जब ब्राह्मणों ने मांस-मदिरा का सेवन आरम्भ कर दिया तो उन्हें पुराणों में पशुबलि की वकालत करने में कोई संकोच नहीं हुआ। एक पुराण का विशेष उल्लेख करना आवश्यक है। वह है काली पुराण । यह पुराण स्पष्ट रूप से देवी काली की पूजा को प्रचारित करने के लिए लिखा गया था। इस पुराण में एक अध्याय का नाम ही ‘रुधिर अध्याय’ है।
मैं रुधिर अध्याय का सारांश देता हूं। इस अध्याय1 में शिव ने तीन पुत्रें बेताल, भैरव और भैरों को निम्न प्रकार से सम्बोधित किया हैः
‘मेरे पुत्रें! देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए सम्पादित होने वाले संस्कार और नियमों के विषय में, मैं तुम्हें बताता हूं।’
‘वैष्णवी तंत्र में जो प्रावधान किया गया है, उनका सभी अवसरों पर सभी देवताओं को बलि चढ़ाकर पालन किया जाए।’
‘पक्षी, कच्छप, घड़ियाल, मीन, वन्य जंतुओं की नौ प्रजातियां, भैंसा, वृषभ, बकरा, नेवला, जंगली-सुअर, दरियाई घोड़ा, मृग, बारहसिंगा, सिंह, बाघ, मनुष्य और बलिदाता का स्वयं का रक्त चण्डिका देवी और भैरों की पूजा के उचित पदार्थ हैं।’
‘बलि चढ़ाने से ही राजाओं को सुख, स्वर्ग और शत्रु विजय प्राप्त होती है।’
‘देवी, मछली और कच्छप के चढ़ाने से एक माह की अवधि के लिए खुश रहती
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- इस अध्याय का डब्लू.सी. ब्लैकियर ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था, जो एशियाटिक अनुसंधानों में प्राप्य है।
यह अंग्रेजी में सोलह पृष्ठों की लेखक द्वारा संशोधित सामग्री प्राप्त हुई है जो पूर्ण प्रतीत होती है। – संपादक
है और मगरमच्छ से तीन मास तक, वन्य जंतुओं की नौ प्रजातियों से देवी नौ महीने प्रसन्न रहती है और इस अवधि में यह भक्त का कल्याण करती है। गौर, नीलगाय के रक्त से एक वर्ष और मृग तथा जंगली सुअर से बारह वर्ष तक संतुष्ट रहती है। सरभ का रक्त देवी को पच्चीस वर्ष तक संतुष्ट रखता है, भैंस तथा दरयाई घोड़े का रक्त एक सौ वर्ष और बाघ का भी इतने ही वर्ष संतुष्ट रखता है। सिंह और बारहसिंगा और मानव-जाति का रक्त एक हजार वर्ष तक प्रसन्न रखता है। इनके मांस से भी उतनी ही अवधि तक संतुष्टि होती है, जितने दिन इनके रक्त से। अब दरियाई घोड़े और मृग के मांस तथा रोहू मछली के चढ़ावे का फल सुनो।’
‘‘मृग और दरियाई घोड़े के मांस से देवी पांच सौ वर्ष तक और रोहू मछली तथा बारहसिंगे से मेरी प्रिया (काली) तीन सौ वर्ष तक संतुष्ट रहती है।’’
‘आठों पहर में दो बार पानी पीने वाली रेवड़ की प्रमुख कृशकाय बच्चों वाली इकरंगी बकरी बधिनासा कहलाती है। वह सर्वोत्तम हव्य और कव्य हैं।’
‘‘नीली ग्रीवा, लालशीर्ष, श्याम टांगों और श्वेत पंखों वाला पक्षी भी वर्धुनासा कहलाता है। वह पक्षीराज है और मेरा तथा विष्णु का प्रिय है।’’
