प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने षट्दर्शन का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया है, उसमें वास्तव में सबसे विख्यात है वेदांत दर्शन। केवल नाम के कारण ही नहीं, बल्कि हिंदुओं में इसकी जितनी मान्यता है, उतनी अन्य दर्शनों की नहीं। वेदों के प्रत्येक अनुयायी को वेदांत पर गर्व है। वह केवल इसको मानता ही नहीं बल्कि वह यह भी समझता है विश्व को दार्शनिक विचारों के योगदान में यह सर्वाधिक मूल्यवान है। वह समझता है कि वेदांत-दर्शन वेदों की शिक्षा का लक्ष्य है। उसे कभी भी यह संदेह नहीं हुआ कि भारत के इतिहास में वेदांत कभी वेद-द्रोही रहा है अथवा उसमें वेदों का खण्डन किया गया है। उसे इस बात का कभी विश्वास नहीं होता कि एक समय ऐसा भी था, कि उसका अर्थ वर्तमान अर्थ से पूर्णतः भिन्न था, जिनके अनुसार वेदांत का अर्थ यह किया जाता था कि इसमें वैदिक विचारों की उपज है और यह ऐसे विचारों का साकार रूप है जो वैदिक साहित्य के अधिमत की परिधि से बाहर है। वास्तव में यही बात थी।
यह सत्य है कि वेदों और वेदांत के बीच यह विचार भिन्नता ‘उपनिषद’ शब्द से परिलक्षित नहीं होती थी, जो उस साहित्य की व्यापक पहचान है जो वेदांत-दर्शन ने प्रचलित किया और जिसकी व्युत्पति के विषय में बहुत मतभेद हैं।
अधिकांश यूरोपीय विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि उपनिषद् की व्युत्पति ‘‘षद्’’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है, बैठना। इसके पश्चात् ‘‘नि’’ का अर्थ है ‘नीचे’ और ‘‘उप’’ का अर्थ है, पास, जिसके कारण इसका सम्पूर्ण अर्थ निकलता
है, किसी एक व्यक्ति के पास सामूहिक रूप में जाकर बैठना। जैसा कि प्रोफेसर मैक्समूलर ने कहा है, इस व्युत्पति के संबंध में दो आपत्तियां हैं। पहली बात तो यह है कि ऐसा लगता है कि इसका आशय उपनिषद सहित इसके अन्य भागों से है और इसकी कभी व्याख्या नहीं की गई कि उसका अर्थ इतना सीमित क्यों निकाला गया?
मूल अंग्रेजी में ‘वेदांत की पहेली’ शीर्षक से 21 पृष्ठों की टंकित प्रति प्राप्त हुई थी। यह अध्याय पूर्ण लगता है और लेखक द्वारा कोई संशोधन नहीं किया गया है। – संपादक
दूसरी बात है कि उपनिषद् का भाव समागम से मेल नहीं खाता। जब भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है, इसके अर्थ हैं- सिद्धांत, गुह्य सिद्धांत अथवा इसका सरलार्थ है, दार्शनिक पुस्तक का शीर्षक, जिसमें गुह्य सिद्धांत निहित हों। मैक्सूमलर के अनुसार तीसरी व्याख्या है, जैसा शंकर ने तैत्तिरीय उपनिषद 2-9 में कहा है कि उपनिषद् में परम आनन्द समाहित है। इस संबंध में मैक्समूलर कहते हैं:
‘‘आरण्यकों में ऐसी व्युत्पत्तियां भरी पड़ी हैं जिनमें वास्तविक अर्थ बताने के स्थान पर शब्द-जाल अधिक है। फिर भी उनसे अर्थ निकालने में सहायता मिलती है।’’
