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उन्नीसवीं पहेली – पितृत्व से भातृत्व की ओरः ब्राह्मणों को इससे क्या मिला

हिंदू विधान पर अपने शोध प्रबंध में मयने ने संकेत दिया है कि सगोत्रता विधानमें कुछ विसंगतियां हैं। उनका कथन हैः

हिंदू विधान में इतनी विसंगतियां और कहीं नहीं हैं, जितनी पारिवारिक संबंधों के प्रसंग में हैं। इससे न केवल प्राचीन समाज और आधुनिक समाज के बीच में निरंतरता पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गई है बल्कि प्राचीन व्यवस्था की विभिन्न प्रणालियों के बीच प्रत्यक्ष टकराव भी दृष्टिगोचर होता है। उसमें एक उत्तराधिकार विधान है, जिसमें अविरल चौदह पीढ़ियों तक पुरुष पूर्वज की संभावना का अनुमान किया जाता है। साथ ही कुटुम्ब-विधान है जिसमें कतिपय स्वीकृत पद्धतियां शील भ्रष्टीकरण और बलात्कार के प्रति मात्र प्रियोक्तियां हैं। जहां बारह प्रकार के पुत्रों को मान्यता है और इनमें से अधिकांश का पिता से कोई रक्त-संबंध नहीं होता।

इन विसंगतियों का अस्तित्व वास्तव में विद्यमान है जो हिन्दू-विवाह तथा पितृत्व विधान का अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाएगा।

हिन्दू विधान में आठ प्रकार के विवाहों को मान्यता है। उनके नाम इस प्रकार हैं:

  1. ब्रह्म 2. देव, 3. आर्ष, 4. प्रजापात्य 5. आसुर, 6. गंधर्व, 7. राक्षस और 8. पिशाच।

ब्रह्म विवाह के अनुसार किसी वेद ज्ञाता को वस्त्रलंकृत पुत्री उपहार में दे दी जाती थी जिसे उसका पिता स्वेच्छा से आमंत्रित करके उसकी सम्मानपूर्वक अगवानी करता था।

देव-विवाह वह था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था।

आर्ष विवाह के अनुसार वर वधू के पिता को उसका मूल्य चुका कर प्राप्त करता था।

यह ग्यारह पृष्ठों की टंकित सामग्री है। अध्याय के शीर्षक को छोड़कर लेखक की हस्तलिपि में और कुछ भी नहीं जोड़ा गया है। – संपादक

प्रजापात्य विवाह का अर्थ है, वर द्वारा वधू के पिता से पुत्री प्रदान करने का आग्रह। प्रजापात्य और ब्रह्म विवाह में अंतर यह था कि एक में पिता द्वारा पुत्री को उपहारस्वरूप तो दे दिया जाता था किन्तु इसके लिए आग्रह की आवश्यकता थी। आसुर विवाह वह था, जब वर-वधू के पिता और इसके संबंधियों को उनकी पुत्री के बदले क्षमता भर सम्पति देता था और पुत्री को भी धन दिया जाता था। आर्ष और आसुर विवाह के मध्य कोई अंतर नहीं था। दोनों में पुत्री बेची जाती थी। अंतर मात्र इतना था कि आर्ष में पुत्री का मूल्य निश्चित किया जाता था जबकि आसुर विवाह में मूल्य निश्चित नहीं किया जाता था।

गंधर्व विवाह से आशय यह है जिसमें अधार्मिक तथा इन्द्रिय सुख हेतु परस्पर सहमति से विवाह होता था। राक्षस विवाह उसे कहते थे जब किसी कन्या को वर-पक्ष वाले बरबस उठा ले जाते थे। जब यह सहायता के लिए रोती-चिल्लाती थी तो उसका घर ध्वस्त करा दिया जाता और उसके परिजन और उनके मित्रें को युद्ध में आहत कर दिया जाता था अथवा उनका वध कर दिया जाता था।

पिशाच विवाह का अर्थ है किसी कन्या के साथ बलात्कार, जबकि वह निद्रामग्न हो अथवा उसे अतिमादक मदिरा पिलाकर उसकी बुद्धि का हरण कर लिया गया हो।

हिन्दू विधान के अनुसार तेरह प्रकार के पुत्र होते थे। 1. औरस, 2. क्षेत्रज, 3. पुत्रिका पुत्र, 4. कानीन, 5. गुह्मज, 6. पुनर्भव, 7. सहोदज, 8. दत्तक, 9. कृत्रिम, 10. क्रीत 11. अपविध, 12. स्वयंदत्त, और 13. निषाद।

