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छठी पहेली वेदों की विषय-सामग्री क्या वे कोई नैतिक अथवा आध्यात्मिक मूल्य रखते हैं ?

                                                                       I

यदि वेदों को अनिवार्य और उनके संशय रहित होने को स्वीकार कर भी लिया जाए तो उसके उपदेशों में नैतक और आध्यात्मिक मूल्य होने चाहिए। केवल इसलिए कि जैमिनि ने सही बताया है, हम कचरे को अनिवार्य और दोष-रहित नहीं मान सकते। वेदों में कोई नैतिक अथवा आध्यात्मिक सामग्री है भी या नहीं! प्रत्येक हिन्दू जो वेद को संशय रहित मानता है इस प्रश्न पर विचार करने को बाध्य है।

आधुनिक लेखकों के विचार इस बात को स्वीकार नहीं करते कि वेदों का कोई आध्यात्मिक मूल्य है। इस विश्लेषण के लिए हम प्रो- म्यूर के विचारों का संदर्भ ले सकते हैं। प्रो- म्यूर1 के अनुसार:

‘‘इस पूरी रचना का स्वरूप और इनसे प्राप्त प्रमाणों के अनुसार जिन परिस्थितियों में ये रचे गए, उनसे पता चलता है कि प्राचीन कवियों द्वारा गाई गई ये रचना उन व्यक्तियों की व्यक्तिगत अभिलाषाओं और भावनाओं का सहज वर्णन मात्र है जिन्हें उनके समक्ष दुहराया गया था। इन गीतों में आर्य ऋषियों ने अपने पैतृक देवताओं को तरह-तरह की बलियां चढ़ाकर उनकी स्तुति की और उन्हें संतुष्ट होने का आह्नान किया और उनसे ऐसे अनेक वरदान मांगे जिनकी मानव-मात्र को लालसा होती है, जैसे स्वास्थ्य, सम्पदा, चिरायु, पशुधन, संतति, शत्रु पर विजय, पाप-मुक्ति और शायद स्वर्ग-सुख भी।’’निःसंदेह यह आपत्ति की जा सकती है कि सभी विदेशी विद्वान पूर्वाग्रह ग्रस्त हैं, इसलिए उनके मत स्वीकार नहीं किये जा सकते। हम पूर्णतः विदेशियों का सहारा नहीं लेते। इस देश में भी उनके समान विचारधारा वाले विद्वान उपलब्ध हैं। इनमें सबसे सशक्त उदाहरण चार्वाक का है।

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1- मयूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, (पृष्ठ का उल्लेख नहीं है)।

चार्वाक ने वेदों1 के विरुद्ध जो तर्क दिए हैं, उन तर्कों का खंडन किया गया है। प्राचीन साहित्य में चार्वाकों का उल्लेख उनकी भर्त्सना के संदर्भ में किया गया है:

‘‘यदि आपको इस पर आपत्ति है कि यदि परलोक में सुख जैसा कुछ नहीं है तो बुद्धिमान अग्निहोत्र क्यों करें? बलि क्यों दे? जिन पर भारी अपव्यय होता है और थकान होती है, आपकी आपत्ति को कोई भिन्न साक्ष्य नहीं माना जा सकता,

क्योंकि अग्निहोत्रदि जीविकोपार्जन के साधन मात्र हैं, क्योंकि वेद में तीन दोष हैं अर्थात् मिथ्याकथन, अन्तर्विरोध और पुनरुक्ति। फिर ढोंगी लोग जो स्वयं को वैदिक पंडित बताते हैं, बहुत ही शरारती हैं। क्योंकि ज्ञान-मार्गियों की जड़ खोदने कर्मकांडी आ धमकते हैं और कर्मकांडियों के विरोधी ज्ञानमार्गी, कर्मकांड की धज्जियाँ उड़ाने से नहीं चूकते हैं और अंत में तीनों वेद असंबद्ध चारणों का गेय काव्य है। जो पोंगापंथियों के वाव्फ़ चातुर्य के कारण आज तक विद्यमान हैं, और इसी कारण यह लोक धारणा प्रचलित है:

‘‘अग्निहोत्र, तीन वेद, तापसवृत्ति, तीन पद और भस्म रमाकर कुरूप होना, ये उनकी कमाई के धंधे हैं,’’ और बृहस्पति के कथानानुसार ‘‘मनुष्यता और बुद्धि से कोई सरोकार नहीं है।’’

बृहस्पति भी इसी मत के अनुयायी थे। चार्वाक की अपेक्षा बृहस्पति वेदों के विरुद्ध अधिक कठोर एवं उग्र थे। जैसा कि माधवाचार्य ने उद्धृत किया हौ बृहस्पति2 का तर्क हैः

‘‘स्वर्ग की कोई सत्ता नहीं है, मोक्ष कुछ नहीं है। पुनर्जन्म होता है। न चार जातियों का कोई कर्म आदि प्रभाव डालते हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, तापस-वृत्ति तीन-पद भस्म रमाकर कुरूप होना— उनकी कमाई के धंधे हैं जिनमें बुद्धि और मनुष्यता का भाव नहीं है, ज्योतिस्तोम संस्कार में यदि कोई जीव काट दिया जाता है और यदि वह सीधे

स्वर्गगामी होता है तो बलिदाता अपने पिता की बलि क्यों नहीं दे देता? यदि श्राद्ध से मृतक संतुष्ट होते हैं तो इहलोक में भी जब कोई यात्रा आरंभ करता है तो यात्रा के प्रबंध करना व्यर्थ हैं?

यदि श्राद्ध से परलोक में संतुष्टि होती है तो इहलोक में उन्हें भोजन क्यों नहींदिया जाता? जो स्वर्ग से विमान आने की प्रतीक्षा में बैठे हैं।

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1- सर्व दर्शन संग्रह, पृ- 10

2- वही, (पृ- संख्या का उल्लेख नहीं है)।

(जब तक जीवन है तो सुख से क्यों न रहें? क्यों न ऋण लेकर भी घी पिए?)

