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तेइसवीं पहेली – कलियुग-ब्राह्मणों ने इसे अनन्त क्यों बनाया ?

यदि हिन्दुओं में कोई धारणा सर्वाधिक व्याप्त है और जिसके विषय में सभी स्त्री-पुरुष, बूढ़े और जवान, समझदार और गैर-समझदार परिचित हैं, वह है-कलियुग। यह सभी जानते हैं कि आज का युग कलियुग है और वे कलियुग में रह रहे हैं। कलियुग का मनोवैज्ञानिक प्रभाव लोगों के दिमाग में घुसा हुआ है। इसका अर्थर है कि यह अमांगलिक युग है। यह अनैतिक युग है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि ऐसी भावना क्यों पनपी? हमें चार बातों का पता होना चाहिए, वे हैं- 1. कलियुग क्या है?, 2. कलियुग का आरंभ कब हुआ?, 3. कलियुग कब समाप्त होगा?, 4. लोगों में ऐसी धारणा क्यो पनपी?

I

प्रथम प्रश्न से आरंभ करते हैं। इसकी विवेचना के उद्देश्य से यह उचित होगा कि सव र्प्रथम हम इसका समास विग्रह करें और अलग से विचार करें। युग का अर्थ क्या है? ऋग्वेद में “युग” का प्रयोग काल, पीढ़ी और जनजाति के अर्थ में किया गया है जैसे कि युगे-युगे (हर युग में), उत्तरयुगानि (भविष्य काल में), उत्तर युगे (बाद के काल में) और पूर्वानि युगानि (पूर्व काल में) आदि अभिव्यक्तियां हैं। यह मानुषी, मानुष, मनुष्य के संबंधय में प्रयुक्त हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ मानव की पीढ़ियों से है। इसका एक ही अर्थ है-काल। यह स्थापित करने के अनेक प्रयत्न किए गए हैं कि वैदिक जन “युग” को कितने समय का मानते हैं। युग की व्युत्पत्ति संस्कृत की युज् धातु से है, जिसका अर्थ है, योजित करना और वह अर्थ ज्योतिष में योग के अर्थ में लिया जाता है। प्रो- वेबर का मत है कि युग का समय चन्द्रमा की चार गतियों के बराबर है।

इस अध्याय में 45 टाइप किए हुए पृष्ठ हैं। केवल पहले 9 पृष्ठों पर लेखक की हस्तलिपि में संख्याएं पड़ी हैं। बहरहाल इस अध्याय की सामग्री संपूर्ण है। – संपादक

इस बात पर प्रो- रंगाचार्य1 ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि “सम्भवतः युग का अर्थ नव चन्द्रमा से एक माह की अवधि है जब सूर्य और चन्द्रमा आमने-सामने होते हैं अर्थात् जब उनका योग होता है।” अन्य विद्वान इससे सहमत नहीं। उदाहरणार्थ श्याम शास्त्री2 के अनुसार युग एक साधारण वर्ष है जैसा कि स्कन्द पुराण का भाग कहे जाने वाले सेतुमहात्म्य में कहा गया है। इसी सिद्धांत के मत में इसे शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के लिए भी प्रयुक्त किया गया है।

इन सब प्रयत्नों से यह जानने में सहायता नहीं मिलती कि वैदिक जन युग का समय कितना समझते थे?

वैदिकों के अथवा धर्म मीमांसकों के साहित्य में युग के संबंध में कोई यथार्थता नहीं है। ज्योतिषशास्त्रियों (वेदांग ज्योतिष के रचनाकारों) ने इसका अर्थ वैदिकजन से भिन्न एक निश्चित काल के लिए किया है। उनके अनुसार युग का अर्थ है पांच वर्ष का समय चक्र, जिसके अंग इस प्रकार हैं- 1. संवत्सर, 2. परिवत्सर, 3. इद्वत्सर, 4. अनुवत्सर और 5. वत्सर।

अब हम कलि पर आते हैं जो कृत, त्रेता, द्वापर और कलि, चार युगों के चक्र का एक भाग है। ‘कलि’ शब्द का आरम्भ कहां से हुआ। कृत, त्रेता, द्वापर और कलि का उपयोग विभिनन तीन प्रसंगों में किया गया है। कलि शब्द तथा अन्य शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग जुए के पासों में हुआ करता था।

ऋग्वेद से पता चलता है कि पासों की गोटियां विभीतक वृक्ष के फलों की हुआ करती थीं। यह वृक्ष जायफल के आकार का होता है उसके पांच सपाट रुख होते हैं। बाद में पासे चौकोर बनाए जाने लगे। चारों कोनों पर चार अंक होते थे 4, 3, 2, 1। जिस ओर ‘4’ लिखा होता, वह ‘कृत’ था, 3 वाला त्रेता, 2 वाला द्वापर और 1 की गिनती वाला भाग कलि कहलाता था। श्याम शास्त्री बताते हैं कि किस प्रकार जुआ यज्ञ का अंग बन गया, किस प्रकार यह खेला जाता था? उसका वर्णन2 इस प्रकार हैः

“यजमान की गाय ले जाते समय अनेक खिलाड़ी मार्ग में उसके साथ चला करते थे और गाय पर दाव लगाते थे। वे कई दलों में बंटकर जुआ खेला करते थे। दाव के रूप में अनाज जमा कराया करते थे। प्रत्येक खिलाड़ी एक सौ अथवा उससे अधिक कौड़ियां जमीन पर फेंका करता था और इस प्रकार फेंकी गई कौड़ियों में से जब अधिक चित हुआ करती थीं या पट्ट हुआ करती थीं तो दाव के अनुसार उनकी संख्या चार से

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  1. युगाज: ए क्वश्चन आफ हिंदू क्रोनोलाजी एण्ड हिस्ट्री, पृ. 19
  2. द्रप्स: दि वैदिक साइकिल आफ एंक्लीप्स्ज, (1938) पृ. 88

विभाजित हो जाती थी तो यजमान जीत जाता था। यदि नहीं तो वह हार जाता था। इस प्रकार जीते गये अनाज से बलि के दिन चार ब्राह्मण जिमाए जाते थे।”

वैदिक साहित्य के विषय में प्रो- इगलिंग के कथन से इस संबंध में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि आदिकाल से ही जुए का प्रचलन था। यह भी स्पष्ट है कि यह खेल पांच पासों से खेला जाता था1 । जिनमें से चार कृत और पांचवां कलि कहलाता था। वह ये भी बताते हैं कि खेल कई प्रकार का होता था और सबसे पहला खेल इस प्रकार का होता था कि यदि सारे पासे एक जैसे पड़ते थे तो खिलाड़ी जीत जाता था। जुआ राजसूय के समय और पवित्र अग्नि की स्थापना पर किए जाने वाले यज्ञ के समय भी खेला जाता था।

कृत, त्रेता, द्वापर और कलि शब्दों का गणित में भी प्रयोग किया जाता था। यह भगवती सूत्र पर अभयदेव सूरी की निम्न टीका से स्पष्ट है जो कि जैनधर्म का विशाल ग्रंथ है।

“गणित की शब्दावली में सम संख्या युग्म कहलाती थी और विषम संख्या को ओझ कहते हैं। दो संख्याओं को ही युग्म कहा जाना चाहिए और दो को ही ओझ। फिर भी, युग्म शब्द से अर्थ है- चार युग्म अर्थात् चार संख्याएं। उनमें कृत युग्म बनता है। कृत का आशय है सम्पूर्ण। क्योंकि चार के आगे कोई संख्या नहीं है, जिसे अलग नाम दिया जाता हो। (अर्थात् वह नाम कृत आदि) चार नामों से भिन्न है। जो संख्या अपूर्ण है, जैसे त्रियोज और दूसरी संख्याएं और जो विशेष सम संख्या है वह है कृत युग्म। जहां तक त्रियोज का प्रश्न है, ऐसी विषम संख्या है, जो कृतयुग के ऊपर विषम है वह त्रियोज है। जहां तक द्वापरयुग्म का प्रश्न है, वह भी कृतयुग्म की भांति सम संख्या है किंतु उससे भिन्न है जो आरंभ के दो से अथवा कृतयुग्म के ऊपर से आरम्भ होती है। वह द्वापरयुग्म है। द्वापर एक विशेष व्याकरणिक शब्द है। कालयोज वह विषम संख्या है, जो कलि से अविभाज्य है। अर्थात् एक कृतयुग्म के लिए एक कालयोज है। वे संख्याएं, जिन्हें चार से विभाजित किया जा सकता है। और संख्या पूरी तरह विभाजित हो जाती है, तो वह कृतयुग्म है। संख्याओं के क्रम में, यद्यपि चार को चार से विभक्त करने की आवश्यकता नहीं थी। वह स्वयं चार है, फिर भी वह कृतयुग्म कहलाती है।”

