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परिशिष्ट-I – वर्णाश्रम धर्म की पहेली (भाग II – सामाजिक)

वर्ण धर्म और आश्रम धर्म के दो मताग्रहों की ओर पहले ही ध्यान दिलाया जा चुका है, जिन दोनों से मिलकर वर्णाश्रम धर्म बनता है और जो हिंदुत्व का मूल आधार है। इन अजीब सिद्धांतों पर प्राचीन लेखकों के क्या विचार हैं? मैं उन पर प्रकाश डालने से नहीं रह सकता।

I

पहले वर्ण धर्म से प्रारंभ करते हैं। यह उचित होगा कि वेदों में प्रकट किए विचारों को सर्वप्रथम एक स्थान पर एकत्रित किया जाए।

इस विषय पर ऋग्वेद के दसवें मंडल में 90 वें मंत्र को देखना है। वह इस प्रकार है:

  1. “पुरुष के एक सहस्र शीश हैं, एक सहस्र चक्षु, एक सहस्र चरण। वह सर्वत्र परिपूर्ण व्यापक है। उसने दस अंगुलियों से हर ओर से समस्त भूमंडल को आच्छादित कर रखा है।” 2. “पुरुष स्वयं सम्पूर्ण (ब्रह्मांड) है, जो वर्तमान है, जो भावी है। वह अविनाशी स्वामी है। भोजन से उसका विस्तार होता है। 3. उसकी समानता ऐसी है और पुरुष सर्वश्रेष्ठ है। सारी सृष्टि उसका क्षेत्र है और उसका तीन चौथाई अविनाशी अंश अंतरिक्ष में है। 4. पुरुष का तीन चौथाई अंश उर्ध्व है, उसका एक चौथाई अंश यहां पुनः विद्यमान है। फिर उसका सर्वत्र विलय हो गया। उन सभी पदार्थों में जो भक्षण करती हैं और भक्षण नहीं करती। 5. उससे विराज उत्पन्न हुआ और विराज से पुरुष। जन्म लेते ही वह धरती से आगे बढ़ गया आगे भी और पीछे भी। 6. जब देवों ने पुरुष की आहुति से यज्ञ किया तो वसंत उसका घी था ग्रीष्म लकड़ी और शरद समिधा। 7. यह बलि पुरुष जो सर्वप्रथम जन्मा उन्होंने बलि घास पर जला दिया।
  2. यह पहेली 16-17 का मिला-जुला परिशिष्ट है जिसका शीर्षक है ‘‘वर्णाश्रम धर्म”। इसको मूल अनुक्रमणि्का में सम्मिलित नहीं किया गया है, इसलिए इसे परिशिष्ट में रखा गया है। यह कहना कठिन है, कौन-सा पाठ बाद का है। दोनों पाठों में उद्धरण पहले नहीं गये हैं जबकि कई भाष्य बदले गए हैं। यह 55 पृष्ठों का आलेख है। इनमें लेखक के संशोधन नहीं हैं। -संपादक

उसके साथी देवताओं साध्यों और ऋषियों ने आहुति दी। 8. इस ब्रह्मांड यज्ञ से दही और मक्खन उपलब्ध हुए। इससे वे नभचर और थलचर बने जो वन्य और पालतू हैं। 9.ब्रह्मांड यज्ञ से ऋग्वेद और सामवेद की ऋचाएं निकलीं, छंद और यजुस निकले। 10. उससे अश्व जन्में और दोनों जबड़ों वाले सभी पशु जन्मे, मवेशी जन्मे और उसी से अजा मेष जन्मे। जब (देवों ने) पुरुष को कितने भागों में काटकर विभाजित कर दिया। उसका मुख्प क्या था। उसकी कितनी भुजाएं थीं। (कौन से दो तत्त्व) उसकी जंघाएं और चरण बताई गई हैं। 12. ब्राह्मण उसका मुख था, राजन्य उसकी भुजाएं बनी, जो वैश्य (बना) वह उसकी जंघाएं थीं, शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए। 13. उसकी आत्मा (मानस) से चन्द्रमा, उसके चक्षु से सूर्य, उसके मुख से इन्द्र और अग्नि, उसके श्वास से वायु बनी। 14. उसकी नाभि से मारुत बनी, उसके शीर्ष से आकाश बना, उसके चरणों से धरती, उसके कर्ण से दिशाएं और इस प्रकार विश्व बना। 15. जब देवता यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने पुरुष को एक बलि-जीव के रूप में बांधा। इसके लिए सात डंडिया अग्नि के चारों ओर थी और तीन बार लकड़ियों की सात टुकड़ों की समिधा चढ़ाई गई। 16. इस यज्ञ में देवताओं ने आहुति दी। यह प्रथम अनुष्ठान था। इन शक्तियों ने आकाश से कहा पूर्व साध्यगण, कहां है?”

इस मंत्र वृंद का सर्वविदित नाम पुरुष सूक्त है और यह जाति और वर्ण व्यवस्था का शास्त्रीय सिद्धांत माना जाता है।

सर्वप्रथम यह जांच करनी है कि अन्य किस वेद में वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की भांति मानी गयी है? अलग-अलग वेदों के मत का अनुशीलन करने पर आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं:

सामवेद की ऋचाओं में पुरुष सूक्त सम्मिलित नहीं किया गया है और न उसमें वर्ण-व्यवस्था की कोई व्याख्या दी गयी है।

यजुर्वेद में इस संबंध में अत्यधिक मतातर है। अब हम श्वेत यजुर्वेद का प्रश्न लेते हैं और कृष्ण यजुर्वेद की अपेक्षा अलग से अध्ययन करते हैं तो दोनों की तुलना हम तीन संहिताओं के आधार पर करते हैं। इसकी तीन संहिताओं, कठ संहिता और मैत्रयणी संहिता में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का कोई उल्लेख नहीं है और न उसने वर्ण-व्यवस्था की कोई अन्य व्याख्या दी है। मात्र वाजसनेयी संहिता ही यजुर्वेद की ऐसी संहिता है, जिसके मंत्रों में बिना किसी अन्तर के पुरुष सूक्त यथावत् सम्मिलित किया गया है परन्तु वाजसनेयी संहिता में एक नई और मौलिक व्याख्या दी गई है, जो पुरुष सूक्त से नितांत भिन्न है। पुरुष सूक्त में निम्नांकित1 हैः

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ.18

“उसने एक के साथ स्तुति की। प्राणी बने। प्रजापति राजा थे। उन्होंने तीन के साथ स्तुति की। ब्राह्मण की रचना हुई। ब्राह्मणस्पति राजा थे। उन्होंने पांच के साथ स्तुति की, विद्यमान पदार्थ उत्पन्न हुए। भूतानामपति राजा थे। उन्होंने सात के साथ स्तुति की, सप्तऋषि उत्पन्न हुए। धात्री राजा थे। उन्होंने नौ के साथ स्तुति की, पितृगण उत्पन्न हुए। अदिति राजा थे। उन्होंने ग्यारह के साथ स्तुति की, ऋतुएं उत्पन्न हुई। आत र्व राजा थे। उन्होंने तेरह के साथ स्तुति की, मास उत्पन्न हुए। वर्ष राजा था। उन्होंने पंद्रह के साथ स्तुति की, क्षत्रिय उत्पन्न हुआ। इद्र राजा थे। उन्होंने सत्रह के साथ स्तुति की, पशु उत्पन्न हुए। बृहस्पति राजा थे। उन्होंने उन्नीस के साथ स्तुति की, शुद्र और आर्य (वैश्य) उत्पन्न हुए। दिवस और रात्रि

शासक थे। उन्होंने इक्कीस के साथ स्तुति की, अविभाजित सूंड धारी पशु उत्पन्न हुए। वरुण राजा थे। उन्होंने तेइ र्स के साथ स्तुति की, लघु पशु उत्पन्न हुए। पूशान राजा थे। उन्होंने पच्चीस के साथ स्तुति की, वन्य जीव उत्पन्न हुए। वायु राजा थे

(ऋ.वे.10.90.8);उन्होंने सत्ताइ र्स के साथ स्तुति की, धरती और स्वर्ग विलग हुए। वसु, रुद्र और आदित्य उनसे विलग हो गए वे राजा थे। उन्होंने उन्तीस के साथ स्तुति की, कृक्ष उत्पन्न हुए। सोम राजा थे। उन्होंने इक्तीस के साथ स्तुति की, प्राणी उत्पन्न हुए। मास के पक्ष राजा थे। उन्होंने इक्तीस के साथ स्तुति की, विद्यमान पदार्थ शांत हो गए, प्रजापति परमेष्ठी राजा थे।”

अब कृष्ण यजुर्वेद पर आते हैं। इसमें केवल एक संहिता उपलब्ध है। यह तैत्तिरीय संहिता कहलाती है। इसमें दो व्याख्याएं हैं। प्रथम व्याख्या2 यह है जो वाजसनेयी संहिता में मूल रूप में दी गई है। दूसरी व्याख्या इसकी अपनी है और यह वाजसनेयी संहिता में उल्लिखित नहीं है। यह इस प्रकार हैः

‘‘वह वृात्य भावावेश से भर उठा तब राजन्य प्रकट हुआ।”

“जिसके घर यह जाने वाला वृात्य अतिथि रूप में आता है, उसे वह (राजा) स्वयं से श्रेष्ठ जानकर उसका सम्मान करे। ऐसा करके वह राजपद अथवा अपनी सत्ता पर आघात नहीं करता। उससे ब्राह्मण प्रकट हुआ और क्षत्रिय भी। उन्होंने कहा हम किसमें प्रवेश करें आदि।”

महत्वपूर्ण बात यह है कि वाजसनेयी संहिता में ऋग्वेद का पुरुष सूक्त सन्निहित है जबकि तैत्तिरीय संहिता में इसका उल्लेख हटा दिया गया है।

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  1. खंड 4 देखें, प्रपाठक 3, श्लोक 10
  2. वही 1, पृ. 22

अथर्ववेद में पुरुष सूक्त है किन्तु मंत्रों का क्रम ऋग्वेद से भिन्न है। बल्कि यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता की भांति अथर्ववेद पुरुष सूक्त से समतुल्य नहीं है। इसकी दूसरी व्याख्या है। उतनी पूर्ण और सर्वमान्य नहीं, जैसा पुरुष सूक्त है, किन्तु इसकी अपनी विशेषता है1:

