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परिशिष्ट-II – अनिवार्य वैवाहिक व्यवस्था (सामाजिक)

मनु की व्यवस्था है कि संसार में लोगों का जीवन चार भागों में विभाजित हो। ये

चार अवस्थाएं हैंः 1- ब्रह्मचर्य, 2- गृहस्थ, 3- वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य विद्यार्थी

जीवन है। एक ऐसी अवस्था, जब मनुष्य का जीवन वेदों के अध्ययन को समर्पित होता

है। गृहस्थाश्रम का अर्थ है, वैवाहिक जीवन। जैसा कि मनु ने कहा है, गृहस्थ रहकर

सुख भोगना और परिवार-वृद्धि करना। वानप्रस्थ की स्थिति में गृहस्थी से दूर रहना

होता है_ वह गृह-त्याग कर देता है फिर भी वह अपनी पत्नी का त्याग नहीं करता।

वह जंगलों में रहता है किन्तु अपनी सम्पत्ति का अधिकार नहीं त्यागता। जहां तक

गृहस्थ जीवन और धार्मिक कृत्यों का संबंध हैं, वह मरे के समान है किन्तु सामाजिक

रूप से वह मरता नहीं है। संन्यास वह अवस्था है, जब मनुष्य अपने वैवाहिक बंधन

तोड़ देता है। वह गृहस्थी त्याग देता है और गृहस्थों के लिए आवश्यक धर्म-कर्म से

नाता तोड़ लेता है और ब्रह्म की उपासना हेतु जंगलों में चला जाता है। ऐसा समझा

जाता है कि उसका सामाजिक अंत हो गया है।

मनुष्य-जीवन की विभाजन-प्रथा उससे भी पुरानी है जितनी मनु की। महत्वूपर्ण

बात यह है कि मनु ने इसमें संशोधन कर दिया।

प्रथम परिवर्तन यह है कि मनु ने विवाह को अनिवार्य बना दिया। किसी ब्रह्मचारी

को अध्ययन समाप्त करने पर विवाह करना चाहिए। यह नियम मनु ने बनाया, जो

निम्न व्यवस्थाओं से प्रकट हैः

3-2- (एक विद्यार्थी) जसने विद्यार्थिपन बिना (नियमोल्लंघन), उचित क्रम में तीन

वेदों का अध्ययन किया है अथवा केवल एक का, वह गृहस्थ में प्रवेश करे।

3-4- फ्गुरु की आज्ञा से स्नान करने के पश्चात् और नियमानुसार समावर्तन कर

इस अध्याय को ‘चार आश्रम’ पहेली के साथ पढ़ा जाए। – संपादक

255

लिया है, उस द्विज को समान वर्ग की पत्नी से विवाह करना चाहिए जो शुभ चिह्नों

से उसे दी जाए।य्

मनु ने जो दूसरा संशोधन किया वह है एक ब्रह्मचारी के संन्यास आश्रम में प्रवेश

पर प्रतिबंध लगाना। मनु ने संन्यास से पूर्व विवाह की शर्त लगा दी है। उन्होंने घोषित

