वैदिक ब्राह्मण वेदों को संशय-रहित कहने से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि वेद अपौरुषेय हैं। इसका अर्थ है वेद मनुष्यों द्वारा नहीं रचे गए। यह सिद्धांत निस्संदेह उन्हें संशय रहित बनाता है। क्योंकि यह मनुष्य की रचना नहीं है, इसलिए इसमें त्रुटि, संशय और दोष नहीं हो सकता जो मानव-रचना से संभव है। इसलिए ये संशय-रहित हैं। कुछ भी हो इस सिद्धांत पर अलग से विचार किया जाना आवश्यक है क्योंकि यह एक स्वतंत्र सिद्धांत है।
क्या वास्तव में वेदों की रचना किसी मानव ने नहीं की? क्या वे सचमुच ही अपौरुषेय थे? इस विषय में सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य अनुक्रमणी में है जो प्राचीन संस्कृत साहित्य में विशेष प्रकार के साहित्य का भाग है। अनुक्रमणी प्राचीन वैदिक साहित्य की क्रमवार विषय-सूची है। प्रत्येक वेद की अनुक्रमणी है। कहीं-कहीं एक से अधिक भी हैं, ऋग्वेद की सात अनुक्रमणी उपलब्ध हैं, इनमें से पांच शौनक की, एक कात्यायन की और एक किसी अज्ञात विद्वान की तैयार की हुई है। यजुर्वेद की तीन हैं, इनमें तीन शाखाओं में से प्रत्येक की एक है। ये हैं, आत्रेयी, चारारण्य और मध्यांदिन। सामदेव की दो अनुक्रमणी हैं। एक का नाम आर्षेय ब्राह्मण है और दूसरी का परिशिष्ट है।
अथर्ववेद की एक अनुक्रमणी है। इसका नाम बृहत-सर्वानुक्रमणी है।
प्रोफेसर मैक्समूलर के अनुसार कात्यायन की ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी स्वयं में सम्पूर्ण है। इसकी महत्ता इस कारण है कि इसमें, (1) प्रत्येक मंत्र का प्रथम शब्द दिया है, (2) मंत्रों की संख्या है, (3) संकलन-कर्ता ऋषि और उसकी परम्परा का नाम, (4) देवता का नाम, और (5) प्रत्येक छंद का नाम दिया है। सर्वानुक्रमणी के संदर्भ से यह आभास मिलता है कि विभिन्न ऋषियों ने मंत्रों की रचना की और उनका सम्पूर्ण संकलन ऋग्वेद बना। ऋग्वेद अनुक्रमणी के अनुसार यह साक्ष्य मिलता है कि यह वेद पौरुषेय है। अन्य वेदों के विषय में भी यही निष्कर्ष हो सकता है। पौरुषेय अनुक्रमणी यथार्थ है, यह ऋग्वेद के मंत्रों से पता चलता है कि जिनमें ऋषिअपने को वेदों का संयोजक मानते हैं।
कुछ ऐसे उद्धरण निम्नांकित हैं:
‘‘कण्वों ने तुम्हारे लिए स्तुति की है, उनकी स्तुति सुनो।’’ ‘‘हे इन्द्र, अश्वों के सारथी अपनी प्रभावोत्पादकता हेतु गौतम का मंत्र सुनो।’’
‘‘तेरे तेजवर्धनार्थ, हे ऐश्वर्यमान अश्विन मानस द्वारा प्रभावोत्पादक मंत्रों की रचना की गई है।’’
‘‘हे अश्विन, यह सार्थक उपासना मंत्र तेरे लिए गृत्समद ने उच्चारा है।’’