श्याम शास्त्री2 इस शब्दावली को दूसरे आशय से प्रयोग करते हैं। उनके अनुसार, इनका उपयोग पर्व नाम से किया गया है जैसे, कृतपर्व, त्रेतापर्व, द्वापरपर्व और कलिपर्व। एक पर्व 15 तिथियों की अवधि का होता है या यह दिन पक्ष के नाम से पुकारे जाते

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  1. शतपथ ब्राह्मण में तत्संबंधी उनकी टिप्पणी देखें, खण्ड 4, पृ. 107
  2. श्याम शास्त्री, द्रप्स, पृ. 92.3

हैं क्योंकि तिथियां धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ी होती हैं। इसलिए पर्व-समापन का सही समय महत्वपूर्ण है। यह कहा जाता था कि पर्व अपने समाप्ति काल के कारण चार भागों में विभाजित हैं, 1. वे या तो सूर्योदय पर समाप्त होते है।, या 2. पहले प्रहर में, 3. अथवा दोपहर बाद, 4. अथवा तीन पहर बाद। पहले को कृत पर्व कहते थे, दूसरे को त्रेता पर्व, तीसरे को द्वापर पर्व और चौथे को कलि पर्व।

उस समय ‘कलि’ और ‘युग’ शब्दों के कुछ भी अर्थ क्यों न रहे हों, परन्तु कलियुग दीर्घकाल से प्रयुक्त शब्द होने के कारण हिन्दुओं की कालगणना मेंइकाई का द्योतक रहा है। हिन्दुओं के अनुसार चार युगों का एक चक्र है, उन्हीं में से कलियुग भी एक है। अन्य युग हैं कृत, त्रेता और द्वापर।

II

वर्तान कलियुग कब आरंभ हुआ? इस प्रश्न के दो विभिन्न उत्तर हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, इसका आरंभ वैवस्वत मनु के पुत्र नाभनिदिष्ट से होता है। पुराणों के अनुसार यह महाभारत युद्ध के पश्चात् कृष्ण के देहांत पर आरंभ हुआ।

समय निर्धारण में पहले डा- श्याम शास्त्री का कथन1 है, कलियुग ईसा से 3,101 वर्ष पूव र् आरम्भ हुआ। दूसरा अनुमान गोपाल अय्यर ने गणना करके बताया है। उनके अनुसार महाभारत युद्ध 14 अक्तूबर, 1194 ई.पू. को आरंभ होकर 31 अक्तूबर को समाप्त हुआ था। उनका कहना है कि कृष्ण का देहांत युद्ध-समाप्ति के 16 वर्ष पश्चात् हुआ। उनका अनुमान इस बात पर आधारित है कि जब परीक्षित का राजतिलक हुआ, तो उसकी आयु सोलह वर्ष की थी और पाण्डवों ने परीक्षित का राजतिलक करते ही महाप्रस्थान किया था। राजतिलक उसी दिन हुआ था जिस दिन कृष्ण का देहांत हुआ था। इससे वह समय 1177 ई.पू. बैठता है, जब से कलियुग आरंभ हुआ।

इस प्रकार कलिनयुग के आरंभ के विषय में हमारे समक्ष दो तिथियां हैं। 3,101 ई.पू. और 1,117 ई.पू.। कलियुग के संबंध में यह प्रथम पहेली है। कलियुग के आरंभ के संबंध में दो भिन्न तिथियां दी गई हैं, जिनमें बहुत बड़ा कालांतर है। एक व्याख्या कहती है कि 3101 ई.पू. कल्प परिवर्तन की तिथि है न कि कलि के आरंभ की और यह नकल करने वाले की गलती है जिसने कल्प को कलि पढ़ लिया और भ्रांति पैदा कर दी। दूसरी व्याख्या डॉ- श्याम शास्त्री ने दी है। उनके अनुसार कलियुग दो हैं। एक, वह जो 3101 ई.पू. में आरंभ हुआ और दूसरा 1260 अथवा 1240 में आरम्भ हुआ। पहला कलियुग 1840 अथवा 1860 वर्ष रहा और समाप्त हो गया।

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  1. गवम् अयन।

III

कलियुग समाप्त कब होगा? इस प्रश्न पर महान भारतीय ज्योतिषाचार्य गर्गाचार्य ने अपने ‘सिद्धांत’ में प्रकाश डाला है जहां वे कहते हैं कि अशोक के चौथे उत्तराधिकारी मौर्य शासक ने निम्न प्रकार से अपने महत्वूपर्ण विचार प्रकट किये1:

तब दुष्ट यूनानी योद्धा साकेत, पांचाल और मथुरा को रौंदतें हुए कुसुमध्वज (पटना) पहुंचेंगे। तब पुष्पपुर विजयोपरांत निःसंदेह सभी प्रांतों में अव्यवस्था होगी। अपराजेय यवन मध्यदेश में नहीं रहेंगे। उनके मध्य परस्पर दहशतपूर्ण और भयानक युद्ध होगा। तब यूनानियों के विनाश के पश्चात् युग की समाप्ति पर सात शक्तिशाली  राजा अवध पर शासन करेंगे।

महत्वूपर्ण शब्द हैं-फ्यूनानियों के विनाश के पश्चात् युग की समाप्ति पर” इन शब्दों से दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं- 1. गर्ग के दिमाग में कौन सा युग था? और 2. भारत में यूनानियों की पराजय कब हुई? इन प्रश्नों के उत्तर में कोई संदेह नहीं है। युग से उनका आशय है कलियुग और यूनानी भारत में 165 ई.पू. में पराजित हुए। यह कोई अटकल बाजी नहीं है। महाभारत के वन पर्व में अध्याय 188 और 190 में स्पष्ट लिखा है ‘कलियुग के अंत में’ बर्बर शक, यवन, बाह्लीक और अन्य जातियां भारतवर्ष को रौंद डालेंगी।

इन दोनों कथनों का यह परिणाम निकलता है कि कलियुग 165 ई.पू. में समाप्त हो गया है। इस निष्कर्ष का बल प्रदन करने के लिए एक तर्क और है। महाभारत के अनुसार कलियुग का समय एक हजार वर्ष था2 यदि हम यह स्वीकार करें कि कलियुग 1171 ई.पू. में आरंभ हो गया था। इसमें से यदि एक हजार वर्ष घटा दें तो कलियुग 171 ई.पू. में होना चाहिए। जो गर्ग द्वारा दिए गए ऐतिहासिक तथ्य से बहुत दूर भी नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि प्रमुख ज्योतिषाचार्य3 के विचार से कलियुग 165 ई.पू. में समाप्त नहीं हुआ है। हो जाना चाहिए था। परन्तु स्थिति क्या? वैदिक ब्राह्मणों के अनुसार कलियुग समाप्त नहीं हुआ यह जारी है। यह उस “संकल्प” शब्द से स्पष्ट है, जो किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में प्रत्येक हिन्दू आज भी दुहराते हैं। यह संकल्प इस प्रकार है4 :

“इस शुभ दिन और शुभ मुहुर्त में प्रथम ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में जो श्वेत वाराह कल्प कहलाता है, कलियुग में वैवस्वत मनु के काल में भारत देश के जम्बूद्वीप भरत

