हिंदुओं को मूर्तिपूजक होने का दोषी ठहराया जाता है। परन्तु मूर्तिपूजा में कोई हर्ज नहीं। मूर्ति बनाना और बनाना और देवताओं के चित्र बनाना समान है और यदि चित्र बनाने पर कोई आपत्ति नहीं है तो मूर्ति बनाने पर क्या आपत्ति हो सकती है? हिंदुओं की मूर्तिपूजा पर वास्तविक आपत्ति यह है कि यह मात्र चित्रकारी नहीं है, मूर्ति की मात्र रचना नहीं है यह सब उससे अधिक है। हिंदू मूर्ति प्राणवान बताई जाती है और वही सब कार्य करती है जो मनुष्य करता है। प्राणप्रतिष्ठा से उनमें जान डाल दी जाती है। बौद्ध भी मूर्तिपूजक हैं। परन्तु जिस मूर्ति अथवा चित्र की वे पूजा करते हैं, वे मात्र प्रतीक हैं। ब्राह्मणों ने हिंदू देवी-देवताओं को जीवंत घोषित क्यों किया? यह एक प्रश्न है जिसके उत्तर की आवश्यकता है। परन्तु इस अध्याय में इस उत्तर की गुंजाइश नहीं है।
हिंदुओं पर जो दूसरा आरोप लगाया जाता है वह है – बहुदेववादी होने का अर्थात् वे बहुत से देवताओं के पूजक हैं। इस संबंध में भी केवल हिंदू ही इस आरोप से ग्रस्त नहीं हैं। अन्य समाजों में भी बहुदेववाद का प्रचलन है। हम केवल दो को गिनाते हैं। रोमन और यूनानी भी मूलतः बहुदेववादी हैं। वे भी अनेक देवताओं को मानते हैं। इसलिए इस लांछन में कोई दम नहीं।
हिंदुओं पर जो बड़ा आरोप लगाया जा सकता है, अधिकांश लोग उससे परिचित नहीं। वह है कि हिंदू अपने देवों की उपासना में अटल विश्वासी नहीं। उनमें एक देवता के प्रति आस्था श्रद्धा का अभाव है। हिंदू देवताओं के इतिहास में यह सामान्य बात है कि कुछ देवताओं की कभी उपासना होती रही और कालांतर में बंद हो
लेखक द्वारा स्व हस्तलिपि में संशोधित यह तैतालीस पृष्ठ की पाण्डुलिपि प्राप्त हुई थी। अंतिम पैरा लेखक ने स्वयं कलम से लिखा था। इस अध्याय का मूल शीर्षक ‘राइज एंड फाल आफ दि गाड्स’ था। इस शीर्षक को लेखक ने नीली स्याही की कलम से काट दिया था जैसी कि आम तौर पर लेखकीय परंपरा है।- संपादक
गई और उन देवताओं को कचरे में डाल दिया गया। बिल्कुल ही नए देवताओं की मान्यता हो गई और पूर्ण भक्ति-भाव से उनकी उपासना होने लगी। फिर ये देव भी अप्रासंगिक हो गए और देवताओं के बीच संघर्ष का क्रम चल रहा है। यह ऐसी बात है जो विश्व के किसी अन्य सम्प्रदाय में दृष्टिगोचर नहीं।
इस कथन को बिना आपत्ति के स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदू अपने देवताओं के विषय में इतने हल्के विचार रखते थे। कुछ उदाहरण देना आवश्यक है। सौभाग्य से उनकी भरमार है। आजकल हिंदुओं के चार देवता है। (1) शिव, (2) विष्णु, (3) राम, और (4) कृष्ण। प्रश्न यह है कि क्या हिंदुओं के यही देवता हैं जिनकी आदिकाल से पूजा-अर्चना होती आ रही है?
हिंदू देव -कुल में देवों की संख्या सर्वाधिक है। संख्या की दृष्टि से संसार का कोई धर्म इस देवकुल की बारबरी नहीं कर सकता। ऋग्वेद-काल में देवताओं की विशाल संख्या थी। दो स्थानों पर ऋग्वेद1 में कहा गया है तीन हजार तीन तीन सौ नौ देवता हैं (पता नहीं किस कारण से यह संख्या घटकर तैंतीस2 रह गई)। यह एक उल्लेखनीय ह्रास है। उसके बावजूद तैंतीस देवताओं का हिन्दू देव-कुल सबसे विशाल है।
शतपथ ब्राह्मण3 में तैंतीस देवों की व्याख्या इस प्रकार की गई है – आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य और पृथ्वी तथा स्वर्ग।
उनकी संख्या से बढ़कर प्रश्न उनके परस्पर संबंधों का है। क्या पद की दृष्टि से उनमें कोई भेद था? ऋग्वेद में एक मंत्र है कि आदर और स्थान की दृष्टि से इनके दो वर्ग हैं, एक बड़ा और छोटा तथा दूसरा नवीन और प्राचीन।
यह विचार ऋग्वेद की प्राचीन मान्यता से भिन्न लगता है। पुराना नियम इस प्रकार हैः
‘‘हे देवताओं! तुम में से न कोई छोटा है, न नवीन, तुम सब महान हो’’। प्रोफेसर मैक्मूलर का भी यही निष्कर्ष हैः
‘‘जब इन देवों का आह्वान किया गया, उनकी शक्ति दूसरे से सीमित नहीं समझी गई थी न वे एक दूसरे से पद में ही श्रेष्ठ अथवा हीन थे । उपासक की दृष्टि में एक देव अन्य देवों के समान था। उसमें एक समय यथार्थ देवत्य समझा गया।
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- ऋग्वेद 3, 99:10 52:6, वाज सं 33 .7, म्यूर खण्ड 5, पृष्ठ 12
- ऋग्वेद 1, 139; 2ए3; 6ए9; 1; 8,30 – 2; 8,35. 3 म्यूर 5. पृ. 10
- एस.बी.ई. खंड 4 :5, 7,2; म्यूर 5, पृष्ठ 2
चाहे कितनी भी सीमाएं हों हमारी दृष्टि में बहुदेववाद प्रत्येक देवता में अपरिहार्य होना चाहिए। प्रत्येक देव में देवों की विशेषता होनी चाहिए। कवि की दृष्टि से अन्य देव लुप्त हो जाते हैं और केवल वही रह जाता है जो उपासक का मनोरथ पूरा करे।’’
‘‘कोई ऐसा देव नहीं है जो अन्य का अधीन हो।’’
एक समय यही सत्य था। देवताओं के प्रंति पुराने दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। क्योंकि अनेक वेद मंत्रें में ऐसा उल्लेख है जिनमें कुछ देवों को सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान समझा जाने लगा था।
द्वितीय मंडल के प्रथम मंत्र में अग्नि को विश्व -नियंता कहा गया है। परमात्मा, मेधावी राजा, पिता, भ्राता, पुत्र और मानव -मित्र बताया गया है। अपितु अन्यों की शक्तियां, और नाम भी विशेष रूप से उसे प्रदान किए गए हैं।
