बाईसवीं पहेली
ब्रह्म धर्म नहीं है, ब्रह्मा किस काम का?
इतिहास में कई प्रकार की सरकारों का वर्णन है, वे हैं- राजतंत्र, कुलीनतंत्र, और प्रजातंत्र। इसमें अधिनायकवाद भी जोड़ा जा सकता है।
इस समय सर्वाधिक सरकारें प्रजातांत्रिक हैं। बहरहाल इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि प्रजातंत्र क्या है? इस विषय का निरूपण करने पर हमें इस संबंध में दो विचार मिलते हैं। एक विचार है कि प्रजातंत्र एक प्रकार की सरकार है। इस विचार के अनुसार जब सरकार प्रजा द्वारा चुनी जाती है और जहां प्रतिनिधि सरकार है, वही प्रजातंत्र है। इसके अधीन प्रजातंत्र और प्रतिनिधि सरकार पर्यायवाची है जिसका अर्थ है वयस्क मताधिकार और समय-समय पर चुनाव।
दूसरे मत के अनुसार प्रजातंत्र सरकार की प्रणाली से भी बढ़कर है। यह समाज के संगठन का स्वरूप है। इसके लिए दो आवश्यक स्थितियां हैं जो इस बात का लक्षण है कि समाज प्रजातांत्रिक ढंग से गठित है। पहला यह कि समाज को वर्गों में विभक्त न किया जाए। दूसरा, लोगों और वर्गों की सामाजिक प्रवृति, जो निरन्तर समायोजन और हित सहयोजन को तत्पर हो। जहां तक प्रथम का संबंध है, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्रजातंत्र का अति आवश्यक अंग है। जैसा कि प्रो- डेवी का मत है:1
(लेखक द्वारा निर्दिष्ट उद्धरण मूल पाण्डुलिपि ‘डेमोक्रेसी एंड एजूकेशन’, पृष्ठ 98 में उपलब्ध नहीं है।)
प्रजातांत्रिक ढंग से गठित समाज के लिए दूसरी शर्त भी उतनी ही आवश्यक है। वर्गों और व्यक्तियों के हितों में परस्पर सहयोजन न होने के प्रजातंत्र विरोधी परिणाम होते हैं जिनका प्रो- डेवी ने2 भलीभांति वर्णन किया है:
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- डेमोक्रेसी एंड एजूकेशन, पृ. 98
- वही, पृ. 99
इस अध्याय के मूल 20 पृष्ठ हैं। प्रथम दो और अंतिम छह लेखक के हस्तलिखित हैं। शेष टंकित पृष्ठों पर लेखक के संशोधन हैं। – संपादक
प्रजातंत्र के इन दो विचारों में निःसंदेह प्रथम यदि गलत भी नहीं तो अनावश्यक है। उस समय तक प्रजातांत्रिक सरकार नहीं कहला सकती जब तक कि उस समाज जिनके लिए वह कार्यरत है, उसकी रचना पद्धति प्रजातांत्रिक न हो। जो यह सोचते हैं कि प्रजातंत्र का अर्थ मात्र चुनाव कराना है, वे तीन गलतियां करते हैं।
पहली गलती तो यह विचार है कि सरकार और समाज बिलकुल अलग-अलग हैं। दरअसल सरकार समाज से अलग नहीं है। सरकार अनेक ऐसी संस्थाओं में से है जो समाज में जन्म लेती है और सामूहिक सामाजिक जीवन के लिए उसे कुछ आवश्यक काम सौंपे जाते हैं।
दूसरी गलती वे यह करते हैं कि वह यह नहीं समझते कि सरकार किसी समाज के अंतिम लक्ष्य, उद्देश्यों और आकांक्षाओं की प्रतिबिम्ब है और यह तभी संभव है जब समाज, जिसमें कि वह सरकार है, उसकी बुनियाद प्रजातांत्रिक है। अगर समाज की संरचना प्रजातांत्रिक नहीं तो सरकार भी वैसी नहीं हो सकती। जहां समाज शासक और शक्ति वर्ग में बंटा होगा, वहां सरकार, निश्चित रूप से शासक वर्ग की होगी।
उनकी तीसरी गलती यह है कि वे यह भूल जाते हैं कि किसी सरकार का अच्छा या बुरा होना, प्रजातांत्रिक या अप्रजातांत्रिक होना, आमतौर से उसके प्रशासनतंत्र पर निर्भर करता है, विशेष रूप से उसकी प्रशासनिक सेवाओं पर, जिसके ऊपर सर्वत्र सरकार को कानून-व्यवस्था के पालन हेतु निर्भर रहना पड़ता है। यह सब उस सामाजिक वातावरण पर निर्भर है जिसमें प्रशासक पलता है। यदि सामाजिक परिवेश ही अप्रजातांत्रिक है तो सरकार भी अप्रजातांत्रिक ही होगी।
