वेद हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ हैं। उनके संबंध में अनेक प्रश्न उठते हैं। उनकी उत्पत्ति कहां से हुई? उनका सृष्टा कौन है? उनकी सार्वभौमिकता क्या है? ये कुछ प्रश्न हैं।
हम पहले प्रश्न से आरम्भ करते हैं। हिंदुओं के अनुसार, वे सनातन हैं जिसका अर्थ है, वे अनादि-अनंत है, जब कि अथर्ववेद से यह कथन मेल नहीं खाता है। फिर इसका कोई औचित्य नहीं। अथर्ववेद कहंता हैः1
‘‘काल से ऋक् ऋचाएं प्रस्फुटित हुईं और यजु काल से उपजा।’’ किन्तु और भी विचार उपलब्ध हैं जो इससे बिलकुल भिन्न हैं।
अथर्ववेद से लेकर यह ध्यान देने योग्य है कि वेद में इस विषय पर दो अन्य प्रसंग हैं। इनमें प्रथम बहुत विवेकपूर्ण नहीं है। वह यह हैः2
‘‘बता वह स्कंभ कौन है? जो आदि ऋषियों, ऋक, साम, यजु, पृथ्वी और ऋषियों का पालक है ……20। बता वह स्कंभ कौन है जिससे ऋक (ऋचाएं) प्रस्फुटित हुईं, जहां से वे यजुस में समाहित हुए, जिससे साम मंत्र उत्पन्न हुए अथर्वन और आंगिरस की वाणी क्या है?’’
अथर्ववेद में जो दूसरा भाष्य आया है, उसके अनुसार वेद इन्द्र3 से प्रस्फुटित हुए।
ऋग्वेद का भाष्य पुरुष सूक्त में उपलब्ध है। इसके अनुसार एक विराट यज्ञ हुआ जिसमें एक रहस्यमय जीव ‘‘पुरुष’’ की बलि चढ़ाई गई। उस ‘‘पुरुष’’ की बलि से
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- अथर्ववेद, 19.54.3
2- म्यूर द्वारा संस्कृत टैक्स्ट में उद्धृत, भाग 3, पृ. 3
3- वही।
यह सामग्री लेखक की प्रस्तुत अंग्रेजी पुस्तक के अध्याय 2 से 6 के अंतर्गत आ चुकी है। अंग्रेजी में इकसठ टंकित पृष्ठ प्राप्त हुए थे जिनका संशोधन नहीं किया गया था। यह सामग्री टंकित कार्बन कापी का अनुवाद है। – संपादक
तीन वेद ऋक्, साम और यजु का आविर्भाव हुआ।
सामवेद और यजुर्वेद में वेदों की उत्पत्ति का प्रसंग नहीं है।
इसके पश्चात् के ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण और कौषीतकि ब्राह्मण में ऐसे प्रयास दृष्टिगोचर हैं जिनमें वेदों की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है।
शतपथ ब्राह्मण में कई व्याख्याएं है। यह वेदों की उत्पत्ति का श्रेय प्रजापति को देता है। उसके अनुसार प्रजापति ने अपने तप से जगत, धरती, वायु और आकाश बनाए। उन्होंने इन तीनों में ऊष्मा संचारित की। इस ऊष्मा से तीन तेज उत्पन्न हुए। अग्नि, वायु और सूर्य। उसके ताप से तीन वेद उत्पन्न हुए। अग्नि से ऋग्वेद, वायु से ययुर्वेद और सूर्य से सामवेद।
ऐतरेय और कौषीतकि ब्राह्मण की भी यही व्याख्या है। शतपथ ब्राह्मण1 ने प्रजापति से वेदों की उत्पत्ति बताई है। भाष्य के अनुसार प्रजापति ने जल से तीन वेद बनाए। शतपथ ब्राह्मण कहता है-
‘‘पुरुष प्रजापति की इच्छा हुई, ‘‘मेरी अभिवृद्धि हो, मेरा विस्तार हो’’। वे उपासना में बैठ गए, उन्होंने घोर तप किया। इस तप से उन्होंने सर्वप्रथम पवित्र ज्ञान, त्रिवैदिक विज्ञान की रचना की। यह उनका आधार बना। उन्होंने कहा ‘‘प्रज्ञा ब्रह्माण्ड’’ का मूल है।’’ वेदों के ज्ञान के पश्चात् पुरुष को आधार मिला क्योंकि प्रज्ञा उनका मूल है। इस आधार पर प्रजापति ने घोर तप किया। उन्होंने वाक् (वाणी) से जल का निर्माण किया। उसके विस्तारण से जल अप्प कहलाया। उसकी सर्वत्र व्यापकता से वह ‘‘वारि’’ बना। उन्होंने चाहा, मेरा जल से विस्तार हो। इस त्रिवेद विज्ञान से वे जल में प्रविष्ट हुए। तब एक अण्डज उभरा। उन्होंने उसे प्राणवान किया और कहा- ‘‘भव भव पुनर्भव। जब प्रज्ञा का जन्म हुआ। त्रिवेद विज्ञान। फिर पुरुष ने कहा प्रज्ञा ब्रह्मांड की प्रथम सृष्टि है। पुरुष के समक्ष सर्वप्रथम प्रज्ञा की रचना हुई, इसलिए यह उसका मुख बनी। उसे वेद ज्ञाता की संज्ञा दी गई। इस प्रकार आगे वे कहते हैं। वह अग्नि के समान है क्योंकि प्रज्ञा अग्नि का मुख है।’’
‘‘क्योंकि अग्नि आर्द्र काष्ठ से उत्पन्न हुई थी। उससे भांति-भांत के धूम्र उभरे। वह परमात्मा का श्वास है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्व, आंगिरसों, इतिहास, पुराण, विज्ञान, उपनिषद्, श्लोक, सूक्त, विभिन्न राजाओं के भाष्य – ये सब उसका श्वास हैं।’’
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- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ. 8
शतपथ ब्राह्मण में तीसरी व्याख्या हैः1
‘‘मैंने तुझे सागर में स्थापित किया, वहीं तेरा आसन है। मस्तिष्क सागर है। मानस सागर से वाच द्वारा भगवान ने बेलचे से त्रिवैदिक विज्ञान को खोदकर निकाला। तत्पश्चात् इस मंत्र का उच्चारण किया। प्रज्ञाावान देवता जाने, इस आहुति सामग्री को उन्होंने कहां रखा? जिसे ईश्वर ने तेजधार बेलचे से खोदकर निकाला था। मस्तिष्क समुद्र है। वाच तीव्र बेलचा है। त्रिवैदिक विज्ञान समिधा है। इस संदर्भ में मंत्र को उच्चारा। वह मस्तिष्क में समा गया।’’
तैत्तरीय ब्राह्मण की तीन व्याख्याएं है। वह कहता है, वेदों के कर्त्ता प्रजापति हैं। वह कहता है प्रजापति ने राजा सोम को बनाया और तत्पश्चात् तीन वेदों की रचना की गई2। इस ब्राह्मण की दूसरी व्याख्या3 का प्रजापति से कोई तात्पर्य नहीं। इसके अनुसारः
‘‘वाच अविनाशी है। वह पूजा में प्रथम प्रसूत है। वेदों की जननी और अमरता का केन्द्र बिन्दु। हममें आनंद स्रजित कर वह यज्ञ बन जाती है। रक्षा की देवी सरस्वती में मेरे आह्वान को सुनने को उद्यत हो। मेधावान ऋषि, मंत्रों के सृष्टा, देवगण जिनका अनुग्रह तप और कठोर उपासना से प्राप्त करते हैं।’’
इस सबके ऊपर तैत्तरीय ब्राह्मण तीसरी व्याख्या देता है। वह कहता है कि वेद प्रजापति की दाढ़ी से उत्पन्न हुए।
उपनिषदों में भी वेदों की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है।
छांदोग्य उपनिषद की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण के समान है। अर्थात् ऋग्वेद अग्नि से उत्पनन हुआ, यजुर्वेद वायु से और सामवेद सूर्य से उत्पन्न हुआ।
बृहदारण्यक उपनिषद ने जो शतपथ ब्राह्मण का अंग है, अलग कथा कही हैः