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  1. सिवीलाइजेशन आफ एंशिएंट इण्डिया नामक अपनी पुस्तक में आर-सी- दास द्वारा उद्धृत।
  2. क्रोनोलाजी ऑफ एंशिएंट इण्डिया, पृ. 117
  3. गर्ग का वक्तव्य महाभारत से लिया गया है जिसमें कलियुग 1000 वर्ष का बताया गया है। इसमें 171

और जोड़ देने पर 1171 बनता है जिसे कलि का आरंभ कहा गया है।

  1. श्याम शास्त्री, द्रप्स, पृ. 84

खंड, में साठ वर्ष के वर्ष चक्र में जो प्राध्व से आरंभ होकर क्षय और अक्षय पर समाप्त होता है और जिसे विष्णु की आज्ञा से अमुक वर्ष दक्षिणी और उत्तरी अयन में अमुक शुक्ल या कृष्ण पक्ष, अमुक तिथि को मैं अमुक (नाम) अनुष्ठान के उद्देश्य से परमपिता के नाम पर संकल्प करता हूं।”

हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि वैदिक ब्राह्मण कलि को क्यों जारी रखना चाहते हैं जबकि ज्योतिषाचार्य के अनुसार वह बीत चुका है? पहली बात यह देखनी है कि कलि युग का मूल समय क्या है? विष्णु पुराण के अनुसार:

कृत युग चार हजार वर्ष का है, त्रेता तीन हजार वर्ष का, द्वापर दो हजार वर्ष का और कलियुग एक हजार वर्ष का। ऐसा उनका कथन है कि जो भूतकाल को जानते हैं।

इस प्रकार वास्तविकता यह है कि कलियुग केवल एक हजार वर्ष का होता है। यह स्पष्ट है कि वे वैदिक ब्राह्मणों तक की गणना के अनुसार कलियुग कब का बीत चुका होता। परन्तु अभी नही बीता है। कारण क्या है? यह स्पष्ट है कि कलियुग जितने समय का होना चाहिए उसकी अवधि को बढ़ा दिया गया है। यह दो प्रकार से हुआ है।

पहली बात यह कि इसके आदि और अंत में दो समय और जोड़ दिए गए हैं- संध्या और संध्यांश। यह बात विष्णु पुराण में उपरोक्त प्रसंग में कही गई है जो इस प्रकार हैः

“युग आरम्भ होने से पूर्व का काल संध्या कहलाता है…….- जो युग समाप्ति से पूर्व आता है वह संध्यांश कहलाता है, उसकी अवधि भी उतनी ही होती है। संध्या और संध्यांश के मध्य के काल युग कहलाते हैं, कृत, त्रेता आदि।’’

संध्या और संध्यांश की अवधि कितनी होती है? क्या यह प्रत्येक युग के साथ अलग-अलग थी? संध्या और संध्यांश की अवधि समान नहीं थी। प्रत्येक युग के साथ उनकी अवधि भिन्न है। निम्नांकित तालिका में चार युगों और संध्या तथा संध्यांश की अवधि दी गई हैः

महायुग का नाम                     काल               संध्या             संध्यांश                               योग

कृतयुग                           4000                 400                   400                               4800

त्रेता                              3000                 300                   300                               3600

द्वापर                             2000                 200                   200                               2400

कलि                              1000                 100                   100                               1200

महायुग                          –                       –                       –                                   12000

 

कलियुग की आयु 1000 वर्ष बताई जाने के बावजूद आज तक विद्यमान है। संध्या और संध्यांश को जोड़कर इसका काल 1200 वर्ष और बढ़ा दिया गया।

दूसरी बात यह है कि इसमें एक नया अनुसंधान कर लिया गया है। उनका कहना है कि युगों की जो अवधि नियत की गई थी, वह देवताओं के वर्ष के अनुसार है, मानव-वर्षों की तरह नहीं। वैदिक ब्राह्मणों के अनुसार, देवताओं का एक दिन धरती के एक वर्ष के बराबर है। इस प्रकार कलियुग का समय जो 1000 वर्ष और 200 (दो सौ) वर्ष था, संध्या और संध्यांश मिलाकर 1200 वर्ष बैठता है, वह अब हो गया (1200×360) अर्थात् 4,32,000 वर्ष। जिस कलियुग की समाप्ति की घोषणा  165 ईसा पूर्व कर देनी चाहिए थी और जैसा कि ज्योतिषाचार्य ने ही गणना की थी, इस प्रकार वैदिक ब्राह्मणों ने दो प्रकार से उसकी अवधि 4,32,000 वर्ष की कर दी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कलियुग अब भी चालू है और लाखों वर्ष तक चलता रहेगा। कलियुग का अंत ही नहीं होगा।

IV

कलियुग का अर्थ क्या है? कलियुग का अर्थ है, अधर्म का युग, ऐस युग जो अनैतिक है, ऐसा युग जिसमें राजा द्वारा बनाए गए विधान का पालन नहीं किया जाता। सहसा एक प्रश्न उठता है। कलियुग पूर्व युगों की अपेक्षा अधिक अनैतिक क्यों हैं? कलियुग से पूर्व युगों में आर्यों के नैतिक मूल्य क्या थे? यदि कोई व्यक्ति बाद के आर्यों की प्रवृत्तियों और उनके सामाजिक व्यवहार की तुलना प्राचीन आर्यों से करेगा तो उसमें आश्चर्यजनक सुधार पाएगा और उनके व्यवहार और नैतिकता में सामाजिक क्रांति का पता चलेगा।

वैदिक आर्यों का धर्म बर्बर और अश्लील था। उस समय नरमेध यज्ञ हुआ करते थे। इसका यजुर्वेद संहिता, यजुर्वेद ब्राह्मण, सांख्यायन और वैतानसूत्र में सविस्तार वर्णन है।

प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे। लिंग पूजा को स्कंभ कहते थे, जो आर्य धर्म का अंग थी जैसा कि अथर्ववेद के मंत्र 10.7 में है। एक और अश्लीलता थी, जिसने प्राचीन आर्य धर्म को विकृत किया हुआ था। वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि। अश्वमेध यज्ञ का एक आवश्यक हिस्सा यह था कि मेधित (मृत अश्व) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में ब्राह्मणों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था। वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र 23.18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है? जो इस विषय में और अधिक जानना चाहते हैं, वे यजुर्वेद की महीधर की टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं, जहां वह इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं जो आर्य धर्म का अंग थी।

प्राचीन आर्यों का जैसा धर्म था वैसा ही चरित्र भी था। आर्य एक जुआरी जाति थी। आर्य सभ्यता के प्रारंभ से ही उन्होंने द्यूत-क्रीड़ा विज्ञान की रचना कर ली थी। यहां तक कि उन्होंने अपने पासों की तकनीकी शब्दावली भी बना डाली थी। सबसे सौभाग्यशाली दाव ‘कृत’ होता था और सबवे अभागा ‘कलि’। त्रेता और द्वापर का मध्यम दर्जा था। प्राचीन आर्यों में न केवल बाजियां खेली जाती थीं, बल्कि उन पर दाव भी अवश्य लगा करते थे। वे इतने ताव में आकर खेलते थे कि जुए में उनका कोई सानी नहीं होता था। राजा नल ने अपना राजपाट ही जुए में खो दिया। पांडव तो और आगे बढ़ गए। उन्होंने न केवल अपने राजपाट से हाथ धोया बल्कि अपनी पत्नी तक को हार बैठे। केवल धनी आर्य ही जुआरी नहीं होते थे। अन्य कंगालों को भी इसकी लत थी।

