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परिशिष्ट-1 – राम और कृष्ण की पहेली (भाग III – राजनैतिक)

राम वाल्मीकि कृत रामायण के नायक हैं। रामायण का कथानक बहुत संक्षिप्त है, साथ ही यह सरल भी है। इसमें कोई सनसनीखेज बात नहीं है।

राम दशरथ के पुत्र हैं, जो आधुनिक बनारस के अयोध्याराज के शासक थे। दशरथ की तीन पत्नियां थीं। कौशल्या, कैकेयी तथा सुमित्र तथा कई सौ रखैलें थीं। कैकेयी का दशरथ से विवाह, कुछ शर्तों पर हुआ था, जो विवाह के समय निश्चित नहीं की गई थीं और दशरथ वचनबद्ध थे कि कैकेयी जब कोई शर्त उनके सम्मुख रखेगी, वह उन्हें माननी होगी। दशरथ दीर्घकाल तक निःसंतान रहे। वे राज का उत्तराधिकारी पाने के लिए अधीर थे। यह देखकर कि उसकी तीनों रानियों में से किसी से भी पुत्र उत्पन्न होने की आशा नहीं है, उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करने का निश्चय कया और ऋष्य-श्रृंग को यज्ञ हेतु बुलाया। ऋषि ने यज्ञ सम्पन्न करके पिंड नामक वस्तु तैयार की और दशरथ की तीनों पत्नियों को खाने के लिए दी। पिण्ड खाकर तीनों रानियां गर्भवती हो गईं और पुत्रों को जन्म दिया- कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत और सुमित्र से दो पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। बाद में राम का सीता से विवाह हो गया। जब राम वयस्क हो गए तो दशरथ ने राम को राजपाट सौंपकर परिजनों को त्यागने का निश्चय किया। जब यह बात चल रही थी तो कैकेयी ने प्रश्न उठाया के अब वह उस वचन की पूर्ति चाहती है जो विवाह के समय दशरथ ने दिया था। उससे पूछे जाने पर कैकेयी ने बताया कि राम के स्थान पर उसके पुत्र को राज दिया जाए और राम को 12 वर्ष का वनवास। दशरथ बहुत हील हुज्जत के बाद मान गए। भरत अयोध्या के राजा हो गए और राम अपनी पत्नी सीता तथा सौतेले भाई लक्ष्मण के साथ वन को प्रस्थान कर गए। जब वे वनों में रह रहे थे तो लंकाधिपति

यह पक्की जिल्द की फाइल में रखी 49 पृष्ठों की टंकित प्रति है जिसके साथ ‘सिम्बल्स आफ हिंदुइज्म’ की पाण्डुलिपि भी थी। मूल विषयसूची में यह पहेली नहीं दी गई। इसीलिए इसे परिशिष्ट के रूप में शामिल किया गया है। – संपादक

टिप्पणी इस अध्याय में व्यक्त विचारों में आवश्यक नहीं कि सरकार की सहमति हो।

रावण ने सीता का हरण कर लिया और उन्हें अपनी पत्नी बनाने की इच्छा से अपने महल में ले गया। तब राम ने लक्ष्मण को सीता की खोज आरम्भ करने को कहा। इस बीच उन्हें वानर जाति के दो प्रमुख सुग्रीव और हनुमान मिले। उन्होंने उनसे मैत्री कर ली। उनकी सहायता से सीता का पता मिल गया। उन्होंने लंका को कूच किया। युद्ध में रावण को हराया और सीता को मुक्त करा लिया। सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या वापस आ गए। उस समय तक चौदह वर्ष की अवधि बीत चुकी थी और कैकेयी की शर्त पूरी हो चुकी थी। परिणामस्वरूप भरत ने राज त्याग दिया अैर राम अयोध्या के राजा बन गए।

वाल्मीकि के अनुसार रामायण की कथा का सार यही है।

इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे राम को पूजनीय बनाया जा सके। यह मात्र एक आज्ञापालक और कर्त्तव्यपालक व्यक्ति हैं। परन्तु वाल्मीकि को राम में कुछ विलक्षण लगा, तभी उन्होंने रामायण की रचना की।

वाल्मीकि ने नारद से निम्नांकित प्रश्न किए1:

“हे नारद! मुझे बताओ कि वर्तमान समय में अत्यधिक आज्ञाकारी व्यक्ति पृथ्वी पर कौन हैं?”

तब वे विस्तार से कहते हैं कि अत्यधिक आज्ञाकारी व्यक्ति से उनका आशय क्या है? वह ऐसे बताते हैं:

“बलशाली, जो धर्मज्ञ हो, जो कृतज्ञता, सत्य को जानता हो, धर्मपालन के लिए जो विपदा में भी स्वार्थ त्यागने को तत्पर हो, व्यवहार में सद्गुण हों, सभी के हितों की रक्षा करता हो, आत्मसंयमी और सुदर्शन हो, क्रोध का दमन कर सके, अनुकरणीय हो, अन्य की सम्पन्नता से ईर्ष्या न करे और युद्ध में देवताओं को भी दहला दे।”

नारद ने सोचने के लिए समय मांगा और काफी सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने कहा, जिस व्यक्ति में ये सभी गुण हैं, वह केवल दशरथ-पुत्र राम हैं।

गुणों के कारण ही राम को यह पद प्राप्त है।

परन्तु क्या राम देवतत्व के योग्य हैं? जो उन्हें देववत पूजनीय मानते हैं, उन्हें निम्नांकित तथ्यों पर विचार करना चाहिए।

राम का जन्म ही अप्रत्याशित था और यह सोचा जा सकता है क सच छिपाने का यह एक प्रतीक बना दिया गया कि उनका जन्म (पिण्ड) खाने से हुआ था, जो ऋष्य शृंग1 ने तैयार किया था। यद्यपि दोनों पति-पत्नी नहीं थे फिर भी उनका जन्म यदि बदनामी की बात नहीं है तो भी अप्राकृतिक तो है ही।

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  1. बालकाण्ड सर्ग 1, श्लोक 1-5

राम-जन्म से संबंधित अन्य अरुचिकर घटनाएं भी हैं, जिनसे इंकार किया जाना कठिन है।

वाल्मीकि रामायण का आरम्भ इसी बात से करते हैं कि राम विष्णु के अवतार थे जो दशरथ के पुत्र के रूप में उत्पन्न होने को तैयार हो गए। ब्रह्मा को इस बात का पता चला और वह सोचने लगे कि इस अवतार को पूर्ण सफलता मिले इसलिए उनके बलशाली सहयोगी बनाए जाएं, जो उनकी सहायता और सहयोग कर सकें। उस समय ऐसा कोई नहीं था।

देवता ब्रह्मा का आदेश मानने के लिए तैयार हो गए और न केवल अप्सराओं बल्कि यक्षों, नागों की कन्याओं ऋक्षों, विद्याधरों, गंधर्वों, किन्नरों और वानरों की वैध पत्नियों से भी व्यभिचार में लिप्त हो गए और राम की सहायता करने वाले वानर उत्पन्न किए।

यदि उनका भी नहीं तो उनके सहयोगियों का जन्म तो दुरागमन से ही हुआ। सीता से उनका विवाह भी निर्विवाद नहीं है। सीता बुद्ध रामायण के अनुसार राम की बहन थी। दोनों दशरथ की संतान थे। वाल्मीकि रामायण, बुद्ध रामायण में दर्शाए गए सम्बन्धों से सहमत नहीं है। वाल्मीकि के अनुसार सीता विदेहराज जनक की पुत्री थी, राम की बहन नहीं। यह समझ के बाहर है क्योंकि स्वयं वाल्मीकि के अनुसार वह जनक की सामान्य प्रसूत पुत्री नहीं थी बल्कि अपने खेत में हल चलाते किसान को प्राप्त हुई थी, जो उसने जनक को दे दी। इसलिए यह ठोस कथन नहीं है कि सीता जनक की पुत्री थी। बुद्ध रामायण की कथा स्वाभाविक है, जो आर्यों की विवाह-पद्धति1से मेल खाती है। यदि यह ठीक है तो राम और सीता का विवाह आदर्श नहीं था जिसका अनुकरण किया जाए। राम के विषय में एक सद्गुण यह भी बताया जाता है कि वे एक पत्नीव्रत थे। यह समझना कठिन है कि यह आम धारणा कैसे बन गई? यह तथ्य पर आधारित नहीं है। यहां तक कि वाल्मीकि ने भी उल्लेख किया2 है कि राम की अनेक पत्नियां थीं।2 इसके साथ ही उनकी अनेक उप-पत्नियां भी थीं। इस प्रकार वे अपने नामधारी पिता के सच्चे पुत्र थे, जिनकी न केवल उपरोक्त वर्णित तीन पत्नियां थी अपितु अन्य भी अनेक थीं।

