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परिशिष्ट – 3 त्रिमूर्ति की पहेली

जितनी सच्चाई इस बात में है कि हिंदू धर्म सम्प्रदायों का मिश्रण है, उतना ही सच यह भी है कि यह धर्म विभिन्न जातियों से मिलकर बना है। परन्तु जितना ध्यान सम्प्रदायों के अध्ययन पर दिया गया है, उससे आधा भी जातियों के अध्ययन पर नहीं दिया गया। यह जितनी दुर्भाग्य की बात है उतनी ही विचित्र भी। सम्प्रदायों ने भी भारत के इतिहास में उतनी ही भूमिका निभाई है जितनी जातयों ने। दरअसल जिस प्रकार कुछ जातियों ने भारत का इतिहास रचा है, उसी प्रकार सम्प्रदायों का भी उसमें योगदान है।

जितने सम्प्रदायों से मिलकर हिंदू धर्म बना है वे असंख्य हैं उन सबका उद्भव पता लगाना असम्भव है और इन पंथों की तुलना करना इस अध्याय की परिधि में नहीं आ सकता। हम इतना ही कर सकते हैं कि उनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण पंथों को ही देखें और तत्संबंधी समस्याओं पर विचार करें। भारतीय इतिहास में इनमें से तीन अति महत्वपूर्ण हैं। एक वह है जो ब्रह्मा से संबद्ध है, दूसरा विष्णु से और तीसरा पंथ शिव अथवा महेश का अनुयायी है। जिन्होंने इन पंथों के इतिहास का अध्ययन किया है, निम्नांकित प्रश्न उन्हें झकझोर देंगे।

बौद्धों की रचना चुल्ल निदेश में तत्कालीन भारत के विभिन्न पंथों का संकेत दिया है। हम इन्हें सम्प्रदाय और पंथों में निम्नांकित रूप में विभाजित करते हैं:

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  1. श्रावक का अर्थ है अनुशासन
  2. अपनी आजीविका के लिए विशेष नियमों का पालन करने वाला भिक्षुक

इस पहेली को पहेली सं. 11 के साथ पढ़ा जाये जो देवताओं के उत्थान तथा पतन सं संबंधित हैं। ‘त्रिमूति की पहेली’ मूल विषयसूची में नहीं है, न ही सरकार को प्राप्त पाण्डुलिपि में यह निहित थी। यह प्रति श्री एस-एस- रेगे ने उपलब्ध कराई है। – संपादक

  1. पंथ

क्रम सं.                                        सम्प्रदाय का नाम                                               मत का तत्व

  1. आजीविका श्रावक1                                             आजीविका2
  2. निगंठ श्रावक                                                      निगंठ1
  3. जटिल श्रावक                                                      जटिल2
  4. परिव्राजक श्रावक                                               परिवाजक3
  5. अवरुद्ध श्रावक                                                    अवरुद्धक

 

  1. पंथ

क्र. सं.                                  सम्प्रदाय का नाम                                                                                        पूजा देव का नाम

  1. हस्ति वृत्तिका (व्रती)4 हस्ति5
  2. अश्व वृत्तिका अश्व6
  3. गो वृत्तिका गो7
  4. कुकुर वृत्तिका कुकुर8
  5. काक वृत्तिका काक9
  6. वासुदेव वृत्तिका वासुदेव
  7. बल्देव वृत्तिका बल्देव
  8. पूर्णभद्र वृत्तिका पूर्ण भद्र
  9. मणिभद्र वृत्तिका मणिभद्र
  10. अग्नि वृत्तिका अग्नि
  11. नाग वृत्तिका नाग
  12. सुपर्ण वृत्तिका सुपर्ण
  13. यक्ष वृत्तिका यक्ष
  14. असुर वृत्तिका असुर
  15. गंधर्व वृत्तिका गंधर्व
  16. महाराज वृत्तिका महाराज
  17. चन्द्र वृत्तिका                                                                                     चन्द्र
  18. सूर्य वृत्तिका सूर्य
  19. इन्द्र वृत्तिका इन्द्र
  20. ब्रह्म वृत्तिका ब्रह्मा
  21. देव वृत्तिका देव
  22. दिशा वृत्तिका दिशा

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  1. सभी बन्धनों से मुक्त भिक्षुक
  2. अपने सिर के केशों की चोटी बनाने वाले भिक्षुक
  3. समाज को छोड़ने वाले भिक्षुक
  4. तपस्वी 5. हाथी 6. घोड़ा
  5. गाय 8. कुत्ता 9. कौआ

 

त्रिदेवो के पंथों की उपर्युक्त सूची में विभिन्न देवों के पंथों के साथ तुलना से दो निष्कर्ष निकलते हैं। एक निष्कर्ष यह है कि ब्रह्मा और महेश की उपासना नई कपोल कल्पना है जो चुल्ल निदेश के बाद आरम्भ हुई। दूसरा निष्कर्ष यह है कि सभी पुरानी आस्थाएं लुप्त हो गईं। इस अद्भुत परिवर्तन का कारण स्पष्ट है कि नई पद्धति उस समय तक प्रचलित नहीं हो सकती थी जब तक कि ब्राह्मण उनका प्रचार न करते। साथ ही यदि ब्राह्मण उनके प्रचार से हाथ नहीं खींच लेते तो पुरानी पद्धति लुप्त नहीं हो सकती थी। इतिहास के विद्यार्थी को जो प्रश्न भ्रम में डालता है, वह है कि ब्राह्मणों ने नये पंथों की कल्पना क्यों की? प्राचीन आस्थाओं को तिलांजलि क्यों दे डाली? यह प्रश्न केवल जटिल ही नहीं है बल्कि विद्वानों को भ्रम में भी डाल देता है कि इस उथल-पुथल में इन्द्र जैसे देवताओं का भी लोप हो गया। इन्द्र एक वैदिक देवता है। वैदिक देवताओं में वह महानतम है। यदि हजारों साल तक भी नहीं तो सैकड़ों वर्षों तक ब्राह्मणों ने इन्द्र की परम देव के रूप में पूजा और स्तुति की। वह क्या वजह थी कि ब्राह्मणों ने इन्द्र की अवहेलना करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पूजा आरंभ कर दी? ब्राह्मणों द्वारा आस्थाएं बदल देने का कारण आध्यात्मिक था अथवा व्यावसायिक?

