कालगणना की जो इकाईयां हिंदुओं में प्रयुक्त हैं, उनकी ओर लोगों का सम्यक ध्यान नहीं जाता कि उनकी विशिष्टता क्या है? यह ऐसा विषय है जो पुराणों से संबद्ध है। उनके अनुसार काल गणना के पांच माप हैं: 1. वर्ष, 2. युग, 3. महायुग, 4. मन्वंतर और 5. कल्प। हम इन इकाईयों के संबंध में विष्णु पुराण पर आते हैं। वर्ष से आरम्भ करें। विष्णु पुराण ने इसे किस प्रकार गिना हैं:1
“हे ऋषि श्रेष्ठ! पन्द्रह बार पलक झपकने पर एक काष्ठ पूर्ण होता है। तीस कलाओं से एक महूर्त, तीस मुहूर्तों से एक मानवीय दिन और रात। ऐसे तीस दिनों से एक महीना बनता है। उसके दो पक्ष होते हैं, 6 मास से एक आयण (उत्तरायण, दक्षिणायण) बनता है और दो आयणों से एक वर्ष बनता है।”
विष्णु पुराण में ही एक अन्य स्थान पर यही व्याख्या विस्तार से दी गई हैः2
पन्द्रह बार पलक झपकने (निमेधों) से एक काष्ठ, तीस काष्ठ से एक कला, तीस कलाओं से एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट), तीस मुहूर्तों से एक दिन और रात, उनका समय चाहे घटता-बढ़ता रहे। यह कहा गया है कि संध्या घटने-बढ़ने की दशा में भी वही रहती है। उसका एक ही मुहूर्त होता है। परन्तु जिस समय सूर्य की परिधि को तीन मुहूर्त के लिए रेखांकित किया जाए, वह मध्यांतर प्रातः कहलाता है जो दिवस का पंचमांश होता है। अगला भाग अर्थात् प्रातः के पश्चात् के तीन मुहूर्त संगव (पूर्वाह्न) होता है। अगले तीन मुहूर्त मध्याह्न होते हैं, उसके पश्चात् के तीन मुहूर्त अपराह्न अथवा संध्या होते हैं और दिन के पन्द्रह मुहूर्तों को पांच समान भागों में विभक्त किया है।
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- विष्णु पुराण, विल्सन, पृ. 22.3
- वही।
रिडल आफ कलियुग का यह दूसरा पाठ है। हमें इसकी कार्बन प्रति मिली है। इसमें लेखक के संशोधन नहीं हैं। यह अध्याय 40 पृष्ठों का है – संपादक
तीस-तीस मुहूर्तों के पन्द्रह दिनों से एक पक्ष बनता है चन्द्र पक्ष दो पक्षों से एक मास, दो मास से षट ऋतु की एक ऋतु, तीन ऋतुओं से एक आयण अर्थात् उत्तरायण अथवा दक्षिणायण, और दो आयणों से एक वर्ष बनता है।
विष्णु पुराण में युग की परिकल्पना इस प्रकार की गई हैः1
“बारह हजार दैवी वर्षों (एक में तीन सौ साठ) से चार युग बनते हैं, उनका विवरण इस प्रकार हैः कृत युग में चार हजार दैवी वर्ष, त्रेता में तीन हजार, द्वापर में दो हजार और कलियुग में एक हजार। यह प्रचीन गणना के समान है।”
“प्रत्येक युग से पूर्व एक संध्या होती है। यह कई सौ वर्षों की होती है क्योंकि एक युग में हजार वर्ष होते हैं। युग के पश्चात् संध्यांश आता है। उसकी अवधि भी इतनी ही होती है। संध्या और संध्यांश के बीच युग होता है। जैसे कृत, त्रेता आदि।”
विष्णु पुराण में समय नापने के लिए महायुग का जिक्र आया है। वह कहता हैः2
‘‘वर्ष में चार प्रकार के महीने होते हैं। जिनकी पांच पहचान हैं और इन सबको मिलाकर एक युग का चक्र बनता है। वर्ष को संवत्सर, इद्त्सर, अनुवत्सर, परिवत्सर और वत्सर, कई नामों से पुकारा जाता है। यह समय युग कहलाता है।”
महायुग का अर्थ है युग का विस्तार जैसा कि विष्णु पुराण में कहा गया हैः3
“कृत, त्रेता, द्वापर और कलि मिलकर महायुग बनते हैं अथवा चतुर्युग, इस प्रकार के हजार का योग ब्रह्मा का एक दिन होता है।”
विष्णु पुराण में मन्वंतर की व्याख्या इस प्रकार की गई हैः4
“मध्यांतर मन्वंतर कहलाता है। वह चार युगों का इकहत्तर गुना बड़ा होता है। उसमें कुछ और वर्ष भी होते हैं।”
कल्प के विषय में विष्णु पुराण में कहा गया हैः
“ब्रह्मा का दिन कल्प”
कुछ अवधि हैं, जिनमें समय का विभाजन किया जाता है। इन अवधियों में कितना समय होता है, यह उल्लेखनीय है।
वर्ष की अवधि सरल है। 365 दिन का ही होता है। युग, महायुग, मन्वंतर और कल्प गिनना टेढ़ी खीर हैं, फिर भी कल्प के विभाजन में युग और महायुग को
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- विष्णु पुराण, विल्सन, पृ. 23
- वही पृ. 23
- वही पृ. 23
- वही पृ. 24
समझना कुछ सरल है अपेक्षाकृत इसके कि कल्प को युगों से गुणा किया जाए। कल्प और महायुग के संबंधों को समझने के लिए हमें 71 महायुगों को जोड़ना होगा जबकि एक महायुग में चार युग होते हैं और एक मन्वंतर 71 महायुगों तथा कुछ वर्षों का होता है।
इन इकाईयों के आधार पर कालगणना करते समय हम युग को आधार मानकर नहीं चल सकते। क्योंकि युगों का समय तो निश्चित है किन्तु उनमें समानता नहीं है। गणना का आधार महायुग है जिसका समय निर्धारित है।
महायुग में चार युग होते हैं। यथा, 1. कृत, 2. त्रेता, 3. द्वापर, और 4. कलि। प्रत्येक युग का समय निश्चित है। प्रत्येक युग के आगे-पीछे संध्या और संध्यांश होते हैं। उनका समय भी निर्धारित है। विभिन्न युगों का अपना समय और उनके साथ सम्बद्ध संध्या और संध्यांश का समय भिन्न-भिन्न है।
युग समय संध्या संध्यांश योग
कृतयुग …4000 400 400 4800
त्रेता …3000 300 300 3600
द्वापर …2000 200 200 2400
कलि …1000 100 100 1200
महायुग … … … 12000
महायुगों की यह गणना दैवी वर्षों के आधार पर है अर्थात् ब्रह्मा के 12000 दैवी वर्षों से एक महायुग बनेगा। हिसाब यह है कि मानव का एक वर्ष महायुग के एक दैवी दिन के बराबर है। इस प्रकार मानव वर्षों के आधार महायुग का हिसाब इस प्रकार बैठता है (360×12000) = 43,20,000 वर्ष।
71 महायुगों से एक कल्प बनता है। इसका अर्थ है, कल्प का समय हुआ (43,20,000 × 71 = 3,06,72,000)।
मन्वंतर 71 महायुगों तथा कुछ वर्षों का योग है। मन्वंतर का काल कल्प के बराबर बैठता है अर्थात् 3,06,72,000 तथा कुछ और वर्ष। मन्वंतर का समय कल्प से कुछ ज्यादा होता है
