यदि हम प्राचीन आर्यों की आदतों और सामाजिक व्यवहारों की तुलना परवर्ती हिंदू समाज से करते हैं तो परिवर्तनों के संदर्भ में हम आश्चर्यजनक सामाजिक क्रांति पाएंगे।
क्या आर्य एक जुआरी प्रजाति के थे। आर्य सभ्यता के प्रारंभकाल में जुआ एक विज्ञान के रूप में विकसित हो चुका था यहां तक कि कई तकनीकी शब्द भी गढ़े गए। हिंदू चार युगों को कृत, त्रेता, द्वापर और कलि के नाम से जानते हैं, जिनके अनुसार इतिहास का काल-विभाजन किया गया था। दरअसल, ये आर्यों द्वारा जुए में खेले जाने वाले दाव थे। सबसे सौभाग्यशाली दाव कृत कहलाता था और दुर्भाग्यपूर्ण दाव को कलि कहते थे। त्रेता और द्वापर इनके बीच के थे। यही बात नहीं थी कि प्राचीन आर्यों में द्यूतक्रीड़ा भली-भांति विकसित थी अपितु बाजियां भी ऊंची-ऊंची
हुआ करती थीं। बड़ी-बड़ी धनराशि की बाजियां भी हुआ करती थीं। ऐसी बड़ी-बड़ी बाजियां तो अन्यत्र भी थीं परन्तु आर्यों से बढ़कर नहीं थीं। आर्य जुए में अपने राज्य, यहां तक कि पत्नियां भी दाव पर लगा दिया करते थे। राजा नल अपना राज्य ही हार बैठे थे। पांडव इससे भी बढ़कर थे। उन्होंने न केवल अपना राज्य बल्कि अपनी पत्नी द्रौपदी तक दाव पर लगा दी और दोनों को हार गए। केवल धनवान आर्य ही जुआ नहीं खेलते थे बल्कि यह बहुतों का व्यसन था। प्राचीन आर्यों में द्यूत क्रीड़ा इतनी व्याप्त थी कि धर्मसूत्रें (शास्त्रें) के लेखकों को राजाओं को सलाह देनी पड़ती थी
कि कठोर नियम बनाकर उस पर नियंत्रण की सख्त जरूरत है।
पहेली नं- 13 की मूल विषयवस्तु में ‘‘गोवध कर्ता ब्राह्मण गोपूजक कैसे बने’’ दिया गया था। यह अध्याय इन पृष्ठों में प्राप्त नहीं है। हां, कुछ पृष्ठ ‘‘अहिंसा की पहेली’’ शीर्षक से प्राप्त हुए हैं। यहां इसे सम्मिलित कर लिया गया है जिसका विषय भी वही है। अंग्रेजी में इसके टाइप किए हुए दस पृष्ठ मिले थे, जो निःसंदेह अपूर्ण विषयसामग्री है। – संपादक
आर्यों में मैथुन के संबंध में स्वच्छन्दता विद्यमान थी। एक समय था, जब वे विवाह को स्त्री-पुरुष के बीच स्थायी संबंध नहीं मानते थे। यह महाभारत से स्पष्ट है, जहां पाण्डुपत्नी कुंती पाण्डु के यह कहने पर कि वह किसी अन्य से पुत्र प्राप्त करे, वह बताती है कि उसको पहले ही एक पुत्र की प्राप्ति हो चुकी है। ऐसे भी उदाहरण हैं कि बहन-भाई, मां-बेटे, पिता-पुत्री और नाना, दादा-पौत्रियों तथा नातिनों के बीच शारीरिक संबंध थे। स्त्रियों में स्वछंदता थी। यह खुली स्वच्छंदता थी जहां कई पुरुष एक स्त्री को भोगते थे और उस पर किसी का निजी अधिकार नहीं था। ऐसी स्त्रियां गणिकाएं कहलाती थीं। आर्यों की स्त्रियों में स्वच्छंद मान्यता और भी थी। इसके अनुसार एक स्त्री कई पुरुषों से बंधी होती थी और प्रत्येक का दिन निर्धारित होता था। वह स्त्री वारांगना कहलाती थी। वेश्यावृत्ति फली-फूली हुई थी और सार्वजनिक मैथुन का प्रचलन था। परन्तु यह प्रथा प्राचीन आर्यों में थी। प्राचीन आर्यों में पशुगमन (मैथुन) भी प्रचलित था और ऐसे महारथियों में अधिकांशतः कुछ सम्मानित ऋषि थे।
