हिन्दुओं से यह आशा की जाती है कि वे प्रतिदिन वेद पाठ करें। शतपथ ब्राह्मण में इसके कारण बताए गए हैं। उसका कहना हैः
“ केवल ये पांच महा त्याग हैं जिनका अत्यधिक महत्व है जैसे, जीव-जंतुओं को दाना आदि चुगाना, मनुष्यों को दान, पिता की सेवा, भगवत् पूजा, और वेद पाठ (ब्रह्म यज्ञ) 2. जीवित प्राणियों को प्रतिदिन दाना पानी दें1 । उनके प्रति इतना ही कर्तव्य है। किसी को कुछ न कुछ दान प्रतिदिन दें। चाहे कटोरी भर पानी ही पिलाएं, मानव के प्रति दान-दक्षिणा का कर्त्तव्य पूरा हो जाता है। ईश्वर की पूजा में भी प्रतिदिन भागीदार बनना चाहिए2। यहां तक कि लकड़ी का गट्ठा चढ़ाकर भी। यह ईश्वर की भक्ति पूर्ण हुई। 3. अब हैं वेदों के प्रति कर्तव्य। इसका अर्थ है उनका एकांत पाठ3 । इस कार्य में वाणी जुहू है, आत्मा उपभृत है, नेत्र ध्रुव हैं और बुद्धि श्रुव4 है। सत्य अर्पण है और स्वर्ग लक्ष्यसिद्धि। जो इसे जानकर प्रतिदिन वेद-पाठ करता है, वह अविकारी लोक में जाता है। वह विद्यमान से तीन गुना बड़ा लोक है। उस लोक में सम्पदा का साम्राज्य है। इसलिए वेदों का अध्ययन किया जाए। 4. ऋग्वेद की ऋचाएं भगवान के लिए दूध का अर्घ्य हैं। जो इसे जानता है वह प्रतिदिन वेद पाठ करता है। प्रतिदिन भगवान को दुग्ध अर्पण से संतुष्ट करता है और देवता संतुष्ट होकर उसे धनधान्य से सम्पन्न, स्वास्थ्य, पौरुष तथा दैहिक शक्ति प्रदान करते हैं। उन्हें विलक्षण वरदान देते हैं। पिता की सेवा से घी और शहद की नदियां बहती हैं। 5. ईश्वर के लिए यजुस मंत्रों का पाठ घी की आहुति है। जो इसे जानता है, जो इनका नित्य पाठ करता है, वह देवताओं को घी
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- जैसा कि मैंने जे. आफरेच्ट को पढ़ा है इसके अनुसार पक्षियों को दाना डाला जाता था। यह बोटलिंग्क और रोथ शब्द कोश में है। दूसरे यज्ञ के बारे में कोलब्रुक के मिस्लेनियस ऐस्सेज पृष्ठ-150, 153, 182 देखें। फुट नोट 203
- यह कात्यायन के श्रौत सूत्र से संबद्ध है जिसका उल्लेख प्रो- आफरेच्ट ने किया है। यह मनुस्मृति में भी उपलब्ध है अध्याय 3, 210, 214, 218
- स्वाध्याय स्वयशाखाध्यानम् (अपनी शाखा में वेद-अध्ययन)
- प्रो- मूलर के फ्रयुनरल राइटस आफ ब्राह्मन्स लेख में इनके चित्र दिए हैं देखें जर्नल ऑफ दि जर्मन ओरि- सैक्सन खण्ड 9
दि इनफालिबिल्टी ऑफ वेदाज पर छह पृष्ठों की यह टंकित प्रति है और लेखक ने इसमें कोई संशोधन या परामर्श अंकित नहीं किया। इस अध्याय के बाद का हिस्सा उपलब्ध नहीं है। – संपादक