फिर अग्नि के ऊपर भी दूसरे देवता का स्थान हो गया। वह है इन्द्र। इन्द्र को वेद मंत्रें और साथ -साथ ब्राह्मणों में सर्वोच्च शक्तिशाली देवता कहा गया और दसवें मण्डल में कहा गया है। विश्वमद् इन्द्र उत्तरहः ‘‘इन्द्र सर्वोच्च है।’’
फिर तीसरा देवता शिखर पर पहुंचा। वह सोम है। सोम के विषय में कहा गया है कि वह जन्मजात महान था और उसने सभी को पराजित किया। वह विश्व का एक छत्र राजा कहलाता था। वह मनुष्यों के जीवन का विस्तार कर सकता था। एक मंत्र में कहा गया है कि वह स्वर्ग और धरती, अग्नि, सूर्य, इन्द्र और विष्णु का स्रष्टा था। फिर सोम भी विस्मृत हुआ और चौथे देवता की उपासना होने लगी। वह वरुण था। सभी देवताओं में सर्वोच्च था। दैवी और परमशक्ति का गुणगान करने के लिए मानव अभिव्यक्ति और क्या हो सकती थी जो वैदिक कवि ने वरुण के लिए कीः ‘‘तू स्वर्ग और मृत्युलोक का स्वामी है।’’ या एक अन्य मंत्र में कहा गया है (27 -10) तू सब का स्वामी है, उनका जो देवता है और ‘‘उनका भी, जो मनुष्य हैं।’’
इससे स्पष्ट है कि 33 वैदिक देवों में चार देवता अग्नि, इन्द्र, सोम और वरुण प्रधान थे। दूसरों का देवत्य भी विद्यमान रहा। परन्तु इन चार का स्थान सर्वोच्च था। कालांतर में विभिन्न देवों की तुलना में शतपथ ब्राह्मण के काल में एक और परिवर्तन आया। एक नया देवता उभरा। सोम और वरुण के नाम प्रधान देवताओं में से नदारद हो गए जबकि अग्नि और इन्द्र मौजूद रहे। एक और देवता का नाम सामने आया वह था सूर्य। परिणाम यह हुआ कि अग्नि, इन्द्र, सोम और वरुण के स्थान पर प्रमुख देवता हो गए अग्नि, इन्द्र और सूर्य। यह शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण है जो कहता हैः
‘‘मूलतः सभी देव समान थे उन सबके समान होने से, सबके विमल होने से तीनों की चाह थी। ‘‘हम श्रेष्ठ बनें,’’ वे हैं अग्नि, इन्द्र और सूर्य।
‘‘3. मूलतः अग्नि की शिखाएं ऐसी नहीं थीं जैसी वर्तमान में हैं। उन्होंने इच्छाकी कि ये िशखाएं मुझ में हों’’ उन्होंने इस को देखा, उसे ग्रहण किया और तब से उनकी शिखाएं उनमें समाहित हो गईं।
- ‘‘मूलतः इन्द्र में इतना बल नहीं था आदि (उपरोक्तानुसार)
- ‘‘मूलतः सूर्य में उतनी कांति नहीं थी आदि’’
कब तक ये तीन देव उच्चता की उसी दशा में बने रहे, यह बताना कठिन है। परन्तु निःसंदेह कालांतर में स्थिति बदल गई। यह चुल्ल निदेश के प्रसंग से स्पष्ट है। चुल्ल निदेश बौद्ध धर्म की रचना है। इसका रचनाकाल … (अधूरा छोड़ दिया गया)
चुल्ल निदेश में उन सम्प्रदायों की सूची दी गई है जो उस समय भारत में प्रचलित थे। इनका पंथ और उपासना के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। वे इस प्रकार हैं : –
- पंथ
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क्रम सं – सम्प्रदाय का नाम
- आजीविका श्रावक1 आजीविका2
- निगंठ श्रावक निगंठ3
- जटिल श्रावक जटिल4
- परिव्राजक श्रावक परिव्राजक5
- अवरुद्ध श्रावक अवरुद्ध
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- श्रावक का अर्थ है शिष्य।
- जीविकोपार्जन विषयक विशेष नियमों का पालन करने वाला भिक्षु।
- हर प्रकार के बंधन -बाधाओं से मुक्त भिक्षु।
- सर की जटाओं को बांधने वाले भिक्षु।
- समाज से विरक्त भिक्षु।
- उपासना
क्र. सं. सम्प्रदाय का नाम पूज्यदेव
- हस्ति वृत्तिका1(व्रती) हस्ति2
- अश्व वृत्तिका अश्व3
- गोवृत्तिका गो4
- कुकुर वृत्तिका कुक्कुर5
- काक वृत्तिका काक6
- वासुदेव वृत्तिका वासुदेव
- बलदेव वृत्तिका बलदेव
- पूर्णभद्र वृत्तिका पूर्णभद्र
- मणिभद्र वृत्तिका मणिभद्र
- अग्नि वृत्तिका अग्नि
- नाग वृत्तिका नाग
- सुपर्ण वृत्तिका सुपर्ण
- यक्ष वृत्तिका यक्ष
- असुर वृत्तिका असुर
- गंधर्व वृत्तिका गंधर्व
- महाराज वृत्तिका महाराज
- चन्द्र वृत्तिका चन्द्र
- सूर्य वृत्तिका सूर्य
- इन्द्र वृत्तिका इन्द्र
- ब्रह्मा वृत्तिका ब्रह्मा
- देव वृत्तिका देव
- दिशा वृत्तिका दिशा
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- वृत्तिका का अर्थ श्रद्धालु भक्त से है।
- हाथी।
- घोड़ा।
- गाय।
- श्वान।
- कौआ।
शतपत ब्राह्मण के समय से चुल्ल निदेश तक प्रतिस्थापित तुलनात्मक स्थिति निम्नांकित थीः
- प्रथम, यह कि चुल्ल निदेश के समय अग्नि, सूर्य और इन्द्र की उपासना जारी थी। 2. दूसरे यह कि अग्नि, सूर्य और इन्द्र की उपासना यद्यपि जारी थी कन्तु उनकी श्रेष्ठता लुप्त हो गई थी; वैसे काफी अन्य उपासनाएं होने लगीं और लोग उनकी ओर आकर्षित हुए। 3. तीसरे, नई पूजा परम्पराओं में काफी बाद में दो बहुत प्रमुख हुईं, वह हैं वासुदेव कृष्ण और ब्रह्मा। 4. चौथे, विष्णु, शिव और राम अज्ञात थे।
चुल्ल निदेश के बाद अब स्थिति क्या है? इस समय तीन प्रतिस्थापनाएं हैं। प्रथम, अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा की पूजा लुप्त हो गई, द्वितीय कृष्ण की स्थिति पूर्ववत रही; तृतीय; विष्णु, शिव और राम की नई पूजा-परम्पराएं शुरू हुईं जो चुल्ल निदेश तक विद्यमान थीं। इससे तीन प्रश्न उभरकर आते हैं : प्रथम यह है कि अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा और सूर्य की पुरानी पूजा-परम्पराएं क्यों लुप्त हो गईं? इन देवों की पूजा क्यों बंद कर दी गई? दूसरा प्रश्न यह है कि कृष्ण, राम, शिव और विष्णु की नई पूजा-प्रवृतियों में किन परिस्थितियों में वृद्धि हुई। तीसरा यह कि इन नए देवताओं कृष्ण, राम, शिव और विष्णु में तारतम्य क्या है?