‘‘हे इन्द्र, तू प्राचीन है जो अश्वों को जोतता है, तेरे लिए गौतम के वंशज नौधी ने नया मंत्र रचा है।’’
‘‘सो हे पुरोधा, प्रश्रय हेतु गृत्समद ने मंत्र रचा है जैसे मनुष्य निर्माण करता है।’’
‘‘ऋषियों ने इन्द्र के लिए एक प्रभावोत्पादक रचना की है और प्रार्थना की है।’’
‘‘हे अग्नि, यह मंत्र तेरे लिए रचा है, अपनी गऊओं और अश्वों का सुख भोग’’
‘‘हमारे पिता इन्द्र के मित्र अयाश्य ने सप्त शीर्ष पवित्र सत्य जन्य इस चौथे महान मंत्र का आह्वान किया है।’’
‘‘हम रहूगणों ने अग्नि के लिए मधुभाषा में मंत्रेच्चार किया है, हम उनका गुणगान करते हैं।’’
‘‘सो आदित्यों, अदिति और सत्ता-सम्पन्न गण प्लाति पुत्र ने तुम्हारी स्तुति की है। गया ने स्वर्गीय देवों की प्रशस्ति गाई है।’’
‘‘इसी को वे ऋषि पुरोहित यज्ञकर्ता कहते हैं, स्तुति गायक, मंत्रेच्चारक कहते हैं, वही (अग्नि के) तीन शरीरों को जानता है। वही वरदानों की वर्षा करने वाला प्रमुख है।’’
अनुक्रमणिकाओं के अतिरिक्त और भी साक्ष्य हैं, जिनसे पता चलता है कि वेद अपौरूषेय नहीं हैं। ऋषि वेदों को मानवकृत और ऐतिहासिक रचना मानते हैं। ऋग्वेद के मंत्र पूर्ववर्ती और तत्कालीन मंत्रों के बीच भेद करते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
‘‘अग्नि, जिसकी पूर्ववर्ती और साथ ही वर्तमान ऋषि भी स्तुति करते हैं, शुभ करेगा।’’‘‘मुझ वर्तमान ऋषि की ऋचाएं सुनो, इस वर्तमान (ऋषि) की।’’
‘‘इन्द्र, तू पूर्ववर्ती ऋषियों के लिए एक आह्नान था, जिन्होंने अर्चना की – जैसे पिपासु के लिए जल। इस मंत्र द्वारा मैं तेंरा आह्नान करता हूँ।’’
‘‘पूर्ववर्ती ऋषियों, देदीप्यमान ऋषियों ने बृहस्पति के सम्मुख आह्लादपूर्व स्वर में प्रस्तुति की।’’
‘‘हे माधवन, किसी परवर्ती या पूर्ववर्ती पुरुष अथवा वर्तमान पुरुष में इतना पराक्रम नहीं।’’
‘‘क्योंकि (इन्द्र के) पूर्ववर्ती आराधक हम हो सकते हैं। ये निष्कलंक, अप्राप्य और अनाहूत थे।’’
‘‘हे शक्तिमान देव! इस हेतु लोग तेरे आराधक हैं, जैसे कि पूर्ववर्ती मध्य-युगीन और परवर्ती तेरे मित्र थे और हे परम आहूत, सभी वर्तमान वय वालों की सोच।’’
‘‘हमारे पूर्व पिता इन्द्र के लिए सात नवगव ऋषि अपने मंत्रों में भोजन की याचना करते हैं।’’
‘‘हमारे नवीनतम मंत्र से गौरवान्वित हो क्या आप हमें सम्पदा और संतति सहित भोजन देंगे?’’
ऋग्वेद के गहन अध्ययन से पता चलेगा कि उसके पुराने और नए मंत्रों के बीच अंतर है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
‘‘हमारे नवीनतम मंत्र से गौरवान्वित हो क्या आप हमें सम्पदा और संतति सहित भोजन देंगे?’’