वर्ष की परिकल्पना खगोलशास्त्र के अनुरूप है। इसलिए काल-गणना के लिए आवश्यक हैं। कल्प की परिकल्पना पौराणिक और ब्रह्माण्डोत्पत्ति से सम्बद्ध है और इस विश्वास पर आधारित है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति और अवसान ब्रह्मा द्वारा होते हैं। इन दोनों कालों के बीच का अंतर कल्प कहलाता है। इस पर सर्वप्रथम प्रकाश विष्णु पुराणमें डाला गया है। वह इसकी सृष्टि से आरम्भ होता है। इसकी रचना के दो रूप हैं: 1. सर्ग अर्थात् प्रकृति से ब्रह्मांड की उत्पत्ति और, 2. प्रति सर्ग अर्थात् मूल तत्वों से हुआ आरम्भिक विकास अथवा अस्थाई विकृतियों के पश्चात् पुर्नोदय। यह दोनों रचनाएं सावधिक हैं परन्तु ब्रह्मा के जीवन अवसान पर पहले का समापन हो जाता है जब न केवल देवतागण अपितु अन्य तत्व भी लुप्त हो जाते हैं। परन्तु ये तत्व पुनः मूल रूप में परिवर्तित होकर उभर आते हैं। उनके साथ तब केवल सूक्ष्म तत्व बचता है, वह प्रति कल्प अथवा ब्रह्मा के दिन घटित होता है। इससे केवल क्षुद्र जीव और निम्न जगत प्रभावित होते हैं। ब्रह्मांड सार ऋषि और देवता-गण अप्रभावित रहते हैं। यह कल्प की अवधारणा है।
मन्वंतर की अवधारणा यदि ऐतिहासिक भी नहीं तो पौराणिक तो है ही। इसका सूत्र है कि ब्रह्मा ने चराचर सृष्टि रची। परन्तु चर की वंश-वृद्धि नहीं हुई तब ब्रह्मा ने नौ मानस पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उनमें कोई आवेग नहीं था। मात्र पवित्र ज्ञान से अभिभूत थे, ब्रह्मांड से विरक्त और प्रजनन के अनिच्छुक। ब्रह्मा को यह देखकर क्षोभ हुआ। तब ब्रह्मा ने स्वयं को प्रथम पुरुष मनु स्वायंभुव और प्रथम नारी शतरूपा में परिवर्तित किया। मनु स्वायंभुव ने शतरूपा का वरण किया। इस प्रकार प्रथम मन्वंतर आरम्भ हुआ जो स्वायंभुव मन्वंतर कहलाया। चौदह मन्वंतरों का विवरण इस प्रकार है:
“तब ब्रह्मा ने सृष्टि पालन हेतु स्वयं को मनु स्वायंभुव बना लिया, अपने वास्तविक रूप के समान अपने नारी भाग से शतरूपा रची, जिसे तपस्या द्वारा पाप से शुद्ध किया जिसे मनु ने अपनी पत्नी बनाया। इन दोनों से दो पुत्र जन्मे, प्रियव्रत और उत्तानपाद। दो पुत्रियां थी प्रसूति और आकूति जो अति सुंदर थीं। प्रसूति का विवाह दक्ष से और आकूति का रुचि प्रजापति से हुआ। आकूति से जुड़वां बच्चे उत्पन्न हुए यज्ञ और दक्षिणाजिन्होंने परस्पर विवाह कर लिया। (भाई-बहन के विवाह का एक और उदाहरण) उनसे बारह पुत्र उत्पन्न हुए। ये दवेता स्वायंभुव मन्वंतर में यम कहलाए।
प्रथम मनु1 स्वायंभुव था फिर स्वारोचिष। इसके उपरांत क्रमशः औतमी, तामस, रैवत, चाक्षुष। यह छै मनु काल कवलित हुए। सातवें, वर्तमान मन्वंतर का मनु सूर्यपुत्र वैवस्वत है।”
“कल्प के आरंभ में स्वायंभुव मनु के समय का मैं वर्णन कर चुका हूं। उनके देवों, ऋषिगण, अन्य महापुरुषों जो उस समय विद्यमान थे उनके साथ। “अब मैं स्वारोचिष मनु
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- विल्सन, विष्णु पुराण, पृ. 259.64।
के पुत्रों, देवताओं और ऋषियों के विषय में बताता हूं। इस काल (द्वितीय मन्वंतर) के देवता थे, पारावत और तुषित उनका इन्द्र था “विपश्चित। उनके सप्तर्षि थे ऊर्ज, स्तंभ, प्राण, दत्तोली ऋषभ, निश्चर और अर्वरीवट। मनु के पुत्र थे चैत्र और किंपुरूष।
तीसरे मन्वंतर के मनु थे औतमी उसके समय के इन्द्र थे, सुशांति, देवताओं के नाम है स्वधामा, सत्य, शिव प्रतर्दन और वसुवृति। प्रत्येक पांच वर्ग के बारह देवता थे। उस समय सप्तर्षि वशिष्ठ के सात पुत्र थे और अज, परसु, दिव्य तथा अन्य मनु के पुत्र थे।
चौथे मनु तामस के काल में पूजनीय देवता थे, सुरूप, हरि, सत्य और सुधि। प्रत्येक के सत्ताईस देवता थे। शिवी उस काल का इन्द्र था जिसे शत क्रतु भी कहा जाता है। इसने सौ यज्ञ किए थे। सप्तऋषि थे ज्योतिधाम, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वानक, पिवर तामस मनु के पुत्र थे, नर, ख्याति, सांतहय, जनुजंघा आदि।
पांचवें मन्वंतर के मनु रैवत थे। उनका इन्द्र विभु था। देवता इस प्रकार थे अमिताभ, अभूतराजास, वैकुंठगण, सुमेधा। सप्तऋषि थेः हिरण्यरोम, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधमन, पर्जन्य और महामुनि। रैवत के पुत्र इस प्रकार थेः बालबंधु सुसम्भाव्य, सत्यक तथा अन्य साहसी राजा।
स्वारोचिष, औतमी, तामस और रैवत प्रियव्रत की संतान थे जिसने अपनी उपासना से विष्णु को प्रसन्न करके अपनी संतति के लिए मन्वंतरों का मनु बनाए जाने का वर प्राप्त कर लिया था।
“छठे मन्वंतर का मनु चाक्षुष था, उसका इन्द्र मनोज्व था उस काल के देवता थे आदय, प्रस्तुत, भव्य, पृथुग और लेखगण जिनके आठ और देव थे;उस काल के सप्तर्षि थे सुधामा, विरजा हविष्मान, उत्तम, मधुर, अतिमान, सहिष्णु। चाक्षुष के पुत्र थे उरु, पुरु, शतद्युम्न आदि।”
वर्तमान सातवें मन्वंतर के मनु अन्त्येष्टि देव सूर्य की अनुपम संतान वैवस्वत हैं;उनके देवता हैं, आदित्य, वसु और रुद्र;उनका इन्द्र है पुरन्दर;सप्तर्षि हैं-वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज। वैवस्त मनु के नौ पुत्र ओजस्वी हैं। इक्ष्वाकु नाभाग, ध्रष्ट, सन्मति, नरिश्यंत, नाभानिदिष्ट, करुष, प्रिषध्र और यशस्वी वसुमत।
अभी सात मन्वंतरों का विवरण दिया गया है जो विष्णु पुराण में उल्लिखित हैं। ये विष्णु पुराण लिखे जाने तक की स्थिति थी। क्या मन्वंतर शासन बाह्म था? इस विषय में ब्राह्मण मौन हैं। परन्तु विष्णु पुराण के लेखक को पता है कि सात मन्वंतर अभी और आने हैं। इनका विवरण इस प्रकार हैः1
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- विल्सन, विष्णु पुराण, पृ. 266.69.