अब हम उनके चरित्र की, एक राजा और व्यक्ति के रूप में व्याख्या करें।

उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में हम दो घटनाओं, का उल्लेख करेंगे। एक बाली से संबंधित है और दूसरी उनकी पत्नी सीता से। सर्वप्रथम हम बाली को लें।

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  1. आर्यों में भाई-बहन के विवाह को मान्यता थी।
  2. अयोध्याकाण्ड सर्ग 8, श्लोक 12

बाली और सुग्रीव दो भाई थे। वे वानर जाति से संबंध रखते थे और एक राज-परिवार से थे। उनका अपना राज था जिसकी राजधानी किष्किंधा थी। जब बाली राजा था तो उसका मायावी नामक राक्षस से युद्ध छिड़ा हुआ था। द्वंद्वयुद्ध में मायावी अपनी जान बचाकर भागा और एक गहरी खोह में घुस गया। बाली ने सुग्रीव से कहा कि वह गुफा के भीतर जा रहा है, वह बाहर गुफा के मुंह पर प्रतीक्षा करे। कुछ देर बाद गुफा में से रक्त की धारा फूटी। सुग्रीव ने अनुमान लगाया कि बाली मायावी के हाथों मारा गया। किष्किंधा आकर उसने स्वयं को राजा घोषित कर दिया और हनुमान को अपना मंत्री बना लिया।

वास्तव में बाली मरा नहीं था बल्कि बाली ने मायावी को मार गिराया था। बाली गुफा से बाहर आया और देखा तो सुग्रीव वहां नहीं था। वह किष्किंधा आया तो यह देखकर चकित रह गया कि सुग्रीव राजा बना बैठा है। स्वाभाविक था कि इस दगाबाजी को देखकर बाली आगबबूला हो उठता, क्योंकि इसका कारण भी स्पष्ट था। सुग्रीव को अटकल पर ही निर्भर नहीं करना था। उसे देखना था कि बाली मृत है या जीवित। दूसरे बाली का एक पुत्र था अंगद। वह बाली का वैध उत्तराधिकारी था। उसे राजा बनाया जाना चाहिए था। सुग्रीव ने कुछ नहीं किया। यह विद्रोह का स्पष्ट मामला था। बाली ने सुग्रीव को खदेड़ दिया और गद्दी पर बैठ गया। दोनों भाई जानी दुश्मन बन गए।

यह घटना तभी घटी थी, जब रावण ने सीता का हरण किया था। राम और लक्ष्मण उनकी खोज कर रहे थे। सुग्रीव और हनुमान किसी मित्र की तलाश में थे, जो उन्हें बाली से राज्य वापस दिला सके। दोनों पक्षों में संयोगवश भेंट हो गई। जब दोनों ने एक-दूसरे की कठिनाइयों को सुना तो उनके बीच एक समझौता हुआ। यह सहमति हुई कि राम बाली का वध करने और सुग्रीव को किष्किंधा-राज दिलवाने में मदद करें। यह भी सहमति हुई कि सुग्रीव और हनुमान राम को सीता वापस दिलाने में सहायता करेंगे। बाली वध की योजना को कार्यरूप देने के लिए सुग्रीव अपने गले में माला पहन ले, जिससे द्वंद्वयुद्ध के समय सरलता से पहचाना जा सके। राम किसी वृक्ष की आड़ में छिप जाए और वहां से तीर चलाकर बाली का काम तमाम कर दें। तद्नुसार द्वंद्व आयोजित किया गया। जब युद्ध हो रहा था तो सुग्रीव के गले में माला थी। वृक्ष के पीछे छिपे राम ने निशाना साधा। सुग्रीव किष्किंधा का राजा बन गया। बाली की हत्या राम के चरित्र पर बहुत बड़ा धब्बा है। यह एक ऐसा अपराध था, जो एकतरफा था क्योंकि बाली का राम से कोई विवाद नहीं था। यह कायरता भी थी क्योंकि बाली निहत्था था। यह एक सुनियोजिता और सुविचारित हत्या थी।

अब यह देखें कि उन्होंने अपनी ही पत्नी सीता के साथ क्या व्यवहार किया? जब सुग्रीव और हनुमान ने सेना एकत्र कर ली तो राम ने लंका पर आक्रमण कर दिया। यहां भी राम ने वही चाल चली जो बाली और सुग्रीव के बीच चली थी। उन्होंने इस शर्त पर रावर्ण के भाई विभीषण से सहायता ली कि रावण और उसके पुत्रों को मार विभीषण को राज दे दिया जाएगा। राम ने रावण और पुत्र इन्द्रजीत का वध कर दिया। युद्ध समाप्ति पर राम ने सबसे पहला कार्य रावण की विधिवत अंतयेष्टि करके किया। इसके पश्चात् विभीषण का राज्याभिषेक कराया गया। तब उन्होंने हनुमान को सीता के पास भेजा और सूचित कराया कि वे, लक्ष्मण और सुग्रीव सकुशल हैं और उन्होंने रावण का संहार कर दिया है।

रावण पर विजय प्राप्त करने के उपरांत उन्हें सीधे सीता के पास जाना चाहिए था। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें राजतिलक की ज्यादा चिंता है, सीता की नहीं। यहां तक कि राजतिलक के पश्चात् भी वे स्वयं न जाकर हनुमान को भेजते हैं। और वह संदेश क्या देते हैं? वे हनुमान को सीता को लाने के लिए नहीं कहते। वे सिर्फ यह खबर भेजते हैं कि वे स्वस्थ और प्रसन्न हैं। यह सीता है जो हनुमान से राम से मिलने की बात कहती है। राम सीता से मिलने गए ही नहीं जो उनकी पत्नी थी, जिसका रावण ने अपहरण कर लिया था और उसे 10 माह कैद में रखा था। सीता उनके पास लाई गई। जब सीता राम से मिली तो राम ने क्या कहा? इस बात पर कोई यकीन नहीं करेगा कि आदमी में साधारण मानवीय दया भी न हो। जो दुख में घिरी अपनी पत्नी को कठोर वचन बोलेगा जैसे कि राम ने बोले जब वह लंका में उससे मिले। वाल्मीकि साधिकार रामायण में कहते है।: जैसे कि राम1 ने कहाः

“मैंने अपने शत्रु, तुम्हारे अपहर्ता को युद्ध में परास्त कर तुम्हें इनाम के तौर पर पाया है। मुझे मेरा सम्मान मिल गया और दुश्मन को हरा दिया है। मुझे परिश्रम का फल मिल गया है तथा लोगों ने मेरी सैनिक शक्ति देखी। मैं अपनी अपकीर्ति मिटाने आया था। मैंने तुम्हारे लिए यह कष्ट थोड़े ही उठाया है।”

राम के सीता के प्रति किए गए इस व्यवहार से बड़ी क्या कोई और भी कठोरता हो सकती है? वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहाः

“मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह है। रावण ने तुम्हारा शीलभंग किया होगा। मुझे तुम्हें देखते ही उबाल आ रहा है। मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूं। जहां मन करे जाओ। हे जनक सुता! मुझे तुमसे कोई लेना-देना नहीं। मैंने तुम्हें जीता, इसका मुझे संतोष है। यही मेरा लक्ष्य था। मैं यह नहीं सोच सकता कि तुम जैसी सुन्दर नारी से रावण ने आनन्द नहीं लूटा होगा।”

स्वाभाविक है कि सीता उन्हें पतित और क्षुद्र कहती और स्पष्ट रूप से कहती कि जब हनुमान आए थे, यदि तभी उन्हें यह संदेश भिजवा दिया गया होता कि अपहरण के कारण राम ने उन्हें मन से निकाल दिया है तो वे आत्महत्या कर लेतीं और उन्हें

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  1. युद्धकाण्ड सर्ग- 115, श्लोक 1.23