यदि मरणोपरांत देह भस्म बन जाती है तो वापस कैसे आ सकती है?

देह त्याग के पश्चात् कोई यदि परलोक चला जाता है तो वह अपने परिजन के मोह में फंसकर लौट क्यों नहीं आता? इस प्रकार यह सब कमाई के धंधे हैं जो ब्राह्मणों ने बना रखे हैं। यह सभी संस्कार मृतकों के लिए हैं, अन्यत्र कोई फल नहीं मिलता, तीन वेदों के सृष्टा विदूषक, लालबुझक्कड़ और दुरात्मा हैं।

पंडितों, झारपड़ी, तुरपड़ी के सर्वविदित सूत्र और देवी के लिए परोक्ष पूजा सभी अश्वमेध की प्रशंसा में हैं।

इनका अन्वेषण लालबुझक्कड़ों ने किया और इसी कारण पुरोहितों को विभिन्न प्रकार से चढ़ावा दिया जाता है।

जबकि इसी प्रकार निशाचरों ने मांस भक्षण की प्रशंसा की है।’’यदि चार्वाक और बृहस्पति के मत अमान्य हैं तो अन्य अनेक साक्ष्य विद्यमान हैं। यह साक्ष्य न्यायवैशेषिक, पूर्व और उत्तर मीमांसा दर्शनशास्त्रें में उपलब्ध हैं।

यह स्पष्ट है कि कुटिल लेखकों ने इन दर्शनशास्त्रें पर इकतरफा पाठ्य पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने वेदों की प्रामाणिकता का औचित्य बताने से पूर्व इस बात का पूरा षडयंत्र रचा है कि वेदों की सत्ता को चुनौती देने वाले उनके विरोधियों का मत उनकी पाठ्य पुस्तकों के पास भी न फटक सके। इस तथ्य से हम दो बातें प्रामाणित कर सकते हैं: (1) कि एक ऐसी विचारधारा थी जो वेदों को प्रामाणिक ग्रंथ स्वीकार करने के विरुद्ध थी, (2) कि वे सम्मानित विद्वान थे जिनके मत को वेदों की सत्ता स्वीकार करने वाले भी मानने को बाध्य थे। मैं न्याय और पूर्व मीमांसा में

विमत को उद्धृत करता हूँ।

न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम वेदों की प्रामाणिकता के पक्षधर थे। उन्होंने सूत्र 57 में अपने विरोधियों के तर्क का सारांश दिया है जो निम्नांकित1 है:

‘‘वेद प्रमाण नहीं है क्योंकि इनमें ‘‘मिथ्यावाद, आत्मविरोध और पुनरुक्ति दोष है। मौखिक साक्ष्य जो प्रत्यक्ष साक्ष्यों से भिन्न है कि वेद प्रमाण नहीं है, क्यों? क्योंकि ‘‘इन दोषों के संदर्भ में मिथ्यावाद इस तथ्य से प्रमाणित है कि कई बार हम पाते हैं कि पुत्रेष्टि के लिए दी गई बलि फलदायी नहीं होती और इसी प्रकार अन्तर्विरोध प्रकट है कि पूर्व और परवर्ती घोषणाओं में भिन्नता है। इस प्रकार वेद कहता है कि ‘‘वह तब यज्ञ करता है जब सूर्योदय होता है।’’

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1- मयूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ- 113उसमें मिथ्यापन आदि के दोष हैं।’’ ‘‘इन दोषों के संदर्भ में मिथ्यावाद इस तथ्य से प्रमाणित है कि कई बार हम पाते हैं कि पुत्रेष्टि के लिए दी गई बलि फलदायी नहीं होती और इसी प्रकार अन्तर्विरोध प्रकट है कि पूर्व और परवर्ती घोषणाओं में भिन्नता है। इस प्रकार वेद कहता है कि ‘‘वह तब यज्ञ करता है जब सूर्योदय होता है।’’ वह सूर्योदय से पूर्व यज्ञ करता है। वह तब यज्ञ करता है जब श्यान उसका चढ़ावा लेकर भाग जाता है और दोनों ही बलिदाता का चढ़ावा उठाकर ले जाते हैं, फिर शब्दों के बीच अनतर्विरोध है जिनमें बलि की प्रेरणा है और उसकी निंदा भी है जिसके घातक परिणाम होते हैं। तब पुनरुक्ति के कारण वे प्रमाण नहीं है  क्योंकि जो पहले कहा गया है उसकी तीसरी बार आवृति होती है। अंत में भी पहली बात दोहराई जाती है। क्योंकि आदि, अंत के समान है और शब्दों की तीसरी आवृति है। यह वाक्य पुनरुक्ति है। क्योंकि इस वाक्य विशेष में इन उदाहरणों के अनुसार एक-सा कथन होने के कारण और यह सभी रचनाएं एक व्यक्ति की हैं इसलिए समान प्रकृति की हैं और उनमें कोई प्रामाणिकता नहीं है।’’ जैमिनि का संदर्भ देखें। वह वेद विरोधियों के विचारों1 को पूर्व मीमांसा के सूत्र 28 और 32 में सार-संक्षेप में उद्धृत करते हैं। सूत्र 28 कहता है:

‘‘यह भी आपत्ति की गई है कि वेद सनातन नहीं हो सकते, क्योंकि हम पाते हैं कि उनमें ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख है जो सनातन नही है बल्कि जन्म और मृत्यु के पात्र हैं। इस प्रकार वेद में कहा गया है ‘‘बाबरा प्रवाहनी की इच्छा है, कुसरविंदा औद्दालकी की इच्छा है’’ इसलिए वेद के संदर्भित वाक्यों में इन व्यक्तियों के जन्म-पूर्व उल्लेख संभव नहीं है, यह स्पष्ट है कि ये वाक्य आरंभिक हैं। इस प्रकार सनातन नहीं है। यह प्रमाणित है कि ये मानव कृतियां हैं।’’

सूत्र 32 कहता2 है:

‘‘यह प्रश्न किया गया है कि वेद कर्त्तव्यों का साक्ष्य कैसे हो सकते हैं जबकि उनमें ऐसी असंगत और अनर्गल बातें भरी पड़ी हैं जैसे ‘‘कम्बल और खड़ाऊं पहने एक बूढ़ा द्वार पर खड़ा है और आशीष के गीत गा रहा है। समर्पण को तत्पर एक ब्राह्मणी कहती है ‘‘हे राजन बता, प्रतिपदा के दिन संभोग के क्या अर्थ हैं? अथवा यह ‘‘गऊओं ने इस बलि पर उत्सव मनाया’’।

निरुक्त के लेखक यास्क ने भी यह मत प्रकट किया है। वह कहता है:

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1- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खंड 3, पृ- 7

2- वही, पृ- 80

पूर्वोक्त खंड में चार प्रकार की ऋचाएं हैं। क- जो देवता की अनुपस्थिति में संबोधित हैं, ख- जिसमें उसको समक्ष जानकर संबोधन कया गया है, ग- जिनमें आराधक को उपस्थित और आराध्य को अनुपस्थित माना गया है। ये त्यधिक हैं, घ- जबकि जो स्वगत हैं ये यत्र-तत्र ही हैं। ऐसा भी हुआ है कि देवता की प्रशंसा बिना वरदान की कामना की गई है जैसे कि मंत्र (ऋ- वे- 1-32) ‘‘मैं इन्द्र के शौर्य का वर्णन करता हूं’’ आदि। फिर बिना स्तुति किए वरदान की कामना की गई है। जैसे ‘‘मैं अपने चक्षुओं से अच्छा देखूं, मेरा मुख कांतिमान हो और कानों से भली भांति सुनूं। ऐसा अथर्ववेद (यजुर) और बलि सूत्रें में बार-बार कहा गया है। फिर इसमें हम शपथ और शाप भी पाते हैं। (ऋ-वे- 7, 104, 15) ‘‘यदि मैं यातुधानी हूं तो आज मैं मर जाऊं’’ (आदि) फिर हम पाते हैं कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को दर्शाने वाले मंत्र (ऋ-वे- 10, 29, 2) सत मृत्यु नहीं थी न अमरत्व आदि कुछ स्थितियों में विलाप भी लक्षित है जैसे कि मंत्र (ऋ-वे- 10, 95, 14) ‘‘रूपदान देवता लुप्त हो जाएगा और कभी नहीं लौटेगा’’ आदि। कहीं लांछन और प्रशंसा भी है जैसा कि (ऋ-वे- 10, 117, 6) ‘‘वह व्यक्ति जो अकेला खाता, अकेला पापकर्म करता है आदि। ऐसे ही द्यूत के विषय में मंत्र हैं (ऋ-वे- 10, 34, 13) द्यूत क्रीड़ार की निंदा की गई है- और कृषि कार्य की प्रशंसा। इस प्रकार जिन उद्देश्यों से ऋचाओं की सृष्टि हुई, ये विविध प्रकार के हैं।’’

यास्क के शब्दों में:

‘‘प्रत्येक मंत्र किसी देवता के लिए रचा गया है जिससे ऋषि का उद्देश्य इच्छा पूर्ति का है, वह उसे संबोधिात करता है।’’

यदि वह प्रमाणित करने के लिए इतना भी पर्याप्त नहीं है कि वेदों में कोई नैतिक अथवा आध्यात्मिक मूल्य नहीं है तो अन्य साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जहां तक नैतिकता का प्रश्न है, ऋग्वेद में प्रायः कुछ है ही नहीं, न ऋग्वेद नैतिकता का ही आदर्श प्रस्तुत करता है। इस संबंध में तीन उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

पहला यम-यमी संवाद है जो भाई-बहन थे।

‘‘(यमी कहती है)

मैं अपने मित्र (यम) को मित्रता के लिए निमंत्रित करती हूं। विशाल रेगिस्तान और महासागरों को पार करती हुई आई हूं, इस निर्जन भूमि पर (तुम्हारी) संतान जन्म दे, जो तुम्हारे जैसे पिता के महान गुणों से सम्पन्न हो।’’यम कहता है-‘‘तुम्हारा मित्र ऐसी मित्रता की इच्छा नहीं रखता। एक ही मूल की होते हुए भी तुम्हारी प्रकृति दूसरे प्रकार की है। महान प्रजापति के बहादुर पुत्रें का स्वर्ग पर अधिकार है और वे हमें देख रहे हैं।’’ यमी कहती है-‘‘अमरत्व प्राप्त देवादि सहवास का सुख प्राप्त करते हैं जो मृत्यु लोक के लोगों के लिए मना है। आप मुझसे सहवास करें कि जिस प्रकार सबका निर्माता (ब्रह्मा) अपनी पुत्री का पति बना।’’ यम कहता है-‘‘हमने वह कर्म नहीं किया जो पहले किया गया है। हम सत्यवादी हैं अतः असत्य भाषण कैसे कर सकते हैं। गंधर्व (सूर्य) अंतरिक्ष जल धारण करने वाला

और उसकी वधू हम दोनों के पिता-माता हैं, अतः हम सगे (भाई-बहन) हैं।’’ यमी कहती है-‘‘परमपिता प्रजापति ने हमें गर्भ में ही पति-पत्नी बना दिया। उसके कार्य में कोई बाधक नहीं। पृथ्वी और आकाश भी हमारे संबंध से परिचित हैं।’’ यम कहता है-‘‘हमारे प्रथम प्रणय को कौन जानता है। किसने यहां रहस्य से परिचित कराया हैं। मित्र और वरुण के स्थान दिन-रात के विषय में तू क्या कहती है। नर्क की सजा कौन देता है।’’ यमी कहती है-‘‘यम की वासना मुझ यमी को एक शैया पर सोने के लिए विवश करे। मैं पत्नी के रूप में पति को अपना सब कुछ समर्पित करती हूं। एक रथ के दो पहियों की भांति हम सहयोग कर वासना की पूर्ति करें।’’यम कहता है-‘‘ईश्वर के दूत पृथ्वी पर सदा विचरण करते हैं और अपने नेत्र खुले रखते है। ओ विनाशिनी शीघ्र किसी अन्य के साथ रमण कर जैसे कि एक गाड़ी के दो पहिए मिलते हैं और मेरा पीछा छोड़।’’ यमी कहती है-‘‘तुम्हारे ऊपर प्रत्येक पुजारी रात्रि और दिन का न्यौछावर करें,