प्राचीन आर्य एक पियक्कड़ जाति थी। मदिरा-पान उनके धर्म का अंग था। वैदिक देवता भी शराब पीते थे। देवताओं की शराब सोम कहलाती थी। क्योंकि आर्यों के देवता ही शराब पीते थे, इसलिए उन्हें भी पीने में कोई संकोच नहीं था बल्कि शराब पीना आर्य धर्म में कर्त्तव्य माना जाता था। आर्यों में इतने सोम यज्ञ हुआ करते थे कि मुश्किल से ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा, जब सोमपान न किया जाता हो। सोम केवल तीन उच्च वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तक सीमित था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शूद्र नशाखोरी से मुक्त थे। जिन्हें सोम पीने की आज्ञा नहीं थी, वे सुरा पीते थे, कच्ची शराब जो बाजार में बिका करती थी। न केवल आर्य पुरुष शराब पीते थे बल्कि उनकी स्त्रियां भी नशे में धुत रहा करती थीं। कौशीतकी गृह्यसूत्र 1.11.12 में सलाह दी गई है कि चार अथवा आठ स्त्रियाँ, जो विधवा न हों, शराब और भोजन से तृप्त होकर विवाह से पूर्व रात्रि को चार बार नृत्य करने के लिए बुलाई जाएं। मद्यपान केवल गैर ब्राह्मण स्त्रियों में ही प्रचलित नहीं था, बल्कि ब्राह्मण स्त्रियों में भी इसकी आदत थी। मदिरापान पाप नहीं था। यह शर्म की बात नहीं थी बल्कि इसे सम्मानजनक माना जाता था। ऋग्वेद में कहा गया हैः

“मदिरापान से पूर्व सूर्योपासना करें।”

यजुर्वेद कहता हैः

“हे सोम देव! सुरा से शक्तिमान और प्रबल होकर देवों को शुद्ध मन से प्रसन्न कर, यजमान को सरस भोजन और ब्राह्मण और क्षत्रियों को बल दे।”

मंत्र ब्राह्मण का कथन हैः

“जिससे स्त्रियों को पुरुषों के भोगने के योग्य बनाया गया है, जिससे पानी मदिरा में बदल जाता है (पुरुषों के आनंद हेतु) आदि…….”

रामायण के उत्तरकांड में स्वीकार किया गया है कि राम और सीता दोनों ने मदिरा पी थीः

“जैसे इन्द्र ने शचि (अपनी पत्नी को), वैसे ही रामचन्द्र ने सीता को शुद्ध मधु तेइसवीं पहेली की शुद्ध मदिरा पिलाई। राम के कर्मचारीगण, मांस और मधुर फल लाए।”

वैसा ही कृष्ण और अर्जुन ने भी किया। महाभारत के उद्योग पर्व में संजय कहता हैः

“अर्जुन और कृष्ण, मधु से बनी मीठी और सुगंधयुक्त मदिरा पिए, पुष्पहार धारण किए, भव्य वस्त्रभूषण धारण किए, रत्नमंडित स्वर्ण सिंहासन पर आसीन थे। मैंने श्रीकृष्ण के पैर अर्जुन की गोद में रखे देखे हैं और अर्जुन के पांच द्रौपदी और सत्यभामा की गोद में हैं।”

अब हम स्त्री-पुरुष के वैवाहिक संबंधों पर आते हैं। इतिहास क्या कहता है? आरंभ में आर्यों में विवाह के कोई नियम ही नहीं थे। समाज के उच्च और निम्न, दोनों वर्गों में स्वच्छंद संभोग प्रथा थी। इस संबंध में कोई प्रतिबंध नहीं थे। निम्नांकित उदाहरणों से यह स्पष्ट है।

ब्रह्मा ने अपनी स्वयं की पुत्री शतरूपा से विवाह किया। उनका पुत्र पृथुवंश का संस्थापक मनु था। उसी से इक्ष्वाकु और इला का उदय हुआ।

हिरण्यकश्यपु ने अपनी पुत्री रोहिणी से विवाह किया। पिता-पुत्री के विवाह के आम उदाहरण हैं जैसे वशिष्ठ और शतरूपा, जह्नु और जाह्नवी, सूर्य और उषा। पिता-पुत्री के बीच विवाह एक सामान्य बात थी। वह कानीन पुत्रों की मान्यता से प्रकट हैं। कानीन पुत्र का अर्थ है कुंवारी कन्या से पुत्रेत्पत्ति। विधानानुसार वे पुत्री के पिता से उत्पन्न पुत्र होते थे। स्पष्ट है कि वे उनके पिताओं द्वारा उत्पन्न पुत्र ही होने चाहिए।

ऐसे भी उदाहरण हैं कि पिता और पुत्र एक ही स्त्री के साथ सहवास करते थे। ब्रह्मा मनु के पिता थे और शतरूपा मनु की मां। यही शतरूपा मनु की पत्नी भी थी। दूसरा उदाहरण श्रद्धा का है। वह वैवस्वत की पत्नी है। मनु उनका पुत्र है परन्तु श्रद्धा मनु की पत्नी भी है। इससे संकेत मिलता है कि पिता और पुत्र एक ही स्त्री से सहवास करते थे। अपने भाई की पुत्री से विवाह करने की स्वतंत्रता थी। धर्म ने दक्ष की दस कन्याओं से विवाह किया जबकि दक्ष और धर्म भाई-भाई थे। चचेरी बहन से विवाह का भी प्रचलन था। कश्यप की तेरह पत्नियां थीं और वे सभी दक्ष की पुत्रियां थीं। दक्ष कश्यप के पिता मारीचि का भाई था।

ऋग्वेद में यम और यमी का प्रसंग आया है। यह प्रसंग भी बहुत कुख्यात है जिसमें भाई-बहन के विवाह संबंधों पर प्रकाश पड़ता है क्योंकि यम ने यमी के साथ संभोग करने से इंकार कर दिया। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उस युग में ऐसा होता नहीं था।

महाभारत के आदिपर्व में एक वंशावली दी गई है, जो ब्रह्मदेव से आरम्भ होती है। इस वंशावली के अनुसार ब्रह्मा के तीन पुत्र थे, मारीचि, दक्ष और ब्रह्मा तथा एक पुत्री, जिसका नाम दुर्भाग्य से वंशावली में नहीं है। इसी वंशावली में कहा गया है कि दक्ष की बहन ही हुई। उन दोनों से 50.60 पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। भाई-बहन के विवाह के अन्य उदाहरण भी उपलब्ध हैं। वे हैं-पूशान और उसकी बहन अच्छोद और अनावसु, पुरुकुत्स और नर्मदा, विप्राचिती और सिंहिका, नहुष और विराज, शुक्र-उशनस और गो, अंशुमान और यशोदा, दशरथ और कौशल्या, राम और सीता, शुक और पीवरी,  द्रौपदी और प्रश्नी। ये भाई-बहन के विवाह थे।

निम्नांकित उदाहरण प्रकट करते हैं कि माता और पुत्र के बीच भी सहवास होता था। पूशान और उसकी मां, मनु और शतरूपा और मनु और श्रद्धा का उदाहरण है। दो अन्य बातों की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। अर्जुन और उर्वशी और अर्जुन और उत्तरा। उत्तरा का अभिमन्यु से विवाह हुआ था, जो अर्जुन का पुत्र था। उस समय उसकी आयु केवल 16 वर्ष की थी। उत्तरा का अर्जुन के साथ सम्पर्क था। वह उसे नृत्य-संगीत सिखाता था। यह बताया गया है कि उत्तरा के मन में अर्जुन के प्रति प्रेमांकुर थे और महाभारत कहता है इन प्रेम-संबंधों के कारण ही उनका प्राकृतिक विवाह हुआ। महाभारत यह नहीं कहता कि उनका विधिवत विवाह हुआ। यदि प्राकृतिक विवाह हुआ तो कहा जा सकता है कि अभिमन्यु ने अपनी माता से विवाह किया। इस संबंध में अर्जुन-उर्वशी प्रकरण और भी ठोस उदाहरण है।