यह कष्ट नहीं उठाना पड़ता। उन्हें कोई अवसर दिए बिना सीता ने अपनी पवित्रता का प्रमाण दिया। वे अग्नि-परीक्षा में सफल हुईं। इससे देवता प्रसन्न हुए और इस परीक्षा के पश्चात उन्होंने सीता को पवित्र घोषित किया। इसके पश्चात् ही राम सीता को अयोध्या ले जाने के लिए सहमत हुए। और जब वे उन्हें अयोध्या ले आए तो उन्होंने उनके साथ कैसो व्यवहार किया? वे राजा बन गए और सीता रानी। परन्तु राम तो राजा बने रहे और सीता का यह पद जल्दी ही छिन गया। यह काण्ड राम की सबसे बड़ी अपकीर्ति है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम के राजतिलक के कुछ समय पश्चात् ही सीता गर्भवती हो गई। ऐसा सुनकर कि सीता गर्भवती है, दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने विषदमन किया कि ऐसा लगता है कि सीता जब लंका में थीं तो वे रावण से गर्भवती हुईं। उन्होंने राम पर अक्षेप लगाया कि वे एक ऐसी स्त्री को पत्नी के रूप में वापस ले आए। इस कानाफूसी को राम की राजसभा का विदूषक भद्र महल में लेकर आया। राम स्वाभाविक रूप से ऐसे लांछन को सुनकर स्तंभित रह गए। वे जुगुप्सा से भर उठे। यह स्वाभाविक भी था। प्रश्न यह था कि इस अपयश से किस प्रकार मुक्ति पाई जाए? इस कलंक से मुक्ति का उन्हें सरलतम उपाय यह मिला कि सीता को त्याग दिया जाए। एक स्त्री को, जो गर्भावस्था में है, न कोई दासी, साधनों के बिना जंगलों में छोड़ देना और यह भी उसे पूर्वसूचना दिए बिना! इसमें कोई संदेह नहीं कि सीता को अचानक त्याग देने का विचार ही उनके मन में न आया होगा। विचार उत्पन्न होने और उसके पनपने और कार्यरूप देने की योजना बनाने में कुछ समय अवश्य लगा होगा। जब भद्र ने उन्हें नगर में होने वाली अफवाहों के विषय में बताया तो उन्होंने अपने भाइयों को बुलाया और उन्हें अपनी भावनाएं बताईं। राम ने कहा “सीता की पवित्रता और सतीत्व लंका में ही प्रमाणित हो चुके थे। देवों ने भी इसका अनुमोदन किया था और उन्हें सीता की सच्चाई, पवित्रता और सतीत्व पर विश्वास है। इसके बावजूद प्रजा सीता पर लांछन लगाती है और मुझ पर उंगली उठाती है। ऐसा अपमान कोई नहीं सह सकता। सम्मान सबसे बड़ी सम्पत्ति है। देवता और महापुरुष उसे क्षति नहीं पहुंचने देते। मैं यह अपमान और अपकर्ष नहीं सह सकता। ऐसी अपकीर्ति से बचने के लिए मैं तुम्हें भी छोड़ सकता हूं। ऐसा न समझना कि मैं सीता को त्यागने में संकोच करूंगा।”

इससे पता चलता है कि उन्होंने सीता को त्यागने का मन बना लिया था, यह विचार किए बिना कि जो वे कर रहे हैं, वह सही है या गलत। उन्होंने प्रजा के लांछनों से बचने का सरलतम उपाय ही अपनाया। सीता के जीवन का कोई मूल्य नहीं। मूल्य था तो उनकी प्रतिष्ठा का। उन्होंने प्रजा में ऐसी अफवाहें रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया, जो एक राजा के रूप में उनका कर्त्तव्य था, जो एक स्त्री के पति के रूप में उनका दायित्व था जिसकी वे परीक्षा ले चुके थे। वे प्रजा की कानाफूसी के आगे झुक गए। हिंदुओं में ऐसे लोगों का अभाव नहीं है, जो प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं कि राम एक प्रजातांत्रिक राजा था। किन्तु ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में हैं जो उन्हें दब्बू और भीरु मानते हैं।

अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की यह क्रूर योजना उन्होंने अपने भाइयों को तो बता दी किन्तु सीता को नहीं बताई, जिनसे उनका प्रत्यक्ष संबंध था। क्योंकि वही प्रभावित होनी थी तो उन्हीं को बताया जाना चाहिए था। परन्तु उन्हें पूर्ण अंधकार में रखा गया। राम सीता से उस रहस्य को छिपाए रहे, जब तक उस पर पालन न हो गया। सीता के दुर्भाग्य से वह समय भी आया, जब उनकी प्रतीक्षित योजना क्रियान्वित हुई। जो स्त्रियां गर्भवती होती हैं, उनके मन में छोटी-मोटी ललक हुआ करती है। राम यह जानते थे। इसलिए एक दिन उन्होंने सीता से पूछा कि तुम्हारा किसी वस्तु को मन तो नहीं करता है। उन्होंने कहा, ‘हां’ करता है। राम ने पूछा, ‘‘वह क्या है।” सीता ने कहा, ‘वह गंगा किनारे किसी ऋषि के आश्रम में कंद-मूल खाकर कम से कम एक रात बिताना चाहती हैं।’ राम को और क्या चाहिए था। तपाक से हां भर दी, “निशि्ंचत रहो प्रिये! मेरी कोशिश होगी कि तुम्हें कल ही भेज दूँ।” सीता ने इसे सीधे स्वभाव से लिया। परन्तु राम ने क्या किया? उन्होंने सोचा सीता से पिण्ड छुड़ाने का यह अच्छा अवसर है। उन्होंने अपने भाइयों से कहा कि वे सीता के संबंध में बीच में न आएं और यदि आते हैं तो शत्रु समझे जाएंगे। तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा, ‘‘वह सेवेर ही सीता को गंगा के किनारे जंगल में आश्रम में छोड़ आएं।” लक्ष्मण किंकर्त्तव्यमूढ़ थे कि वे सीता को राम का फैसला कैसे बताएं? उनकी मनोदशा को पहचानते हुए राम ने, लक्ष्मण को बताया कि सीता ने स्वयं ही इच्छा प्रकट की है कि वे कुछ समय आश्रम में गंगा किनारे बिताना चाहती हैं। इससे लक्ष्मण को थोड़ा धैर्य बंधा। यह दुरभिसंधि रात को हुई थी। सवेरे कहीं लक्ष्मण ने सुमंत से कहा कि वह रथ के घोड़े तैयार करें। सुमंत ने लक्ष्मण को बताया कि सब तैयार है। तब लक्ष्मण रनिवास में गए और सीता से मिले कि वे कुछ दिन आश्रम में बिताना चाहती हैं। राम ने अपना वायदा निभाते हुए, उनसे ऐसा करने को कहा है। उन्होंने कहा, ‘‘वह रथ खड़ा है चलिए।” सीता राम का आभार मानकर रथ पर चढ़ गई। लक्ष्मण और सीता को बिठाकर सुमंत निर्दिष्ट स्थान की ओर चल दिए। अंत में वे गंगा के किनारे पहुंच गए, केवटों ने उन्हें पार उतार दिया। लक्ष्मण सीता के चरणों में गिर पड़े और आंखों से गर्म-गर्म आंसू टपकाते हुए कहा – “हे निर्दोष रानी! मेरी करनी पर मुझे क्षमा करो। मुझे आदेश है कि मैं तुम्हें यहीं छोड़ जाऊं क्योंकि लोग आपके कारण राम पर आक्षेप करते हैं।”

राम ने सीता को त्याग दिया और उनके हाल पर जंगल में छुड़वा दिया। वे पास ही वाल्मीकि के आश्रम में चली गईं। वाल्मीकि ने उन्हें शरण दी। सीता ने वहीं जुड़वा पुत्रों-लव और कुश को जन्म दिया। तीनों वाल्मीकि के यहां रहने लगे। वाल्मीकि ने बालकों का लालन-पालन किया और उन्हें रामायण की कथा गायन सिखाया, जो उन्होंने स्वयं रची थी। राम के राज्य के पास ही वे बालक 12 वर्ष तक जंगलों में ऋषि के आश्रम में पलते रहे। आदर्श पति और प्रिय पिता ने यह जानने की कभी चेष्टा नहीं की कि सीता जीवित है या मर ही गई। राम 12 वर्ष पश्चात् सीता से अद्भुत दशा में मिले। राम ने एक यज्ञ किया और उसमें सभी ऋषियों को भाग लेने के लिए बुलाया। राम ने जान-बूझकर वाल्मीकि को आमंत्रित नहीं किया। परन्तु वाल्मीकि अपनी ओर से ही सीता के दोनों पुत्रों को, अपने शिष्यों के रूप में साथ लेकर यज्ञ में पहुंच गए। जब यज्ञ चल रहा था तो दोनों बालकों ने सभा में रामायण का गायन आरम्भ किया। राम बड़े आनन्दित हुए और बालकों के विषय में पूछा तो उन्हें बताया गया कि वे सीता के पुत्र हैं। तब उन्हें सीता की याद आई परंतु फिर भी उन्होंने क्या किया? वे सीता के पास नहीं गए। उन्होंने अबोध बालकों को बुलाया, जो अपने माता-पिता के पाप के विषय में कुछ नहीं जानते थे। वे तो एक अत्याचार के शिकार थे। उन्होंने वाल्मीकि से कहा कि “सीता यदि पवित्र और सती हैं तो वे सभा में आएं और अपने ऊपर लगाए गए कलंक को धोकर अपना सतीत्व प्रमाणित करें। आखिर, वे लंका में ऐसा कर चुकी हैं।” ऐसा तो उन्हें जंगल में छोड़ जाने से पूर्व भी कहा जा सकता था। राम ने ऐसा कोई वचन भी नहीं दिया कि परीक्षा में सफल हो जाने पर वे सीता को फिर रख लेंगे। वाल्मीकि ने सीता को सभा में प्रस्तुत किया। जब पति-पत्नी आमने-सामने थे, वाल्मीकि बोले, “हे दशरथ के पुत्र यह सीता खड़ी हैं, जिसे तुमने लोगों की कानाफूसी के कारण त्याग दिया था, जिन्हें मैंने अपने आश्रम में पाला है।” राम ने कहा, “मैं जानता हूं कि सीता पवित्र है और यह मेरे पुत्र हैं। इन्होंने लंका में भी अपने सतीत्व का प्रमाण दिया है। मैं इन्हें साथ ले आया परन्तु लोगों को अभी सन्देह है। सीता वह परीक्षा यहां भी दे, जिसे सभी ऋषि और प्रजा भी देख ले।”

