्वती शिव की और ब्रह्मा, विष्णु और शिव के बीच संघर्ष भी हुआ। वाराह  पुराण की यह व्याख्या बेतुकी लगती है।

गौरी कौन है? पुराण कहता है गौरी पार्वती का दूसरा नाम है। पार्वती गौरी1 क्यों कहलाई? इसका कारण है कि जब शिव और पार्वती कैलास पर्वत पर रहते थे तो उनके बीच कई बार झगड़ा हो जाता था। एक बार शिव ने उन्हें श्याम रंग की बता कर निंदोकी। इस कटाक्ष से वह इतनी दुःखी हुई कि घने जंगलों में चली गई और घोर तपस्या की। अंत में बह्मा प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया जिससे उनका वर्ण कुन्दन जैसा हो गया। इस कारण वह गौरी के नाम से विख्यात हुई।

दूसरी देवियों के विषय में यह निश्चित नहीं कि वे एक ही देवी के पर्यायवाची नाम हैं अथवा इन नामों की भिन्न-भिन्न देवियां हैं। महाभारत में अर्जुन ने दुर्गा के विषय में एक श्लोक पढ़ा जिसके अनुसार वह कहता है2 :

तेरा नमन है, सिद्ध सेनानी, भद्रे, मंदरावासिनी, कुमारी, काली, कपाली, कपिला, कृष्ण पिंगला, तेरा नमन है, भद्रकाली, तेरा नमन है, महाकाली, चण्डी, चण्ड, तारिणी, वारावारुणी, (सुनदर-रंगरंजित), हे महाभाग्या कल्याणी, ओ कराली, ओ विजया, ओ जया, कृष्ण की अनुजा, महिषारक्त पायी, ओ उमा, शाकम्भरी, तू गौरांग, तू श्यामलांग,

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  1. विलकिस, पृ. 289-90
  2. वही. पृ. 306-7

ओ केटभ हंता, ओ विज्ञान, तू वेदों की कला-ज्ञान है, सभी भूतों की महानिद्रा, ओ स्कंद (कार्तिकेय) जननि, देवी दुर्गा कमलासिनी, तू महादेवी है। मैं शुद्ध हृदय से महादेवी की स्तुति करता हूं, तेरी कृपा से मैं युद्ध में विजयी होऊं।

इस श्लाके से यह स्पष्ट होता है कि यह देवियों को उपरोक्त उल्लेख मात्र वे दुर्गा के ही पर्याय हैं साथ ही दसभुजा, सिहं वाहिनी, महिषासुरमर्दिनी, जगद्धात्री, छिन्नमस्तिका, जगत गौरी, प्रत्यागिरी, अन्नपूर्णा, दुर्गा के ही नाम हैं या उनके विभिन्न रूप हैं।

इस प्रकार दो प्रधान देवियां हैं। एक पार्वती और दूसरी दुर्गा। बाकी उन्हीं के नाम हैं। पार्वती दक्ष प्रजापति की पुत्री और शिव की पत्नी है। दुर्गा कृष्ण की बहिन और शिव पत्नी है। दुर्गा और काली के विषय में पता नहीं चलता। अर्जुन द्वारा पढ़े गए श्लोक में दुर्गा और काली एक ही हैं। परन्तु लिंग पुराण में भिन्न मत प्रकट किया गया है। उसके अनुसार1 काली और दुर्गा अलग-अलग हैं।

इतिहास का विद्यार्थी वैदिक और पौराणिक देवियों के बीच तुलना की उपेक्षा नहीं कर सकता जिसका उद्देश्य मात्रा इतहास लिखना नहीं, उसका विश्लेषण करना भी होता है। दोनों के बीच में एक विरोधभास है। वैदिक देवियों की उपासना मात्रा औपचारिकतावश की जाती है। उनकी पूजा मात्रा इसलिए की जाती है कि वे देव पत्नियां हैं। पौराणिक देवियों की पूजा भिन्न प्रकार की है। उनकी पूजा का अपना अधार है। यह नहीं कि वे देव-पत्नियां हैं। भिन्नता इसलिए है कि वैदिक-देवियां कभी रणक्षेत्रा में नहीं गईं और ना ही किसी प्रकार का शौर्य-प्रदर्शन किया। पौराणिक देवियां रणचंडी है। और उन्होंने वीरता दिखाई है। उनकी पूजा औपचारिकता नहीं है। इसका कारण उनकी वीरता और पराक्रम है।