लोग एक और गलती करते हैं जब वे यह समझ बैठते हैं कि प्रजातांत्रिक सरकार चलाने के लिए प्रजातांत्रिक प्रणाली अपना लेना ही काफी है। इस गलती को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि अच्छी सरकार कौन-सी होती है।
अच्छी सरकार का अर्थ है अच्छे कानून और अच्छा प्रशासन। यही अच्छी सरकार का मूलमंत्र है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। यदि जिनके पास सत्ता है, वे उसका उपयोग समस्त समाज अथवा दलित वर्ग के स्थान पर अपने स्वयं के समाज के हित में करते हैं तो वह अच्छी सरकार नहीं हो सकती।
कोई प्रजातांत्रिक सरकार भली प्रकार चल सकती है या नहीं, यह समाज में सदस्यों पर निर्भर करता है। यदि समाज के लोगों की मानसिकता प्रजातांत्रिक है तो प्रजातांत्रिक सरकार से अच्छे परिणामों की अपेक्षा की जा सकती है। अगर ऐसा नहीं है तो प्रजातांत्रिक सरकार आसानी से एक खतरनाक तरीके की सरकार हो सकती है। यदि किसी समाज के सदस्य जातियों अथवा वर्गों में बंटे होंगे और एक-दूसरे से कोई मतलब नहीं रखेंगे और जहां प्रत्येक व्यक्ति की आस्था पहले उसके अपने वर्ग के प्रति है तो यह जातिवाद अथवा वग र्वादी बन जाता है और अपने वर्ग के हितों को सबसे ऊपर रखकर चलेगा और अपने अधिकारों का प्रयोग कानून और न्याय को विकृत करके अपने वर्ग के हित-संवध र्न में लगायेगा और इस उद्देश्य से उन लोगों के प्रति जीवन के हर क्षेत्र में नियोजित रूप से भेदभाव बरतेगा जो उसके वर्ग से सम्बद्ध नहीं हैं तो प्रजातांत्रिक सरकार क्या कर लेगी? उस समाज में जहां विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष होता है और समाज विरोधी गतिविधियां और आक्रामक भावना पनपती हैं वहां की सरकार न्याय और निष्पक्षता से अपना कार्य नहीं कर सकती। ऐसे समाज में यदि सरकार लोगों की है और लोगों द्वारा बनाई भी गयी है किन्तु वह लोगों के लिए नहीं हो सकती। यह एक वर्ग की और एक वर्ग के लिए है। लोगों के लिए सरकार वही हो सकती है जहां प्रत्येक नागरिक का व्यवहार प्रजातांत्रिक है। इसका अर्थ है जहां प्रत्येक नागरिक अन्य सभी नागरिकों को समान समझने के लिए तैयार है; उतनी ही स्वतंत्रता देने के लिए तैयार है जितनी स्वयं चाहता है। प्रजातांत्रिक मानसिकता से एक प्रजातांत्रिक समाज में व्यक्ति का समाजीकरण हो जाता है। प्रजातांत्रिक सरकारों का पतन आमताैर से इस कारण हुआ है कि जिस समाज के लिए वे बनीं, वह समाज ही प्रजातांत्रिक नहीं था।
दुर्भाग्य से इस बात का अहसास ही नहीं किया जाता कि अच्छी सरकार अपने समाज की मानसिक और नैतिक प्रवृत्ति पर निर्भर करती है। प्रजातंत्र एक राजनीतिक तंत्र से आगे भी कुछ है। यह एक सामाजिक प्रणाली से भी आगे है। यह मस्तिष्क की प्रवृत्ति और जीवन-दर्शन है।
कुछ लोग प्रजातंत्र की बराबरी समानता और स्वतंत्रता से करते हैं। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि गहनता से प्रजातंत्र की अन्तरात्मा ही समानता और स्वतंत्रता है। परन्तु इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि समानता और स्वतंत्रता कैसे सुरक्षित रह सकती है। कुछ व्यक्ति कह सकते हैं कि सरकार कानून, समानता और स्वतंत्रता की रक्षक होती है। यह सही जवाब नहीं है। समानता और स्वतंत्रता सहभावना से आती है जैसा कि फ्रांस की राज्यक्रांति के कर्णधारों ने उसे भ्रातृत्व कहा। भ्रातृत्व अपने में सम्यक अभिव्यक्ति नहीं है। बुद्ध ने सम्यक के लिए सही शब्द ‘मैत्री’ कहा है। इससे पता चलेगा कि हिन्दू धर्म में और दर्शन में भ्रातृत्व का सिद्धांत ही अज्ञात है। पर निष्कर्ष ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाता। हिन्दुओं के धार्मिक और दार्शनिक विचारों की एक विचारधारा में भ्रातृत्व-भाव से भी बढ़कर सामाजिक प्रजातंत्र था, यह विचारधारा थी ब्रह्म-दर्शन1 ।