किया है कि गृहस्थ में प्रवेश किए बिना संन्यास ग्रहण करना एक पाप है।

6-35- फ्जब वह तीनों ऋणों से उऋण हो जाता है तो मोक्ष के लिए सुरति लगाए

जो उऋण हुए बिना मुक्ति चाहता है उसका पतन होता।य्

6-36- फ्नियमानुसार वेदाध्ययन, पवित्र विधानानुसार पुत्रवान होकर, योग्यतानुसार

यज्ञ करके, वह अपना ध्यान मोक्ष पर लगाए।य्

6-37- कोई द्विज जो वेदाध्ययन बिना, पुत्रवान हुए बिना यज्ञ के बिना मोक्ष चाहता

है वह नरक को जाता है।य्

6-38- फ्जिसमें समस्त सम्पत्ति को दक्षिणा रूप में देते हैं ऐसे प्राजापत्य यज्ञ को

अनुष्ठान कर और उसमें कथित विधि से अपने में अग्नि का आरोप कर ब्राह्मण घर

से संन्यास आश्रम को ग्रहण करे।य्

मनु ने तीसरा संशोधन जो किया, वह यह है कि एक गृहस्थ बिना वानप्रस्थ में

प्रवेश किये बिना संन्यासी नहीं हो सकता।

6-1- फ्ब्रह्मचर्याश्रम के बाद समावर्तन संस्कार को प्राप्त स्नातक द्विज इस प्रकार

विधिपूर्वक गृहस्थाश्रम में रहकर आगे कथित नियम से जितेन्द्रिय होकर वन में निवास

करे।य्

6-2- फ्जब गृहस्थाश्रमी झुर्रियोंदार त्वचा, पके हुए बाल तथा अपने पुत्रें के पुत्र

को देख ले तब वन का आश्रय करे।य्

6-3- फ्ग्राम्य आहार तथा परिच्छद को छोड़कर, अपनी पत्नी को पुत्रें के

उत्तरदायित्व में सौंप कर अथवा साथ जाने की इच्छा करने वाली अपनी पत्नी को

साथ लेकर वन को जावे।य्

मनु ने जो संशोधन किए, वे वास्तव में अत्यंत क्रांतिकारी थे, उन नियमों में जो

उनसे पूर्व प्रचलित थे। इस संबंध में हम केवल दो प्रासंगिक नियमों का उल्लेख

करेंगे, जो दो धर्म सूत्रें वशिष्ठ धर्मसूत्र और गौतम धर्मसूत्र में हैं।

वशिष्ठ धर्मसूत्र का1 कथन हैः

1- अध्याय 7, श्लोक 1, 2, 3

परिशिष्ट-प्प्

256 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय

फ्चार साेपान हैंः विद्यार्थी, गृहस्थ, वैखानस और तापस।य्

फ्जिस व्यक्ति ने एक दो अथवा तीन वेदों का अध्ययन विद्यार्थी धर्म का उल्लंघन

किए बिना किया है, वह जिस आश्रम में जीवन बिताना चाहे, बिता सकता है।य्

गौतम धर्मसूत्र1 के अनुसारः

फ्कुछ (कहते हैं कि) वह (जिसने वेदों का अध्ययन किया है) अपनी इच्छानुसार

(किस) अवस्था में रहना चाहता है (इसका वरण कर सकता है)। (चार अवस्थाएं

है।) विद्याध्ययन, गृहस्थ, भिक्षु या वैखानस।य्

जैसा कि दो धर्म सूत्रें से स्पष्ट है, यह चयन करना किसी व्यक्ति की इच्छा पर

निर्भर है कि वह ब्रह्मचर्य धर्म निभाने के पश्चात् किस आश्रम में जाना चाहता है। यदि वह

चाहे तो विवाह कर सकता है और गृहस्थ बन सकता है अथवा बिना विवाह किए वह

सीधे संन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता है। मनु ने वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से पूर्व

अनिवार्य गृहस्थ का निर्देश देकर सचमुच क्रांतिकारी परिवर्तन किया है, यह स्पष्ट है।

ऐसा प्रतीत होता है कि मनु ने एक अन्य परिवर्तन भी किया है। यह समझ नहीं

आता कि गृहस्थ के पश्चात् संन्यास ग्रहण करने से पूर्व वानप्रस्थ की क्या आवश्यकता

है? कोई व्यक्ति सीधे ही संन्यासी क्यों नहीं बन सकता? क्या वानप्रस्थ और संन्यास

के बीच कोई ऐसा अंतर है जिसे मूलभूत कहा जा सके? इस अध्ययन के प्रकरण

में हमने मनु के द्वारा वानप्रस्थ और संन्यासी के लिए बनाई गई संहिता का संग्रह

किया है। इन नियमों पर दृष्टिगत करने से पता चलता है कि उनमें कठिनता से ही

कोई भिन्नता है। इसको छोड़कर, कि वानप्रस्थ को कुछ धर्म-कर्म करने पड़ते हैं

जिनकी व्यवस्था गृहस्थी के लिए है, दोनों आश्रमों के बीच कोई ठोस अंतर नहीं है।

साथ ही यह भी सत्य है कि वानप्रस्थ और संन्यासी के समान प्रयोजन हैं। मनु के

निम्नांकित उल्लेख से पता चल जाएगा, उनमें कैसा साम्य है।

परम प्राप्ति लक्ष्य

वानप्रस्थ संन्यासी

6-29- जो ब्राह्मण वन में रहता है 6-85- फ्उपरोक्त नियमों का पालन

इन तथा अन्य धार्मिक कार्यों का कर कोई द्विज पाप से मुक्त हो

परमात्मा से पूर्ण एकाकार हेतु जाता है और परमब्रह्म को प्राप्त

पालन करे, विभिन्न धार्मिक होता है।

विषयों का अध्ययन करे जो

उपनिषदों में समाहित हैं।

1- अध्याय 3, श्लोक 1 और 2

257

फिर मनु ने गृहस्थ और संन्यास के मध्य वानप्रस्थ की रचना क्यों कर डाली?