“सर्वप्रथम ब्राह्मण उत्पन्न हुआ। उसके दस सिर और दस मुख थे। उसने सर्वप्रथम सोम पान किया, उसने शिव को प्रभावहीन किया।

देवता राजन्य से भयभीत थे, जो गर्भ में था। जब वह गर्भ में था, उन्होंने उसे बंधन युक्त कर दिया। परिणामस्वरूप यह राजन्य बंधनयुक्त उत्पन्न हुआ। यदि वह अजन्मा निर्बंध होता तो वह अपने शत्रुओं का वध करता। राजन्य, कोई अन्य, जो चाहे कि वह बंधन मुक्त उत्पन्न हो और अपने शत्रुओं का हनन करता रहे तो वह ऐन्द्र-ब्राह्स्पत्य आहुतियां दे। राजन्य के लक्षण इन्द्र जैसे हैं और ब्राह्मण बृहस्पति है। ब्राह्मण के माध्यम से ही कोई राजन्य को बंधनमुक्त कर सकता है। स्वर्णबंध, एक उपहार, स्पष्ट रूप से उसे बेड़ियों से मुक्त करता है।”

मात्र पुरुष सूक्त ही चार वर्णों की उत्पत्ति की व्याख्या ही नहीं करता बल्कि वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति की ओर इंगित करता है जो वेदों में पायी जाती है। एक अन्य व्याख्या उन व्यक्तियों का उल्लेख करती है जो मनु की संतति हैं2 : उनका निम्नांकित उद्धरण में उल्लेख हैः

“प्रार्थनाएं और मंत्र पहले इन्द्र की उपासना में उस उत्सव में संकलित हुए जिसे अर्थवन, पिता मनु और दधीचि ने सुशोभित किया।”

“हे रुद्र! यज्ञ से संकटमोचन पिता मनु ने जो सम्पदा ग्रहण की, तेरे निर्देश में हमें वही सब प्राप्त हो।”

“जो प्राचीन मित्र दैवी शक्ति से सम्पन्न था। पिता मनु ने उसके प्रत देवों की सफलता के प्रवेश द्वार की भांति मंत्र रचे थे।”

“यज्ञ मुन हैं हमारे पालक पिता।”

“हे देवताओ, तुमने हमें उत्पन्न किया, पोषित किया और हमारे प्रति अनुनय किया, हमें पिता मनु के मार्ग से विचलित न करें।”

‘‘वह (अग्नि) जो मनु की संतति के बीच देवताओं के उद्बोधक स्वरूप निवास करता है, वह इनका भी स्वामी है।”

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 21.2
  2. वही, पृ. 162.165

“अग्नि, देवताओं और मनु की संतान सहित मंत्रोच्चार से विविध यज्ञ कर रहे हैं।”

“तुम देव, बज और ऋभुगणों जैसे देवों को प्रसन्न करते हो, मानुष की संतति के बीच शुभ दिन देवताओं के मार्ग से हमारे यज्ञ में आओ।”

“मानव गण ने यज्ञ में अग्नि उद्बोधक की स्तुति की।”

“लोक स्वामी अग्नि ने जब भी कृतज्ञ मानव के आवास को प्रदीप्त कया, उसने राक्षस गण को मार भगाया।”

अब हम ब्राह्मण साहित्य पर आएं और देखें कि इस प्रश्न पर वे क्याकहते हैं?

शतपथ ब्राह्मण की व्याख्या इस प्रकार है1:

“प्रजापति ने “भू” जपते हुए यह पृथ्वी बनाई, “भुवः” के साथ वायु बनाई, “स्वाहा” के साथ आकाश बनाया। ब्रह्मांड का इस संसार से सह-अस्तित्व है। अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। “भू” कहकर प्रजापति ने ब्राह्मण उत्पन्न कया “भुवः” से क्षत्रिय, “स्वाहा” से विष बनाया अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। “भू” कहकर प्रजापति ने स्वयं को उत्पन्न किया, भुवः कहकर संतति रची “स्वाहा” से पशु उत्पन्न किए। यह शिव स्व, संतति और पशु है। अग्नि सर्वत्र व्याप्त है।”

इसी शतपथ ब्राह्मण की ही एक अन्य व्याख्या है। यह निम्नांकित है:

“ब्रह्मा (यहां व्याख्याकार के अनुसार वह अग्नि स्वरूप है और ब्राह्मण वर्ग का रूप है) पहले यह एक मात्र (ब्रह्मांड) थे। एक रहते उनकी वृद्धि नहीं हुई। उन्होंने शक्ति से एक श्रेष्ठ क्षेत्र उत्पन्न किया अर्थात् देवताओं में वे जिनमें शक्ति है (क्षत्रणी) इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, पारजन्य, यम, मृत्यु, ईशान। इस प्रकार क्षात्र से श्रेष्ठ कोई नहीं। इसलिए ब्राह्मण राजसूय यज्ञ में क्षत्रिय से नीचे बैठते हैं। वह क्षत्रिय की गरिमा स्वीकार करता है। ब्रह्मा, क्षत्रिय का उद्गम है। इस प्रकार यद्यपि राजा की श्रेष्ठता है, अंत में वह उद्गम हेतु ब्राह्मण के आश्रय में जाता है। वह अति दयनीय बन जाता है। उसी के समान जिसकी श्रेष्ठता आहत होती है। 24. उसकी वृद्धि नहीं हुई। उसने विष उत्पन्न किया। देवताओं की इस श्रेणी में वसु, रुद्र, आदित्य, विश्वदेव, मरुत आते हैं। 25. उसकी वृद्धि नहीं हुई उसने शूद्र वर्ण उत्पन्न किया। यह पृथ्वी पूशान है। सो वह सभी का पोषण करती है। 26. उसकी वृद्धि नहीं हुई उसने शक्ति से एक वलक्षण रूप उत्पन्न किया न्याय (धर्म) यह शासक है (क्षात्र) अर्थात् न्याय। इस प्रकार न्याय से श्रेष्ठ कुछ नहीं। इसलिए निर्बल बलवान से त्राण  को न्याय मांगता है जैसे एक राजा से। यह न्याय सत्य है।

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  1. म्यूर, द्वारा उद्धृत, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 17
  2. संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 20

परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्ति के विषय में वे कहते हैं: “यह सत्य बोलता है, क्योंकि उसमें दोनों गुण हैं।” 27. यह ब्रह्म क्षात्र, विज और शूद्र हैं।

“अग्नि के माध्यम से देवताओं में वह ब्रह्मा बन जाता है, मनुष्यों में ब्राह्मण,  (दैवी) क्षत्रिय के माध्यम से (मनुष्य) एक क्षत्रिय, दैवी वैश्य के माध्यम से एक (मनुष्य) वैश्य। दैवी शूद्र के माध्यम से एक (मनुष्य) शूद्र बनता है। अब वह देवों

में अग्नि और मनुष्यों में ब्राह्मण है।”

तैत्तिरीय ब्राह्मण में निम्नांकित व्याख्याएं हैं। प्रथम इस प्रकार है1:

“यह समस्त (ब्रह्मांड) ब्रह्मा द्वारा रचित है। मनुष्य कहते हैं कि वैश्य ऋक् ऋचाओं से बना है। वे कहते हैं, यजुर्वेद के गर्भ से क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है। सामवेद से ब्राह्मण प्रकट हुआ। यह शब्द प्राचीन है घोषित प्राचीन।”

द्वितीय संदर्भ में मात्र दो वर्ण हैं- केवल ब्राह्मण और शूद्र उसके अनुसार2:

‘‘ब्राह्मण वर्ण देवों से प्रकट हुआ, शूद्र असुरों से।”

शूद्रों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीसरी व्याख्या निम्न प्रकार है3:

‘‘वह शुष्क भोजन से स्वेच्छा से दुग्ध की आहुति दे। शूद्र दुग्ध की आहुत न दे, क्योंकि शूद्र शून्य से जन्मा है। वे कहते हैं, जब शूद्र दूध चढ़ाता है, वह आहुति नहीं है। शूद्र अग्निहोत्र में दूध से आहुति न दे क्योंकि वे इसे शुद्ध नहीं करते। जब उसे छान लिया जाय, तब यह आहुति है।’’

अगली बात यह देखनी है कि वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्मृतयों की क्या व्याख्या है, उसका ज्ञान आवश्यक है। मनु ने अपनी स्मृति4 में इस संबंध में क्या कहा हैः

“उसने (स्वयंभू) इच्छा करके और अपनी देह से विभिन्न जीवों की रचना के मनोरथ से पहले सागर की सृष्टि की और उसमें एक बीज छोड़ दिया।

  1. बीज सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाश वाला, सुवर्ण के समान शुद्ध अंडज हो गया। उसमें सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करने वाले बह्मा उत्पन्न हुए। 10. जल को “नाराः” कहते हैं क्योंकि वह नर की संतान हैं। वह “नार” परमात्मा का प्रथम निवासस्थान है, इस कारण परमात्मा “नारायण” कहे जाते हैं। 11. वह जो अत्यंत प्रसिद्ध सबका कारण है, नित्य है, सत् तथा असत् स्वरूप है, उससे उत्पन्न पुरुष लोक में ब्रह्मा कहा जाता है। 12. ब्रह्मा ने उस अण्डे में एक वर्ष निवास कर अपने ध्यान के द्वारा उस अंडे के दो टुकड़े कर दिए। 13. ‘‘कि विश्व में प्राण प्रतिष्ठा हो, उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की रचना की जो उनके मुख, भुजाओं,

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  1. म्यूर, खंड 1, पृ. 17
  2. और 3. म्यूर, संस्कृत टैक्टस, खंड 1, पृ. 21
  3. वही, पृ. 36.37