सदैव सूर्य के नेत्र खुलें, तुम्हारे लिए युगल (रात और दिन) संयुक्त होकर आकाश और पृथ्वी की भांति मिलें। मैं यम के वियोग को सहन न कर सकूं।’’ यम कहता है-‘‘आगे चलकर ऐसा समय आयेगा जब बहनें (पति के रूप में) उसे चुनेंगी तो उनके भाई नहीं होंगे। अतः भाग्यशालिनी मेरे अतिरिक्त अन्य के साथ अपनी भुजाओं को उसका तकिया बना।’’

यमी कहती है-‘‘उस भाई होने से क्या लाभ है जिसके रहते हुए भी बहिन पति विहीन रहे। उस बहिन के होने से क्या लाभ है जिसके रहते हुए भी भाई दुख उठाए। मैं कामाहत होकर ऐसे वचन बोल रही हूं। तुम मेरे शरीर से अपना शरीर भली-भांति मिलाओ।’’यम कहता है-‘‘हे यमी, मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर नहीं मिलाना चाहता। जो अपनी बहिन से सम्भोग करता है उसे लोग पापी कहते हैं। हे सुंदरी! मेरे अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से आमोद-प्रमोद करो। तुम्हारा भाई यह काम नहीं करना चाहता।’’ यमी बोली-‘‘मुझे खेद है कि तुम बहुत कमजोर हो। मैं तुम्हारे मन को नहीं समझ पा रही हूं। रस्सी जिस प्रकरा घोड़े को बांधती है, और लता जिस प्रकार वृक्ष से लिपट जाती है, उसी प्रकार अन्य स्त्री तुम्हारा आलिंगन करती है।’’ यम ने कहा-‘‘हे यमी! लता जिस प्रकार वृक्षर को लपेटती है, उसी प्रकार तुम मेरे अतिरिक्त अन्य पुरुष का आलिंगन करो। तुम उस पुरुष का मन जीतने की कामना करो और वह पुरुष तुम्हारा मन जीतने की इच्छा करे। तुम उसी के साथ कल्याण् शकारी सहवास करो।’’ ‘राक्षस-हंता अग्नि हमारी प्रार्थना स्वीकार करे। दुरात्मा से त्रण दें जो व्याधि के रूप में तेरे भ्रूण को आक्रांत कर सके, जो अंतः काष्ठ की भांति तेरे गर्भाशय को निरस्त करे।’’  ‘‘अग्नि देव हमारी अर्चना को स्वीकार करें, नरभ्ाक्षियों को नष्ट करें जो व्याधि के रूप में तेरे गर्भाशय पर दुष्प्रभाव डालते हैं, जो अंतः काष्ठ की भांति तेरी कोख को रिक्त कर सकते हैं।’’ ‘‘दुरात्मा से हमें त्रण दें जो पुंसत्व का हरण करते हैं। गर्भ ठहरते ही उसे विस्थापित करते हैं जो नवजात शिशु का हनन करना चाहते हैं।’’

‘‘हमें दुरात्मा से त्रण मिले जो तेरी जंघा को विलग करता है जो पति-पत्नी के बीच बाधा बनता है जो तेरी कोख में प्रविष्ट होता है। बीज हरण करता है। हमें उस दुरात्मा से त्रण मिले जो भ्राता, पति अथवा पति इतर प्रियतम के रूप में तुझ तक पहुंचता है और गर्भपात करना चाहता है।’’

‘‘हमें दुरात्मा से त्रण मिले जो तुझे नींद या अंधेरे में छल लेता है। तुझ तक आकर गर्भपात कर देता है।’’

ऋग्वेद के कुछ मंत्रें अथवा प्रार्थनाओं को लेते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकारहैं:

1- हे वायु देव! तू कितना रूपवान है हमने मसालों से सोम रस बनाया है। आ, इसका पान कर और हमारी प्रार्थना स्वीकार कर — ऋग्वेद प्- 1-2-1

2- हे इन्द्र देव! हमारे संरक्षण हेतु सम्पदा प्रदान कर। तेरे द्वारा प्रदत्त सम्पदा हमेंसुख दे। चिरकालिक हो और हमारे शत्रु विनाश में सहायक हो। प्- 1-8-1

3- पुपुरुषों! जब भी यज्ञ करो इन्द्र और अग्निदेव की स्तुति करना न भूलना, उनका गुणगान करो और गायत्री-छंद में उनकी स्तुति करो। प्- 21-2

4- हे अग्निदेव! देव पत्नियों और त्वष्टा को ला, जो आने और सोमरस पान को लालायित है। प्- 22-9

5- हम प्रार्थना करते हैं, देव पत्नियां सभी उपलब्ध पंखों से और आनन्दित होकर हमारे पास आएं। प्- 22-11

6- मैं प्रार्थना कर रहा हूं कि इन्द्र, वरुण और अग्नि की पत्नियां मेरे पास आएं और सोम पिऐं।

7- हे वरुण! हम तुझ से अनुनय कर रहे हैं कि अपना क्रोध शमन कर। हे असुर! तू पूर्ण बुद्धिमान है, हमें पाप मुक्त कर। प्- 24-14

8- हमारा सोमरस स्त्रियों द्वारा तैयार किया गया है जिन्होंने इसे श्रमपूर्वक मथा है। हे इन्द्र! हम तेरी प्रार्थना करते हैं। आओ और इस सोम का पान करो। प्- 28-3