पहले प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता। ब्राह्मण साहित्य कोई संकेत नहीं देता कि ब्राह्मणों ने अग्नि, इन्द्र, सूर्य और ब्रह्मा की उपासना क्यों बंद कर दी। इसका तो कुछ स्पष्टीकरण है भी कि ब्रह्मा की उपासना क्यों बंद हुई। इसका कारण ब्राह्मणों के साहित्य में ब्रह्मा के माथे पर लगाया गया कलंक है। लांछन है कि उन्होंने अपनी पुत्री के साथ बलात्कार किया, इसलिए उन्हें पूजा और भक्ति का पात्र नहीं रहने दिया गया। इस कलंक में कितनी भी सच्चाई रही हो परन्तु दो कारणों से ब्रह्मा का पूजा-निषेध पर्याप्त तर्क नहीं है। पहले तो यह क उस समय ऐसा आचरण कोई
अनहोनी बात नहीं थी। दूसरा कारण यह है कि कृष्ण ने ब्रह्मा की अपेक्षा इससे भी बड़ी अनैतिकताएं कीं किन्तु उनकी उपासना होती है।
चलिए, ब्रह्मा की पूजा -निषेध का तो अनुमान लगाया जा सकता है, किन्तु अन्य देवों की उपासना बंद हो जाने का तो कोई कारण ही नहीं मिलता। अग्नि, इन्द्र, सूर्य और ब्रह्मा की पूजा अप्रचलित होना इस प्रकार एक रहस्य है। यहां इस रहस्य की गुत्थी को सुलझाने का अवसर नहीं है। इतना कहना ही पर्याप्त है कि हिंदुओं के देवताओं को देवत्व छिन जाना एक अनहोनी बात है।
दूसरा प्रश्न भी रहस्य की बात है। नए देवों कृष्ण, विष्णु, शिव और राम की उपासना का महत्व ब्राह्मणों के साहित्य में ने केवल भरा पड़ा है अपितु उत्ताल तरंगें भर रहा है। परन्तु उनके साहित्य में नए देवों के उदय का कोई लेखा -जोखा नहीं मिलता। यह रहत्य ही है कि ये नए देवता कहां से आ धमके? उस समय रहस्य और गहरा जाता है जब हम पाते हैं कि इनमें से कुछ तो निश्चय ही वेदद्रोही हैं।
हम शिव की बात लेते हैं कि शिव मूल रूप से वेदद्रोही देवता थे, यह बिल्कुल स्पष्ट है। भागवत पुराण में दो प्रसंग हैं और महाभारत में भी, जो इस विषय पर प्रकाश डालते हैं। पहले प्रसंग से पता चलता है कि उनमें और उनके श्वसुर दक्ष में कैसी शत्रुता उपजी। ऐसा लगता है कि प्रजापतियों के यज्ञ में देवता और ऋषि एकत्र हुए। दक्ष के आने पर ब्रह्मा और शिव को छोड़कर सभी उपस्थित जन उनके अभिवादन में खड़े हो गए। दक्ष ब्रह्मा को प्रणाम करके उनके कहने पर बैठ गए, परन्तु वह शिव के व्यवहार पर क्षुब्ध थे। उन्होंने शिव1 से कहाः
‘‘शिव को पहले बैठा देखकर दक्ष सम्मान का लोभ संवरण न कर सके और उन पर इस प्रकार तिरछी नजर डाली जैसे उन्हें खा ही जाएंगे। फिर बोले ‘‘हे ब्राह्मणों, ऋषियों, देवताओं सहित अग्नि, सुनो! मैं अनजाने में नहीं, न भावावेश ही में आकर यह बता रहा हूं कि एक गुणी व्यक्ति के क्या लक्षण हैं। परंतु यह निर्लज्ज शिव विश्वनियंता की अवमानना करता है। यह कितना हठधर्मी है। इसने शिष्टाचार का उल्लंघन किया है। इसने गुणवान व्यक्तियों की भांति मेरे शिष्य की स्थिति प्राप्त कर ली। ब्राह्मणों और अग्न की साक्षी में इसने मेरी सावित्री जैसी पुत्री का पाणिग्रहण किया। इस बन्दर जैसी आंखों वाले ने मेरी मृगनयनी पुत्री को प्राप्त किया। उसने मेरे अभिवादन में एक शब्द भी नहीं बोला जबकि इसे अभिवादन के लिए उठना चाहिए था। मैंने अनमने होकर ही सही, अपनी पुत्री इस क्षुद्र और दंभी को सौंप दी जिसने कुसंस्कारों की सारी सीमाएं तोड़ रखी हैं। जैसे ‘यह शूद्रों को वेद मंत्र सुनाता है। यह श्मशानों में घूमता है। भूत-पिशाचों के बीच रहता है। पागलों जैसा नंगा, बाल बिखेरे, हंसता-रोता फिरता है, श्मशान की राख शरीर पर मलता है, नरमुण्ड पहनता है। मानव की हड्डियों के आभूषण पहनता है। बनता शिव (शुभ) है परन्तु सच में अशिव (अशुभ) है, पागल ही इसके संगी-साथी हैं, भूत इसके मित्र हैं, जो अंधकार-प्रिय हैं। काश! मैंने अपनी गुणवंती पुत्री ब्रह्मा के कहने में आकर ऐसे क्रोधोन्मत्तों के दुष्टात्मा स्वामी को, जिनकी शुद्धता नष्ट हो चुकी है, न दी होती। शिव को ऐसे दुर्वचन
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- भागवत पुराण, अध्याय 4, पृ. 379-80
बोल कर, जिसका उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, दक्ष ने उन्हें चिढ़ाया और जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देना आरम्भ कियाः ‘‘यह शिव सभी देवी-देवताओं में निकृष्ट हो। इसे देवताओं की पूजा के समय इन्द्र, उपेन्द्र (विष्णु) और अन्य देवों के समान स्थान प्राप्त न हो’’। अपना श्राप देकर दक्ष चले गए।
श्वसुर -दामाद के बीच वैमनस्य जारी रहा। ब्रह्मा ने दक्ष को प्रजापतयों के प्रमुख का पद प्रदान किया तो उन्होंने बृहस्पतिस्व यज्ञ करने की ठानी। जब पार्वती ने देखा कि सभी देव सपत्नीक यज्ञ में जा रहे हैं जो पार्वती ने शिव से उनके साथ चलने की जिद की। उनके पिता ने शिव का जो अपमान किया था, उन्होंने पार्वती को उसकी याद
दिलायी और यज्ञ में जाने से मना किया। परंतु वह अपने संबंधियों से मिलने को आतुर थी। उसने सब बातों की अवहेलना कर दी और चली गयी। जब उन्होंने अपने पिता दक्ष को देखा तो अपने पति को अपमानित करने पर पिता की भर्त्सना की और यह धमकी दी कि उन्हें अपने माता -पता से जो देह प्राप्त हुई है, उसे वे अग्नि को समर्पित कर देगी। फिर वे अग्नि में कूद पड़ीं। शिव के जो गण पार्वती के साथ गए थे, जब उन्होंने यह देखा तो वे दक्ष का वध करने का लपके। परन्तु भृगु ने यजुस का मंत्रोपचार कर दक्षिणाग्नि की आहुति दी, जो यज्ञ में बाधा डालने वालों को नष्ट करने के लिए दी जाती है। परिणामस्वरूप ऋभु नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गए। उन्होंने अपनी तपस्या के प्रताप से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़यों से आक्रमण किया तो समस्त यज्ञ विघ्नकर्त्ता भाग लिए। ऋभुओं ने उनके पार्षदों को भगा दिया। जब शिव ने देवी सती के प्राण त्याग की बात सुनी तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ। उन्होंने अपने सिर की जटाओं में से क्रोधित होकर केशों का एक गुच्छा उखाड़ा जिसमें से एक विकराल राक्षस प्रकट हुआ, जस दक्ष और उसके यज्ञ को खत्म करने का आदेश दिया। यह राक्षस शिव के अनुयायी विकराल भूत-प्रेत और पिशाचगणों को लकेर उनकी (शिव की) आज्ञा को शिरोधार्य करके यज्ञ-मडंप
की आरे दौड़ा। उन्होंने यज्ञ-मंडप में क्या कुहराम मचाया और शिव-आदेश का किस प्रकार अनुपालन किया, इसका भागवत पुराण में1 उल्लेख मिलता है1 :
‘‘कुछ ने यज्ञशाला के पवित्र यज्ञ-पात्रों को तोड़ डाला, कुछ ने हवनकुं ड की अग्नि बुझा दी, कुछ ने यज्ञकुंडों को मूत्र से दूषित कर दिया, किसी ने यजमान ग्रह ही सीमाओं को रौंद डाला, कुछ ने मुनियों को तगं किया, किसी ने ऋषि पत्नियों को डराया-धमकाया। किसी ने भयभीत देवताओं को धर दबोचा जो निकट ही विराजमान थे, कुछ भाग खड़े हुए ….। भवेदव (शिव) ने भृगु की दाढ़ी नौंच ली जो हाथ में यज्ञ की करछुल लिए हवन कर रहे थे और जिन्होंने प्रजापतियों की सभा में