सीता ने नेत्र भूमि पर गड़ाए। दोनों हाथ जोड़कर प्रण लिया, “यदि मैंने सपने में भी राम को छोड़कर, कभी किसी व्यक्ति का विचार भी किया हो तो धरतीमाता तू फट जा और मुझे अपने में समा ले। यदि मैंने सदा राम को प्चयार किया हो, मेरे कार्यों और विचारों में वही बसे हों तो धरतीमाता तू फट जा और मुझे अपने में समा ले।” जब उन्होंने यह प्रतिज्ञा दोहराई तो धरती फट गई। एक स्वर्ण सिंहासन उभरा। वह उस पर विराज गईं। आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई। सभी देखकर आनन्दविभोर हो गए।

इसका अर्थ है कि सीता ने राम के पास वापस जाने के बजाय मर जाना बेहतर समझा। जिस राम ने उसके साथ कसाई से अच्छा व्यवहार नहीं किया था, यह उस सीता की गति और राम का पाप था।

राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। क्या इससे यह प्रमाणित होता है?

वास्तविकता यह है कि राम ने कभी राजपाट किया ही नहीं। वह तो सांकेतिक राजा थे। वाल्मीक के अनुसार शासन-कार्य भरत देखते थे। राम ने राज-काज और प्रजा की चिंताओं से मुक्ति पा ली थी। राम के राजा बनने के बाद की दिनचर्या का वाल्मीकि ने बहुत बारीकी से वर्णन किया है।1 उसके अनुसार पूरा दिन पूर्वाह्न और अपराह्न में विभाजित रहता था। सवेरे से मध्याह्न तक वह पूजा पाठ में व्यस्त रहते थे। अपराह्न वे क्रमशः दरबारी विदूषकों और अंतःपुर में व्यतीत करते थे2 । जब वे रंग महल से ऊब जाते थे तो विदूषकों की संगति करते थे और जब विदूषकों से ऊब जाते थे, रंगमहल में चले जाते थे। वाल्मीकि विस्तार से बताते हैं कि राम रनिवास में कैसे समय बिताते थे? यह रंग महल अशोक वन नामक उपवन में था। वहीं राम भोजन करते थे। वाल्मीकि के अनुसार उनके भोजन में अनेक स्वादिष्ट व्यंजन होते थे। उसमें मांस, फल और मदिरा सम्मिलित थी। राम मद्य त्यागी नहीं थे। वे प्रचुर मात्र में मदिरापान करते थे और सीता को भी मदिरापान में सहभागिनी बनाते थे।3राम के अंतःपुर का जैसा वर्णन वाल्मीकि ने किया है, वह कोई मामूली बात नहीं है। नाच-गाने में अप्सराएं, उरग और किन्नर बालाएं सम्मिलित होती थीं। अन्य क्षेत्रें से भी सुन्दर नारियां लाई जाती थीं। राम सुरा और सुंदरियों के मध्य विराजते थे। वे राम को आनन्दित करतीं और राम उन्हें माला पहनाते। वाल्मीकि ने राम को स्त्रियों के प्रिय पुरुषों का राजकुमार कहा है। यह उनकी एक दिन की जीवनचर्या नहीं थी। यह उनके जीवन की नियमित गति थी।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राम ने प्रजा-कार्यों से हाथ खींच रखा था। वह अन्य भारतीय राजाओं की तरह प्रजा का दुख-दर्द सुनकर निवारण का कोई प्रयास नहीं करते थे। वाल्मीकि के अनुसार मात्र एक अवसर पर उन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसी की शिकायत सुनी। किन्तु दुर्भाग्य से यह घटना बहुत दुखांत है। उन्होंने किसी की एक गलती के लिए स्वयं इतना बड़ा अपराध किया, जिसकी इतिहास में मिसाल नहीं है। यह घटना थी-एक शुद्र शम्बूक की हत्या। वाल्मीकि ने लिखा है- “राम-राज्य में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। परन्तु किसी ब्राह्मण के पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई। दुःखी पिता मृत पुत्र के शव को राजा के महल पर ले आया और वहीं रख दिया और जोर-जोर से विलाप करने लगा और अपने पुत्र की मृत्यु पर राम को भांति-भांति से कोसने लगा। वह कह रहा था कि इसके राज्य में यह पापाचार का परिणाम है और यदि राजा अपराधी को दण्ड नहीं देगा तो वह पुत्र उसे नहीं मिलेगा। वह राम के द्वार पर अनशन करेगा और अन्न-जल लिए बिना अपने प्राण त्याग देगा। राम ने नारद और आठ विद्वान ऋषियों की सभा बुलाईं। उन्होंने कहा कि उनकी प्रजा में से सम्भवतः कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। यह धर्म विरुद्ध है क्योंकि तपस्या करने का अधिकार मात्र द्विजों को है। राम समझ गए कि धर्म का उल्लंघन करके वह पाप कर रहा है। उसी के कारण ब्राह्मण का पुत्र मर गया। इसलिए राम ने अपना पुष्पक विमान मंगाया और राज्य

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  1. उत्तरकाण्ड सर्ग 42, श्लोक 27
  2. उत्तरकाण्ड सर्ग 43, श्लोक
  3. उत्तरकाण्ड सर्ग 42, श्लोक 8

के आंतरिक भागों में अपराधी को खोजा। अंत में घने जंगलों में सुदूर दक्षिण में उन्होंने एक व्यक्ति को कठोर तपस्यारत देखा। वे उसके पास गए और उसके यह बताने के बाद कि वह शम्बूक नाम का शूद्र है और वह सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तपस्या कर रहा है, उन्होंने उसे चेताया तक नहीं, अनधिकृत कार्य न करने के लिए समझाया भी नहीं। बस! बेझिझक उसका सिर काट दिया। देखा! उसी समय दूर अयोध्या में बाह्मण पुत्र की सांस चलने लगी। जंगल में देवताओं ने पुष्प वर्षा की कि राजा ने एक शूद्र को आकाश में उनकी नगरी में आने से रोक दिया, जो तपस्या के बल पर वहीं पहुंच जाता जिसे तपस्या का अधिकार नहीं है। वे राम के सम्मुख प्रकट हुए और उन्हें बधाई दी। जब राम ने ब्राह्मण के पुत्र को जीवित करने का अनुरोध किया तो उन्होंने बताया कि वह जीवित हो चुका है। फिर वे चले गऐ। राम तब पास ही अगस्त्य ऋषि के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने शम्बूक को दी गई सजा पर उनकी प्रशंसा की और उन्हें एक ताबीज भेंट किया। राम राजधानी लौट आए।” ऐसे थे राम!