9- तेरे शत्रु जो तुझे कुछ अर्पित नहीं करते वे विलीन हो जाएं और जो अर्पित करते हैं, वे संपन्न हों। हे इन्द्र! हमें उत्तम गाएं और अश्व प्रदान कर और विश्व में हमारी ख्याति फैला। प्- 29-4

10- हे अग्नि! हमारी राक्षसों से, धूर्त-शत्रुओं से, उनसे जो हमें घृणा करते हैं, और हमारा वध करना चाहते हैं, रक्षा कर। प्- 36-15

11- हे इन्द्र! तू वीर है। आ और हमारे द्वारा तैयार सोम का पान कर और हमें सम्पदा देने को तत्पर रह। जो तुझे कुछ अर्पण नहीं करते, उनकी सम्पत्ति का हरण कर और उसे हमें प्रदान कर। प्- 81-8-9

12- हे इन्द्र! इस सोम का पान कर, जो सर्वश्रेष्ठ है, अमरता प्रदान करता है और अत्याधिक मादक है। प्- 84-4

13- हे आदित्य! हमारे पास आ अपना आशीर्वाद हमें दें। हमें युद्ध में विजयी बनाए। तुम समृद्ध हो। तुम दानी हो। जैसे एक रथ कठिन मार्ग पर अग्रसर

II

अब हम अथर्ववेद पर आते हैं और इसकी विषयवस्तु की निरख-परख करते हैं। इसका उत्तम साधन अथर्ववेद की विषयसूची की तालिका प्रस्तुत करना है।

खंड I – व्याधि हरण और भेषजज्ञानी

पांचवां, 22 – तापमान (बुखार) और संबद्ध व्याधि रोधी तंत्र,

छठा, 20 – तापमान (बुखार) रोधी तंत्र,

प्रथम, 25 – तापमान (बुखार) रोधी तंत्र,

सातवां, 116 – तापमान (बुखार) रोधी तंत्र,

पांचवां, 4 – तापमान हरण हेतु कुष्ठ निवारण पौधे की प्रार्थना,

उन्नीसवां, 39 – तापमान तथा अन्य रागे हरण हेतु कुष्ठ निवारण पौधे की प्रार्थना,

प्रथम, 12 – तापमान, शिरोपीड़ा और काल से उत्पन्न प्रकाश की प्रार्थना,

प्रथम, 22 – पांडुरोग और संबद्ध व्याधि रोधी तंत्र,

छठा, 14 – हलस रोधी तंत्र,

छठा, 105 – कास रोधी तंत्र,

प्रथम, 2 – देह से अतिस्राव रोधी तंत्र,

द्वितीय, 3 – जलस्रोत से अतिस्राव रोधी तंत्र,

छठा, 44 – देह से अतिस्राव रोधी तंत्र,

प्रथम, 3 – मलबंध और मूत्र बंध रोधी तंत्र,

छठा, 90 – रुद्र, क्षेपण से उत्पन्न उदरशूल रोधी तंत्र,

प्रथम, 10 – जलोदर रोधी तंत्र,

सप्तम, 83 – जलोदर रोधी तंत्र,

छठा, 24 – जलादे र, हृदय रागे आरै तत्जन्य व्याधि का पव्र शहित जल दव् शरा उपचार,

छठा, 80 – सूर्य से अनुनय,

द्वितीय, 8 – क्षेत्रीय वंशानुगत व्याधि रोधी तंत्र,द्वितीय, 10 – क्षेत्रीय वंशानुगत व्याधि रोधी तंत्र,

