स्मृत-धर्म के पवित्र साहित्य में स्मृतियां अथवा संहिताएं आदि समाविष्ट हैं। ये स्मृतियां भारत की विधि-विधान हैं। इस विधि-विधान की परिधि इतनी व्यापक हो गई कि उसमें विधि, सरकार, समाज, विभिन्न जातियों के नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्य, पापों का प्रायश्चित और अपराधों के लिए दंड-व्यवस्था का प्रावधान है। इसके शुरू के निरपेक्ष अंशों पर हम इस समय अध्ययन नहीं कर रहे हैं। इसके उसी भाग के अंश प्रासंगिक हैं जो पूर्णतः धार्मिक हैं।
स्मृत-धर्म अर्थात् स्मृतियों पर आधारित धर्म पांच सिद्धांतों पर आधारित है। इसका प्रथम सिद्धांत है, त्रिदेव में आस्था, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्मिलित हैं। इस त्रिमूर्ति में ब्रह्मा जगत का सृष्टा है, विष्णु पालनहार और शिव संहारक हैं। श्रुत-धर्म के तैंतीस देवताओं के स्थान पर स्मृत-धर्म तीन देवों तक सीमित हैं।
स्मृत-धर्म का दूसरा सिद्धांत है संस्कार। स्मृत-धर्म के अनुसार प्रत्येक गृहस्थ को कुछ संस्कार करने होते हैं। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो पतित हो जाता है, गरिमा से च्युत हो जाता है…..
पौराणिक धर्म में दंड एवं प्रायश्चित का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रुत धर्म में यम दुरात्माओं को और दंड नहीं देता। जीवन में किए गए पाप का दंड मृत्यु के पश्चात् भोगना पड़ता है अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं है परन्तु इस संबंध में पुराणों ने यम की शक्ति का बहुत विस्तार कर दिया है।
(मूल अंग्रेजी में उपरोक्त सामग्री टाइप किए हुए 21 पृष्ठ में है। आगे के पृष्ठ गायब हैं। पृष्ठ सं- 55 से 65 पर नीली स्याही से संशोधित एवं अनुदेशित यह सामग्री, सिर्फ पृष्ठ 56 को छोड़कर लेखक की हस्तलिपि में है। -संपादक)
‘स्मार्त-धर्म और तांत्रिक धर्म’ पर अंग्रेजी में कुछ पृष्ठ मिले थे। स्मृत-धर्म, खंड-2 और तांत्रिक धर्म, खंड-3 में प्रस्तुत किया गया है। खंड 1 में श्रुत धर्म पर सामग्री थी। स्मृत धर्म पर मात्र एक पृष्ठ की सामग्री भी पृ. 21 पर है। अंग्रेजी में तांत्रिक धर्म 55वें पृष्ठ से प्रारम्भ होता है और पृष्ठ 56 को छोड़कर 65 तक चलता है। लेखक ने हाथ से लिखे तीन पृष्ठ और जोड़े हैं। – संपादक
‘‘यम मृतकों का न्याय करता है। वह नरक का स्वामी है। जो मरता है, उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। फिर उसका सामना पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त से होता है। पुण्यात्मा स्वर्ग अथवा एलीसियम को भेज दी जाती है जबकि पापात्माओं को नरक अथवा तरतारस में डाल दिया जाता है।’’
‘‘भयानक चित्रगुप्त की गर्जना प्रलयंकारी बादलों की गरज के समान है, वह काजल के चमकते पर्वत के समान है। शस्त्रों की चमक के समान आतंकोत्पादक है, उसकी बत्तीस भुजाएं हैं, जो तीन योजन लंबी है, लाल-लाल आंखें हैं, लंबी नाक है, उसके नुकीले और लंबे-लंबे दांत हैं, उसकी आंखें दीर्घ पोखर के समान हैं। उसके भंडार में काल और व्याधियों की भरमार है।’’