विश्वकर्मा की पुत्री संजना सूर्य की पत्नी थी। उसकी तीन संतानें मनु (वैवस्वत) यम और यमी (अथवा यमुना नदी) थीं। अपने पति का तेज झेलने में असमर्थ संजना ने उसे सेविका के रूप में छाया दे दी और स्वयं उपासना के लिए वनों में चली गई। सूर्य ने छाया को अपनी पत्नी संजना जानकर उससे तीन संतान और उत्पन्न कीं, शनिश्चर, द्वितीय मनु (सावर्णी) और पुत्री ताप्ती। छाया को एक बार यम पर क्रोध आ गया, उसने उसे शाप दे दिया। साथ ही यम को और सूर्य को यह भी बता दिया कि वह वास्तविक संजना नहीं हैं। छाया के बताने पर कि उसकी पत्नी जंगलों में चली गई है, सूर्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि वह घोड़ी-रूप में तपस्या रत है (उत्तर कुरु प्रदेश में) सूर्य ने घोड़े के रूप में पुनर्जन्म लिया और अपनी पत्नी के पास पहुंच गया और उससे तीन अन्य संताने उत्पन्न कीं, दो अश्विन और रेवंत और फिर संजना को घर ले आया। विश्वकर्मा ने नक्षत्र की गहनता कम करने के लिए उसकी दीप्ति घटाने के उद्देश्य से अपनी चक्री पर चढ़ाया और उसे घिसकर आठवां भाग कर दिया क्योंकि इससे अधिक अविभाज्य था। जो दैवी वैष्णव भव्यता सूर्य में थी, वह विश्वकर्मा के घिसने से धरती पर गिरी, शिल्पीश्रेष्ठ ने उससे विष्णु का चक्र, शिव का त्रिशूल, कुबेर का शस्त्र और कार्तिकेय का वेलु नाया और अन्य देवों के शास्त्र भी बनाए। विश्वकर्मा ने इन सबका निर्माण सूर्य की फालतू किरणों से किया।
छाया का पुत्र भी मनु कहलाया उसी वर्ण का होने के कारण उसका दूसरा नाम सावर्णी पड़ा जैसा कि उसके बड़े भाई मनु वैवस्वत का था। वह आठवें मन्वंतर का मनु है। अब मैं उसका विवरण निम्न बातों के साथ देता हूं। जिस काल में सावण् र्शी मनु बनेंगे, उनके देववर्ग इस प्रकार होंगे सुतप, अग्निताभ और मुख्य प्रत्येक के इक्कीस सप्तर्षि इस प्रकार होंगे दीप्तिमान, गालव, राम;कृप, द्रोणि मेरा पुत्र व्यास छठा और ऋष्यऋंग सातवां ऋषि होगा। इस युग का इन्द्र बलि होगा। विरोचन का निष्पाप पुत्र विष्णु की कृपा से पाताल राज बनेगा। सावर्णी की संतानें होंगी। विराज, अर्वरीव, निर्मोह आदि।
नौवें मनु दक्ष सावर्णी होंगे। इस समय के देव होंगे पारस, मारीचि गर्भ और सुधर्मी। प्रत्येक वर्ग में बारह देव होंगे उनका मुख्य इन्द्र होगा अभूत। सवन, द्युतिमान, भव्य, वसु, मेधातिथि ज्योतिषमान और सत्य ये सप्तर्षि होंगे। धृतकेतु, द्रप्तिकेतु, पंचहस्त, निर्भय, पृथुसर्व आदि मनु के पुत्र होंगे।
दसवें मन्वंतर में मनु ब्रह्मा सावर्णी होंगे;उनके देवगण होंगे सुधामा, विरूद्ध शतसांख्य, उनका इन्द्र महातेजस्वी शांति होगा। सप्तऋषि होंगे हविष्मान, सुकृति, सत्य, अप्पममूर्ति, नाभाग, अप्रतिमजा और सत्यकेत। मनु के दस पुत्र होंगे। सुक्षेत्र, उत्तमजा, हरिषेण आदि।
ग्यारहवें मन्वंतर का मनु धर्म सावर्णी होगा उसके समय प्रमुख देव होंगे विहंगम, कामागम और निर्माणरति;प्रत्येक की संख्या तीस होगी;इस न्वंतर का इन्द्र वृष होगा। सप्तर्षि होंगे निश्चर, अग्नितेज व पुशमन, विष्णु, आरुणी, हविष्मान और अनघ पृथ्वी के स्वामी और मनु के पुत्र होंगे, सवर्ण, सर्वधर्म और देवानिक आदि।
बारहवें मन्वंतर में रुद्र का पुत्र सावर्णी मनु होगा;उस काल का इन्द्र होगा ऋतुधामा। देवों के नाम हैं हरितास, लोहितास, सुमन और सुकर्मा;प्रत्येक की संख्या पन्द्रह होगी। सप्तर्षि इस प्रकार होंगे-तपस्वी, सुतप, तपोमूर्ति, तपोघ्रिति, तपोद्युति और तपोधन। मनु के मेधावी पुत्र होंगे। देव, उपदेव तथा देवश्रेष्ठ आदि।
तेरहवें मन्वंतर का रौच्य मनु होगा। देव वर्ग होग, सुधमन, सुधर्मन और सुकर्मण; उनका इन्द्र दिवसपति होगा। सप्तर्षि होंगे निर्मोह, तत्वदर्शन निष्प्रकम्प, निरुत्सुक, धृतिमान, अव्यय और सुतप तथा त्रिसेन, विचित्र तथा अन्य नृप होंगे।
भौत्य चौदहवें मन्वंतर का मनु होगा। शुचि उसका इन्द्र होगा। देवताओं के पांच वर्ग होंगे। चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, भ्रजीरास और वैवृद्ध। सप्तर्षि इस प्रकार होंगे। अग्निबाहु, शुचि, शुक्र, मागध, ग्रिधर, युक्त और अजित। मनु के पुत्रों के नाम होंगे उरु, गभीर, गभीरा, बृधन आदि जो इस धरा के शासक होंगे।”
मन्वंतर की योजना शायद इस इरादे से बनाई गई कि उस काल के लिए कोई सत्ता स्थापित की जा सके। प्रत्येक मन्वंतर में एक स्वामी मनु होता है। पूजा के लिए देव होते हैं, सात ऋषि और एक इन्द्र होता है। विष्णु पुराण में कहा गया हैः1
“विभिन्न वर्गों के देवता और मनु के पुत्र अपने संबंधित मन्वंतरों में आहुतियां प्राप्त करते हैं और उनके वंशज उस काल में पृथ्वी के शासक होते हैं। प्रत्येक मन्वंतर के नियंता होते हैं मनु, सप्तऋषि देवता मनु के पुत्र और इन्द्र होते हैं।”
परन्तु इसकी क्रम-योजना महायुग कहलाती है जो अत्यधिक जटिल मामला है।
कल्प को महायुग में क्यों विभक्त किया जाए और एक महायुग को चार युगों में क्यों विभाजित किया जाए, जिन्हें, कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग कहते हैं? यह एक पहेली है। यह पुराणों पर आधारित है और हिंदू इतिहास के वास्तविक प्रसंग से विलग है। ऐसा काल के साथ नहीं होता।
पहले तो यह पता नहीं चलता कि युग के समय को इतना असीम विस्तार क्यों दिया गया, जिससे पूरा क्रम मनगढंत और बनावटी लगता है?