औरस पुत्र वे होते थे जो किसी व्यक्ति द्वारा अपनी वैध पत्नी से उत्पन्न किए जाते थे।

“पुत्रिकापुत्र” से आशय है, पुत्री से उत्पन्न पुत्र। इसका महत्व यह है कि इस प्रथा के अनुसार कोई पिता, जिसका अपना पुत्र नहीं होता था, वह अपनी पुत्री से किसी व्यक्ति द्वारा पुत्र उत्पन्न कराता था। यदि इस शारीरिक संबंध के कारण उस कन्या को पुत्र प्राप्त हो जाता था तो वह बालक पुत्रीका पुत्र कहा जाता है। किसी व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त था कि अपनी पुत्री का विवाह कर देने के पश्चात् भी पुत्र प्राप्ति हेतु उसे विवश कर सकता था कि उसकी पुत्री उसके द्वारा नियत पुरुष के साथ संभोग करे। इसी कारण यह चेतावनी दी जाती थी कि उस कन्या के साथ विवाह न किया जाए, जिसके भ्राता न हों।

क्षेत्रज के शब्दार्थ और भावार्थ समान हैं। इसका अर्थ है-क्षेत्र से उत्पन्न पुत्र-क्षेत्र का अर्थ है पत्नी। हिंदू आदर्शों के अनुरूप स्त्री खेत के समान है और पति उस खेत का स्वामी है। यदि पति की मृत्यु हो जाती थी अथवा वह जीवित होता था परन्तु नपुंसक होता था अथवा उसे असाध्य रोग होता था तो उसका भ्राता अथवा अन्य सपिण्ड व्यक्ति उससे पुत्र उत्पन्न कर सकता था। इस प्रथा को “नियोग” कहते थे। इस प्रकार उत्पन्न पुत्र “क्षेत्रज” कहलाता था।

यदि कन्या अपने पिता के घर अवैध संबंधों के कारण गर्भवती हो जाती और किसी पुत्र को जन्म देती और यदि फिर उसका विवाह हो जाए तो विवाह पूर्ण जन्मे पुत्र पर उसके पति का अधिकार हो जाता है जो “कानीन” कहलाता था।

“गुह्मज” वे पुत्र होते थे, जब किसी स्त्री के अपने पति से संबंध तो हों, परन्तु यह समझना कठिन हो कि पुत्र उसी का है अर्थात् जहां यह संदेह हो कि पुत्र अनाचार का परिणाम है। जब इस बात का साक्ष्य न हो तो अनुमान के आधार पर वह पुत्र उस स्त्री के पति का होता है। वह इसी कारण ‘गुह्मज’ कहलाता है कि उसका पिता संदिग्ध है।

“सहोदज” वे पुत्र होते थे जब कोई कन्या अपने विवाह के समय गर्भवती होती थी और यह निश्चय नहीं होता था कि पुत्र उसके पति का है जिसके उस कन्या के साथ पहले से ही शारीरिक संबंध होते थे अथवा वह किसी अन्य व्यक्ति का बीज है। परन्तु यह निश्चिंत था “सहोदज” उस गर्भवती स्त्री से उस व्यक्ति का उत्पन्न पुत्र माना जाता था जिसके साथ उस कन्या का विवाह होता था। “पुनर्भव” उस स्त्री का पुत्र है जिसे उसके पति ने त्याग दिया हो और वह अन्य के साथ सहवास के पश्चात् पुनः अपने घर आ गई हो। इससे ऐसी स्त्री के पुत्र का भी बोध होता है जो एक नपुंसक, अस्पृश्य, अथवा पागल या मृत पति के बाद दूसरा पति चुन लेती है।

“पारासव”1  वे पुत्र होते थे जो किसी ब्राह्मण द्वारा शूद्र नारी से उत्पन्न किए जाते थे। शेष पुत्र गोद लिए गए पुत्र होते थे जिन पर पितृत्व अधिकार होता था।

“दत्तक” ऐसा पुत्र है जिसे उसके माता-पिता किसी को दे देते थे। उसे प्राप्तकर्ता का पुत्र माना जाता था।

“कृत्रिम” पुत्र का अर्थ है केवल प्राप्तकर्ता की इच्छा से प्राप्त पुत्र। ‘क्रीत’ ऐसा पुत्र, जिसे उसके अभिभावकों से क्रय किया जाता था।