बहरहाल, प्रोफेसर मैक्समूलर उपनिषद शब्द का मूल ‘‘षद’’ धातु मानते हैं जिसका अर्थ है विनाश अर्थात् ऐसा ज्ञान जो अज्ञान का विनाश करता है, मोक्ष मार्ग में ब्रह्मलीन होने के लिए संसार का कारण बताता है। प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं कि भारतीय विद्वानों में उपनिषद के इस अर्थ पर सहमति है।
यदि यह स्वीकर कर लिया जाए कि उपनिषद का वास्तविक अर्थ यही है तो इस सिद्धांत के पक्ष में एक साक्ष्य होगा कि भारतीय इतहास में एक समय था जब वेदांत को विचारों की ऐसी धारा समझा जाता था जिसका वेदों के साथ टकराव हो। परंतु यह बात इस पर निर्भर नहीं है कि इस सिद्धांत के समर्थन के लिए निरुक्ति की सहायता ली जाए। कुछ बेहतर प्रमाण और भी हैं। पहली बात तो यह है कि ‘वेदांत’ शब्द का प्रयोग ‘‘वेदों के अंतिम ग्रंथ’’ के रूप में नहीं लिया गया जैसा कि वे हैं। मैक्समूलर1 का मत हैः
‘‘वेदांत एक तकनीकी शब्द है और मूल रूप से इसका अर्थ वेदों का अंतिम अंश नहीं है। और न ही वैदिक साहित्य का अध्याय है, अर्थात् वेदों का अंतिम भाग। तैत्तिरीय आरण्यक (सम्पादक राजेन्द्र मित्र, पृष्ठ 820) जैसे ग्रंथों में कुछ ऐसे अंश हैं। जिनसे भारतीय और यूरोपीय विद्वानों को भ्रांति हुई है कि वेदांत का सरल-सीधा अर्थ है वेदों का उपसंहार। ‘‘यो वेदादू स्वरः प्रकटो वेदांते का प्रतिष्ठितः’, ओउम से वेद का आरम्भ होता है और उसी से वेद का समापन होता है। यहां वेदांत का जो सीधा अर्थ है, वेदादू के विपरीत है, जैसा क इसका अनुवाद किया गया है। उनका अनुवाद वेदांत अथवा उपनिषद असम्भव है। वेदांत दर्शन के रूप में तैत्तिरीय आरण्यक (पृष्ठ 817) में दिग्दर्शित हुआ है। नारायणी उपनिषद के एक मंत्र में, जिसकी आवृति मुण्डकोपनिषद् 3.2.6 में तथा अन्यत्र भी हुई है ‘‘वेदांतविज्ञान सुनिश्चितताः’’ जो विद्वान वेदांत मर्मज्ञ हैं, उनके अनुसार वह वेदों का उपसंहार नहीं’’ और श्वेताश्वतर उप 6.22 ‘वेदांत प्रमाण गुहय्म’ नहीं है। भाष्यकार के मत में यह वेद का उपसंहार नहीं जो कालांतर में बहुवचन के रूप में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् ‘क्षुरीकोपनिषद 10 (बिबलि इंड पृ. 210) पुंडारिकेति
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1- दी उपनिषदाज, (एस-बी-ई-), खंड 1, भूमिका।
वेदांतेषु निगाद्यते, वेदांत में छांदोग्य तथा अन्य उपनिषदों को पुण्डरीक कहा गया है। जैसा कि भाष्यकार ने कहा है, परन्तु प्रत्येक वेद का अंतिम ग्रंथ नहीं।
इस संबंध में गौतम धर्म सूत्र में स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध है। अध्याय 19 के 12वें मंत्र में शुद्धीकरण पर गौतम का कथन1 हैः
शुद्धीकरण (पाठ है) उपनिषद्, वेदांत, संहिता सभी वेदों के पाठ हैं आदि-आदि।
इससे यह स्पष्ट है कि गौतम के समय उपनिषद् और वेद अलग-अलग माने जाते थे और वे वेदों का अंग नहीं माने जाते थे। हरदत्त्स ने अपने भाष्य में कहा है, आरण्यक के वे अंश जो (उपनिषद) नहीं हैं, वेदांत कहलाते हैं, यह निर्विवाद साक्ष्य है कि उपनिषद वैदिक सिद्धांतों से भिन्न थे।
