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चौथी पहेली – ब्राह्मणों ने सहसा क्यों घोषित किया कि वेद, संशयरहित और असंदिग्ध हैं ?

यह कहना कि वेदों का हिंदू धार्मिक ग्रंथों में बहुत उच्च स्थान है, एक थोथा प्रचार है। यह कथन कि वेद हिंदुओं का पवित्र साहित्य है, यह भी एक अक्षम बयान है क्योंकि वेद धर्म-ग्रंथ होने के साथ-साथ ऐसे ग्रंथ हैं जिनकी प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता। वेद संशय रहित बताए गए हैं। प्रत्येक कथन का आधार है कि वेद असंशोधनीय, अंतिम और प्रामाणिक साहित्य है। इस पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता। यह वैदिक ब्राह्मणों का सिद्धांत है और सामान्यतः सभी हिंदुओं के लिए यह पत्थर की लकीर है।

एक

इस सिद्धांत का आधार क्या है? सिद्धांत का तत्व है कि वेद अपौरुषेय है। जब वैदिक ब्राह्मण कहते हैं कि वेद अपौरुषेय है तो इसका अर्थ है इनकी रचना मनुष्य ने नहीं की है। क्योंकि यह मनुष्य की रचना नहीं है इसलिए इनमें त्रुटि, संशय और दोष नहीं हो सकता, जो मानव-रचना से संभव है। इसलिए ये संशय रहित है।

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यह समझना कठिन है कि वैदिक ब्राह्मणों ने इस सिद्धांत को क्यों प्रतिपादित किया। क्योंकि एक समय था जब वैदिक ब्राह्मणों को स्वयं इनकी आधिकारिकता, निर्णय-जन्यता और प्रामाणिक होने पर संशय था। वे वैदिक ब्राह्मण और कोई नहीं धर्म सूत्रें के रचयिता थे:

हम गौतम धर्म सूत्र से आरंभ करते हैं:

वह वेदों के संशय रहित होने के प्रश्न पर निम्नांकित नियम का प्रतिपादन करता है:-

‘वेद पवित्र विधान का स्रोत है।’’ 1-1-

‘‘और वेद-विज्ञों की परम्परा और व्यवहार है।’’ 1-2

‘‘यदि समज्ञान के विद्वानों में मत-भिन्नता हो तो सुविधानुसार (किसी एक को मान्य समझने) का उसे अधिकार है।’’ 1-4

वरिष्ठ धर्म-सूत्र का विचार निम्नांकित है:

‘‘पवित्र विधान सुनिश्चित पाठ है अर्थात् वेद और ऋषि परंपरा है।’’ 1:4

‘‘विधान में संशय पर इन्हीं (दो स्रोतों) शिष्टों का व्यवहार प्रमाण है’’। 1-5

बौधायान के विचार इस प्रकार हैं:

प्रश्न 1 अध्याय 1, कण्डिका।

1- पवित्र विधान प्रत्येक वेद में है।

2- हम उसी के अनुसार व्याख्या करेंगे।

3- पवित्र नियम परम्परागत शिक्षा (स्मृति) का स्थान द्वितीय है।

4- शिष्टों का व्यवहार तृतीय।

5- संशय की अवस्था में – न्यूनतम दस सदस्यों का सम्मेलन (नियम के विवादित बिंदुओं पर निर्णय करें।)

आपस्तम्ब धर्म-सूत्र निम्नलिखित सूत्र में स्पष्ट कहता है:

‘‘इसलिए अब हम योग्य कृत्यों को घोषित करते हैं जो दैनिक जीवन की रीतियों का हिस्सा है।’’ 1-1

‘इनका प्रमाण उनकी सहमति है जो नियमों को जानते हैं।’’ 1-2

‘‘विधान का प्रमाण मात्र वेद है।’’ 1-3

शिष्टों के संबंध में वशिष्ठ धर्म-सूत्र और बौधायन धर्म-सूत्र ने परिभाषित करने में विशेष सतर्कता बरती है कि शिष्ट कौन हो सकते हैं। वशिष्ठ धर्म-सूत्र कहता हैः