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- विल्सन, विष्णु पुराण, पृ. 269.70
ऋग्वेद में ‘युग’ शब्द का उपयोग 38 बार हुआ है। यह काल के रूप में प्रयुक्त हुआ है। साथ ही इसका अर्थ पीढ़ी, जुआ और आदिमजाति भी है। कुछ स्थानों पर यह बहुत संक्षिप्त समय के लिए हुआ है। बहुत से स्थानों पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह बहुत ही कम अवधि के अर्थ में लिया गया है। कभी-कभी तो युगे-युगे का अर्थ है प्रतिदिन।
दूसरी बात यह है कि चार युगों को सामाजिक नैतिकता के निरंतर पतन से जोड़ा गया है। महाभारत के निम्नांकित अंश से यह अवधारणा स्पष्ट प्रकट होती हैः1
कृत ऐसा काल है जिसका सदाचार शाश्वत है। इस सर्वश्रेष्ठ युग में प्रत्येक कर्म सम्पन्न (कृत) हो जाता है और कुछ करने को शेष नहीं रह जाता। तब कर्त्तव्य निस्तेज नहीं होते थे। ना ही लोग उत्साहहीन होते थे। यद्यपि कालांतर में (समय के प्रभाव से) यह युग क्षुद्रता की ओर अग्रसर हुआ। उस समय न वहां देवता थे, न दानव, न गंधर्व, यक्ष, राक्षस, ना ही पन्नगगण और ना ही क्रय-विक्रय होता था। वेद, साम, ऋज और यजुस में विभक्त नहीं थे, व्यक्ति प्रयास नहीं करते थे। फल सोचने से ही मिल जाते थे। धर्मपरायणता और सांसारिक त्याग विद्यमान था। आयु के प्रभाव ने न कोई रोग व्यापता था, न ही अंगों में क्षीणता आती थी। उस समय न दुर्भाव था, न विलाप, न दर्प, न प्रपंच, ना ही कोई विवाद था। वहां कोई अवसाद क्योंकर हो सकता था। तब न घृणा थी, न अत्याचार, भय, संताप, ईर्ष्या अथवा वैर-भाव था। इस प्रकार परम ब्रह्म उन योगियों को ज्ञानातीत थे। तब सभी नारायण-सबकी आत्मा धवल थी। ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र, सभी में कृत युग के गुण थे। उस समय ऐसे जीव जन्मे थे जो अपने कर्म के प्रति निष्ठावान थे। उनके उद्देश्य, विश्वास, कर्म और ज्ञान एक समान थे। उस काल में जातियां अपने कर्म के अनुसार कर्त्तव्य पालन करती थीं। सबको एक देवता पर अटल विश्वास था और मंत्र एक नियम और एक अनुष्ठान से आबद्ध थे यद्यपि उनके कार्य भिन्न-भिन्न थे। वेद एक ही था। एक ही कर्म करते थे। अपने-अपने लिए निर्धारित चारों कार्य में रत रहते थे, समय के पालक थे परन्तु निष्काम होकर परमात्मा का ध्यान लगाते थे। कृत युग में चारों वर्णों की यह अटल धर्मपरायणता उस युग का लक्षण था और वे परमात में विलीन होते थे। कृत युग तीन गुणों से मुक्त था। अब त्रेता को जानें। इसमें यज्ञ होते थे। धर्मपरायण् शता का चतुर्धांश क्षीण हो गया। विष्णु का रंग लाल हो गया और जन-साधारण सत्य का पालन करता था और अनुष्ठानों पर निर्भर धर्माचरण करता था। तब बलि होती थी। पवित्र कर्म और विभिन्न अनुष्ठानों से। त्रेता में सामान्यजन कोई उद्देश्य जानकर कार्य करते थे। वे अनुष्ठानों और युद्धों से फल-प्राप्ति चाहते थे। तप-साधना से और
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- म्यूर, संस्कृत टैक्स्ट, खण्ड 1, पृ. 144.46
कर्त्तव्य-बोध से उनका मन फिर गया था। इस युग में उनके अपने कार्यों धर्म-कर्म में निष्ठा थी। द्वापर में धर्म परायणता अर्धांश रह गयी थी। विष्णु पीतवर्ण हो गए और वेदों के चार अंग हो गए। कुछ चारों वेद पढ़ते थे, कुछ तीन ही, कुछ दो, कुछ एक ही, और कुछ तो एक भी नहीं। शास्त्र ऐसे बंट गए, अनुष्ठानों में विविधता आ गई। लोग तप-साधना करते। उपहार पाते और राजसी हो गए थे। किसी एक ही वेद में आस्था बन जाने से उनकी संख्या बढ़ी और सतोगुण की क्षीणता के कारण सत्य पर गिने-चुने लोग ही अटल थे। नर-नारियों से सद्गुण नष्ट हो गए, अनेक रोग, राग और विपत्तियां, उन्हें समय के साथ सताने लगीं, जिनसे वे अत्यधिक त्रस्त हुए और साधना-मार्ग पर बढ़े। अन्य स्वर्गीय आनन्द की कामना करने लगे और यज्ञों का आयोजन किया। इस प्रकार जब द्वापर आया तो लोगों का धर्माचरण और गिरा। कलियुग में तो वह चतुर्थांश ही रह गया। इस अंधकार युग में विष्णु का रंग काला हा गया। वेद, व्यवहार, धर्मपरायणता, अनुष्ठान, आयोजन लुप्त होने लगे। विपदाएं, रोग, क्लांति, दोष जैसे क्रोधादि निराशा, चिंता, भूख, भय, विद्यमान थे। जैसे-जैसे युग बढ़ा धर्मपरायणता का क्षय होता गया। जब ऐसा हुआ तो मानव का भी हार्स हुआ। जब वे ही रोगी थे, जो प्रेरणाएं उन्हें परिचालित करती थीं, वे भी विकृत हो गईं। युग के हार्स के कारण जो प्रवृत्तियां विकसित हुईं, उनसे मानव के उद्देश्य विफल हो गए। ऐसा कलियुग है जो थोड़े समय रहा। जो चिरायु हैं, वे युग के अनुरूप ही चलते हैं”।