इन्द्र, अर्जुन का वास्तविक पिता था। उर्वशी, इन्द्र की रखैल थी। इस प्रकार वह अर्जुन की मां के रिश्ते में थी। यह अर्जुन की शिक्षिका थी और उसे नृत्य और संगीत सिखाती थी। उर्वशी अर्जुन पर मोहित हो गई। उसके पिता इन्द्र की सहमति से उसने अर्जुन से सम्भोग करने के लिए निवेदन किया। अर्जुन ने सहवास से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह उसकी माता के समान है। ऐतिहासिक रूप से अर्जुन की अस्वीकृति के स्थान पर उर्वशी का व्यवहार अधिक महत्वूर्ण है। उसके दो कारण हैं। उर्वशी द्वारा इन्द्र की सहमति से, अर्जुन से प्रणय निवेदन करना इस बात का परिचायक है कि उस समय ऐसा हुआ करता था। दूसरी बात यह है कि उर्वशी अर्जुन से कहती है कि यह तो एक पुराना रिवाज है और अर्जुन के पूर्वजों ने ऐसे आमंत्राण  को निःसंकोच स्वीकार किया है।

सहवास के लिए सगोत्र का ध्यान न रखने की निम्नांकित कहानी से बड़ा उदाहरण मिल ही नहीं सकता, जो हरिवंश पुराण के दूसरे अध्याय में समाविष्ट है। इसके अनुसार सोम दस पिताओं का पुत्र था, जो बहुपतित्व-प्रथा का संकेत है। उनमें से एक का नाम था-प्रल्हेत। सोम की एक पुत्री थी-मरीशा। सोम के दस पिता और स्वयं सोम उसके साथ सहवास करते थे। यह एक ऐसा उदाहरण है, जब किसी स्त्री के पितामह और पिता उसके पति भी थे, जो अपने पितामहों और पिता की पत्नी थी। दक्ष प्रजापति सोम का पुत्र था और उसने अपनी 27 पुत्रियाँ, अपने पिता को संतति-वृद्धि के लिए ब्याह दीं। ‘हरिवंश’ के तीसरे अध्याय में लेखक कहता है कि दक्ष ने अपनी एक बेटी का विवाह अपने ही पिता ब्रह्मा से कर दिया। उससे एक पुत्र नारद उत्पन्न हुआ। यह सपिण्ड स्त्री-पुरुषों के सहवास के प्रसंग हैं।

प्राचीन आर्य स्त्रियां बेची जाती थीं। आर्य विवाह-पद्धति के रूप में पुत्रियों के विक्रय के साक्ष्य उपलब्ध हैं। किसी पिता का पुत्र, किसी स्त्री का जो मूल्य चुकाता था, उसके लिए पारिभाषिक शब्द ‘गो-मिथुन’ प्रचलित था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गो-मिथुन के बदले लड़कियाँ बेच दी जाती थीं। ‘गो-मिथुन’ का अर्थ है एक गाय और एक वृषभ जो किसी कन्या का समुचित मूल्य समझा जाता था। न केवल पिता अपनी पुत्रियों को बेचा करते थे बल्कि पति अपनी पत्नियां भी बेच दिया करते थे। हरिवंश पुराण के 79वें अध्याय में इस बात का जिक्र है कि एक अनुष्ठान पुण्यक व्रत में यज्ञ करने वाले पुरोहित को शुल्क क्यों दिया जाए। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मणों की पत्नियां उनके पतियों से खरीद ली जाएं और पुरोहित को उसके दक्षिणा के रूप में दे दिया जाए। इससे यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण बेझिझक अपनी पत्नियां बेचते थे।

यह भी सत्य है कि प्राचीन आर्य अपनी स्त्रियों को दूसरों को सहवास के लिए किराये पर दे दिया करते थे। महाभारत के अध्याय 103 से 123 में माधवी के जीवन का उल्लेख है। इस आख्यान के अनुसार माधवी राजा ययाति की पुत्री थी। ययाति ने उसे गालव को उपहार में दे दिया था जो एक ऋषि था। गालव ने उसे एक के बाद एक तीन राजाओं को क्रमशः सहवास और पुत्र प्राप्ति हेतु दे दिया। जब तीसरे राजा की भोग की अवधि समाप्त हो गई तो गालव ने माधवी को अपने गुरु विश्वामित्र को सहवास के लिए दे दिया जिसको उन्होंने अपनी पत्नी बना लिया और तब तक उसे अपने पास रखा, जब तक उन्हें एक पुत्र प्राप्त नहीं हुआ। इसके उपरांत विश्वामित्र ने उसे गालव को लौटा दिया। अंत में गालव ने उसे उसके पिता ययाति को वापस दे दिया।

प्राचीन आर्य समुदाय में बहुपतित्व और बहुपत्नीत्व दोनों प्रथाएँ प्रचलित थीं। उदाहरण इतने अधिक हैं कि उनको प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है। परन्तु शायद जिसका लोगों को पूरी तरह पता नहीं है, वह तथ्य था- स्वच्छंद संभोग। स्वच्छंद संभोग उस स्थिति में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जब हम नियोग-प्रथा पर विचार करते हैं। नियोग-प्रणाली जिसे आर्यों ने प्रथा का रूप दे दिया, जिसमें कोई स्त्री विवाहित पति के अतिरिक्त, किसी अन्य व्यक्ति से नियोग (सहवास) से संतान प्राप्त (उत्पन्न) कर सकती थी। इस प्रणाली के कारण समाज में संभोग की पूरी स्वच्छंदता थी, क्योंकि उस पर कोई नियंत्राण  नहीं था। पहले तो इस पर कोई सीमा नहीं थी कि किसी स्त्री से कितने नियोग कराए जाएं। माधुरी को नियोग की अनुमति थी। अम्बिका ने एक वास्तविक नियोग कराया और दूसरे की इच्छा प्रकट की। सरदनंदिनी के साथ तीन बार नियोग हुआ। पाण्डु ने अपनी पत्नी कुंती को चार नियोगों की आज्ञा दी। व्युसिसताश्व को सात की आज्ञा थी और बलि के विषय में लिखा है कि उसने 17 बार नियोग की आज्ञा प्रदान की। इनमें से 11 एक पत्नी वेु साथ और 6 दूसरी के साथ। जैसे नियोगों की संख्या पर कोई सीमा नहीं थी, वैसे ही इसकी भी कोई परिभाषा नहीं थी कि किस स्थिति में नियोग कराया जा सकता है। नियोग किसी व्यक्ति के जीवन-काल में होता था और उन स्थितियों में भी जहां पति संतानोत्पत्ति की अक्षमता से नहीं उभर पाता हो। सम्भवतः पहल पत्नी की ओर से की जाती थी। हां, पुरुष का चुनाव भी उसी का होता था। उसे यह स्वतंत्रता थी कि यह निर्णय कर सके क उसे किस पुरुष से नियोग कराना है और कितने बार। नियोग अवैध संभोग का दूसरा नाम है, जो एक रात के लिए भी हो सकता था, बारह वर्ष तक भी या तब तक, जब तक कि इस व्यभिचार के प्रश्रयदाता पति की सहमति होती थी।

आर्यों के प्राचीन समाज में जन-सामान्य का यह आचरण और नैतिकता थी। ब्राह्मणों का चरित्र कैसा था? सच यह है कि वे जन-सामान्य से बेहतर नहीं थे। ब्राह्मणों की दुश्चरित्रता के अनेक उदाहरण हैं। परन्तु कुछ का उदाहरण पर्याप्त होगा। यह तो पहले ही बताया जा चुका था कि ब्राह्मण अपनी पत्नियां बेच दिया करते थे। हम उनकी दुश्चरित्रता की और मिसालें देंगे। उत्तंक वेद का शिष्य था जो जनमेजय तृतीय का पुरोहित था। वेद की पत्नी उत्तंक से अनुनय करती है कि वह उसे पत्नी के रूप में भोगे और संभोग-सुख के लिए उसके पास आए। दूसरा प्रसंग उद्दालक की पत्नी का है। वह स्वेच्छा से अथवा बुलाने पर किसी भी ब्राह्मण के पास जा सकती थी। श्वेतकेतु उसका पुत्र है, जो उसके पति के एक शिष्य से उत्पन्न हुआ था। व्यभिचार की यह मात्र मिसालें नहीं हैं। ये तो वे बातें हैं जिन्हें सब जानते हैं कि ब्राह्मण स्त्रियों को कितनी छूट थी। जटिल गौतमी एक ब्राह्मण स्त्री थी, जिसके सात पति थे, जो ऋषि थे। महाभारत में कहा गया है कि जब द्रौपदी को नगरवासियों ने अपने पांच पतियों के साथ देखा तो उसकी प्रशंसा की और उसकी उपमा जटिल गौतमी से दी जिसके सात पति थे। ममता उतथ्य की पत्नी है परन्तु उतथ्य के भाई बृहस्पति के उसके पास उतथ्य के जीवन-काल में ही खुला आना-जाना है। उसे केवल एक बार ममता की आपत्ति का सामना करना पड़ा, जब उसने कहा कि वह गर्भवती है, इसलिए अभी प्रतीक्षा करें परन्तु उसने यह नहीं कहा कि उनके ये संबंध अनुचित या अवैध हैं।