प्राचीन आर्य मद्यसेवी भी थे। मदिरा उनके धार्मिक कृत्यों का अनिवार्य अंग थी। वैदिक देवता मदिरा पीते थे, दैवी मदिरा सोम कहलाती थी। क्योंकि आर्यों के देवता ही मद्यपान करते थे, इसलिए आर्यों को मदिरापान में कोई नैतिक संकोच की बात नजर नहीं आती थी। दरअसल शराब पीना आर्यों का धार्मिक कर्तव्य था। आर्यों में इतने सोम-यज्ञ होते थे कि कोई बिरला दिन ही मद्यपान से बचता होगा। सोम-यज्ञ केवल तीन उच्च वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों तक सीमित था। इसका अर्थ यह नहीं कि शूद्र मदिरापान से मुक्त थे। उनके लिए सोमपान निषिद्ध था, वे सुरा पीते थे जो घटिया पेय था। घटिया शराब बाजार में मिलती थी। केवल आर्य पुरुषों को ही शराब की लत नहीं थी बल्कि उनकी स्त्रियों को भी यह लत थी। कौषीतिक गृह्यसूत्र 1. 11-12 में परामर्श दिया गया है कि चार अथवा आठ ऐसी स्त्रियां जो विधवा न हों, भोजन के साथ मदिरापान कर, विवाह-संस्कार की पूर्व रात्रि में नृत्य के लिए बुलाई जाएं। नशीली शराब पीने की प्रवृत्ति केवल गैर-ब्राह्मण स्त्रियों तक सीमित नहीं थी। ब्राह्मण स्त्रियों में भी उसकी आदतें थीं। मदिरापान कोई पाप नहीं, व्यसन था। यह एक सम्मानजनक प्रथा थी। ऋग्वेद कहता हैः
‘‘मदिरापान से पूर्व सूर्योपासना’’ की जाए।
यजुर्वेद कहता हैः
‘‘हे देव सोम! सुरा से सुदृढ़ और शक्तिमान होकर अपनी शुद्ध आत्मा से देवों को प्रसन्न कर, यज्ञकर्ताओं को अमृत पेय दे और ब्राह्मण तथा क्षत्रियों को शक्ति।’’
मत्र ब्राह्मण में कहा गया है किः
‘‘जिससे स्त्रियां पुरुषों को आनन्दित करें और जिससे जल मदिरा में परिर्णित हो जाए’’ (पुरुषों के आनन्द हेतु), आदि।
रामायण के उत्तरकाण्ड में स्वीकार किया गया है कि राम और सीता दोनों ने मदिरापान कया। उसमें कहा गया हैः
जैसे कि इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि को मदिरापान करते देखा, वैसे ही रामचन्द्र ने देखा कि सीता ने परिष्कृत मधु, जो मदिरा कहलाता था, पिया। सेवकगण रामचन्द्र के लिए मांस और मीठे फल लाए।
वैसा ही प्रसंग महाभारत के ‘उद्योग पर्व’ में कृष्ण और अर्जुन के संबंध में आया हैः
‘‘अर्जुन और कृष्ण मधु से निर्मित मादक मदिरा पी रहे थे और गले में हार डाल रखे थे। बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण धारे हुए थे। सोने के रत्नजड़ित आसन पर बैठे थे। मैंने देखा श्रीकृष्ण के पांव अर्जुन की गोद में हैं और अर्जुन के पांव द्रौपदी और सत्यभामा की गोद में हैं।’’