‘‘हे अग्नि तूने देवताओं के मध्य हमारे नवीनतम आह्नान की घोषणा की थी।’’
‘‘हमारे नवीन मंत्र से तेरा वेग बढ़ेगा पुरंदर हमें प्राणवान आशीर्वाद दे।’’
‘‘शक्ति पुत्र अग्नि को मैं एक नवीन ऊर्जावान मंत्र अर्पित करता हूं जो भाववाणी के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।’’
‘‘जो नवीन अभिव्यक्ति अभी प्रस्फुटित हुई है, उसके द्वारा मैं शक्तिमान संरक्षक को मानस रचना प्रदान करता हूं।’’
‘‘हमारी सहायता हेतु गर्जन करने वाले पुंगव नया मंत्र तुझे उद्बोधित करे।’’
‘‘मैं पूर्वजों की भांति नवीन मंत्र द्वारा तुझे उत्प्रेरित करना चाहता हूं।’’
‘‘तेरी स्तुति में जो नए मंत्र रचे हैं, उनसे तू संतुष्ट हो’’।‘‘हे सोभारी, इन युवा शक्तिमान और बुद्धिमान देवों के लिए नए मंत्रों का उच्चारण कर।’’
‘‘गर्जन करने वाले वृत्रहंता इन्द्र, हम अनेक (पूजकों) ने तेरे लिए कई मंत्र रचे हैं, जो सर्वथा नवीन हैं।’’
‘‘मैं इस प्राचीन देव को सम्बोधित करूंगा। मेरी नई स्तुति, जिसकी उसे इच्छा है, उसे वह सुने।’’
‘‘हम अश्वों, पशुधन और सम्पदा की कामना से, तेरा आह्नान करते हैं।’’
इतने साक्ष्य प्रस्तुत करने पर यह सिद्ध होता है कि वेदों की रचना मनुष्य ने की है। ब्राह्मणों ने कंठशक्ति से यह प्रचारित किया क वेद मानव-रचित नहीं हैं। उसका पार पाना सरल नहीं है। यह प्रचार किस उद्देश्य से किया गया? इसके बावजूद बहुत से ऐसे प्राख्यात दार्शनिक हैं, जो वेदों की सत्ता स्वीकार करते हैं, हालांकि वे यह नहीं मानते कि वेद सनातन अथवा अपौरुषेय हैं।
न्याय-व्यवस्था के दर्शन के संस्थापक गौतम का विचार हैः
‘‘मंत्रों की भांति वेदों की प्रामाणिक और आयुर्वेद की प्रामाणिकता ऐसे प्रवीण पुरुषों के कारण स्थापित हुई, जिन्होंने इसे प्रचारित किया। क्योंकि वेदों के प्रवीण सृष्टा विद्वान थे, सत्यनिष्ठ थे, उसी का प्रमाण है कि वेदों की रचना ऐसी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों द्वारा की गई और इसी कारण वेदों की प्रामाणिकता का आभास होता है। यह मंत्रों और आयुर्वेद के दृष्टांत देते हैं। मंत्र का अर्थ है ऐसा वाक्य जो विषादि का शमन करता है और आयुर्वेद वेद का अंग है, जिसमें वेद के लक्षण भी हैं उसके विषय में इस दृष्टांत से अब क्योंकि इन दो की सत्ता सामान्यतः स्वीकार्य है, इसलिए अनुमान लगाया जाना चाहिए। कुछ इस सूक्ति की व्याख्या इस प्रकार करते हैं। वही वेद हैं जिनमें प्रामाणिकता विद्यमान है अथवा मान्य हैं। ऐसे वेदत्व से किसी रचना की प्रामाणिकता का अनुमान किया जा सकता है।’’
वैशेषिक दर्शन स्वीकार करता है कि वेद प्रमाण हैं किन्तु इसका आधार निम्नांकित हैः
(1) कि वेद मेधावियों की रचना है, और
(2) इनका उद्भव दैवी है। इसलिए ये प्रमाणित हैं।