‘‘प्रजापति द्वारा जिनका मृत्यु या यम के साथ तादात्म्य है वाच की रचना कही गई है और उसके माध्यम से आत्मा के साथ वेदों सहित सभी तत्वों का सृजन हुआ। उसी वाच और आत्मा से उसने सबका सृजन किया चाहे वह ऋग्वेद हो, यजुस, साम, छंद, यज्ञ या विभिन्न जीव-जंतु हों।’’
‘‘तीन वेद तीन तत्व हैं, वाच, मानस और श्वास। वाच ऋग्वेद है, मानस यजुर्वेद है और श्वास सामवेद।’’
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- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, भाग 1, पृ. 9-10
- म्यूर, खंड 1, पृ. 8
- वही पृ. 10
अब हम स्मृतियों पर आते हैं। मनुस्मृति में वेदों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धांत हैं। एक स्थल पर कहा गया है कि वेदों का कर्त्ता ब्रह्मा है।
‘‘हिरण्यगर्भ उसी ब्रह्मा ने सभी के नाम कर्म तथा लौकिक व्यवस्था को पहले वेद शब्दों से जानकर पृथक्-पृथक् बनाया उस ब्रह्मा ने इन्द्रादिदेव, कर्म, स्वभाव, प्राणी-अप्राणी, पत्थर आदि साध्यगण और सनातन यज्ञ की सृष्टि की। उस ब्रह्मा ने यज्ञों की सिद्धि के लिए अग्नि, वायु और सूर्य से नित्य ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को क्रमशः प्रकट किया।
एक अन्य स्थान पर यह माना गया लगता है कि प्रजापति वेदों के सृष्टा हैं जो निम्नलिखित से प्रकट हैं:
‘‘प्रजापति ने तीन वेदों से तीन अक्षर लिए अ, उ, म साथ ही भू, भुवह, और स्व लिया। उसी परम पुरुष प्रजापति ने तीन वेदों से कुछ अंश लिए सावित्री (अथवा गायत्री) आरम्भ में शब्द तत् लिया —- तीन अविनाशी अंशों (भू भुवहस्व) से बना ओउम और गायत्री के तीन चरण ब्रह्मा का मुख माने जाते हैं।’’
यह जानना भी रोचक है कि पुराणों ने वेदों के विषय में क्या कहा है? विष्णु पुराण कहता हैः
‘‘ब्रह्मा ने अपने पूर्वी मुख से गायत्री को बनाया, ऋग् मंत्रों, त्रिवृत समरथांतर तथा यज्ञ और अग्निस्तोम को रचा। अपने दक्षिणी मुख से उन्होंने यजुस मंत्रों को उत्पन्न किया। त्रिष्टुप छंद, पंचदश स्रोम, बृहत् साम और उकथ्य की रचना की। पश्चिमी मुख से साम छंदों और जगति मंत्रों को रचा, सप्तदश स्रोम, वैरूप और अतिरात्र की रचना की। अपने उत्तरी मुख से उन्होंने एकाविंश और अथर्वन् अपतोर्यमन की अनुष्टुप और विराज छंदों में रचना की।’’
भागवत पुराण का मत हैः
‘‘एक बार चतुर्मुख सृष्टा के मुख से वेदों का प्रस्फुटन हुआ जबकि वे समाधि में लीन थे। मैं सम्पूर्ण विश्व की पूर्ववत रचना कैसे करूं?———- उन्होंने अपने पूर्वी तथा अन्य मुखों से स्तुति, यज्ञ, मंत्रों और प्रायश्चित सहित ऋक्, यजुस, साम,
अथर्वन की सृष्टि की।’’मार्कण्डेय पुराण का मत है-
‘‘1. ब्रह्मा के पूर्व मुख का अगोचर प्रस्फुटन हुआ, उससे एक विभाजन अंडज से समृद्ध ऋचाएं उपजीं, 2. जो पाटल के पुष्प समान, मेधावी परस्पर विभाजनीय होते हुए भी गुथी हुई और रजस गुणों के सदृश्य। 3. उनके दक्षिण मुख से उन्मुक्त यजुस ऋचाएं फूटीं। कुंदन वर्ण और विभक्त, 4. परम ब्रह्मा के पश्चिमी मुख से साम मंत्र और छंद निस्रत हुए, 5 और 6. वेदों (ब्रह्मा) के उत्तरी मुख से श्यामल मधुमक्खियां और काजल जैसे वर्ण का अथर्वन प्रकट हुआ, जिसकी प्रवृति एक बार भयावह और अभयावह, सम्मोहन को निष्प्रभावी करने में सक्षम निर्विकार और अंधकार दोनों गुणों से युक्त और सुरम्य तथा वपरीत, 7. ऋक् के मंत्र राजसी गुण सम्पन्न यजुस के सात्विक, साम के तामसी और अथर्वन के तामसिक तथा सात्विक दोनों गुण हैं।’’
हरिवंश, ब्रह्मा और प्रजापत दोनों सिद्धांतों का पक्षधर हैः
‘‘विश्व के विस्तार हेतु ब्रह्मा समाधिस्थ हो गए, चन्द्रमा से ज्योति पुंज निस्रत कया, गायत्री के हृदय में प्रवेश किया, उसके नेत्रें के मध्य में प्रविष्ट होते हुए। उससे तब एक नर रूप चतुष्पद की सृष्टि की, जो ब्रह्मा की तरह द्युतिमान्, अकथनीय, अजर-अमर, अविकारी और निर्गुण, विलक्षण प्रतिभा संपन्न, चंद्र किरनों की तरह निर्मल, प्रदीप और अक्षर युक्त था। परमेश्वर ने ऋग्वेद की रचना की, साथ ही अपने नेत्रें से यजुस, अपनी जिह्वा से सामवेद, और अपने मत्सक से अथर्वन रचा। इन वेदों ने अपनी सृष्टि के साथ ही अपना आकार (क्षेत्र) ग्रहण कर लिया। उसमें वेदों की प्रवृत्तियां उत्पन्न हो गईं, क्योंकि उन्हें विंदांती प्राप्त हुई। तब इन वेदों ने पूर्व-स्थित अनादि-अनंत ब्रह्म (पावन-विज्ञान) का सृजन किया, स्वमेधा जनित गुणों से दिव्य ब्रह्माण्ड रूप धारण किया।’’
यह प्रजापति को सृष्टा स्वीकार करता है। यह कहता है कि जब परमपुरुष ने अपने मुख से ब्रह्मांड और हिरण्यगर्भ की रचना की और अपने को विखण्डित करने की इच्छा की उन्हें संदेह था कि यह कैसे होगा।
हरिवंश आगे कहता हैः
‘‘जब वह इस प्रकार प्रतिबिम्बित हो रहे थे, तो उनके मुख से ओउम शब्द निकला। जो पृथ्वी, वायु और आकाश में प्रतिध्वनित हुआ। जब देवाधिदेव ने इसका बार-बार उच्चारण किया तो उनके चित् से मस्तिष्क का सत्व सक्रिय हुआ। उनके हृदय से वषट्कार उद्धेलित हुआ। तब पवित्र और परमोत्कर्ष व्याहृतियां भू, भव, स्व से महान स्मृति बनी, जो पृथ्वी, वायु और आकाश से ध्वनि रूप में परिवर्तित हुई। तब देवी उत्पन्न हुई, श्रेष्ठतम छंद बने। चौबीस पदीय (गायत्री) की रचना हुई। दैवी शब्द तत् से परमेश्वर ने सावित्री रची। तब उसने ऋक्, साम, यजुर्वेद और अथर्वन आदि वेदों, उनकी प्रार्थनाओं और संस्कारों की रचना की।’’
वेदों की सृष्टि के संबंध में ग्यारह विभिन्न व्याख्याएं हैं: 1. पुरुष के रहस्यात्मक यज्ञ से, 2. स्कंभ से, 3. उनके प्रत्यंगों से जैसे उनके केश और मुख, 4. इन्द्र से, 5. काल से, 6. अग्नि, वायु और सूर्य से, 7. प्रजापति के विस्तारण और जल से, 8. ब्रह्मा की श्वास से, 9. परमेश्वर द्वारा मानस सागर की खुदाई से, 10. प्रजापति की दाढ़ी से, 11. वाच के प्रस्फुरण से।
एक साधारण से प्रश्न का इस तरह को बढ़ाचढ़ाकर भ्रामक उत्तर एक पहेली है। इन सब प्रश्नों का उत्तर देने वाले ब्राह्मण हैं। वे सभी वैदिक परम्परा के दास हैं। वही प्राचीन धार्मिक कथाओं के संरक्षक हैं। वे इस सीधे सवाल का फिर ऐसा बेसिर पैर का अस्पष्ट उत्तर क्यों देते हैं?