वानप्रस्थ के विषय में यह कहा जा सकता है कि यह स्थिति मनु से पूर्व विद्यमान

थी। वे अरण कहलाते थे। प्रोफेसर राधा कुमुद मुकर्जी1 के अनुसारः

उन ब्रह्मचारियों को अरण अथवा अरण्यन कहा जाता था, जो ज्ञान प्राप्ति की

अभिलाषा में अविवाहित रहना चाहते थे। ये अरण गांव के बाहर आबादी से दूर

वैखानस के रूप में वनों में रहते थे। वह जंगल जहां अरण तापस रहते थे, अरण्य

कहलाते थे। इन तापसों की दार्शनिक जिज्ञासा परम समस्याओं पर थी जैसे ब्रह्म,

सृष्टि, आत्मा अथवा अमरता।

प्राचीन अरण को मनु ने वानप्रस्थ का नाम दे दिया जिसका अर्थ अरण ही है।

मनु ने न केवल नाम ही बदला, उन्होंने एक महत्वपूर्ण परिवर्तन और कर दिया।

उन्होंने ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ के मध्य में वैवाहिक अवस्था डाल दी जबकि मूल

वानप्रस्थ अथवा अरण भी अविवाहितों के लिए थी, मनु का वानप्रस्थ अनिवार्यतः

विवाहित के लिए है। प्राचीन अवस्था में ब्रह्मचारी स्वेच्छा से वानप्रस्थ अथवा गृहस्थ

बन सकता था। मनु ने क्रम बदल दिया, जिससे कि कोई बिना विवाह किए वानप्रस्थ

न बन जाए।

प्राचीन व्यवस्था के अनुसार वानप्रस्थ अथवा संन्यासी अपनी पत्नी अथवा संतान

के साथ कोई कठोरता नहीं बरतते थे। मनु की नई व्यवस्था से यह आरम्भ हो गया

क्योंकि पहले तो किसी को विवाह के लिए विवश किया जाए और फिर उसे अपनी

पत्नी को त्यागने की अनुमति दे दी जाए। यदि यह अपराध नहीं है तो अत्याचार तो

है ही। परन्तु मनु ने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह तो सभी के लिए वैवाहिक

अवस्था निर्धारण पर तुले थे।

मनु ने ऐसा क्यों किया? उन्होंने वानप्रस्थ और संन्यासियों के लिए गृहस्थाश्रम

की अनिवार्यता क्यों रखी? मनु ने सभी आश्रमों में गृहस्थ को श्रेष्ठ बताया है। वे

कहते हैंः

6-87- फ्विद्यार्थी, गृहस्थ, वैखानस और तापस-इनकी चार स्थितियां हैं इन सबका

उद्गम गृहस्थ है।य्

6-88- फ्किन्तु सभी (अथवा) इनमें से कोई (एक), अवस्था भी जिसका उत्तरोत्तर

एवं पवित्र विधानानुकूल पालन किया गया है ब्राह्मण को उच्च स्थिति प्रदान करती

है।’’