शिव कौन थे जिन्हें इन्द्र के स्थान पर अपना लिया गया? दक्ष प्रजापति का यज्ञ और उसमें शिव की भूमिका शिव के विषय में महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है। कथा इस प्रकार है कि राजा दक्ष ने हिमालय पर कहीं एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में देव, दानव, पिशाच, नाग, राक्षस और ऋषि सभी सम्मिलित हुए। परंतु दक्ष ने शिव को आमंत्रित नहीं किया, इसलिए वे नहीं आए। एक ऋषि दधीचि ने दक्ष की भर्त्सना की कि शिव को क्यों निमंत्रित नहीं किया और यज्ञ करना चाहते हो। दक्ष ने शिव को आमंत्रित करने से इंकार कर दिया और कहा ‘‘मैंने आपके रूद्र जैसे बहुत से देखें हैं आप जाइए मैं शिव को कुछ नहीं समझता’’। दधीचि ने कहा ‘‘तुमने शिव के विरुध षडयंत्र किया है, ध्यान रखना तुम्हारा यज्ञ सफल संपन्न नहीं होगा।’’ महादेव ने यह सुना तो अपने मुख से एक राक्षस उत्पन्न किया और राक्षस ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंश कर दिया। इससे पता चलता है कि एक समय ब्राह्मण शिव को पूज्य देवता नहीं मानते थे या इससे पता चलता है कि शिव ब्राह्मणों की यज्ञ प्रथा के विरुद्ध थे।

आर्यों और अनार्यों के बीच भिन्नता संस्कृति के आधार पर थी, जातीय आधार पर नहीं। सांस्कृतिक भेद दो बिन्दुओं पर था। आर्य चातुर्वर्ण्य में विश्वास रखते थे। अनार्य इसके विरुद्ध थे। दक्ष के यज्ञ के विषय में इन तथ्यों के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि शिव एक अवैदिक और अनार्य देव थे। प्रश्न यह है कि वैदिक संस्कृति के स्तंभ ब्राह्मणों ने शिव को देवता कैसे मान लिया?

एक विद्वान के मस्तिष्क को उलझा देने वाला तीसरा प्रश्न वह परिवर्तन और संशोधन है जिसे ब्राह्मणों ने शिव ओर विष्णु के मौलिक स्वरूप में कर डाला।

हिंदू इससे परिचित नहीं हैं कि शिव एक अवैदिक और अनार्य देवता है। वे उन्हें वेदों में उल्लिखित रुद्र के साथ जोड़ते हैं। इसी कारण हिंदुओं का रुद्र शिव के समान है। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में एक मंत्र है, जिसमें रुद्र की स्तुति है। इस मंत्र में रुद्र अर्थात शिव को चोरों, दस्यओं, डकैतों के देवता  के रूप में वर्णित किया गया है। उन्हें, पतितों, व कुम्हारों  और लुहारों का राजा बताया गया है। प्रश्न यह है कि ब्राह्मणों ने चोरों, डाकुओं के राजा को अपना परमदेव कैसे मान लिया?

रुद्र के चरित्र के संबंध में भी एक परिवर्तन हुआ जिसे ब्राह्मणों ने अपना देव शिव मानकर किया था। आश्वलायन गृह्य-सूत्र में रुद्र की उपासना की समुचित विधि बताई गई है। इसके अनुसार शिव की उपासना में बृषभ बलि दी जाती है। इस सूत्र में बलि की ऋतु और नक्षत्र का भी उल्लेख है। इसमें गृहस्थों से कहा गया है कि वे अपने बाड़े के सर्वश्रेष्ठ बृषभ का चयन करें, उसका रंग भी बताया गया है, और कहा गया है कि वह मोटा-ताजा होना चाहिए। उसे चावल के मांड और जौ के पानी से छका दिया जाना चाहिए। तब इसका वध किया जाए और रुद्र के नामों का उच्चारण कर उसे बलि चढ़ा दिया जाए। उसकी पूंछ, खाल और पैर अग्नि को सौंप दिए जाएं। स्पष्ट है कि रुद्र एक हिंसक देव था जिसके लिए जीव-बलि आवश्यक थी। प्रश्न यह है कि ब्राह्मणों ने शिव से मांसाहार क्यों छुड़वा दिया और उन्हें शाकाहारी क्यों बना दिया?

हिंदू भारत भर में बिना लज्जा और पश्चाताप के लिंग पूजा-शिश्न पूजा का महत्व स्वीकारते हैं। लिंग पूजा शिव से जुड़ी है और सामान्यतः यह कहा जाता है कि शिव की सच्ची पूजा की विधि शिव लिंग पूजा ही है। क्या लिंग पूजा का संबंध शिव से सदा था? प्रोफेसर दाण्डेकर के लेख ‘विष्णु इन द वेदाज’ में एक रोचक तथ्य दिया गया है। प्रोफेसर दाण्डेकर कहते हैं:

‘‘इस संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द ‘‘सिपिविष्त’’ हैं। इसका वेदों में विष्णु के संबंध में विशिष्ट उल्लेख है। जिस छंद में यह शब्द आया है वह है ऋ.वे.(7-99.7;7-100.5-6) और जान -बूझकर इस शब्द का अर्थ दुबोर्ध सा रखना ही इसका उद्देश्य है। वैदिक मंत्र-दृष्टाओं ने जानबूझ कर विष्णु के स्वाभाविक संदर्भ में बड़ी चतुराई से छिपाकर ‘सिपिविष्त’ शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द की व्याख्या के लिए अनेक प्रयास किए गए। परंतु कुछेक ने ही दार्शनिक पक्ष संतुष्ट करने का प्रयत्न किया, लेकिन विष्णु के सही चरित्र का वर्णन नहीं हुआ। भाषाशास्त्र की दृष्टि से ‘‘सेप’’ शब्द (लिंग) को ‘‘सिपि’’ से अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार ‘सिप’ शब्द जिसकी मूल धातु प्राकृत ‘क्षेप’, लैटिन ओइपपुस, सैपियो आदि मिलता है। यहां तक कि निरुक्त (5-7) में भी संकेत से इस विचार की पुष्टि होती है। यद्यपि इसकी असली व्याख्या स्पष्ट नहीं है। इसी के साथ इस शब्द का मूल यह आभास देता है कि पूरे शब्द का अर्थ है ‘‘परिवर्तनशील लिंग, प फ़ूला हुआ और सिकुड़ता हुआ लिंग’’। अब हम सहज ही समझ सकते हैं कि वैदिक मंत्र-दृष्टाओं ने विष्णु के संदर्भ में छिपाते हुए और घुमा-फिरा कर इस शब्द की व्याख्या की है। इस संबंध में यह उल्लेखनीय है जो निरुक्त (5-8,9) में विष्णु के नाम के बारे में प्रयुक्त किया है। विष्णु के संबंध में वैदिक साहित्य में ऐसे ही और भी प्रसंग हैं जिनमें उनकी सृजनशीलता, उत्पादन-क्षमता और स्वजीवन का अन्तर्बोध होता है।

वैदिक श्राद्ध में एक और अस्पष्ट-सी क्रिया है और वह है अंगुष्ठ। बिना नाखून का अंगूठा पितरों को चढ़ाई जाने वाली सामग्री में डुबोया जाता है। यह क्रिया विष्णु के नाम पर की जाती है। अंगुष्ठ निःसंदेह लिंग का द्या ेतक है। इस प्रकार विष्णु इस क्रिया में, वैदिक कम र्काण्ड में लिंग से संबद्ध हैं। बाद के साहित्य में अंगुष्ठ विष्णु की पहचान है। इस बारे में हमें एक और साक्ष्य मिलता है आई.एस. (6.2.4.2)। धरतीमाता के गर्भ में विष्णु का प्रवेश गर्भाधान संस्कार का सांकेतिक वर्णन है। ‘‘तनवर्धन:’’ विष्णु के संदर्भ में प्रयुक्त होता है (7-99-1:8-100-2)। इसे भी लिंग प्रकृत्ति में गिना जा सकता है। परवर्ती साहित्य में विष्णु को हिरण्यगर्भ और नारायण कहा गया है। विष्णु के व्यक्तित्व पर सिनीवली (अ.वे. 7-46, 3) भी उल्लेखनीय है। ‘विस्तीर्ण नितम्बा’ नारी रति-क्रिया को सुखद बनाने वाले विष्णु के चरित्र पर प्रकाश डालती है। सांख्यायन के  गृह्यसूत्र (1.22.13) के मंत्र (10.184.1) के अनुसार वह गर्भधारण संस्कार में सहभागी होता है। इससे पता चलता है कि विष्णु भ्रूण का अमोघ संरक्षक है। अ.वे. (7.17.4) के अनुसार विष्णु का रतिक्रिया से प्रत्यक्ष संबंध है, विष्णु के दो विशेषण, विष्णु निसिकाय (7.36.9) वीर्य संरक्षक और ‘‘सुमज्जनी (1 156.2) सहज प्रसूति स्वयं में इसके प्रमाण हैं। शब्द पौरुषेय विष्णु के लिए प्रयुक्त हुआ है। ऋ. वे. (ई 155.3.4) कृषकपि मंत्रों (10.86) में कहा गया है कि इन्द्र क्लांत हो गए। तब एक सुगठित शरीर कामुक वानर ने उनमें कोई औषधि प्रविष्ट की। इसके माध्यम से उनकी शक्ति फिर लौट ई। परवर्ती साहित्य में कृषकपि विष्णु को ही कहा गया है। यह शब्द विष्णु सहस्रनाम में भी सम्मिलित है।

प्रो- दाण्डेकर द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के अनुसार लिंग-पूजा मूल रूप में विष्णु से ही संबद्ध थी, पुराणों में लिंग-पूजा विष्णु से नहीं जुड़ी हुई है। पुराणों में इसे शिव के साथ जोड़ दिया गया। यह आश्चर्यजनक परिवर्तन है। विष्णु, जो आरंभ से ही लिंग पूजा से संबद्ध थे, उनका संबद्ध इससे तोड़ दिया गया और शिव का लिंग-पूजा से कोई लेना-देना नहीं था, वह उनके मत्थे मढ़ दी गई। प्रश्न यह है कि ब्राह्मणों का क्या इरादा था जो उन्होंने विष्णु को लिंग-पूजा से मुक्त करके शिव को इसके साथ लपेट दिया?

अब अंतिम प्रश्न यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश के परस्पर संबंधों के संदर्भ में इस से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती जो भगवान दत्तात्रेय के जन्म के विषय में हैं। संक्षेप में कहानी इस प्रकार है कि एक बार तीनों देवों की पत्नियां सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती एक स्थान पर बैठी बात कर रहीं थी, तभी नारद जी प्रकट हुए। वार्ता के बीच एक प्रश्न उठा कि संसार में सबसे बड़ी पतिव्रता नारी कौन है? नारद ने कहा कि अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया सबसे बड़ी सती है। तीनों देवियां इससे चमक उठी और प्रत्येक ने अपने आपको सब से बड़ी पतिव्रता सती नारी बताया। नारद जी नहीं माने और उनमें से प्रत्येक के व्यभिचार के अनेक प्रसंग प्रस्तुत किए। वे शांत तो हो गई परंतु भीतर प्रतीशोध की भावना प्रबल हो उठी। वे अनसूया के मुकाबले अपनी स्थिति बताना चाहती थीं। उन्होंने सोच-विचार कर षडयंत्र रचा कि अनसूया के साथ अवैध संभोग कराकर उसका शील भंग कराया जाए। अपनी योजना के अनुसार तीनों देवियों ने अपने पतियों के शाम को घर लौटने पर दोपहर में नारद के साथ हुए संवाद का जिक्र किया और बताया कि नारदजी ने उन्हें किस प्रकार लज्जित किया है और अपनी पत्नियों के अपमान का कारण वे हैं। यदि उन्होंने अनसूया के साथ व्यभिचार किया होता तो वह भी उनकी श्रेणी में आ जाती और नारद को उनका अपमान करने का अवसर न मिलता। उन्होंने अपने पतियों से पूछा कि क्या वे अपनी पत्नियों का ख्याल रखते हैं? यदि हां तो क्या यह उनका कर्तव्य नहीं है कि वे अनसूया का शील भंग करने के लिए तुरंतु प्रस्थान करें और उसे सतीत्व के उस शिखर से नीचे धकेल दें, जिस पर उसे नारद ने बैठा बताया है। देवता सहमत हो गए कि यह उनका कर्तव्य है और वे इससे मुंह नहीं मोड़ सकते।