की आहुति से प्रसन्न करता है और वे संतुष्ट होकर, उसे संतुष्ट करते हैं (पूर्वोक्त की भांति)। 6. सामवेद के मंत्र देवताओं को सोम का तर्पण हैं। जो यह जानता है, वह प्रतिदिन उनका पाठ करता है। देवताओं को साम का तर्पण करता है और वे संतुष्ट होकर आदि (पूर्वाक्तानुसार) 7. अथर्वन और आंगिरस (अथर्वांगिरस)1 के मंत्र देवताओं को वसा का अर्पण करते हैं। जो इसे जानता है, वह इनका नित पाठ करता है और देवताओं को वसा से संतुष्ट करता है और वे आदि (पूर्वोक्तानुसार) 8. निर्दिष्ट और वैज्ञानिक लेख, संवाद परम्पराएं, कथाएं, मंत्र और आरती देवताओं को शहद की आहुतियां हैं। जो इसे जानता है और नित्य इनका पाठ करता है, वह देवताओं को शहद की आहुति देता है और वे आदि (पूर्वोक्तानुसार) 9. इन वैदिक आहुतियों के लिए चार वषट्कार हैं, जब हवा चले, बिजली चमके, बादल गरजें, वृक्षादि गिरें तो जो व्यक्ति जानता है, यह इन्हें क्रम से पढ़ें। यह पाठ अनवरत रहना चाहिए।2 जो ऐसा करता है, वह एक ही बार मृत्यु को प्राप्त होता है और ब्रह्म में लीन हो जाता है। यदि वह तीव्रता से न भी पढ़ पाए, उसे देवताओं से संबद्ध अंश का पाठ करना चाहिए। इस प्रकार वह अपने जीवित प्राणियों से वंचित नहीं होगा।”
- 5, 7, 1: “अब वैदिक साहित्य के अध्ययन का गुणगान आता है। जो अध्ययन-अध्यापन प्रिय है, ऐसा कार्य करने वाला व्यक्ति धैर्यवान होता है, किसी के अधीन नहीं होता। वह सफल मनोरथ होता है। उसे सुखद निद्रा आती है, वह अपना वैद्य स्वयं है। अपने मन पर नियंत्राण रखता है, उसका चित्त स्थिर रहता है, यश और बुद्धि बढ़ती है, मानवजाति को शिक्षित करने की क्षमता रखता है। इस प्रकार शिक्षित पुरुष ब्राह्मण है। वह चार अधिकारों का पात्र है। आदर, दक्षिणा, दमन मुक्ति और वध के भय से मुक्ति। 2. दोनों लोकों में जो श्रेष्ठ जाने जाते हैं, उसमें वेदों का अध्ययन सर्वोच्च है, जो इसको जान कर अध्ययन करता है। इस प्रकार इनका अध्ययन करते रहना चाहिए। 3. जब कोई व्यक्ति वैदिक मंत्रों का अध्ययन करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञ करता है अर्थात् जो भी उसे जाने वैसे अध्ययन करे आदि आदि। 4. और ऐसा व्यक्ति भी जो उबटन से सुगंधित हो, रत्नाभूषित हो, भोजन में तृप्त हो और सुख शैल पर आसीन हो, वेदों का अध्ययन करता है तो वह सर्वांग तप करता है,3 यह जानते हुए अध्ययन करता है उसे आदि। 5.ऋग्वेद की ऋचाएं मधु हैं, सामवेद की घी, यजुस की अमृत, जब कोई वाको-वाक्य पढ़ता है या पौराणिक आख्यान पढ़ता है तो वे दोनों उबले दूध और पके मांस की आहुतियों के समान हैं। 6. जो यह जानकर
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- अथर्व संहिता इस तरह कही जाती है।
- देखें बोटलिंग्क और रोया वेु शब्द कोश, एस.वी. छाम्बर।
- प्रो. वेबर ने यह वाक्य दूसरी प्रकार से लिखा है, इण्ड स्टड 10, पृ. 112, जैसे;वह (पवित्र अग्नि से) सर्वांग जलाता है। इसी संबंध में आगे कहा गया है कि नक मौदगल्य ने तैत्तिरीय आरण्यक में कहा है, स्वाध्याय प्रवचने इव तद् ही तपः। आरण्यक 7, 8 में कहा गया है कि अध्ययन और अध्यापन साथ चलना चाहिए जैसे आध्यात्मिक कर्मकांड यथा सत्यम तप, दम, साम, अग्निहोत्र, यज्ञ आदि, देखें इण्डि स्टड 2.214 और 10, 113.