1- एजूकेशन इन एंशिएंट इंडिया, पृ- 6

परिशिष्ट-प्प्

258 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय

6-89- फ्और वैदिक नियमानुसार और स्मृति के अनुरूप गृहस्थ को श्रेष्ठतम बताया

गया है क्योंकि वह अन्य तीनों का सहायक है।य्

6-90- फ्जैसे सभी नदियां वशाल और लघु समुद्र में समा जाती हैं, इसी प्रकार

सभी श्रेणियों के व्यक्ति गृहस्थ से संरक्षण पाते हैं।य्

इस कथन को सत्य भी मान लेते हैं तो प्रश्न फिर भी बचता है कि मनु ने

वानप्रस्थ और संन्यास के पूर्व विवाह की शर्त क्यों रखी? इसका एक ही उत्तर है कि

वे लोगों को संन्यासी बनने से रोकना चाहते थे। मनु को संन्यास और वानप्रस्थ क्यों

पसंद थे? इसका उत्तर यह है कि बौद्धधर्म का समर्थन और प्रचार सामान्यतः भिक्षु

कहलाने वाले संन्यासियों ने किया था। अविवाहित लोगों के लिए भिक्षु बनना सरल

था। मनु इसे रोकना चाहते थे। इसी कारण विवाह अनिवार्य बनाया।

प्रकरण

वानप्रस्थ और संन्यास की तुलनात्मक संहिता

प्ण् आश्रम में प्रवेश करते समय परिवार से संबंध

वानप्रस्थ संन्यासी

6-3- फ्सभी कृषि जन्य भोजन और 6-38- फ्जगत स्रष्टा प्रजापति को

वस्तुओं का परित्याग कर, पत्नी को पावन इष्टि संपन्न करने के पश्चात्

पुत्रें के दायित्व में छोड़कर अथवा जहां सारी सम्पत्ति यज्ञ शुल्क में

साथ ले जाकर वन में प्रयाण करे।य् देगा, पवित्र अग्नि को आत्मसात

कर गृह से प्रयाण करेगा। (तापस

रूप में)।य्

प्प्ण् आवास संबंधी नियम

वानप्रस्थ संन्यासी

6-4- फ्पवित्र अग्नि और घरेलू (यज्ञ 6-41- फ्पवित्र कमण्डल, दण्ड आदि

कार्यों के लिए आवश्यक सामग्री से युक्त मौन धारण किया हुआ

लेकर ग्राम से वन को प्रयाण करे घर से निकला हुआ और उपस्थित

और वहां इंद्रिय नियंत्रण से रहे।य् इच्छा प्रवर्तक वस्तु में निःस्पृह होकर

संन्यास ग्रहण करे।य्

6-42- फ्वह बिना साथी के मोक्ष 6-43- फ्लौकिक अग्नि से रहित,

प्राप्ति हेतु अकेले ही विचरण करे, गृह से रहित, शरीर में रोगादि होने

पूर्णतः समझते हुए कि एकाकी पर भी चिकित्सा आदि का प्रबंध न

259

अपने अंतिम लक्ष्य का न परित्याग करने वाला, स्थिर बुद्धि वाला, ब्रह्म

करता है और न परित्यक्त होता है।य् का मनन करने वाला, ब्रह्म में ही

भाव रखने वाला संन्यासी

भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे।य्

प्प्प्ण् जीवन-चर्या के नियम

वानप्रस्थ संन्यासी

6-6- फ्वह चर्म अथवा गूदड़ पहने। 6-44- फ्एक खपरा, पेड़ों की जड़

वह प्रातः अथवा संध्या को स्नान या वृक्ष का वक्कल, फटा-पुराना

करे। वह सदा शिखा रखे। उसकी कपड़ा, अकेलापन, ममता और सब

दाढ़ी, उसके देह के बाल और में समान भाव ये मुक्ति के लक्षण

नख न काटे जाएं।य् हैं।य्

6-52- फ्उसके बाल, नाखून और

दाढ़ी-मूंछ कटे हों, भिक्षापात्र, दण्ड-

कमण्डल को लिए हुए सभी प्राणियों

को पीड़ित न करता हुआ वह

आत्मसंयमी सर्वदा विचरण करे।य्

6-53- फ्उसके भिक्षापात्र धातु के न

हों, वे छिद्र रहित हों, उनकी शुद्धि

यज्ञ में यमस के समान केवल पानी

से होती है।य्

6-54- फ्तुम्बा, काष्ठ पात्र, मिट्टी

के सकोरे या बांस की खप्पचियों से

निर्मित पात्र संन्यासी के योग्य होते हैं।

ऐसा स्वायंभुव पुत्र मनु ने कहा है।य्

प्टण् जीवन-यापन संबंधी नियम