कहा जाता है कि दुर्गा और दो असुरों के बीच हुए घमासान युद्ध के कारण ही दुर्गा की प्रसिद्धि हुई। यह कहानी मार्कण्डेय पुराण में विस्तृत रूप से कही गई है। इसके अनुसारः2

‘‘त्रेता युग के अंत में शुंभ, निशुंभ नामक दो बलशाली अससुरों ने दस हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। इसके कारण स्वर्ग से शिव प्रकट हएु जिन्हें पता चला कि अपनी विलक्षण तपस्या के आधार पर वे अमरता को वरदान चाहते हैं। उन्होनें दोनों को बहुत समझाया और इस बात का असफल प्रयास किया कि वे किसी अन्य वरदान से संतुष्ट हो जाएं। जब उनका मनोरथ पूरा न हुआ तो उन्होंने एक हजार साल तक और कठिन तपस्या की। शिव फिर प्रकट हुए और उनको वही वर देने से

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  1. विलकिस, हिंदू माइथोलाजी, पृ. 313
  2. वही. पृ. 302-6

इंकार कर दिया। फिर वे सिर के बल उल्टे लटक गए और नीचे धीमी अग्नि जला ली। उन्होंने 800 साल तक तपस्या की जब तक उनकी गर्दन से रक्त नहीं बहने लगा। यह सोचकर कि कहीं ऐसे प्रचण्ड तप से ये हमारा सिंहासन ही न छीन लें, देवतागण कांप उठे। देवराज ने एक सभा बुलाई और अपनी आशंका जताई। उन्होंने स्वीकार किया कि यह गंभीर बात है परन्तु पूछा कि इसका उपाय क्या है? इन्द्र के परामर्श पर कंदर्प (कामदेव) परम सुंदरी अप्सराओं सम्भा और तिलोत्तमा को साथ लेकर महाबलि असुरों की कामुकता जगाने हेतु उनके पास भेजे गए। कंदर्प ने अपने (प्रेम) बाण छोड़े और असुरों को घायल कर दिया। ये युगल सुनदरियों के जाल में पंफसेकर मोहित हो गए और तपस्या भंग कर दी। इन सुंदरियों के साथ उन्होंने पांच हजार वर्ष बिताए। फिर उन्हें ध्यान आया कि कामुकता के कारण उनकी अमरता की आशा पर पानी फिर गया है। उनको संदेह हुआ कि यह जाल इन्द्र की मिलीभगत से ही बिछाया गया है, इसलिए स्वर्ग के मोह में उन्होंने फिर पूजा आरम्भ कर दी। एक हजार वर्ष तक यह क्रम जारी रखा, जब तक कि वे कंकाल न बन गए। शिव प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया कि वे देवताओं से बढ़कर बलशाली होंगे।

देवताओं से अधिाक बलशाली होकर उन्होंने उनसे युद्ध छेड़ दिया। दोनों पक्षों में घमासान संघर्ष के पश्चात् असुर विजयी रह । जब इन्द्र और अन्य देवताओं की स्थिति दयनीय हो गई तो उन्होंने ब्रह्मा और विष्णु की सहायता मांगी। दोनों ने उन्हें शिव के पास भेज दिया। शिव ने कहा कि वे कुछ करने में समर्थ नहीं हैं। उन्हें याद दिलाया गया कि इसके कारण तो वही हैं, उन्हीं के वरदान के फलस्वरूप वे बरबाद हो रह  हैं। तब शिव ने उन्हें देवी दुर्गा की तपस्या करने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा ही किया। कुछ समय पश्चात् देवी प्रकट हुई और उन्हें वर दिया। फिर अपने-आप एक साधारण स्त्री का रूप धारण किया और पानी का एक घड़ा लेकर वह देवताओं के बीच से गुजरी। फिर उन्होंने अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया और कहा कि तुम मेरी स्तुति करो।