II
वेदों का रचयिता कौन है? हिंदुओं का विश्वास है कि वेद दैवी रचना है। तकनीकी शब्दावली में वेद अपौरुषेय हैं, अर्थात् मानवेंतर हैं।
इस विश्वास का साक्ष्य क्या है? प्राचीन संस्कृत साहित्य में एक रचना है अनुक्रमणी। वैदिक साहित्य के विभिन्न अंगों का इसमें व्यवस्थित संकेत हैं। प्रत्येक वेद की एक अनुक्रमणी है। कहीं-कहीं एक से अधिक भी हैं। ऋग्वेद की सात अनुक्रमणी उपलब्ध हैं। इनमें से पांच शौनक की, एक कात्यायन की और एक किसी अज्ञात लेखक की तैयार की हुई है। यजुर्वेद की तीन हैं। इसकी तीन शाखाओं में से प्रत्येक की एक है। ये हैं, आत्रेयी, चारण्या और मध्यांदिन। सामवेद की दो अनुक्रमणी हैं। एक का नाम आर्शेय ब्राह्मण है और एक का नाम परिशिष्ट है। अथर्ववेद की एक अनुक्रमणी है। इसका नाम बृहत सर्वानुक्रमणी है।
प्रो- मैक्समूलर के अनुसार सबसे पूर्ण अनुक्रमणी कात्यायन की ऋग्वेद के लिए सर्वानुक्रमणी है।
इसकी महत्ता इस कारण है कि 1. इसमें प्रत्येक मंत्र का प्रथम शब्द दिया है, 2. मंत्रों की संख्या है, 3. संकलनकर्ता ऋषि, उसकी परम्परा का नाम, 4. देवता का नाम और 5. प्रत्येक छंद का नाम दिया है। सर्वानुक्रमणी के संदर्भ से यह आभास मिलता है कि विभिन्न ऋषियों ने मंत्रों की रचना की और उनका सम्पूर्ण संकलन ऋग्वेद बना। ऋग्वेद की अनुक्रमणी के अनुसार यह साक्ष्य मिलता है कि यह वेद पौरुषेय है। अन्य वेदों के विषय में भी यही निष्कर्ष हो सकता है।
अनुक्रमणी यथार्थ है। यह ऋग्वेद के मंत्रों से पता चलता है जिसमें ऋषि अपने को वेदों का संयोजक मानते हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
‘‘कण्वों ने तुम्हारे लिए प्रार्थना की, उनकी स्तुति सुनो’’
‘‘हे इन्द्र! अश्वों के सारथी अपने प्रभावोत्पादकता हेतु गौतम का मंत्र सुनो’’
‘‘तेरे तेजवर्धनार्थ हे ऐश्वर्यवान अश्विन! मानस द्वारा प्रभावोत्पादक मंत्रों की रचना की गई है।’’
‘‘हे अश्विन! यह सार्थक उपासना मंत्र तेरे लिए गृत्समद ने उच्चारा है।’’
‘‘हे इन्द्र! तू प्राचीन है, जो अश्वों को जोतता है, तेरे लिए गौतम के वंशज नोधाओं ने नया मंत्र रचा है।’’
‘‘सो हे पुरोधा! प्रश्रय हेतु गृत्समद ने मंत्र रचा है, जैसे मनुष्य निर्माण करता है।’’
‘‘ऋषियों ने इन्द्र के लिए एक प्रभावोत्पादक रचना की है और प्रार्थना की है।’’
हे अग्नि! यह मंत्र तेरे लिए रचा है अपनी गउओं और अश्वों का सुख भोग।’’
‘‘हमारे पता इन्द्र के मित्र अयाश्य ने सप्त शीर्ष पवित्र सत्यज इस चौथे महान मंत्र का आह्वान किया है।’’
‘‘हम रहुगणों ने मधुभाषी अग्नि के लिए मंत्रोच्चार किया है। उसका गुणगान करते हैं।’’
‘‘सो आदित्यो, अदितयों और सत्ता-सम्पन्न गण प्लाति पुत्र ने तुम्हारी स्तुति की है। गया ने स्वर्गीय देवों की प्रशस्ति गाई है।’’
‘‘इसी को वे ऋषि पुरोहित यज्ञकर्ता कहते हैं, स्तुति गायक, मंत्रोच्चारक कहते हैं। वही (अग्नि के) तीन शरीरों को जानता है। वही वरदानों की पूर्ति करने वाला प्रमुख है।’’
अनुक्रमणिकाओं के अतिरिक्त और भी साक्ष्य हैं, जिनसे पता चलता है कि वेद अपौरुषेय नहीं हैं। ऋषि वेदों को मानवकृत और ऐतिहासिक रचना मानते हैं। ऋग्वेद के मंत्र पूर्ववर्ती और तत्कालीन मंत्रों के बीच भेद करते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
‘‘अग्नि जिसकी पूर्ववर्ती और साथ ही वर्तमान ऋषि भी स्तुति करते हैं, देवों को इधर आमंत्रित करेगी।’’
‘‘पूर्ववर्ती ऋषि ने संकटमोचन हेतु तेरा आह्वान किया।’’
‘‘मुझ वर्तमान ऋषि की ऋचाएं सुनो, इस वर्तमान (ऋषि) की।’’
‘‘इन्द्र! तू पूर्ववर्ती ऋषियों के लिए एक आह्लाद था, जिन्होंने तेरी अर्चना की।
जैसे पिपासु के लिए जल। इस मंत्र द्वारा मैं तेरा पुनः पुनः आह्वान करता हूं।’’
‘‘पूर्ववर्ती ऋषयों, देदीप्यमान मुनियों ने बृहस्पति के सम्मुख आह्लादपूर्ण स्वर में प्रस्तुत किया।’’
‘‘हे माधवन किसी पूर्ववर्ती या परवर्ती पुरुष आवा वर्तमान पुरुष में इतना पराक्रम नहीं।’’
‘‘क्योंकि (इन्द्र के) पूर्ववर्ती आराधक हम हो सकते हैं, वे निष्कलंक, अप्राप्य और अनाहूत थे।’’
‘‘हे शक्तिमान देव! इस हेतु लोग तेरे आराधक हैं, जैसे कि पूर्ववर्ती मध्य-युगीन और परवर्ती तेरे मित्र थे और हे परम आहूत, सभी वर्तमान वय वालों की सोच’’
‘‘इन्द्र के लिए हमारे पूर्व पिता सात नवगव ऋषि अपने मंत्रों में भोजन की याचना करते हैं।’’
‘‘हमारे नवीनतम मंत्र से गौरवान्वित हो, क्या आप हमें सम्पदा और संतत सहित भोजन देंगे?’’
ऋग्वेद के गहन अध्ययन से पता चलेगा कि उसके पुराने और नए मंत्रों के बीच अंतर है। उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैः
‘‘हमारे नवीनतम मंत्र से गौरवान्वित हो, तुम हमें सम्पदा और संतति सहित भोजन प्रदान करो।’’
‘‘हे अग्नि! तूने देवताओं के मध्य हमारी नवीनतम मंत्र आहुति की घोषणा की थी।’’
‘‘हमारे नवीन मंत्रों से तेरा वेग बढ़ेगा। नगर विध्वंसक, पुरंदर हमें प्राणवान आशीर्वाद दें।’’
‘‘शक्ति पुत्र अग्नि को मैं एक नवीन ऊर्जावान मंत्र अर्पित करता हूं जो भाव-वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।’’
‘‘जो नवीन अभिव्यक्ति अभी प्रस्फुटित हुई है, उसके द्वारा मैं शक्तिमान संरक्षक को मानस रचना प्रदान करता हूं।’’
‘‘हमारी सहायता हेतु गर्जन करने वाले पुंगव नया मंत्र तुझे उद्बोधित करे।’’
‘‘मैं पूर्वजों की भांति नवीन मंत्र द्वारा तुझे उत्प्रेरित करना चाहता हूं।’’
‘‘तेरी स्तुति में जो नए मंत्र रचे हैं, उनसे तू संतुष्ट हो।’’
‘‘हे सोभारी, इन युवा शक्तिमान, देदीप्यमान, और बुद्धिमान देवों के लिए नए मंत्रों का उच्चारण कर।’’
‘‘गर्जन करने वाले वृत्रहंता इन्द्र! हम अनेक ने तेरे लिए कई मंत्र रचे हैं, जो सर्वथा नवीन हैं।’’
‘‘मैं इस प्राचीन देव को सम्बोधित करूंगा, मेरी नई स्तुति, जिसकी उसे इच्छा है उसे वह सुने।’’
‘‘हम अश्वों, पशुधन और सम्पदा की कामना से तेरा आह्वान करते हैं।’’
इतने साक्ष्य प्रस्तुत करने पर यह सिद्ध होता है कि वेदों की रचना मनुष्य ने की है जबकि ब्राह्मणें ने कंठशक्त से यह प्रचारित किया कि वेद मानव-रचित नहीं हैं जो एक पहेली है। ब्राह्मणों द्वारा यह प्रचार किस उद्देश्य से किया गया?