तीनों देव सती का शील-हरण करने अत्रि की कुटिया की ओर चल पड़े। इन तीनों ने ब्राह्मण भक्षुओं का वेष धारण किया। जब वे वहां पहुंचे, अत्रि बाहर गए हुए थे। अनसूया ने उनका स्वागत किया और उनके लिए भोजन तैयार किया। जब भोजन तैयार हो गया तो उनसे आसन पर बैठकर भोजन करने के लिए कहा। तीनों देवों ने उत्तर दिया कि वे उसी स्थिति में उसके घर भोजन करेंगे, जब वह निर्वस्त्र होकर भोजन परोसे। प्राचीन भारत में आतिथ्य का नियम था कि ब्राह्मण भिक्षुक असंतुष्ट होकर न लौटे। वह जो मांगे, उसे दिया जाए। इस नियम के अनुसार अनसूया निर्वस्त्र होकर भोजन परोसने को सहमत हो गई। जब वह इस स्थिति में भोजन परोस रही थी तो अत्रि आ गए। जब उन्होंने अत्रि को आते हुए देखा तो वे नवजात शिशु बन गए। इन तीनों को अत्रि ने पालने में लिटा दिया। उसमें इन तीनों के सभी अंग जुड़कर एक हो गए परन्तु सिर अलग-अलग रहे। इस प्रकार दत्तात्रेय बने, जो तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संयुक्त रूप हैं।

इस कहानी में अनैतिकता की दुर्गंध भरी पड़ी है और इसके अंत को जान-बूझकर ऐसा मोड़ दिया गया है, जिससे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के उस वास्तविक कुकर्म पर पर्दा डाल दिया जाए। उन्होंने अपनी पत्नियों के समक्ष सती अनसूया को गिरा दिया जैसा कि कहानी में निहित है। किसी समय हिंदुओं में यह प्रचलित था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की समान स्थिति है और उनके कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रतिस्पर्धात्मक नहीं। उन्हें त्रिमूर्ति कहा जाता था- एक साथ तीनों और एक में तीन। सभी विश्व के नियंता, ब्रह्मा सृष्टा, विष्णु पालक और शिव संरक्षक हैं।

सामंजस्य की यह स्थिति अधिक दिनों नहीं चली। इन तीनों देवों के चारण ब्राह्मण तीन शिविरों में बंट गए। प्रत्येक के अनुयायी ने दूसरे के आराध्य को गिराने के लिए कमर कस ली। इसका परिणाम यह निकला कि एक देव के अनुयाई ब्राह्मणों ने दूसरे के विरुद्ध बदनामी और नीचा दिखाने का अभियान छेड़ दिया।

यह बड़ी रोचक और जानने योग्य बात है कि ब्राह्मणों ने ब्रह्मा के साथ क्या रचना रची? कोई समय था जब ब्रह्मा को सत्ता और गौरव से सर्वोच्च शिखर पर रखा जाता था। उन्होंने ब्रह्मा को जगत का प्रथम प्रजापति कहा। वह उनके साथ एकमेव परमदेव थे। ब्राह्मणों ने अवतारवाद का आविष्कार किया जिसका अर्थ है, भगवान आवश्यकता पड़ने पर मानव अथवा पशु किसी भी रूप में अवतरित हो सकता है। इसके पीछे दो उद्देश्य थे। पहला, भगवान की श्रेष्ठता बताना, जिसमें उनका स्वार्थ हो और दूसरे, देवताओं और अन्य व्यक्तियों के बीच संघर्ष को स्वीकार करना। ब्राह्मणों ने विभिन्न पुराणों में अवतारों की झड़ी लगा दी, और प्रत्येक पुराण ने विभिन्न अवतारों की अलग-अलग रचना की, जो निम्नांकित सूची में दर्शाया हैः

क्र.सं.              हरिवंश के        नारायणी         वाराह            वायु पुराण       भागवत् पुराण

 अनुसार          आख्यान के       पुराण के               के                के अनुसार

                              अनुसार                     अनुसार                       अनुसार                                      

 

  1. 1. वाराह हंस                    कूर्म                   नरसिंह              सनत्कुमार
  2. 2. नरसिंह कूर्म                   मत्स्य                 वामन                वाराह
  3. 3. वामन मत्स्य                 वाराह                वाराह
  4. 4. परशुराम वाराह                नरसिंह              कूर्म                   नरनारायण
  5. 5. राम नरसिंह              वामन                संग्राम                कपिल
  6. 6. कृष्ण वामन                परशुराम             आदिवक             दत्तात्रेय
  7. 7. परशुराम राम                   त्रिपुरारी             यज्ञ
  8. 8. राम कृष्ण                  अंधकार              रासभ
  9. 9. कृष्ण बुद्ध                   ध्वज                  पृथ्वी
  10. 10. कल्कि कल्कि                वृत्र                    मत्स्य
  11. 11. हलाहल कूर्म
  12. 12. कोलाहल धन्वंतरी
  13. 13. मोहिनी
  14. 14. नरसिंह
  15. 15.                                                                                                 वामन
  16. 16. परशुराम
  17. 17. वेद व्यास
  18. 18. नरदेव
  19. 19. राम
  20. 20. कृष्ण
  21. 21. बुद्ध
  22. 22. कल्कि