यदि कोई पूछे कि यह ब्रह्म-दर्शन क्या है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हिन्दुओं तक के लिए यह एक नई बात है। हिंदुओं को वेदांत का ज्ञान है। वे ब्राह्मणवाद से परिचित हैं, किन्तु ब्रह्मवाद को नहीं जानते। आगे बढ़ने से पूर्व कुछ विवरण आवश्यक है।
हिंदुओं के दर्शन और धर्म के तीन अंग हैं: वे इस प्रकार हैं -1. ब्रह्मवाद, 2. वेदांत, और 3. ब्राह्मणवाद। यद्यपि उनका परस्पर सम्बन्ध है परन्तु इनकी तीन भिन्न विचारधाराएं और मत हैं। वे हैं-
- सर्वम खलविदम् ब्रह्म – सभी कुछ ब्रह्म है।
- अहं ब्रह्मास्मि – आत्मा ही ब्रह्म है इसलिए मैं ही ब्रह्म हूं।
- तत्वामसि – आत्मा और परमात्मा एक हैं। इसलिए तू
भी ब्रह्म है।
ये महावाक्य कहलाते हैं और इन्हीं में ब्रह्मवाद का सार है। निम्नलिखित मतों में वेदांत की शिक्षा का सार है-
- ब्रह्म ही सत्य है।
- जगत माया अथवा मिथ्या है।
- जीव और ब्रह्म का संबंध-
(i) एक है, (ii) एक नहीं है परन्तु आत्मा परमात्मा का अंश है। उससे भिन्न नहीं है, (iii) वे भिन्न और भाज्य हैं।
ब्राह्मणवाद का सार इस प्रकार प्रकट किया जा सकता है:
- चातुर्वर्ण्य में विश्वास।
- वेदों की पवित्रता और असंदिग्धता।
- मुक्ति का मार्ग मात्र यज्ञ।
अधिकांश लोग वेदांत और ब्राह्मणवाद के बीच भेद से परिचित हैं और यह जानते हैं कि उनके बीच मतभेद हैं? किन्तु ब्राह्मणवाद और वेदांत के बीच के भेद को बहुत कम लोग जानते हैं। यहाँ तक कि हिंदू भी ब्राह्मणवाद के सिद्धांत से अवगत
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- मैंने यह शब्द प्रोफेसर हॉपकिंस की पुस्तक एपिक्स ऑफ इंडिया से लिया है।
नहीं हैं और न ही इसमें और वेदांत के बीच भेद से परिचित हैं। किन्तु इनके बीच स्पष्ट अंतर है। ब्रह्मवाद और वेदांत के बीच इस बात में सहमति है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। परन्तु ब्राह्मणवाद जगत को मिथ्या नहीं मानता, वेदांत का विश्वास मिथ्यावाद है। दोनों के बीच यही मौलिक भेद है।
ब्राह्मणवाद का सार है-विश्व सत्य है और विश्व के सत्य के पीछे ब्रह्म है। इसलिए प्रत्येक तत्व का सार ब्रह्म है।
ब्रह्मवाद के विरुद्ध दो प्रकार की आलोचनाएं की जाती हैं। यह कहा जाता है कि ब्रह्मवाद ढिठाई है। क्योंकि यह कहना “अहं ब्रह्मस्मि” एक प्रकार का अभिमान है। इसकी दूसरी आलोचना यह कहकर की जाती है कि कोई व्यक्ति ब्रह्म को नहीं जान सकता। “अहं ब्रह्मस्मि” इसलिए कहना एक गर्वोक्ति है। परन्तु किसी का अपना विश्वास हो सकता है। जिस संसार में मानवता इतने हीन भाव से ग्रस्त है, वहां एक व्यक्ति द्वारा ऐसी घोषणा करना स्वागत योग्य है। प्रजातंत्र का तकाजा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का अहसास होना चाहिए। यह भी आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि वह भी अन्य के समान है। जो “अहं ब्रह्मस्मि” का उपहास करते हैं, वे महावाक्य का दूसरा अंश भूल जाते हैं। वह है “तत्वामसि” यदि तत्वामसि को छोड़कर केवल अहं ब्रह्मास्मि कहा जाएगा तो यह हास्यापद होगा। किन्तु तत्वामसि कहने से ब्रह्मवाद पर गर्वोक्ति का आरोप नहीं लग सकता।