जंघाओं और चरणों से उत्पन्न हुए। 32. वे ब्रह्मा अपने शरीर के दो भाग करके आधे भाग से पुरुष तथा आधे भाग से स्त्री हो गये और उसी स्त्री में “विराट” पुरुष की सृष्टि की। 33. हे श्रेष्ठ द्विजगणों! उस “विराज” पुरुष ने तपस्या करके स्वयं की सृष्टि की, इस लोक की सृष्टि की।” 34. प्रजापतियों की सृष्टि करने को इच्छुक मैं ने अत्यंत कठिन तपस्या कर पहले इस प्रजापतियों की सृष्टि की। 35. मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु और नारद। 36. महातेजस्वी इन दस प्रजापतियों ने सात अन्य मनुओं, ब्रह्मा से पहले नहीं उत्पन्न किये गये देवों, उनके वास्रस्थानों तथा अपरिमित तेजस्वी महषियों की सृष्टि की। 37. यज्ञ, राक्षस, पिशाच, गंधवर्, असुर, नाग, सर्प, गरुड़, पितृगण। 38. तथा बिजली, वज्र, बादल, रोहित, इन्द्रधनुष, उल्का, निर्घात, धूमकेतु और अनेक प्रकार के ऊंची-नीची छोटी-बड़ी ताराओं, धुर्व तथा अगस्त्य आदि। 39. किन्नर, वानर अनेक प्रकार की मछलियां, पक्षी, पशु, मृग, सिंह, व्याघ्र आदि और दोनों ओर दांत वाले पशुओं। 40. कृमि, बहुत छोटे कीड़े, कीट-पतंग, जूं, मक्खी, खटमल, सब प्रकार के दंश तथा मच्छर और अनेक प्रकार के जड़ पदार्थों की सृष्टि की।  41. इस प्रकार इन महात्माओं ने मेरे आदेश से तपोबल द्वारा इन स्थावर तथा जंगम प्राणियों की सृष्टि उनके कर्म के अनुसार की।”

मनु ने अपनी ‘स्मृति’ में उन आधारभूत कारणों के विषय में एक अन्य मत प्रकट किया है जिनके परिणामस्वरूप मनुष्यों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया1 :

“अब मैं संक्षेप में बताता हूं कि किस क्रम से अपने गुणानुसार आत्माएं अपनी स्थिति को पहुंचती हैं। 40. सत्व-सम्पन्न आत्माएं देवता बन जाती हैं, रजोगुण युक्त मनुष्य बनती हैं, जबकि तमोगुण वाली वन्य-जंतु होती हैं-यह तीन गतियां हैं। 43. हाथी, अश्व, शूद्र और प्रताणनीय मलेच्छ, सिंह, बाघ और सूकर की मध्यम अधभार स्थिति… 46. राजा, क्षत्रिय, राज-पुरोहित और वे व्यक्ति, जिनका मुख्य व्यवसाय वाद-प्रतिवाद है, दुर्वासना की मध्य स्थिति… 48. भक्त, तापस, ब्राह्मण, देवतागण विमानारूढ़ होती हैं। तारामंडल दैत्यों में सद्गुण न्यूनतम होते हैं। 49. अग्निहोत्री, ऋषि, देवतागण, वेद, सृष्टा ब्रह्मा, सदाचारी, महंत, अव्यक्तों में सर्वाधिक सदगुण होते हैं। 50. सृष्टा, सदाचारी, महंत और अव्यक्त ब्रह्मा में सर्वोपरि श्रेष्ठता है। इन विचारों की रामायण और महाभारत में व्यक्त विचारों से तुलना की जाए।’’

यह रुचिकर होगा कि हम रामायण और महाभारत से इस मत की तुलना करें। रामायण में कहा गया है कि चारों वर्ण मनु की संतान हैं। वे दक्ष की पुत्री और कश्यप की पत्नी से उत्पन्न हुए हैं:

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 41

“सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ कि आरम्भ में, सर्वप्रथम प्रजापति ने प्रारंभ किया। सर्वप्रथम कर्दम थे, फिर विकृत, शेष, समस्रेय, शक्तिमान, भूपुत्र, स्थनु, मारीचि, अत्रि, प्रबल, क्रतु, पुलस्त्य, अंगिरस, प्रचेता, पुलह, दक्ष, फिर वैवस्वत, आरिष्टनेमी और गौरवशाली कश्यप, जो अंतिम थे। दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएं बताई जाती हैं। उनमें से अदिति, दिति, दनु, कालका, ताम्र, क्रोधनासा, मनु और अनाला, इन आठ सुन्दर कन्याओं का विवाह कश्यप से हुआ। प्रसन्न होकर कश्यप ने कहा- “तुम मेरे समान पुत्र उत्पन्न करो, तीनों लोक का पोषण करो।’’ अदिति, दिति, दनु और कालका तत्पर हो गईं किन्तु अन्य तैयार न हुईं। अदिति से तैंतीस देवता उत्पन्न हुए, आदित्य, वसु और दो अश्विनी पुत्र। कश्यप भार्या मनु से मनुष्य जन्मे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मण का जन्म मुख से हुआ, क्षत्रिय का वक्ष से, वैश्य जंघाओं से और शूद्र चरणों से। ऐसा वेद कहते हैं। अनल से शुद्ध फलों वाले वृक्ष उत्पन्न हुए।”

महाभारत की व्याख्या निम्न प्रकार से है1:

“महान ऋषियों की भांति भव्यता से जन्मे प्रचेता के दस पुत्र गुणवान और पवित्र प्रतिष्ठित हुए और उनसे पूर्ण गौरवशाली प्राणी उनके मुख से प्रज्ज्वलित होने वाली अग्नि से स्वाहा हो गए। उनसे दक्ष प्रचेतस जन्मे और विश्व के जनक दक्ष से ये जगत। विरनी के सहवास से मुनि दक्ष को अपने समान एक सहस्र पुत्र प्राप्त हुए, जिन्हें नारद ने मोक्ष का मार्ग बताया और सांख्य का अनुपम ज्ञान दिया। संतति वृद्धि के मनोरथ से दक्ष प्रजापति ने पचास पुत्रियां उत्पनन कीं, उनमें से दस धर्म को दे दी, तेरह कश्यप को, सत्ताइस काल नियंता इन्दु (सोम) को…. अपनी तेरह में से सर्वश्रेष्ट पत्नी दक्षयानी से मारिचि पुत्र कश्यप को इन्द्र के पश्चात् अपनी शक्ति में अद्वितीय आदित्य तथा विवस्वत प्राप्त हुए। विवस्वत से शक्तिमान पुत्र यम वैवस्वत उत्पन्न हुआ। मार्तण्ड (विवस्वत, सूर्य) को बुद्धिमान और वीरपुत्र मनु उत्पन्न हुए और प्रसिद्ध यम उसका (मनु) अनुज प्राप्त हुआ। बुद्धिमान मनु धार्मिक था जिसने एक प्रजाति चलाई। इस प्रकार उसके (परिवार) मनुष्य, मानव जाति कहलाई। हे राजन्! उससे ब्राह्मण क्षत्रियों के साथ उत्पन्न हुए।”

महाभारत की दूसरी व्याख्या ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के समान है। वह इस प्रकार हैः

राजा किसी ऐसे व्यक्ति को राज पुरोहित नियुक्त करे। जो उत्तमता का संरक्षक और दुष्टता का प्रतिरोधी हो। इस विषय में वे इस प्राचीन कथा को सुनाते हैं। जिसमें इला पुत्र मातृस्वन (वायु) और पुरुरवा का संवाद सन्निहित है। पुरुरवा ने कहाः “तुम मुझे बताओ कि कब ब्राह्मण, कब अन्य तीन जातियां उत्पन्न हुईं और कब श्रेष्ठता

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 125

(प्रथम की) स्थापित हुई। मातृस्वन ने उत्तर दिया- ‘‘ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ, उसकी भुजाओं से क्षत्रिय, उसकी जंघाओं से वैश्य जबकि इन तीन वर्णों की सेवा हेतु उसके चरणों से चतुर्थ वर्ण शूद्र उत्पन्न हुआ। जन्मते ही ब्राह्मण धर्म तत्व की रक्षार्थ धरती पर भूतजात का स्वामी बन गया। फिर सृष्टा ने पृथ्वी का शासक क्षत्रिय उत्पन्न किया प्रजा की संतुष्टि को दण्डधारण हेतु द्वितीय यम उत्पन्न किया और ब्रह्मा का आदेश था इन तीन वर्णों को वैश्य धन-धान्य उपलब्ध कराएं और शूद्र सेवा करें।” तब इला पुत्र ने पूछाः “वायु मुझे बताओं अपनी धन-सम्पदा सहित यह पृथ्वी किस के अधिकार में है।, ब्राह्मण के अथवा क्षत्रिय के।” वायु ने उत्तर दिया, “अपनी श्रेष्ठता के आधार पर पृथ्वी पर विद्यमान समस्त सम्पदा का स्वामी ब्राह्मण है, जो कर्तव्य-विधान में पारंगत है। उन्हें यह ज्ञात है, ब्राह्मण जो खाता है, पहनता है, लुटाता है, वह उसी का है। वह सभी जातियों में श्रेष्ठ है, प्रथम जन्मा और सर्वश्रेष्ठ। जिस प्रकार कोई स्त्री अपना पति (पहला) छिन जाने पर अपने देवर जेठ को दूसरा पति बना लेती है, उसी प्रकार विपत्ति में ब्राह्मण पहला आश्रय है और इसके बाद कोई और।”

महाभारत1  के शांति पर्व में तीसरी व्याख्या दी गई हैः

भृगु ने उत्तर दिया “इस प्रकार ब्रह्मा ने पहले अपनी शक्ति से प्रजापतियों के समान भव्य सूर्य और अग्नि को रचा। तब स्वामी ने सत्य, धर्मनिष्ठा, कठोर भक्ति, शाश्वत वेद, गुणकर्म, और स्वर्ग (प्राप्ति हेतु) शुद्धता की पुष्टि की। उसने देवता, दानव, गंधर्व, दैत्य, असुर, महाराग, वक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मानव ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, साथ ही वर्ण के प्राणी रचे। ब्राह्मण का वर्ण गौर, क्षत्रिय का लाल, वैश्य का पीत और शूद्र का काला बनाया। तब भारद्वाज ने प्रतिवाद कियाः “यदि हर जाति के चार वर्ण (रंग) उसका परिचायक हैं तो इससे पहचान में भ्रांति होती है। मनोकामना, क्रोध, भय, लोभ, संताप, कुंठा, भूख, क्लांति हम सब में समान है, तब जाति किससे निर्धारित होती हैं। स्वेद, मूत्र, मल, श्लेष, श्लेष्मा, पित्त और रक्त (सबमें समान हैं) सभी शारीरिक विकार हैं, तब जाति किस से निर्धारित होती हैं। अनगिणत चल और अचल पदार्थ हैं, इनका वर्ण कैसे निर्धारित होता है?