III
वेदों की सत्ता क्या है? हिंदुओं में इसके संबंध में दो भिन्न मान्यताएं हैं। पहली यह कि वेद सनातन हैं। इस मान्यता की विवेचना न कर हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं क ऐसे मत का औचित्य क्या है? यदि हिंदुओं को विश्वास है कि वेद विश्व के प्राचीन रचित ग्रंथ हैं तो इस पर कोई विवाद नहीं कर सकता। परन्तु इस अद्भुत विचार को युक्तिसंगत ठहराने का कोई आधार नहीं है कि ये अनादि हैं। एक बार यह प्रमाणित हो जाने पर कि ऋषि वेदों के सृष्टा हैं तो यह प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती कि वेदों का आरम्भ उस काल से मेल खाता है, जब ऋषि हुआ करते थे। यह कहने से कि ऋषि वेदों के सृष्टा हैं यह मान्यता अनर्गल है कि वेद सनातन हैं।
इस मान्यता को जीवित रखने के लिए जो तर्क दिए गए हैं वे भी हास्यास्पद ही हैं।
सर्वप्रथम, यह उल्लेखनीय है कि यह मान्यता निराधार है कि वेदों की रचना परमात्मा ने की है। यह विश्वास नैयायिकों ने जमाया। परन्तु ऐसा लगता है कि पूर्व मीमांसा के प्रणेता जैमिनि के विचारों की हिंदुओं में मान्यता है और वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं। मीमांसकों का यह उद्धरण उल्लेखनीय है।
‘‘किन्तु (मीमांसक पूछता है) अमूर्त परमेश्वर ने किस प्रकार वेदों को अभिव्यक्त किया? जिसका तालु और उच्चारण का अन्य अंग नहीं है। इस कारण यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उसने शब्दों का उच्चारण किया होगा। यह प्रयास (नैयायिक का उत्तर) मान्य नहीं है। क्योंकि परमेश्वर अमूर्त है फिर भी अपने भक्तों को कृतार्थ करने हेतु वह रूप धारण कर सकता है, इस प्रकार यह तर्क कि वेद पौरुषेय नहीं है खण्डनीय है।
‘‘मैं अब (मींमासक कहता है) कि इन संदेहों का निराकरण करता हूं कि इस पौरुषेयत्व का क्या अर्थ है, जिसे प्रमाणित करना है। इसका तात्पर्य है, (1) किसी पुरुष द्वारा उत्पत्ति, जैसे हमारे द्वारा वेदों की उत्पत्ति, जब हम इनका दैनिक पाठ करते हैं अथवा (2) इसकी अभिव्यक्ति की दृष्टि से क्या यह कोई व्यवस्था है, जो ज्ञान अन्य साक्ष्यों से ग्राह्य है, जैसे कि हमने स्वयं ग्रंथों की रचना की है। यदि पहले अर्थ को ग्रहण किया जाए तो कोई विवाद नहीं होगा। यदि दूसरे भाव को ग्रहण किया जाए तो मेरा प्रश्न है कि क्या इस कारण वेदों को प्रामाणिक माना जाए कि हमें इनसे आभास होता है अथवा (क) इस कारण कि यह दैवी वाक्य है। अथवा (ख) यह अगम ज्ञान है। प्रथम विकल्प (क), कि वेदों की प्रामाणिकता इसलिए है कि यह व्याख्या मात्र है यदि मालतीमाधव अथवा अन्य निरपेक्ष रचनाओं के कथन को देखा जाए तो यह सही नहीं हो सकता क्योंकि यह सिद्धांत निरापद नहीं। यहीं दूसरी ओर आप कहते हैं। (ख) वेदों की सामग्री अन्य प्रामाणिक ग्रंथों से भिन्न है, इससे भी दार्शनिक सहमत नहीं होंगे क्योंकि वेद वाक्य, वह वाक्य है जिसे अन्य साक्ष्यों से प्रमाणित नहीं किया जा सकता। अब यदि यह स्थापित किया जा सके कि वेदवाक्य मात्र उसी को प्रमाणित करता है, जो अन्य साक्ष्यों से प्रमाणिक है तो हम उसी दलदल में फंस जाएंगे, जैसे कोई व्यक्ति कहे कि उसकी माता एक बंध्या नारी थी। और यदि हम यह स्वीकार कर लें कि परमेश्वर ने कोई स्वरूप धारण किया होगा तो यह मान्य नहीं होगा क्योंकि बिना किसी तत्व के उन्होंने ऐसा कुछ व्यक्त किया हो, जो अतीन्द्रिय हो। यह संभव नहीं, वह भी जब तक कोई देशकाल परिस्थिति न हो। न ही यह सोचा जा सकता है कि उनके नेत्र तथा दूसरी इन्द्रियों में ऐसे ज्ञानप्रसार की कोई शक्ति थी। पुरुष केवल वही जान सकता है जो उसने साक्षात् देखा है।
किसी सर्वज्ञ रचयिता की कल्पना से असहमत यही गुरु (प्रभाकर) ने कहा है। ‘‘जब किसी सर्वज्ञ को चुनौती दें जिसने किसी तत्व के संपूर्ण रूप को देखा हो तो वह कल्पना बहुत ही धुंधली अथवा अति सूक्ष्म होगी क्योंकि कोई भी इन्द्रिय अपने निश्चित धर्म से विरत नहीं हो सकती, जैसे श्रवणेद्रिय किसी स्वरूप को देख नहीं सकती। इस प्रकार वेदों की सत्ता किसी इहलौकिक ज्ञान से संपन्न नहीं है जो किसी संपूर्ण अमूर्त अरूप देवता से प्राप्त हुआ हो।’’
नैयायिकों के मत को निरस्त करने हेतु जैमिनि ने उपरोक्त तर्क प्रस्तुत किए हैं। तदुपरांत जैमिनि पूर्व मीमांसा में सकारात्मक तर्क देते हैं कि वे किसी भी प्रकार ब्रह्म वाक्य नहीं है किन्तु उससे भी श्रेष्ठ हैं। उनका कथनः
‘‘परवर्ती सूक्तियों में उद्घोषित किया गया है कि ध्वनि का संयोजन और उसका अर्थ सनातन है। वह चाहते हैं कि प्रमाणित करें कि यह (संयोजन) की सनातनता शब्द की सनातनता अथवा स्वर पर निर्भर है, हम प्रश्न के प्रथमांग से आरंभ करते हैं अर्थात् उस सिद्धांत से कि ध्वनि सनातन नहीं है।’’
‘‘कतिपय अर्थात् नैयायिक कहते हैं कि ध्वनि एक रचना है क्योंकि हम जानते हैं कि यह प्रयासोत्पन्न है, यदि यह सनातन होती तो ऐसा न होता।’’
‘‘कि अपने संक्रमण स्वभाव के कारण यह सनातन नहीं है अर्थात् यह एक क्षण में ही विलीन हो जाती है’’। क्योंकि इसके संबंध में हम क्रिया को ‘निकालना’ कहते हैं अथवा हम ध्वनि निकालते है।
‘‘क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों को इसकी अनुभूति तत्काल होती है और परिणामतः श्रवणेन्द्रिय के तत्काल सम्पर्क में आती है दूरस्थ और निकटस्थ। यदि यह सनातन और एकमेव होती तो ऐसा न होता।’’
‘‘क्योंकि ध्वनि के मूल और संशोधित दो रूप होते हैं ‘‘दधि अत्र’’ और ‘‘दधी अत्र’’ के रूप में प्रस्तार के नियम से मूल ध्वनि हृस्व ‘इ’ दीर्घ ‘ई’ में बदल जाती है। इस प्रकार जिस तत्व में परिवर्तन हो जाता है, वह सनातन नहीं है।’’ क्योंकि यदि अधिक संख्या में व्यक्ति समवेत ध्वनि करते हैं तो उनका विस्तार हो जाता है। फलतः मीमांसकों का सिद्धांत तथ्यहीन हो जाता है। जो कहते हैं कि ध्वनि मानव-प्रयत्न से प्रकट ही की जाती है, उत्पन्न नहीं की जाती क्योंकि सहस्रों वक्ता भी उसके अर्थ में विस्तार नहीं कर सकते, उसके स्वर का ही विस्तार करते हैं। जैसे एक सहस्र दीपक भी एक घड़े के आकार का विस्तार नहीं कर सकते।’’
मीमांसकों के इस सिद्धांत के विरुद्ध, इन आपत्तियों का निम्न सूत्रों के द्वारा उत्तर दिया है कि ध्वनि प्रकट की जाती है और उसके उच्चारण उसे उत्पन्न नहीं कर सकतेः
‘‘परंतु दोनों सिद्धांतों के अनुसार यथा जो स्वीकार करता है कि ध्वनि की उत्पत्ति होती है और दूसरे के अनुसार जो कहते है कि वह मात्र प्रकट की जाती है, दोनों के अनुसार वह क्षणिक है। परन्तु इन दोनों मतों के अनुसार अभिव्यक्ति का सिद्धांत अगले मंत्र से प्रकट है, जो यथार्थ है।’’ काल विशेष में सनातन ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती है। उसका कारण है कि कर्ता और कर्म का सम्पर्क नहीं बन पाता। ध्वनि शाश्वत है। उदाहरणार्थ-क्योंकि हम एक स्वर ‘‘क’’ से अवगत हैं जो हमें प्रायः सुनाई पड़ता है क्योंकि यह सहज प्रक्रिया है तो हमें उसकी सहज कल्पना होती है। नीरवता में जब किसी वक्ता के मुख से वायु का संयोजन और वियोजन होता है तो उससे वातावरण तरंगित होता है और इस प्रकार ध्वनि का आभास होता है जो सदैव विद्यमान रहती है। चाहे उसका आभास न भी होता हो उसके संचरण पर आपत्ति का यह उत्तर है।