पाप का दंड मृत्योपरांत भोगना पड़ेगा। इसी प्रकार पापमुक्ति के लिए निश्चित प्रायश्चित का विधान है।
परन्तु पाप क्या है? पौराणिक धर्म के अनुसार, इसका अर्थ नैतिक दुराचार नहीं है, इसका अर्थ है पौराणिक विधि-विधान का पालन न करना। यह है पौराणिक धर्म।
III– तांत्रिक धर्म
तांत्रिक धर्म शक्ति की पूजा कर केन्द्रित है। शक्ति का शाब्दिक अर्थ है, ऊर्जा किन्तु तंत्रवाद में इसका तात्पर्य है पुरुषदेवता की सहगामिनी नारी। तांत्रिक धर्म का विशाल साहित्य है और हिंदुओं के धार्मिक साहित्य की अलग शाखा है। यह समझना आवश्यक है कि हिंदुओं के शाक्त मत में अपने व्यापक पौराणिक चरित्र मौजूद हैं। अनेक नारी देवियां हैं, जिनका हिंदू देवकुल में विशिष्ट स्थान है।
मूलरूप से तांत्रिक धर्म पौराणिक धर्म का विस्तार है। पुराणों में ही प्रथम बार अविवाहित नारी देवियों को मान्यता मिली। फिर विवाहित देवियों की मान्यता हुई, जो देव-पत्नियां थीं। इसका आधार यही है कि देवताओं की पत्नियों की देवी-रूप में पूजा की जाए। इसी कारण पुराणों ने शक्तिमत चलाया। पुराणों के अनुसार कोई देवता चाहे अकेला हो, उसका दोहरा चरित्र है। उनका एक रूप प्रशांत है और दूसरा विकराल। क्रियाशील रूप शक्ति कहलाता है। पुराणों में देवताओं की शक्ति का मानवीकरण देव पत्नी के रूप में किया गया है। यही शक्ति-मत (शाक्तमत) का आधार है अर्थात् किसी देवपत्नी की आराधना।
शक्ति मत का सार है- देवी की नैसर्गिक शक्ति के रूप में विशिष्ट पूजा, जो एक जगतजननी, जगदंबा है, एक शक्तिशाली रहस्यमय तत्व है। जो दो विशिष्ट कार्यों का संचालन और नियंत्राण करती है। पहला है प्राकृतिक भुभुक्षा और आवेग पर, चाहे शारीरिक संवर्धन के लिए खान-पान अथवा कामवासना अर्थात् साहचर्य से जीव-वृद्धि। दूसरा, सिद्धि, चाहे किसी के व्यक्तिगत उत्कर्ष हेतु हो अथवा शत्रु विनाश के लिए।
यहां यह समझना आवश्यक है कि हिंदुओं के शाक्त मत में इतने व्यापक पौराणिक चरित्र हैं, इनमें अनेक नारी देवियां हैं, जिनका हिंदू देवकुल में विशिष्ट स्थान है।
इसके बावजूद, तांत्रिक नारी देवव फ़ुल की व्यूह-रचना प फ़ैलती गई। इसके अनेक रूप-स्वरूप बने। शक्ति मत का उद्गम शिवभार्या है। इस बात पर सभी सहमत हैं कि वही सम्पूर्ण नारी पौराणिक प्रथा का उद्गम है। इस परम्परा में उनका सर्वोच्च स्थान है और यह भी उल्लेखनीय है कि उनमें पुरुष देवता शिव के लक्षण विद्यमान हैं। उनका सामान्य दाम्पत्य संबंध ही नहीं हैं अपितु उनके गुणों का भी संचरण हो गया है। हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि किस प्रकार देवगण शिव के प्रभामण्डल के चारों ओर एकत्र हो गए। सभी देवों के गुण और कर्म उनमें समा गए और वे स्वयं अपने उपासकों के लिए देवाधिदेव महादेव बन गए। इसी प्रकार, बल्कि इससे भी बढ़कर उनकी भार्या शक्ति-पूजा परम्परा की महादेवी बन गई जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की नारी अभिव्यक्ति होती है और वह उनके कार्यों को स्वयं सम्पन्न करती है। इसी कारण ब्रह्मा और विष्णु की पत्नियां भी उनकी पुत्री मानी जाती हैं क्योंकि उनके गुण-कर्म विपरीत और प्रतिप फ़ूल हैं। इसलिए इनसे हिंदू विचारधारा के सम्मुख कोई कठिनाई नहीं आती। वह हर प्रकार अपने पति का दूसरा रूप हैं बल्कि एक ऐसा स्वरूप जिसमें और भी रंग भर दिए गए हैं। क्योंकि एक समय शिव भी वर्ण और प्रकृति से श्वेत-शुक्ल थे और एक समय श्याम। इस प्रकार उनके श्वेत गुण भी अर्ध श्वेत (जब उनका नाम गौरी है) और अर्ध श्याम (जब उनका नाम काली है)।
फिर इन विपरीत लक्षणों में विभिन्न संशोधन हुए और इनमें अनवरत रूप से वृद्धि होती गई। गौरवर्ण और शांत स्वभाव वाली देवियां उमा, गौरी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि कहलाईं और जिस प्रकार शिव के 1008 नाम अथवा विशेषण हैं, उसी प्रकार उनकी भार्या के भी। उन सबसे संबंध जुड़ा हुआ है। उनकी न्यूनतम एक सहस्र नाम से प्रार्थना की जाती है। कुछ उनकी सौम्य मूर्ति के नाम से हैं और कुछ विकराल के। उल्लेखनीय हैं कि तंत्रों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति ‘‘म’’ अक्षर से आरम्भ होने वाले उनके आठ नामों का जाप करता है तो राजा स्वयं उसका सेवक बन जाएगा, सभी उसे प्रेम करेंगे और उनके सभी दुख-संताप दूर हो जाएंगे।
संक्षेप में, शाक्तों की सभी देवियां अथवा शक्तियां शव की नारी-शक्ति में समाहित हो जाती हैं। उनकी संख्या अगणित हो जाती है और उनके भिन्न-भिन्न रूप उभर आते हैं।
परन्तु यह पूजा एक साधारण बात बन गई। शिव के साथ दुर्गा, विष्णु के साथ लक्ष्मी, कृष्ण के साथ राधा, राम के साथ सीता की उपासना आरम्भ हो गई। शक्तियों की संख्या निश्चित नहीं की गई है।
किसी समय केवल आठ शक्तियां गिनी जाती थी, किसी समय नौ। जैसे, वैष्णवी, ब्राह्मणी, रौद्री, माहेश्वरी, नरसिंही, वाराही, इन्द्राणी, कार्तिकी और प्रधाना। लक्ष्मी के अतिरिक्त विष्णु की पचास शक्तियां और गिनी जाती हैं, शिव अथवा रुद्र की दुर्गा अर्थात् गौरी सहित पचास ओर शक्तियां हैं। सरस्वती, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की शक्ति हैं। वायु पुराण के अनुसार शिव की नारी प्रवृति के दो रूप हैं, आधी असित (अश्वेत) और आधी सित (श्वेत), इनमें से प्रत्येक का विस्तार हो गया। श्वेत और शांत स्वभाव की देवियों में उमा, गौरी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि सम्मिलित हैं ओर अश्वेतों तथा विकराल देवियों में दुर्गा, काली, चण्डी और चामुण्डा आदि शामिल हैं।
बहरहाल, शीघ्र ही सारी शक्तियों का लोक प्रचार हो गया। इसके परिणामस्वरूप उनके अनगिनत स्वरूप और रूप उभर आए।