भगवद्गीता में वेद के उल्लेख से भी इस विचार को बल मिलता है। भगवद्गीता में ‘वेद’ शब्द का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। भट्ट के अनुसार इस शब्द का प्रयोग इस भाव से किया गया है कि लेखक का आशय उपनिषद नहीं है। उपनिषदों को वेदों के धार्मिक साहित्य से इस कारण विलग किया गया कि उपनिषदों में वेदों की इस शिक्षा का विरोध किया गया है कि धार्मिक कार्य और बलि ही मोक्ष का एक मात्र साधन हैं। कतिपय उपनिषदों से कुछ उदाहरण प्रस्तुत करके उनका वेदों के विरुद्ध होना प्रमाणित किया जा सकेगा। मुण्डकोपनिषद् का कथन हैः
‘‘देवों में सर्वप्रथम सृष्टि के रचयिता और विश्व-परिपालक ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को ब्रह्मज्ञान दिया। (2) अथर्वन ने ब्रह्मा से प्राप्त ज्ञान अंगिरा मुनि को प्रदान किया। इसके पश्चात्, अंगिरा ने भारद्वाज गोत्रेत्पन्न सत्यवाह को यह ज्ञान दिया। उसने अपने उत्तराधकारी आंगिरस को यह परम्परा सौंपी, (3) शौनक विधिपूर्वक आंगिरस की शरण में आए और उनसे पूछा ‘हे भद्रेय ऋषि वह क्या है जिसके माध्यम से ब्रह्मांड का ज्ञान प्राप्त होता है’ (4) आंगिरस ने उत्तर दिया’, ‘दो विद्याएं प्रसिद्ध हैं। एक परा और दूसरी अपरा’ (5) इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद आते हैं। इसी में स्वरांकन शास्त्रीय व्याकरण भाष्य, पिंगल, गणित और ज्योतिष आते हैं। श्रेष्ठ विज्ञान वह है जो अविनाशी इन्द्रियगोचर होता है।’’
छांदोग्य उपनिषद के कथनानुसारः
‘‘मुझे उपदेश करें।’’ ऐसा कहते हुए नारद जी सनत्कुमार के पास गए। नारद से सनत्कुमार ने कहा – तुम जो कुछ जानते हो, उसे बतलाते हुए मेरे पास आओ, फिर मैं तुम्हें तुम्हारे ज्ञान से आगे उपदेश करूंगा। (2) ऐसा सुनकर नारद ने कहा, ‘‘मैं ऋग्वेदपढ़ा हूं, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद भी जानता हूं। सिवाय इनके इतिहास, पुराण
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1- सैक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट, खंड 2, पृ- 275
रूप पंचमवेद, वेदों का वेद व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, कलानिधि शास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, शिक्षाकल्प, छन्द और चितिरूप ब्रह्मविद्या, भूतशास्त्र, धनुर्वेद, ज्योतिषविद्या, गारुड़विद्या, नृत्य, यह सब मैं जानता हूं। (3) यह सब जानते हुए भी वह मैं केवल शब्दार्थ मात्र ही जानता हूं, आत्मा को मैं नहीं जानता। मैंने आप पूज्यजनों जैसे महापुरुषों से सुना है आत्मज्ञानी शोक को पारकर जाता है। मैं तो शोक करता हूं। ऐसे शोकग्रस्त मुझे शोक से पारकरें, अर्थात् मुझे अभय प्राप्त कराएं। ऐसा सुनकर सनत्कुमार ने नारद से कहा- अभी तक यह जो कुछ तुम जानते हो वह नाममात्र ही है, (4) क्योंकि ऋग्वेद नाम है, यजुर्वेद, सामवेद, चौथा अथर्वण वेद, पांचवां वेद इतिहास पुराण, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात ज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, वेद विद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्योतिष, गारुड़, विद्या संगीतादि कला और शिल्पशास्त्र – ये सब भी नाम ही हैं। (अतः प्रतिमा में विष्णु बुद्धि के समान) तुम नाम की ब्रह्म बुद्धि से उपासना करो। (5) वह जो नाम ब्रह्म है, ऐसी उपासना करता है, जहां तक नाम की गति है, वहां तक नाम के विषय में उस उपासक की यथेष्ट गति हो जाती है। जो ‘‘यह ब्रह्म है’’ इस प्रकार नाम की उपासना करता है। नारद ने कहा, ‘क्या नाम से बढ़कर भी कोई वस्तु है? सनत्कुमार ने कहा, नाम से भी बढ़कर वस्तु है। तब नारद ने कहा, मुझे उसका ही उपदेश करें।’’
बृहदारण्यक उपनिषद् कहता हैः
इस (सुषुप्तावस्था में) पिता, पिता नहीं होता है, माता, माता नहीं होती है, अर्थात् वहां जन्य भाव संबंध नहीं रह जाता। लोक, अलोक हो जाते हैं। देव, देव नहीं और वेद, वेद नहीं हो पाते हैं, अर्थात् सभी साध्य-साधन का अभाव हो जाता है। यहां पर चोर, चोर नहीं होता है। भ्रूण हत्यारा, अभ्रूणहत्यारा हो जाता है। चांडाल-चांडाल नहीं रह जाता है। पौल्कस, पौल्कस नहीं हो पाता है। परिव्राजक अपरिव्राजक और वानप्रस्थी अतापस हो जाता है। इस समय संत (प्राणी) का लाभ या हानि से कोई संबंध नहीं रह जाता, न गुण से, न पाप से, क्योंकि तब वह हृदयस्थ समस्त दुखों को विस्तृत कर जाता है।
कठोपनिषद का मत निम्न प्रकार से हैः
‘‘आत्मा उपदेश से प्राप्त नहीं। न ही ज्ञान से, न पठन-पाठन से। वह उसी को प्राप्त होती है जिसे वह चाहे। आत्मा उसी शरीर में वास करती है जिसे वह चुन लेती है।’’
‘‘यद्यपि आत्मा का ज्ञान कठिन है तथापि समुचित साधनों से उसे जाना जा सकता है। वह (लेखक) कहता है इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे न तो उपदेश से, न वेदों के ज्ञान से, न बुद्धि से, न पुस्तकों के रखने से, न मात्र पठन-पाठन से। फिर वह कैसे प्राप्य हो, वह यह कहता है?’’
उपनिषदों में कितनी प्रतिकूलता है और इनकी दार्शनिकता कितनी असंगत है, इसका आभास तभी हो सकता है जब कोई हिंदुओं की विवाह-पद्धति ‘अनुलोम’ और ‘प्रतिलोम’ शब्दों का उत्पत्ति समझेगा। उसकी उत्पत्ति के विषय में काणे का कथन हैः1
‘‘अनुलोम और प्रतिलोम (विवाह की परम्परा) ये दोनों वैदिक साहित्य में दुर्लभ हैं। बृहदारण्यक उपनिषद (II,1.15) और कौषीतकि बृहदारयण्क उपनिषद IV 18 में ‘प्रतिलोम’ शब्द का प्रयोग उस स्थिति के लिए किया गया है, जब कोई ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय के पास जाए।’’
अनुलोम का अर्थ है, शास्त्रनुसार सहज परम्परा से कार्य सम्पन्न होना, प्रतिलोम का अर्थ है, सहज परम्परा के विपरीत। श्री काणे के कथनानुसार प्रतिलोम की परिभाषा के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि उपनिषदों को वैदिक साहित्य की मान्यता नहीं है। उन्हें यदि तिरस्कृत भी नहीं किया गया है तो भी वैदिक ब्राह्मणों ने उनका स्थान तुच्छ रखा है। यह समझना एक पहेली है कि ब्राह्मण, जो वेदांत के विरोधी थे, कालातीत में वही उसके समर्थक और पक्षधर क्यों बन गए।