सांख्य दर्शन के संस्थापक कपिल का कथन है कि वेदों के सनातन होने का अनुमान नहीं किया जा सकता क्योंकि वेदों के अनेक पाठों में स्वयं यह संकेत हैकि वे रचे गए हैं। इसमें इस बात का स्पष्ट खंडन किया गया है कि वेदों का उद्भव किसी दैवी शक्ति के सुविचारित प्रयासों से हुआ है। सांख्य के अनुसार वेद प्रदीप्त सूर्य के समान हैं, जिनमें स्वयं-प्रसूत प्रकाश है और अपनी समग्रता दर्शाने तथा सृष्टि को प्रकाशित करने के लए स्वार्जित शक्ति से प्रकाशमान हैं। चाहे वह भूत हो या भविष्य, विराट हो या क्षुद्र, निकटस्थ हो या दूरस्थ, वेदांत-दर्शन दो भिन्न मत व्यक्त करता है। वह ब्रह्मा को वेदों का सृष्टा मानता है क्योंकि यह उद्गम और उद्गम का कारण भी है। उसमें ब्रह्मा को अनरनारी और नपुंसक और परमात्मा कहा है न कि पुरुष सृष्टा। उसने वेदों को सनातन घोषित किया है और उनके एक स्वतंत्र नियंता
की ओर भी संकेत किया है। ब्राह्मणों की इसी से भरपाई नहीं होती कि वेद व्यक्ति द्वारा निर्मित हैं। वे इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि स्वयं ईश्वर उनका सृष्टा नहीं है। यह सिद्धांत इसलिए पूर्व मीमांसा के प्रणेता का है। इस सिद्धांत के पक्ष में जैमिनि के तर्क इतने विचित्र हैं कि इसकी करामात बाजीगरी का खेल लगता है। ब्राह्मण-दर्शन के ग्रंथ पूर्व मीमांसा में यह उल्लेख है कि वेद अपौरुषेय हैं। ग्रंथ का अगला अंश इस तर्क का परिचायक है। पूर्व मीमांसा के रचयिता जैमिनि पहले न्यायवैशेषिक के कथन की विवेचना करते हैं जिनका विचार है कि वेद परमेश्वर की कृति है। ये न्यायवैशेषिक के कथन का उल्लेख करते हैं:
मीमांसक का तर्क है किः
‘‘वेदों का उद्गम अमूर्त परमेश्वर द्वारा संभव नहीं जिसका तालू अथवा उच्चारण के लिए कोई अंग ही नहीं है और इस कारण यह सोचा नहीं जा सकता कि वह शब्दों की अभिव्यक्ति कर सकता है। इस आपत्ति पर नैयायिक की प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं है क्योंकि उसके अनुसार परमेश्वर अमूर्त है फिर भी अपने भक्तों को वृतांत देने हेतु वह रूप धारण कर सकता है। इस प्रकार यह तर्क कि वेद अपौरुषेय नहीं है, अमान्य है।’’
फिर वह मीमांसकों के सिद्धांत पर आते हैं:
‘‘मैं अब इन संदेहों का निराकरण करता हूं कि इस पौरुषेयत्व का क्या अर्थ है जिसे प्रमाणित करना है। इसका तात्पर्य है, (1) किसी पुरुष द्वारा उत्पत्ति, जैसे हमारे द्वारा वेदों की उत्पत्ति, जब हम इनका दैनिक पाठ करते हैं अथवा (2) इसकी अभिव्यक्ति की दृष्टि से – क्या यह कोई व्यवस्था है – जो ज्ञान अन्य साक्ष्यों सेग्राह्य है, जैसे कि हमने स्वयं ग्रंथों की रचना की है। यदि पहले अर्थ को ग्रहण किया जाए तो कोई विवाद नहीं होगा।’’
यदि दूसरे भाव को ग्रहण किया जाए तो मेरा प्रश्न है कि क्या इस कारण वेदों को प्रामाणिक माना जाए कि हमें इनसे आभास होता है अथवा (क) इस कारण कि यह दैवी वाक्य है, अथवा (ख) यह अगम ज्ञान है।