ब्राह्मणों के बीच ऐसी अनैतिकता व्याप्त थी कि जब बहुपतित्व के कारण दुर्योधन ने द्रौपदी पर कटाक्ष किया और उसकी गाय से उपमा दी तो उसने कहा कि तेरे पतियों को तो ब्राह्मण के घर पैदा होना चाहिए था।

अब जरा ऋषियों की नैतिकता का विवेचन करें। हम वहां क्या देखते हैं? पहली चीज जो हम ऋषियों में पाते हैं, वह भी पशुगमन। विभाण्डक ऋषि का उदाहरण लें। महाभारत के वन पर्व के 100वें अध्याय में कहा गया है कि वह एक हिरनी के साथ व्यभिचार करता था। उससे एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसे शृंग ऋषि कहा जाता है। महाभारत के आदि पर्व के अध्याय एक और 118 में एक कथानक है कि किस प्रकार पाण्डवों के पिता पाण्डु को दम (महाभारत में किंदम नाम है) ऋषि ने शाप दिया। व्यास कहते हैं कि किंदम ऋषि एक हिरणी के साथ जंगल में मैथुन में संलग्न था। जब वह इसमें लिप्त था तो पाण्डु ने उस पर एक तीर छोड़ा और दम ऋषि ने प्राण त्याग दिए। परन्तु मरने से पूर्व उसने पाण्डु को यह शाप दिया कि जब भी वह अपनी पत्नी से सहवास के लिए उद्यत होगा, उसका तभी प्राणांत हो जाएगा। ऋषि के पशु-मैथुन पर पर्दा डालने के लिए व्यास कहते हैं कि ऋषि और उसकी पत्नी ने संभोग के लिए हिरण और हिरणी का रूप धारण कर रखा था। भारत के प्राचीन धार्मिक साहित्य में मैथुन के अन्य उदाहरण ढूंढने में कोई कठिनाई नहीं होगी, बशर्ते कोई थोड़ी मेहतन करे।

ऋषियों की एक अन्य घृणास्पद प्रवृति थी-स्त्रियों के साथ खुले में और आम जनता के सम्मुख संभोग करना। महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 63 में भी ऐसी ही एक अन्य घटना का प्रसंग है कि ऋषि पराशर ने सत्यवती अर्थात् मत्स्यगंधा के साथ कैसे सहवास किया जो एक मछुआरे की पुत्री थी। व्यास कहते हैं कि उन्होंने खुले में सबके सामने मैथुन किया। आदि पर्व के अध्याय 104 में भी ऐसी ही एक अन्य घटना का प्रसंग है। जहां कहा गया है कि ऋषि दीर्घतमस ने लोगों के समक्ष संभाग किया। महाभारत में ऐसी अनेक घटनाएं हैं। उन्हें खोदने की आवश्यकता नहीं। ‘अयोनिजा’ शब्द यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। आम बात क्या थी? अधिकांश हिन्दू जानते हैं कि सीता, द्रौपदी और अन्य प्रमुख नारियों को अयोनिजा कहा जाता है। अयोनिजा का अर्थ है, ऐसा शिशु जिसका गर्भधारण निष्कलंक हो। ‘अयोनि’ का अर्थ व्युत्पत्ति के माध्यम से बताने की कोई आवश्यतकता नहीं। ‘योनि’ का मूल अर्थ गृह है। योनिज का अर्थ है ऐसा शिशु जिसका घर में जन्म हुआ हो। अयोनिजा का अर्थ है ऐसा शिशु जो घर में उत्पन्न न हुआ हो। यद अयोनिजा, यह सही व्युत्पत्ति है तो इससे प्रमाणित होता है कि ऐसा चलन मौजूद था कि सरेआम लोगों के समक्ष संभोग किया जाता था।

छांदोग्य उपनिषद् में ऋषियों की अनैतिकता का एक और साक्ष्य मिलता है। इस उपनिषद के अनुसार लगता है, ऋषियों ने यह नियम बनाया कि यदि कोई यज्ञ कर रहा है और उस समय कोई स्त्री ऋषि से संभोग करना चाहे तो ऋषि यज्ञ अधूरा छोड़कर और किसी एकांत स्थान पर जाने के बजाए यज्ञ-मण्डप में ही सार्वजनिक रूप से उस स्त्री के साथ मैथुन करे। इस अनैतिकता को भी धार्मिक रूप दे दिया गया था जिसे वामदेव व्रत कहते थे। कालांतार में यही वाममार्ग कहलाया।

आर्यों का परमपवित्र साहित्य ऋषियों की नैतिकता दर्शाने में और बढ़कर है, अभी उसका एक पक्ष और बताना है।

लगता है, प्राचीन आर्यों की लालसा होती थी कि उनकी संतति अच्छी उत्पन्न हो और इस इच्छा की पूर्ति के लिए वे अपनी पत्नियों को दूसरों के पास भेजा करते थे, विशेष रूप से ऋषियों के पास, जो आर्यों की दृष्टि में कुलीन सांड थे। ऐसे ऋषियों की संख्या बहुत अधिक थी। असल में कुछ ऋषियों ने तो इसे बाकायदा धंधा बना लिया था और वे इतने भाग्यशाली थे कि राजा तक अपनी रानियों को गर्भवती कराने के लिए उनकी शरण में जाया करते थे। अब जरा देवों1 पर भी एक दृष्टिपात डालें।

देवगण शक्तिशाली और अत्यन्त कामुक प्राणी हुआ करते थे। यह एक सुविदित आख्यान है कि इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ बलात्कार किया। किन्तु आर्य स्त्रियों के साथ उन्होंने कितनी बदकारी की, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आरम्भ्स से ही देव जाति ने आर्य सम्प्रदाय में अपनी बादशाहत जमा ली थी। इसी कारण इन देवों की हवस मिटाने के लिए आर्य स्त्रियों को वेश्या के स्तर तक गिरा दिया गया था। आर्य इस बात पर गर्व करते थे कि उनकी पत्नी के किसी देव से शारीरिक संबंध हैं और किसी देव ने उसकी पत्नी को गर्भवती बना दिया है। इसका उल्लेख महाभारत और हरिवंश पुराण में है, जब आर्य स्त्रियों को इन्द्र, यम, अग्नि, वायु और अन्य देवों से पुत्र पैदा हुए। इसका उल्लेख इतनी बार है कि इस बात पर अचरज होता है कि कितने बड़े पैमाने पर देवों के आर्यों की स्त्रियों के साथ अवैध संबंध थे।

समय बीतने पर देवों और आर्यों के बीच संबंध स्थायी रूप लेने लगे और लगता है, यह प्रवृत्ति सामंतवाद के रूप में पनपी। देवताओं ने आर्यों से दो अधिकार (लाभ)2 प्राप्त किए।