‘निम्नांकित विधि से दी गई मानव-बलि से देवी एक हजार वर्ष तक प्रसन्न रहती है और तीन मनुष्यों की बलि से एक लाख वर्ष तक। मेरे रूपधारी कामाख्या, चण्डिका और भैरव मनुष्य के मांस से एक हजार वर्ष के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। रक्त का अर्घ्य पवित्र मंत्रों में अमृत बन जाता है, कामाख्या को शीश अर्पित किया जाए तो वह अति प्रसन्न होती है। जब ज्ञानी देवी को चढ़ावा चढ़ाऐं तो रक्त और शीश अर्पित करें और जब अग्नि को आहूति दें तो मांस डालें।’
‘भक्त इस बात से सचेत रहें कि अशुद्ध मांस अर्पित न किया जाए क्योंकि वे स्वयं शीश और रक्त को अमृत मानते हैं।’
‘बेल पर लगने वाला फल, गन्ना, नशीली मदिरा, सड़ाई हुई मदिरा भी अन्य आहुतियों के समान माने जाते हैं और देवी को उतने काल तक प्रसन्न रखते हैं जैसे कि बकरी की बलि से।’
‘बलि के लिए चन्द्रहास सर्वोत्तम हथियार है, छुरे का स्थान दूसरा है जबकि कुदाली एक निकृष्ट साधन है।’
‘इन शास्त्रों के सिवाय बलि के लिए बरछी अथवा बाण का प्रयोग न किया जाए क्योंकि उस बलि को देवी स्वीकार नहीं करती और बलिदाता का मरण हो जाता है, जो अपने हाथों बलि के पशु अथवा पक्षी का शीश मरोड़ देता है, वह भी उतना ही पापी है, जितना ब्रह्म-हत्यारा, उसे भारी दुःख झेलने पड़ते हैं।
ज्ञानी को इस उद्देश्य से बनी कुल्हाड़ी को मंत्रों से पवित्र करके प्रयोग करना चाहिए जैसा कि दुर्गा और कामाख्या के विषय में विशेष रूप से उल्लेख है।
‘काली का नाम दो बार लिया जाए फिर कहा जाए ‘देवी ब्रजेश्वरी लाव्हा दंदयी नमः’ ये शब्द इस प्रकार उच्चारे जायं ‘‘जय! काली! काली जय! देवी! दामिनी देवी लौह खड्गधारी….’’ फिर वह कुल्हाड़ी अपने हाथ में ले और निम्नांकित काल-रात्र्य मंत्र से फिर अग्नि चेतन करें।
‘बलिदाता कहेः हरंग-हिरंग, काली, काली’ भयंकर दांतों वाली देवी, खा, काट,
अनिष्ट हर, कुल्हाड़ी से काट, झुक झपट, रक्त पी, उठा उठा। इस प्रकार काली वंदना काल-रात्र्य मंत्र कहलाती है।
‘इस मंत्र से किया गया वार काल-रात्र्य कहलाता है। काल-रात्रि (अंधकार की देवी) स्वयं बलिदाता के शत्रु का संहार करती हैं।’
‘बलिदाता को पूर्व निर्देशानुसार बलि देनी चाहिए और बलि-पशु से निम्न प्रकार कहें।’
‘प्राणी कर्त्ता की सृष्टि है, वह आत्म-बलिदान करे। इसलिए मैं तेरा जीवन लेकर बिना पाप किए तेरा बलिदान कर रहा हूं।’
‘बलिदाता उस देवता का नाम ले, जिसके लिए बलि दी जा रही हो। वह प्रयोजन बताए, जिसके लिए बलि दी जा रही है और उपरोक्त मंत्र के साथ बलि चढ़ा दे। उसका मुख उत्तर को हो चाहे पहले किसी अन्य दिशा में भी हो, बलिदाता अपना मुख उत्तर में रखे और बलिपात्र को पूर्व दिशा में रखें’ बलि चढ़ाने के बाद उसमें ‘नमक जरूर मिलाया जाए और पूर्वोक्त के अनुसार रक्त भी’।