यह नई देवी हिमालय पर्वत पर गई, जहां शुंभ-निशुंभ के दो दूत चण्ड-मुण्ड रहते थे। जब ये दैत्य पर्वत पर विचर रह  थे तो उन्होंने देवी को देखा और वे उसका रूप देखकर चकित रह गए। उन्होंने अपने-अपने स्वामी गण से इसको वर्णन किया और देवी को प्राप्त करने के लिए उकसाया चाहे उन्हें अपनी सारी निधियां भी न्यौछावर क्यों न करनी पड़े, जो उन्होंने स्वर्ग के देवताओं से लूटी हैं।

शुंभ ने देवी के पास सुग्रीव को संदेशवाहक के रूप में भेजा कि वह कहे कि तीनों लोकों को सुख उसके प्रासाद में है। जो भेंट कभी देवताओं को चढ़ाई जाती थी, अब उसे चढ़ाई जा रही है। देवी ने कहा- प्रस्ताव बहुत ठीक है। परन्तु उन्होंने यह स्ंकल्प किया है कि वह उसी से विवाह रचायेगी जो उसे युद्ध में जीतेगा और डसका मान-मर्दन करेगा।

सुग्रीव निष्फल लौटना नहीं चाहता था। उसने देवी से हामी भरवाने के लिए गरजकर कहा ‘‘क्या वह उसके स्वामी को जानती है? जिसके समक्ष विश्व को कोई व्यक्ति नहीं टिक सकता चाहे वह देवता हो, दैत्य हो, अथवा मनुष्य हो? तब क्या एक स्त्री होकर वह इस प्रस्ताव को ठुकराने का दुस्साहस कर सकती है? क्योंकि उसके स्वामी का आदेश है, वह तुम्हें उनके समक्ष तुरंत प्रस्तुत करने को विवश कर सकता है। देवी ने कहा – यह ठीक है परन्तु उन्होंने अपना संकल्प दोहराया और कहा कि वे अपने स्वामी को मनाएं और वह उनके साथ अपनी शक्ति-परीक्षा करें।

दूत वापस चला गया और अपने स्वामी से सब कहा सुनाया। यह सुनकर शुंभ क्रोध से जल उठा और कोई उत्तर दिए बिना उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन को बुलाया उसे हिमालय जाकर देवी को पकड़ लाने को आदेश दिया और कहा यदि कोई रक्षा के लिए आए तो उसे वहीं नष्ट कर देना।

सेनापति हिमालय पर गया और देवी को अपने स्वामी को आदेश सुनाया। उन्होंने मुस्कराते हुए आदेश-पालन की सलाह दी। उस वीर के आने पर देवी ने एक भयानक गर्जना की, जिससे वह भस्मीभूत हो गया। इसके पश्चात् उन्होंने दैत्य की सेना नष्ट कर दी। केवल कुछ भगोड़ों को छोड़ दिया जिससे कि वे उसे समाचार दे सकें। शुंभ-निशुंभ आपे से बाहर हो गए और चण्ड-मुण्ड को पठाया। पर्वत पर जाकर उन्होंने देखा कि एक स्त्री गधे पर बैठी अट्टहासेकर रही है। उन्हें देखकर वह कुपत हो गई और उनकी सेना के दस, बीसेऔर तीसे सैनिकों को एक साथ उठा-उठा कर ऐसे खाने लगी जैसे कोई पफल खाता है। उन्होंने फिर मुंड को केशों से पकड़ा और उसका सिर काट कर अपने मुख के ऊपर लटका कर उसका खून पी गई। चण्ड ने जब एक वीर की गति देखी तो वह देवी की ओर बढ़ा, पर वह सिंह पर चढ़ गई और उस पर झपट पड़ी और उसका भी वही हाल किया जो मुण्ड का किया था। उसके बहुत से सैनिकों को खा लिया और घायलों का खून पी लिया।

महाबलियों ने जैसे ही यह चिंताजनक समाचार सुना, उन्होंने स्वयं जाने का संकल्प किया और अपने सैनिकों को एकत्र करके असंख्य वीरों को लेकर हिमालय की ओर बढ़े। देवताओं ने इस विशाल सेना को आश्चर्यपूर्वक देखा ओर देवी महामाया (दुर्गा) की सहायता के लिए आरोहित हुई, जिन्होंने शीघ्र ही शुंभ-निशुंभ  के सेनानायक अपने शत्रु रक्तबीज को नष्ट कर दिया। उन्होनें देखा कि देवी ने उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया। यद्यपि उन्होंने रक्तबीज के पूरे शरीर को छलनी कर दिया किन्तु उसके रक्त की एक-एक बूंद से एक-एक सहस्त्र उतने ही बलशाली रक्तबीज पैदो हो गए। इस प्रकार असंख्य शत्रुओं ने दुर्गा को घेर लिया। देवों ने देखा कि देवी के लिए संकट उत्पन्न हो गया है। इस अवसर पर दुर्गा के साथ लड़ रही काली से कहा कि यदि वह रक्तबीज के रक्त की बूंद धरती पर गिरने से पहले ही पी जाएगी तो चण्डी उससे लड़कर उसकी चाल विपफल कर देगी। काली ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार सेनानायक सहित पूरी सेना को मौत के घाट उतार दिया गया।