II

अब कृष्ण के संबंध में।

वह महाभारत के नायक हैं। वास्तव में तो महाभारत का मुख्यतः संबंध कौरव ओर पाण्डवों से है। यह उस युद्ध की कहानी है, जो दोनों पक्षों ने अपने पूर्वजों के राज्य पर अधिकार प्राप्त करने के लिए किया। वही मुख्य चरित्र होने चाहिए। परन्तु वे नहीं हैं। इस महाकाव्य के नायक कृष्ण हैं। यह थोड़े आश्चर्य की बात है। परन्तु इससे भी आश्चर्यजनक यह हो सकता है कि वे कौरव-पाण्डवों के समकालीन ही न हों। कृष्ण पाण्डवों के मित्र थे और उनका अपना साम्राज्य था। कृष्ण कंस के शत्रु थे। उसका भी साम्राज्य था। यह सम्भव नहीं लगता कि दोनों राज्य साथ-साथ विद्यमान थे। महाभारत में ऐसा कहीं प्रतीत नहीं होता कि दोनों राज्यों के बीच कोई सम्पर्क थे। बाद में कृष्ण को इस नाटक में और बड़ी भूमिका देने के लिए कृष्ण और पाण्डवों की कहानियों को मिश्रित कर दिया गया। इन दोनों कहानियों को जोड़ने का करिश्मा व्यास का था, जिसमें कृष्ण को गौरवान्वित करने के लिए उन्हें सबके ऊपर बैठा दिया।

व्यास ने कृष्ण को मानवों में देवता बना दिया। इसी कारण उन्हें महाभारत का नायक बना दिया गया। क्या कृष्ण सचमुच भगवान कहलाने योग्य हैं? उनकी सक्षिप्त जीवनी से इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। कृष्ण भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में मथुरा में पैदा हुए थे। उनके पिता यदुवंश के वसुदेव थे। उनकी माता देवक की पुत्री देवकी थीं जो मथुरा के राजा उग्रसेन का भाई था। उग्रसेन की पत्नी के सौभराज द्रुमिल दानव के साथ अवैध संबंध थे। उसी का जारज पुत्र कंस था। एक प्रकार से वह देवकी का भाई था। कंस ने उग्रसेन की बंदी बनाकर राज्य पर अधिकार कर लिया। नारद अथवा देववानी से यह आकाशवाणी सुनकर कि देवकी की आठवीं संतान वध करेगी कंस ने देवकी और उसके पति को बंदी बना लिया और उनकी छह संतानों को जन्म लेते ही मार डाला। सातवीं संतान को देवकी के गर्भ से वसुदेव की दूसरी रानी रोहिणी के गर्भ में चमत्कारी ढंग से छोड़ दिया। जब आठवीं संतान कृष्ण ने जन्म लिया तो उनके पिता उन्हें चुपके से ले गए जहाँ ब्रज में नंद और यशोदा रहते थे। दैवी बालक को पार पहुँचाने के लिए यमुना का पानी उतर गया। नागराज अनन्त ने अपना फन फैलाकर वर्षा से उनकी रक्षा की। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वसुदेव ने नंद की नवजात कन्या योगेन्द्र अथवा योगमाया से उन्हें बदल लिया और अपना आठवां शिशु बताकर कंस को सौंप दिया परन्तु वह बालिका आकाश में उड़ गई और कहा कि नंद और यशोदा के यहां पल रहा बालक कृष्ण उसका संहार करेगा। इसके बाद कंस ने बालक कृष्ण की हत्या के लगातार असफल प्रयत्न किए। इस उद्देश्य से उसने विभिन्न रूपों में कई असुर ब्रज में भेजे। कृष्ण की बाल-लीलाओं के संबंध में पुराणों में इन असुरों का संहार और सामान्य बालक के लिए असंभव वीरता-प्रदर्शन कृष्ण की महिमा बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया है। इनमें कुछ का महाभारत में भी उल्लेख है। जैसी कि आशा की जा सकती है, विद्वान इन वर्णनों से असहमत हैं। हम उनमें से कुछ का ही उल्लेख करते हैं जिन्हें पारवर्ती विद्वानों ने माना है।

इनमें से प्रथम है पूतना वध। वह कंस के यहां धाय थी और कंस ने उसे हरिवंश (पुराण) के अनुसार एक गिद्धनी के रूप में भेजा था। भागवत के अनुसार वह एक सुंदरी के भेष में गई थी। उसने कृष्ण को दूध पिलाने के बहाने अपने विषयुक्त स्तन उनके मुंह में डाल दिए। उन्होंने उसके स्तनों को इतने जोर से चूसा कि उसके प्राण ही खींच लिए और वह धराशायी हो गई।

केवल तीन मास होने पर ही एक अन्य आश्चर्य कर दिखाया। यह एक शकट अथवा गाड़ी को तोड़ना था, जिसमें अनेक बर्तन लदे हुए थे। उनमें दूध-दही भरा था और लदी हुई गाड़ी उन पर चढ़ गई। ‘हरिवंश’ के अनुसार शकट कंस द्वारा भेजा गया असुर था, जिसे उन्हें कुचलने के लिए भेजा गया था। बहरहाल, यशोदा ने कृष्ण को गाड़ी के नीचे लिटा दिया और यमुना में स्नान करने चली गई। जब वह लौटकर आई तो बताया गया कि कृष्ण ने ठोकर मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जो भूमि पर बिखरे पड़े थे। भयभीत यशोदा इससे आश्चर्यचकित रह गई। उसने अनहोनी टालने के लिए पूजा कराई।

जब कृष्ण की हत्या के लिए पूतना और शकट के प्रयत्न विफल हो गए तो कंस ने अपना एक और दूत तृणव्रत भेजा। वह एक पक्षी के रूप में आया और उन्हें उड़ाकर आकाश में ले गया। कृष्ण तब मात्र एक वर्ष के थे परन्तु तृणव्रत निष्प्राण होकर धरती पर गिर पड़ा। कृष्ण उसकी गर्दन कसकर पकड़े हुए थे।

अगला चमत्कार दो अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना था, जो पास-पास खड़े थे। ये दोनों यक्षों के शरीर थे, जो शापवश वृक्ष बन गए थे और जिन्हें कृष्ण ने शापमुक्त किया। जब कृष्ण घुटनों के बल चलने लगे और नित नया उत्पात करने लगे तो यशोदा ने एक रस्सी लेकर उन्हें ओखली से बांध दिया जो भयानक शोर करते हुए गिर पड़ी, और कृष्ण को आंच भी न आई। यह सब देखकर नंद भयभीत हो गए और ब्रज छोड़कर अन्यत्र जाने का विचार करने लगे। जब वह ऐसा विचार कर रहे थे, भेड़ियों ने आतंक मचा दिया। वे पशुओं को उठाकर ले जाते थे। पूरी अव्यवस्था फैला दी। इससे उन खानाबदोशों ने ब्रज छोड़ने का इरादा कर लिया और वे सुंदर स्थान वृंदावन में चले आए। तब कृष्ण मात्र सात वर्ष के थे।

नए स्थान पर आकर, कृष्ण ने अनेक असुरों का संहार किया। उनमें से एक अरिष्ट था जो एक वृषभ के रूप में आया। दूसरा था-केशिन, जिसने घोड़े का रूप धरा। पांच अन्य थे, वृत्रसुर, वकासुर, अघासुर, भोमासुर और संखासुर और अंत में यक्ष। इन सबसे महत्वपूर्ण था कालिया, सर्पों का राजा, जो अपने परिवार सहित यमुना की एक दह में रहता था और जिसने यमुना का जल दूषित कर दिया था। एक दिन कृष्ण कालिया के फन पर चढ़ गए और इतने जोर से नाचे कि उसने खून का वमन किया। कृष्ण उसे मार ही डालते परन्तु नाग-परिवार के अनुनय-विनय पर उन्होंने उसे छोड़ दिया और अन्यत्र जाने दिया।

कालिया विजय के पश्चात् वस्त्रहरण की घटना आती है, जो कृष्णोपासकों और पौराणिक प्रशंसकों के लिए एक धर्म-संकट है। पूरा वर्णन इतना अश्लील है कि उसका संकेत मात्र भी देना कठिन है क्योंकि वह सुपाठ्य नहीं है। परन्तु हम उसे यथासंभव शिष्ट रूप में उद्धृत कर रहे हैं जिससे कि कृष्ण के जीवन की झांकी मिल सके। देश के कुछ भागों में प्रचलित रीतियों के अनुसार कुछ गोपियां यमुना के किनारे वस्त्र छोड़कर नदी में नहा रही थीं। कृष्ण ने उनके कपड़े उठा लिये और

नदी के किनारे एक वृक्ष पर चढ़ गए। जब उन्होंने अपने वस्त्र मांगे तो उन्होंने उस समय तक वस्त्र देने से इंकार कर दिया जब तक अपने वस्त्र लेने वे वृक्ष तक स्वयं चल कर न आएं। जब वे आ गईं तो कृष्ण प्रसन्न हुए और वस्त्र लौटा दिए। यह कथा भागवत में है।