‘जिस पात्र में रक्त अर्पित किया जाए, वह भक्त की परिस्थिति के अनुकूल हो सकता है। सोने का, चांदी का, तांबे का, पीतल का, दोना अथवा मृदापात्र, बलि में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ भी मान्य हैं।’
‘वह लौह-पात्र अथवा पशुओं की खाल या वृक्ष-छाल, जस्ता या शीशे के बर्तन में भेंट न किया जाए, श्रब और श्रच अथवा भूमि पर भेंट न चढ़ाई जाए। घट का प्रयोग भी निषिद्ध है। रक्त धरती पर न उडेला जाए, वह पात्र उपयोग में लाया जाए, जिसका प्रयोग अन्य अवसरों पर देवताओं को भोग लगाने के लिए किया जाता है। जो व्यक्ति सम्पदा चाहता है, वह इन पात्रों का उपयोग करें। मानव-रक्त केवल धातु अथवा मिट्टी के बर्तन में चढ़ाया जाए। पात्रों के द्रोण अथवा वैसे ही पात्रों में न चढ़ाया जाए।’
‘‘अश्वमेध यज्ञ को छोड़कर अश्व की बलि देना अनुचित है। गजमेध के अतिरिक्त हाथी की बलि भी अनुचित है। राजा यह देखें कि इन अवसरों को छोड़कर यह बलियां न दी जाएं। किसी भी दशा में ये देवियों को न चढ़ाए जाएं। अवसर पड़ने पर अश्व के स्थान पर जंगली सांड चढ़ाया जा सकता है।’’
‘‘ब्राह्मण देवी को कभी सिंह अथवा बाघ या अपने रक्त की बलि न दें, न ही नशीली शराब चढ़ाएं। यदि कोई ब्राह्मण सिंह, बाघ अथवा मानव की बलि चढ़ाता है तो वह नरक जाएगा और जितने समय धरती पर रहेगा, दुःख दारिद्र भोगेगा।’
‘यदि कोई ब्राह्मण अपना रक्त अर्पित करता है तो वह ब्रह्म-हत्या के समान है और यदि वह मादक मदिरा चढ़ाता है तो वह ब्राह्मण नहीं रहता।’
‘कोई शास्त्री मृग न चढ़ाए; यदि वह चढ़ाता है तो ब्रह्म-हत्या का भागी होता है। जहां कहीं सिंह, बाघ और मानव-बलि की आवश्यकता हो तो तीन कार्य किए जाएं। सिंह, बाघ और मानव की मक्की या जौ के गीले आटे की आकृतियां बना ली जाएं, उनकी बली इसी प्रकार चढ़ाई जाए जैसे जीवित प्राणियों की चढ़ाई जाती है। कुल्हाड़ी मंत्रोचार के साथ चलाई जाए।’
यदि कई पशुओं की बलि देनी हो तो केवल दो अथवा तीन को ही देवी के समक्ष लाना पर्याप्त है जो सभी की उपस्थिति मानी जाएगी। हे भैरव! मैंने तुम्हें उत्सव की सामान्य बातें बता दी हैं और यह भी बता दिया है कि बलि कैसे हो और किन अवसरों पर कौन से मंत्र पढ़े जाएं।
जब देवी भैरवी, या भैरव को भैंस की भेंट चढ़ाई जाए तो बलिपशु के समक्ष निम्नांकित मंत्र पढ़ा जाएः
‘हे भैंस, जिस रीति से तू घोड़े का नाश करती है, जिस रीति से तू चंडिका तक जाती है, तू मेरे शत्रु का उसी प्रकार विनाश कर और मुझे समृद्ध बना।’
‘‘हे मृत्यु के युद्धाश्व! श्रेष्ठ और अविनाशी स्वरूप, मुझे चिरायु कर और विख्यात कर। हे भैंस, तुझे नमन!