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- म्यूर द्वारा उद्धृत, खंड 4, पृ. 383-84
उनका (महादेव) उपहास किया था। क्रोध के वशीभूत उन्होंने भृगु देवता को पृथ्वी पर पटक दिया जिसके कारण उसकी आंखें बाहर निकल आईं क्योंकि जब दक्ष देव सभा में शिव को शाप दे रहे थे, तब उन्होंने (भृगु) ने दक्ष को आंखों के इशारे से उकसाया था। इसके पश्चात् उन्होंने पूषा के दांत तोड़ डाले ठीक उसी प्रकार जैसे बलि ने कलिंग राज के किए थे क्योंकि जब दक्ष महादेव जी को अपमानित करते हुए गालियां बक रहे थे तो पूषा दांत निपोड कर हंस रहा था। फिर वे दक्ष की छाती पर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे। परन्तु बहुत प्रयास करने पर भी वे उस समय उसे धड़ से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से दक्ष की त्वचा नहीं कटी तो त्र्यम्यक (वीरभद्र अथवा शिव) को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देर तक विचार करते रहे। फिर उन्होंने यज्ञ-मंडप में यज्ञ पशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसी प्रकार दक्ष रूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। देवताओं ने सारी घटना स्वयंभू को बतायी जो वहां विष्णु के साथ उपस्थित नहीं थे। (स्कंध 6)। ब्रह्मा ने देवताओं से परामर्श किया कि शिव को शांत किया जाए जिन्हें गलत ढंग से यज्ञ के हव्य से वंचित कर दिया गया था। तदनंतर ब्रह्मा के नेतृत्व में देवता कैलाश की ओर चले। ब्रह्मा जी ने शिव से कहा कि मैं जानता हूं आप सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं क्योंकि विश्व योनि शक्ति और उसके बीज से परे जो एक रस ब्रह्म है, वह आप ही हैं। ब्रह्मा ने कहा कि आप ही सम्पूर्ण यज्ञ को पूर्ण कराने वाले हैं। यज्ञ में हिस्सा पाने का आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्ष यज्ञ में बुद्धिहीन याचकों ने आपको यज्ञ में भाग नहीं लेने दिया, इसी से यह आपके द्वारा ध्वस्त हुआ। अब आप इस यज्ञ का पुनरुद्धार करने की कृपा करें। हे यज्ञ विध्वंसक! आज यह यज्ञ आपके द्वारा पूर्ण हो। इसके बाद (अध्याय 7) के अनुसार महादेव संतुष्ट हो गए’’।
दक्ष का यज्ञ भंग करने की घटना से बढ़कर और कोई प्रयास नहीं हो सकता कि शिव वैदिक देवों के द्रोही थे।
अब हम कृष्ण पर आते हैं।
कृष्ण नाम के चार व्यक्ति हुए हैं। एक कृष्ण सत्यवती के पुत्र और धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के पिता हैं, दूसरे कृष्ण सुभद्रा के भाई और अर्जुन के मित्र हैं, तीसरे कृष्ण मथुरा के वासुदेव और देवकी के पुत्र हैं, चौथे कृष्ण गोकुल के नंद और यशोदा के पुत्र हैं जिन्होंने शिशुपाल वध किया। यदि कृष्ण गोकुल के नंद और यशोदा के पुत्र हैं, जिन्होंने शिशुपाल वध किया, यदि कृष्ण भक्तों के कृष्ण वही हैं जो देवकी के पुत्र हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे वेद द्रोही थे। छादोग्य उपनिषद् में आया है कि ऐसा लगता है कि वे घोर आंगिरस कुल से थे। घोर आंगिरसों ने उन्हें क्या शिक्षा दी? छांदोग्य उपनिषद कहता हैः
‘‘आंगिरस के कुल से घोरों ने देवकी पुत्र कृष्ण से कहा (रहस्यमय दंतकथा) कि वे इच्छा रहित हैं जैसे मृत्यु के समय मनुष्य को तीन बातें कहीं जाती हैं। तुम अविनाशी हो, तुम अक्षय हो, और तुम जीव के सूक्ष्म तत्व हो। घोर जाति के आंगिरस कुल के एक व्यक्ति ने देवकी पुत्र कृष्ण को यज्ञ की यह पद्धति बताई और उसके अनुगामियों ने तब कहा, आदि। इस क्रम में अंतिम शब्द कहा ‘उन’ इन तीनों के पश्चात हैं … और इस सिद्धातं को सनु कर वह प्रत्येक ज्ञान सभी इच्छाओं के प्रति वीतरागी हो गए। पुरुष यज्ञ के इस ज्ञान की उन्होंने इस प्रकार प्रशंसा की। यह इतना विलक्षण है कि उसने दवे की पुत्र कृष्ण की अन्य ज्ञान के प्रति सभी तृष्णाओं को शातं कर दिया। अब वह यह बताते हैं जो घोर अंगिरस ने कृष्ण को गुरुमंत्र देते हुए कहा था, वह इस प्रकार है – ‘‘जो अपने मृत्यु काल में उपरोक्त यज्ञ से भिज्ञ होता है वह इन तीन शब्दों को कह ‘‘प्रणसमसितम्’’ जिसका अर्थ है, तू ही अति सूक्ष्म है, तू ही अति गूढ़ प्राण तेज है।’’
यह स्पष्ट है कि घोर आंगिरस ने कृष्ण को आध्यात्मिक मुक्ति का जो उपदेश दिया, वह वेदों और वैदिक उपासना के प्रतिकूल थी। इसके विपरीत विष्णु वैदिक देव हैं फिर भी उनकी उपासना शिव उपासना के काफी समय बाद आरंभ हुई। यह समझना अत्यंत कठिन है कि विष्णु की इतनी उपेक्षा क्यों हुई?
इसी प्रकार राम यद्यपि वेदद्रोही नहीं है तथापि वेदों में उनका उल्लेख नहीं है। उनकी उपासना की क्या आवश्यकता थी? वह भी इतने दिनों बाद?
एक पूर्व अध्याय में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के उत्था-पतन का प्रसंग पहले ही आ चुका है। पद और सत्ता का संघर्ष इन तीनों देवताओं तक सीमित था। उन्हें किसी तीसरे देवता से नीचे की कोटि में नहीं रखा गया। परंतु एक समय आया जब इन्हें श्री नामक एक देवी के नीचे माना जाने लगा। यह कैसे हुआ? यह देवी भागवत में वर्णित
है। देवी भागवत1 का कथन है कि श्री नामक देवी से संपूर्ण जगत की उत्पत्ति हुई और यही देवी है जिसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव को उत्पन्न किया। देवी भागवत का मत है कि देवी की इच्छा अपनी हथेलिया रगड़ने की हुई। हथेलिया रगड़ने से एक चमक निकली। उस चमक से ब्रह्मा पैदा हुए। जब ब्रह्मा पैदा हो गए तो देवी ने उससे विवाह करने को कहा। ब्रह्मा ने यह कहकर इंकार कर दिया कि वह तो उनकी मां हैं। देवी कुपित हो उठी और उसने अपने कोप से ब्रह्मा को भस्म कर दिया। देवी ने दूसरी बार अपनी हथेलियां रगड़ी, फिर चमक पैदा हुई और दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ। वह था विष्णु।
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- सत्यार्थ प्रकाश में संक्षिप्तीकरण।
