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इक्कीसवीं पहेली – मन्वंतर का सिद्धान्त

ब्राह्मणों का एक सिद्धान्त था कि उनके देश का शासन स्वर्ग से चलता है। मन्वंतर का यही अर्थ प्रतीत होता है।

मन्वंतर का आशय देश की राजनीतिक सत्ता से है। इसके पीछे यह विश्वास है कि निश्चित अवधि के लिए सत्ता एक निगम को सौंप दी जाती है। इस समूह में एक मनु होता है, सप्तऋषि ओर एक इन्द्र होता है जो स्वर्ग में अपने आसनों से प्रजा से पूछे बिना अथवा इच्छा जाने बिना शासन-सूत्र चलाता है। एक समूह के शासन-काल को, जिसमें मनु की सत्ता सर्वोपरि है, मन्वंतर कहते हैं। एक मनु का शासनकाल समाप्त हो जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह क्रम चलता रहता है। युगों की भांति मन्वंतर का भी समय-चक्र है। चौदह मन्वंतरों का एक चक्र होता है। विष्णु पुराण से मन्वंतरों का आभास मिलता है जो इस प्रकार हैः

“तब ब्रह्मा ने सृष्टि-पालन हेतु स्वयं को मनु स्वायंभुव बना लिया। जो स्वयंमेव मौलिक रूप में एक रूप जन्मे, और अपने नारीभाग से उन्होंने शतरूपा को रचा जिसे सृजित प्राणियों की रक्षा हेतु तपस्या द्वारा वर्जित वैवाहिकता के पाप से शुद्ध किया जिसे मनु स्वयंभुव ने अपनी पत्नी बनाया।”

एक क्षण को हम यहां ठहरकर विचार करते हैं, इसके क्या अर्थ हैं? क्या इसका अर्थ यह है कि ब्रह्मा उभयलिंगी थे? क्या इसका अर्थ यह है स्वायंभुव मनु ने अपनी बहन शतरूपा को पत्नी बना लिया? विषणु पुराण के अनुसार यदि यह सही है तो कितना विचित्र है? विष्णु पुराण का आगे कथन है:

“इस युगल से दो पुत्र जन्मे, प्रियव्रत और उत्तानपाद, और दो पुत्रियां जन्मीं, प्रसूति और आकूति जो अत्यन्त लावण्यमयी और गुणवान थीं। प्रसूति का विवाह दक्ष से और आकूति का रुचि प्रजापति से। आकूति से जुड़वा बच्चे उत्पन्न हुए यज्ञ और दक्षिणा

यह 11 पृष्ठों की पाण्डुलिपि हैः अंतिम चार पृष्ठ लेखक के हस्तलिखित हैं। – संपादक

जिन्होंने परस्पर विवाह कर लिया (भाई-बहन के विवाह का एक और उदाहरण)। उनके बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे देवता स्वायंभुव मन्वंतर में यम कहलाए।”

“प्रथम मनु स्वायंभुव था फिर स्वारोचिष। उसके उपरांत क्रमशः औतमी, तामस, रैवत, चाक्षुष, जो तिरोहित हो गए। सातवें वर्तमान मन्वंतर के मनु, सूर्य-पुत्र वैवस्वत हैं।”

विष्णु पुराण कहता है अब मैं स्वारोचिष मनु के पुत्रों, देवताओं और ऋषियों के विषय में बताता हूं। इस काल (द्वितीय मन्वंतर) के देवता थे पारावत और तुषित। उनका इन्द्र था “विपश्चित” उनके सप्तर्षि थे। ऊर्ज, स्तंभ, प्राण, दत्तोली, ऋषभ, निश्चर, और अर्वरीवट। चैत्र और किंपुरुष तथा अन्य मनु के पुत्र थे।

“तीसरे मन्वंतर के मनु थे औतमी। उसके समय के इन्द्र थे सुशांति। देवताओं के नाम हैं: स्वधामा, सत्य, शिव, प्रतर्दन और वसुवृति और प्रत्येक पांच वर्ग के बारह देवता थे। उस समय के सप्तर्षि वशिष्ठ के सात पुत्र, सात ऋषिगण थे और अज, परसु, दिव्य तथा अन्य मनु के पुत्र थे।

चौथे मनु तापस के काल में पूजनीय देवता थे सुरूप, हरि, सत्य और सुधि। प्रत्येक वर्ग में सत्ताईस देवता थे। शिवी उस काल का इन्द्र था। सौ यज्ञ संपन्न करने के कारण उसे शतक्रतु भी कहा जाता है। सप्तऋषि थे ज्योजिर्धाम, पृथु, कव्य, चैत्र, अग्नि, वानक, और पिवर। तामस के बलशाली पुत्र थे। राजा नर, ख्याति, सांथ्य, जनुजंघा आदि।

पांचवें मन्वंतर के मनु रैवत थे। उनका इन्द्र विभु था। देवतागण, जिनमें प्रत्येक के चौदह देवता होते थे, इस प्रकार थे-अमितभास, अभूतरास, वैकुंठगण, सुमेधगण। तत्कालीन सप्तऋषि थे: हिरण्यरोम, वेदश्री, उर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुद्युम्न, पर्जन्य और महामुनि। रैवत के पुत्र इस प्रकार थे- बाल बंधु, सुसंभाव्य, सत्यक तथा अन्य वीर राजा।

ये चार मनु-स्वारोचिष, औतमी, तामस और रैवत प्रियव्रत की संतान थे जिसने विष्णु को अपनी उपासना से प्रसन्न करके अपनी संतति के लिए मन्वंतरों का मनु बनाए जाने का वर प्राप्त कर लिया था।