‘‘अब मानव-रक्त की भेंट चढ़ाने संबंधी विवरण सुनो।
‘‘मानव की बलि पवित्र पूजा-स्थल पर अथवा श्मशान में दी जाए। पूजा उपरोक्तानुसार श्मशान क्षेत्र में या कामाख्या मंदिर अथवा पहाड़ी पर की जाए। अब उसकी विधि सुनो।
‘‘श्मशान मेरा रूप है और यह भैरव कहलाता है। इसमें एक दिशा होती है, जो तंत्र-स्थल कहलाती है। पूजा इन दो दिशाओं में होती है। तीसरे को हरूका कहते हैं।
मनुष्य की बलि पूर्वी दिशा में दी जाए जो भैरव के लिए पवित्र है। शीश दक्षिणी दिशा में चढ़ाया जाए, जो कपाल भूमि कहलाती है और भैरवी के लिए पवित्र है। रक्त पश्चिमी दिशा में अर्पित किया जाए जिस पर हरूका प्रभुत्व होता है।
सम्पूर्ण पूजा-विधि और पवित्र स्थान पर किसी व्यक्ति की बलि चढ़ाते समय, बलि चढ़ाने वाले द्वारा इस बात का ध्यान रखा जाए कि वह बलि-पशु पर नजर गड़ा कर न देखें।
अन्य अवसर पर भी बलि चढ़ाने वाला बलि-पशु पर दृष्टि न गड़ाए बल्कि सिर निगाह हटाकर चढ़ाया जाए।
‘‘बलि-प्राणी देखने में अच्छा हो, पूजा के साथ उसे तैयार किया जाए। वांछित विधियां सम्पन्न की जाएं, जैसे एक दिन पूर्व मांस रहित पवित्र भोजन कराकर और उसकी पूजा करके उसे पुष्पहार पहनाया जाए और चंदन से सुगंधित किया जाए।
‘‘फिर उसका मुख उत्तर की ओर रखें, बलि-पशु के विभिन्न स्वामी देवों की पूजा की जाए। फिर नाम पुकार कर बलि-पशु की पूजा की जाए।
‘‘इस प्रकार बलिदाता बलिपात्र की पूजा करें, वे मंत्र उच्चारे जो इस अवसर के लिए उपयुक्त हैं और जिनका पूर्व उल्लेख किया जा चुका है।
‘‘किसी चौपाए पशु अथवा मादा पक्षी की या किसी स्त्री की बलि न चढ़ाएं, इस प्रकार बलिदाता नरक में जाता है। यदि पशु-पक्षी पर्याप्त संख्या में हैं तो मादा की बलि दी जा सकती है, किन्तु मनुष्यों के संबंध में क्षम्य नहीं।
‘‘किसी ब्राह्मण अथवा चाण्डाल की बलि न दी जाए, न राजकुमारों की संतान की ही और न युद्ध में विजेताओं की, न ब्राह्मण और क्षत्रिय की संतान की, न संतानहीन भ्राता, न पिता की, न विद्वान की और न ही किसी अनिच्छुक व्यक्ति की। जो ऊपर गिनाए जा चुके हैं, उनके अतिरिक्त अज्ञात नाम के पशु-पक्षियों की बलि भी अनुकूल है। यदि उपरोक्त में कोई उपलब्ध नहीं है तो उनके स्थान पर गधे अथवा ऊंट की बलि दी जा सकती है। यदि अन्य पशु उपलब्ध है तो बाघ, ऊंट और गधे की बलि से परहेज किया जाए।
‘‘जब बलिपात्र की पूजा कर ली जाए, चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो अथवा पक्षी, तो पूर्वोक्त के अनुसार बलिदाता निर्धारित मंत्र का पाठ करें और देवता का आह्वान करते हुए बलि चढ़ा दें।