कृष्ण की दूसरी महिमा गोवर्धन पर्वत उठाना है। गोप वर्षा के देवता इन्द्र की वार्षिक पूजा की तैयारी कर रहे थे। उसके लिए भारी आयोजन हो रहा था। कृष्ण ने कहा कि “वे तो चरवाहे हैं, कृषक नहीं हैं, उनका वास्तविक देवता गौधन है, पर्वत और जंगल हैं, उन्हें इनकी ही पूजा करनी चाहिए। इन्द्र ऐसे देवता ही नहीं, जो वर्षा कराते हैं।” गोप मान गए और इन्द्र की पूजा के स्थान पर नाच-गाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की, जो गुरुओं का पालक है। इन्द्र को तो इससे क्रुध होना ही था और उन्हें दण्ड देने के लिए सात दिन तक रात-दिन वर्षा की। कृष्ण झुके नहीं। कृष्ण ने पर्वत को उखाड़ लिया और गांव के ऊपर छतरी की तरह तान दिया और इन्द्र के कोप से होने वाली वर्षा से होने वाली बर्बादी से पशुओं और गायों को बचा लिया। मैं पहले भी अपने प्रथम व्याख्यान में इन्द्र और ऋग्वेद के कृष्ण और बाद में शतपथ ब्राह्मण के कृष्ण और विष्णु के बीच का वैमनस्य वर्णित कर चुका हूं।

कृष्ण की युवावस्था में रासलीला के माध्यम से वृंदावन की गोपिकाओं के साथ उनके अवैध संबंधों की भरमार है। इस लीला में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते हैं। देश की कुछ वन्य जनजातियों में यह नृत्य अब भी प्रचलित है। यह कहा गया है कि कृष्ण वृन्दावन की युवा गोपियों के साथ प्रायः इस नृत्य के साथ मनोविनोद किया करते थे। विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण और भागवत में ऐसे नृत्य का वर्णन है। इन सब लेखकों ने यह समझाने की चेष्टा की है कि कृष्ण के प्रति गोपिकाओं का प्रेम भक्तिभाव के कारण था, उसमें वासना रंच मात्र भी नहीं है। अन्य व्यक्तियों के विषय में इन्हीं लेखकों ने इसे अत्यधिक निंदित बताया है। ऐसे दृश्य, समय और ऋतु में मधुर संगीत के बीच स्त्रियों का मेल, नृत्य और कृष्ण तथा उनकी कामुकता और उनके हावभावों की सामान्य मनोवृत्ति पर सब सहमत हैं। परन्तु विष्णु पुराण में कुछ हद तक शिष्टता है। वैसे कहीं-कहीं वह भी विचलित हो जाता है, ‘हरिवंश’ में स्पष्ट रूप से अशिष्टता है परन्तु भागवत तो नितांत अशोभनीय है।

इस सब दुष्कर्मों से बढ़कर कृष्ण के जीवन में राधा नामक गोपी के बीच अवैध संबंधों की कहानी है ब्रह्मवैतर्त पुराण में इन अवैध संबंधों का चित्रण  है। रुक्मिणी कृष्ण की ब्याहता और भार्या है। राधा का विवाह ….- से हुआ था। कृष्ण ने अपनी विवाहिता पत्नी रुक्मिणी को त्याग दिया और किसी अन्य की पत्नी के साथ खुल्लमखुल्ला रहने लगे।

कृष्ण एक योद्धा भी थे और बाल्यकाल से ही राजनीतिज्ञ भी। उस समय उनकी आयु बारह वर्ष बताई जाती है। उनका प्रत्येक कार्य, चाहे युद्ध हो अथवा राजनीति, सब अनैतिक था। उनका सर्वप्रथम कार्य अपने मामा कंस की हत्या था। इसके लिए ‘हत्या’ शब्द कोई कठोर अभिव्यक्ति नहीं है। कंस ने यद्यपि उन्हें बार-बार क्रोध दिलाया तो भी उसे उन्होंने युद्ध में अथवा द्वंद्व में पराजित नहीं किया। आख्यान इस प्रकार है कि वृंदावन में कृष्ण की वीरताओं को सुनकर कंस आशंकित हो उठा और उसने निश्चय किया कि एक प्रदर्शन युद्ध में उसका वध किया जाए। इसी के अनुसार उसने धर्मयुद्ध का आयोजन किया जिसे धनुष यज्ञ कहा गया। उसने कृष्ण, बलराम और उनके साथी गोपों को इसके लिए आमंत्रित किया। कृष्ण का एक अनुषंगी परन्तु कंस का एक अधिकारी अक्रूर दोनों भाइयों को मथुरा लाने के लिए भेजा गया। वे सब कंस वध के लिए कटिबद्ध थे। उसने उन्हें और अन्य यादवों को उकसाया कि वे मथुरा चलें। दोनों भाइयों ने एक षडयंत्र रचा। मथुरा आने पर उन्होंने साधारण गोपों के वस्त्र त्यागकर अच्छे वस्त्र धारण करना चाहा और कंस के धोबी से वस्त्र मांगे, जो उन्हें गलियारे में मिल गया था। उस धोबी ने उनके साथ अशिष्टता दिखाई। उन्होंने उसे मार डाला और मनचाहे वस्त्र ले लिए। तब वे कुब्जा से मिले, जो एक कुबड़ी स्त्री थी और कंस के यहां इत्रफरोश (गंधी) थी। उनके अनुरोध पर उसने उनका चंदनलेपन किया। इसके बदले में कृष्ण ने उसका कूबड़ ठीक कर दिया। भागवत में कहा गया है कि कृष्ण उससे अक्सर बराबर मिलने जाते। उनके मिलन को भागवत में चारित्रिक हीनता की कोटि का बताया गया है। फिर भी उस समय कुब्जा के चंदनलेपन से सुगंधित, सुदामा नामक माली से हार पहनकर यज्ञशाला में घुस गए और जिस धनुष को यज्ञ के लिए रखा गया था, वह तोड़ डाला। भयभीत कंस ने कुबलयापीड नामक हाथी को उन्हें कुचलने के लिए भेजा। कृष्ण ने हाथी का वध कर दिया और मल्लशाला में घुस गए। वहां दोनों भाइयों ने कंस के विख्यात मल्लयोद्धा चाणूर, मुष्टिक, तोशालक और आंध्रा से सामना किया। चाणूर और तोशालक का संहार कृष्ण ने किया और शेष दो को बलराम ने मौत के घाट उतार दिया। कृष्ण-वध की अपने योजना से विचलित होकर कंस ने दोनों भाइयों और उनके साथियों को खदेड़ने के आदेश दिए। उसने कहा, “इनके पशु जब्त कर लो और वसुदेव, नंद और उग्रसेन का वध कर दो।” इसे सुनकर कृष्ण मंच पर आ गए जहां कंस बैठा था। उसके बाल पकड़ उसे नीचे खींच लिया और धरती पर गिरा कर उसका वध कर दिया। कंस

की बिलखती रानियों को सांत्वना देकर उसका राजकीय ढंग से दाह-संस्कार कराया। उग्रसेन ने उन्हें राज सौंपना चाहा। उन्होंने इंकार कर दिया। उसी को राजा बनाया और उसके छिपे हुए संबंधियों को मथुरा बुला लिया।

कृष्ण का दूसरा संग्राम कालयवन और जरासंध से हुआ जो मगध का राजा था। जरासंध कंस का दामाद था। जब उसने कृष्ण द्वारा कंस-वध का समाचार सुना तो वह मथुरा पर चढ़ गया। कहा जाता है कि उसने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया परन्तु प्रत्येक बार उसे कृष्ण ने मार भगाया। अगले आक्रमण को और विनाशकारी समझकर मथुरा त्याग कृष्ण यादवों को लेकर गुजरात प्रायद्वीप के द्वारका चले गए। यादवों के मथुरा चले जाने पर जरासंध के कहने पर लयवन ने मथुरा को घेर लिया। जब वह निशस्त्र कृष्ण का पीछा कर रहा था तो मुचुकंद के नेत्रें से निकली ज्वाला से आक्रमणकारी भस्म हो गया। जो गुफा में सो रहा था और जिसे कालयवन ने कृष्ण समझकर उस पर आघात किया था। कृष्ण ने कालयवन की सेना को परास्त कर दिया किन्तु जब वे लूट का माल लेकर भाग रहे थे तो जरासंध ने घेर लिया। वे एक पहाड़ी पर चढ़ गए और वहां से कूदकर द्वारिका की तरफ भाग गए।