यह ठीक है कि ब्रह्म अजेय है। परन्तु इसवेफ़ बावजूद ब्रह्म के सिद्धांत के कुछ सामाजिक प्रभाव हैं। आश्चर्यजनक रूप से प्रजातंत्र का बीज मंत्र यदि सभी व्यक्ति ब्रह्म का अंश हैं तो सभी समान भी हुए इसलिए उनमें लोकतंत्र के बीज विद्यमान हैं। इस दृष्टिकोण से ब्रह्म अज्ञेय हो सकता है। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रजातंत्र का जितना बीज रूप ब्रह्म के सिद्धांत में है, उतना अन्यत्र नहीं।
केवल इस बात पर प्रजातंत्र का समर्थन करना एक बहुत कमजोर आधार है कि हम सभी ईश्वर की संतान हैं। इसलिए जब प्रजातंत्र इस आधार को अपनाता है तो उसमें दृढ़ता नहीं आती। परन्तु यह पहचानने और समझने के लिए कि हम सब एक ही तत्व से बने हैं तो इससे प्रजातंत्र में विश्वास के सिवाय अन्य कोई सिद्धांत नहीं बचता। यह मात्र लोकतंत्र का मार्ग नहीं दिखाता वह सबके लिए प्रजातंत्र को अनिवार्य बना देता है।
प्रजातंत्र के संबंध में पश्चिमी विद्वानों ने यह प्रचारित किया है कि प्रजातंत्र का उद्गम या तो ईसाई मत से हुआ है अथवा अफलातून (अरिस्टोटल) से और इसे छोड़कर कोई अन्य स्रोत नहीं है। यदि उन्हें यह पता होता कि भारत में ब्रह्मवाद का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है, जो प्रजातंत्र का बेहतर आधार प्रदान करता है तो वे इतने हठधर्मी न होते। भारत के योगदान को भी प्रजातंत्र का सैद्धांतिक आधार तैयार करने में स्वीकार किया जाना चाहिए।
प्रश्न यह है कि ब्रह्मवाद का यह सिद्धांत क्या है? यह स्पष्ट है कि ब्रह्मवाद का कोई सामाजिक प्रभाव नहीं है। इसे धर्म का आधार नहीं बनाया गया। जब यह पूछा गया कि ऐसा क्यों हुआ? तो उत्तर यही मिला। ब्रह्मवाद तो केवल दर्शन हैं, जैसे कि दर्शन सामाजिक जीवन का प्रतिबिम्ब न होता हो। शून्य में ही रम गया हो। दर्शन केवल सैद्धांतिक ही नहीं होता। यह एक व्यावहारिक सम्भावना है। दर्शनशास्त्र का मूल जीवन की समस्याओं में है और दर्शनशास्त्र से जो सिद्धांत निकलते हैं, वहीं समाज के पुनर्निर्माण के कारक बनकर समाज में आ जाते हैं। केवल जानना ही आवश्यक नहीं है। जो जानते हैं वे इसे पूरा करें।
ब्रह्मवाद नया समाज क्यों नहीं दे पाया? यह एक बड़ी पहेली है। बात यह नहीं है कि ब्राह्मणों ने ब्रह्मवाद को मान्यता नहीं दी। वह तो दी। परन्तु उन्होंने कभी यह भी पूछा कि ब्राह्मण और शूद्र, पुरुष और नारी, छूत-अछूत के बीच विषमता का समर्थन कैसे कर सकते हैं? परन्तु उन्होंने नहीं पूछा। इसका परिणाम यह निकला कि एक ओर तो हमारे सामने शुद्धतम प्रजातांत्रिक ब्रह्मवाद का सिद्धांत है दूसरी और जातियों, उपजातियों, अछूतों, आदिम जातियों, जरायम पेशा जातियों के खानों में बंटा समाज है। क्या इससे बड़ा भी कोई अजूबा हो सकता है? और भी हास्यास्पद बात है महान शंकराचार्य के उपदेश। क्योंकि यह शंकराचार्य ही थे जिन्होंने कहा- एक ब्रह्म हैं, यही सत्य है, वही निरंतर है और उसी शंकराचार्य ने ब्राह्मणवादी समाज की सभी असमानताओं को शिरोधार्य किया। कोई पागल ही ऐसे दो परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादक हो सकता है। सचमुच ब्राह्मण एक गाय के समान है, वह कुछ भी और सब कुछ खा सकता है। जैसा कि एक गाय करती है, और फिर भी ब्राह्मण बनी रहती है।