‘‘मनुष्य का सिर देवी के दक्षिण में रखा जाए और बलिदाता देवी के सम्मुख खड़े होकर उनका आह्वान करें। पक्षी का रक्त बायीं और चढ़ाया जाए और पूजा करने वाले व्यक्ति के अंगों का रक्त सामने चढ़ाया जाए। मांसाहारी पशु अथवा पक्षियों के सिर से निकलने वाले रक्त रूपी अमृत, जल-जीवों के रक्त को बाएं हाथ से अर्पित करें।
मृग कच्छप दरियाई घोड़े और शशक का रक्त, सिर और मछली सामने चढ़ाई जाएं।
सिंह-मस्तक और दरियाई घोड़े का शीश और रक्त देवी के पीछे न चढ़ाया जाए, बल्कि दाएं, बाएं और सम्मुख चढ़ायें।
समर्पण दीप या तो दाएं हाथ में रखें अथवा सम्मुख किसी भी दशा में, बाएं हाथ में नहीं। सुगंधि बाईं ओर की जाएं या समक्ष किन्तु दाईं ओर नहीं। सुगंध, पुष्प और आभूषण सम्मुख रखे जाएं। जो विधि बताई है, उसका पालन किया जाए। अन्य पेयों के पश्चात् बाईं और मदिरा चढ़ाई जाए।
‘‘यदि प्रेत-आत्माओं की पूजा नितांत अनिवार्य हो तो पहले वर्ग के तीन व्यक्तियों को पीतल-पात्र में नारियल का पानी, अथवा ताम्रपात्र में शहद दिया जाए। दैवी विपदा के समय भी, पहले तीन वर्गों के व्यक्ति मादक मदिरा भेंट चढ़ाएं जो पुष्पों से बनी नहीं होनी चाहिए अथवा दमपुख्त भोजन न परोसा जाए। राजकुमार, मंत्रीगण, अमात्य और कलाल धन-सम्पदा के लिए मानव-बलि चढ़ाएं।
‘‘यदि राजकुमार की सहमति के बिना मानव-बलि चढ़ाई जाती है तो बलिदाता पाप करता है। युद्ध के अवश्यंभावी भय की दशा में बलि केवल राजकुमार या मंत्रियों द्वारा चढ़ाई जाए। किसी और के द्वारा नहीं।
‘‘मनुष्य को बलि से एक दिन पूर्व मंत्र सुना कर और दैवी गंध से तैयार किया जाए और उसके शीश को कुल्हाड़ी से छुआएं। कुल्हाड़ी पर चंदन का लेप करें। फिर कुछ चंदन कुल्हाड़ी से छुड़ाएं और बलि-पात्र की गर्दन पर मलें।
‘‘फिर अम्बे अम्बिका आदि का मंत्र पढ़ें। रौद्र और भैरव मंत्र पढ़ा जाए। इस प्रकार शुद्ध किए गए मनुष्य की देवी स्वयं रक्षा करेंगी, उसे कोई व्याधि नहीं होगी। शोकादि से उसका मानस भी विचलित नहीं होगा। उसके किसी परिजन की मृत्यु से भी उसकी शुचिता भंग नहीं होगी।
‘‘बलि पात्र को रस्सी बांधकर और मंत्रों से रक्षित कर उसके सिर पर वार किया जाए और उसे सावधानीपूर्वक देवी को चढ़ाया जाए। यह बलियां शत्रुओं की संख्या के अनुपात में हों, फिर शत्रु-विनाश के लिए मंत्र के साथ शत्रु की आत्मा उसमें डालकर कुल्हाड़ी से बलि-पात्र का सिर काटा जाए। बलि चढ़ जाने के बाद वह शत्रु का विनाश करेगी।
‘‘पूजा के घोषित उद्देश्य के लिए ऐसे व्यक्ति का रक्त लिया जाए, जिसका शरीर और मन स्वच्छ तथा शुद्ध हो, भय-मुक्त हो। उसे कमल-दल में भर कर मंत्रोचार के साथ चढ़ाया जाए।
‘‘रक्त यदि छुरे या कुल्हाड़ी से चीरा देकर निकाला जाता है तो यह शस्त्र के अनुपात के अनुसार सुखद होता है।