II
यह वेदांत की एक पहेली है। एक अन्य बात भी है, केवल वेदांती ही वेद विरोधी नहीं हैं। न वे यह मानते हैं कि मोक्ष का साधन कर्मकाण्ड है। सर्व दर्शन संग्रह के लेखक माधवाचार्य ने वेदों के दो विरोधियों का जिक्र किया है वे हैं चार्वाक और बृहस्पति। वैदिकों पर उनकी आलोचना अधिक तार्किक है। निम्नांकित उद्धरण से चार्वाक का विरोध परिलक्षित होता है जो उन्होंने वेद के विरोध में कहा है।2
‘‘यदि आपको इस पर आपत्ति है, यदि परलोक में सुख जैसा कुछ नहीं तो बुद्धिमान अग्निहोत्र क्या करें? बल क्यों दे? जिन पर भारी अपव्यय होता है और थकान होती है? आपकी आपत्ति को कोई भिन्न साक्ष्य नहीं माना जा सकता क्योंकि अग्निहोत्रदि जीविकोपार्जन के साधन मात्र हैं। क्योंकि वेद में तीन दोष हैं। अर्थात् मिथ्या-कथन, अन्तर्विरोध और पुनरुक्ति। तब फिर छद्म वेशी जो स्वयं को वैदिक पंडित मानते हैं, तथा परस्पर संघर्षरत रहते हैं, उनमें ज्ञान मार्गी कर्मकांडियों की मान्यताओं को असत्य ठहराते हैं और कर्मकांडी ज्ञान मार्गियों की मान्यताएं ठुकरा देते हैं, अंततः तीनों वेद
पोंगापंथियों के असंगत चारण काव्य के रूप में रह जाता है। इस संबंध में प्रसिद्ध लोक-कथन इस प्रकार हैं-
‘‘अग्निहोत्र, तीनों वेद, तापस के तीन-पद और भस्म रमाकर व फ़ुरूप होना,’’
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- हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, खंड 2, भाग 1, पृ. 52
- सर्व दर्शन संग्रह (कावैल द्वारा अनूदित), पृ. 64
ये बृहस्पति के कथनानुसार उनकी कमाई के धंधे हैं जो मनुष्यता तथा बुद्धि रहित हैं।
बृहस्पति वेदों के विरोध में अधिक साहसी एवं उग्र थे, जैसा कि माधवाचार्य ने उद्धृत किया है। बृहस्पति का तर्क1 हैः
स्वर्ग की कोई सत्ता नहीं है, मोक्ष कुछ नहीं है। न ही पुनर्जन्म होता है। न चार जातियों के कर्म, क्रम आदि कोई वास्तविक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, तापस के तीन पद, और शरीर पर भस्म ईश्वर ने उनकी कमाई का साधन बनाया जो ज्ञान और पौरुष विहीन हैं। ज्योति स्तोम संस्कार में, यदि कोई जीव काट दिया जाता है और यदि वह सीधे स्वर्गगामी होता है तो बलिदाता अपने पिता की बलि क्यों नहीं दे देता?
यदि श्राद्ध से परलोक संतुष्ट होते हैं तो इहलोक में भी जब कोई यात्र आरम्भ करता है तो यात्र प्रबंध करना व्यर्थ है।’’
यदि श्राद्ध से परलोक में संतुष्टि होती है तो इहलोक में उन्हें भोजन क्यों नहीं दिया जाता जो स्वर्ग से विमान आने की प्रतीक्षा में बैठे हैं।
जब तक जीवन है तो सुख से क्यों न रहें। क्यों न ऋण लेकर भी घी पिएं।
यदि मरणोपरांत देह भस्म बन जाती है तो वापस कैसे आ सकती है?
देह त्याग के पश्चात् कोई यदि परलोक चला जाता है तो वह अपने परिजन के मोह में फंसकर लौट क्यों नहीं आता?