तृतीय, 7 – —-वही—-,

प्रथम, 23 – कुष्ठ रोग का काले पौधे द्वारा उपचार,

प्रथम, 24 – —-वही—-,

छठा, 83 – कंठमाला उपचार तंत्र,

सातवां, 76 – (क) कंठ माला उपचार,

(ख) रसौली का उपचार,

(ग) दोपहरी में सोम प्रभाव में गाया जाने वाला गीत,सप्तम, 74

(क) कंठमाला का उपचार,

(ख) ईर्ष्या तुष्टि तंत्र,

(ग) अग्नि देव से प्रार्थना,

छठा, 25 – ग्रीवा ओर कंधे की कंठमाला रोधी तंत्र,

छठा, 57 – कंठमाला उपचार के रूप में मंत्र,

चतुर्थ, 12 – अस्थि खंडन के उपचार में अरुंधति (लक्ष) बूरी का तंत्र,

पंचम, 5 – घावों के उपचार के प्रति (लक्ष) अरूंधति से घाव का उपचार तंत्र,

छठा, 109 – घावों के उपचार हेतु काली मिर्च,

प्रथम, 17 – रक्त स्राव रोकने का तंत्र,

द्वितीय, 31 – कृम रोधी तंत्र,

द्वितीय, 32 – पशुओं में कृमि-रोधी तंत्र,

पंचम, 23 – बालकों में कृमि रोधी तंत्र,

चतुर्थ, 6 – विष-रोधी तंत्र,

चतुर्थ, 7 – विष-रोधी तंत्र,

छठा, 100 – विष की प्रतिरोधी चीटियां,

पंचम, 13 – सर्प-विष-रोधी तंत्र,छठा, 12 – सर्प-विष रोधी तंत्र,

सातवां, 56 – सरिसृप, बिच्छू और कीट विष-रोधी तंत्र,

छठा, 16 – नेत्र-शोथ-रोधी तंत्र,

छठा, 21 – केश-वृद्धि के लिए तंत्र,

छठा, 136 – केश-वृद्धि के लिए नितौनी के साथ तंत्र,

छठा, 137 – केश वृद्धि के लिए तंत्र,

चौथा, 4 – पुंसत्व-वृद्धि तंत्र,

छठा, III – उन्मादहारी तंत्र,

चौथा, 37 – अगश्रृंगी के साथ राक्षसों, अप्सराओं और गंधर्वों से मुक्ति का तंत्र

द्वितीय, 9 – पिशाच के अधीन व्याधि, दस प्रकार के काष्ठ के तंत्र से उपचार,

चतुर्थ, 36 – व्याधि मूलक पिशाच रोधी तंत्र,

द्वितीय, 25 – पृसनीपरणी द्वारा कण्व व्याधि मूलक पिशाच रोधी-तंत्र,

छठा, 32 – पिशाच भगाने वाले तंत्र,

द्वितीय, 4 – व्याधि और पिशाच रोधी गंगीदा द्वारा तैयार ताबीज तंत्र,

उन्नीसवां, 34 – व्याधि और पिशाच रोधी गंगीदा द्वारा तैयार ताबीज,

छठा, 85 – वारण वृक्ष द्वारा बने ताबीज से रोग-हरण,

छठा, 127 – सर्व-रोग हारी किचपदद्रु,

उन्नीसवां, 38 – गुग्गल की उपचार शक्ति,

छठा, 91 – जौ और जल सर्व-रोगहारी,

आठवां, 7 – सर्व-रोगहारी जड़ी-बूटियों और इन्द्रजाल के मंत्र,

छठा, 96 – सर्व रोगहारी जड़ी बूटियां,

द्वितीय, 33 – आरोग्य तंत्र,

नवां, 8 – सर्व-रोग-रोधी तंत्र,

द्वितीय, 29 – दीर्घायु और रोग-संक्रमण द्वारा समृद्ध का तंत्र,

खंड II – दीर्घायु और स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएं (आयुष्यानी)

तृतीय, 2 – स्वास्थ्य और दीर्घायु हेतु प्रार्थना,

द्वितीय, 28 – दीर्घायु हेतु प्रार्थना,

तृतीय, 31 – स्वास्थ्य और दीर्घायु हेतु प्रार्थना,

सप्तम, 53 – दीर्घायु के लिए प्रार्थना

खंड III – पिशाचों, जादूगरों और शत्रुओं को शाप

प्रथम, 7 – जादूगरों और पिशाचों को शाप,

प्रथम, 8 – जादूगरों और पिशाचों को को शाप,

प्रथम, 16 – पिशाचों और जादूगरों के विरुद्ध सीसे का तंत्र,

छठा, 2 – राक्षसों के विरुद्ध सोम से अनुनय,

द्वितीय, 14 – पुरुषों, पशुओं और गृहस्थी के लिए अनिष्टकारी पिशाचनियों के विरुद्ध तंत्र,

तृतीय, 9 – विषखंड अनिष्टकारी राक्षसों के विरुद्ध शाप,

चतुर्थ, 20 – एक गुल्म विशेष के साथ तंत्र जो राक्षस और शत्रु का नाम बताएं,

चतुर्थ, 17 – अपमार्ग पौधे द्वारा जादूगर, राक्षस और शत्रु-रोधी तंत्र,

चतुर्थ, 18 – अपमार्ग पौधे द्वारा जादूगर, राक्षस और शत्रु-रोधी तंत्र,

चतुर्थ, 19 – राक्षसों और जादूगरों के विरुद्ध अपमार्ग पौधे के रहस्यात्मक गुण,

सप्तम, 65 – शाप और पाप कर्मों के फल के विरुद्ध अपमार्ग का तंत्र,

दशम, 1 – जादूगर रोधी तंत्र,

पंचम, 14 – जादूगर रोधी तंत्र,

पंचम, 31 – जादूगर रोधी तंत्र,

अष्टम, 5 – संरक्षण के लिए श्राक्त वृक्ष की लकड़ी से बने रक्षाकवच (ताबीज) से प्रार्थना,

दशम, 3 – वरणा वृक्ष से बने ताबीज का गुणगान,

छठी पहेलीदशम, 6 – खादिर वृक्ष की लकड़ी से बने ताबीज का गुणगान,

नवम्, 16 – विश्वासघात, षड्यंत्र से रक्षा के लिए वरुण की प्रार्थना,

द्वितीय, 12 – शुभ कार्यों में विघ्नकारी शत्रु को शाप,

सप्तम, 70 – शत्रु की बल को विफल करना,

द्वितीय, 7 – एक पौधे विशेष की सहायता से शाप और अनिष्टकारी षड्यंत्र-रोधी तंत्र,

तृतीय, 6 – अश्वगंधा द्रुम से शत्रु नाश,

छठा, 75 – शत्रुनाशी प्रार्थना (नैवेद्यम् हवि),

छठा, 37 – अनिष्टकारी तांत्रिक कार्यों के विरुद्ध तंत्र,

सप्तम, 13 – शत्रु की शक्ति-हरण तंत्र,

खंड IV – स्त्रीकर्मणी तंत्र

द्वितीय, 36 – पति प्राप्ति हेतु तंत्र,

छठा, 60 – पति प्राप्ति हेतु तंत्र,

छठा, 82 – पत्नी प्राप्ति हेतु तंत्र,

छठा, 78 – दम्पति को आशीर्वाद,

सप्तम, 36 – नव-विवाहितों द्वारा उच्चारणीय प्रणय तंत्र,

सप्तमी, 37 – दुल्हन द्वारा दूल्हे के प्रति उच्चारणीय तंत्र,

छठा, 81 – गर्भधारण हेतु गंडा (ताबीज),

तृतीय, 23 – पुत्र प्राप्ति हेतु तंत्र,

छठा, 11 – पुत्र प्राप्ति हेतु तंत्र,

सप्तम, 35 – किसी स्त्री का बंध्या बनाने हेतु झाड़-फूंक,

छठा, 17 – गर्भपात रोधी तंत्र,

प्रथम, 34 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र,

द्वितीय, 30 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र,

छठा, 8 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र,

छठा, 9 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र,छठा, 102 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र,