‘‘बलि चढ़ाने वाला कमल-दल में उपस्थित रक्त की एक चौथाई मात्र चढ़ाए परंतु किसी भी दशा में इससे अधिक नहीं होना चाहिए, शरीर का भाग आवश्यकता से अधिक नहीं काटा जाना चाहिए। जो अपना रक्त अथवा मांस स्वेच्छा से अर्पित करे। मांस के लिए वह अलसी, मांस, तिल अथवा मदिरा प्राप्त करे।’’
जो इन नियमों के अनुसार बलि देता है, उसका मनोरथ पूरा होता है।
काली पुराण, धर्म का यह उपदेश देता हैः
मनु द्वारा सदियों तक निर्दिष्ट अहिंसा तंत्रों द्वारा ध्वस्त कर दी गई, जिसका यह विकृततम रूप है। इसमें पशु और मानव हिंसा का प्रभुत्व है। हिंसा का यह उपदेश, जो काली पुराण के रुधिर आध्याय में दिया गया है, काफी प्रचलित हो गया था। पशु-बलि के पुनर्राम्भ के प्रमाण कलकत्ता के काली मंदिर में मिलते हैं। यह मंदिर पूरी तरह वधशाला बन गया है जहां हजारों बकरे, देवी काली को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाए जाते हैं। यह काली पुराण के उपदेशों का परिचायक है। आजकल देवी काली को मनुष्य-बलि नहीं चढ़ाई जाती। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसा कभी नहीं हुआ। इसके विपरीत ऐसे अनेक साक्ष्य हैं कि काली पुराण के उपदेशों के अनुसार पशु-बलि की तरह ही मानव-बलि दी जाती थी। डॉ- राजेन्द्रलाल मित्र ने लिखा हैः1
‘‘यह सर्वविदित है कि बहुत समय तक यह पूजा (मनुष्य-बलि) पूरे हिन्दुस्तान में आम बात थी। ऐसे लोगों का अभाव नहीं है, जिन्हें संदेह है कि भारत में कुछ ऐसे स्थल हैं, जहां देवी को प्रसन्न करने के लिए कभी-कभार आज भी मनुष्य की बलि दे दी जाती है। वामाचारियों से संबद्ध पुराने परिवारों में, जिनके पूर्वजों ने दुर्गा
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- इंडो-आर्यन्स, भाग 2, पृ. 109-111
और काली-पूजा में विधिपूर्वक मानव-बलियां दी थीं, आजकल भी जीवित मनुष्यों के स्थान पर उनके पुतलों की बलि चढ़ाई जाती है। एक फुट ऊंचा पुतला खोए से बनाया जाता है और काली पुराण की विधि के अनुसार उसका बलिदान किया जाता है। अंतर केवल इतना है कि उस पुतले में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए कुछ मंत्र और जोड़ दिए गए हैं। चौबीस परगना के मेरे डिप्टी कलेक्टर मित्र बाबू हेमचन्द्र केर ने बंगाल में पटसन संस्कृत पर एक उत्तम पुस्तक लिखी है उन्होंने मुझे बताया कि बंगाल के पूर्वी क्षेत्रें में इस प्रकार की बलि प्रायः दी जाती है। परन्तु पुतला एक व्यक्ति द्वारा न काटा जाकर परिवार के सभी वयस्क लोगों द्वारा एक साथ काटा जाता है। वे या तो अलग-अलग चाकुओं से एक साथ वार करते हैं अथवा एक ही चाकू को संयुक्त रूप से पकड़ते हैं। इसे शत्रुबल कहा जाता है। नरबलि और शत्रुबलि गुप्त रूप से मध्यरात्रि में दी जाती