देवी ने विष्णु से भी अपने साथ विवाह करने को कहा। विष्णु ने यह कहकर अनिच्छा पक्रट की कि वह उनकी मां है। देवी को क्रोध आया और विष्णु को भी जलाकर राख कर दिया। देवी ने तीसरी बार हथेलियां रगड़ीं और तीसरी चमक में तीसरा पुत्र उत्पन्न हुआ। वह थे शिव। देवी ने शिव से विवाह करने के लिए कहा। शिव ने कहा ‘‘मैं तुम्हें दूसरा शरीर धारण कराता हूं।’’ देवी तैयार हो गई। तभी शिव की दृष्टि राख के दो ढेरों पर पडी़ । देवी ने कहा ये तुम्हारे दो भाई हैं जिन्हें मैंने जलाकर राख कर दिया क्योंकि उन्होंने मझु से विवाह करने से इनकार कर दिया था। इस पर शिव ने कहा, ‘‘मैं अकेला कैसे विवाह कर सकता हूं? आप दो स्त्रियां और उत्पन्न करें जिससे हम तीनों का विवाह हो सके ’’। देवी ने वैसा ही किया जसै श शिव ने कहा था और तीनों देवों ने देवी, और उसके द्वारा उत्पन्न दो देवियों से विवाह कर लिया। इस कथा के दो बिन्दु है। एक यह कि शिव ने यद्यपि पापकर्म किया तब भी इस भय से वे अधिक पाप नहीं कर पाए कि कहीं अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों की अपेक्षा उनकी प्रतिष्ठा गिर न जाए। और भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का स्थान नीचे आ गया क्योंकि वे देवी द्वारा उत्पन्न हुए।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव के उत्था -पतन के विश्लेषण के पश्चात् दो नए देवों कृष्ण और राम के संबंध में उलट-फेर पर विचार करना शेष है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की अपेक्षा कृष्ण की उपासना में कुछ कृत्रिमताएं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश जन्मजात भगवान थे। कृष्ण एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें भगवान मान लिया गया। उन्हें कदाचित इस कारण देवत्व प्राप्त हुआ कि उन्हें विष्णु का अंशावतार माना जाता है।1 परन्तु इसके बावजूद उन्हें उनके दुराचार के कारण, जो उन्होंने गोपियों के साथ किया, अपूर्ण अवतार माना जाता है। यदि वह विष्णु के पूर्ण और विशुद्ध अवतार होते तो उनके वह कर्म अक्षम्य होते।
इसके बावजूद सामान्य पुरुष कृष्ण सर्वोपरि बन गए। श्रीकृष्ण कितने महान बन गए, वह भगवतगीता के अध्याय दस और चौदह से परिलक्षित है। इन अध्यायों में कृष्ण कहते हैं :
‘‘हे कुरुश्रेष्ठ, अब (मैं) तेरे लिए अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूंगा क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है। हे गुडाकेश (अर्जुन), मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूं तथा (सम्पूर्ण) भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं। मैं अदिति के बारह पुत्रें में विष्णु अर्थात् वामन अवतार (और) ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं तथा मैं (उनचास) वायु देवताओं में मरीचि नामक वायु देवता, (और)
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1 – देखें म्यूर, खंड 4, पृ – 49
नक्षत्रें में नक्षत्र का अधिपति चन्द्रमा हूं। वेदों में सामवेद हूं, देवों में इन्द्र हूं और इन्द्रियों में मन हूं। भूतप्राणियों में चेतना अर्थात् ज्ञान-शक्ति हूं।
एकादश रुद्रो में शकंर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबरे हूं और मैं आठ वसुओं में अग्नि हूं (तथा) शिखर वाले पर्वतों सुमेरू पर्वत हूं । पुरोहितों में मुख्य अर्थात् बहृस्पति हूं । तू मझु को जान। हे पार्थ! सेनापतियों में मैं स्वामी, कार्त्तिकेय और जलाशयों में समुद्र हूं । मैं महर्षियों में भृगु (और ) वचनों में एक अक्षर अर्थात्
ओंकार हूं । तथा सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पर्वत हूं । सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और दवे ऋषियों में नारद मुनि (तथा) गंधर्वों में चित्ररथ (और) सिद्धों में कपिल मुनि हूं। घोड़ों में अमृत से उत्पन्न उच्चैश्रवा नामक घोड़े , हाथियों में एरे शवत नामक हाथी तथा मनुष्यों में राजा मुझे ही जान। मैं शास्त्रों में वज्र और गऊओं में कामधेनु हूं और (शास्त्रेक्त रीति से) संतान की उत्पति हेतु कामदवे हूं । सर्पों में सर्पराज वासुकि हूं । मैं नागों में शेषनाग और जलचरों में उनका अधिपति जल देवता हूं और पितरों में अर्चना नामक पित्रेश्वर (तथा) शासन करने
वालों में यमराज मैं हूं । मैं देत्यों में पह्रलाद और गणनाकारों में मृत्यु का स्वामी (काल, समय) हूं तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूं।
‘‘मैं पवित्र करने वालों में वायु (और) शस्त्रधारियों में राम हूं तथा मछलियों में मगरमच्छ हूं, नदियों में भागीरथी गंगा हूं। हे अर्जुन! सृष्टियों में आदि, अंत और मध्य भी मैं ही हूं तथ मैं विद्याओं में आध्यात्मिक विद्या अर्थात् ब्रह्म विद्या (एवं) परस्पर में विनोद करने वालों में तत्व निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूं। मैं अक्षरों में आकार, समासों में द्वंद्व हूं, (तथा) अक्षय काल अर्थात् काल का भी महाकाल और विराट स्वरूप, सबका धारण करने वाला (भी) मैं ही हूं। तथा मैं गेय श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री छंद, महीनों में मार्गशीर्ष का महीना और ऋतुओं में वसंत ऋतु मैं ही हूं। मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूं, (तथा) मैं जीतने वालों की विजय हूं और निश्चय करने वालों का निश्चय, सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं। वृष्णि वंशियों में वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तुम्हारा सखा और पाण्डवों में धनंजय एवं मुनियों में वेद व्यास, कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूं। मैं दमन करने वालों का दण्ड अर्थात् दमन करने की शक्ति हूं। जीतने की इच्छा करने वालों की नीति हूं। (और) गोपनीय भावों में मौन हूं और ज्ञान वालों का तत्वज्ञान मैं ही हूं और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूं क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है जो मुझ से रहित हो।
‘‘जो तेज सूर्य में स्थित हो सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो (तेज) चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रसस्वरूप अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को पुष्ट करता हूं। मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ, वैश्वानर अग्नि रूप होकर प्राण और अपान में युक्त हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूं। मेरे से ही स्मृति -ज्ञान प्रकट होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं। वेदांत का कर्ता और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूं, संसार में नाशवान और अविनाशी दो प्रकार के पुरुष हैं उनमें सम्पूर्ण भूत –प्राणियों के शरीर तो नाशवान हैं और जीवात्मा अविनाशी कही जाती है, उत्तम पुरुष तो अन्य ही हैं जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका भरण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमात्मा कहलाता है क्योंकि मैं नाशवान का प्रणेता हूं। सर्वथा अतीत हूं और (माया में स्थित) अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।’’
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहाँ तक गीता का संबंध है, कृष्ण से महानतम कोई नहीं है। वह अन्य सभी देवों से उत्तम है।