निःसंदेह, यह आश्चर्यजनक है। इन बातों का प्राचीन वैदिक साहित्य में भी उल्लेख है। कृत, त्रेता, द्वापर और अक्षंद शब्द ऐतरेय ब्राह्मण की तैत्तरीय संहिता तथा शतपथ ब्राह्मण में भी प्रयुक्त हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण का कथन है-”कृत वह है जब खेल की गलतियों से लाभ मिलता है, त्रेता वह है जब कोई नियमित योजनानुसार खेलता है, द्वापर वह है जब कोई सामने वाले खिलाड़ी को पछाड़ने की चाल चलता है। अक्षंद का अर्थ है क्रीड़ास्थल का कीड़ा।” ऐतरेय ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण में अक्षंद के स्थान पर ‘कलि’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। तैत्तरीय ब्राह्मण में कृत का अर्थ है जुआघर का स्वामी, त्रेता का अर्थ है-गलतियों से लाभ उठाना, द्वापर अर्थात् बाहर बैठने वाला, कलि का अर्थ है, जो जुआघर को कभी नहीं त्यागता। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया हैः
“यहां प्रत्येक सफलता की आशा करता है, आभागी मृत्यु के लिए। कलि लेटा पड़ा है, अन्य दो शनैः शनैः चल रहे हैं। आधे गिर चुके हैं परन्तु सबसे सौभाग्यशाली कृत में पूरी गति है।” यह स्पष्ट है कि ये सभी शब्द जुए के पासों के लिए हैं। मनु ने इनका किस प्रकार प्रयोग किया1 है? उसे भी देखा जाए। वे कहते हैं:
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- मनु- 9, 301.2
“कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग वे राजा के कार्यों के रूप हैं क्योंकि राजा युग कहलाता है। जब वह सोता है तो कलि है, गतिमान है तो द्वापर है, कार्योद्यत है तो त्रेता है, बढ़ता हुआ है तो कृत है।”
जब मनु की हम उनके पूर्ववर्तियों से तुलना करते हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ता है कि इन शब्दों के भावार्थ में स्पष्ट अंतर आ गया। जो शब्द जुए की शब्दावली थी वह राजनीतिक बन गई, जिसमें राजा की कर्त्तव्य परायणता और ऐसे राजाओं की तुलना की गई, जो क्रियाशील हैं, जो कार्योच्छुक हैं, जो सचेत हैं और जो सोते रहते हैं। उनके लिए राज्य जाए भाड़ में।
प्रश्न यह है कि किन परिस्थितियों में ब्राह्मण कलियुग का सिद्धांत प्रतिपादित करने को विवश हुए? ब्राह्मणों ने कलियुग को पतित समाज का पर्याय क्यों बना डाला? मनु ने एक सोते हुए राजा को कलिराज क्यों कहा? मनु के समय कौन राजा था? उसे सोता हुआ राजा क्यों कहा गया? ऐसी कुछ पहेलियां हैं जो कलियुग सिद्धांत से उत्पन्न होती हैं।
कलियुग संबंधी अन्य पहेली भी है। एक है कलियुग वास्तव में कब आरंभ हुआ?
कलियुग कब आरंभ हुआ, उसके समय के संबंध में कई सिद्धांत हैं? पुराणों ने दो तिथियां दी हैं। कुछ के अनुसार यह ईसा पूर्व चौदहवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ। कुछ का कथन है कि यह ई.पू. 18 फरवरी, 3102 से आरम्भ होता है, जब कौरव-पाण्डवों के बीच युद्ध की शुरुआत बताई जाती है। प्रो- अयंगर ने कहा है कि ऐसे कोई प्रमाण नहीं है कि जिनसे यह प्रकट होता हो कि ईसवी की सातवीं शताब्दी के पूर्व कलियुग का कोई उल्लेख हुआ हो। सर्वप्रथम इसका प्रयोग पुलकेशिन द्वितीय के काल के एक लेख में हुआ है, जिसमें 610 से 642 ईसवी तक बादामी पर शासन किया। इसमें दो तिथियां हैं, शक संवत् 556 और कलि संवत् 3735। इन तिथियों से कलियुग का आरम्भ 3102 ईसवी पूर्व बैठता है। यह गलत है कि ई.पू. 3102 न तो महाभारत-युद्ध की तिथि है और ना ही कलि के आरम्भ की। श्री काणे ने यह अंतिम रूप से प्रमाणित कर दिया है। विभिन्न वंशों के उन राजाओं के विषय में, जिन्होंने पाण्डव-पुत्र परीक्षित के काल में शासन किया, सबसे पक्का कथन यह है कि महाभारत की तिथि ई.पू. 1263 थी। यह ई.पू. 3102 नहीं हो सकती। श्री काणे ने यह भी कहा है कि ई.पू. 3102 कल्प के आरम्भ की तिथि है, कलि आरम्भ की नहीं। इस आलेख में कालपदि को कल्यादि पढ़ लिया गया। इस प्रकार कोई निश्चत तिथि नहीं है, जिसे ब्राह्मण कलि का आरम्भ कह सकें। एक निश्चित तिथि होनी चाहिए थी जिससे इतनी बड़ी घटना की शुरूआत बताई जाती। यह पहेली है।
परन्तु और भी पहेलियां हैं, जो इस प्रकार हैं:
दो ढकोसले कलियुग के संबंध में हैं। ब्राह्मणों ने इस बात पर अत्यधिक बल दिया है कि कलियुग में दो ही वर्ण हैं, ब्राह्मण और शूद्र। उनका कहना है कि क्षत्रिय और वैश्य का अस्तित्व नहीं है। इस मान्यता का आधार क्या है? इसका अर्थ क्या है? क्या वे दो वर्ण ब्राह्मणों में विलीन हो गए या उनका अस्तित्व नहीं है?
भारतीय इतिहास का वह कौन सा काल है जब यह मान्यता आरम्भ हुई?
क्या इसका अर्थ है कि इन दोनों वर्णों का ब्राह्मण में विलीन होना कलियुग का आरम्भ है?