इन पुराणों में ये सभी अवतार विष्णु के बताए गए हैं। परन्तु आरंभ में जब अवतारों की धारणा शुरू हुई तो दो अवतारों सूकर1  और मत्स्य2  को बाद में विष्णु का अवतार कहा गया है। पहले ये ब्रह्मा के माने जाते थे। जब ब्राह्मणों ने शिव और विष्णु को भी ब्रह्मा के समान पद देना स्वीकार कर लिया तो भी फिर से उन्होंने ब्रह्मा की सत्ता विष्णु और शिव से ऊपर माननी आरंभ कर दी। ब्राह्मणों ने उन्हें शिव3  का जनक बताया और प्रचारित किया कि यदि विष्णु4  सृष्टि के पालकर्ता हैं तो वे सभी ब्रह्मा की आज्ञा से ही यह कार्य सम्पादन कर रहे हैं। देवों की एकाधिक संख्या होने के कारण उनके बीच सदैव संघर्ष की स्थिति विद्यमान रहती थी और विवाद निपटाने के लिए किसी मध्यस्थ और निर्णायक देव की आवश्यकता थी।

पुराणों में ऐसे संघर्ष, यहां तक देवताओं के बीच युद्धों की कहानियां भी भरी पड़ी हैं। रुद्र और नारायण5  के बीच तथा कृष्ण और शिव6  के बीच संघर्ष हुआ। इन संघर्षों के समय ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को मध्यस्थ बना डाला।

वही ब्रह्माण, जिन्होंने ब्रह्मा को इतना ऊंचा स्थान दिया था, उसी के पीछे पड़ गए, उन्हें नीचा दिखाने लगे, उन पर कीचड़ उछालने लगे। उन्होंने प्रचार आरम्भ किया कि ब्रह्मा सचमुच शिव और विष्णु से हीन हैं। अपनी पुरानी कथनी के विपरीत ब्राह्मणों ने कहा कि ब्रह्मा शिव से पैदा हुए थे और कुछ ने कहा वह विष्णु7  से पैदा हुए थे।

ब्राह्मणों ने शिव और ब्रह्मा के परस्पर संबंधों को पलट दिया। अब ब्रह्मा के पास मोक्ष देने का अधिकार नहीं रहा। शिव ही मुक्ति दे सकते थे ब्रह्मा एक साधारण देवता बन गए जो अपने मोक्ष8  के लिए शिव और शिवलिंग के उपासक हो गए। उन्होंने ब्रह्मा को शिव9  का सारथि बना डाला।

ब्राह्मणों को ब्रह्मा का स्थान गिराये जाने से अभी संतोष नहीं हुआ था। उन्होंने हद दर्जे तक उनकी बदनामी की। उन्होंने एक कहानी उछाल दी कि ब्रह्मा ने अपनी पुत्री सरस्वती से बलात्कार किया। यह कथा भागवत पुराण10 में दोहराई गई है11:

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  1. 1. रामायण-म्यूर द्वारा संस्कृत टैक्स्ट में उद्धृत, खंड 4, पृ. 33
  2. 2. महाभारत-वनपर्व एवं लिंग पुराण-म्यूर, वही, पृ. 38-39
  3. 3. विष्णु पुराण-म्यूर, वही- पृ. 392
  4. 4. रामायण-म्यूर, वही, पृ. 477
  5. 5. महाभारत शांति पर्व, म्यूर द्वारा उद्धृत खंड 4, पृ. 240
  6. 6. महाभारत शांति पर्व-पृ. 279
  7. 7. महाभारत अनुशासन पर्व, म्यूर, वही, पृ. 188
  8. 8. भागवत पुराण-वही, पृ. 43
  9. 9. महाभारत-म्यूर द्वारा संस्कृत टैक्स्ट में उद्धृत, खंड 4, पृ. 192
  10. 10. वही, पृ. 193
  11. 11. म्यूर संस्कृत टैक्स्ट, खंड 4, पृ. 47

‘‘हे क्षत्रियो! हमने सुना है कि स्वायंभुव (ब्रह्मा) के मन में अपनी अबला और मोहक पुत्री वाच के प्रति कामुकता जगी, जिसके मन में उनके प्रति कामभाव नहीं था। ऋषियों और मारीचि के नेतृत्व में मुनियों और उनके पुत्रें ने अपने पिता के कुकर्म पर उन्हें फटकारा, ‘‘तुमने ऐसा किया जो तुमसे पहले किसी ने नहीं किया, न तुम्हारे बाद कोई ऐसा करेगा।’’ विधाता होते हुए क्या तुम्हें अपनी पुत्री से विषय भोग करना चाहिए था? अपने उन्माद को क्या तुम रोक नहीं सकते थे? संसार के तुम्हारे जैसे गौरवशाली व्यक्ति के लिए यह प्रशंसनीय नहीं है। जिनके कार्यों की मर्यादा के कारण व्यक्ति का आनन्द प्राप्त होता है, जिस विष्णु की दीप्ति से यह ब्रह्मांड प्रकाशित होता है, जो उसी से फूटती लौ है, वही विष्णु धर्मपरायणता को बनाए रखे। ‘‘अपने पुत्रें के व्यवहार को देखकर, जो प्रजापतियों के स्वामी को ऐसा कह रहे थे, वे शर्म से गढ़ गए और अपने शरीर का विखंडन कर दिया। उसके भयानक अवशेष उस क्षेत्र में फैल गए और वही कोहरे के नाम से विख्यात हुआ।’’

ब्रह्मा के विरुद्ध ऐसा अपकर्ष एवं अपमानजनक आक्रमण होने से वे तिरस्कृत हो गए। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में उनकी उपासना लुप्त हो गई और वे औपचारिक रूप में ही त्रिमूर्ति में सहयोगी रह गए।

ब्रह्मा के मैदान से बाहर हो जाने पर रह गए शिव और विष्णु। ये दोनों भी कभी शांति से नहीं बैठे। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा, संघर्ष जारी रहा। आइए, देखें इस प्रचार-युद्ध में उन्होंने अपने विपक्षियों की क्या गत बनाई। कोई-सा भी पक्ष अपने विरोधी देव का पंथ समाप्त करने में सफल न हो सका। शिव और विष्णु की उपासना जारी रही और फलती-फूलती रही। इसके बावजूद कालांतर में अनेक पंथ अस्तित्व में आए और उनको कभी राहु ने नहीं ग्रसा। इसका प्रमुख कारण यह है कि ब्राह्मणों ने धुंआधार प्रचार और प्रतिप्रचार जारी रखा। प्रचार-तंत्र किस प्रकार चलता रहा, वह कुछ निम्न उदारहणों से जाना जा सकता है।