अब हम महाभारत पर आते हैं। हम क्या देखते हैं? हमें कृष्ण की स्थिति बदली हुई नजर आती है। वहां उनकी स्थिति में उत्थान -पतन की कथा है। पहले कृष्ण का स्थान शिव के ऊपर है। यही नहीं। शिव से निम्न भी पाते हैं और उन्हें शिव की श्रेष्ठता स्वीकार करनी होती है। कृष्ण की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के संबंध में एक प्रमाण यह भी है वह है अनुशासन पर्व1 में यह उल्लेख –
‘‘भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी से भी श्रेष्ठ हैं। वे सनातन पुरुष श्रीहरि कहलाते हैं। उनके शरीर की कांति जाम्बुनद नामक स्वर्ण के समान देदीप्यमान है। बिना बादल के आकाश में उदित सूर्य के समान तेजस्वी हैं। उनकी भुजाएं दस हैं, उनका तेज महान है। वे देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले हैं। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्सका चिन्ह शोभा पाता है। वे हृषीक अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी होने के कारण हृषीकेश कहलाते हैं। सम्पूर्ण देवता उनकी पूजा करते हैं। ब्रह्माजी उनके उदर से और मैं उनके मस्तक से प्रकट हुआ हूं। उनके सिर के बालों से नक्षत्रें और ताराओं का प्रदुर्भाव हुआ है। देवता और असुर उनके शरीर की रोमावलियों से प्रकट हुए हैं। समस्त ऋषि और सनातन लोक उनके श्रीविग्रह से उत्पन्न हुए हैं। वे श्री हरि स्वयं ही सम्पूर्ण देवताओं और ब्रह्मा जी के भी धाम हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी के स्रष्टा और तीनों लोकों के स्वामी भी वे ही हैं। वे ही समस्त चराचर प्राणियों का संहार करते हैं। वे देवताओं में श्रेष्ठ, देवताओं के रक्षक, शत्रुओं का संताप देने वाले, सर्वज्ञ, सबमें ओतप्रोत, सर्वव्यापक और सब ओर मुखों वाले हैं। वे ही परमात्मा, इन्द्रियों के प्रेरक और सर्वव्यापी महेश्वर हैं। तीनों लोकों में उनसे
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- म्यूर, खंड 4, पृ. 273 -74
बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे ही सनातन, मधुसूदन और गोविन्द आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। सज्जनों के आदर देने वाले, वे भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में सम्पूर्ण राजाओं का संहार करायेंगे। वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए पृथ्वी पर मानव -शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं। उनकी शक्ति और सहायता के बिना सम्पूर्ण देवता भी कोई कार्य नहीं कर सकते। संसार में नेता के बिना देवता कोई भी कार्य करने में असमर्थ हैं। और यह भगवान श्रीकृष्ण सब प्राणियों के नेता हैं, इसलिए समस्त देवता उनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं।
देवताओं की रक्षा और उनके कार्य-साधन में संलग्न रहने वाले वे भगवान वासुदेव ब्रह्मस्वरूप हैं। वह ही ब्रह्मऋषियों को सदा शरण देते हैं। ब्रह्मा जी और मैं दोनों ही उनके शरीर के भीतर उनके गर्भ में बड़े सुख के साथ रहते हैं। उनके श्रीविग्रह में सम्पूर्ण देवता भी सुखपूर्वक निवास करते हैं। उनकी आँखें कमल के समान सुंदर हैं। उनके गर्भ (वक्षःस्थल) में लक्ष्मी का वास है। वे सदा लक्ष्मी के साथ निवास करते हैं। देवताओं के कल्याण हेतु गोविंद मनु के वंश के होने चाहिए। उनमें श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता है और प्रजापति के उत्कृष्ट मार्ग पर अग्रसर हैं। जिनमें धर्मपरायणता के सभी लक्षण विद्यमान हैं। यह दक्ष ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धालु हैं, इसमें विख्यात वीर हुए हैं जिनमें सदाचार के श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं जो धर्मप्राण विशुद्ध क्षत्रियों के वीरोचित गुण हैं। ये अनकदुंदुभी के वंशज हैं जिन्हें अपनी जाति को वासुदेव के रूप में पोषित किया। वासुदेव के यहां चतुर्भुज का जन्म होना चाहिए, वासुदेव उदारचेता ब्राह्मण सेवी हैं। ब्रह्मा के समक्ष उनकी छवि ब्राह्मण प्रिय की है।’’
‘‘हे देवताओं इस देव की यथेष्ठ पूजा करो जैसी कि अविनाशी ब्रह्मा की की जाती है। उन्हें श्रद्धा के पुष्पहार चढा़ओं जो मुझे पिता ब्रह्मा के रूप में पाना चाहते है। वे इस देवी गारै वान्वित वासुदेव को नमन करे। इस विषय में मैं निसंकोच कहता हूं इनके दर्शन मेरे दर्शन हैं अर्थात् पिता ब्रह्मा के दर्शन तप ही इनका धन है।’’ अब हमें यह देखना है कि कृष्ण को देवताओं में पहले सर्वश्रेष्ठ बाद में पतित कैसे घोषित कर दिया गया।
महाभारत में अनेक ऐसी घटनाओं का वर्णन है, जिनसे कृष्ण शिव की अपेक्षा हीन स्थान पर रखे गये हैं, उन सबका वर्णन तो करना कठिन है लेकिन कुछ को गिना जा सकता है।
पहली घटना तो यह है जब अर्जुन ने अगले दिन जयद्रथ का वध किया, उन्होंने शपथ ली थी तो अर्जुन बड़े कुण्ठित हो गए थे क्योंकि उनके मन में यह आशंका थी कि जयद्रथ के मित्र उसकी रक्षा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे और जब तक अर्जुन को ऐसा अस्त्र उपलब्ध न हो जाए, जिससे जयद्रथ का वध किया जा सके तो अर्जुन परामर्श के लिए कृष्ण के पास जाते हैं। कृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि वे महादेव से पाशुपत अस्त्र प्राप्त करें जिस अस्त्र से शिव ने स्वयं दैत्यों का संहार किया था। यदि वे इसे प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही जयद्रथ का वध किया जा सकता है।
महाभारत के द्रोण पर्व में इसका उल्लेख इस प्रकार हैः
उनके पास पहुँचकर धर्मपरायण भगवान कृष्ण और पृथा पुत्र अर्जुन ने पृथ्वी पर मस्तक टेक कर वेद मंत्र पढ़ते हुए उन्हें प्रणाम किया। विश्व नियंता, अनन्त, अविनाशी देव के रूप में उनकी अभ्यर्थना की जो परम ज्ञान के स्रोत हैं, आकाश, वायु, नक्षत्रें, सागर के सृष्टा हैं, पृथ्वी के परम श्रेष्ठ तत्व हैं, देवों, दानवों, यक्षों, मानवों के सृजक हैं, साधना के परम ब्रह्म, ज्ञानियों के लिए तत्व ज्ञान का भण्डार हैं। विश्व के निर्माता और संहारक हैं, सूर्य और इन्द्र के जनक हैं। तब कृष्ण ने उन्हें श्रद्धापूर्वक सम्बोधित किया। ये दोनों योद्धा शिव की शरण में आए। अर्जुन ने बार -बार
उनकी स्तुति की क्योंकि वे सभी जीवों के सृष्टा थे और त्रिकाल दर्शी थे। उन दोनों नर और नारायण को आया देख भगवान शिव बड़े प्रसन्न हुए और हंसते हुए बोले ‘‘वीरवरो, तुम दोनों का स्वागत है! उठो, विश्राम करो और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है? तुम जिस काम के लिए आये हो, उसे मैं अवश्य पूर्ण करूंगा’’।
भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़ खड़े हो गये और उनकी स्तुति करने लगे ‘‘भगवान’ आप ही संसार के स्वामी, सबके सृष्टा, एवं सर्वव्यापी हैं, आपको हम बारंबार नमस्कार करते हैं। आप भक्तों पर दया करने वाले हैं, प्रभो! हमारा मनोरथ सिद्ध कीजिये।’’ तदनन्तर अर्जुन ने मन ही मन भगवान शिव और श्रीकृष्ण का स्मरण किया तथा शंकर जी से कहा ‘‘भगवन! मैं दिव्य अस्त्र चाहता हूं।’’ यह सुनकर भगवान शंकर मुसकराये और कहने लगे ‘‘श्रेष्ठ पुरुषो। मैं तुम दोनों का स्वागत करता हूं। तुम्हारी अभिलाषा मालूम हुई, तुम जिसके लिये आये हो वह वस्तु अभी देता हूं। यहां से निकट ही एक अमृतमय दिव्य सरोवर है, उसी में मैंने अपने दिव्य धनुष और बाण रख दिये हैं, वहां जाकर बाण -सहित धनुष ले आओ।’’
‘‘बहुत अच्छा’’! कहकर दोनों वीर शिवजी के पार्षदों के साथ उस सरोवर पर गये। वहाँ जाकर उन्होंने दो नाग देखे, एक सूर्यमंडल के समान प्रकाशमान था और दूसरा हजार मस्तकवाला था, उसके मुख से आग की लपटें निकल रही थीं। श्रीकृष्ण और अजर्नु दोनों उस सरोवर के जल का आचमन करके उन नागों के पास उपस्थित हुए और हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम करते हुए, रुद्रीय पाठ करने लगे। तब भगवान शकंर के प्रभाव से वे दोनों महानाग अपना स्वरूप छाडे क़र धनुष बाण हो गये। इससे वे दोनों बड़े प्रसन्न हुए और उस देदीप्यमान धनुष बाण को लेकर शकं रजी के पास आये वहां आकर उन्होंने वे अस्त्र शकंर जी को अर्पण कर दिय।
तत्पश्चात् शकंरजी ने पस्रन्न होकर अपना पाशुपत नामक घोर अस्त्र अर्जुन को दे दिया। उसे पाकर अर्जुन के हर्ष की सीमा न रही, उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे। फिर कृष्ण और अर्जुन दोनों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वे अपने शिविर में चले आये।’’
महाभारत के ही अनुशासन पर्व में युधिस्टर और भीष्म का संवाद आया है। युधिस्टर भीष्म से महादेव के गुणों के विषय में जिज्ञासा करते हैं। भीष्म का उत्तर इस प्रकार थाः
‘‘मैं महादेव की लीलाओं और गुणों की व्याख्या करने में असमर्थ हूं, जो अनीश्वर हैं, वे अगोचर हैं, वह ही ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र के जनक हैं, जिनकी देवताओं में ब्रह्मा से लेकर पिशाच तक उपासना करते हैं, वे अमृत तत्व हैं और वही पुरुष हैं। ऋषि उनकी उपासना करते हैं और योगमंत्रें में स्तवन किया गया है। वे सत्य के सूक्ष्म तत्व हैं। वे अजर-अमर ब्रह्म हैं। वे विद्यमान भी हैं और अविद्यमान भी। उन्होंने शक्ति से आत्म-तत्व प्राप्त किया है और वे वाधिदेव और प्रजापतियों के स्वामी हैं। मेरे जैसा मानव जो माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ है और जो मृत्यु को प्राप्त होने योग्य है, वह ‘भव’ के गुणों का क्या बखान कर सकता है। उसका वर्णन तो मात्र नारायण कर सकते हैं। विष्णु मेधावी हैं, सर्वगुण सम्पन्न हैं, दुर्जेय हैं, दिव्य दृष्टि हैं, दिव्य शक्ति हैं, यद्यपि रुद्र के लिए उनकी भक्ति भगवान कृष्ण ने भी की है। बद्री में महादेव से कृष्ण ने सर्वस्व प्राप्त किया। माधव ने एक हजार वर्ष तक शिव की उपासना में तप किया परन्तु इहलोक में महेश की कृष्ण द्वारा आराधना की जाती है। ऐसे कृष्ण, जब प्रजावृद्धि चाहते हैं, तो वे देवाधिदेव आदि के नाम का जाप करते हैं।
’’ कृष्ण की उपस्थिति में युधिस्टर और भीष्म का यह सवं शद चलता है। भीष्म उत्तर देने के उपरातं कृष्ण को महादवे की श्रेष्ठता बताते हैं और यह आश्चयर् है कि यह महानतम देवता कृष्ण बिना किसी हिचक और विरोध के यह सब मान लेता है और कहता हैः
‘‘वास्तव में, ईश (महादेव) के गुण-कर्मों को कौन जान सकता है। हिरण्यगर्भ में विराजमान देव, न इन्द्र के साथ महान ऋषि, न आदित्यगण, जो सूक्ष्मतम के ज्ञाता हैं यह नहीं जान पाए, तब भला शेष ऋषिगण और मनुष्य यह कैसे समझ पाएंगे। असुरों के हंता इस देवाधिदेव के गुणों का मैं बखान करूंगा, जो सब धार्मिक अनुष्ठानों के स्वामी हैं।’’
यहां यह स्पष्ट है कि कृष्ण अपने को शिव से हीन समझते हैं। साथ ही शिव जानते हैं कि कृष्ण का महान
देवता पद से पतन हो चुका है, बराबरी की तो दूर रही सौप्तिक – पर्व में महादेव अश्वत्थामा1 को बताते हैं :
‘‘मेरी कृष्ण ने विधिवत् पूजा की है, जो कार्यकुशल है, सत्यता के साथ, पवित्रता, ईमानदारी, उदारता, अत्यंत सरलता, अनुष्ठान, धैर्य, बुद्धि, आत्मसंयम, निष्ठा औरविचारपूर्वक। आज से कृष्ण से अधिक और कोई मुझे प्रिय नहीं है।’’
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1 – म्यूर द्वारा उद्धृत (पृ – सं – नहीं दी गई)।
शिव ही क्या, हर देवता से श्रेष्ठतम कृष्ण, जो वास्तव में परमेश्वर थे, यहां शिव के मात्र अनुयायी बना दिए जाते हैं जो मामूली सा वरदान मांगते फिरते हैं।
कृष्ण के पतन की कथा यहीं समाप्त नहीं होती। उन्हें और भी अपमान सहन करने पड़ते हैं। कृष्ण शिव के मुकाबले अपना दर्जा नीचे स्वीकार कर लेते हैं। यहां तक कि वे उपमन्यु के अनुयायी बन जाते हैं जो कि महान् शिव -भक्त हैं। कृष्ण उससे शैवमत की दीक्षा ग्रहण करते हैं। कृष्ण स्वयं कहते हैं :
‘‘शास्त्रानुसार’’ आठवें दिन उस ब्राह्मण (उपमन्यु) ने मुझे दीक्षित किया। मैंने सिर का मुंडन कराया, घी से विलेपन किया, बाहों में कुश दूर्वा ग्रहण की, कटि तक अधोवस्त्र धारण किए। कृष्ण तब प्रायश्चित करते हैं और महादेव के दर्शन करते हैं।
क्या ईश्वर जैसी पदवीं प्राप्त देवता का इससे अधिक पद में पतन और कहीं दृष्टिगोचर होता है? कृष्ण जो परमेश्वर कहे जाते हैं, जिनकी शिव से तुलना की जाती है, वे एक मात्र परमेश्वर नहीं थे और बाद में तो वे ईश्वर रहे भी नहीं। वे शिव के भक्त बन गए और उपमन्यु जैसे साधारण ब्राह्मण से शैवधर्म की दीक्षा भी ली।
जहां तक राम का प्रश्न है ये भी वैसे ही नामधारी कृत्रिम भगवान हैं जैसे कि श्रीकृष्ण। राम को तो आभास भी नहीं था कि वह परमेश्वर है। जब लंका में सीता रावण-विजय के बाद उनके पास आइ और जब उनसे सीता के विषय में बात की गई तो राम को सीता की पवित्रता पर संदेह हुआ। वे बड़े दुखी हुए। रामायण में यह प्रसंग इस प्रकार हैः