‘‘ध्वनि करना’’ का अर्थ है एक क्रिया अथवा ‘‘उच्चारण’’। जैसे सूर्य का दर्शन एक साथ अनेक व्यक्ति करते हैं, वैसे ही ध्वनि भी एक साथ अनेक व्यक्तियों द्वारा सुनी जाती है। ध्वनि सूर्य की भांति सर्वव्यापी है। यह कोई सूक्ष्म तत्व नहीं है। इसलिए सभी को समान रूप से ग्राह्य है चाहे कोई निकटस्थ हो अथवा दूरस्थ।’’
‘‘सूत्र 10 में वर्णित है कि ‘‘इ’’ स्वर ‘‘ई’’ में परिवर्तित हो जाता है। वह ‘‘इ’’ का रूपांतरण नहीें है बल्कि ‘‘ई’’ एक भिन्न स्वर है। परिणाम निकलता है कि ध्वनि का रूपांतरण नहीं होता।’’
‘‘जब कई व्यक्ति समवेत स्वर में बोलते हैं तो कोलाहल ही बढ़ता है, स्वर वही रहता है। कोलाहल का अर्थ है भिन्न-भिन्न दिशाओं से वायु के संयोजन-वियोजन का एक साथ कानों में प्रवेश। इसी कारण उसका विस्तार होता है।’’
‘‘ध्वनि सनातन होनी चाहिए क्योंकि वह अन्य लोगों तक अर्थ प्रेषित करती है। यदि वह सनातन न होती तो जब तक श्रोता उसका भाव जानता, तब तक वह उपस्थित ही न रहती और इस प्रकार श्रोता भाव-ग्रहण करने से वंचित रह जाता क्योंकि वह उपस्थित ही नहीं रहती।’’
‘‘ध्वनि सनातन है क्योंकि वह सदैव सही और समान होती है और अनेक व्यक्ति उसे एक साथ समान रूप से सुनते हैं और यह नहीं माना जा सकता कि वे सभी गलती करें।’’
‘‘यदि ‘गौ’ (गाय) शब्द को 10 बार दोहराएं तो श्रोता कहेंगे कि दस बार ‘‘गौ’’ कहा गया है। वे यह नहीं कहेंगे कि ‘‘गौ’’ की ध्वनि के दस शब्द कहे गए हैं। इस प्रकार यह ध्वनि की शाश्वतता का एक और प्रमाण है।’’
‘‘ध्वनि सनातन है, क्योंकि हमारे पास यह मानने के लिए कोई आधार नहीं है कि इसका क्षय हो जाता है जैसा कि सूत्र 20 में।’’
‘‘परन्तु यह कहा जा सकता है कि ध्वनि वायु का रूपांतरण है क्योंकि इसका उद्गम वायु का संयोजन है क्योंकि शिक्षा (वेदांग) का कथन है कि ध्वनि के अनुरूप हवा निकलती है और इस प्रकार यह वायु से उत्पन्न होती है। इसलिए सनातन नहीं हो सकती।’’
इस आपत्ति का निराकरण सूत्र 22 में किया गया हैः
‘‘ध्वनि वायु का रूपांतरण नहीं है। यदि ऐसा होता तो श्रवणेंद्रिय के समक्ष कोई संगत तत्व न होता।’’
इस न्यायबद्ध सार को देखते हुए कि ‘‘ध्वनि सनातन है और वेद के शब्द भी ध्वनि हैं, इस कारण वेद भी सनातन हुए’’ हम तर्कों की कीचड़ में फंसना नहीं चाहते। आश्चर्य यह है कि ब्राह्मणों ने वेदों के सनातन होने का यह सिद्धांत क्योंकर प्रचारित किया? अपने सिद्धांत के समर्थन में उन्होंने ऐसे अनाप-शनाप तर्क क्यों गढ़ डाले? ब्राह्मणों ने यह स्वीकार क्यों नहीं कर लिया कि वेद ब्रह्मवाक्य नहीं है?
वेदों की सत्ता के विषय में दूसरी मान्यता यह है कि वे मात्र पावन और पवित्र ही नहीं हैं बल्कि वे संशय-रहित हैं।
यह समझना कठिन है कि ब्राह्मणों ने वेदों को संशय-रहित बताने के प्रयास क्यों किए?
नियमों के संदर्भ में वेदों में कोई अटल भाव नहीं है। वेदों में धर्म कौ नैतिक भावना प्रदान नहीं की। वेदों के तीन अंशों को मुश्किल से ही नैतिक परिधि में ढाला जा सकता है।
पहला यम-यमी संवाद है जो भाई-बहन थे:
‘‘यमी ने यम से कहा कि मैं तुझे प्रणय-निमंत्रण देती हूं। हम अविरल पारावार से निकल कर इस भूखंड के सूनेपन में अकेले हैं, तू मुझे अपना प्रणय सुख दे।’’ यम को बहन से सहवास करने की इच्छा नहीं थी, उसने कहा, ‘‘तेरा प्रिय तुझसे प्रणय का इच्छुक नहीं है क्योंकि हम दोनों सहोदर हैं।’’ तब यमी बोली, ‘‘सभी अनश्वर संसार का आनन्द लूटते हैं। नश्वरों को यह सुख उपलब्ध नहीं होता। तू मुझसे वैसे ही संसर्ग कर जैसे विधाता ने अपनी पुत्री से किया था। तू मेरी देह से वही आनन्द लूट।’’ यम ने पलटकर उत्तर दिया ‘‘जो अतीत में हो चुका है, हमें वैसा नहीं करना चाहिए क्योंकि हम सत्यवादी हैं। असत्य कैसे कहेंगे?’’ यमी आतुर थी। वह बोली, ‘‘जो परम स्वरूप है, उसी देव ने गर्भ में ही हमारी रचना मिथुन-युगल के रूप में की है, भला उसी इच्छा के विपरीत कोई जा सकता है! धरती और आकाश हमारा मिलन देखने को आतुर हैं।’’ यम सहमत नहीं हुआ। आरम्भ की बात कौन जानता है और कौन बता ही सकता है? परन्तु यमी का मन नहीं मान रहा था। उसने फिर कहा, ‘‘मेरी इच्छा तुमसे सहवास की हो रही है। तू उसे पूरा कर, मैं अपने प्रियतम पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती हूं। हमारा मिलन होना ही चाहिए, वैसे ही जैसे रथ के दो पहिए होते हैं। ‘‘यम ने यमी को समझाया’’ परमात्मा ने धरती पर अनेक जीव बनाए हैं, तू मेरे सिवाय किसी को भी अपना ले और उसी प्रकार चल जैसे रथ के दो पहिए चलते हैं। फिर यम ने यह भी समझाया कि अब वह समय आ गया है कि बहन उसी को पति चुनेगी, जो उसका भाई नहीं होगा। इसलिए हे शुभे, किसी अन्य का हाथ थाम और आनन्द ले।’’ यमी ने कातर होकर कहा, ‘‘क्या वह भी कोई भाई है जिसकी बहन को कोई नाथ न हो। क्या कोई ऐसी बहन होगी जसे ऐसे दुर्भाग्य का सामना करना पड़े। मेरी उत्कट इच्छा है तू उसे पूरा कर, आ और मुझमें एकाकार हो जा।’’ यम अटल रहा और दो टूक उत्तर दिया, ‘‘मैं तुझसे कभी सहवास नहीं करूंगा। जो बहन से संसर्ग करता है, वह पापी कहलाता है। मेरे सिवाय किसी अन्य से देह-सुख प्राप्त कर। तेरे भाई का ऐसा करने का कोई विचार नहीं है।’’ यमी ने अंत में दुखी मन से कहा, ‘‘यम, तू बड़ा निर्बल हृदय है। तू मेरे मन की, मेरे मानस की स्थिति नहीं समझता। क्या तुझसे कोई नारी ऐसे लपटेगी, जैसे घोड़े से तंग लिपटता है, अथवा जैसे कसी वृक्ष से कोई लता लिपट जाती है।’’ ‘‘यम ने अंत में कहा, तू भी किसी अन्य पुरुष के साथ वैसे ही लिपट जा जैसे वृक्ष से लता लिपट जाती है। उसका प्रणय प्राप्त कर, वह भी तुझसे वैसे ही मिलन को आतुर हो, तक तू अतीव सुख पा।’’ यम ने उसका और भी शुभ चाहा, उसने कहाः
‘‘राक्षस हंता अग्नि हमारी प्रार्थना स्वीकार करे, दुरात्मा से त्रण दे, जो व्याधि के रूप में तेरे भ्रूण को आक्रांत कर सके, जो अंतःकाष्ठ की भांति तेरे गर्भाशय को निरस्त करे।’’
‘‘अग्नि देव हमारी अर्चना को स्वीकार करें, नरभक्षियों को नष्ट करें जो व्याधि के रूप में तेरे गर्भाशय पर दुष्प्रभाव डालते हैं, जो अंतःकाष्ठ की भांति तेरी कोख को रीती कर सकते है।’’
‘‘दुरात्मा से हमें त्रण दे, जो पुंसत्व का हरण करते हैं। गर्भ ठहरते ही उसे विस्थापित करते हैं, जो नवजात शिशु का हनन करना चाहते हैं।’’
‘‘हमें दुरात्मा से त्रण मिले जो तेरी जंघा को विलग करता है, जो पति-पत्नी के बीच बाधा बनता है, जो तेरी कोख में प्रविष्ट होता है। बीज-हरण करता है। हमें उस दुरात्मा से त्रण मिले, जो भ्राता, अथवा पति इतर प्रियतम के रूप में तुझ तक पहुंचता है और गर्भपात करना चाहता है।’’