इस प्रकार सब कमाई के धंधे हैं जो ब्राह्मणों ने बना रखे हैं।
ये सभी संस्कार मृतकों के लिए हैं अन्यत्र इनसे कोई फल नहीं मिलता, तीनों वेदों के सृष्टा विदूषक और दुरात्मा हैं।
पंडितों, झारपड़ी, तुरपड़ी के सर्वविदित सूत्र और देवी के लिए परोक्ष पूजा सभी अश्वमेघ की प्रशंसा में हैं।
इनका अन्वेषण इन्हीं विदूषकों ने किया और इसी कारण पुरोहितों को विभिन्न प्रकार से चढ़ावा मिल जाता है।
जबकि इसी प्रकार निशाचरों ने मांस-भक्षरण की प्रशंसा की है।
वैदिक ब्राह्मणों और वेदांतियों ने किस प्रकार सांठ-गांठ हो गई, परन्तु उन्होंने चार्वाक और बृहस्पति को क्यों स्वीकार नहीं किया? इस पहेली का उत्तर नहीं मिलता।
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- सर्व दर्शन संग्रह, पृ. 10
III
तीसरी पहेली इस प्रकार है। इसका विवरण देना युक्तिसंगत है, क्योंकि इसका संबंध वेदों और वेदांत से है। केवल ऊपरी तौर पर ही नहीं बल्कि दार्शनिक निरूपण आवश्यक है क्योंकि इससे व्यवस्थावाद के दो विद्वानों का प्रश्न जुड़ा है, जिनका संस्कृत साहित्य में ऊंचा स्थान है। वे हैं, जैमिनि और बादरायण। इनमें पहला मीमांसा का प्रणेता है और दूसरा ब्रह्म सूत्रों का रचयिता है। इनके विषय में, पहले भी जिक्र किया जा चुका है और वैदिक आस्थाओं तथा वेदांतिक अनुमानों के प्रसंग में कुछ संकेत दे दिए गए हैं। अब हमें एक-दूसरे के दर्शन के विषय में इनके विचारों की तुलना करनी है।
इस संबंध में जैमिनि और बादरायण द्वारा विषय प्रतिपादन में दोनों के सादृश्यवाद की ओर सहसा ध्यान आकृष्ट होता है। जैसा कि प्रोफेसर बेलवल्कर ने स्पष्ट कया है, वेदांत-सूत्र कर्मसूत्रों से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। प्रणाली विज्ञान और पारिभाषिकता के संबंध में बादरायण ने बड़ी सावधानी से जैमिनि का अनुसरेंण किया है। श्रुति के पाठ के संबंध में वह जैमिनि के भाष्य को स्वीकार करते हैं। उन्होंने जैमिनि की शब्दावली को उसी भाव से प्रयुक्त किया है, जैसे जैमिनि ने। उन्होंने वैसे ही उदाहरण भी दिए हैं, जैसे जैमिनि ने दिए हैं।
सादृश्यवाद प्रकट करता है कि बादरायण ने यह अनुभव किया होगा कि वह एक विपरीत दर्शन के प्रणेता हैं जिस पर जैमिनि ने प्रहार किया है और प्रहारों का उत्तर उन्होंने जैमिनि की शैली में ही दिया है।
प्रश्न यह है कि क्या बादरायण ने जैमिनि के विरोधी की भूमिका अपनाई? वेदांत के प्रति जैमिनि के व्यवहार पर बादरायण स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैमिनि उनके विरोधी हैं। बादरायण के सूत्र 2-7 में यही कहा गया है और शंकराचार्य ने अपने भाष्य में उसकी व्याख्या की है। जैमिनि का मत हैः
‘‘कोई उस समय तक बलि नहीं देता जब तक कि उसे इस बात का ज्ञान न हो कि वह शरीर से भिन्न है और मृत्यु उपरांत वह स्वर्ग जाएगा, जहां उसे बलि का फल प्राप्त होगा। आत्मज्ञान संबंधी-ज्ञान किसी का मार्ग दर्शन मात्र है। इस प्रकार बलि का उस पर प्रभुत्व है।’’