‘‘इसी समय यक्षराज कुबेर, पितरों सहित यमराज देवताओं के स्वामी सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र, जल के अधिपति वरुण, त्रिनेत्रधारी तेजस्वी वृषभवाहन के स्वामी महादेव, संपूर्ण जगत के स्रष्टा ब्रह्मा, वेद के ज्ञाता, (स्वर्ग से राजा दशरथ) जो सभी सूर्यतुल्य देदीप्यमान् विमानों से लंकापुरी में पधारे राघव (राम) के समक्ष प्रकट हुए। भगवान श्रीराम उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे। वे श्रेष्ठ देवता आभूषणों से अलंकृत अपनी विशाल भुजाओं को उठाकर उनसे बोले, ‘‘राम, आप सम्पूर्ण विश्व के सृष्टा, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और सर्वव्यापक हैं। फिर इस समय अग्नि में प्रविष्ट सीता की उपेक्षा कैसे कर रहे हैं। आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ विष्णु ही हैं, इस बात को कैसे नहीं समझ रहे हैं। पूर्वकाल में वसुओं के प्रजापति जो ऋतधाम नामक वसु थे।, वे आप ही हैं। आप तीनों लोकों के आदिकर्ता, स्वयं प्रभु हैं। रुद्रों में आठवें रुद्र और साध्यों में पांचवें साध्य भी आप ही हैं। आश्विन आपके कान हैं, और सूर्य तथा चन्द्रमा नेत्र हैं।’’
‘‘शत्रुओं को संताप देने वाले दवे, सृष्टि के आदि, अन्त और मध्य में आप ही दिखाई देते हैं। फिर आप सीता की एक साधारण मनुष्य की भांति उपेक्षा कर रहे हैं।’’
उन लोकपालों के ऐसा कहने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राम ने आश्चर्यचकित हो उन श्रेष्ठ देवताओं से कहाः
‘‘देवगण! मैं तो अपने को मनुष्य, दशरथपुत्र राम ही समझता हूं। देवगण बताएं, मैं कौन हूं और कहां से आया हूं।’’
ऐसा कहने पर ब्रह्मा जी ने राम को कहाः
‘‘सत्यपराक्रमी, आप मेरे सत्य वचन सुने आप दिव्य शक्तियों से अभिभतू है। आप चक्र धारण करने वाले सर्वसमर्थ नारायण देव हैं एक दाढ़ वाले पृथ्वी-धारी वाराह हैं तथा देवताओं के भतू एवं भावी शत्रुओं को जीतने वाले है। आप अविनाशी परबह्म्र है। सृष्टि के आदि, मध्य और अतं में सत्य से विद्यमान है। आप ही लोकेश के परम धर्म है। आप ही विश्वकसने (विष्णु) , चतुर्भुज, आप ही धनुर्धारी है। आप ही सारगं, हृषीकेश, अंतर्यामी, आदि पुरुष और पुरुषोत्तम है। आप किसी से पराजित नहीं होते । आप अपराजये खडग् धारी विष्णु एवं महाबली कृष्ण है। आप ही देव सेनापति तथा परम सत्य है। आप ही बुद्धि, सत्व, क्षमा, इन्दिय्रनिगह्र तथा सृष्टि एवं प्रलय के कारण है। आप ही उपेंद्र (वामन) और मधुसूदन है। इंद्र को भी उत्पन्न करने वाले महेंद्र और यद्धु का अन्त करने वाले शांतस्वरूप पदम्नाभ भी आप ही हैं। दिव्य महर्षिगण आपको शरणदाता तथा शरणागत वत्सल बताते हैं। आप ही सहस्त्रों शाखारूप सीगं तथा सैकड़ों विधिवाक्य रूप मस्तकों से युक्त वेदरूप महावृषभ हैं। आप ही तीनों लोकों के आदिकर्ता और स्वयंप्रभु (परम स्वतंत्र) हैं। आप सिद्ध और साध्यों के आश्रय तथा पूर्वज हैं यज्ञ, षट्कार और ओंकार भी आप ही हैं। आप श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ परमात्मा हैं। आपके आविभार्व और तिरोभाव को कोई नहीं जानता। आप कौन हैं, इसका भी किसी को पता नहीं है। समस्त प्राणियों, गौओं तथा ब्राह्मणों में भी आप ही दिखाई देते हैं। समस्त दिशाओं में, आकाश में, पर्वतों में और नदियों में भी आपकी ही सत्ता है। आपके सहस्त्रों चरण, सैकड़ों मस्तक और सहस्त्रों नेत्र हैं। आप ही संपूर्ण प्राणियों को, पृथ्वी का अतं हो जाने पर आप ही जल के ऊपर महान सर्प शेषनाग के रूप में दिखाई देते हैं। श्रीराम, आप ही तीनों लोकों को तथा देवता, गंधर्व और दानवों को धारण करने वाले विराट पुरुष नारायण हैं। सबके हृदय में रमण करने वाले परमात्मा हैं। मैं बह्म्र आपका हृदय हूं और देवी सरस्वती आपकी जिह्वा है।प्रभों मझु बह्म्र ने जिनकी सृष्टि की है, वे सब देवताआपके विराट शरीर में रामे हैं। आपके नेत्रों का बदं होना रात्रि, खलु ना ही दिन है। वेद आपके संस्कार हैं। आपके बिना इस जगत का अस्तित्व नहीं है। संपूर्ण विश्व आपका शरीर है। पृथ्वी आपकी स्थिरता है। अग्नि आपका कोप है और चन्द्रमा प्रसन्नता है। वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिन्ह धारण करने वाले भगवान विष्णु आप ही हैं। पूर्वकाल में (वामनावतार के समय) आपने ही अपने तीन पगों में तीनों लोक नाप लिये थे। आपने अत्यतं दारुण दैत्यराज बलि को बाधं कर इंद्रको तीनों लोकों का राजा बनाया था। सीता साक्षात लक्ष्मी है और आप भगवान विष्णु हैं। आप ही सच्चिदानदं भगवान श्रीकृष्ण एवं प्रजापति हैं। मनुष्य आपको ही सृष्टि का पालक, श्रष्टा, और संहार का परम स्रोत मानते हैं। यह स्पष्ट है कि राम को जान-बूझकर कृत्रिमतापूर्वक भगवान बता दिया गया, जैसे कृष्ण एक मानव से भगवान बना दिए गए। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह वे जन्मजात भगवान नहीं थे। उन्हें ब्राह्मणों के नायक परशुराम से भी हीन सिद्ध किया गया। रामायण में यह कथा इस प्रकार आती हैः
‘‘जब राजा दशरथ मिथिलापति जनक, जिनकी पुत्री से अभी राम का विवाह हुआ था, से विदा लेकर अपने राज्य को लौट रहे थे तो उनके समक्ष अनेक अपशकुन हुए। उनके चारों ओर भयंकर स्वर वाले पक्षी चीत्कार उठे और भूमि पर विचरने वाले मृग दाहिनी ओर चलने लगे। यह देखकर दशरथ ने वशिष्ठ से पूछा, ‘‘पक्षी चीख रहे हैं और मृग दाहिनी ओर चल रहे हैं। यह शकुन शुभ भी है और अशुभ भी है। यह क्या बात है? इससे मेरा हृदय शंका से भर उठता है।’’ तब वशिष्ठ बोले, ‘‘यह परशुराम के आगमन की चेतावनी है जो तूफान की तरह आ रहे हैं, बड़े भयानक दिखाई दे रहे हैं, कंधे पर फरसा और धनुषबाण हैं।’’ दशरथ ने उनका आदरपूर्वक अभिवादन किया, जिसे परशुराम ने स्वीकार कर लिया और दशरथ पुत्र राम की ओर बढ़े। कहा, राम् तुम्हारा बहुत पराक्रम सुना है। जनक द्वारा दिया गया शिव धनुष तुमने तोड़ दिया है। मैं दूसरा धनुष लेकर आया हूं। इसकी प्रत्यंचा खींचकर बाण चढ़ाओ। बाण चढ़ाने में तुम्हारे बल का अनुमान लगाकर ही मैं तुम्हारे साथ द्वन्द्व करूंगा।’’
‘‘राम ने उत्तर दिया कि यद्यपि उनके विरोधी ने उनकी युद्धप्रियता की निंदा की है तथापि वे उन्हें अपनी शक्ति का परिचय देंगे। तब उन्होंने क्रोध में परशुराम का धनुष छीन लिया और उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और चुनौती देने वाले परशुराम से कहा कि मैं उन पर प्रहार नहीं करूंगा क्योंकि वे एक ब्राह्मण हैं। फिर उनके परिजन विश्वामित्र का भी ध्यान है। परंतु मैं उनकी मानवेतर शक्ति को क्षीण कर दूंगा, विचरण शक्ति समाप्त कर दूंगा अथवा उनकी तपस्या के बल को नष्ट कर दूंगा। इस अवसर पर देवतागण प्रकट हुए। परशुराम बुझ से गए और शक्तिहीन हो गए और दीन भाव से कहा कि उनके विचरण की शक्ति से उन्हें वंचित न करें नहीं तो वे कश्यप को दिया गया वह वचन पूरा नहीं कर पाएंगे कि वे प्रत्येक रात्रि को उनके पास पहुंचेंगे। उनकी यह सहजता नष्ट हो जायेगी।’’
इस अपवाद के अतिरिक्त राम की किसी भी अन्य देवता से कोई शत्रुता नहीं थी। वह जहां भी रहे, सब प्रबंध करते रहे। अन्य देवों की कथाएं भिन्न हैं। ब्राह्मणों के हाथों वे गरीब प्राणी, मात्र खिलौने बनकर रह गए। ब्राह्मणों ने देवताओं के साथ इस प्रकार का घटिया व्यवहार क्यों किया?