‘‘हमें दुरात्मा से त्रण मिले जो तुझे नींद या अंधेरे में छल लेता है, तुझ तक आकर गर्भपात कर देता है।’’
वेदों में दो चीजें हैं, पहली यह कि उनमें ऋषियों की आशाएं और आकांक्षाएं समाविष्ट जैसा कि म्यूर ने कहा हैः
‘‘इस पूरी रचना का स्वरूप और इनसे प्राप्त प्रमाणों के अनुसार जिन परिस्थितियों में ये रचे गए, उनसे पता चलता है कि आदि कवियों के सहज रूप में व्यक्तिगत अभिलाषा और मनोभावों का प्रकटीकरण था जिन्होंने सर्वप्रथम इन्हें गाया था। इनमें आर्य ऋषियों ने अपने प्राचीन देवताओं की तरह-तरह से स्तुति गाई और उन्हें संतुष्ट होने का आह्वान किया। ऐसे अनेक वरदान मांगे, जिनकी मानव मात्र को लालसा होती है, जैसे स्वास्थ्य, सम्पदा, चिरायु, पशुधन, संतति, शत्रु-विजय, पाप-मुक्ति और शायद स्वर्ग सुख भी।’’
यही दृष्टिकोण निरुक्त के लेखक यास्क का भी है, जो कहते हैं:
(‘‘पूर्वोक्त खंड में चार प्रकार की ऋचाएं हैं) (क) जो देवता की अनुपस्थिति में संबोधित हैं, (ख) जिसमें उसको समक्ष जानकर संबोधन किया गया है, (ग) जिसमें आराधक को उपस्थित और आराध्य को अनुपस्थित माना गया है। वे अत्यधिक हैं। (घ) जबकि, जो स्वगत हैं, वे विरले ही हैं। ऐसा भी हुआ है कि देवता की प्रशंसा बिना वरदान की कामना के लिए की गई है। जैसे कि मंत्र (ऋग्वेद) 1.32 ‘‘मैं इन्द्र के शौर्य का वर्णन करता हूं।’’ आदि। फिर बिना स्तुति किए वरदान की कामना की गई है, जैसे ‘‘मैं अपने चक्षुओं से अच्छा देखूं, मेरा मुख कांतिमान हो और कानों से भली भांति सुनूं।’’ ऐसा अथर्ववेद (यजुर) और बलि सूत्रों में बार-बार कहा गया है। फिर इसमें हम शपथ और शाप भी पाते हैं। (ऋग्वेद 7.104,15) ‘‘यदि मैं यातुधान हूं तो आज ही मैं मर जाऊं’’ आदि। फिर हम पाते हैं कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को दर्शाने वाले मंत्र (ऋग्वेद दस, 129,2) तब मृत्यु नहीं थी न अमरत्व आदि। कुछ परिस्थितियों में विलाप भी उपलब्ध है, जैसे कि मंत्र (ऋग्वेद दस, 95,14) ‘‘रूपवान देवता प्रस्थान करेगा और अब कभी नहीं लौटेगा आदि। कहीं लांछन और प्रशंसा है, जैसा कि (ऋग्वेद- दस, 117,6) ‘‘वह व्यक्ति जो अकेला खाता, अकेला पाप-कर्म करता है आदि’’। द्यूतक्रीड़ा के विषय में मंत्र है (ऋग्वेद- 10, 34,13) जिसमें द्यूतक्रीड़ा की निंदा की गई है और कृषि कार्य की प्रशंसा। इस प्रकार जिन उद्देश्यों से ऋचाओं की सृष्टि हुई, वे विविध प्रकार की हैं।’’
सूक्त 12 (155वां)
देव, राजयक्षमा का उपचार हैः ऋषि है कश्यपपुत्र विव्रीहन;छंद अनुष्टुप है।
- मैं तेरी आंखों, तेरे शीर्ष, तेरी नासिका, तेरे कर्ण, तेरी ठोड़ी, तेरी मानस, तेरी जिव्हा का रोगहरण करता हूँ।
- मैं तेरी ग्रीवा, तेरी शिराओं, तेरी अस्थियों, तेरे संधिक्षेत्रें, तेरे बाहुओं, तेरे स्कंधों और तेरी कलाइयों का रोगहरण करता हूँ।
- मैं तेरी अंतड़ियों, तेरी गुदा, तेरे उदर, तेरे वृषक, तेरे यकृत और तेरे अन्य अंगों का रोगहरण करता हूँ।
- मैं तेरी जंघाओं, तेरे घुटनों, तेरी एड़ियों, तेरे पैर के पंजों, तेरी कटि, तेरे नितम्बों और तेरे गुप्तांगों का रोगहरण करता हूँ।
- मैं तेरे मूत्रमार्ग, तेरे मूत्रशय, तेरे बालों, तेरे नखों और तेरी पूरी देह का रोगहरण करता हूँ।
- मैं तेरे प्रत्येक अंग, प्रत्येक बाल, प्रत्येक जोड़, जहां भी वह उत्पन्न हो, तेरी पूरी देह का रोगहरण करता हूँ।
जैसा कि प्रोफेसर विल्सन समझते हैं, ऋग्वेद (सबसे विशाल ग्रंथ) में छलनी से मुश्किल से कोई ऐसा उदाहरण मिलेगा जिससे प्रकट होता हो कि उसमें कोई सैद्धांतिक अथवा दार्शनिक विवेचन है। उसमें विभिन्न परवर्ती सिद्धांतों का संकेत ही नहीं, उसमें पुनर्जन्म की ओर भी कोई इंगित नहीं है, न इससे संबद्ध किसी अन्य सिद्धांत का, न ही विश्व की बार-बार सृष्टि का। आर्यों के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालने के लिए वेदों में पर्याप्त सामग्री मिलती है। इसके लिए वे उपयोगी हो सकते हैं। यह आदिम जीवन का चित्रण है। उनमें प्रगति का कोई प्रसंग नहीं, उनमें दोष अधिकांश और गुण न्यूनतम है।
वेदों के सार और विषयवस्तु को देखते हुए यह आश्चर्यजनक है कि ब्राह्मण क्योंकर इस अंधविश्वास को संशय-रहित मानते हैं।
यदि मंत्र-सृष्टा ऋषि स्वयं दावा करते तो संशय-रहित होने के सिद्धांत का कोई औचित्य ठहराया जा सकता था। किन्तु यह स्पष्ट है कि ऋषियों ने ऐसा आडम्बर नहीं रचा। इसके विपरीत उन्होंने कई बार जिज्ञासा-स्वरूप अपनी अज्ञता को स्वीकार किया है। ऋग्वेद के निम्नांकित मंत्र उनकी भावना के प्रतीक हैं:
‘‘अज्ञ हूं, मेरे मानस (ज्ञान) से परे हैं, मैं देवताओं का अज्ञात आवास जानना चाहता हूं, ऋषि ने अपना जनेऊ बछड़े के खुर तक खींचा।’’ [6. अज्ञ (हूं) मैं उन ऋषियों से पूछता हूं जिन्हें इस विषय में ज्ञान है, अनजान (मैं पूछता हूं) कि मैं जानूं कि अजन्मों के रूप में क्या है जो इन छह लोकों को कैसे सँभालते हैं?] 37. मुझे पता नहीं कि मैं ऐसा हूं, मुझे आश्चर्य होता है कि मेरा ज्ञान सीमित है, जब बलि से प्राप्त प्रथम पुत्र (सत्य) मुझे प्राप्त हुआ, तब मैं उस शब्द का आनन्द लेता हूं।’’
‘‘वन क्या थे, वृक्ष क्या थे, उन्होंने जिससे स्वर्ग और पृथ्वी बनाई, जो अब तक अक्षय विद्यमान हैं, कितने दिन, कितने प्रातः बीत चुके हैं?’’
‘‘इन दोनों स्वर्ग और धरा में से कौन पहला है? कौन अंतिम है? ये कैसे उत्पन्न हुए? हे ऋषि, कौन जानता है?’’
‘‘कितनी अग्नियां हैं? कितने सूर्य हैं? कितने सवेरे हैं? कितने जल हैं? पिता, मैं तुमसे उपहास नहीं कर रहा हूं। मैं ऋषि सचमुच पूछ रहा हूं जिससे मैं जान सकूं।’’
- ‘‘वहां किरणें तिर्यंक फैलती हैं, यह नीची हैं अथवा ऊंची? वहां जनन शक्ति थी और महान शक्तियां थीं प्रयत्न स्वाध्याय नीचे है या ऊपर 6. कौन जानता है यह किसने बनाया है? यह सृष्टि कब हुई? कहां से आई? परमात्मा इस ब्रह्मांड की सृष्टि के पश्चात् जन्मा और कौन जानता है यह कब रची गई? क्या किसी ने इसकी रचना की? अथवा नहीं? जो सर्वोच्च स्वर्ग में रहता है, उसने यह ब्रह्मांड रचा। वह सचमुच जानता है अथवा नहीं?’’
इस अमोघता या संशयरहित सिद्धांत के बारे में कुछ अन्य बिंदु भी हैं, जिन पर ध्यान देना जरूरी है।
IV
प्रथम प्रश्न यह है कि यह मान्यता मौलिक है अथवा भारत के इतिहास में कालातीत में जड़ दी गई। सामान्यतः यह मत प्रकट किया जाता है कि यह एक मूलभूत सिद्धांत है। सर्वप्रथम धर्मसूत्रों में इस विषय पर प्रकाश डाला गया है जो सर्वप्रथम विधिग्रंथ हैं। उनका संकेत है कि यह विकास सही नहीं है। वेदों की संशयहीनता के संबंध में गौतमधर्म सूत्र ने निम्नांकित नियम प्रतिपादत किए हैं:
‘‘वेद पवित्र विधान के उद्गम हैं’’ 1.1
‘‘और उनकी परम्पराएं तथा रीतियां जो (वेदों को) जानते हैं’’- 1.2
‘‘यदि समान (अधिकारों वाली) शक्तियों के बीच संघर्ष हो किसी एक का अनुसरण करें, सुखी रहें’’- 1.4
वशिष्ठ धर्म सूत्र का वचार इस प्रकार हैः
‘‘पवित्र विधान पाठों और ऋषि परम्पराओं से निर्धारित किए गए हैं’’- 1.4.