अब शुंभ-निशुंभ ने निराश होकर देवी को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। पहले शुंभ मैदान में आया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। बाद में दोनों महाबलि काल-कवलित हुए। काली ने जम कर रक्तपान किया। देवताओं और देव पत्नियों ने देवी वीरांगना की जय-जयकार किया। देवी ने उन्हें आशीर्वाद दिया।’’

मार्कण्डेय पुराण में विभिन्न रूपों में दुर्गा के वीरोचित कार्यों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। वह कहता हैः

‘‘दुर्गा के रूप में उन्होंने दैत्यों का संदेश ग्रहण किया, दसेभुजा के रूप में उन्होंने उनकी सेना का संहार किया, सिंहवाहिनी के रूप में रक्तबीज से लड़ी, महिषासुर-मर्दनी के रूप में महिषासुर रूपी शुंभ का हनन कया। जगतधत्री के रूप में उन्होंने दैत्यों की सेना का संहार किया। काली के रूप में रक्तबीज का नाश किया। मुक्तकेशी के रूप में उन्होंने दैत्यों की दूसरी सेना को समाप्त कर दिया। तारा बनकर शुंभ को उसके वास्तविक रूप में मौत के घाट उतारा, छिन्नमस्तका के रूप में उन्होंने निशुंभ का वध कया, जगद-गौरी (स्वर्णवर्णा) बनकर उन्होंने देवताओं का अभिवादन और आभार स्वीकार किया।’’

वैदिक तथा पौराणिक देवियों की तुलना में कुछ रोचक प्रश्न उभरते हैं। इनमें से एक स्वाभाविक है। वैदिक साहित्य में असुरों के साथ युद्ध के अनेक कारण हैं। ब्राह्मण साहित्य में भी उसकी आवृति है। परन्तु असुरों के साथ सभी युद्ध वैदिक देवों ने लड़े। वैदिक देवियां उनमें सम्मिलित नहीं हुई थीं।

पौराणिक देवियों के संबंध में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। पौराणिक काल में भी वैदिक काल की भांति असुरों से युद्धों का विवरण है। भिन्नता यह है कि वैदिक काल में असुरों से देवता लड़े, लेकिन पौराणिक काल में देवियां लड़ीं। ऐसा क्यों है? क्योंकि पौराणिक काल में वह कार्य देवियों को करना पड़ा, जो वैदिक काल में देवों ने किया? यह बात नहीं है कि पौराणिक काल में देवता विद्यमान नहीं थे। ब्रह्मा, विष्णु और शिव मौजूद थे, जिनका पौराणिक काल में आधिपत्य रहा। जब वे असुरोंसे युद्ध के लिए मौजूद थे तो देवियां इस उद्देश्य से क्यों आर्गे आइं। इस चक्रव्यूह से

निकलने का रास्ता नहीं मिलता और इसका उत्तर चाहिए।

दूसरा प्रश्न यह है कि शक्ति को वह स्रोत क्या है जो पौराणिक देवियों में विद्यमान था और वैदिक देवियों में नहीं था? पौराणिकों का उत्तर है कि देवताओं की शक्ति ही देवियों में निहित थी। सामान्य सिद्धांत यह था कि प्रत्येक देव में शक्ति थी और वही शक्ति उनकी पत्नियों में विराजमान थी। यह सिद्धांत इतना प्रचलित हुआ कि देवियां शक्ति कहलाने लगीं और देवियों के उपासक शाक्त कहलाए।