कलियुग के संबंध में दूसरी मान्यता है कलि वर्ज्य, जिसका अर्थ है, कलियुग में किन कार्यों का निषेध है। विभिन्न पुराणों में यत्र-तत्र उनका प्रसंग है। परन्तु आदित्य पुराण में उनका संहिताबद्ध किया गया है और संग्रहीत कर दिया गया है। कलि वर्ज्य के अन्तर्गत जो व्यवहार में आता है, वह निम्नांकित हैः1
“1. विधवा से पुत्र उत्पन्न करने हेतु जेठ की नियुक्ति।”2
“2. किसी (विवाहित) स्त्री के पति की मृत्यु के बाद उसका पुनर्विवाह3 (जिसके साथ सहवास न हुआ हो।) और (जिसके साथ सहवास हो चुका हो)।”
“3. तीनों4 द्विज वर्णों के बीच अन्य वर्ण की कन्या से विवाह5 ।”
“4. आततायी6 ब्राह्मण का सीधे युद्ध में भी वध7 ।”
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- कलि वर्ज्य, पी-वी- काणे, पृ. 8.16
- यह नियोग के संदर्भ है जिसे गौतम की मान्यता प्राप्त है 18.9.14, नारद स्त्रीपम श्लोक 58 याज्ञवल्क्य की मान्तया है 1, 64.68 यद्यपि मनु ने इसकी निंदा की है 9, 64.68, बृहस्पति को भी अस्वीकार्य है।
- यह विधवाओं के पुनर्विवाह के संदर्भ में है। नारद (स्त्रीपम श्लोक, 98.100) के अनुसार विधवा ब्राह्मण स्त्रियों तक को कुछ दशाओं में पुनर्विवाह की मान्यता है। पराशर का भी यही मत है जबकि वशिष्ठ (17.74) और बौधायन धर्मसूत्र (4,1.12) के अनुसार प्रथम विवाह विच्छेद बिना पुनर्विवाह कर सकती है। इस परिच्छेद को बालिका क्षतयोनिका के नाम से भी जाना जाता है। इसका अर्थ है एक विवाहित बालिका जिसका विवाह विच्छेद नहीं हुआ है जबकि दूसरे स्थान पर कहा गया है दो प्रकार की विधवाएं (जिसका विवाह विच्छेद हो गया और जिसका न हुआ हो)।
- कलि वर्ज्य, पी-वी- काणे, पृष्ठ 8.16
- सबसे पुरानी स्मृति में अनुलोम विवाह की अनुमति है जैसे बौधायन धर्मसूत्र 1.8.2.5, वशिष्ठ 1.24.27, मनु 3, 14.17, याज्ञवल्क्य 1, 56.57
- कलि वर्ज्य, पी-वी- काणे, पृष्ठ 8.16
- धर्म ग्रंथकारों ने इस विषय पर बहुत लिखा है;मनु 8, 350.51, विष्णु 5, 180.80, वशिष्ठ 3, 15.18 में एक आततायी ब्राह्मण के वध की अनुमति देते हैं जबकि सुमंतु ने कहा है ‘‘किसी आततायी के वध से कोई पाप नहीं है, ब्राह्मण और गाय इसके अपवाद हैं।” इन्होंने आततायी ब्राह्मण के वध पर प्रतिबंध लगाया है। देखें, यज्ञ पर मिताक्षरी 2, 21 इस विषय पर विचार।
“5. किसी द्विज से व्यवहार (उसके साथ खान-पान जैसा व्यवहार) जो समुद्रयात्र पर जाता है, चाहे उसने प्रायश्चित भी क्यों न कर लिया हो1 ।”
“6. सात्र का उपनयन करना।”
“7. कमण्डल लेकर चलना।2“
“8. महायात्रा3 पर जाना।”
“9. गोमेध4 में गाय की बलि।”
“10. श्रौतमणि यज्ञ तक में मद्यपान5 ।”
“11-12. अग्निहोत्र के पश्चात् पुनः प्रयोग हेतु उसमें प्रयुक्त कलछी को चाटना6।”
“13. शास्त्रनुसार वैखानस जीवनयापन7।”
“14. (जन्म और मृत्यु होने पर) व्यवहार और वैदिक ज्ञान के आधार पर अशुचिता की अवधि घटाना8।
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- बौधायन धर्मसूत्र 1.1.20 में समुद्रयात्र की निंदा की गई है जो उत्तरापथ के ब्राह्मणों की विशिष्टता थी। इन्हें पतितों में सबसे पहला स्थान दिया गया है (11.1.41)। कुछ विद्वान कहते हैं कि यह प्रतिबंध बार-बार समुद्रयात्र के विषय में है। “समुद्रगा” पतित बताए गए हैं (जीवानंद पृ. 525)
- बौधायन-धर्मसूत्र 1.3.4 में स्नातकों के लिए व्यवस्था है कि वे मिट्टी अथवा काठ के पात्र में पानी ले जाएं। वशिष्ठ 12.14 और मनु 4.36 और याज्ञ 1.132 भी यही कहते हैं। जबकि मदन पारिजात पृ. 15-16 में कहा गया है कि कमंडल धारण का अर्थ है चिर ब्रह्मचर्य परंतु यह सत्य नहीं है क्योंकि नारदीय पुराण में उपरोक्त का उल्लेख है कि दोनों भिन्न हैं और प्रतिबंधित हैं।
- इसका संदर्भ है वानप्रस्थों के लिए पूर्वोत्तर की ओर प्रस्थान मनु छठा, 31 और याज्ञ. 3.55 और वृद्ध व्यक्तियों द्वारा महायात्र (आत्महत्या) की प्रथा अर्थात् जब तक चलते रहना जब तक बेदम होकर गिर न जाये। प्रयाग जैसे पवित्र स्थल पर गंगा में जलसमाधि लेना अथवा अग्नि में प्रवेश कर जाना अपरार्क पृ. 536 जहां स्मृति में यह अनुमति दी गई है। उल्लेखनीय है कि मृच्छकटिकम के रचयिता शूद्रक ने रघुवंश 8, 94 के अनुसार अग्नि में प्रवेश किया था। अत्रि श्लोक 218.19 का मेधातिथि ने उल्लेख किया है कि मनु 5.88 के अनुसार राजा प्रयाग में जलसमाधि लेते थे।
- देखें सांख्यायन सूत्र 14.15.1, कात्यायन स्रोत 22, 11.34 और मनु 11.74।
- यह इन्द्र के लिए दी जाने वाली आहुति से मुख्यतः संबंधित है जब आश्विन, सरस्वती और इन्द्र को तीन कटोरे मदिरा भेंट करने के लिए एक ब्राह्मण को धन देकर नियुक्त किया जाता था कि वह कव्य प्राप्त करे। देखें तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.8.62, सांख्यायन स्रोत 15.15.1.14 और पूर्वमीमांसा सूत्र 3.5.14.5
- देखें तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.1.4 और सत्यसाधस्त्रेत।
- आप- धर्मसूत्र 11.9.21, 18.11.9, 23.2, मनु 1.32, वशिष्ठ 9.1.11 में इस संबंध में विस्तृत नियम दिए गए हैं।