तृतीय, 25 – किसी स्त्री का कामुक आकर्षण पाने हेतु तंत्र,

सप्तम, 38 – किसी स्त्री का प्रणय पाने हेतु तंत्र

छठा, 130 – किसी स्त्री की वासना उद्दीप्त करने हेतु तंत्र,

चतुर्थ, 5 – गुप्त मिलन हेतु तंत्र,

छठा, 77 – आवारा स्त्री की वापसी के लिए तंत्र,

छठा, 18 – ईर्ष्या रोधी तंत्र,

प्रथम, 14 – किसी स्त्री द्वारा अपनी सपत्नी के विरुद्ध झाड़-फूंक,

तृतीय, 18 – सपत्नी के विरुद्ध तंत्र,

छठा, 138 – किसी स्त्री की कामुकता-रोधी तंत्र,

प्रथम, 18 – किसी स्त्री की पिशाच वृत्ति का शमन,

छठा, 110 – दुष्ट ग्रह में जन्मे शिशु के प्रथम दो दांत उल्टे निकलने पर अनुष्ठान,

खंड V – राजकार्य संबंधी तंत्र

चतुर्थ, 8 – राज्याभिषेक पद प्रार्थना,

तृतीय, 3 – निर्वासित राज्य की पुर्नस्थापना हेतु तंत्र,

तृतीय, 4 – राजा के निर्वाचन पर प्रार्थना,

चतुर्थ, 22 – किसी राजा को श्रेष्ठता प्राप्ति हेतु तंत्र,

तृतीय, 5 – राज्य शक्ति में वृद्धि हेतु पर्णद्रुम से बने ताबीज की प्रशंसा,

प्रथम, 9 – इहलोक और परलोक में सफलता हेतु प्रार्थना,

छठा, 38 – ऐश्वर्य और शक्ति हेतु प्रार्थना,

अष्टम, 8 – युद्ध तंत्र,

प्रथम, 19 – बाण घाव-रोधी युद्ध तंत्र,

तृतीय, 1 – शत्रु को भ्रमित करने वाला तंत्र,

तृतीय, 2 – शत्रु को भ्रमित करने वाला तंत्र,

छठा, 97 – राजा के पक्ष में युद्ध पूर्व तंत्र,छठा, 99 – राजा के पक्ष में युद्ध पूर्व तंत्र,

ग्याहरवां, 9 – युद्ध में सहायता हेतु अर्बुदी और न्यार्बुदी प्रार्थना,

एकादश, 10 – युद्ध में सहायता हेतु त्रिशमधि प्रार्थना,

पंचम, 20 – युद्ध-नाद का मंत्र,

पंचम, 21 – युद्ध-नाद शत्रु भय मंत्र,

खंड VI – सभा में अनुकूलता प्रभाव वृद्धि हेतु तंत्र

तृतीय, 30 – अनुकूलता प्राप्ति हेतु तंत्र,

छठा, 73 – विरोध निवारण तंत्र,

छठा, 74 – विरोध निवारण तंत्र,

सप्तम, 52 – संघर्ष और रक्तपात-रोधी तंत्र,

छठा, 64 – विरोध निवारण तंत्र,

छठा, 42 – क्रोध-निवारण तंत्र,

छठा, 43 – क्रोध-निवारण तंत्र,

सप्तम, 12 – सभा में प्रभावोत्पादकता हेतु तंत्र,

द्वितीय, 27 – विवाद में शत्रु विरोधी तंत्र,

छठा, 94 – किसी को इच्छादास बनाने हेतु तंत्र,

खंड VII – गृहस्थी, कृषि, पशुधन, व्यापार, द्यूत और स्वजनों की समृद्धि हेतु तंत्र

तृतीय, 12 – गृह निर्माण के लिए प्रार्थना,

छठा, 142 – अन्न-रोपण के समय आशीर्वाद,

छठा, 79 – अधिक अन्न प्राप्ति के लिए तंत्र

छठा, 50 – कृषि-नाशी-कीटों की झाड़-फूंक,

सप्तम, 2 – बिजली गिरने से अन्न की रक्षार्थ तंत्र,

द्वितीय, 26 – पशुधन की समृद्धि हेतु तंत्र,

तृतीय, 14 – पशुधन की समृद्धि हेतु तंत्र,षष्ठ, 59 – पशुधन के रक्षार्थ अरुंधति पौधे की प्रार्थना,

षष्ठ, 70 – गाय की बछड़े के प्रति ममता बढ़ाने हेतु तंत्र,

तृतीय 28 – जुड़वां बछड़ों के लिए अनुष्ठान मंत्र,

षष्ठ, 92 – चपल घोड़े के दान का तंत्र,

तृतीय, 13 – नदी से नई नहर के लिए तंत्र,

षष्ठ, 106 – अग्नि से रक्षा के लिए तंत्र,

चतुर्थ, 3 – जंगली-जंतुओं और दस्युओं के विरुद्ध चरवाहों का तंत्र,

तृतीय, 15 – व्यापारी की प्रार्थना

चतुर्थ, 38 – (अ) द्यूत क्रीड़ा में सफलता का तंत्र,

(ब) भटके हुए बछड़ों की वापसी के लिए प्रार्थना,

सप्तम, 50 – जुए में जीत के लिए प्रार्थना,

छठा, 56 – घरों से सरीसृप रोधी झाड़-फूंक,

दशम, 4 – पेडू अश्व का आह्नान मंत्र जो सरीसृप रोधी है,

एकादश, 2 – भय-मुक्ति हेतु भव और सर्व की प्रार्थना,

सप्तम, 9 – खोई सम्पत्ति प्राप्ति हेतु तंत्र,

षष्ठ, 128 – ऋतुदेव का अनुष्ठान,

एकादश, 6 – आपदा मुक्ति हेतु सर्वदेव प्रार्थना,

खंड VIII – पाप और अपवित्रता के प्रायश्चित हेतु अनुष्ठान

षष्ठ, 45 – मानसिक उत्पात विरुद्ध तंत्र,

षष्ठ, 26 – दुराचार रोधी तंत्र,

षष्ठ, 114 – बलि में अशुद्धि के प्रति अनुष्ठान तंत्र,

षष्ठ, 115 – पाप के विरुद्ध अनुष्ठान,

षष्ठ, 112 – ज्येष्ठ भ्राता के पराभव के लिए अनुष्ठान,

षष्ठ, 113 – विशिष्ट जघन्य अपराधों के विरुद्ध अनुष्ठान,

षष्ठ, 120 – पाप मुक्ति के बाद स्वर्ग के लिए प्रार्थना,षष्ठ, 27 – अशुभ पक्षी समझे जाने वाले कपोत के विरुद्ध तंत्र,