पहला अधिकार यज्ञ था जो आर्यों द्वारा देवों को समय-समय पर दिये जाने वाले भोज का आयोजन होता था जिसके बदले में देवजाति के लोग राक्षसों से आर्यों की रक्षा करते थे। यज्ञ कुछ नहीं था बल्कि देवों की सामंती बलपूर्वक वसूली होती थी। इसको समझने में यदि भूल हुई है तो इसका कारण यही है कि देवों को एक जाति के स्थान पर भ्रांति से ईश्वर (देवता) समझ लिया गया। आर्यों ने आरम्भ से ही समझने में यह गलती की थी।

देवों की, जो दूसरा अधिकार आर्यों से प्राप्त था, वह यह था कि उन्हें आर्यों की स्त्रियों को भोगने का पूर्व अधिकार था। यह बहुत पहले से आरम्भ हो गया था। ऋग्वेद

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  1. पता नहीं, जिन्होंने प्रथम बार संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया, उन्होंने देवों को देवता क्यों समझ लिया? यह एक भयानक गलती थी, जिससे यह भ्रांति पैदा हुई कि वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में आर्यों के सामाजिक जीवन को ठीक से नहीं समझा जा सका। देव एक जाति का नाम था, यह निर्विवाद है। राक्षस, दैत्य, देव विभिन्न समुदायों के नाम हैं, जैसे कि आर्य और दस्यु, यह भी असंदिग्ध हैं।
  2. क्या देवों और आर्यों के बीच ऐसे संबंध थे जैसे किसी स्वामी के अपनी प्रजा के साथ सामंती स्वभाव के होते हैं, इस बात की अभी छानबीन नहीं की गई है। क्योंकि देवों को मानव समुदाय का नहीं समझा गया। देवगण आर्यों से जो उपहार प्राप्त करते थे, वे वैसे ही थे जैसे स्वामी प्रजा से लेता है।

में एक उल्लेख है 10.85.40 जिसके अनुसार आर्यों की स्त्रियों पर पहले सोम, फिर गंधर्व, फिर अग्नि और सबके बाद आर्यों से सहवास करना होता था। प्रत्येक आर्य स्त्री किसी देव की होती थी। किसी आर्य कन्या के किशोरावसा में आने पर उसे किसी देव से सहवास करना होता था। इससे पूर्व कि किसी आर्य कन्या का विवाह हो, उसे देव को भेंट चढ़ाकर शांत करना होता था। आश्वलायन गृह्य सूत्र के खंड सात के प्रथम अध्याय में विवाह-संस्कार का जो वर्णन है, वह इस बात का ज्वलंत प्रमाण है। इस सूत्र का सावधानी और विश्लेषणात्मक दृष्टि से अनुशीलन किया जाए तो पता चलेगा कि विवाह के समय तीन देव होते थे। आर्यमान, वरुण और पूशान। स्पष्ट है कि उनका कन्या पर पहले से ही अधिकार था। पर प्रथम वह यह कार्य करता है कि वह कन्या को एक पत्थर के टुकड़े के पास ले जाता है और उससे कहता है कि ‘‘उस पर’’ पैर रख और पत्थर के समान कठोर बन। शत्रु से मुक्ति पा, शत्रु को पैर के नीचे दबा। इसका अर्थ है वर कन्या को उन तीन देवों के नियंत्राण  से मुक्ति के लिए कहता है, जिन्हें वह अपना शत्रु मानता है। देवों को क्रोध आता है और वे वर की ओर बढ़ते हैं। कन्या का भाई बीच में आता है और विवाद सुलझाने का प्रयास करता है। वह क्रुद्ध देवों को भुना अन्न भेंट करता है जिससे कन्या पर से उनके अधिकार का मूल्य चुकाया जा सके। तब भाई-बहन से अंजलि बनाने के लिए कहता है, फिर वह उसकी अंजलि में भुना अन्न भर देता है और उसमें घी डालता है और कन्या से वह तीनों देवों को तीन बार अर्पित करने के लिए कहता है। यह अवदान कहलाता है। जब बहन देवों को अवदान अर्पित करती है तो एक विशेष वचन दोहराता है जिसे जानना महत्वपूर्ण है। वह कहता है, “यह कन्या अग्नि के माध्यम से आर्यमान का अवदान अर्पित करती है। आर्यमान इस पर से अपना अधिकार छोड़ दें और वर के अधिकार को बाधित न करें।” कन्या दो अन्य देवों को भी अलग से अवदान देती है और प्रत्येक बार उसका भाई यह दोहराता है। अवदान के पश्चात् अग्नि की प्रदक्षिणा होती है जो सप्तपदी कहलाती है। इसी के पश्चात् विवाह संबंध वैध और उत्तम माना जाता है। यह सब इतना ज्वलंत है कि आर्यों पर देवों की दासता पर प्रकाश डालता है। साथ ही देवों और आर्यों के चरित्र पतन का भी परिचायक है।

विधि विशेषज्ञ जानते हैं कि हिन्दू विवाह में सप्तपदी नितांत अनिवार्य है और इसके बिना हिन्दू विवाह वैध नहीं होता। परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि हिन्दू विवाह में सप्तपदी का इतना महत्व क्यों है, कारण स्पष्ट है। यह इस बात का प्रतीक है कि देवों ने कन्या पर से अपना पूर्वाधिकार त्याग दिया है, वे अवदान से संतुष्ट हैं और कन्या को मुक्त करने पर सहमत हैं। यदि देव वर को और कन्या को सात पग चलने देते हैं तो यह समझा जाता था कि देवों को मुआवजा स्वीकार है और उनका अधिकार समाप्त हो गया है और कन्या दूसरे की पत्नी बन सकती है। सप्तपदी के कोई अन्य अर्थ नहीं हो सकते। सप्तपदी प्रत्येक विवाह में आवश्यक थी, इस बात का द्योतक है कि ऐसी अनैतिकता देवों और आर्यों में किस हद तक मौजूद थी?

कृष्ण के चरित्र पर अलग से प्रकाश डाले बिना अवलोकन सम्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि कलियुग का आरम्भ और कृष्ण का देहांत एक-दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए उनके चरित्र पर विचार करने का महत्व है। कृष्ण का चरित्र अन्यों की तुलना में कैसा है? विस्तृत विवरण अन्य स्थान पर दिए गए हैं। हम यहां कुछेक के बारे में ही चर्चा करेंगे। यादव बहुपत्नीवादी थे। कृष्ण, वृष्णि (यादव परिवार) से संबंधित थे। यादव राजाओं के विषय में बताया गया है कि उनकी बहुपत्नयां और बहुपुत्र थे। यह कलंक कृष्ण पर भी लगा हुआ है। परन्तु यह यादव परिवार और स्वयं कृष्ण के घर में मातृ मैथुन का धब्बा लगा है। यहां यादव परिवार में पिता द्वारा पुत्री से विवाह का वर्णन मत्स्य पुराण में आता है। मत्स्य पुराण के अनुसार कृष्ण के एक पूर्वज राजा तैत्री ने अपनी पुत्री को ही घर में रख लिया था और उससे नल नाम का पुत्र उत्पन्न किया था। कृष्ण का पुत्र साम्ब अपनी मां से सहवास करता था। मत्स्य पुराण बताता है कि किस प्रकार साम्ब अवैध रूप से कृष्ण की पत्नी के साथ रहता था। कृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब और पत्नी को क्रोधित होकर शाप दिया था। महाभारत में भी यह प्रकरण है। सत्यभामा ने द्रौपदी से यह भेद जानना चाहा कि पांच पतियों को किस प्रकार नियंत्राण  में रखती है। महाभारत के अनुसार द्रौपदी ने सत्यभामा को चेताया कि वह अपने सौतेले पुत्रों के साथ अकेले में न तो बात करे और न उन्हें अकेले में ठहरने दे। यही मत्स्य पुराण में भी साम्ब के प्रसंग में कहा गया है। साम्ब का ही अकेला उदाहरण नहीं है। उसके भाई प्रद्युम्न ने भी अपनी पालक माता और सम्बर की पत्नी मायावती से विवाह कर लिया था।