भृगु ने उत्तर दिया, फ्जातियों में कोई अंतर नहीं है।”

शांति पर्व में ही चौथी व्याख्या2 दी गई है। वह कहती है-भारद्वाज ने फिर पूछा, “परमश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि, मुझे बताएं वे क्या गुण हैं कि जिनसे कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बन जाता है।” भृगु कहते हैं- “जो शुद्ध है। प्रसव तथा अन्य संस्कारों

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 139.40
  2. वही, पृ. 141.142

से पवित्र है, जिसको वेदों का सम्पूर्ण अध्ययन है, छह संस्कारों को सम्पन्न करता है, शुद्धता के अनुष्ठान पूर्णता से सम्पन्न करता है, जो चढ़ावे से बचे पदार्थ ग्रहण करता है, अपने धर्म-गुरु से सम्बद्ध है, सदैव धर्मपरायण है और सत्य को समर्पित है, ब्राह्मण कहलाता है। उसमें सत्य के दर्शन होते हैं। स्वाधीनता, अनाक्रमकता, उपकारिता, सादगी, धैर्य और कठोर भक्ति परिलक्षित हो — ब्राह्मण हैं। जो राजपद के कर्त्तव्य का पालन करता है, जिसे वेदाध्ययन का व्यसन है और जो लेने और देने से प्रसन्नता अनुभव करता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। वह, जो तत्परता से पशुपालन करता है, जिसकी कृषि कार्यों की लगन है, जो शुद्ध है और वेदों के अध्ययन में पारंगत है, वह वैश्य है। वह, जो हर प्रकार के भोजन का व्यसनी है, सभी कार्य करता हैं, जो अस्वच्छ है, जिसने वेदों का परित्याग कर दिया है, जो पवित्र कर्म नहीं करता, परम्परा से शूद्र कहलाता है और यह (जो मैंने बताया) शूद्र के लक्षण हैं और यह एक ब्राह्मण में नहीं मिलते। (ऐसा) शूद्र शूद्र ही रहेगा। जो ब्राह्मण (जो ऐसा करता है) ब्राह्मण नहीं होगा।”

आइये, अब यह देखें कि वर्ण-व्यवस्था के संबंध में पुराण क्या कहते हैं?

हम विष्णु पुराण से आरम्भ करते हैं। चातुर्वर्ण्य उत्पत्ति पर विष्णु पुराण में तीन सिद्धांत हैं। एक में यह आरोप मनु के सिर जाता है।1 विष्णु पुराण का मतः

“ऐहिक अण्डज से पूर्व देव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ, विश्व के शाश्वत नियंता, जो ब्रह्मा के तत्व रूप थे, जिसमें दिव्य विष्णु सन्निहित थे, जो ऋक्, यजुस, साम और अथर्ववेद के रूप में जाने जाते हैं (ही) विद्यमान थे। ब्रह्मा के दाएं अंगुष्ठ से प्रजापति

दक्ष उत्पन्न हुए, दक्ष की पुत्री अदिति थी, उससे विवस्वत उत्पन्न हुआ, उससे मनु प्रकट हुआ। मनु के पुत्र थे इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, सावर्ती, नरिष्यंत, प्रमसु, नाभागनिदिष्ट, करुष और पृषध्र, करुष से करुषगण, महाशक्तिवान क्षत्रिय उत्पन्न हुए। निदिष्टा का पुत्र नाभाग वैश्य बना।”

विष्णु पुराण में एक और भिन्न कथन है। उसके अनुसार:

पुत्र कामना में मनु ने मित्र और वरुण की आहुति दी किन्तु होता के द्वारा मंत्र के गलत उच्चारण कर दिए जाने पर एक पुत्री उत्पन्न हुई। उसका नाम इला था। तब मित्र और वरुण की कृपा से मनु नाम के सुद्युम्न का जन्म हुआ, परंतु महादेव के कोप के कारण वह भी नारी रूप में परिवति र्त हो गया। वह नारी सोम पुत्र बुध के आश्रम के निकट विचरती रही। बुध उस पर आसक्त हो गया और उन दोनों से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, पुरुरवा। जन्म के उपरांत उस देवता की, जो

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट पृ. 220.21

ऋक, यजुस, साम और अथ र्ववेद मानस की आहुति से उत्पन्न हुआ जो यज्ञ पुरुष का रूप है, उसकी ऋषियों ने पूजा की जिन का मनो रथ था कि सुद्युम्न अपना पुरुषत्व पुनः प्राप्त कर ले।

“विष्णु पुराण के अनुसार अत्रि ब्रह्मा का पुत्र और सोम (चन्द्रमा) का पिता था, जिसे ब्रह्मा ने पौधों की सम्प्रभुता दी और तारों का स्वामी बनाया। राजसूर्य यज्ञ के पश्चात् सोम मदांध हो गया और देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को ले आया जिसके लिए यद्यपि उसकी भर्त्सना की गई और ब्रह्मा ने, देवताओं और ऋषियों ने बृहस्पत् की पत्नी लौटाने की अनुनय-विनय भी की किन्तु उसने उसे नहीं लौटाया। सोम का पक्ष ऊष्ण गण ने लिया जबकि आंगिरस के शिष्य रुद्र ने बृहस्पति की सहायता की। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ, जिसमें देवता और दैत्यों ने क्रमशः दोनों पक्षों में युद्ध किया। ब्रह्मा बीच में पड़े और सोम को विवश किया कि वह बृहस्पति को उसकी पत्नी लौटा दें। इस बीच वह गर्भवती हो गई और एक पुत्र बुध को जन्म दिया। बहुत अनुरोध करने पर उसने स्वीकार कर लिया कि सोम ही बुध का पिता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पुरुरवा मनु की पुत्री इला और बुध का पुत्र था। पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी का प्रेम शतपथ ब्राह्मण 11.15, 1, 1, विष्णु पुराण 4, 6, 19 भागवत पुराण 9, 14, और हरिवंश पुराण अंश 26, महाभारत आदि पर्व भाग 75 में वर्णित है। इसमें पुरुरवा का ब्राह्मणों से संघर्ष दिखाया गया है। उन प्रसंगों का आगे उल्लेख किया जाएगा। विष्णु पुराण 6, 7, 1, के अनुसार पुरुरवा के छह पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा अयुस था। अयुस के पांच पुत्र थेः नहुष, क्षेत्र-वृद्ध, रम्भा, राजी और अनेनस।

“क्षेत्रवृद्ध का पुत्र था सुनहोत्र जिसके तीन पुत्र कास, लेस और गृत्समद थे। अंतिम पुत्र से शौनक उत्पन्न हुआ जिसने चार वर्ण बनाए। कास एक पुत्र कासिराज था, उसका भी पुत्र था दीर्घतमस क्योंकि धन्वंतरि दीर्घतमस था।”

द्वितीय कथन के अनुसार वर्ण-व्यवस्था के जनक ब्रह्मा थे। जैसे कि निम्नांकित उद्धरण विष्णु पुराण में मिलते हैं:

“मैत्रेय कहते हैं: तुमने मुझे अर्वस्रोत अथवा मानवसृष्टि के संबंध में बताया। अब हे ब्राह्मण! मुझे विस्तार से बताओ। ब्रह्मा ने इसकी सृष्टि किस प्रकार की? मुझे बताओ, उसने कैसे और किस गुण से वर्ण बनाए और ब्राह्मण तथा अन्य कार्य कौन-कौन से हैं। पराशर ने उत्तर दिया: 3. अपने विचार के अनुसार ब्रह्मा की कामना जगत सृष्टि की हुई। जिनमें सत्व होता है, वे उनके मुख से उत्पन्न हुए। 4. जिनमें रजोगुण होता है, वे उसके वक्ष से जन्मे;जिनमें रजोगुण और तमोगुण होता है, वे उनकी जंघाओं से जन्मे। 5. अन्य उनके चरणों से उत्पन्न हुए जिनके मुख्य लक्ष्ण हैं कलुष। इससे वर्ण-व्यवस्था की चार जातियाँ बनीं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, जो क्रमशः मुख, वक्ष, जंथा और चरणों से बने हैं। 6. ब्रह्मा ने यह चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था यज्ञ के लिए की थी। देवताओं ने वर्षा कर मानवता पर उपकार किया। यज्ञ से सम्पन्नता आती है। 8. इसे गुणी सदाचारी और दुष्कर्मों से दूर रहने वाले लोग सम्पन्न करते हैं। 9. मानव अपनी नम्रता से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है और वे वांछित लोक को प्रस्थान करते हैं।

“गृत्समद का पुत्र शुनक था, उससे शौनक ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र उत्पन्न हुए।”

“विताठ पांच पुत्रों के पिता थे। वे थे सुहोत्र, सुहोत्री, गया, गर्ग और कपिल। सुहोत्र के दो पुत्र थे, कासक और राजा गृत्समति। उसके पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य थे।”

दूसरे आख्यान के अनुसार उनकी उत्पत्ति विष्णु से हुई जो ब्रह्मा से प्रकट हुए थे और प्रजापति दक्ष बन गए। यह इस प्रकार है1  –

जनमेजय2  कहता है: हे ब्राह्मण! मैं ने ब्रह्मयुग (वर्णन) सुना है जो आदि युग था। मेरी भी कामना है, क्षत्रिय युग के विषय में सार-गर्भित और विस्तार से अनेक प्रेक्षणों के आधार यज्ञ के सौदाहरण उल्लेख का सम्पूर्ण विवरणदें। वैशम्पायन ने उत्तर दिया: “मैं  उस युग के विषय में बताता हूं, जिसका यज्ञों के कारण आदर है और जो मुक्ति में अनेक कर्मों की विशिष्टता से सम्पन्न है, जिसका आदर तब के मनुष्यों के कारण किया जाता है। मुक्ति के लिए अबाध कर्म किए जाते थे। ब्रह्मा के प्रति चित्त की एकाग्रता थी और संयम था। ब्राह्मणों के उद्देश्य महानतम थे। ब्राह्मण अपने व्यवहार से गौरवान्वित और मर्यादित थे, संयम का जीवन व्यतीत करते थे। ब्राह्मणों में अनुशासन था, वे अपने कर्तव्यपालन में त्रुटिहीन थे। उनका ज्ञान अथाह था। वे मननशील थे। तब सहस्रों युग व्यतीत होने पर ब्राह्मणों की सत्ता शिखर पर थी। तब ये मुनि इस विश्व के विलयन में सम्मिलित हुए। ब्रह्मा से विष्णु प्रकट हुए। वे इन्द्रियज्ञान से परे हो गए। और ध्यानावशिष्ट हो गए, प्रजापति दक्ष बन गए और अनेक प्राणियों की सृष्टि की। ब्राह्मण को रूपराशि (चन्द्रमा को प्रिय) और अक्षय बनाया गया। क्षत्रियों को नश्वर तत्वों से रचा, एकांतरण से वैश्य बने और धूम्र परिष्करण से शूद्रों को बनाया गया। जब विष्णु वर्णों पर विचार कर रहे थे तो ब्राह्मण कौ गौर, लाल, पीत तथा नीले रंग का बनाया गया। इस प्रकार विश्व में मानव वर्णों में विभाजित हो गये। उनकी चार पहचान हुई,