इस मानवीकरण का आधार विष्णु के अवतार थे जिसमें दैवी-प्रभाव की मात्र के अनुसार वर्गीकरण हुआ जैसे पूर्णशक्ति, अंशरूपिणी, काल रूपिणी कालांश रुपिणी। इसकी अंतिम श्रेणी में ब्राह्मण से लेकर नीचे तक की जातियों की साधारण स्त्री भी सम्मिलित कर ली गइंर्। जिन्हें यह समझकर पूजा जाने लगा कि इन पर देवी आती है। यह नहीं भूलना चाहिए शाक्त मतावलंबियों की दृष्टि से प्रत्येक स्त्री साक्षात देवी है।
फिर भी अधिक प्रचलित वर्गीकरण महाविद्याओं के रूप में प्रारंभ हुआ। विष्णु के दस अवतारों की तरह इनकी संख्या भी दस ही रखी गई है। यह महाविद्याएं कहलाती हैं और देवी की महान विद्याओं का स्रोत हैं। इनके विभिन्न गुण हैं। इसी प्रकार इनका नामकरण किया गया है। 1. काली (श्यामा) कृष्ण वर्ण विकराल और प्रचण्ड स्वभाव, 2. तारा, सौम्य स्वरूप, विशेष रूप से कश्मीर में पूजी जाती है। 3. षोड्शी, सोलह वर्ष की सुंदर कन्या (त्रिपुरा भी कहलाती है जो मालाबार में पूजी जाती है)। 4. भुवनेश्वरी, 5. भैरवी 6. छिन्नमस्तका निर्वस्त्र देवी, हाथ में रक्त रंजित खड्ग दूसरे हाथ में अपना ही कटा हुआ सिर जो अपने ही शीशहीन धड़ से उबलते रक्त का पान करती है, 7. धूमवती, धुएं के रूप में, 8. बगुला, बकमुखी, 9. मातंगी, भंगी जाति की स्त्री, 10. कमलात्मिका। इनमें से प्रथम दो विशेष रूप से महाविद्याएं हैं। अगली पांच विद्याएं हैं और शेष तीन सिद्ध विद्याएं हैं।
देवियों का अगला मानवीकरण अथवा स्वरूप मातृ अथवा मातृका अथवा महामातृ कहलाता है। भारत के कृषक वर्ग में प्रत्येक पंथ में उपासनीय मातृदेवी से महाविद्याओं के संबंध अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस पर अगले अध्याय में और विस्तारपूर्वक विचार किया जाएगा।
मातृ इस प्रकार है- 1. वैष्णवी, 2. ब्राह्मी अथवा ब्राह्मणी। प्रायः ब्रह्मा की भांति चतुर्मुखी होती है। 3. कार्तिकेयी कभी-कभी मयूरी कहलाती है, 4. इन्द्राणी, 5. यमी, 6. वाराही, विष्णु के वाराह अवतार से सम्बद्ध, 7. देवी अथवा इंसानी, शिव भार्या के रूप में एक हाथ में त्रिशूल धारी, 8. लक्ष्मी। इनमें से प्रत्येक देवी माता की गोद में एक बच्चा है।
माताओं से घनिष्ठ संबंधित आठ नायिकाओं का भी मानवीकरण किया गया है। इनका माता होना आवश्यक नहीं। इनकी कल्पना केवल अवैध संभोग के संबंध में की गई है। इनके नाम हैं, बालिनी, कामेश्वरी, विमला, अरुणा, मेदिनी, जयनी, सर्वेश्वरी तथा कौलेसी।
दूसरा रूप है योगिनियों का। ये आठ पिशाचिनियां हैं, जो दुर्गा की सेवा के लिए बनाई गई हैं। कभी-कभी उस देवी का रूप भी धारण कर लेती हैं। इनकी संख्या साठ अथवा चौंसठ हैं और ये एक करोड़ तक हो सकती हैं।
एक अन्य नगण्य-सा वर्ग है डाकिनी और साकिनी। ये साधारणतः प्रेमिकाएं अथवा अति घृणित प्रवृतियों वाली राक्षसियां हैं और देवियों के समक्ष इनका रूप चंचल भृत्या के समान है, जो हर समय इनकी सेवा में रहती हैं।
परन्तु इनका प्रचण्डतम रूप काली है जिसकी कलकत्ता में पूजा होती है।
काली के स्वरूप के संबंध में तांत्रिकों के दो परिच्छेदों का रूपांतरण इस प्रकार हैः