“अपविध” ऐसा पुत्र है जिसका उसके जनक परित्याग कर दे और पुनः गोद ले लें और अपना पुत्र मान लें।

“स्वयंदत्त” ऐसा पुत्र है जिसे उसके जनक त्याग दें और वह किसी से यह कहकर आश्रय मांगे कि “मुझे अपना पुत्र बनाओ”। यदि स्वीकार कर लिया जाता है तो पुत्र माना जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि विवाह की कई प्रणालियां शील भ्रष्टीकरण और बलात्कार की प्रियाक्तियां हैं और कई पुत्रों का अपने पिता से कोई रक्त संबंध नहीं होता था। मनु के समय तक ये विभिन्न प्रकार के विवाह और पुत्र वैध माने जाते थे और मनु ने जो परिवर्तन किए हैं वे मामूली हैं। जहां तक विवाहों का संबंध है मनु2 ने उन्हें अवैध घोषित नहीं किया। उन्होंने मात्र इतना कहा है कि आठ में से प्रथम छह ब्रह्म, देव, आर्ष, प्रजापात्य, असुर, गंधर्व-राक्षस और पिशाच, क्षत्रिय के लिए वैध हैं और

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  1. उसमें निषाद भी है। जीमूतवाहन पारासव और निषादों को भिन्न मानता है। पारासव शूद्र कन्या से ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न है और निषाद ब्राह्मण द्वारा शूद्र पत्नी से उत्पन्न है।
  2. मनु. 3.23

तीन-असुर, गंधर्व और पिशाच वैश्य और शूद्र के लिए वैध हैं।

इसी प्रकार वे बारह प्रकार के पुत्रों में से किसी की भी श्रेणी विलग नहीं करता। इसके विपरीत वे उन्हें परिजन स्वीकार करते हैं। उन्होंने मात्र इतना परिवर्तन किया है कि उत्तराधिकार-नियम को बदल दिया है और उनके दो वर्ग कर दिएः 1. उत्तराधिकारी तथा परिजन, और 2. परिजन, किन्तु उत्तराधिकारी नहीं। वह कहते हैं1:

  1. किसी का वैध पुत्र वह है जो उसने अपनी पत्नी से उत्पन्न किया हो, दत्तक पुत्र ही मान लिया गया पुत्र हो, गुह्य पुत्र, और उत्पन्न कराया गया पुत्र हो। यही छह उत्तराधिकारी या परिजन होने के पात्र हैं।

160- एक अविवाहित किशोरी से उत्पन्न पुत्र, पत्नी के साथ सहवास से प्राप्त पुत्र, पुनर्विवाहिता स्त्री से उत्पन्न पुत्र, स्वयं प्राप्त पुत्र और शूद्र स्त्री से प्राप्त पुत्र ऐसे पुत्र हैं, जिन्हें उत्तराधिकार प्राप्त नहीं होता किन्तु सगोत्री हैं।

  1. यदि किसी पुरुष के दो उत्तराधिाकारी पुत्र हैं और एक पुत्र उसकी पत्नी से उत्पन्न हुआ है, प्रत्येक (दोनों पुत्रों में से) दूसरे के वंचित हो जाने पर अपने पिता की सम्पत्ति का अधिकारी है।
  2. किसी व्यक्ति का पुत्र ही पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी है किन्तु कटुता से बचने के लिए दूसरे को निर्वाह उपलब्ध कराए जाएं।

सगोत्रता विधान का एक और अंग है जिसमें बहुत परिवर्तन किए गए हैं किन्तु जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। वह है बालक का वर्ण निर्धारण। बालक का वर्ण क्या हो? उसे पिता का वर्ण मिलता है या माता का। मनु से पूर्व पिता का माना जाता था, माता के वर्ण का कोई महत्व नहीं था। इस संबंध में कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इस शोध की पुष्टि करते हैं।

               पिता                                                  माता                                                  बालक

नाम                      वर्ण                       नाम                      वर्ण                       नाम                      वर्ण