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  1. म्यूर, खंड 1, पृ. 152.153
  2. हरिवंश में जनमेजय और वैशंपायन के मध्य वार्तालाप।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। एक स्वरूप अनेक कार्य, दो पैरों पर चलने वाला अत्यंत आश्चर्यजनक, शक्तिमान और अपने व्यवसाय में पारंगत। तीन उच्च वर्णों के संस्कारों का वेदों में निधा र्रण हुआ। प्राणियों की योगावस्था से ब्रह्मा प्रकट हुए। विष्णु जैसी उसे ध्यानावस्था से भगवान प्रचेतस (दक्ष) अर्थात महान योगी विष्णु अपनी मेधा एवं ऊर्जा से ध्यानावस्था से कर्मक्षेत्र में उतरे। अपशिष्ट से शूद्र उपजे वे संस्कार रहित हैं। इस कारण वे शुद्धि संस्कारों में सम्मिलित नहीं हो सकते। न ही पवित्र विज्ञान से उनका संबंध है। वैसे ही जैसे ईधन के घष र्ण से अग्नि उत्पन्न होती है और लुप्त हो जाती है। उसकी यज्ञ में कोई आश्वयकता नहीं। इसी प्रकार धरती पर घूमने वाले शूद्र हैं। व फ़ुल मिलाकर (बलि देने के अतिरिक्त किसी उपयोग के नहीं) अपने जन्म के कारण, उनका जीवन शुद्धता से वंचित रखा गया है और उनकी अनावश्यकता वेदों में नियत है।”

अन्त में भागवत पुराण1 :

“कई सहस्र वर्षों के उपरांत अपने कर्मों और प्राकृतिक गुणों से तत्कालीन प्राणियों ने जल पर उतराते अण्डज को जीव रूप प्रदान किया। फिर पुरुष ने उसका विखण्डन कर उससे एक सहस्र जंघाएं, चरण, भुजाएं, चक्षु, मुख और शीर्ष प्रकट किए। विश्व-व्यवस्थापक ने अपने सहयोगी ऋषियों के साथ विश्व की रचना की। उन्होंने अपने कटि से सात अधोभुवन रचे और ऊर्घ्व मूल से और सात ऊर्घ्व भुवनों की रचना की। ब्राह्मण पुरुष का मुख था, क्षत्रिय उसकी भुजाएं, वैश्य उसकी जंघाओं से उपजे और शूद्र उस देव पुरुष के चरणों से जन्मे। पृथ्वी उनके पैरों से बनी। वायु उनकी नाभि से, उनके हृदय से स्वर्ग और उनके वक्ष से महालोक बने।”

अब अंत में वायु पुराण देखें। यह क्या कहता है? इसके अनुसार मनु ने वर्ण-व्यवस्था रची:

“गृत्समद का पुत्र शुनक था। उससे शौनक जन्मा। उसी के परिवार में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए। द्विज मानव विभिन्न कर्मों के साथ जन्मे।’

यह सवे र्क्षण हमें क्या प्रदशि र्त करता है? यदि परिणाम निकलता है तो वह है कि ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था की व्याख्या करने के लिए व फ़ैसी अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न कर दी है। इन व्याख्याओं में एकरूपता नहीं है और ना ही कोई बात निश्चित रूप से कही गई है। एक ही स्रोत ने जो व्याख्याएं दी हैं, उनमें से व फ़ुछ पौराणिक हैं, व फ़ुछ रहस्यात्मक और बौद्धिक हैं। सभी का तात्पर्य इस व्यवस्था की व्याख्या करना है।

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  1. म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 1, पृ. 156

वेदों में यह बताने की चेष्टा की गई है कि वर्ण पुरुष से, मनु से, प्रजापति से, वृत्य से और सोम से उत्पन्न हुए हैं।

ब्राह्मण ग्रंथों में वेदों के साथ पर्याप्त मतभेद हैं। वे पुरुष, मनु, वृत्य अथवा सोम से इसकी उत्पत्ति नहीं मानते। वे प्रजापति और ब्रह्मा के बीच अटक जाते हैं। यह नई बात है। तैत्तिरीय ब्राह्मण का अनूठा ही सिद्धांत है। उसका कहना है कि ब्राह्मण देवताओं से उत्पन्न हुए और शूद्र असुरों से।

मनुस्मृति की दो व्याख्याएं हैं, पौराणिक और बौद्धिक। पौराणिक व्याख्या के अनुसार इसका उद्गम ब्रह्मा से है और बौद्धिक व्याख्या का निष्कर्ष है कि यह व्यक्तियों का संगठनात्मक परिणाम है। रामायण, महाभारत और पुराणों का मत यह लगता है कि वर्णों का उद्भव मनु से हुआ है। मनु संबंधी सिद्धांत के प्रसंग में उन्होंने इसे पूर्णतः भ्रामक बना डाला है। रामायण में ‘मनु’ एक स्त्री है जो दक्ष की पुत्री कश्यप की पत्नी हैं। महाभारत में ‘मनु’ पुरुष है, स्त्री नहीं। वह वैवस्वत का पुत्र है, जो कश्यप के पुत्र हैं। महाभारत के कश्यप की पत्नी मनु नहीं है, दक्षयानी है जो दक्ष की पुत्री बताई गई है। पुराण वर्ण-व्यवस्था के उदय पर मनु सम्बंधी सिद्धांत को तो स्वीकार करते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न मत प्रकट करते हैं। विष्णु पुराण इसका जन्मदाता उसके पुत्रों को मानता है। किन्तु उसमें इतनी जल्दबाजी है कि वह मात्र दो वर्णों की व्याख्या ही भूल जाता है। यही विष्णु पुराण एक अन्य स्थान पर भिन्न सिद्धांत प्रतिपादित करता है कि चारों वर्ण मनु की पुत्री इला की प्रणाली है। दूसरे सिद्धांत के अनुसार इला का विवाह पुरुरवा से हुआ जिसके छह पुत्र थे। ज्येष्ठतम था अयुष। अयुष के क्षेत्रवृद्ध उससे सुहोत्र, उससे गृत्समद। गृत्समद से चार वर्ण बने। वायु पुराण को यह स्वीकार नहीं। उसका कहना है कि वर्ण गृत्समद पौत्र शौनक से उत्पन्न हुए। ‘हरिवंश’ एक स्थान पर विष्णु पुराण का मत स्वीकार कर लेता है कि वर्णों का जनक गृत्समद था किन्तु उसमें अन्तरन यह है कि शूद्र उससे उत्पन्न नहीं हुए। यह पुराण नहीं बताता फिर शूद्र कहां से आ गए? एक अन्य स्थान पर वह कहता है कि वर्ण गृत्समद के पुत्र शुनक से निकले। इस प्रकार अपनी ही बात काटता है और विष्णु पुराण और वायु पुराण से भी भिन्न मत प्रकट करता है।

यह व्याख्या अल्पबुद्धि की सनक लगती है। इससे पता चलता है कि वर्ण-व्यवस्था का औचित्य ठहराने के लिए ब्राह्मणों ने किस प्रकार एड़ी-चोटी का जोर लगाया। प्रश्न यह है कि ब्राह्मण इस व्यवस्था के इतने दृढ़ प्रचारक थे तो वर्ण-व्यवस्था के उद्गम पर एक ही बात पर जम क्यों नहीं सके। एक समान और निर्विवाद ग्राह्य और बौद्धिक व्याख्या क्यों नहीं दे पाए?

इन अनेक व्याख्याओं में से वर्ण-व्यवस्था के औचित्य में ब्राह्मण केवल दो पर ही ठहरते हैं। प्रथम यह है कि इसकी उत्पत्ति पुरुष से हुई है। सिद्धांत यह है कि इसका उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में हैं। यदि यह पौराणिक है तो भी पौराणिकता इतिहास ही है। चाहे उसमें अतिश्योक्ति ही क्यों न हो? परन्तु ऐसा नहीं है। व्याख्या पूर्णतः रहस्यात्मक है। यह किसी खब्ती दिमाग की उड़ान है। इसी कारण इसे कभी व्याख्या स्वीकार नहीं किया गया और यही कारण है कि कई अन्य भी परस्पर विरोधी व्याख्याएं दी जाती हैं। इसमें तनिक भी शिष्टाचार नहीं बरता गया है। यहां तक कि वैदिक लेखकों में यही प्रवृति विद्यमान है। यह दो परिस्थितियों से स्पष्ट है। इसका एक संदर्भ ऋग्वेद के विविध अंशों में है। दूसरे, श्वेत यजुर्वेद की कठ और मैत्रयणी संहिता तथा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में इसका उल्लेख नहीं है। सामवेद में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के मात्र पांच मंत्र हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन पांच मंत्रों को समाहित करते समय उन मंत्रों को छोड़ दिया गया है, जिनमें यह कहा गया है कि वर्ण पुरुष के चार अंगों से उपजे। वास्तव में घालमेल हुआ। परन्तु इसी के साथ यह स्पष्ट संकेत है कि इसके रचयिता उस व्याख्या के संबंध में आश्वस्त नहीं थे जो आस्थाओं से लदी थी। सम्भवतः यह आरोपित और प्रतीकात्मक वर्णन था जिसके अनुसार ब्राह्मणों ने साहित्यिक कथन को तथ्यों में परिवर्तित करने की चेष्टा की। इससे पहेली का उत्तर नहीं मिलता। उल्टे एक उलझन उत्पन्न हो गई है। वह है कि ब्राह्मण क्यों चातुर्वर्ण्य को इतना प्रोत्साहन दे रहे थे?