विष्णु वैदिक देवता सूर्य से संबद्ध है और शिवभक्त उनका संबंध अग्नि से जोड़ते हैं। इसका आशय यह प्रकट करना था कि यदि विष्णु का उद्गम वैदिक है तो शिव का उद्गम भी वैदिक है। जन्म के आधार पर कोई भी एक-दूसरे से घट कर नहीं है।शिव विष्णु से बड़े हों और विष्णु इनसे कम न हों। विष्णु के सहस्र नाम1  हैं तो शिव के भी सहस्र नाम होने चाहिए और ऐसा ही हुआ।2  विष्णु के अपने प्रतीक3 हैं। इसी प्रकार शिव के भी होने चाहिए और उनके अपने4  प्रतीक हैं।

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  1. 1. देखें विष्णु सहस्रनाम।
  2. 2. पद्म पुराण में उद्धृत।
  3. 3. ऊपर देखें।
  4. 4. वे है। (1) बहती गंगा, (2) चन्द्र, (3) शेष नाग, (4) जटा-जूट।

महिमा-मण्डन के लिए एक देव के भक्तों ने जिस प्रकार पक्ष में प्रचार किया, उसके उत्तर में दूसरों ने भी अपने पक्ष में वैसा ही प्रतिप्रचार किया। गंगावतरण1  का प्रसंग एक उदाहरण है। शिव-भक्त उसकी उत्पत्ति शिव की जटाओं से मानते हैं, परन्तु वैष्णव इसे मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने एक और कथा गढ़ डाली। वैष्णवों के आख्यान के अनुसार पतित-पावनी गंगा बैकुंठ (विष्णु के निवास) से निकलती है। उसका उद्गम विष्णु के चरणों से है और कैलाश पर आकर वह शिव वेफ़ मस्तक पर उतरती है। इस कथा के दो निष्कर्ष हैं। प्रथम यह कि गंगा का उद्गम विष्णु के चरणों से है, शिव की जटा से नहीं। फिर, शिव का पद विष्णु से नीचा है क्योंकि उनके मस्तक पर गंगा की धार विष्णु के चरणों से गिरती है।

दूसरा उदाहरण देखें जो देवों और असुरों द्वारा सागर-मंथन का है। उन्होंने मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया और शेषनाग को रस्सी (रज्जू)। विष्णु ने कूर्म अवतार लिया और पृथ्वी को अपनी पीठ पर धारण किया तथा मंथन के समय उसके स्पंदन को नियंत्रित किया। यह कथा विष्णु की महिमा बढ़ाने के लिए रची गई। शिव का स्थान, इसमें गौण है। इसके अनुसार समुद्र-मंथन से चौदह रत्न निकले। इनमें से हलाहल एक था। यदि कोई इस हलाहल का पान न करता, वह समस्त विश्व को नष्ट कर सकता था। शिव ही उसके पान के लिए तत्पर हुए। इससे यह संकेत मिलता है कि विष्णु द्वारा दोनों विरोधी समूहों, देव और असुरों का सागर मंथन की अनुमति देकर विश्व के विनाश का द्वारा खोल दिया गया था और उन्होंने अविवेकपूर्ण कार्य किया था। शिव की महिमा बताई गई है कि उन्होंने विष-पान करके विष्णु की करतूत से होने वाले अनिष्ट से विश्व को बचा लिया।

तीसरा उदाहरण भी यह प्रकट करता है कि विष्णु मूर्ख थे और शिव ने ही अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता और पराक्रम से विष्णु को उनकी करनी से त्राण  दिलाया। यह कथा अक्रूरासुर2  की है। अक्रूर ऋक्ष के मुख वाला एक राक्षस था। इसके बावजूद वह नियमित रूप से वेद पाठ करता था और भक्ति कर्म करता था। विष्णु उससे अत्यंत प्रसन्न हो गए और उसे मनचाहा वरदान देने का वचन देने को मान गए। अक्रूरासुर ने वर मांगा कि त्रैलोक्य का कोई भी प्राणी उससे अधिक बलशाली न हो, न उसे मार सके। विष्णु ने उसे वरदान दे दिया। परन्तु वह इतना ढीठ हो गया कि जब उसने देवताओं को त्रस दिया तो वे छिप गए और वह विश्व का शासक बन बैठा। असुर के अत्याचारों से लाचार विष्णु काली तट पर चिंतित बैठे थे। उनका रोष स्पष्ट दिख रहा था। उनकी आंखों के सामने ऐसे आकार जीव प्रकट हुआ जो पहले त्रिलोक में विद्यमान नहीं था। वह रौद्र रूपी महादेव थे, जिन्होंने क्षण भर में

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  1. 1. मूर, हिंदू पेनथियन, पृ. 40-41
  2. 2. यह कहानी विष्णु आगम में कही जाती है और मूर के हिंदू पेनथियन पृ. 19-20 में उल्लिखित है।

विष्णु को त्राण  दिलाया।

इसके जवाब में भस्मासुर की कथा प्रचलित हुई जिसमें शिव को मूर्ख बताया गया है और विष्णु उस के परित्राण  कर्त्ता दिखाए गए हैं। भस्मासुर ने शिव को एक वरदान के लिए प्रसन्न कर लिया। वरदान यह था कि भस्मासुर जिसके भी सिर पर हाथ फिराएगा, वह भस्म हो जाएगा। शिव ने वरदान दे दिया। भस्मासुर ने शिव के वरदान से उन्हें ही भस्म करने की ठानी। शिव भयभीत होकर भागे और विष्णु के पास पहुंचे। विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और भस्मासुर के पास गए। वह उन्हें देखकर आसक्त हो गया। मोहिनी रूपी विष्णु ने कहा कि वह एक शर्त पर उसकी हो जाएगी, जैसे-जैसे वह क्रिया करे, वैसे ही भस्मासुर अनुसरण करे। विष्णु ने इस प्रकार भस्मासुर का हाथ उसके सिर पर रखवा दिया। परिणाम यह निकला कि भस्मासुर का काम तमाम हो गया और विष्णु को यह श्रेय मिला कि उन्होंने शिव को उनकी भूल के संभावित विनाश से बचा लिया।