प्रथम विकल्प (क), कि वेदों की प्रामाणिकता इसलिए है कि यह व्याख्या मात्र है यदि मालती माधव अथवा अन्य निरपेक्ष रचनाओं के कथन को देखा जाए तो यह सही नहीं हो सकता क्योंकि यह सिद्धांत निरापद नहीं। यहीं दूसरे ओर आप कहते हैं।
(ख) वेदों की सामग्री अन्य प्रामाणिक ग्रंथों से भिन्न है, इससे भी दार्शनिक सहमत नहीं होंगे क्योंकि वेद वह वाक्य है जिसे अन्य साक्ष्यों से प्रमाणित नहीं किया जा सकता। अब यदि यह स्थापित किया जा सके कि वेद-वाक्य मात्र उसी को प्रमाणि् शत करता है तो अन्य साक्ष्यों से उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। और यदि हम यह स्वीकार कर लें कि परमेश्वर ने कोई स्वरूप धारण किया होगा तो यह मान्य नहीं होगा क्योंकि बिना किसी तत्व के उन्होंने ऐसा कुछ व्यक्त किया हो जो अतीन्द्रिय हो, यह संभव नहीं, चह भी तब जब कोई देश-काल और परिस्थिति न हो। न ही यह सोचा जा सकता है कि उनके नेत्र तथा दूसरी इन्द्रियों में ऐसे ज्ञान-प्रसार की कोई शक्ति थी। पुरुष केवल वही जान सकता है जो उसने साक्षात देखा है। किसी सर्वज्ञ रचयिता की कल्पना से असहमत ऐसा ही (प्रभाकर) ने कहा हैः
‘‘जब किसी सर्वज्ञ को चुनौती दे जिस ने किसी तत्व के संपूर्ण रूप को देखा हो तो वह कल्पना बहुत ही धुंधली अथवा अति सूक्ष्म होगी क्योंकि कोई भी इन्द्रियां अपने निश्चित धर्म से विरत नहीं हो सकतीं, जैसे श्रवणेंद्रिय किसी स्वरूप को देख नहीं सकती।’’
इस प्रकार वेदों की सत्ता किसी अलौकिक ज्ञान से संपन्न नहीं है जो किसी अमूर्त अरूप देवता से प्राप्त हुआ हो।’’
नैयायिकों के मत को निरस्त करने हेतु जैमिनि ने उपरोक्त तर्क प्रस्तुत किए हैं। तदुपरांत जैमिनि सकारात्मक तर्क देते हैं कि वेद किसी भी प्रकार ब्रह्म वाक्य नहीं है किन्तु उससे भी श्रेष्ठ हैं। उनका कथन हैः
‘‘परवर्ती सूक्तियों में उद्घोषित किया गया है कि ध्वनि का संयोजन और उसका अर्थ सनातन है। वह चाहते हैं कि प्रमाणत करें कि यह (संयोजन) की सनातनता शब्द की सनातनता अथवा स्वर पर निर्भर है।’’वह प्रश्न के प्रथम भाग से आरंभ करते हैं अर्थात् उस सिद्धांत से कि ध्वनि सनातन नहीं है।
‘‘कतिपय अर्थात् नैयायिक कहते हैं कि ध्वनि एक रचना है क्योंकि हम जानते हैं कि यह प्रसासोत्पन्न है। यदि यह सनातन होती तो ऐसा न होता।’’
‘‘कि अपने संक्रमण स्वभाव के कारण यह सनातन नहीं है अर्थात् यह एक क्षण में ही विलीन हो जाती है।’’
‘‘क्योंकि इसके संबंध में हम क्रिया को ‘निकालना’ कहते हैं अथवा हम ध्वनि निकालते हैं।’’
‘‘क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों को इसकी अनुभूति तत्काल होती है और परिणामतः श्रवणेन्द्रिय के तत्कालन सम्पर्क में आती है-दूरस्थ और निकटस्थ। यदि यह सनातन और एकमेव होती तो ऐसा न होता।’’
‘‘क्योंकि ध्वनि के मूल और संशोधित दो रूप होते हैं ‘‘दधि अत्र’’ और ‘‘दधी अत्र’’ के रूप में प्रस्तार के नियम से मूल ध्वनि हृस्व ‘इ’ दीर्घ ‘ई’ में बदल जाती है। इस प्रकार जिस तत्व में परिवर्तन हो जाता है, वह सनातन नहीं है।’’