इसके पीछे बौद्धिक व्याख्या भगवद्गीता की है। हिन्दुओं का देवता कृष्ण यह समझता है कि वह चातुर्वर्ण्य का रचयिता है और यह सिद्धांत प्रतिपादित करता है कि यह गुणों में अंतर पर आधारित है। गुणों में भिन्नता का सिद्धांत कपिल के सांख्य-दश र्न से लिया गया है। कृष्ण चातुर्वर्ण्य की व्याख्या प्रशंसात्मक शैली से करते हैं, जैसे यह अपरिवर्तनशील हो। सांख्य-दश र्न में, निःसंदेह यह कहा गया है कि इसका मूल आधार सतो, रजो, तमो गुण हैं। विषय जड़ता का नहीं है। यह परिवर्तनशील सम्यता है, जहां तीनों गुणों की शक्ति समान है। इसमें उस समय गतिशीलता आ जाती है जब साम्यता विभाजित होती है, जब एक गुण का दूसरे पर प्रभुत्व हो जाता है। कृष्ण ने वर्ण-व्यवस्था को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए सांख्य की गुण-धर्म का मान्यता स्वीकार करके अत्यंत चतुराई दिखाई है। परंतु ऐसा करके कृष्ण अपने जाल में स्वयं प फ़ंस जाते हैं। ये यह नहीं समझ पाते कि गुण तीन हैं और वर्ण चार हैं और इसका कोई कारण नहीं बता सके कि चार वर्णों के लिए तीन से अधिक गुणों की आवश्यकता वे क्यों अनुभव करते हैं। इस प्रकार जिस व्याख्या को बौद्धिक बताने की चेष्टा की गई, वह अनग र्ल व्याख्या है। इससे गुत्थी सुलझती नहीं है बल्कि एक और गांठ पड़ जाती है। ब्राह्मण चातुर्वर्ण्य को सही बताने के लिए क्यों झख मार रहे हैं?

II

आश्रम-धर्म में जीवन को चार चरणों में विभाजित किया है- 1. ब्रह्मचर्य, 2. गृहस्थाश्रम, 3. वानप्रस्थ, और 4. संन्यास। ब्रह्मचर्य की औपचारिक दोनों अवस्थाओं का समान अर्थ है, अविवाहित जीवन। इसका औपचारिक अर्थ है गुरु से शिक्षा ग्रहण करना। गृहस्थाश्रम वह अवस्था है जब कोई व्यक्ति वैवाहिक जीवन बिताता है। संन्यास वह है जब कोई व्यक्ति वैराग्य ले लेता है। वानप्रस्थ, गृहस्थाश्रम और संन्यास के मध्य की स्थिति है। यह वह स्थिति है जब कोई व्यक्ति समाज का अंग होते हुए भी उससे पृथक रहता है। जैसा कि नाम से प्रकट है, इसका अर्थ है जंगलों में रहना।

हिंदुओं का विश्वास है कि आश्रम-धर्म ऐसी संस्था है जो वर्ण-धर्म के समान प्राचीन है। वे इन दोनों को एक साथ मिलाकर वर्णाश्रम-धर्म कहते हैं क्योंकि ये दोनों ही संश्लिष्ट हैं, और दोनों ही मिलकर हिन्दूधर्म का लौहस्वरूप निर्माण करती हैं।

यह उचित रहेगा कि हम आश्रम-धर्म का प्रादुर्भाव, प्रयोजन और विशिष्टता पर विचार करने से पूर्व हम इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लें। आश्रम-प्रथा के दिग्दर्शन का सर्वोत्तम स्रोत मनुस्मृति है, जिसमें से निम्नांकित अंशों को उद्धृत किया जा रहा है:

अध्याय 2.36. ‘‘ब्राह्मण के पुत्र का गर्भधारण के आठ वर्ष पश्चात् उपनयन संस्कार कराया जाए। क्षत्रिय गर्भधारण के ग्यारह वर्ष पश्चात्, किन्तु वैश्य का बारह वर्ष उपरांत।”

अध्याय 2.168. “कोई द्विज यदि वेदाभ्यास नहीं करता है और अन्य का (सांसारिक ज्ञान) अध्ययन करता है, वह शीघ्र ही, अपितु अपने जीवनकाल में ही शूद्र और उसकी संतत की स्थिति प्राप्त करता है।”

अध्याय 3.1. “गुरु के अधीन तीन वेदों का व्रत छत्तीस वर्ष तक धारण किया जाए अथवा इसके अर्द्धांश अथवा चतुर्थांश अथवा जब तक उनका पूरा ज्ञान न हो जाए, यह व्रत रखा जाए।”

अध्याय 3.2. “जो उचित क्रम से तीन वेदों अथवा दो अन्यथा एक का भी अध्ययन बिना नियमोल्लंघन कर लेता है, वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।”

अध्याय 6.8. “विद्यार्थी, गृहस्थ, बैरवानस और तापस इनकी चार स्थितियां हैं, जिन सबका उद्गम गृहस्थ है।”

अध्याय 6.88. ‘‘किन्तु सभी (अथवा) कोई एक अवस्था भी विधानानुकूल एकोपरांत हो ब्राह्मण को उच्च स्थिति प्रदान करती है जो इनका नियमानुसार पालन करता हो।”

अध्याय 6.89. “और वैदिक नियमानुसार और स्मृति के अनुरूप गृहस्थ को श्रेष्ठतम बताया गया है क्योंकि वह अन्य तीनों का सहायक है।”

अध्याय 6.1. “कोई द्विज स्नातक, जो नियमानुसार गृहस्थ-धर्म निभा चुका हो, वह दृढ़ संकल्प करे कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करेगा, वनों में रहेगा (निम्नांकित नियमानुसार)।”

अध्याय 6.2. “जब कोई गृहस्थ यह देखे कि उसकी त्वचा में झुर्रियां पड़ने लगी हैं और उसके बाल पकने लगे हैं और उसके पुत्रों को पुत्र हो गए हैं तब वह वन को प्रस्थान करे।”

अध्याय 6.33. “परन्तु इस भांति अपने जीवन का तीसरा भाग वनों में व्यतीत करने के उपरांत चौथेपन में वह सभी सांसारिकताओं का परित्याग कर तापस का जीवन बिताए।”

अध्याय 6.34. “जो चरण तापस के रूप में प्रति चरण यज्ञ करके और इन्द्रियों का दमन करके क्लांत हो जाता है। (भिक्षादान और भोजन कराकर), वह मृत्यु उपरांत सुख भोगता है।”

अध्याय 6.35. “जब वह तीनों ऋणों से उऋण हो जाता है तो मोक्ष के लिए सुरति लगाए, जो उऋण हुए बिना मुक्ति चाहता है, उसका पतन होता है।”

अध्याय 6.36. “नियमानुसार वेदाध्ययन, पवित्र विधानानुसार पुत्रवान होकर, योग्यतानुसार यज्ञ करके वह अपना ध्यान मोक्ष पर लगाए।”

अध्याय 6.37. “कोई द्विज, जो वेदाध्ययन बिना, पुत्रवान हुए बिना, यज्ञ के बिना मोक्ष चाहता है, वह नरक में जाता है।”

इन नियमों से यह स्पष्ट है कि मनु के अनुसार आश्रम-धर्म के तीन रूप हैं। प्रथम यह कि यह शूद्रों और महिलाओं के लिए नहीं है। द्वितीय यह कि ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ऐसे ही गृहस्थ भी। वानप्रस्थ और संन्यास अनिवार्य नहीं है। तृतीय यह कि इनका निर्धारित क्रम से पालन किया जाए। प्रथम ब्रह्मचर्य, द्वितीय गृहस्थ, तृतीय वानप्रस्थ और चतुर्थ संन्यास। कोई एक को लांघकर दूसरे आश्रम में नहीं जा सकता।

व्यक्तिगत जीवन में मनु द्वारा नियोजित अर्थ-व्यवस्था के लिए बताई जाने वाली इस आश्रम-प्रणाली पर विहंगम दृष्टि डालने पर कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं। वेदों के संदर्भ में आश्रमों का यह सिद्धांत अज्ञात है। वेदों में ब्रह्मचारी का उल्लेख है परन्तु ब्रह्मचर्य को जीवन का प्रथम और अनिवार्य सोपान बनाए जाने का कोई प्रसंग नहीं है। ब्राह्मणों ने व्यक्तिगत जीवन में ब्रह्मचर्य को अनिवार्य क्यों बनाया। आश्रम धर्म के संबंध में यह प्रथम गोरखधंधा है।

दूसरा प्रश्न यह है कि मनु ने व्यक्ति के लिए एक ही क्रम में आश्रम-प्रणाली क्यों रखी? इसमें कोई संदेह नहीं रहा है कि एक समय ऐसा था, जब कोई ब्रह्मचारी तीनों में से कोई-सा भी आश्रम अपना सकता था। वह गृहस्थ बन सकता था अथवा गृहस्थ बने बिना संन्यासी भी बन सकता था। यह तुलना करें कि धर्म-सूत्र इस विषय में क्या कहते हैं? वशिष्ठ धर्म सूत्र का मत है1 :

“चार सोपान हैं: विद्यार्थी, गृहस्थ, वैखानस और तापस।”

“जिस व्यक्ति ने एक, दो अथवा तीन वेदों का अध्ययन विद्यार्थी धर्म का उल्लंघन किए बिना किया है, वह जिस आश्रम में जीवन बिताना चाहे, बिता सकता है।”

गौतम धर्म सूत्र2 का मत हैः

“कोई (बताए कि) वह (जिसने वेदाध्ययन किया है) किसी भी आश्रम का चयन कर सकता है” इसमें चार आश्रम हैं: विद्यार्थी, गृहस्थ, भक्षु, वैखानस।

मनु ने विकल्प को तिरोहित करके गृहस्थ को अनिवार्य क्यों बनाया? उसे गृहस्थ को बैखानस से पूर्व की शर्त क्यों बनाया और बैखानस को संन्यास से पूर्व की शर्त क्यों रखा?

महत्वपूर्ण लक्ष्य के लिए जीवन के चार चरणों की आवश्यकता कर दी गई है। यह समझना कठिन है कि शूद्रों और नारियों को क्यों बाहर रखा गया है? मनु के कार्यक्रम के अनुसार शूद्र और स्त्रियां केवल गृहस्थ ही रह सकते हैं। वे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी क्यों नहीं हो सकते? यदि आश्रम-धर्म उन पर भी लागू कर दिया जाए तो उससे उन्हें अथवा समाज को क्या हानि हो सकती है?