अब कृष्ण का प्रथम विवाह हुआ। उनहोंने विदर्भराज, भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी से विवाह किया। रुक्मिणी का पिता जरासंध के कहने पर कृष्ण के फुफेरे भाई चेदि राज, शिशुपाल से उसका विवाह रचा रहा था। परन्तु भावरों के एक दिन पूर्व ही रुक्मिणी का हरण कर लिया गया। भागवत का कथन है कि रुक्मिणी को कृष्ण से प्रेम हो गया था और उन्होंने कृष्ण को एक प्रेमपत्र लिखा था। यह सत्य नहीं लगता क्योंकि कृष्ण रुक्मिणी के सच्चे और आस्थावान पति नहीं थे। धीरे-धीरे रुक्मिणी की सौतों की कतार बढ़ती गई और वह संख्या सोलह हजार एक सौ साठ हो गईं। उनकी संतान की संख्या एक लाख अस्सी हजार थी। उनकी पटरानियां भी आठ थीं, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। शेष सोलह हजार एक सौ के साथ एक ही दिन विवाह किया था। वे प्रागज्योतिष के राजा नरक की पत्नियां थीं, जिसका कृष्ण ने इन्द्र के आह्वान पर वध कर दिया था, नरक उनकी मां के कुण्डल ले आया था। युद्ध के पश्चात् जब कृष्ण सत्यभामा के साथ स्वर्ग में इन्द्र के पास गए तो उनकी पत्नी को पारिजात वृक्ष भा गया। अपनी पत्नी का मन रखने के लिए कृष्ण को उसी वैदिक देवता से युद्ध करना पड़ा, जिसकी उन्होंने सहायता की थी परन्तु भगवान के अवतार से लोहा लेना बहुत कठिन था। इसलिए इन्द्र को पारिजात वृक्ष देना पड़ा जो द्वारिका में लगा दिया गया। उन्होंने आठ पटरानियों से किस प्रकार विवाह किया, यह भी बड़ी रोचक कथा है। रुक्मिणी से उन्होंने कैसे विवाह किया, यह तो बताया जा चुका है। सत्यभामा सत्रजित की पुत्री थी, जो एक यादव राजा था और जिसने डरकर अपनी कन्या का विवाह कृष्ण से कर दिया था। जाम्बवती एक ऋक्ष प्रधान जाम्बवान की कन्या थी, जो यादवों से एक बहुमूल्य मणि लेकर भाग गया था और लम्बी लड़ाई के बाद उसने पराजित होकर अपनी कन्या उन्हें दे दी थी। कालिन्दी ने कृष्ण से विवाह करने के लिए अनेक तपस्याएं कीं और अंत में सफल रही। मित्रबिंदा कृष्ण की फुफेरी बहन थी और उसे स्वयंवर में जीतकर उन्होंने विवाह किया। सत्या अयोध्या के राजा नग्नजित की पुत्री थी। उन्होंने वीरता दिखाकर और कई बिगड़ैल बैलों को एक साथ मार कर नग्नजित की कन्या से विवाह हुआ। भद्रा उनकी फुफेरी बहन थी और उससे उनका विवाह सामान्य परिस्थितियों में हुआ। लक्ष्मणा मद्र देश के राजा बृहतसेन की पुत्री थी, जिसे उन्होंने स्वयंवर में प्राप्त किया था।

सुभद्रा के साथ अर्जुन के विवाह में कृष्ण की भूमिका पढ़ने योग्य है, जो बलराम की सहोदर और कृष्ण की सौतेली बहन थी। अर्जुन अपनी यात्र के समय तीर्थस्थान प्रभास पहुंचे। कृष्ण ने रैवतक पर्वत पर उनकी अगवानी की। वहां वह सुभद्रा पर अनुरक्त हो गया और कृष्ण से पूछा। यह उसे कैसे मिले? कृष्ण ने उसे परामर्श किया कि वह एक वीर क्षत्रिय की तरह स्वयंवर से पूर्व ही उसका हरण कर ले। पहले तो यादव इस कृत्य पर उबल पड़े परंतु जब उन्हें कृष्ण ने समझाया कि अर्जुन सुभद्रा का उत्तम पति होगा और उसका हरण करके अर्जुन ने कुछ अनुहोनी भी नहीं की है तो वे मान गए। और वे कर भी क्या सकते थे? कृष्ण ने सामान्य जन की भांति केवल तर्क ही नहीं दिए थे, बल्कि स्वयं ऐसा करके उदाहरण प्रस्तुत कर चुके थे।

यह भी जानने योग्य तथ्य है कि कृष्ण ने जरासंध और शिशुपाल से कैसे जान छुड़ाई जिसने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विघ्न डाला था। जरासंध ने रुद्र की बलि चढ़ाने के लिए अनेक राजाओं को बंदी बना रखा था। जब तक उसका वध न किया जाता और बंदी राजा मुक्त न कर लिए जाते, फिर युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने न आते तो उनका चक्रवर्ती सम्राट होने का दावा पूर्ण न होता। इसलिए कृष्ण ने भीम और अर्जुन को साथ लेकर जरासंध की राजधानी राजगृह को प्रस्थान किया और उसे चुनौती दी कि वह इनमें से किसी एक के भी साथ द्वंद्वयुद्ध कर ले। कोई क्षत्रिय और जरासंध जेसा ऐसी चुनौती को अस्वीकार नहीं कर सकता था। उसने प्रतिद्वंद्वी के हाथों अपने वध का अनुमान लगाकर अपने पुत्र सहदेव को अपना उत्तराधिकारी चुना और भीम से लड़ने की घोषणा की। मल्लयुद्ध तेरह दिन तक चलता रहा और अंत में जरासंध का दुःखद वध हुआ। जरासंध के पुत्र सहदेव को गद्दी पर बैठाकर और मुक्त किए राजाओं को युधिष्ठिर के यज्ञ में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित करके कृष्ण मित्रें सहित इन्द्रप्रस्थ चले आए।

समय पर राजसूय का आयोजन हुआ। उत्सव से सम्बद्ध अनेक रीतियों में से ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य कृष्ण को सौंपा गया। महाभारत में अपेक्षाकृत आधुनिकता का यह स्पष्ट संकेत था। प्राचीन काल में यद्यपि ब्राह्मणों की क्षत्रियों पर श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी किन्तु क्षत्रिय उन्हें ऐसा सम्मान नहीं देते थे। बहरहाल, जब यज्ञ समाप्त हो गया और सभा में उपस्थित राजाओं, पुरोहितों और अन्यों को सम्मिलित करने का समय आया तो अग्र सभासद कौन बने? यह प्रश्न उठा। युधिष्ठिर ने जब भीष्म से पूछा तो उन्होंने परामर्श दिया कि सर्वप्रथम कृष्ण का सम्मान किया जाए। तदनुसार युधिष्ठिर के कहने पर सहदेव ने कृष्ण का सम्मान करने के लिए अर्घ्य चढ़ाया और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। इससे शिशुपाल भड़क उठा। उसने कृष्ण को प्रथम सभासद बनाए जाने को चुनौती देते हुए, अपने लम्बे भाषण में पाण्डवों को अपशब्द कहे और कृष्ण को लताड़ा कि उन्होंने सम्मान को स्वीकार कर अनाधिकृत कर्म किया। इसके पश्चात् भीष्म उठे और उन्होंने कृष्ण के कार्यों और उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए उनके देवत्व का वर्णन किया। शिशुपाल फिर उठ खड़ा हुआ। भीष्म की एक-एक बात का खण्डन करते हुए कृष्ण को भरपूर गालियां दीं। कृष्ण की हाल ही की जीवनियों में कृष्ण और ब्रज बालिकाओं के संबंधों का कोई प्रसंग नहीं है जिनको शिशुपाल ने उछाला। नए जीवनीकारों का स्पष्ट संकेत है कि विभिन्न पुराणों की कथाओं को वे स्वीकार नहीं करते। बहरहाल, शिशुपाल के वक्तव्य के अंत में भीष्म फिर उठे और उन्होंने देखा कि युधिष्ठिर शिशुपाल और उनके सहयोगियों से आशंकित हैं कि कहीं वे उत्सव में बाधा न डाले। इसलिए उन्होंने चेताया कि यदि वे अपना वध चाहते हैं तो कृष्ण को चुनौती दें और उस दैवी पुरुष से युद्ध कर ले। इस पर शिशुपाल ने कृष्ण को चुनौती दी और कृष्ण के अनेक कुकर्मों का बखान किया। तब कृष्ण ने कहा “अपनी बुआ को दिए गए वचनानुसार मैंने शिशुपाल की एक सौ गालियों के लिए उसे क्षमा कर दिया है परन्तु अब जो अपशब्द उसने भरी सभा में मेरे विरुद्ध बोले हैं, उनके लिए मैं उसे क्षमा नहीं करूंगा। मैं आप सबके सामने इसका वध करता हूं।” उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र चलाया और शिशुपाल का सिर काट दिया।

अब महाभारत युद्ध में कृष्ण के कारनामे देखें। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