क्योंकि यदि अधिक संख्या में व्यक्ति समवेत ध्वनि करते हैं तो उनका विस्तार हो जाता है। फलतः मीमांसकों का सिद्धांत तथ्यहीन हो जाता है जो कहते हैं कि ध्वनि मानव-प्रयत्न से प्रकट ही की जाती है, उत्पन्न नहीं की जाती, क्योंकि सहस्रों वक्ता भी उसके अर्थ में विस्तार नहीं कर सकते जिसके स्वर का विस्तार करते हैं। जैसे एक सहस्र दीपक भी एक घड़े के आकार का विस्तार नहीं कर सकते। मीमांसकों के इस सिद्धांत के विरुद्ध इन आपत्तियों का जैमिनि ने उत्तर दिया है कि ध्वनि प्रकट की जाती है और उसके उच्चारण उसे उत्पन्न नहीं कर सकते। जैमिनि कहते हैं:
‘‘परंतु, दोनों सिद्धांतों के अनुसार, यथा जो स्वीकार करता है कि ध्वनि की उत्पत्ति होती है आैर दूसरे के अनुसार जो कहते है कि वह मात्र प्रकट की जाती है, दोनों के अनुसार वह क्षणिक है। परन्तु इन दोनों मतों के अनुसार अभिव्यक्ति
का सिद्धांत अगले मंत्र से प्रकट है, जो यथार्थ है।’’
‘‘काल विशेष में सनातन धवनि सुनाई नहीं पड़ती है, उसका कारण है कि कर्ता और कर्म का सम्पर्क नहीं बन पाता। धवनि शाश्वत है। उदाहरणार्थ- क्योंकि हम एक स्वर ‘‘क’’ से अवगत हैं जो हमें प्रायः सुनाई पड़ता है, क्योंकि यह सहज प्रक्रिया है तो हमें उसकी सहज कल्पना होती है। निस्तब्धता में जब किसी वक्ता के मुख से वायु का संयोजन और वियोजन होता है तो उससे वातावरण तरंगित होता है औरइस प्रकार ध्वनि का आभास होता है जो सदैव विद्यमान रहती है, चाहे उसका आभास न भी होता हो। उसके संचरण पर आपत्ति का यह उत्तर है।’’
‘‘ध्वनि करना’’ का अर्थ है एक क्रिया अथवा ‘‘उच्चारण’’।
‘‘जैसे सूर्य का दर्शन एक साथ अनेक व्यक्ति करते हैं, वैसे ही ध्वनि भी एक साथ अनेक व्यक्तियों द्वारा सुनी जाती है। ध्वनि सूर्य की भांति सर्वव्यापी है। यह कोई सूक्ष्म तत्व नहीं है, इसलिए सभी को समान रूप से ग्राह्य है चाहे कोई निकटस्थ हो अथवा दूरस्थ।’’
‘‘सूत्र 10 में वर्णित है कि ‘‘इ’’ स्वर ‘‘ई’’ में परिवर्तित हो जाता है। वह ‘‘इ’’ का रूपांतरण नही है बल्कि ‘‘ई’’ एक भिन्न स्वर है। परिणाम निकलता है कि ध्वनि का रूपांतरण नहीं होता।’’
‘‘जब कई व्यक्ति समवेत स्वर में बोलते हैं तो कोलाहल की बढ़ता है, स्वर वही रहता है। कोलाहल का अर्थ है भिन्न-भिन्न दिशाओं से वायु के संयोजन-वियोजन का एक साथ कानों में प्रवेश। इसी कारण उसका विस्तार होता है।’’
‘‘ध्वनि सनातन होनी चाहिए क्योंकि वह अन्य लोगों तक अर्थ प्रेषित करती है। यदि वह सनातन न होती तो जब तक श्रोता उसका भाव जानता तब तक वह उपस्थित ही न रहती और इस प्रकार श्रोता भाव-ग्रहण करने से वंचित रह जाता क्योंकि वह उपस्थित ही नहीं रहती।’’
‘‘ध्वनि सनातन है क्योंकि वह सदैव सही और समान होती है और अनेक व्यक्ति उसे एक साथ समान रूप से सुनते हैं और यह नहीं माना जा सकता कि वे सभी गलती करें।’’