आश्रम धर्म के संबंध में और भी पहेलियां हैं। पहली यह कि उन्होंने ब्रह्मचारियों3 के संबंध में भेदभाव क्यों रखा?

अध्याय 2.41. कटि से ऊपर अपनी वर्ण व्यवस्थानुसार छात्र काले और चितकबरे मृग की छाल और बकरे की खाल वस्त्र के रूप में धारण करें और कटि के नीचे सन और भेड़ की ऊन के वस्त्र पहनें।

अध्याय 2.42. ब्राह्मण की मेखला में तीन गांठें हों जो मूंगा घास की मुलायम और चिकनी, क्षत्रिय की धनुष की तरह अर्धवृत्त में मुखाघास और वैश्य सन की बनी हो उसे धारण करें।

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  1. सै.बु.ई. खंड 14, पृ. 40, अध्याय 7, श्लोक 1, 2, 3
  2. वही, खंड 2, पृ. 192, अध्याय 3, श्लोक 1, 2
  3. वही, खंड 2, मनु पृ. 37.9

अध्याय 2.43. मूंज आदि के नहीं मिलने पर कुश, अश्मन्तक और बल्वज की बनी हुई मेखला पारिवारिक रीति के अनुसार गांठें बांधकर धारण करें।

अध्याय 2.44. ब्राह्मण का यज्ञोपवीत कपास का, क्षत्रिय का यज्ञोपवीत सन के बने सूत का और वैश्य का यज्ञोपवीत भेड़ के बाल के बने सूत का ऊपर की ओर से बंटा हुआ तीन लड़ी का होना चाहिए।

अध्याय 2.45. धर्मानुसार ब्राह्मण ब्रह्मचारी को बेल या पलाश का, क्षत्रिय ब्रह्मचारी को बट या खैर का और वैश्य ब्रह्मचारी को पीलू या गूलर का दण्ड धारण करना चाहिए।

अध्याय 2.46. प्रमाणानुसार ब्राह्मण ब्रह्मचारी का दण्ड केश तक, क्षत्रिय ब्रह्मचारी का दण्ड ललाट तक और वैश्य ब्रह्मचारी का दण्ड नाक तक लम्बा होना चाहिए।

अध्याय 2.47. दण्ड सीधे, बिना कटे हुए, देखने में सुन्दर, लोगों में सीधे भय नहीं करने वाले छिलकों के सहित और बिना जले हुए होने चाहिए।

अध्याय 2.48. ईप्सित दण्ड धारण कर, सूर्य उपासना तथा अग्नि की प्रदक्षिणा कर विधिपूर्वक भिक्षा मांगनी चाहिए।

अध्याय 2.49. उपवीत ब्राह्मण ब्रह्मचारी को “भक्त” शब्द का वाक्य के पहले उच्चारण कर, क्षत्रिय ब्रह्मचारी को “भक्त” शब्द का वाक्य के मध्य में उच्चारण कर और वैश्य ब्रह्मचारी को “भक्त” शब्द का वाक्य के अंत में उच्चारण कर

भिक्षायाचना करनी चाहिए।

ब्रह्मचारी सभी द्विज होते हैं। उन्हें अपने ऊर्घ्व परिधान में अंतर रखना चाहिए। जनेऊ में अंतर क्यों रखा गया है? वे दंड में अंतर क्यों रखे? भिक्षा मांगने के तरीके में अंतर क्यों रखा गया है? ब्राह्मण ब्रह्मचारी ही यह क्यों कहे- “भगवती भिक्षाम देहि” क्षत्रिय ब्रह्मचारी इतना ही क्यों कहें- “भिक्षाम भवती देहि”? वैश्य क्यों कहे- “भिक्षाम् देहि भवती।”

आश्रम धर्म हिन्दुओं की विशिष्टता है और उन्हें इस पर गर्व है। यह सत्य है कि इसकी तुलना नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि इसमें कोई गुण नहीं है। अनिवार्य ब्रह्मचर्य बहुत आकर्षक लगता है क्योंकि इसके अनुसार बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई बतायी जाती है। परन्तु वह सबके लिए नहीं थी। शूद्र और स्त्रियों को इससे वंचित रखा गया है। शूद्र और स्त्रियां हिन्दूसमाज का 9/10वां भाग हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट है कि यह योजना बुद्धिमत्ता के स्थान पर धूर्ततापूर्ण है। इसमें बहुसंख्यक समाज के साथ भेदभाव रखा गया है और शिक्षा का प्रावधान कुलीन वर्ग के लिए ही है। अनिवार्य विवाह भी एक मूर्खतापूर्ण व्यवस्था है। किसी व्यक्ति की आर्थिक और शारीरिक क्षमताओं को ध्यान में रखे बिना विवाह के लिए विवश करना दो व्यक्तियों का जीवन और राष्ट्र को नष्ट करने का मार्ग खोलता है। बशर्ते कि सरकार प्रत्येक व्यक्ति के निर्वाह का भरोसा दे। सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण है वानप्रस्थ और संन्यास। उनके संबंध में नियम इस प्रकार हैं। वानप्रस्थ1 के लिए, निम्नांकित मनु व्यवस्था है:

अध्याय 6.3. ग्राम्य आहार तथा वस्तुओं को छोड़कर, वन में जाने की इच्छा नहीं करने वाली अपनी पत्नी को पुत्रों के उत्तरदायित्व में सौंपकर अथवा वन में साथ जाने की इच्छा करने वाली अपनी पत्नी को साथ लेकर वन को जावे।

अध्याय 6.4. पवित्र अग्नि और घरेलू यज्ञ के उपकरण लेकर ग्राम से बाहर वन में जाकर जितेन्द्रिय होकर रहे।

अध्याय 6.5. पवित्र अनेकविध मुन्यन्न अथवा शाक, मूल और फल आदि से पूर्वोक्त पंचमहायज्ञों को विधिपूर्वक करता रहे।

अध्याय 6.6. मृग आदि का चर्म या पेड़ों का वल्कल धारण करे, सायंकाल तथा प्रातःकाल स्नान करे और सर्वदा जटा, दाढ़ी, मूंछ एवं नख को धारण करे।

अध्याय 6.7. जो भोज्य पदार्थ हो, उसी से बलि करे, भिक्षा दे और जलकन्द तथा फलों की भिक्षा देकर आये हुए अतिथियों का सत्कार करे।

अध्याय 6.8. सर्वदा वेदाभ्यास में लगा रहे, द्वंद्वों को सहन करे, सबसे मित्रभाव रखे, मन को वश मे रखे, दानशील बने, दान न ले और सब जीवों पर दया करे।

अध्याय 6.9. दर्श, पौर्णमास पर्वों को यथासमय त्याग नहीं करता हुआ विधिपूर्वक वैतानिक अग्निहोत्र करता रहे।

अध्याय 6.10. नक्षत्रेष्टि, आग्रहायण याग, चातुर्मास्य याग, उत्तरायण याग और दक्षिणायन याग को श्रोतस्मार्त विधि से क्रमशः करे।

अध्याय 6.11. वसन्त तथा शरद ऋतु में पैदा हुए एवं स्वयं लाये गये पवित्र मुन्यन्नों, पुरोडश तथा चरूको शास्त्रनुसार अलग-अलग तैयार करे।

अध्याय 6.12. वन में उत्पन्न अत्यंत पवित्र उस हविष्यान्न से देवों के उद्देश्य हवन कर बचे हुए अन्न का भोजन करे तथा स्वयं बनाये हुए लवण को काम में लाए।

अध्याय 6.13. भूमि तथा जल में उत्पन्न शाक को, वृक्षों के पवित्र पुष्प, मूल तथा फल को और फलों से बने स्नेह को भोजन करे।

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  1. सै.बु.ई. खंड 30, पृ, 199.203

अध्याय 6.14. मधु, मांस, पृथ्वी में उत्पन्न छत्रक, भूस्तृण, शिग्रक और लसौडे का फूल का त्याग करे।

अध्याय 6.15. पूर्वसंचित मुन्यन्न, पुराने वस्त्र और शाक, कन्द एवं फल का आश्विन मास में त्याग कर दे।

अध्याय 6.16. वन में भी हल से जुती हुई भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ, चाहे किसी ने फेंक दिए हों, और कंद-मूल और फल को क्षुधा पीड़ित होकर भी न खाए।

अध्याय 6.17. अग्नि में पकाये हुए अन्नादि को खाने वाला बने, अथवा नियत समय पर पकने वाले पदार्थों को खाने वाला बने, अथवा वे पदार्थ जो पत्थर से पीस कर अथवा दांतों से चबाकर खाने वाले हों।

अध्याय 6.18. वह भोजन पात्रों को नित्य तुरंत साफ करने वाला बने, या एक मास का पर्याप्त प्रबंध करे अथवा इतना संग्रह करले जो छः माह या वर्ष पर्यन्त के लिए पर्याप्त हो।

अध्याय 6.19. यथाशक्ति खाद्य को लाकर सायंकाल या दिन में या एक दिन, पूरा उपवास कर दूसरे दिन, सायंकाल या तीन रात उपवास कर चौथे दिन सायंकाल भोजन करे।

अध्याय 6.20. अथवा शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में चन्द्रायण के नियम से भोजन करे, अथवा अमावस्या तथा पूर्णिमा को दिन या रात्रि में केवल एक बार पकाई हुई ययागू का भोजन करे।

अध्याय 6.21. अथवा वैखानस आश्रम में रहने वाला सर्वदा केवल समय पर पके और स्वयं गिरे हुए फूल मूल और फलों से ही जीवन निर्वाह करे।

अध्याय 6.22. भूमि पर लेटै तथा टहले या पैर के अगले भाग पर दिन में कुछ समय तक खड़ा रहे या बैठा रहे, प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल में स्नान करे।

अध्याय 6.23. अपनी तपस्या को बढ़ाता हुआ ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि ले, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहे और शीत ऋतु में गीला कपड़ा धारण करे।

अध्याय 6.24. तीनों समय स्नान करता हुआ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे और कठोर तपस्या करता हुआ अपने शरीर को सुखा दे।