  1. शांतनु क्षत्रिय गंगा                       अज्ञात                   भीष्म                     क्षत्रिय
  2. पराशर ब्राह्मण मत्स्यगंधा              मछेरा                    कृष्णद्वैपायन          ब्राह्मण
  3. वशिष्ठ ब्राह्मण अक्षमाला                    –                        पायन                         –
  4. शांतनु क्षत्रिय मत्स्यगंधा              मछेरा                    विचित्रवीर्य           क्षत्रिय
  5. विश्वामित्र क्षत्रिय मेनका                    अप्सरा                  शकुंतला                 क्षत्रिय
  6. ययाति क्षत्रिय देवयानी                               ब्राह्मण                   यदु                         क्षत्रिय
  7. ययाति क्षत्रिय शर्मिष्ठा                  आसुरी                   द्रुह्य                        क्षत्रिय
  8. जरत्कारु ब्राह्मण जरत्कारी               नाग                       आस्तीक                 ब्राह्मण

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  1. मनु. 9.159.60: 162.63: पृ., 359.60

मनु क्या करते हैं? संतान के वर्ण-निर्णय संबंधी विधान में मनु के परिवर्तन क्रांतिकारी हैं। मनु1 ने निम्नांकित नियम निर्धारित किएः

  1. “सभी वर्णों में वे संतान, जिनका जन्म सहज विवाहित पत्नियों से होता है जो उसी वर्ण की कन्या रही हों, वे उसी वर्ण (जो पिता का है) के माने जाएंगे।”
  2. “द्विज द्वारा उस पत्नी से उत्पन्न संतान, जो एक वर्ण नीचे की हो, वे भी (अपने पिता के समान) वर्ण में गिने जाएंगे भले ही माता के दोष उनमें रहे हों।”
  3. द्विजों के वे पुत्र, जो एक वर्ण नीचे की पत्नियों से उत्पन्न होंगे, जिनको उसी क्रम में गिना गया है, मातृ दोष के कारण अनन्तर (एक वर्ण नीचे) समझे जायेंगे।”
  4. “(आर्यों से) उत्पन्न छह पुत्र, जो समान अथवा एक वर्ण नीचे की पत्नियों से जन्मेंगे, उनके कर्त्तव्य द्विजों के समान होंगे परन्तु जिनका जन्म नियमोल्लंघन से होता होगा, कर्त्तव्य के संबंध में वे शूद्रवत होंगे।”

मनु ने निम्नांकित भिन्नताएं नियत की हैं:

  1. जहां पिता और माता समान वर्ण के हों।
  2. जहां माता का वर्ण पिता से एक वर्ण निम्न हो जैसे ब्राह्मण पिता, क्षत्रिय माता क्षत्रिय पिता, वैश्य माता और वैश्य पिता और शूद्र माता।
  3. जहां माता का वर्ण पिता से एकाधिक वर्ण नीचे हो जैसे ब्राह्मण पिता और वैश्य अथवा शूद्र माता, और क्षत्रिय पिता तथा शूद्र माता।

पहली श्रेणी में संतान का वर्ण पिता का वर्ण होगा। दूसरी श्रेणी में भी पिता का वर्ण ही मिलेगा। परन्तु तीसरी श्रेणी में उन्हें पितृ नहीं मिलेगा। मनु ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि पिता का वर्ण नहीं मिलेगा तो फिर कौन सा वर्ण मिलेगा? परन्तु मनु के सभी भाष्यकार मेधातिथि, कुल्लुक भट्ट, नारद और नंदपण्डित कहते हैं यह स्पष्ट है कि ऐसी संतानों को माता का वर्ण दिया जाएगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मनु ने पितृवर्ण को मातृवर्ण में परिवर्तित कर दिया।

यह एक महान क्रांतिकारी परिवर्तन है। यह एक दुखद स्थिति है कि जिसे बहुत कम लोग समझ पाए हैं कि प्रचलित विवाह पद्धतियां, पुत्रों की श्रेणियां, अनुलोम विवाह और पितृ वर्ण के सिद्धांत का औचित्य, वर्ण व्यवस्था जबकि ब्राह्मणों की इच्छा थी कि वह बंद पद्धति रहे एक मुक्त व्यवस्था बनी रही। कहा जाए तो वर्ण-व्यवस्था में अनेक छिद्र थे। वर्ण-व्यवस्था से विवाह पद्धतियों का कोई संबंध नहीं था। राक्षस और पिशाच विवाहों में, विवाह की हर संभावनाओं के परिपेक्ष्य में पुरुष निम्न वर्ण के थे और स्त्रियां उच्च वर्ण से संबंधित थीं।