‘‘इच्छाओं से जिनका हृदय स्वतंत्र है’’, वे शिष्ट है।’’ 1-6

बौधायन शिष्टों की योग्यता बताने हेतु अति विस्तृत विवरण देते हैं, उनका कथन इस प्रकार है-

5- शिष्ट निःसदंहे (वे है) जो निःस्पहृ और दर्पशून्य है, दस दिन तक के ही अन्न-संग्रह से संतुष्ट हैं, पाखंड, क्रोध, लोभ, मोह और मद रहित है।’’

6- ‘‘शिष्ट वे हैं जो पवित्र विधान के अनुरूप वेद-वेदांग के अध्येता हैं। उनका सार निकाल सकते हैं, प्रामाणिक पाठ की भांव व्याख्या कर निर्णय दे सकते हैं’’

7- “बौधायन ने उस सम्मेलन के विषय में बहुत रोचक बात कही है जिसे निर्णय का अधिकार है। इस विषय में उसका कथन इस प्रकार है:

8- ‘‘वे उद्धरण भी देते हैं। (निम्नांकित मंत्र) ‘‘चार व्यक्ति, जिनमें से प्रत्येक एक वेद का ज्ञाता है, एक मीमांसक, जिसे अंगों का ज्ञान है, एक जो पवित्र विधान उद्घोषित करता है और तीन व्यवस्थाओं के तीन ब्राह्मणों को मिलाकर कम से कम दस सदस्यों का एक सम्मेलन बनता है।’’

9- ‘‘पाँच, तीन अथवा एक निष्कलंक हो, जो पवित्र नियम का निर्णय दे। परन्तु सहस्त्र मूर्ख मिलकर भी निर्णय नहीं दे सकते।’’

‘‘अशिक्षित ब्राह्मण काठ के हाथी और चर्म निर्मित कुरंग के समान मात्र देखने की वस्तु है, काम की नहीं।’’

धर्मसूत्र1 के पुनः विचार करने से पता चलता है कि किसी विवाद पर निर्णय के चार माध्यम हैं- 1- वेद 2- स्मृति 3- शिष्ट व्यवस्था, और 4- किसी सम्मेलन में सहमति के चार विभिन्न विशेषज्ञ, जिन्हें चाहिए कि वे विवादग्रस्त तथ्यों को निर्णय लेने के लिए सम्प्रेषित करें। यह भी विदित होता है कि एक समय था जब एकमात्र वेद ही भ्रमातीत संस्था नहीं थी। एक समय था जब वशिष्ट और बौधायन धर्मसूत्रें की सत्ता थी। आपस्तम्ब वेदों की सत्ता को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता था। उसने सम्मेलन के सदस्यों के लिए वैदिक ज्ञान को वैकल्पिक बताया है, जिसका निर्णय ही विधान था (संप्रभुविधान)। वेदों को आधिकारिक ग्रंथ नहीं माना जाता था और सम्मेलन प्रामाणिक व्यवस्था थी जिसमें विद्वान निर्णय लेते थे। गौतम के समय में वेदों को एकछत्र प्रमाण माना गया। एक समय था जब सम्मेलन का निर्णय एक मात्र प्रमाण था। यह काल बौधायन का था। ऐसा निष्कर्ष शतपथ ब्राह्मण द्वारा निम्नांकित उद्धरण द्वारा प्रत्यारोपित किया गया है। वे कहते हैं: (अधूरा छोड़ दिया गया, उद्धरण और अतिरिक्त विचार-विमर्श नहीं दिया गया है।

1- मैक्समूलर के अनुसार धर्म-सूत्र का समय ईसा पूर्व 200 से 600 के बीच।