है। बहरहाल, शत्रुबलि कालिका पुराण की नरबलि से एक भिन्न पूजा है, इसका निर्देश वृहन्नला तंत्र में हैं, जिसमें कहा गया है कि उल्लिखित अन्य पूजाएं सम्पूर्ण हो जाने के बाद राजा को खोए से बने अपने शत्रु (पुतला स्वरूप) की बलि देनी चाहिए। उसे अग्नि के समान दहकती आंखों से देखें। भरपूर वार करें और एक ही बारी में उसके दो टुकड़े कर दें। इससे पूर्व उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर ली जाए और जिस व्यक्ति का विनाश किया जाना है, उसका नाम लिया जाए। ओ महेश भार्या! उसके शत्रु का नाश कर।’’
इस संबंध में यह जानना महत्वपूर्ण है कि काली शिव की पत्नी हैं। प्रश्न यह है कि क्या शिव पशुबलि स्वीकार करते हैं? उत्तर यह है कि एक समय शिव पशु-बलि पर निर्भर थे। आज के शिवभक्तों को यह बात अनोखी लग सकती है। परन्तु यह यथार्थ है और जो कोई इसका प्रमाण चाहे, वह आश्वलायन गृह्यसूत्र देखें जिसमें शिव की संतुष्टि के लिए वृषभ की बलि का विस्तृत विवरण है। मैं इस आश्वलनायन गृह्य-सूत्र1 का यथावत पाठ प्रस्तुत करता हूं। उसका कथन हैः
- अब छिद्रित वृषभ (रुद्र के लिए) बलि चढ़ाया जाता है।
- आर्द्रा-नक्षत्र में अथवा वसंत में।
- अपने झुण्ड में समाविष्ट।
- (वृषभ) न कोढ़ी और न ही चितला।
- कुछ के मत में काली चित्ती वाला।
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- सैक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट (एस.बी.ई.) भाग 29, पृ. 255-259 (मैक्समूलर)।
- यदि वह चाहे, काला, यदि इच्छा हो तो ताम्रवर्णी।
- वह उस पर पानी छिड़कता है, जिसमें उसने चावल और जौ डाले होते हैं।
- सिर से पूंछ तक (सर्वांग)।
- मंत्र (सहित) महान देव रुद्र के लिए तैयार हो जा।
- वह उसे बड़ा होने दे, जब उसके दांत आ जाएं अथवा वृषभ बन जाए।
- उस क्षेत्र में जो विशिष्ट रूप से शुद्ध हो।
- ऐसे स्थान पर जो गांव से दिखाई न दे।
- मध्यरात्रि के पश्चात्।
- कुछ के मत में सूर्योदय के पश्चात्।
- फिर पूजा के ज्ञाता ब्राह्मण को बिठाएं। इससे पहले पेड़ के पत्तीदार तने से बलिखम्ब बनाएं, उसमें दो लताओं अथवा कुश की दो रस्सियां मेखला की तरह बांधें। एक सिरा बलि-पशु के सिर के मध्य में बांधें। फिर वही मंत्र बोलें कि जिसकी बलि के लिए लाया गया है, उसकी सहमत् से मैं तुम्हें बांधता हूं।
- पानी का छींटा उसी प्रकार दिया जाएगा जैसे पशु-बलि में दिया जाता है।
- हमें भिन्नता बचानी होगी।
- फिर श्रुतानुसार पत्री के साथ बलि दी जाए।
- (मंत्र) के साथ ‘‘तव हर, मृदा, सर्व शिवा, भव, महादेव, उग्र, भीम, पशुपति, रुद्र, शंकर, ईशाना स्वाहा’’।
- अथवा अंतिम छ (सूत्र के)।
- अथवा मंत्र ‘‘तव रुद्र स्वाहा’’।