नित्यप्रति ऋग्वेद के मंत्र पढ़ता है, वह देवताओं को मधु से संतुष्ट करता है और वे प्रसन्न होकर उसके सभी मनोरथ पूर्ण करते हैं। 7. और जो यह जानकर नित्य साम मंत्र पढ़ता है, वह देवताओं को घी से संतुष्ट करता है और वे संतुष्ट होकर (यथोपरि) 8. जो यह जानकर नित्य यजुस मंत्र पढ़ता है, वह देवताओं को अमृत से संतुष्ट करता है और (यथोपरि) 9. जो यह जानकर नित्य वाकोवाक्य प्राचीन कथाओं का अध्ययन करता है, वह देवताओं को दूध और मांस की आहुतियों से संतुष्ट करता है और वे (यथोपरि) 10. पानी बहता है, सूर्य और चन्द्रमा घूमते हैं, नक्षत्र घूमते हैं। यदि किसी दिन ब्राह्मण वेदाध्ययन नहीं करता, वह दिन उसके लिए ऐसा ही है जैसे घूमने वाले वे तत्व स्थिर हो जाएं। इसलिए यह अध्ययन आवश्यक है। कोई व्यक्ति जब ऋग्वेद, सामवेद अथवा यजुस की आहुति दे रहा हो अथवा किसी गाथा या काव्य का पाठ कर रहा हो तो इस बीच उसे टोका न जाए।”
मनु जो शतपथ ब्राह्मण की पुष्टि करते हैं, कहते हैं:
वेद पितरों की देवताओं की और पुरुषों की दिव्य आंखें हैं, ये मानव की शक्ति और समझ के बाहर हैं यह निष्कर्ष है, जो परम्पराएं वेद विहीन हैं और सभी विधर्मी मत परलोक में वृथा हैं क्योंकि उनका आधार ही अंधकार है। वेदों की परिधि के अतिरिक्त अन्य ग्रंथ उभरते हैं और नष्ट हो जाते हैं। सभी निर्मूल्य हैं और झूठे हैं। चार वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम जैसे थे, वैसे हैं और आगे वैसे ही रहेंगे। ये वेद वर्णित हैं। जिन पदार्थों में स्पर्श, स्वाद, ध्वनि, रूप और गंध है, इन सबका ज्ञान वेदों में है। उनकी उत्पत्ति गुण, लक्षण और कर्म भी हैं। शाश्वत वेद चराचर के रक्षक हैं। इसलिए मेरे विचार में वह इस जगत, मानव सेवा के निर्देश, राजसी अधिकार, न्याय प्रक्रिया, और विश्व-सत्ता का मुख्य तत्व हैं, बस वही सुपात्र है जो वेदों को जानता है। जैसे शक्ति पाकर अग्नि हरे वृक्षों तक को जला देती है इसी प्रकार वेद-ज्ञाता अपनी आत्मा के दोषों को पचा लेता है, जो उसके कार्यों से जन्मे हों। जो वेदों का मूल तत्व जानता है, वह जीवन के किसी भी मोड़ पर क्यों न हो, बह्मलीन होने को अग्रसर है, इहलोक में भी उसके लिए यह संभव है।
फिर भी, मनु को संतोष नहीं है। वह और आगे बढ़ जाते हैं और नए सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं –
श्रुति का अर्थ है – वेद, स्मृति का अर्थ है – विधान, उनके विषय को किसी तर्क से चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि इनसे कर्त्तव्य-बोध होता है। जो बाह्मण बौद्धक लेखों पर विश्वास रखते हैं, वे ज्ञान के इन दो प्राथमिक स्रोतों की अवमानना करते हैं।1 गुणीजन उन्हें वेदों के प्रति संशयवादी और विद्रोही जानकर उनका बहिष्कार कर दें।…. 13. जो कर्त्तव्य ज्ञान चाहते हैं, उसके लिए श्रुति सर्वश्रेष्ठ स्रोत है।”
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- इसे 12, 106 के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिसमें लिखा गया है आर्शाम धर्मोपदेशम च वेदशास्त्र विरोधिना यस तर्केनानुसंधाते सा धर्मेन वेद नापरह। वही केवल वही कर्त्तव्य बोध से परिचित हैं जो ऋषियों का अनुगमन करते हैं, तर्क द्वारा जो वेद विरुद्ध नहीं हैं।