इस सिद्धांत के संबंध में कुछ प्रश्न उठते हैं :-

पहला यह कि यद्यपि पुराणों में अनेक देवियों के नाम हैं। किन्तु उनकी संख्या वास्तव में पांच ही है। सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली। सरस्वती और लक्ष्मी, ब्रह्मा और विष्णु की पत्नियां हैं, जो शिव की भांति ही पौराणिक देवता हैं। पार्वती, दुर्गा और काली शिव की पत्नियां हैं। सरस्वती और लक्ष्मी ने किसी असुर का संहार

नहीं किया और कोई वीरता नहीं दिखाई। प्रश्न है क्यों? ब्रह्मा और विष्णु में भी शक्ति थी फिर उस सिद्धांत के अनुसार उनकी पत्नियों में भी संनिहित होनी चाहिए थी। फिर सरस्वती और लक्ष्मी ने असुरों के विरुध युद्ध क्यों नहीं किया? यह भूमिका केवल शिव पत्नियों के लिए ही थी। यहां भी पार्वती की भूमिका दुर्गा से भिन्न थी। पार्वती एक सामान्य नारी दिखाई गई है। दुर्गा की भांति वह भी शिव की शक्ति है। पार्वती में शिव की शक्ति इतनी शिथिल, साधारण और निष्क्रिय क्यों है?

दूसरा प्रश्न यह है की देवियों की स्वतंत्र रूप से पूजा आरंभ करने का यह औचित्य सही लगता है परन्तु तार्किक और ऐतहासिक दृष्टि से इस स्वीकार करने में कठिनाई है। शुद्ध तार्विफक दृष्टि से देखें तो यदि प्रत्येक देव में शक्ति है तो फिर वैदिक देवों में भी वह शक्ति होनी चाहिए थी। फिर वैदिक देवों की पत्नियों पर यह सिद्धांत लागू क्यों नहीं होता? यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह कहने का कोई औचित्य नहीं है कि पौराणिक देवों में भी यह शक्ति विद्यमान थी।

फिर ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों ने यह नहीं सोचा कि उन्होंने मात्रा दुर्गा को ही वीरांगना बताया है जिसने असुरों का संहार किया। इससे उनके अपने ही देवता दयनीय तथा पामर अथवा कायर सिद्ध होते हैं। ऐसा प्रकट होता है कि देवता असुरों से अपनी रक्षा नहीं कर पाए और उन्हें अपनी पत्नियों का सहारा लेना पड़ा। इस संबंध में मार्कण्डेय पुराण का एक उदाहरण ही पर्याप्त है कि पौराणिक देव कितने दुर्बल थे, और ब्राह्मणों के अनुसार केसी दुर्बलता उन्होंने असुरों के समक्ष दिखाई। मार्कण्डेय पुराण कहता हैः

‘‘दैत्यों के राजा महिष ने एक बार युद्ध में देवताओं को इतनी पटखनी खिलाई कि वे धरती पर भिखारियों की तरह घूमते थे। पहले इन्द्र उन्हें ब्रह्मा के पास ले गए फिर शिव के। क्योंकि ये दोनों देव कोई भी सहायता करने की स्थिति में नहीं थे, वे विष्णु के पास पहुंचे। विष्णु उनका संताप देखकर इतने दुखी हुए कि उनके नेत्रों से एक प्रभा उत्पन्न हुईं, उसमें से एक नारी-रूप प्रकट हुआ, जिसका नाम महामाया (दुर्गा का दूसरा नाम) था। अन्य देवताओं के मुखों सेभी आभा फूटी। वह भी महामाया में समा गई, इसका परिणाम यह निकला कि वह आभा पुंज बन गई जैसे कि अग्नि का पर्वत हो। वह वायुमंडलन में उड़ गई और दैत्यों को पछाड़ा तथा देवताओं की रक्षा की।’’

ऐसे कायर देवों में शक्ति कहां थी? जब उनमें शक्ति नहीं थी तो वे अपनी पत्नियों को केसे दे सकते थे? यह कहना कि देवियों में शक्ति थी, मात्रा एक पहेली ही नहीं है, वरन् एक विसंगति है। इसका उत्तर कोई नहीं दे पाता कि शक्ति के सिद्धांत का अनुसंधन क्यों किया गया? क्या ब्राह्मणों ने धर्म के नाम पर नये सिद्धांत को गढ़कर देवी-पूजा प्रारंभ नहीं की और देवताओं को अपमान नहीं किया?