वानप्रस्थ संन्यासी

6-11- फ्वह यज्ञ के लिए पुरोदस 6-49- फ्आत्मा संबंधी प्रसंगों से

और उबले आहार (कारु) नियमानुसार आनन्दित हो योगमुद्रा में बैठे, बाह्य

तैयार करे, तापसों के अनुकूल शुद्ध सहायता से मुक्त, इन्द्रिय सुख से

अन्न एकत्र करे जो वसंत और शरद अनिच्छुक, स्वयं संगी जीवन मोक्ष

ऋतु में उगता है।य् के परमानंद का इच्छुक रहे।य्

परिशिष्ट-प्प्

260 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय

6-12- फ्प्रस्तुत किए जाने पर अत्यंत 6-50- फ्चमत्कार प्रदर्शन, शकुन

शुद्ध यज्ञ खाद्य प्राप्त करे जो वन्य ज्ञान, ज्योतिष अथवा हस्त-रेखा ज्ञान

पदार्थों से बना हो, बचे हुए पदार्थ से परामर्श देकर और शास्त्रें की

वह नमक मिलाकर स्वयं खाए।य् व्याख्या करके कभी भिक्षा न ले।य्

6-26- फ्पदार्थों की प्राप्ति हेतु प्रयास 6-51- फ्(भिक्षा के अभिप्रास से)

न करे जो सुखद है। धरती पर बिन वह उस घर के निकट न जाए जहां

बिछौने सोए, कोई छाया न भोगे, साधू, ब्राह्मण, पक्षी, श्वान अथवा

वृक्ष की जड़ में रहें।य् अन्य भिक्षुक हो।य्

6-27- फ्तापस रूप में रह रहे ब्राह्मणों

से इतनी ही भिक्षा ले जो जीवन-यापन

हेतु पर्याप्त है अथवा वनवासी द्विज

गृहस्थों से भिक्षा ले।य्

6-28- फ्अथवा (वनवासी वैखानस)

गांव से भोजन लाए, उसे या तो दोने

में अथवा अंजलि में या मिट्टी के

बर्तन में मात्र आठ ग्रास खाए।य्

टण्भोजन संबंधी नियम

वानप्रस्थ संन्यासी

6-13- फ्उसका आहार हो शुष्क भूमि 6-55- फ्वह दिन में एक बार ही

अथवा जल में उगे पदार्थ फल भिक्षाटन करे, भिक्षा में अधिक

फूल, कंद मूल, शुद्ध वृक्षों के उत्पाद मात्र में पदार्थ की कामना न करे

और अन्य फलों से निकला तेल।’’ क्योंकि यदि तापस भिक्षा के लिए

आतुर है तो वह इंद्रिय सुख का

इच्छुक माना जाता है।य्

6-14- फ्वह शहद, मांस और 6-56- फ्जब रसोई से धुआं उठना

कुकुरमुत्ता न खाए चाहे वह भूमि बंद हो जाए, जब चूल्हा बुझ जाए,

पर उपजा हो (या अन्यत्र) भूस्तृण, जब लोग भोजन से निवृत्त हो जाएं,

सिगरुक और श्लेशमंतक नामक फल जब जूठन फैंक दी जाए, तो तापस

न खाए।य् भिक्षा को जाए।य्

6-15- फ्आश्विन मास में वह तापसों 6-57- फ्खाली हाथ लौट आने पर

का भोजन फेंक दे जो वह संग्रह वह दुखी न हो, न ही प्राप्ति पर

261

करता है, उसी प्रकार अपने पुराने प्रसन्न। वह इतना ही प्राप्त करे जो

वस्त्र, शाक-मूल और फल फेंक जीने के लिए आवश्यक है। वह

दे।य् अपने बर्तनों (की गुणवत्ता) का

ध्यान न रखे।य्

6-16- फ् वह हल चलाई गई धरती 6-58- फ्वह सभी भोजन को तिरस्कार

से अपने पदार्थ न खाए चाहे वे कर दे जो विनम्र अभिवादन के साथ

किसी ने फेंक दिए हों। ना ही प्राप्त हो (क्योंकि) जो तापस पूर्ण

गांव में उगने वाले मूल और फल बंधनमुक्त है, वह बाध्य है कि विनम्र

चाहे (भूख से) व्याकुल भी हो।य् अभिवादन से भोजन न ले।’’

6-17- फ्वह अग्नि से पका भोजन

अथवा समय पर पके फल ही खाए

या वह पत्थर पर रगड़कर या दांत

से काटकर ही खाए।य्

6-18- फ्वह अपने दैनिक भोजन के

उपरांत अपना भिक्षापात्र स्वच्छ करे

अथवा एक मास के लिए पर्याप्त

अथवा छह मास अथवा एक वर्ष

के लिए संग्रह करे।य्

6-19- फ्अपनी क्षमतानुसार भोजन

एकत्र करके या तो रात्रि में (केवल)