सबसे बड़ा परिवर्तन भोजन में आया। आजकल हिंदू आहार के बारे में बहुत विचारशील हैं। आमतौर पर दो प्रकार की सहभोज ग्रहण की सीमाएं हैं। हिंदू किसी गैर हिंदू का पकाया भोजन नहीं करता। हिंदू किसी व्यक्ति के हाथ का भोजन नहीं करता जब तक कि वह ब्राह्मण अथवा उसी की जाति का न हो। हिंदू केवल यही नहीं देखता कि वह किसका बना खाना खाए, वह इसका भी ध्यान रखता है कि वह क्या खाए? आहार की दृष्टि से हिन्दुओं की दो श्रेणियां हैं:
- शाकाहारी, और 2. मांसाहारी
मांसाहारियों की भी कई उपश्रेणियां हैं:
वे जो सभी मांस और मछली खाते हैं।
वे जो मात्र मछली खाते हैं।
जो मांस खाते हैं, उनकी भी कई उपश्रेणियां हैं:
- वे जो गाय को छोड़कर किसी भी पशु-पक्षी का मांस खाते हैं।
- वे जो गाय सहित सभी प्रकार का मांस खाते हैं।
- वे जो मांस खाते हैं, परन्तु गाय का नहीं (मुर्दा या जिन्दा) मुर्गे का भी नहीं। आहार की दृष्टि से हिन्दुओं में से ब्राह्मणों के दो वर्ग हैं: 1- पंच-गौड़, और 2- पंच-द्रविड़।
इनमें से पंच द्रविड़ पूर्ण शाकाहारी हैं। हिंदुओं का अन्य वर्ग अर्थात् अछूत मांसाहारी हैं। वे केवल बकरी और पक्षियों का मांस ही नहीं खाते बल्कि गाय भी खाते हैं, चाहे वह जिंदा हो या मुर्दा। मध्यमार्गी गैर ब्राह्मणों की अलग आदतें हैं। उनमें कुछ ब्राह्मणों की तरह शाकाहारी हैं। शेष ब्राह्मणों के विपरीत मांसाहारी हैं। उनमें से कोई भी गाय का मांस नहीं खाता।
एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान देना है। वह है भक्षण के लिए पशु-वध करना। कोई हिंदू पशु-वध नहीं करेगा। यहां तक कि खाने के लिए भी, सिवाय एक छोटी सी जाति खटीक के। हिंदुओं में कोई कसाई नहीं होता। यहां तक कि अछूत भी वध नहीं करते। वह मुर्दा गाय का मांस खाते हैं, परन्तु वह गाय का वध नहीं करते। आजकल भारत में कसाई मुसलमान हैं। कोई हिंदू, जो खाने के लिए मांस चाहता है, वह मुसलमान को बुलाता है। प्रत्येक हिंदू अहिंसा में विश्वास रखता है।
भारत में शाकाहारी प्रथा कब से प्रचलित है? अहिंसा के प्रति आस्था कब जन्मी? बहुत से हिंदू इस प्रश्न को टाल जाते हैं। वे कहते हैं कि शाकाहार और अहिंसा भारत के लिए कोई नवीन बात नहीं है।
इस विवाद पर जो साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि वर्तमान हिंदुओं के पूर्वज प्राचीन आर्य न केवल मांसाहारी थे बल्कि वे गोमांस भी खाते थे। निम्नांकित साक्ष्य इस संबंध में पर्याप्त हैं।
वह निर्विवाद है।
मधुपर्क का उदाहरण लें।
प्राचीन आर्यों में अतिथि सत्कार के लिए एक सुविदित प्रचलन था, जो मधुपर्क के नाम से जाना जाता था। उसका विस्तृत विवरण विभिन्न गृह्यसूत्रें में उपलब्ध है। अधिकांश गृह्य सूत्रें में 6 व्यक्ति मधुपर्क के पात्र बताए गए हैं। उनके नाम हैः 1- ऋत्विज अथवा यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण, 2- आचार्य, 3- वर, 4- राजा, 5- स्नातक और 6- यजमान का प्रिय कोई अन्य व्यक्ति। इस सूची में कुछ लोग अतिथि को जोड़ते हैं। इसके अतिरिक्त ऋत्विज, राजा और आचार्य को छोड़कर अन्य को वर्ष में एक बार ही मधुपर्क दिया जाए। ऋत्विज, राजा और आचार्य जब भी आएं, उन्हें तभी मधुपर्क दिया जाए। इसकी रीति यह है कि पहले अतिथि के पांव धुलाए जाते हैं, फिर कुछ मंत्रें के उच्चारण के पश्चात् वह पिया जाता है।