इन देवताओं के बीच इस प्रश्न पर प्रतिस्पर्धा और शत्रुता का ज्वलंत प्रमाण मिलता है कि पहले कौन जन्मा? एक कथा स्कंद पुराण में आती है। स्कंद पुराण कहता है कि विष्णु देवी के वक्षस्थल पर सो रहे थे। उनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ और वह पुष्प जल की सतह पर आ गिया। उसमें से ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने जब यह देखा कि इस अनन्त में कोई जीव नहीं है तो उन्होंने सोचा सर्वप्रथम वे ही उत्पन्न हुए हैं और इस प्रकार उन्होंने स्वयं को भावी सृष्टि से पूर्व-जन्मा बताया। फिर भी यह विश्वास करने के लिए कि उनकी प्रभुसत्ता को चुनौती कौन दे सकता है, उन्होंने कमल-नाल को खींचा तो विष्णु को सोता हुआ पाया। उन्होंने जोर से पूछा तू कौन है।’ विष्णु ने कहा, मैं प्रथम जन्मा हूं और जब ब्रह्मा ने अपने को पूर्व जन्मा बताया तो दोनों में युद्ध छिड़ गया। तभी महेश प्रकट हुए और कहा पहले मेरा जन्म हुआ। परन्तु मैं तुम दोनों में से किसी के भी लिए यह स्थिति त्यागने के लिए तैयार हूं, जो मेरी शिखा तक पहुंचे अथवा मेरे पांवों के तल तक। ब्रह्मा तुरन्त तैयार हो गए किन्तु वे थक गए थे पर बिना बात के प्रयत्न के अनिच्छुक हो गए। इसलिए उन्होंने अपना इरादा त्याग दिया। वे महादेव की ओर मुड़े और कहा, ‘उन्होंने अपनी बात पूरी कर दी है और उनके माथे का मुकुट देख लिया है और साक्षी के लिए प्रथम जन्मी गाय को बुला लिया। इस गर्व और झूठ पर शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा कि ब्रह्मा की कोई पूजा नहीं होगी और गाय मुख विकृत हो जाएगा।’ फिर विष्णु आए। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे शिव के चरण तल नहीं देख पाए। तब उन्होंने उनसे कहा कि देवों में वही प्रथम जन्मे हैं और उनका पद सर्वोच्च है। इसके पश्चात् शिव ने ब्रह्मा का पांचवा मुख काट डाला और इस प्रकार उनका मान भंग हुआ। उनकी शक्ति और प्रभाव क्षीण हो गए।

इस कथा के अनुसार ब्रह्मा का यह दावा झूठा था कि उनका जन्म सर्वप्रथम हुआ है। इसके लिए वे शिव के दण्ड के भागी बने। विष्णु को प्रथम जन्मा कहलाने का अधिकार मिला। ब्रह्मा के अनुयायियों ने शिव की सहायता के लिए विष्णु द्वारा ब्रह्मा का स्थान छीन लेने पर बदला लेने की ठानी। इसलिए उन्होंने एक और कथा1 रच डाली। जिसके अनुसार, विष्णु ब्रह्मा के नथुनों से सूकर में उत्पन्न हुए और स्वाभाविक रूप से वाराह बन गए। विष्णु के वाराह-अवतार का यह बहुत क्षुद्र विश्लेषण है।

देवताओं के बीच खींचतान ने वही रूप ले लिया जैसे व्यापारियों में प्रतिस्पर्धा पनप जाती है। इसका परिणाम यह निकला कि शैव वैष्णवों और वैष्णव शैवों को गरियाने लगे।

यह तथ्य त्रिदेवों के विषय में है जिसका परवर्ती इतिहास में जिक्र है कि त्रिदेव की अवधारणा कोई नवीन नहीं थी। यह यास्क से प्राचीन है। अनगिनत देवताओं की संख्या घटाने के उद्देश्य से प्राचीन ब्राह्मणों ने कुछ देवताओं की जड़ काटने का मार्ग अपनाया और शेष से श्रेष्ठ बताने की चेष्टा की। इन प्रमुख देवताओं की संख्या तीन निश्चित की गई। इनमें से दो अग्नि और सूर्य थे। तीसरे स्थान के लिए इन्द्र और वायु में प्रतिस्पर्धा थी। परिणामस्वरूप एक त्रिमूर्ति बनी जिसमें अग्नि, इन्द्र और सूर्य थे अथवा अग्नि, वायु और सूर्य थे। नई त्रिमूर्ति की अवधारणा से प्राचीन अवधारणा के ही समान थी किन्तु उसके देवता बदल गए। इस त्रिमूर्ति का प्रत्येक देवता नवीन था। ऐसा लगता है प्रथम त्रिमूर्ति के विलुप्त हो जाने के काफी बाद तक किसी नई परम्परा का अस्तित्व नहीं था। चुल्ल निदेश में केवल ब्रह्म-वृत्तिका का उल्लेख है। शिव वृत्तिका तथा विष्णु वृत्तिका का कोई चिह्न नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि चुल्ल निदेश के समय तक शिव और विष्णु की पूजा शुरू नहीं हुई थी। ब्रह्मा के पश्चात् इन्हें उनके साथ जोड़कर त्रिमूर्ति बना दी गई। हमारे मानस में ब्राह्मणों द्वारा त्रिमूर्ति-रचना में निभाई गई भूमिका के विषय में अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं।

पहला प्रश्न यह है कि ब्राह्मणों को अपने देवताओं पर कितनी आस्था है? उन्होंने कितने सरल ढंग से अपने देवताओं के एक समूह को दूसरे के लिए तिरस्कृत कर दिया? इस संबंध में यहूदी पुजारियों और ‘नेबूचादनेज्जार’ की याद आती है:

  1. ‘‘नेबूचादनेज्जार1 राजा ने एक स्वर्ण मूर्ति बनवाई, जिसकी ऊंचाई साठ हाथ और चौड़ाई छह हाथ की थी। उसने उसे बेबीलोन के मैदान दुरा में स्थापित कराया।
  2. तब नेबूचादनेज्जार ने प्रान्तों के सभी क्षत्रपों, शासकों, न्यायाधीशों, कोषाधिपतियों, अमात्यों आदि को बुलाया कि वे मूर्ति के समर्पण के समय उपस्थित हों।
  3. फिर क्षत्रप, शासक, न्यायाधीश, कोषाधिपति, अमात्य आदि उस समय तक उपस्थित रहे जब तक कि राजा द्वारा बनवाई गई मूर्ति स्थापित हुई।
  4. तब अग्रदूतों ने ऊंचे स्वर में कहा ‘‘हे लोगो! हे शासको! तुम्हारे लिए आदेश है।’’
  5. कि जिस समय तुम वाद्यवृंद (कार्नेट, बांसुरी, वीणा, बीन, सारंगी, तारवाद्य) सुनो तो नेबूचादनेज्जार द्वारा निर्मित स्वर्णमूर्ति को साष्टांग दंडवत् पूजा करो।
  6. और जो कोई भी दण्डवत् नहीं करेगा, उसे आग में झौंक दिया जाएगा।
  7. इसलिए उस समय जब सब लोगों ने विभिन्न वाद्यों का नाद सुना तो सभी लोग, सभी राष्ट्र, बहुभाषा-भाषी लेट गए और नेबूचादनेज्जार राजा द्वारा स्थापित मूर्ति की पूजा की।
  8. तभी कोई चाल डीएन्स वहां आया और यहूदियों को अपशब्द कहे।
  9. उन्होंने राजा नेबूचादनेज्जार से कहा ‘‘हे राजा तू अमर रहे।’’
  10. हे राजा! तूने एक आदेश जारी किया है कि जब कोई व्यक्ति विशेष वाद्यवृंद सुने तो वह स्वर्णमूर्ति की पूजा करे।
  11. जो आदेश का पालन नहीं करेंगे उन्हें भट्टी में झौंक दिया जाएगा।
  12. कुछ ऐसे यहूदी हैं, जो आप के आदेश से बेबीलोन में बसे हैं। वे हैं शाद्राच, मेशाच, अबेद-नेगो। हे राजा! ये तेरे आदेश का पालन नहीं करते, वे तेरे देवता का वंदन भी नहीं करते, तेरे द्वारा स्थापित मूर्ति को नहीं पूजते।
  13. तब नेबूचादनेज्जार भड़क उठा। तब कुपित राजा ने आदेश दिया कि शाद्राच, मेशाच और अबेदा-नेगो को पेश किया जाए। तब वे राजा के सामने लाए गए।
  14. नेबूचादनेज्जार ने उनसे पूछा- ‘‘क्या यह सच है शाद्राच, मेशाच, अबेद-नेगो तुम मेरे देवता की दंडवत् अभ्यर्थना नहीं करते, स्वर्णमूर्ति की पूजा नहीं करते जो मैंने स्थापित की है?
  15. अब तुम तैयार रहो। जब तुम अमुक-अमुक वाद्यों की आवाज सुनो तो झुक कर उस मूर्ति की पूजा करो जो मैंने बनवाई हैं। परन्तु यदि तुम पूजा नहीं करोगे तो तुम्हें तुरन्त दहकती हुई भट्टी में झौंक दिया जाएगा और ऐसा कौन-सा देवता है जो तुम्हें मेरे हाथों से बचा लेगा।
  16. शाद्राच, मेशाच और अबेद-नेगो ने राजा से कहा ‘‘हे नेबूचादनेज्जार, इस मामले में हम तेरी परवाह नहीं करते।
  17. अगर ऐसा होता है तो जिस देवता की हम पूजा करते हैं वह हमें उस दहकती भट्टी से निकाल लेगा और हे राजा वह हमें तेरे हाथों से भी बचा लेगा।
  18. तो हे राजा, यह जान ले, यदि ऐसा होता है तो हम किसी देवता की पूजा नहीं करेंगे, न ही उस स्वर्णमूर्ति की, जो तूने स्थापित की है।’’
  19. तब नेबूचादनेज्जार आग-बबूला हो गया और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। वह बोला और आदेश दिया कि भट्टी को गर्माएं।
  20. फिर उसने सेना के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति से कहा कि वह शाद्राच, मेशाच और अबेद-नेगो को बांध कर दहकती भट्टी में डाल दें।
  21. तब उन व्यक्तियों को उनके कोट, उनके जुराबों, उनके टोप और दूसरे कपड़ों समेत बांध कर दहकती भट्टी में डाल दिया।
  22. क्योंकि राजा के आदेश थे, भट्टी दहक उठी थी। लपटों ने उन लोगों को जलाकर भस्म कर दिया, जो शाद्राच, मेशाच और अबेद-नेगो लाए थे।
  23. और वे तीनों व्यक्ति शाद्राच, मेशाच और अबेद-नेगा दहकती भट्टी में झोंक दिए गए।’’

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  1. 1. ओल्ड टैस्टामैंट – डोनियाल, अध्याय 3, पद्य 1-23

 

ब्राह्मणों ने पहली त्रिमूर्ति को क्यों तिरोहित कर दिया? इसका कोई संकेत नहीं कि देवों के प्रति आस्था की पूर्व शपथ हेतु उन्हें बाध्य किया गया था। क्या यह लाभ प्राप्ति का सौदा था?

दूसरा प्रश्न यह है कि क्या तीन देवों के भक्तों ने जीओ और जीने दो का मार्ग अपना लिया था? एक सम्प्रदाय दूसरे की पोल खोलने के लिए क्यों उद्यत था? इन सम्प्रदायों के बीच नाम के लिए सैद्धांतिक मतभेद भी नहीं था। उनका धर्मशास्त्र, ब्रह्मांड विज्ञान और दर्शनशास्त्र सभी समान था। इसलिए गुत्थी और जटिल हो जाती है। क्या यह पांथिक संघर्ष राजनीतिक था? क्या ब्राह्मणों ने धर्म को राजनीति बना दिया था? वरना झगड़े का कारण क्या था?