ब्राह्मणों की व्याख्या अथवा वाग्जाल का एक प्रयास
कोई हिंदू ऐसा नहीं मिलेगा जो वेदों को अपने धर्म का पवित्रतम ग्रंथ न मानता हो।
फिर भी किसी हिंदू से पूछें, वेदों की उत्पत्ति कैसे हुई? इस सादे प्रश्न का उसके लिए
स्पष्ट और निश्चित उत्तर दे पाना कठिन होगा। फिर भी यदि किसी वैदिक ब्राह्मण से
प्रश्न किया जाए तो वह तुरंत कहेगा कि वेद सनातन है। परंतु इस प्रश्न का यह उत्तर
नहीं है। सबसे पहले हम सब यह जानें कि ‘सनातन’ शब्द का क्या अर्थ है?
‘सनातन’ शब्द की सबसे अच्छी व्याख्या कुल्लूक भट्ट ने मनुस्मृति के भाष्य
के प्रथम अध्याय, श्लोक 22-23 में विशुद्ध रूप से की है। कुल्लूक भट्ट ‘सनातन’
शब्द की व्याख्या करता हैः1
‘सनातन’ का अर्थ है ‘अनादि’, अनन्त’। वेदों की दिव्य उत्पत्ति का सिद्धांत मनु
ने प्रतिपादित किया। वही वेद पूर्व सृष्टि कल्प से ही ब्रह्मा की श्रुति में संरक्षित है जो
दिव्यात्मा है। वर्तमान कल्प के आरंभ में यही वेद थे, उसे अग्नि ने सुनाया, वायु ने
1- मयूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ- 6
प्रस्तुत अध्याय के मूल अंग्रेजी में ‘वेदों की उत्पत्ति’ के बारे में 72 पृष्ठ प्राप्त हुए। ये पृष्ठ न तो ठीक
तरह से व्यवस्थित थे और न ही इन पर टाइपिस्ट अथवा लेखक की ओर से पृष्ठ संख्या डाली गई थी।
हमने इन खुले पृष्ठों को सुव्यवस्थित ढंग से संकलित करने का प्रयास किया और उन्हें पहेली नं- 2 से 6
में रखने का फैसला किया, जैसा कि विषय-सूची 2 में उल्लिखित है_ यह फैसला करना बहुत कठिन है
कि ये सभी पृष्ठ ठीक तरह से सही विषय और अध्याय के साथ जोड़ दिए गए हैं या नहीं।
बहरहाल 61 पृष्ठों का एक अलग अध्याय है जिसे ‘वेदों की पहेली शीर्षक’ के अधीन रखा गया
है_ वह परिशिष्ट 1 में शामिल किया गया है। अनुक्रमणिका में उन निबंधों को क्रम संख्या 2 से 6 पर
संकलित रूप में दिखाया गया है। प्रबंध में कई परिच्छेदों की पुनरावृत्ति हुई है। अध्याय 2 से 6 तक की
मूल पांडुलिपि में लेखक की ओर से ही संशोधन और परिमार्जन किये गये हैं। जो सामग्री परिशिष्ट एक
में रखी गई है, वह टाइप पृष्ठों की दूसरी प्रति है और उसमें बिल्कुल संशोधन नहीं है। हमने विषय-सूची
और पृष्ठों का क्रम और पांडुलिपि के पृष्ठों को तदनुसार व्यवस्थित किया है। – संपादक
12 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय
सुनाया, और सूर्य ने सुनाया। इसे अमान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि वेद कहता
है कि ऋग्वेद अग्नि की देन है, यजुर्वेद वायु और सामदेव सूर्य ने दिया है।
कुल्लूक भट्ट की बात समझने के पूर्व कल्प का अर्थ समझना आवश्यक है।
कल्प वैदिक ब्राह्मणों द्वारा की जाने वाली काल गणना है। ब्राह्मणों ने काल की इस
प्रकार गणना की है- 1- वर्ष, 2- युग, 3- महायुग, 4- मन्वंतर, 5- कल्प।
वर्ष को बड़ी सफलता से समझा जा सकता है। यह साल का समानांतर शब्द है।
युग कितनी अवधि का होता है, इस पर मतैक्य नहीं है।
चार युगों को मिलाकर एक महायुग बनता है। 1- कृतयुग, 2- त्रेता युग, 3- द्वापर
और 4- कलियुग। चार युगों का यही क्रम रहता है। जब प्रथम युग समाप्त हो जाता
है तो द्वितीय युग आरम्भ होता है। यही क्रम आगे चलता है। जब एक चक्र पूरा हो
जाता है तो महायुग होता है।
प्रत्येक महायुग कृतयुग से आरंभ होकर कलियुग पर समाप्त होता है।
महायुग और कल्प के विषय में कोई अनिश्चितता नहीं है। 71 महायुग एक
कल्प बनाते हैं, फिर भी महायुग और मन्वंतर काल के अंतराल के संबंध में कुछ
अनिश्चितता है। एक मन्वंतर 71 महायुगों के बराबर होता है या ‘‘कुछ अधिक’’
जिसके विषय में निश्चय नहीं है। ‘‘कुछ अधिक’’ समय का क्या अर्थ है-ब्राह्मण
इस बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं बता पाते। परिणामस्वरूप मन्वंतर और कल्प
के बीच का समय निर्धारित हो ही नहीं पाता।
परन्तु हमारा इससे विशेष प्रयोजन नहीं। फिलहाल कल्प तक सीमित रहें।
कल्प का सृष्टि और प्रलय से घनिष्ट संबंध बताया गया है। सृष्टि उसका आरंभ
है और प्रलय कल्प का अंत। इस प्रकार वेदों की उत्पत्ति कल्प से जुड़ी हुई है।
इसका अर्थ यह हुआ कि कल्प के आरंभ से सृष्टि आरंभ होती है और प्रत्येक
कल्प में वेदों की नई शृंखला शुरू होती है। कुल्लूक यह कहना चाहते हैं कि प्रत्येक
कल्प में नए वेदों की रचना होती है और ब्रह्मा अपनी स्मृति से उसे पुनः स्थापित
करते हैं। इसी कारण वे वेदों को अनादि-अनंत कहते हैं अर्थात् वे सनातन हैं।
जो कुल्लूक भट्ट कहते हैं वह है कि वेद स्मृति से उत्पन्न होते हैं। वास्तविक
प्रश्न यह है कि उनकी रचना किसने की? यह प्रश्न नहीं है कि उन्हें स्मृति से कौन
सुनाता है? यदि स्वीकार कर भी लिया जाए कि प्रत्येक कल्प के आरंभ में उनकी
पुनरावृत्ति होती है तो जब प्रथम कल्प आरंभ हुआ था तो उनकी रचना किसने की?
वेद स्वतः प्रसूत तो हो नहीं सकते। यदि अनंत हों भी तो अनादि नहीं हो सकते।
ब्राह्मण स्पष्ट क्यों नहीं बताते? यह वाग्जाल क्यों?