अथवा (दिन में) (केवल) अथवा

चौथे समय अथवा आठवें समय

भोजन करे।य्

6-20- फ्अथवा वह चंद्रायण के

अनुसार शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण

पक्ष में अपने भोजन की मात्र

प्रतिदिन घटाए अथवा प्रत्येक पक्ष

के अंतिम दिन एक बार ही जौ

का दलिया खाए।य्

6-21- फ्अथवा वह वैखानस के लिए

निर्धारित नियमानुसार सतत फूलों,

परिशिष्ट-प्प्

262 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय

कंद मूलों और उन फलों का आहार

करे जो समय पर पके हों और स्वयं

वृक्षों से टपके हों।य्

6-22- फ्वह या तो भूमि पर लेटे

अथवा दिन में पंजों पर खड़ा रहे

अथवा वह एक बार खड़ा रहे एक

बार बैठे। संन्यास प्रमाण (सूर्योदय,

दोपहर, गोधूलि) पर (नहाने को)

वन से जल लाए।य्

टप्ण् पालनार्थ कर्त्तव्य

वानप्रस्थ संन्यासी

6-5- फ्तापसों के अनुकूल विभिन्न 6-65- फ्गहन ध्यानावस्था से वह

प्रकार के पवित्र भोजन अथवा जड़ी- परमात्मा की सूक्ष्मता को और प्राणी

बूटियां, कंदमूल और फल देकर मात्र में उसकी उपस्थिति को जाने,

वह नियमानुसार पंच आहुतियां दे।य् उच्चतम भी निम्नतम भी।य्

6-7- फ्वह ऐसे आहार की आहुति 6-83- फ्वह निरंतर वेदपाठ करे जो

दे जो वह लेता हो और क्षमतानुसार यज्ञ-प्रसंग में हैं, देवों से सम्बद्ध हैं,

भिक्षा दे, जो उसके आश्रम में आएं, जो आत्मा से सम्बद्ध हैं और वेदों के

उसे जल, कंदमूल और फल देकर उपसंहार (वेदांत) में सन्निहित हैं।’’

समादर प्रदान करे।य्

6-8- फ्वह अकेला वेद पाठ करे,

वह अभावों के प्रति धैर्यवान रहे,

(सबसे) मैत्री बरते, सदैव उदार

रहे, कदापि उपहार ग्रहण न करे,

सभी जीवों के प्रति कृपालु रहे।य्

6-9- फ् वह पवित्र त्रि-अग्नियों से

नियमानुसार अग्निहोत्र करे, पूर्णिमा

और अमावस्या को उचित समय यज्ञ

करना न भूले।य्

6-10- फ्वह नक्षत्रेष्टि, आग्रहायण,

चातुर्मास्य यज्ञ और साथ ही उत्तरायण

और दक्षिणायन यज्ञ नियम से करे।य्

263

6-23- फ्ग्रीष्म में वह पंचाग्नि ताप

सहे, पावस में मुक्ताकाश में रहे,

शीतकाल में भीगे वस्त्र पहने, ऐसे

वह अपने तप की शक्ति बढ़ाए।य्

6-24- फ्जब वह दिन में तीन बार

(प्रातः, दोपहर, संध्या) को स्नान

करता है तो वह देवताओं को अर्घ्य

चढ़ाए और कठोर से कठोर संयम

बरते, वह अपनी देह सुखा डाले।य्

6-25- फ्निर्धारित नियमानुसार पवित्र

त्रियाग्नि को आत्मसात करे, वह

बिना अग्नि के रहे, बिना घर रहे,

मौन रहे, कंदमूल और फलों के

आहार पर रहे।य्

परिशिष्ट-प्प्

264 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय

फ्सबसे पहली बात तो यह स्वीकार कर लेनी चाहिए कि एक

समान भारतीय संस्कृति जैसी कोई चीज कभी नहीं रही और यह

कि भारत तीन प्रकार का रहा – ब्राह्मण भारत, बौद्ध भारत और हिंदू

भारत। इनकी अपनी-अपनी संस्कृतियां रहीं। — भारत का इतिहास

ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष

का इतिहास रहा है।य्

– भीमराव अम्बेडकर