‘‘(नियमों के अनुसार) निश्चय न हो पाने पर इन (दो सूत्रों) शिष्टों की सत्ता सर्वोपरि है।’’- 1.5.
‘‘जो कामनारहित हैं शिष्ट (कहलाते हैं)- 1.6.
बौधायन का मत निम्न प्रकार हैः (प्र 1, अध्या 1 कंडिका 1)
- प्रत्येक वेद में पवित्र नियमों की शिक्षा है।
- हम उसके अनुसार व्याख्या करेंगे।
- (पवित्र विधान) की शिक्षा परम्पराओं में है। (स्मृति का दूसरा स्थान है।)
- शिष्टों के व्यवहार का तीसरा स्थान है।
- शिष्ट निःसंदेह (वे हैं) जो निस्पृह ‘ईर्ष्या से मुक्त’ दर्प से मुक्त, मात्र दस दिन के लिए अन्न-संग्रह से संतुष्ट होते हैं, लोभ से मुक्त, पाखण्ड, अज्ञान, स्वार्थ, अनिश्चय बुद्धि तथा क्रोध से रहित हैं।
- जो शिष्ट (कहलाते हैं) जिन्होंने पवित्र विधान के अनुसार वेद-वेदांग का अध्ययन किया है, जो जानते हैं कि इनसे किस प्रकार संदर्भ लिए जाएं, मान्य पाठ से भावानुकूल साक्ष्य प्रस्तुत कर सकें।’’
- उनके विफल हो जाने पर न्यूनतम दस सदस्यों की सभा (विधान के विवादित प्रश्नों पर निर्णय दें।)
- अब वे उद्धृत करते हैं (निम्नांकित मंत्र): ‘‘चार पुरुष, उनमें से प्रत्येक किसी वेद मीमांसा का ज्ञाता हो, वेदांग को जानता हो, जो पवित्र विधान का वाचन करें, एवं विभिन्न तीन सिद्धांतों के अनुयायी, तीन ब्राह्मणों की मिलकर एक सभा बनती है, जिसमें न्यूनतम दस सदस्य हों।’’
- इसमें पांच अथवा तीन अथवा एक निर्विवाद व्यक्ति हो सकता है जो (सम्बद्ध प्रश्न पर) पवित्र विधान के अनुकूल निर्णय करें। किन्तु एक हजार मूर्ख मिलकर भी निर्णय नहीं कर सकते।
- काष्ठ निर्मित हाथी, चमड़े से बना मृग, अशिक्षित ब्राह्मण इन तीनों में कुछ नहीं होता, ये दर्शनीय पदार्थ हैं। आपस्तम्ब धर्म सूत्र द्वारा लिया गया दृष्टिकोण स्पष्ट है जो निम्न सूत्र से लिया गया हैः
‘‘हम सब बताएंगे कि गुणकर्म क्या है? जो दैनिक जीवन के व्यवहार का अंग बनते हैं।’’ 1.1.
‘‘इन अधिकारों (उपरोक्त कर्तव्य पालन के) को सहमति (समझौता) कहते है। जो विधि को समझते हैं’’। 1.2.
‘‘और (शीर्ष अधिकारी) मात्र वेद हैं।’’ 1.3.
धर्मसूत्रों का विवेचन प्रकट करता है कि वेदों की संशयहीनता की मान्यता एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। इससे प्रदर्शित होता है कि विवाद की बात पर इनमें से किसे संशय-रहित माना जाए? 1. वेद, 2. परंपरा (स्मृति), 3. शिष्टों के व्यवहार, 4. सभा में समझौता; ये चार अधिकार केन्द्र थे। यह समय वशिष्ठ और बौधायन के धर्मसूत्रों का काल था। गौतम के काल में ही वेदों की एकछत्र सत्ता स्थापित हुई। एक ऐसा समय भी था जब सभा का निर्णय सत्ता का केन्द्र था। यह बौधायन का युग था। अंत में विवेचन से यह भी प्रकट होता है कि एक ऐसा समय था जब वेदों को अधिकार संपन्न ग्रंथ नहीं माना जाता था, बल्कि सत्ता का केन्द्र विद्वानों की सभा का निर्णय हुआ करता था। यह काल था, जब आपस्तम्ब1 ने अपने धर्मसूत्रों की रचना की अर्थात् ईसा से 600 से लेकर 200 वर्ष पूर्व2 तक।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वेदों को जानबूझकर सनातन बनाने का प्रयास किया गया। जिनको पहले ऐसा नहीं माना जाता था। अब प्रश्न यह है कि वे कौन-सी परिस्थितियां और क्या इरादे थे, जिनके अनुसार ब्राह्मणों ने यह प्रचारित किया कि वेद एकछत्र और परमसत्ता के केन्द्र हैं।
वेदों की सनातनता से दूसरा सम्बद्ध यह है कि ब्राह्मणों ने भेदभाव क्यों बरता और वेदों के कुछ अंशों तक ही संशयहीनता का सिद्धांत क्यों लागू किया? पूरे वैदिक साहित्य को इस श्रेणी में क्यों नहीं रखा? इस प्रश्न को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि वैदिक साहित्य का क्या अर्थ है? ‘‘वैदिक साहित्य’’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में है। उसके अंग हैं- (1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक, (4) उपनिषद और (5) सूत्र। जब इसका विस्तृत अर्थ किया जाता है तो इसमें दो अंग और जुड़ जाते हैं। (6) इतिहास, और (7) पुराण।
पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि एक समय था जब यह सारा साहित्य एक ही श्रेणी में आता था और इनके बीच उद्घाटित अथवा लौकिक, अलौकिक अथवा मानवीय, तथा प्राधिकृत अथवा अप्राधिकृत के आधार पर कोई भेद नहीं था। यह बात शतपथ ब्राह्मण से स्पष्ट है, जो कहता हैः
‘‘पुरुष प्रजापति की इच्छा हुई कि ‘‘मेरी अभिवृद्धि हो, मेरा विस्तार हो’’। वे समाधिस्थ हो गए, उन्होंने घोर तप किया। इस तप से उन्होंने त्रिदेव विज्ञान-प्रज्ञा की रचना की। यह उनका आधार बना। उन्होंने कहा- ‘प्रज्ञा ब्रह्मांड का मूल्य है’। वेदों के ज्ञान के पश्चात् पुरुष को आधार मिला कि प्रज्ञा उसका मूल है। इस आधार पर प्रजापति ने घोर तप किया। (9) उन्होंने वाच से जल कर रचना की। उसके विस्तरण से जल
_______________________
- आपस्तम्ब धर्मसूत्र में वेदों के प्रसंग से भ्रम नहीं होना चाहिए। आपस्तम्ब वेदों की सत्ता स्वीकार नहीं करता। उसमें वेदों का ज्ञान परिषद की सदस्यता की अर्हता भर है जिसकी मान्यता ही वैध है।
- मैक्समूलर के अनुसार यह सूत्रों का युग है। आपस्तम्ब प्राचीनतम है।
‘‘अप्प’’ कहलाया। उसकी सर्वत्र व्यापकता से वह ‘‘वारि’’ बना। (10) उन्होंने चाहा, ‘‘मेरा जल से विस्तार हो’’। इस त्रिवेद विज्ञान से वे जल से प्रविष्ट हुए, तब एक अण्डज उभरा। उन्होंने उसे प्राणवान किया और कहा, ‘‘भव भव पुनर्भव’’। तब प्रज्ञा का जन्म हुआ। त्रिवेद विज्ञान। फिर पुरुष ने कहा, ‘प्रज्ञा ब्रह्मांड की प्रथम सृष्टि है।’ पुरुष के समक्ष सर्वप्रथम प्रज्ञा की रचना हुई। इसलिए यह उसका मुख बनी। इस प्रकार आगे वह कहते हैं ‘‘वह अग्नि के समान है क्योंकि प्रज्ञा अग्नि का मुख है।’’
‘‘आर्द्र काठ से उपजी अग्नि उससे उठे भिन्न-भिन्न धुंए। उनकी श्वास प्रक्रिया से महान ऋग्वेद बना, यजुर्वेद बना, सामवेद बना, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, विज्ञान, उपनिषद, श्लोक, सूत्र विभिन्न प्रकार के भाष्य बने। यह सब उसका श्वास बने।’’
परन्तु जब ब्राह्मणों ने संशय-रहित होने के सिद्धांत को स्थापित करने का मन बनाया तो उन्होंने वैदिक सहित्य को दो भागों में विभक्त कर दिया। 1. श्रुति और 2. अश्रुति। प्रथम विभाजन में उन्होंने आठ अंगों में से केवल दो को श्रेष्ठ रखा। संहिता और ब्राह्मण, शेष को उन्होंने अश्रुति घोषित कर दिया। यह बताना संभव नहीं कि यह अंतर कब उत्पन्न हुआ परन्तु यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है कि किस आधार पर यह भेद किया गया। आरण्यक और उपनिषद् क्यों छांट कर बाहर कर दिए गए? पहले समझा जा सकता है कि इतिहास और पुराणों को श्रुति से क्यों वंचित किया गया? जिस समय यह भेद किया गया, तब वे इतने आरम्भिक और अविकसित थे कि उन्हें शायद ब्राह्मणों में सम्मिलित कर लिया गया।