“ मद्य और नैवेद्य से पूजा की जानी चाहिए उस काली की जिसका मुख भयानक रूप से खुला हुआ है, बाल बिखरे हुए हैं, जो चतुर्भुजा है, उसने उन महाबलियों की मुंडमाला पहन रखी है जिनका उन्होंने संहार किया है और रक्तपान किया है। उनके करकमलों में खडग है जो निर्भीक है और वरदान देती है। जो विशाल मेघ के समान काली है और आकाश ही उसके वस्त्र हैं। उन्होंने नरमुण्ड माला धारण की है। उसी में रक्त की बूंद टपकाती हुई एक गर्दन है। दो शवों के कुण्डल पहने है। उनके हाथों में दो शव हैं, जिनके लंबे-लंबे दांत और मुस्कराता चेहरा है, जिनका रूप विरूप है, जो श्मशानवासिनी है। (लाशें खाती है) जो अपने पति महादेव की छाती पर खड़ी है। ‘’
(अंग्रेजी पांडु लिनपि के पृष्ठ संख्या 63-64 अप्राप्य हैं। 65 वें पृष्ठ की सामग्री नीचे दी जा रही है जिसका अंतिम पैरा लेखक की हस्तलिपि में है।)
तांत्रिक पूजा ऋतु अथवा पौराणिक पूजा से बिलकुल भिन्न है। इसका मूल दर्शन जो उपासना का सर्वोत्तम रूप है वह यह है कि मनुष्य की स्त्री के साथ मैथुन इच्छाओं की पूर्ण रूपेण संतुष्टि होनी चाहिए। तांत्रिक पूजा में पंच मकार की प्रधानता है। पंचमकार निम्न प्रकार हैं:
- मद्यपान, 2. मांस भक्षण, 3. मत्स्य सेवन, 4. मुद्रा सेवन, और 5. मैथुन।
तांत्रिक पूजा में भी ये क्रियाएं सम्पन्न की जाती हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जो निषेध हैं, तंत्र में वे भी मान्य हैं, बल्कि तंत्र पूजा में स्त्री से मैथुन पूजा का एक अंश है। हिन्दू धर्म का इस तरह का विकास है। इस इतिहास को पढ़कर सच्चे धर्म का विद्वान यह पूछने के लिए अवश्य बाध्य हो जाएगा “हिंदू धर्म में नैतिकता का क्या स्थान है।‘’
धर्म, निःसन्देह रूप से कई प्रश्नों से आरम्भ होता है।
“मैं क्या हूं?” ब्रह्मांड किसने बनाया?” “यदि ईश्वर ने बनाया है तो उससे हमारा क्या संबंध है?” “ईश्वर को प्रसन्न करने का सम्यक मार्ग क्या है?” “अहं तथा ब्रह्म में क्या अंतर है?” ‘‘किसे श्रेष्ठ जीवन कहते हैं?” अथवा “ईश्वर कैसे प्रसन्न होता है”? आदि।
इनमें से कई प्रश्न धर्मतत्व, आत्मतत्व, दर्शन और नैतिकशास्त्र से जुड़े हुए हैं, जो धर्म के विभिन्न तत्व हैं। परन्तु एक प्रश्न है, जो धर्म की शिक्षा एवं प्रचार से पूछा जाता है और जो अनुत्तरित है कि श्रेष्ठ जीवन क्या है? जिस धर्म में ऐसा नहीं वह धर्म नहीं।
ब्राह्मणों ने हिंदूधर्म को इस प्रकार नग्न क्यों किया? उसे नैतिकता विहीन क्यों किया? हिंदूधर्म इसको छोड़कर कुछ नहीं है जिसमें अनगिनत देवी-देवता और पेड़-पौधे पूजे जाते हैं, तीर्थ यात्रएं की जाती हैं, और ब्राह्मण को दक्षिणा दी जाती है। क्या इस धर्म की रचना मात्र इसलिए की गई है कि ब्राह्मणों की रोटी-रोजी चलती रहे? क्या उन्होंने कभी सोचा है कि नैतिकता ही समाज का आधार है और जब तक धर्म में नैतिकता का समावेश नहीं किया जाता वह …… तत्व है। ब्राह्मणों को इन प्रश्नों का उत्तर देना है।1
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- पाण्डुलिपि में यह अक्षर नष्ट हो गया है।