कृष्ण की मृत्यु के पूर्व आर्यों के समाज की नैतिकता इस प्रकार की थी। इतिहास को निश्चित युगों में विभक्त नहीं किया जा सकता और यह नहीं कहा जा सकता कि कृत युग में जैसी नैतिकता थी, वैसी त्रेता और द्वापर में थी। वह कृष्ण की मृत्यु पर सहसा समाप्त हो गई। यदि हम आर्यों के सुधारों की प्रगति का ध्यान रखें तो पाएंगे कि प्रथम युग कृत में वह निम्नतम थी, उससे कुछ बेहतर त्रेता में और सबसे कम अनैतिकता द्वापर में थी। कलियुग में स्थिति सर्वोत्तम है।

कोई विचारधारा मानव-समाज के मात्र सामान्य विकास से नहीं बनती जैसे कि संसार भर में हम देखते हैं। प्राचीन काल में आर्यों का जो नैतिक पतन था, उन्होंने दृढ़ता से सुधार कर उन सामाजिक दुष्कर्मों को त्याग दिया जिसकी जानकारी इतिहास में मिलती है।

सामान्य आर्यों की दृष्टि में देवों और ऋषियों का बहुत सम्मान है और यह नियम है कि हीन कुलीन का अनुसरण करता है। आर्य समुदाय में जो भी अनैतिकता थी, वह इसी का परिणाम थी कि सामान्य आर्यजन ने देवों और ऋषियों के अनैतिक कार्यों की नकल की। अपने समाज को नैतिक अधःपतन से मुक्ति दिलाने के लिए आर्यों के कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने अत्यधिक महत्वपूर्ण सुधार लागू किए। उन्होंने घोषित किया कि देवों और ऋषियों के कार्यों का उल्लेख न किया जाए।1 ना ही उन्हें उदाहरण स्वरूप किया जाए। इस प्रकार साहस और दृढ़ता से अनैतिकता के एक कारण तथा उसके स्रोत को समाप्त किया गया।

अन्य सुधार भी निर्णायक थे। महाभारत में दीर्घतमस और श्वेतकेतु नामक दो सुधारकों का उल्लेख है। श्वेतकेतु ने व्यवस्था दी कि विवाह अटूट बंधन है और उसे तोड़ा नहीं जा सकता। दीर्घतमस के दो सुधार हैं। उसने बहुपतित्व पर प्रतिबंध लगाया और घोषित किया कि किसी स्त्री का एक समय केवल एक पति होगा। उसका दूसरा सुधार यह बताया जाता है कि उसने नियोग को विनियोजित किया। उसकी अति महत्वपूर्ण पूर्ति निम्न प्रकार रखी गईः

(1) विधवा का पिता अथवा भाई (अथवा विधवा के पति के) उस गुरु के पास जाएं, जिसने मृतक पति और उसके संबंधियों को शिक्षा दी हो अथवा उनके लिए यज्ञ किया हो और मृत पति के लिए संतान उत्पन्न करने वाला नियत कराएं2

(2) (ए) पति, मृतक अथवा जीवित हो किन्तु उसके पुत्र न हो;

  1. परिवार के सदस्यों के परामर्श से पति के लिए गुरु संतानोत्पत्ति करने वाला नियुक्त करें, 3. वह पति का भाई अथवा सपिण्ड अथवा सगोत्र (गौतम के अनुसार) या सपरिवार अथवा सजातीय हो, 4. नियत पुरुष और विधवा काम-वासना वश नहीं वरन् कर्त्तव्य मानकर सहवास करें, 5. नियत पुरुष अपने शरीर से घी अथवा तेल मले। (नारद स्त्री पुमसा, 82) उससे बात न करे, न चुम्बन करे, न कामकेलि करे, 6. यह संबंध एक पुत्र के जन्म तक (कुछ के अनुसार दो) तक सीमित रहेगा, 7. विधवा की आयु अपेक्षाकृत कम होनी चाहिए। यह अधिक वय की न हो, बंध्या न हो, ऋतुमती होने का समय समाप्त न हुआ हो अथवा रोगी अथवा गर्भवती न हो। (बौधा ध-सू- II 2.70, नारद, स्त्रीपुमसा 83.84, (8) पुत्र जन्म के उपरांत वे एक दूसरे को ससुर और पुत्रवधू माने, (मनु- 9.62)। यह भी स्पष्ट किया गया है कि यदि

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  1. गौतम धर्मसूत्र में नियम निर्धारित है कि ऋषियों के चरित्र को उदाहरण बना कर अनुगमन नहीं किया जा सकता- “ना देवा चरितम चरैयते”। इससे यह सीमा बांध दी गई है कि देवों के कार्य उदाहरण नहीं बन सकते। यह एक मुक्त श्लोक है जसका स्रोत अज्ञात है।
  2. काणे ग्रंथ, भाग 1, पृ. 60

देवर, ज्येष्ठ ने भाभी के साथ बड़ों की अनुमति के बिना सहवास किया है या यदि अन्य परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं (यदि पति से पुत्र पहले ही हैं) और उसने बड़ों की सहमति से ही सहवास किया हो तो वह परिजन मैथुन का पापी होगा।”

आर्यों के प्राचीन समाज में कुछ अन्य सुधार किये गये, जो नैतिक उत्थान के लिए था। विवाह के संबंध में कुछ निषेधात्मक नियम बनाए गए, जिससे पिता, पुत्री, भाई-बहन, मां-बेटे और दादा-पोती के बीच विवाह वर्जित कर दिए गए, गुरु की पत्नी के साथ संभोग को भी जघन्य पाप घोषित किया गया। जुए पर रोक लगाने के प्रयत्नों के भी प्रमाण हैं। धर्मसूत्रों के प्रत्येक लेख में ऐसे विधान के प्रसंग हैं जिनमें राजा से कहा गया कि राजा का कर्त्तव्य है कि राजदण्ड से कठोर दण्ड देकर जुए पर नियंत्रण  करें।

कलियुग के आरंभ होने से काफी पहले ये प्रसंग मिलते हैं। यह स्वाभाविक है कि नैतिक दृष्टि से कलियुग बेहतर है। यह कहना कि कलियुग में नैतिकता का हार्स हो रहा है, न केवल निराधार है बल्कि स्पष्ट रूप से पथभ्रष्टता है।

V

कलियुग के संबंध में इस विवेचन से बहुत-सी पहेलियां उत्पन्न होती हैं। महायुगों का विचार कब जन्मा? यह सत्य है कि संसार भर में अतीत को स्वर्गीय समझा जाता है। महायुग की कल्पना यहां भी की जाए तो कोई अजीब बात नहीं। अन्यत्र यह मान्ता है कि स्वर्णयुग गया तो गया। परन्तु महायुग का मोह हमारे यहां जीवित है। वह एक चक्र पूरा होने पर फिर आएगा।

दूसरी पहेली है कि कलियुग 165 ई.पू. समाप्त क्यों नहीं हुआ जबकि खगोलशास्त्रियों के अनुसार यह समाप्त हो जाना चाहिए था। तीसरी पहेली कलियुग की संध्या और संध्यांश का है। यह स्पष्ट है कि यह बाद की कल्पना है क्योंकि विष्णु पुराण में उनका उल्लेख अलग से किया गया है। यह जोड़ी क्यों गई? फिर काल-गणना के संबंध में भी झमेला है। पहले कलियुग का समय सामान्य वर्ष में गिना गया था किन्तु बाद में कहा गया ये दैवी वर्ष है। इसका अर्थ हुआ जो कलियुग 1200 वर्ष में बीत जाना था, उसकी अवधि का विस्तार 4,32,000 वर्ष तक होगा। यह नई खोज क्यों की गई? कलियुग का इतना लम्बा विस्तार वैदिक ब्राह्मणों ने क्यों किया? क्या यह कुछ शूद्र राजाओं पर अनुचित दबाव जमाने की चाल थी कि कलियुग की खोज कर ली गई और उसे अनंत बना दिया गया ताकि प्रजा को उनके राज पर विश्वास न रहे?