‘‘यदि ‘‘गौ’’ शब्द को 10 बार दोहराएं तो श्रोता कहेंगे कि दस बार ‘‘गौ’’ कहा गया है। वे यह नहीं कहेंगे कि ‘‘गौ’’ की ध्वनि के दस शब्द कहे गए हैं। इस प्रकार यह ध्वनि की शाश्वतता का एक और प्रमाण है।’’ ‘‘ध्वनि सनातन है क्योंकि हमारे पास यह मानने के लिए कोई आधार नहीं है कि इसका क्षय हो जाता है।’’
‘‘परन्तु यह कहा जा सकता है कि ध्वनि वायु का रूपांतरण है क्योंकि इसका उद्गम वायु का संयोजन है, क्योंकि शिक्षा का कथन है कि ध्वनि के अनुरूप हवा निकलती है और इस प्रकार यह वायु से उत्पन्न होती है। इसलिए सनातन नहीं हो सकती।’’इस आपत्ति का निराकरण सूत्र 22 में किया गया है। ‘‘ध्वनि वायु का रूपांतरण नहीं है। यदि ऐसा होता तो श्रवणेंद्रिय के समक्ष कोई संगत तत्व न होता जिसकी वह अनुभूति करती है। श्रवणेंद्रिय को वायु के किसी
रूपांतरण की (जिसे नैयायिकों ने युक्ति संगत बताया है) अनुभूत न होती। कान की अनुभूति अमूर्त होती है।’’
‘‘वैदिक साहित्य में उपलब्ध है कि स्वर सनातन है। इसके लिए सनातन ध्वनि है ‘‘हे विरूप’’। अब यद्यपि इस वाक्य का एक अन्य उद्देश्य है फिर भी वह भाषण की शाश्वतता घोषित करता है और इस प्रकार नादब्रह्म है।’’
इस सिद्धांत के पक्ष में कि वेद सनातन है और मानव द्वारा सृजित नहीं हैं ना ही परमात्मा द्वारा रचित है, जैमिनि के ऐसे तर्क हैं। जिस तथ्य पर उनका सिद्धांत आधारित था, वह सहज है। प्रथमतः, ईश्वर अमूर्त है और उसका तालू नहीं है, इस प्रकार वह वेदों का उच्चारण नहीं कर सकता। दूसरे, कल्पना करें कि परमात्मा मूर्त हैं, परमात्मा उसकी अनुभूति नहीं कर सकता जो इन्द्रियों की क्षमता से परे हैं जबकि वैदिक साहित्य मानव की इन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं। तीसरे, शब्द और उसके अर्थ के मध्य सम्पर्क सनातन है। चौथे, ध्वनि सनातन है। पांचवे, क्योंकि ध्वनि सनातन है इसलिए ध्वनि से उत्पन्न शब्द भी शाश्वत है। छठे, क्योंकि शब्द सनातन है इसलिए वे वेद भी सनातन हैं और क्योंकि वेद सनातन हैं इसलिए उनकस सृष्टा न मानव है और न परमेश्वर। इन तर्कों के संबंध में क्या कहा जा सकता है? क्या इससे बढ़कर भी कुछ अनर्गल हो सकता है? कौन स्वीकार कर सकता है कि वेदों में ऐसा कुछ है जो मानव की इन्द्रियों की अनुभूतियों से परे है? कौन स्वीकार कर सकता है कि शब्द और उसके अर्थ के बीच सनातन संबंध है? कौन स्वीकार कर सकता है क नाद उत्पन्न नहीं होता ना ही प्रकट हो सकता है किन्तु सनातन है?
इन भ्रामक तर्कों के संबंध में हम पूछ सकते हैं कि ब्राह्मणों ने ऐसे निर्जीव निष्कर्षों के स्थापनार्थ ऐसा निर्जीव प्रयत्न क्यों किया? इससे वे क्या प्राप्त करना चाहते थे? क्या इसका कारण यह था कि ब्राह्मणों की चतुर्दिक सत्ता के स्थापनार्थ वेदों को चातुर्वर्ण्य का प्रतीक बना दिया गया?