पुत्रत्व विधान में भी अत्यंत दोष थे क्योंकि शूद्रों के पुत्र ब्राह्मण बन सकते थे। उदाहरणार्थ, गुह्यज, सहोदज, कानीन। कौन कहता है कि ये शूद्र से अथवा ब्राह्मण से क्षत्रिय या वैश्य से उत्पन्न हुए हैं? ये सन्देह अनुलोम प्रथा से संभव थे, जिसमें यह कानूनी मान्यता थी जो पितृवर्ण प्रथा से संबद्ध थी, जिसके अनुसार यह गुंजायश थी कि निम्न वर्ण के व्यक्ति उच्च वर्ण में आ जाएं। कोई शूद्र कभी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा

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  1. मनु, अध्याय 10, श्लोक 5, 6, 14 और 41 पृ. 402, 403, 404 और 412

वैश्य नहीं बन सकता था किन्तु किसी शूद्र स्त्री की संतान वैश्य बन सकती थी यदि वैश्य का उससे विवाह हो जाता। इसी प्रकार वह संतान क्षत्रिय और ब्राह्मण भी बन सकती थी यदि उसकी शादी क्षत्रिय या ब्राह्मण से संपन्न हो जाती। निम्न श्रेणी का उच्च श्रेणी में मिश्रण या संमिलन एक सकारात्मक और विश्वसनीय प्रक्रिया थी चाहे वह अप्रत्यक्ष माध्यम से ही क्यों न हो? यह प्राचीन व्यवस्था का परिणाम था। इसके दूसरे परिणाम थे। यह थे कि किसी वर्ण के व्यक्ति मिश्रित और समुच्चय समुदाय बन जाते थे। ब्राह्मण वर्ग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समुदाय की स्त्रियों से उत्पन्न संतानें हो सकती थीं और उन्हें ब्राह्मणों को प्राप्य अधिकार प्राप्त थे। क्षत्रिय समुदाय में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र स्त्रियों से उत्पन्न संतानें हो सकती थीं और उन्हें क्षत्रियों के अधिकार प्राप्त होते थे। इसी प्रकार वैश्य समुदाय में वैश्य तथा शूद्र स्त्रियों से उत्पन्न संतानें वैश्य समझी जाती थीं और उन्हें वही अधिकार प्राप्त थे।

मनु ने जो परिवर्तन किए, वह हिन्दुओं के मौलिक आदर्शों के विरुद्ध थे। पहली बात तो यह है कि यह हिन्दुओं के क्षेत्र-क्षेत्रज विधान का ही विरोध करता है। इस विधान के अनुसार, जो संतान सम्पत्ति अधिकार से संबंधित है, कहा गया है कि संतान का अधिकारी मात्र औपचारिक पति है वास्तविक पिता नहीं। वह इस बात को ऐसे कहते हैं1 :

इस प्रकार वे पुरुष, जिनका किसी स्त्री से वैवाहिक संबंध नहीं है, परन्तु किसी ऐसी स्त्री के गर्भ में उनका बीज है जो किसी अन्य की पत्नी है तो संतान पर पति का अधिकार होगा। परन्तु वह उससे कोई लाभ नहीं उठा सकता। जब तक क्षेत्र के स्वामी और बीज डालने वाले के बीच कोई सहमति न हो। स्पष्ट रूप से जमीन का स्वामी पिता है, क्योंकि भूमि का महत्व बीज से अधिक है।

यही कारण है कि बारह प्रकार के पुत्रों का अधिकार नियत किया गया।

यह परिवर्तन निर्धारित नियम के विरुद्ध था। हिंदू परिवार रोम की भांति पितृ सत्तात्मक हैं। दोनों समाजों में पिता को परिवार के सदस्यों पर अधिकार है। मनु इससे अवगत थे और उसकी अधिक दशाओं को स्वीकार कर लिया। हिंदू पिता के अधिकारों की परिभाषा करते हुए मनु कहते हैं:

तीन व्यक्ति, पत्नी, पुत्र और दास सामान्यतः किसी सम्पत्ति के स्वामी नहीं हो सकते। जो सम्पत्ति उन्होंने अर्जित की हो, उसका भी स्वामी वही है जिससे वे सम्बद्ध हैं।

वह परिवार के प्रमुख की है-अर्थात् पिता की। यह नियम भी था कि पिता पुत्र द्वारा अर्जित सम्पत्ति का स्वामी है। पितृत्व सत्तात्मक विधान में परिवर्तन का अर्थ है पिता की निश्चित हानि।

मनु ने पितृ-सावर्ण्य को मातृ-सावर्ण्य में क्यों परिवर्तित किया?

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  1. मयने – हिन्दू ला, पृ. 83