- उपरोक्त में उद्धत पराशर जिसमें कहा गया है कि जो ब्राह्मण वैदिक ज्ञान और अग्निहोत्र में प्रवीण है केवल एक दिन की अशुचिता (किसी निकट संबंधी की मृत्यु पर) माने जिसका केवल अध्ययन है। वह तीन दिन की अशुचिता माने बृहस्पति ने हरदत्त के अनुसार 14.1 में कहा है कि कलियुग में सभी के लिए समान रूप से 10 दिन की अशुचि का विधान है। याज्ञ पर विश्वरूप का विस्तृत शास्त्रर्थ में कहना है (3.30) कि दस दिन बाद अशुचिता से मुक्ति मिल जाती है। कहा गया है कि केवल अथर्ववेद का अर्थ है कि स्वार्थ के अभाव और सदगुणों की प्रशंसा की गई है। यह समझना युक्तिसंगत नहीं है कि विश्वरूप को कोई महत्व दिया गया है या उसके कलिवर्ज्य पर ये श्लोक प्रसिद्ध हैं यह पराशर के समक्ष उनकी व्याख्या में विफल न होता।
“15. प्रायश्चित स्वरूप ब्राह्मण की मौत का विधान1।”
“16. नैतिक पाप (स्वर्ण) चोरी की छोड़कर और पापियों (महापातकों) के साथ सम्पर्क होने पर (गुप्त) प्रायश्चित2।”
“17. वर, अतिथि और पितरों को मंत्रों के साथ मांस की भेंट3 ।”
“18. औरत4 तथा दत्तक पुत्र के अतिरिक्त अन्य को पुत्रों के रूप में स्वीकार करना5।”
“19. उन व्यक्तियों के साथ प्रायश्चित के उपरांत भी सम्पर्क जिन्होंने उच्च जाति की महिला के साथ संभोग किया है6 ।”
“20. यदि किसी वृद्ध अथवा सम्भावित व्यक्ति की पत्नी ने परपुरुष से संभोग किया है और उसके लिए वह प्रताड़ित की गई है उसका परित्याग7 ।”
“21. किसी8 एक व्यक्ति के लिए दूसरे का वध9।”
“22. जूठन छोड़ना10।
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- मनु (2.89 और 146) ने कहा है कि जानबूझ कर की गई ब्रह्म हत्या और मदिरापान का प्रयश्चित मृत्यु है। गौतम 21.7 का भी यही कथन है।
- मनु 11.54 उन अपराधियों के सम्यकों की गणना चार महापातकों के साथ पांचवे महापातक के रूप में करता है। गौतम 24 और वशिष्ठ 25 ब्रह्म हत्या के महापातकों तक के लिए गुह्य प्रायश्चित का विधान करता है। इस नियम के अनुसार ब्रह्म हत्या के लिए कलि में गुह्य प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है, न मदिरापान और न निकट संबंधियों के साथ संभोग करने वाले के लिए यह आवश्यक है देखें अपरार्क पृ. 1212 जिसमें उनका जिक्र है जो गुह्य प्रायश्चित करें।
- मधुपर्क सम्मानित अतिथियों को दिया जाता है जिसमें वर भी शामिल है। देखें गौतम 5.25-35, याज्ञ- 1.109, श्राद्ध में पितरों की संतुष्टि के लिए विभिन्न पशुओं के मांस का उल्लेख है। देखें याज्ञ- 1.258-360, मनु 3, 123 आश्वलायन गृह्य सूत्र के अनुसार (1.24-36) मधुपर्क बिना मांस के न परोसा जाए। देखें वशिष्ठ 6.5-6
- काणे, कलिवर्ज्य, पृ. 8-16
- मनु- 9.165-80, याज्ञ- 2.128-132 और अन्य 12 प्रकार के पुत्रों का उल्लेख करते हैं।
- गौतम (4.20 और 22.23) निम्न जाति के व्यक्ति द्वारा उच्च जाति की स्त्री के साथ संभोग की निंदा करते हैं और उनके वंशजों को धर्महीन कहते हैं।
- वशिष्ठ ने 21.10 में चार प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख किया है जैसे: वह जिसने विद्यार्थी के साथ संभोग किया हो या पति के गुरु से, वह जिसने अपने पति की हत्या कर दी हो या जो निम्न जाति के पुरुष से व्यभिचार करती हो, उन्हें त्याग देना चाहिए।
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 8-12
- स्मृतियों में कहा गया है ब्राह्मण और गाय की रक्षा में जान की परवाह न करें, मनु 9.79 और विष्णु 3, 45
- वशिष्ठ 14.20.21 के अनुसार जूठन अथवा उससे छुआ भोजन न खाया जाए। इसका अर्थ है जूठन अन्य को दे देना कुछ स्मृतियों के उच्छिष्ट, शूद्रों आदि को देने की बात है, यहां उस पर प्रतिबंध है, देखें गौतम 10.61 और मनु 10.125
“23. जीवन के लिए (पैसा लेकर) किसी देवता विशेष की मूर्ति की पूजा का संकल्प1 ।”
“24. मृत्यु संबंधी अशुचिता के अधीन फूल चुनने के पश्चात् उन व्यक्तियों का स्पर्श2 ।”
“25. ब्राह्मण द्वारा पशु की वास्तविक बलि।”
“26. ब्राह्मण3 द्वारा सोम पौधे का विक्रय4 ।”
“27. समय तक भूखा रहने के उपरांत ब्राह्मण का शूद्र से भोजन ग्रहण करना।5“
“28. (ब्राह्मण) गृहस्थ का अपने शूद्र वर्ण के दास के हाथ से बना भोजन ग्रहण करना, गोशाला और उन व्यक्तियों के हाथ का भोजन करना जो उसकी बटाई पर खेती करते हैं6 ।”
“29. 7बहुत लम्बी दूरी की तीर्थयात्र पर जाना।”
“30. गुरुपत्नी के साथ वैसा ही व्यवहार जैसा स्मृतियों में गुरु के लिए निर्धारित है8।”
“31. ब्राह्मण द्वारा विपरीत परिस्थितियों में जीवनयापन के लिए कल के लिए भोजन की परवाह न करना।”
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- मनु 3, 152 धन लेकर पूजा करने वाला ब्राह्मण श्राद्ध अथवा देव कर्म में आमंत्रित न किया जाए।
- फूल चुनने का कार्य दाह संस्कार के चौथे दिन किया जाए। विष्णु 19, 10-12, वैखानस स्मृतिसूत्र खण्ड 7, समवर्त श्लोक 38-39
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 13
- कात्यायन सूत्र (7, 6: 2-4) के अनुसार सोम कौत्स गोखीय, ब्राह्मण अथवा शूद्र से खरीदा जाए परन्तु मनु 10.88 में अन्य बातों के अतिरिक्त सोम विक्रय का निषेध करते हैं चाहे वह कृषि कार्य भी करता हो या वैश्यवृत्ति करता हो और मनु 3.158 और 170 के अनुसार सोम विक्रेता ब्राह्मण को श्राद्ध में बुलाने का कुपात्र समझते हैं।