अध्याय 6.25. वानप्रस्थ के नियमानुसार वैतानिक अग्नि को आत्मा में रखकर वन में भी अग्नि और गृह का त्याग कर केवल मूल तथा फल का खावे।

अध्याय 6.26. सुख-साधक साधनों में उद्योग छोड़कर ब्रह्मचारी, भूमि पर सोने वाला, निवास स्थान में ममस्वरहित हो पेड़ों के मूल को घर समझ कर निवास करे।

अध्याय 6.27. जीवन निर्वाह के लिए केवल तपस्वी वानप्रस्थाश्रमियों के यहां भिक्षा ग्रहण करे और उनका भी अभाव होने पर वन में निवास करने वाले अन्य गृहस्थ द्विजों से भिक्षा ग्रहण करे।

अध्याय 6.28. उन वनवासी गृहस्थों का भी अभाव होने पर वन में ही निवास करता हुआ ग्राम से वृक्ष-पत्रें में या सकोरों के खण्डों में अथवा हाथ में ही भिक्षा ला कर केवल आठ ग्रास भोजन करे।

अध्याय 6.29. वन में निवास करता हुआ ब्राह्मण इन नियमों को तथा स्वशास्त्रेक्त नियमों का पालन करे और आत्मसिद्धि के लिये उपनिषदों तथा वेदों में कथित वचनों का अभ्यास करे।मनुस्मृति में संन्यासी के लिए निम्न विधान हैं:1

अध्याय 6.38. जिसमें समस्त सम्पत्ति को दक्षिणा रूप में देते हैं ऐसे प्राजापत्य यज्ञ का अनुष्ठान कर और उसमें कथित विधि से अपने में अग्नि का आरोप कर ब्राह्मण घर से संन्यास आश्रम को ग्रहण करें।

अध्याय 6.39. जो सब प्राणियों के लिए अभय देकर गृह से संन्यास ले लेता है, उस ब्राह्मण के तेजोमय लोक होते हैं अर्थात् वह उन लोकों को प्राप्तकरता है।

अध्याय 6.40. जिस द्विज से जीवों को लेशमात्र भी भय नहीं होता, शरीर से विमुक्त हुए उस द्विज को कहीं से भी भय नहीं होता।

अध्याय 6.41. पवित्र कमण्डल, दण्ड आदि से युक्त मौन धारण किया हुआ घर से निकला हुआ और उपस्थित इच्छा प्रवर्त्तक वस्तु में निःस्पृह होकर संन्यास ग्रहण करे।

अध्याय 6.42. अकेले सिद्धि को देखता हुआ द्विज दूसरे किसी का साथ न करके अकेला ही मोक्ष के लिए चले, इस प्रकार वह किसी को नहीं छोड़ता है और न उसे कोई छोड़ता है।

अध्याय 6.43. लौकिक अग्नि से रहित, गृह से रहित, शरीर में रोगादि होने पर भी चिकित्सा आदि का प्रबंध न करने वाला, स्थिर बुद्धिवाला, ब्रह्म का मनन करने वाला और ब्रह्म में ही भाव रखने वाला संन्यासी भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे।

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  1. सै.बु.ई. खंड 25, अध्याय 6, श्लोक 38.45, पृ, 205.206

अध्याय 6.44. एक खपरा, पेड़ों की जड़ (रहने के लिए कंदरा), पुराना व मोटा या वृक्ष का वल्कल कपड़ा अकेलापन, ममता और सब में समान भाव से, ये मुक्त के लक्षण हैं।

अध्याय 6.45. मरने या जीने, इन दोनों में से किसी की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करते रहे।

अध्याय 6.49. ब्रह्म ध्यान में लीन योगासनों में बैठा हुआ, अपेक्षा से रहित, मांस की अभिलाषा से रहित और शरीर मात्र सहायक से युक्त मोक्ष सुख को चाहने वाला इस संसार का विचरण करे।

अध्याय 6.50. चमत्कार और अपशकुन, ज्योतिष और हस्तरेखा विज्ञान, व शास्त्र शिक्षा आदि के द्वारा कभी भी भिक्षा लेने की इच्छा न करे।

अध्याय 6.51. बहुत से वानप्रस्थों या अन्य साधुओं, ब्राह्मणों, पक्षियों, कुत्तों या दूसरे भिक्षुकों से युक्त घर में न जावे।

अध्याय 6.52. बाल, नाखून और दाढ़ी-मूंछ कटवा कर, भिक्षापात्र, दण्ड तथा कमण्डल को लिये हुए किसी प्राणी को पीड़ित न करता आत्मसंयमी रहते हुए सर्वदा विचरण करे।

अध्याय 6.53. उसके भिक्षापात्र धातु के न हों, छिद्र रहित हों, उनकी शुद्धि यज्ञ में चमस के समान केवल पानी से होती है।

अध्याय 6.54. तुम्बा, लकड़ी, मिट्टी, बांस के पाच्यतियों के हों ऐसा स्वायंभूव पुत्र ने कहा है।

अध्याय 6.55. संन्यासी जीवन-निर्वाह के लिए दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करे, तथा उसको भी अधिक प्रमाण में लेने में आसक्ति न करे, क्योंकि भिक्षा में आसक्ति रखने वाला संन्यासी विषयों में भी आसक्त हो जाता है।

अध्याय 6.56. घरों में जब धुंआ दिखाई न पड़ता हो, मूसल का शब्द न होता हो, आग बुझ गयी हो, सब ने भोजन कर लिये हों, और खाने के पत्तल बाहर फेंक दिये गये हों, तब भिक्षा के लिए संन्यासी सर्वदा निकले।

अध्याय 6.57. भिक्षा न मिलने पर विषाद और मिलने पर हर्ष न करे। जितनी भिक्षा से जीवन निर्वाह हो सके, उतने ही प्रमाण में भिक्षा मांगे। दण्ड, कमण्डल आदि की मात्र में भी आसक्ति न करे।

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  1. सै.बु.ई. अध्याय 6, पृ, 207.209

अध्याय 6.58. विशेष रूप से आदर-सत्कार के साथ मिलने वाली भिक्षा की सर्वदा निंदा करे, क्योंकि पूजापूर्वक होने वाली भिक्षा प्राप्ति से मुक्त भी संन्यासी बंध जाता है।

अध्याय 6.59. विषयों की ओर आकृष्ट होती हुई इन्द्रियों को थोड़ा भोजन और एकांतवास के द्वारा रोके। अध्याय 6.60. इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकने से राग और द्वेष के त्याग से और प्राणियों की अहिंसा से मुक्ति के योग्य होता है।

अध्याय 6.80. जब विषयों में दोष की भावना से सब विषयों से निःस्पृह हो जाता है, तब इस लोक में तथा परलोक में नित्य सुख को प्राप्त करता है।

अध्याय 6.81. इस प्रकार सब संगों को धीरे-धीरे छोड़कर तथा सब द्वंद्वों से छुटकारा पाकर ब्रह्म में ही लीन हो जाता है।

अध्याय 6.82. यह सब परमात्मा में ध्यान से होता है। अध्यात्मज्ञान से शून्य ध्यान का फल कोई भी नहीं प्राप्त करता है।

अध्याय 6.83. यज्ञ तथा देव के प्रतिपादक वेदमंत्र को, जीव के स्वरूप का प्रतिपादक वेदमंत्र को और ब्रह्मप्रतिपादक वेदान्त में वर्णित मंत्र को जपे।

अध्याय 6.84. वेदार्थ को नहीं जानने वाले के लिए यही वेद शरण है, और वेदार्थ जानने वालों के लिए स्वर्ग चाहने वालों के लिये भी यही वेद शरण है।

अध्याय 6.85. इस क्रम से जो द्विज संन्यास लेता है वह इस संसार में पाप को नष्ट कर उत्कृष्ट ब्रह्म को प्राप्त करता है।

वानप्रस्थ और संन्यासी की तुलना से ज्ञात होता है कि इनके पालन में इतना साम्य है कि हमें यह जिज्ञासा होती है कि इन दोनों अवस्थाओं को भिन्न क्यों रखा गया है? दोनों के बीच बहुत कम अंतर है। पहली बात तो यह है कि वानप्रस्थ अपनी पत्नी को साथ रख सकता है, संन्यासी नहीं। दूसरे यह कि वानप्रस्थ अपनी सम्पत्ति रख सकता है और संन्यासी को उसका परित्याग करना होता है। तीसरे यह कि वानप्रस्थ वनों में निवास बना सकता है किन्तु संन्यासी एक ही स्थान पर नहीं टिक सकता है, उसे एक से दूसरे स्थान तक रमण करना होता है। शेष बातों में दोनों का जीवन समान है। ब्राह्मणों ने वानप्रस्थ की अतिरिक्त मान्यता क्यों रखी जबकि संन्यास पर्याप्त था? परन्तु यह प्रश्न तो फिर भी बरकरार रहता है कि इन दोनों की ही क्या आवश्यकता थी? ये आत्म-बलिदान का उदाहरण नहीं कही जा सकती। वानप्रस्थ और संन्यासी

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  1. सै.बु.ई., खंड 25, श्लोक 80.85, पृ, 213.214

केवल वृद्ध ही हो सकते हैं। मनु इस संबंध में आश्वस्थ हैं कि एक अवस्था में मनुष्य वानप्रस्थी हो जाए। इसका समय तभी आता है जब झुर्रियां पड़ने लगें। यह काफी आयु में होता है। संन्यासी की आयु तो और भी अधिक होनी चाहिए। ऐसे व्यक्तयों को आत्मत्यागी कहना गलती है, जिन्होंने जीवन के सभी सुख भोगे हों और जब वे सुख भोगने योग्य ही न रहें तो उनका परित्याग कर दें। यह निर्विवाद है कि परिवार और गृह-त्याग, समाज-सेवा अथवा दीन-दुखियों की सेवा के उद्देश्य से नहीं किया जाता। इसका आशय है, तपस्या करना और शांतिपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करना! यह एक मजाक ही है कि वृद्ध व्यक्तियों को घर-परिवार से दूर जंगलों में मरने के लिए छोड़ दिया जाए, जहां उनके लिए कोई दो आंसू बहाने वाला भी न हो।

ब्राह्मणों ने नियोजित अर्थ-व्यवस्था के उद्देश्य से आश्रम-प्रणाली बनाई। यह इतनी बड़ी मूर्खता है कि उसका कारण और उद्देश्य समझ पाना एक बहुत बड़ी पहेली है।