- फिर चारों दिशाओं में बलि अर्पित करें। मंत्र का भाव है ‘‘रुद्र, यह भेंट तुझे प्रस्तुत है। तू मुझे हानि न पहुंचा।’’ इस प्रकार चारों दिशाओं में भेंट चढ़ाई जाए।
- निम्नांकित मंत्रों से चारों दिशाओं की पूजा की जाए ‘‘रुद्र हम क्या करें’’। ‘‘यह प्रार्थना रुद्र के लिए हैं’’ ‘‘हे पिता तेरे लिए’’ ‘‘अति नमन के साथ ये गीत रुद्र के लिए है’’। (ऋग्वेद 1. 43, 114, 11, 33 सप्तम 46)
- रुद्र के लिए सभी बलियों के समय इस क्षेत्र-पूजा की जाए।
- (चावल की) पुआल और भूसी, पूंछ और खाल, सर, पैर, (बलि दिए गए पशु के) अग्नि में डाले जाएं।
- समवात्य के अनुसार खाल का कुछ उपयोग किया जाए।
- अग्नि के उत्तर में दूर्बा घास पर या कुशा के घेरे में (बलि दिए गए पशु का) रक्त चढ़ाया जाए। उसके मंत्र का भाव है, फुफकारने वाले, गर्जनवाले, ढूंढने वाले, जकड़ने वाले सरिसृप जो यहां है, यह तेरे लिए है, इसे ग्रहण कर’’।
- फिर उत्तर की ओर घूमकर, जो सरिसृप के लिए नियत है, कहें- फुफकारने वाले सरिसृप, यहां जो कुछ है, तेरे लिए है, इसे ग्रहण कर।
- बलिदाता जानता है कि सभी नाम, सभी आयोजक, सारी उत्तेजना से वह प्रसन्न होता है।
- उन व्यक्तियों की भी वह हानि नहीं करेगा जो पूजा में बैठते हैं। ऐसा समझा जाता है (श्रुति में)।
- वह बलि के भाग में साझीदार नहीं होगा।
- वह बलि से संबद्ध कोई पदार्थ गांव में नहीं ले जाएंगे।
- वह बलि-स्थान से अपने लोगों को दूर रखेंगे।
- पर वे एक निर्दिष्ट अवसर पर वह (बलि के भोजन) से भाग ले लें, वह सौभाग्यशाली होगा।
- कटे हुए वृषभ की बलि से धन, क्षेत्र, शुद्धता, पुत्र, पशु, दीर्घायु, दीप्ति मिलती है।
- बलिदान के पश्चात् वह अन्य पशु न खाए।
- उसे ऐसे पशुओं का अभाव नहीं रहेगा।
- फिर वह पशु-विहीन नहीं रहेगा-ऐसा जाना जाता है (श्रुति में)।
- वह संततीय मंत्र जपता हुआ अपने घर जाए।
- यदि उसके पशुओं को व्याधि हो तो वह गोशाला में ही उसी देव के लिए बलि दे।
- पके भोजन का भोग जो उसने बलि में चढ़ाया।
- बलि-स्थल की घास और अग्य आग में डाल दिया जाए, और वह अपनी गायों को धुएं के बीच से निकालें।
- संततीय मंत्र पढ़ते हुए वह पशुओं के बीच जाएं।
- शौनक को नमन-शौनक को नमन।
आजकल शिव, पशु-बलि स्वीकार नहीं करते। शिव-पूजा का यह रूप अहिंसा स्वीकार करने के पश्चात् बदला है। हिंसा से अहिंसा अपनाने के बाद ब्राह्मणों ने शिव को हिंसक से अहिंसक बना डाला। शिव के अहिंसक देवता बन जाने के बहुत बाद काली-पूजा आरम्भ हुई। कुछ भी हो, उनकी पत्नी काली हिंसक देवी बन गई। परिणाम यह हुआ कि हमें अहिंसक (रक्तपातहीन) देवों को पत्नी रूप में क्रूर-रक्तपिपासु स्त्रियां (देवियां) मिलीं। क्या यह पहेली नहीं? ब्राह्मणों ने ऐसा क्यों किया?