- मनु 9.16 में अनुमति देते हैं कि कोदई ब्राह्मण तीन दिन से भूखा हो तो व निम्न कर्मवालों से भी एक दिन भोजन ले सकता है। याज्ञ- 3.43 के अनुसार यदि ‘हीनकर्म’ पढ़ें तो इसका अर्थ (भिक्षावृत्ति और चोरी जैसा कि नारद अभ्युपेत्य सुश्रुषा 5-7 में वर्णित है) है।
- यदि कोई शूद्र ब्राह्मण का दास है, नाई है, ग्वाला है, बटाई पर खेती करता है या वंशानुगत भिन्न है तो मनु स्मृति के अनुसार ब्राह्मण उसके यहां का पका भोजन भी ले सकता है, देखें गौतम 17.6, मनु 4.253, याज्ञ- 1.166 (इसका पूर्वाद्ध भी वैसा ही है), अंगिरस 120. पराशर 11
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 14
- मनु ने 2.210 में व्यवस्था दी है कि गुरु पत्नियां यदि उसी वर्ण की हों जिसका गुरु है तो उनका सम्मान गुरु के समान किया जाए। यदि वे उसी वर्ण की नहीं तो उनकी अगवानी के लिए उठकर प्रणाम किया जाए।
“32. जातकर्म1 होम के समय ब्राह्मण द्वारा अरनी स्वीकार करना जिसके अनुसार शिशु के जातकर्म से उसके पाणिग्रहण तक के संस्कार कराने का कार्यक्रम हो2 ।”
“33. ब्राह्मण द्वारा सतंत् यात्र।”
“34. बांस की फूंकनी3 के बिना आग में फूंक मारना।”
“35. शास्त्रों में वर्णित प्रायश्चित के पश्चात् भी किसी ऐसी स्त्री को जाति में सम्मिलित होने की स्वीकृति देना, जो बलात्कार से कलंकित हो चुकी हो4 ।”
“36. संन्यासी5 द्वारा सभी वर्णों (शूद्रों सहित) से भोजन की भिक्षा ग्रहण करना6 ।”
“37. जमीन से निकाले जाने वाले जल का पान करने हेतु दस दिन तक प्रतीक्षा।”
“38. अध्यापक को दीक्षांत पर (मांगने पर) शास्त्रनुसार दक्षिणा7 ।”
“39. ब्राह्मण8 और अन्यों के लिए शूद्रों से भोजन बनवाना9 ।”
“40. वृद्धों द्वारा चट्टान से अथवा आग में कूद कर आत्महत्या10।”
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- गौतम 7, 1-7, आप ध. सू. 1.7, 20.11-17, 21.4, याज्ञ. 3.35, 44 और अन्य के अनुसार संकट काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की वृत्ति कर सकता है। मनु 4.7 के अनुसार ब्राह्मण का आदर्श है कि वह तीन दिन से आवश्यकता से अधिक का अथवा एक ही दिन का आवश्यकता से अधिक अनाज संग्रह न करे। यहां यह कठोर सीमाएं प्रतिबंधित हैं।
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 14
- संस्कार कौस्तुभ के गृह परिशिष्ट में ऐसा उद्धरण है।
- मनुस्मृति 4,53 में भी यह प्रतिबंध है। वैदिक साहित्य के अनुसार अग्नि को मुंह से फूंक मार कर प्रज्ज्वलित करने की अनुमति है। देखें आप. ध. सू. 1.5.15.20 पर हरदत्त।
- इतने बाद में भी स्मृति देवला (मंत्र 47) में यदि किसी स्त्री के साथ म्लेच्छ ने भी बलात्कार किया है तो 3 दिन के प्रायश्चित के बाद वह शुद्ध हो जाती है। आदित्य पुराण बेकसूर और अभागी स्त्रियों के प्रति अत्यंत कठोर है।
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 15
- बौधायन धर्मसूत्र 2.10 में संन्यासी को सभी वर्गों से भिक्षा में भोजन मांगने की छूट है परंतु मनु (4.43) और याज्ञ- 3.59 में विधान है कि वह शाम को ही भिक्षा मांगे। वशिष्ठ (10.7) के अनुसार भी बिना पूर्ण निर्णय के 7 घरों से भिक्षा मांगे किंतु बाद में वशिष्ठ ने कहा है (10.24) कि उसे ब्राह्मणों के यहां से प्राप्त भिक्षा से ही संतुष्ट हो जाना चाहिए।
- याज्ञ 1.51 के अनुसार ब्रह्मचारी वेदाध्ययन और व्रत के पश्चात् गुरु को उसकी मनोवांछित गुरुदक्षिणा दे और पर्वस्नान करे।
- काणे, कलि वर्ज्य, पृ. 15
- आप. ध. सूत्र 2, 2.3.4 में शूद्रों को अनुमति है कि वे आर्यों की देखरेख में तीन उच्च वर्णों के लिए भोजन बनाएं।
“41. जूठे पानी का सम्मानित व्यक्तियों द्वारा आचमन, चाहे वह गाय का ही झूठा क्यों न हो1।”
“42. पिता और पुत्र के बीच विवाद2 ।”
“43. संन्यासी जहां रात हो जाए, वहीं शयन करें3 ।”
इस कलिवर्ज्य संहिता की सबसे अजीब बात यह है कि इसके महत्व को पूरी तरह समझा नहीं गया। इसका उल्लेख केवल इसी रूप में किया जाता है कि यह एक उन व्यवहारों की सूची है, जिन पर कलियुग में प्रतिबंध हैं। परंतु इन निषेधों की सूची से भी आगे कुछ और है। निःसंदेह कलिवर्ज्य संहिता में वर्णित सूची के व्यवहार प्रतिबंधित हैं। बहरहाल प्रश्न है कि क्या ये व्यवहार अनैतिक और निंदित हैं, पाप है या किसी दृष्टि से समाज के लिए हानिकर हैं? इसका उत्तर है नहीं। हम यह जानना चाहेंगे कि यदि यह प्रतिबंध लगाए गए हैं तो क्या वे निंदित कार्य हैं? कलिवर्ज्य संहिता की यही सबसे गूढ़ पहेली है। किसी व्यवहार को निंदित घोषित किए बिना प्रतिबंधित करना पूर्व युगीन परम्पराओं का एक विरोधाभास है। एक उदाहरण है। आपस्तंब धर्म सूत्र ने ज्येष्ठतम पुत्र को ही सारी सम्पत्ति देने के व्यवहार को प्रतिबंधित किया। लेकिन इसकी भी निंदा की। ब्राह्मणों ने यह क्या तरीका खोज निकाला कि किसी बात पर प्रतिबंध तो लगा दें परंतु उसकी निंदा न करें? इसके पीछे कोई कारण होना चाहिए। वह कौन-सा कारण है?
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- वशिष्ठ 3.35 के अनुसार गड्ढा में भरा पानी यदि ऐसा है जो गाय की प्यास बुझा सके तो उसका आचमन किया जा सकता है। देखें मनु 5.128 और याज्ञ. 1.192
- याज्ञ. 2.239 में विधान है कि पिता-पुत्र विवाद के साक्षी को तीन पण का अर्थदण्ड दिया जाए।
- इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि संन्यासी शाम को बस्ती में रहे।