संक्षेप में जैमिनि के मत में वेदांत का कथन है कि आत्मा देह से भिन्न है और वह देह से अधिक काल तक अस्तित्व में रहती है। ऐसा पर्याप्त नहीं है। आत्मा का मनोरथ स्वर्ग प्राप्ति हो सकता है। किन्तु वह स्वर्गारूढ़ नहीं हो सकती जब तक कि वैदिक यज्ञ न किया जाए। यहीं इनके कर्मकाण्ड की शिक्षा है। इस प्रकार उनका कर्मकाण्ड ही मुक्ति मार्ग है। इस प्रकार ज्ञानकांड निरर्थक है। इसीलिए जैमिनि उन
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1- देखें बादरायण सूत्र 3, और शंकर की टिप्पणी।
लोगों के विरुद्ध है जो वेदांत1 में आस्था रखते हैं:
‘‘विदेह राजा जनक ने यज्ञ किया जिसमें उदारतापूर्वक दक्षिणा दी गई (बृह.3.1.1-), ‘‘मान्यवर! मैं बलि दे रहा हूं (छांदो. 5.11.5) जनक और अश्वपति दोनों ही आत्मज्ञानी थे। यदि वे दोनों ही आत्मज्ञानी थे तो वे मुक्ति पा चुके थे। फिर यज्ञ करने की आवश्यकता ही नहीं थी, परन्तु दोनों प्रसंगों में कहा गया है कि उन्होंने यज्ञ किया। इससे प्रमाणित होता है कि मुक्ति तभी मिल सकती है जब यज्ञ किया जाए और जैसा कि वेदांती कहते हैं, मुक्ति आत्मज्ञान से प्राप्त नहीं होती।’’
जैमिनि ने एक रचनात्मक बात कही है कि शास्त्रों में निरापद कथन1 है ‘‘आत्मज्ञान यज्ञ की अपेक्षा गौण है।’’ जैमिनि इसे उचित2 बताते हैं कि दोनों (ज्ञान और कर्म) समानांतर चलते हैं (मृत आत्मा को फल देने हेतु)। जैमिनि बादरायण के ज्ञानकांड को स्वतंत्र साधन नहीं मानते। वे इसके दो आधार बताते हैं। प्रथम ‘‘आत्म-ज्ञान स्वतः कोई फलदायी नहीं।’’ द्वितीय ‘‘वेदों की सत्ता के अनुसार ज्ञान कर्म की अपेक्षा गौण है।’’
बादरायण के ज्ञान-कांड पर जैमिनि की क्या स्थिति है? उनका उल्लेख बादरायण ने अपने सूत्रों 8-17 में किया है।
पहला3 मत है कि जैमिनि ने जिस ‘‘आत्मा’’ का जिक्र किया है, वह सीमित आत्मा है अर्थात् आत्मा और परमात्मा भिन्न है और शास्त्रों में परमात्मा को मान्यता है।
बादरायण का दूसरा4 मत है कि वेद आत्मज्ञान के पक्षधर हैं और वेदों की यज्ञ में भी आस्था है।
बादरायण का तीसरा मत5 है कि जिनकी वेदों में निष्ठा है, उन्हें ही यज्ञ की अनुमति है। परन्तु जो उपनिषदों के अनुगामी हैं, उन पर यह निर्देश लागू नहीं। जैसी कि शंकराचार्य ने व्याख्या की हैः
‘‘जिन्होंने वेद पढ़े हैं और जो कर्मकांड के ज्ञाता हैं वे यज्ञ करा सकते हैं। उनके लिए यज्ञ कराना निषिद्ध है, जिन्होंने उपनिषदों से आत्मज्ञान अर्जित किया है। ऐसे ज्ञान की कर्मकांड से कोई तुलना नहीं।’’
बादरायण का चौथा मत6 है कि जन्हें ब्रह्मानंद प्राप्त है, उनके लिए कर्मकांड वैकल्पिक है। जैसा कि शंकराचार्य ने स्पष्ट किया हैः
‘‘कि कुछ लोगों ने स्वतः ही कर्मकांड का त्याग कर दिया है। बात यह है कि
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- बादरायण सूत्र 4
- देखें बादरायण सूत्र 5
- बादरायण सूत्र 6, शंकर की टिप्पणी।
- बादरायण सूत्र 7, शंकर की टिप्पणी।
- देखिए बादरायण सूत्र 8
- देखिए बादरायण सूत्र 8