साथ ही यह बात भी समझ में आती है कि आरण्यकों का श्रुति के अंग के रूप में उल्लेख क्यों नहीं किया गया? ब्राह्मणों के अंग थे और शायद इसी कारण यह उल्लेख करना अनावश्यक था कि यह श्रुति का अंग है, उपनिषद और सूत्रों का प्रश्न एक पहेली ही बना हुआ है। इन्हें श्रुति से अलग क्यों रखा गया? परन्तु सूत्रों का मामला अलग है। वे श्रुति की श्रेणी से निश्चित रूप से विलग कर दिए गए जिसको समझना बुद्धि से परे है। यदि यह बात तर्कसम्मत है कि ब्राह्मणों को श्रुति में सम्मिलित किया जाना चाहिए, उसी कसौटी पर यह बात खरी नहीं उतरती कि सूत्रों को शामिल क्यों न किया जाए? जैसा कि प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं:
‘‘हम इस बात को समझ सकते हैं कि किस प्रकार कोई देश अपनी राष्ट्रीय काव्य रचना का श्रेय किसी अलौकिक पुरुष को दे सकता है? विशेष रूप से तब, जबकि उस काव्य में देवों को सम्बोधित प्रार्थनाएं और मंत्र समाविष्ट हों। परन्तु ब्राह्मण ग्रंथों के गद्य-साहित्य के विषय में यह कहना कठिन है। ब्राह्मण ग्रंथ स्पष्ट रूप से मंत्रों की अपेक्षा बाद की रचनायें हैं। इसी कारण इन्हें श्रुति में समाहित किया गया होगा कि इनकी सामग्री ब्रह्मज्ञान युक्त है। ब्राह्मण-ग्रंथों के अधिकांश दावों के बारे में यह कल्पना की गई होगी क इसकी रचना दैवी है, जिनका उद्गम सामान्य पद्य अथवा मंत्र नहीं हो सकते। किन्तु हमें इस तर्क को मान्यता देने की आवश्यकता नहीं, जिसके कारण ब्राह्मण-ग्रंथों ने अपने को मंत्र-रचना के समकालीन माना है। इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि ब्राह्मण-ग्रंथों और मंत्रों का रचनाकाल अधिक प्राचीन है। तो हम इस सहज विचार को क्यों अस्वीकार कर दें कि यदि सूत्रों और भारत के लौकिक साहित्य की तुलना की जाए तो उनका महत्व समान बनता है। ऐसी घटना सामान्य है जहां पवित्र ग्रंथों का यह नियम है कि बाद की रचनाओं को प्राचीन रचनाओं से जोड़ दिया जाता है, जैसा कि ब्राह्मण-ग्रंथों के साथ हुआ। किन्तु हम कठिनाई से ही यह कल्पना कर सकते हैं, जब तक कोई पक्ष इन तिरस्कृत रचनाओं के सिद्धांत विशेष की प्रामाणिकता अमान्य घोषित करने के लिए प्रयत्नशील न हो, पुराने अंशों को पवित्र रचनाओं से हटा दिया जाए और उन्हें बाद की रचनाएं बना दिया जाए। सूत्रों के परवर्ती साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। ऐसी कल्पना का कोई आधार नहीं है। हमें ब्राह्मण और मंत्रों की अपेक्षा उनके परवर्ती होने के सिवाय ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि सूत्रों को श्रुति न बनाया जाए। क्या ब्राह्मण ग्रंथकारों को स्वयं ज्ञात था कि ऋषियों की अधिकांश रचनाओं और ब्राह्मण ग्रंथों के उद्भव तक युगों बीत चुके थे? इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है, किन्तु जिस दुस्साहस के साथ भारत के ब्रह्मज्ञानियों ने ब्राह्मण-ग्रंथों को वही पद और मंत्रों के समान उनका काल-निर्धारण किया, उससे यह प्रकट होता है कि इसका कोई विशिष्ट कारण रहा होगा कि सूत्रों को उतनी ही पावनता और प्रामाणिकता न दी जाए।’’
तीसरा प्रश्न उन परिवर्तनों से संबद्ध है जिसके अनुसार श्रुति और उनकी संशयहीनता की श्रेणी निर्धारित हुई। मनु ने ‘ब्राह्मणों’ को श्रुति की श्रेणी से अलग1 कर दिया जैसा कि उसकी स्मृति से स्पष्ट हैः
‘‘श्रुति का अर्थ है, वेद और स्मृति का अर्थ है विधान, इनकी विषय-सामग्री पर तर्क नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें कर्त्तव्य-बोध है। वे ब्राह्मण, जो बुद्धिवादी लेखों पर आधारित हैं, वे ज्ञान के इन दो स्रोतों की निंदा करेंगे, उन्हें संशयवादी और निंदक जानकर बहिष्कृत किया जाए। जो कर्त्तव्य-बोध चाहते हैं, उनके लिए श्रुति
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- इसमें विवाद हो सकता है कि वेद में ब्राह्मण को सम्मिलित किया गया है, जो तथ्य भी है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मनु ने स्मृति का प्रयोग प्रतिबंधित रूप में किया, जिससे कि ब्राह्मण बाहर रहा। इसे इस तथ्य से भी बल मिलता है जैसा कि मनुस्मृति में ब्राह्मण का कोई संदर्भ नहीं है सिवाय एक स्थान पर (4.100) जहां वह कहता है कि केवल मंत्र के भाग के अध्ययन की जरूरत है। सर्वोच्च सत्ता है।’’
चौथा प्रश्न पुराणों के उस दावे से संबंधित है, जो पुराणों को रचना की दृष्टि से वेदों से उच्च स्थान देता है। वायु पुराण का कथन1 हैः
‘‘सर्वप्रथम सभी शास्त्र, पुराण ब्राह्मण के मुख से प्रस्फुटित हुए। तदुपरान्त उनके मुख से वेद।’’ मत्स्य पुराण वेदों से केवल पूर्ववर्ती होना ही घोषित नहीं करता बल्कि वह उनकी गुणवत्ता, सनातनता और स्वर के साथ पहचान को भी श्रेष्ठ मानता है। पहले केवल वेदों को इन गुणों से सम्पन्न कहा गया था। वह कहता2 हैः
‘‘सर्वप्रथम, अविनाशी पितामह (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए, फिर वेद, उसके अंगोपांग तथा उनके पाठ के विभिन्न साधन जन्मे और प्रकट हुए। ब्रह्मा ने जिन शास्त्रों का प्रस्फुटन किया उनमें सहस्त्रों कोटि मंत्रों के विस्तृत आयाम वाले शाश्वत ध्वनि जनित शुद्ध शास्त्र, पुराण प्रथम जो शुरू के जाप से जन्मे, फिर वेदों का उद्गम हुआ। तभी मीमांसा और न्याय और अन्य प्रमाण जन्मे 5- उनसे (ब्रह्मा) जो वेदों के अध्ययन में आस्थावान थे, संतति के इच्छुक थे उनके मानस-पुत्र जन्मे। वे इस कारण मानस-पुत्र कहलाए कि सर्वप्रथम उनके मानस से प्रस्फुटित हुए थे।’’
भागवत पुराण वेदों के समान प्रामाणिकता का दावा करता है-
‘‘ब्रह्मरात्र का निर्णय है कि पुराण भागवत कहलाता है, जो वेदों के समान है।’’
ब्रह्मवैवर्त पुराण ने स्पष्टतः दावा किया है वह वेदों से श्रेष्ठ है। वह कहता हैः
‘‘जिस श्रद्धेय ऋषि के विषय में आपने प्रश्न किया है और जो आपकी इच्छा है, पुराणों का सार अति विख्यात ब्रह्मवैवर्त पुराण है जो समस्त पुराणों और वेदों की त्रुटियों का परिष्कार करता है इस को मैं जानता हूं।’’
इस निरूपण से वेदों के संबंध में अनेक पहेलियां उपजती हैं। यह तीन पहेलियां तो हैं ही कि —- ब्राह्मण इस बात पर क्यों बल देते हैं कि वेदों की सत्ता सनातन है, कि वे अपौरुषेय और बिना किसी देवता के उत्पन्न हुए और वे संशय-रहित हैं। इसके अतिरिक्त, वेदों के विषय में एक और पहेली है कि एक समय वेदों की कोई सत्ता नहीं थी और ना ही वे संशय-रहित थे। ब्राह्मणों को, इस बात की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई कि उन्हें संशय-रहित घोषित करें। ब्राह्मणों ने सूत्रों को श्रुति की श्रेणी में क्यों विलग किया? ब्राह्मणों ने वेदों के संशय-रहित होने के सिद्धांत को क्यों किनारे कर दिया और पुराणों को वह स्थान दे डाला?
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- म्यूर द्वारा संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ. 47 पर उद्धृत।
- वही. पृ. 28