षष्ठ, 29 – अशुभ समझे जाने वाले कपोत और उलूक के विरुद्ध तंत्र,

षष्ठ 64 – अशुभ पक्षी के प्रभाव से ग्रस्त व्यक्ति के प्रति अनुष्ठान,

षष्ठ, 46 – दुस्वप्नों के प्रति झाड-़फूंक,

सप्तम, 115 – दुर्गुण निवारण और सद्गुणों के लिए तंत्र,

III

इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि अथर्ववेद मात्र जादू -टोनों, इन्द्रजाल और जड़ी-बूटियों की विद्या है। इसका चौथाई भाग जादू-टोनों और इन्द्रजान से युक्त है। किन्तु यही सच नहीं है कि केवल अथर्ववेद में ही जादू-टोनों और इन्द्रजाल की भरमार है, ऋग्वेद भी इससे अछूता नहीं है। इसमें भी काले जादू-टोनों और इन्द्रजाल संबंधी मंत्रें की भरमार है। मैं ऐसे विषयों पर कुछ सूक्त उद्धृत करता हूं:

सूक्त – 17वां (145)

देवता अथवा इस मंत्र का उद्देश्य सौत से छुटकारा पाना है। ऋषि इन्द्राणी है, अंतिम पद का छंद पंक्ति है, शेष अनुष्टुप है।

1- मैंने यह अतिशक्तिशाली बल्लरी प्राप्त की है, जो सपत्नी का विनाश करती है, जिसके द्वारा वह स्त्री अपने पति को पुनः प्राप्त करती है।

2- हे शुभ देवों द्वारा प्रेषित, शक्तिशाली (गुल्म) मेरी सौत का नाश कर और मेरे पति को केवल मेरा बना।

3- हे श्रेष्ठ (गुल्म) मैं भी श्रेष्ठों में श्रेष्ठ बनूं और वह जो मेरी सौत है, घृणि् शतों में घृणित बनें।

4- मैं उसका नाम भी नहीं लूंगी, कोई उससे प्रसन्न न हो, अन्य सौतों को दूर भगा।

5- मैं विजयी हूं, तू विजेता है, हम दोनों शक्तिशाली होने के कारण सौत पर विजयी होंगे।

6- मैं तुझे विजयी बनाती हूं। जड़ी अपने सिरहाने, मैं तुझे रखती हूं मुझे और विजयी बना। तेरा मानस मुझ से मिल जाए जैसे एक गाय अपने बछड़े से मिलती है। वह जल की भांति अबाध प्रवाहित हो।

सूक्त चतुर्थ – (155वां)

एक और चौथे मंत्र का देवता विघ्ननाशक (अलक्ष्यविघ्न) है, 2 और 3 का ब्राह्मणस्पति, 5 का विश्वदेव, भारद्वाज पुत्र श्रिम्बित ऋषि हैं। छंद अनुष्टुप है।

1- दीनहीन, अभागी, कुरूप (देवी) उन शोषितों के साथ अपने पर्वत पर जा, मैं तुझे डरा कर भगाता हूं।

2- वह इससे डरे (संसार), दूसरे से डरे (संसार), सर्वगर्भक्षरण करने वाली, तीव्र विषाण बृहस्पति आ, कष्टों को दूर कर।

3- उस काष्ठ को ग्रहण कर जो गहन समुद्र में मनुष्य से दूर बहता है। अदमनीय (देवी) दूर समुद्र में जा।

4- असंगत स्वरों का जाप करने वाले जब सहज रूप से बढ़ते हैं, तू उन्हें भगाता है। इन्द्र के सभी शत्रुओं का नाश हो गया, वे बुलबुलों की भांति विलीन हो गए।

5- ये (विश्वदेव) चुराए गए पशु लौटा ला उन्होंने अग्नि जागृत की, उन्होंने देवताओं को भोजन दिया, उन्हें कौन जीत सकता है।

सूक्त 12वां (163)

क्षय रोग निवारण: ऋषि कश्यपपुख विव्रीहन है। छंद है अनुष्टुप् ।

1- मैं तेरा चक्षु रोग हरण करता हूं। तेरी शिरोपीड़ा, तेरी नासिका, कर्ण, ठोड़ी, मानस, जिव्हा का रोग हरण करता हूं।

2- तेरी ग्रीवा, तेरी नासिका, तेरी अस्थियों, तेरे संधि-क्षेत्रें, तेरे बाहु, तेरे स्कंध, तेरे बाजुओं का रोग हरता हूं।

3- मैं तेरी अंतड़ियों, तेरी गुदा, उदर, हृदय, गुर्दे, यकृत और अन्य अंगों का रोग मिटाता हूं।

4- मैं तेरी जंघाओं, घुटनों, एड़ियों, पंजों, कमर, नितंबों और गुप्तांगों का रोग हरता हूं।

5- मैं तेरे मूत्र-मार्ग, मूत्र-ग्रंथि, बालों, नाखूनों, समस्त शरीर का रोग नष्ट करता हूं।

6- मैं तेरे प्रत्येक अंग, प्रत्येक बाल, प्रत्येक जोड़, जहां भी रोग हो, उसको मिटाता हूं। और क्या चाहिए जिससे स्पष्ट होता है कि वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे आध्यात्मिक अथवा नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता हो। न तो उसकी विषय-वस्तु और न ही उसका स्वरूप, वेदों में संशयहीनता का औचित्य ठहराता है, जिसके ढोल पीटे गए हैं। तब ब्राह्मणों ने इतनी दृढ़ता से उन पर पवित्रता का मुलम्मा चढ़ाकर संशय रहित क्यों घोषित किया?