मधुपर्क में क्या-क्या होता है? मधुपर्क का शाब्दिक अर्थ है ऐसा संस्कार जब किसी व्यक्ति के आचमन में मधु उडेला जाता है। आरम्भ में यही मधुपर्क था। किन्तु कालांतर में इसकी सामग्री बढ़ती गई, जिसमें मधु में काफी कुछ मिलाया जाने लगा। आरम्भ में इसमें दही, शहद और मक्खन होता था। फिर इसमें पांच पदार्थ सम्मिलित हुए- दही, मधु, घी, यव और जौ। फिर इसमें नौ पदार्थ होने लगे। कौशिक सूत्र में नौ मिश्रण पदार्थ हैं। ब्रह्म (दही और मधु), ऐन्द्र (पायस), सौम्य (दही और घी), मौसल (सायने और घी), (इसका उपयोग केवल सौत्रमणि और राजसूय यज्ञ में होता
था) वरुण (पानी और घी), श्रवण (शीशम का तेल और घी), परिव्राजक (शीशम का तेल और खली)। अब हम मानव गृह्य-सूत्र पर आते हैं। वह कहता है कि वेद घोषित करते हैं कि मधुपर्क बिना मांस के नहीं बनता। इसलिए विधान है कि यदि गाय नहीं तो बकरे का मांस अथवा पायस (दूध ये बना चावल) दिया जाए। हि. ग्र. 1,13-14 के अनुसार अन्य मांस प्रस्तुत किया जाना चाहिए। बौ.गृ. (1.2.51-54) कहता है कि गाय नहीं तो बकरी या भेड़ का मांस दिया जाना चाहिए या वन्य जंतु का मांस (हिरन आदि का) भी दिया जा सकता है क्योंकि बिना मांस के मधुपर्क नहीं बन सकता अथवा कोई मांस देने में सक्षम न हो तो वह कंदमूल पकाएं। परन्तु अंत में केवल मांस ही मधुपर्क का आवश्यक भाग बन गया। दरअसल कुछ गृह्य-सूत्रें ने प्रबल रूप से कहा है कि बिना मांस के मधुपर्क नहीं बन सकता। उनका आधार ऋग्वेद (8,101-5) है जो कहता है – ‘‘मधुपर्क बिना मांसके न हो।’’
इस प्रकार मांस-भक्षण सामान्य था। ब्राह्मण से शूद्र तक सभी मांसाहारी थे। धर्म सूत्रें में जंगली जंतुओं, पक्षियों, एवं मछली के मांस के बारे में अनेक नियम हैं। गौतम 17.27-31, आप.ध.सू. 1.5.17.35, वा- धर्मसूत्र 14.39-40, यजु. 1.177, विष्णु ध.सू. 51.6, सांख्य (अपरार्क पृ, 1167), रामायण (किष्किंधा 17.39) मार्कण्डेय
पुराण (35.2-4) में कहा गया है कि साही को छोड़ पांच पंजे वाले सभी जीवों का, ऊपर-नीचे के जबड़े वाले जीवों, झबरे और चिकनी त्वचा वाले जीवों (जैसे सांप) मुर्गों, जंगली सुअर, गाय और बैल का मांस अभक्ष्य है। आप- ध-सू- 1.5.17.29-31 के अनुसार एक खुरवाले ऊंट और गव्य (गयाल), सुअर, सरभ और गाय का मांस न खाएं, परन्तु (दुधारू) पशुओं और बैल का मांस भक्ष्य है क्योंकि वाजसनेयक का कथन है कि इनका मांस शुद्ध होता है। आ.ध.सू. (11.2.5.15) के अनुसार वेद शिक्षकों के लिए मांस-भक्षण का निषेध है।
(अपूर्ण। शेष अंश अप्राप्य)