  1. जब कृष्ण के मित्र सात्यिकी पर सोमदत्त पुत्र भूरिश्रवा भारी पड़ रहा था तो कृष्ण ने अर्जुन को उकसाया कि उसकी भुजा काट दे। इस प्रकार भूरिश्रवा का वध करने के लिए सात्यिकी का रास्ता साफ कर दिया।
  2. जब सात कौरव महारथियों ने अभिमन्यु को घेर कर मार डाला और अर्जुन ने प्रण किया कि यदि वह सूर्यास्त से पूर्व उन सातों के सरगना जयद्रथ का वध नहीं कर देंगे तो अग्नि में कूदकर प्राण दे देंगे। जब सूर्यास्त का समय था और जयद्रथ जीवित बच गया तो कृष्ण ने माया से सूर्य को छिपा दिया। इस पर जयद्रथ बाहर आ गया तो कृष्ण ने माया हटा ली और सूर्य निकल आया और अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया।
  3. जब द्रोण धर्मयुद्ध में पराजित नहीं हो रहे थे तो कृष्ण ने उन्हें अधर्म युद्ध में पराजित कराया। यदि उनके शस्त्र रखवा दिए जाएं तो उन्हें सरलता से समाप्त किया जा सकता है। यह तभी सम्भव है जब उनसे कहा जाए कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। भीम ने बताए तरीके के अनुसार अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला। द्रोण यह सुनकर निराश तो हुए किन्तु उन्हें विश्वास नहीं आया। इस अवसर पर अनेक ऋषियों ने उन पर दबाव डाला कि वे शस्त्र डाल दें और ब्रह्म में ध्यान लगाकर स्वर्गगमन करें। इस पर उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से अपने पुत्र के विषय में सही सूचना लेनी चाही। जब कृष्ण ने देखा कि युधिष्ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं हैं तो उन्होंने उन्हें बहुत समझाया। इसी दौरान उन्होंने असत्य भाषण का औचत्य वशिष्ठ स्मृति का उदाहरण देते हुए बताया- “विवाह में, प्रेम में, मृत्यु, भय के समय सर्वस्व विनाश की आशंका पर और जब ब्राह्मण का हित दाव पर हो तो इन पांच अवसरों पर असत्य भाषण पाप नहीं है।” युधिष्ठिर का संशय दूर हो गया और उन्होंने कहा “अश्वत्थामा मारा गया है।” फिर दबे स्वर से कहा, “हाथी या पुरुष” (नरो व कुंजर), वाक्य का अंतिम भाग द्रोण नहीं सुन पाए। वे पूरी तरह टूट गए और भीम की ललकार सुनकर उन्हें विश्वास हो गया। उन्होंने हथियार डाल दिए और जब वे समाधिस्थ थे तो धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।
  4. जब भीम द्वैपायन सरोवर पर दुर्योधन से कठिन युद्ध कर रहे थे और उस पर पार पाने में असफल थे तो कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से बताया कि वे उसकी जंघाओं पर प्रहार करें। तगड़ी के नीचे वार करना वर्जित होता था, यदि अधर्म युद्ध से उसकी जंघाएं न तोड़ी जातीं तो दुर्योधन का वध नहीं हो सकता था। कृष्ण ने वहीं प्रहार कराया।

कृष्ण का देहावसान उनके चरित्र पर प्रकाश डालता है। कृष्ण का देहांत द्वारिका के राजा के रूप में हुआ। द्वारका कैसी थी और उनका निधन कैसे हुआ?

द्वारका की स्थापना करते समय कृष्ण ने वहां हजारों पतिताओं को बसाया। ‘हरिवंश’ कहता है- “हे शूरवीर! दैत्यों की नगरी पर यादवों की सहायता से विजय प्राप्त कर भगवान ने सहस्रों वार वनिताओं को द्वारका में बसा दिया।” नाचते-गाते और सुरापान करते पुरुषों ने स्त्रियों और वेश्याओं से विवाह रचा लिया। वे द्वारका में फैल गईं। हमें सागर क्रीड़ा का वर्णन मिलता है जिसमें ये स्त्रियां आनन्द का प्रमुख स्रोत थीं। नृत्य और गायन से कृष्ण और बलराम भी अपनी पत्नियों सहित आमोद-प्रमोद में सम्मिलित हुए। उनके साथ ही अन्य यादव सरदार, अर्जुन और नारद भी मिल गए। फिर एक नया उत्साह फैल गया। नर-नारी समुद्र में घुस गए और कृष्ण के कहने पर पुरुष नारियों के साथ जल-क्रीड़ा में रत हो गए। कृष्ण, उत्सव के नायक थे और बलराम भी आकर्षण का केन्द्र थे। फिर सभासदों ने भी अपने संगीत से समा बांध दिया। इसके पश्चात्, खाना-पीना आरम्भ हुआ और फिर संगीत की विशेष झंकारें निकलीं जिसमें नायकों ने विभिन्न वाद्यों पर अपने कौशल दिखाए। इससे पता चलता है कि यादवगण कितने रंगीले थे और ब्राह्मणों अथवा आधुनिक परिष्कारवादियों को कैसा उत्तर दिया जो नृत्य मंडलियों और लोकमंच से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। ऐसी ही रंगरेलियां नशे की तरंग थी जिन्होंने यादवों को बरबाद कर दिया। कहा जाता है कि अपने ऐसे ही बचकाने-पन से उन्होंने, और बाद में उनके वंशजों ने ऋषियों को  अप्रसन्न कर दिया। इन चुहलबाज युवकों ने कृष्ण के एक पुत्र साम्य को स्त्री के ऐसे वस्त्र पहना दिए, जिससे लगे कि उसको गर्भ ठहरा हुआ है। उसकी नाभि के नीचे लोहे की मूसली लटका दी और ऋषि से पूछा, “यह स्त्री क्या जनेगी?” क्रोध से भरे ऋषि ने कहा, “ये स्त्री मूसली जनेगी, जिनसे यादवों का विनाश होगा।” शाप से भयभीत होकर वे मूसली को समुद्र के किनारे ले गए और उसे घिस-घिस कर बुरादा बना दिया। परन्तु इसके कणों से धारदार घास सरकंडे पैदा हुए जिसकी उन्होंने संटियां बना लीं। इन्हीं संटियों से मार-मार कर यादवों ने परस्पर संहार कर डाला। वे आमोद-प्रमोद के लिए प्रभास गए। जहां उन्होंने सुरापान किया जो उनके विनाश का कारण बनी। सुरापान की लत इतनी फैल गयी कि कृष्ण और अन्य यादव प्रमुखों ने इसे मौत का पैगाम बताकर इस पर पाबंदी लगा दी। परन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। नशे में धुत्त यादवों में झगड़ा हुआ और फिर मारपीट। इससे उन्होंने एक-दूसारे को मार गिराया। जब कृष्ण के अपने पुत्र मारे गए तो वे भी लड़ाई में कूद पड़े और बहुत से अपने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तब वे बलराम की खोज में गए। उन्होंने देखा कि वे समाधि में बैठे हैं और शेषनाग के रूप में उनकी आत्मा जिसका वे अवतार थे, शरीर छोड़ रही है। कृष्ण ने विचार किया कि अब उनके भी प्रयाण का समय आ गया है। तब उन्होंने अपने पिता और पत्नियों से विदा ली और उनसे कहा कि अर्जुन उनकी देखभाल करेंगे। तब वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए फिर अपने को पत्तियों से ढांप लिया और ध्यानमग्न हो गए। जब वे इस प्रकार बैठे तो जरा नामक व्याध ने उन्हें भूल से हिरण समझ लिया और उन पर वही तीर चला दिया जो मूसली की बची हुई कील से उसने बनाया था। अपनी गलती जान कर जरा उनके पैरों पर गिर पड़ा। कृष्ण ने उसे क्षमादान दिया और एक ज्योति-पुंज बन कर आकाश में विलीन हो गए। अर्जुन आए और बचे-खुचे यादवों को हस्तिनापुर ले गए। परन्तु उस अनुपम धनुर्धर का तेज नष्ट हो गया और उनकी भुजाओं की शक्ति जाती रही। कुछ लाठीधारी अहीरों ने उन पर आक्रमण कर दिया और बहुत सारी स्त्रियों को छीन कर ले गए और वे थोड़े-बहुत लोगों को हस्तिनापुर ला सके।

अर्जुन के जाने के पश्चात् द्वारका समुद्र में डूब गई और यादवों तथा उनका वैभव, उनके पारिवारिक विवाद और उनकी रंगरेलियां सभी का नाम मिट गया।

‘ब्रह्म धर्म नहीं है’ शीर्षक के अंतर्गत बाईसवीं पहेली के कुछ अंश, जो बाबासाहेब ने अंग्रेजी में अपने हाथ से लिखे हैं, उनकी प्रतिलिपि इस आशय से यहां प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि पाठक बाबासाहेब के सुलेख से अवगत हो सकें – संपादक