ज्ञान प्राप्ति के उपरांत भी कुछ लोग दूसरों के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करने हेतु कर्मकांड करना पसंद करते हैं, जबकि कुछ उसका परित्याग कर देते हैं। जो आत्मज्ञानी होते हैं, उनके लिए कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती।’’
उनकी अंतिम और निर्णायक टिप्पणी1 है किः
‘‘आत्मज्ञान कर्मकांड का प्रतिरोधी है। इसलिए वह कर्मकांड का साधन नहीं है।’’ और इसके समर्थन में वे उन शास्त्रों का सहारा लेते हैं2 जो संन्यास को चौथा आश्रम मानते हैं और संन्यासियों को कर्मकांड द्वारा नियत यज्ञ से मुक्त रखते हैं।
बादरायण के सूत्रों में अनेक ऐसे सूत्र पाए जाते हैं जो दोनों परम्पराओं के विद्वानों के परस्पर विरोधी विचारों को परिलक्षित करते हैं। परन्तु उपरोक्त में से एक ही पर्याप्त है जिसकी अपनी विशेषता है। यदि कोई इस विषय की उपेक्षा कर देगा तो स्थिति विभिन्न हो जाती है। जैमिनि ने वेदांत को मिथ्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर निंदा की है और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है। इस लांछन के विरुद्ध बादरायण ने क्या किया? क्या उन्होंने भी जैमिनि के कर्मकांड को मिथ्याशास्त्र, भ्रमजाल और मोहमाया कहकर निंदा की है और उसे सतही, अनावश्यक तथा निराधार बताया है? उन्होंने मात्र अपने वेदांत शास्त्र का औचित्य ठहराया है। परन्तु उनसे और अधिक अपेक्षा थी। हम अपेक्षा कर सकते थे कि बादरायण भी जैमिनि के कर्मकांड को मिथ्या धर्म कहते। बादरायण में साहस नहीं है। इसके विपरीत वे क्षमाप्रार्थी बनते हैं। वे स्वीकार कर लेते हैं कि जैमिनि का कर्मकांड शास्त्रों पर आधारित है और शास्त्र प्रामाणिक तथा पवित्र हैं जिनका खण्डन नहीं किया जा सकता।
यही इतिश्री नहीं है। बादरायण ने कहा कि उपनिषद् के दो भाव हैं। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि उपनिषद वैदिक साहित्य के अंग हैं। उनका कथन है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वेदांत अथवा ज्ञानकांड, वेदों के कर्मकांड के विरुद्ध नहीं हैं। दरअसल, बादरायण के वेदांत-सूत्र का यही स्वरूप है।
बादरायण का यह सिद्धांत, जो वेदांत सूत्रों का महत्व देता है और जिसके अनुसार उपनिषद वेदों का अंग हैं और वेद तथा उपनिषदों में कोई टकराव नहीं है- यह उपनिषद काल वेद तथा उपनिषद के संबद्ध सूत्रों के विपरीत है। बादरायण का रवैया समझ में नहीं आता। परन्तु यह स्पष्ट है कि बादरायण का मामला एक ऐसे विचित्र और दयनीय व्यक्ति का है जिसने अपना संघर्ष इसी बात को स्वीकार करके प्रारंभ किया कि अपने विरोधी की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया। वेदों में संशयहीनता के संदर्भ में बादरायण ने जैमिनि की सत्ता क्यों स्वीकार कर ली? उसने सत्य का मार्ग क्यों छोड़ा, एक अटल सत्य का साथ। यह ऐसी पहेली है जिसका उत्तर अपेक्षित है।
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- देखिए बादरायण सूत्र 16
- देखिए बादरायण सूत्र 17