छठे मन्वंतर का मनु चाक्षुष था। उसका इन्द्र मनोज्व था। उस काल के पांच वर्ग के देवता थे आद्य, प्रस्तुत, भव्य, पृथुग और उदारता की प्रतिमूर्ति लेखगण। उस काल के सप्तर्षि थे- सुमेध, विराज, हाविष्मत, उत्तम, मधु, अभिनमान और सहिष्णु। पृथ्वी के स्वामी चाक्षुष के शक्तिशाली पुत्र थे उरू, पुरु, शतद्युम्न आदि।

वर्तमान सातवें मन्वंतर के मनु अन्त्येष्टि देव, सूर्य की अनुपम संतान वैवस्वत हैं और उनके देवता हैं आदित्य, वसु और रुद्र। उनका इन्द्र पुरन्दर सप्तर्षि है।

वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, और भारद्वाज। वैवस्वत मनु के नौ धर्मनिष्ठ पुत्र हैं राजा इक्ष्वाकु, नाभानिदिष्ट, करुष, पृषध्र और वसुमत।”

अभी सात मन्वंतरों का विवरण दिया गया है जो विष्णु पुराण में उल्लिखित हैं। ये विष्णु पुराण लिखे जाने तक की स्थिति थी। क्या मन्वंतर शासन बाह्य था? इस विषय में ब्राह्मण मौन हैं। परन्तु विष्णु पुराण के लेखक को पता है कि सात मन्वंतर अभी और आने हैं। इनका विवरण इस प्रकार हैः

“विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा सूर्य की पत्नी थी, उसकी तीन संतानें हुई- मनु (वैवस्वत) यम और यमी (अथवा यमुना);अपने पति का तेज झेलने में असमर्थ संज्ञा ने उसे छाया दे दी और स्वयं उपासना के लिए वनों में चली गई। सूर्य ने छाया को अपनी पत्नी संज्ञा जान कर उससे तीन संतान और उत्पन्न कीं। शनिश्चर (शनि), मनु (सावर्णी) और पुत्री ताप्ती (ताप्ती नदी)। छाया को एक बार यम पर क्रोध आ गया। उसने उसे शाप दिया साथ ही उसने यम को और सूर्य को यह भी बता दिया कि वह वास्तविक संज्ञा नहीं है। छाया के यह बताने पर कि उसकी पत्नी जंगलों में चली गई है सूर्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से देखा कि वह घोड़ी रूप में तपस्यारत है (अश्वी), सूर्य ने घोड़े के रूप में पुनर्जन्म ले लिया था और अश्वरूपिणी अपनी पत्नी के पास पहुंच गया। और उससे तीन अन्य संतानें उत्पन्न कीं। दो आश्विन और रैवत थीं। फिर संज्ञा को घर ले गया। विश्वकर्मा ने सूर्य (नक्षत्र) की गहनता कम करने और उसकी दीप्ति घटाने के उद्देश्य से अपनी चक्री पर चढ़ाया और उसे घिस कर आठवां भाग कर दिया क्योंकि इससे अधिक अविभाज्य था। जो दैवी वैष्णव भव्यता सूर्य में थी, वह विश्वकर्मा के घिसने से धरती पर गिरी। शिल्पकार (विश्वकर्मा) ने विष्णु का चक्र, शिव का त्रिशूल, कुबेर का शस्त्र और कार्त्तिकेय का वेलु बनाया और अन्य देवों अन्य देवों के शस्त्रों का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने इन सबका निर्माण सूर्य की तेजोपम किरणों से किया।”

“छाया का पुत्र, जो मनु कहलाता था, उसी वर्ण का होने के कारण उसका दूसरा नाम सावर्णी पड़ा। जैसा कि उसके बड़े भाई मनु वैवस्वत का था। वह आठवें मन्वंतर का मनु है। अब मैं उसका विवरण निम्न बातों के साथ देता हूं। जिस काल में सावर्णी मनु बनेंगे, उनके देवगण होंगे सुतप, अभिताभास और मुख्य तथा प्रत्येक के 21 देवगण होंगे तथा सप्तऋषि इस प्रकार होंगेः दीप्तिमत, गालव, राम, कृप और द्रोणि। मेरा पुत्र व्यास छठा और ऋष्यऋंग सातवां ऋषि होगा। इस युग का इन्द्र बलि होगा। विरोचन का निष्पाप पुत्र विष्णु की कृपा से पाताल का राजा बनेगा। सावर्णी की संतानें होंगी-विराज, अरवरिवास, निर्मोह आदि।

“नौवें मनु दक्ष सावर्णी होंगे। उस समय के तीन प्रकार के देव होंगे-घारस, मारीचिगर्भ और सुधर्मा। प्रत्येक वर्ग में बारह देव होंगे और उनका प्रमुख इन्द्र होगा। अद्भुत सवन, द्युतिमत्, भव्य, वसु, मेधातिथी, ज्योतिषान और सत्य, ये सप्तऋषि होंगे, धृतिकेतु, दृप्तिकेतु, पंचहस्त, निर्मय, पृथुसर्व आदि मनु के पुत्र होंगे।

“दसवें मन्वंतर में मनु ब्रह्म सावर्णी होंगे;उनके देवगण होंगे सुधामा, विरुद, शंतसांख्य उनका इन्द्र बलशाली शांति होगा;सप्तऋषि होंगे-हविष्मान, सुकृति, सत्य;अप्पममूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौज और सत्यकेतु। मनु के दस पुत्र होंगे- सुक्षेत्र, उत्तौज, हरिषेण आदि।”

“ग्यारहवें मन्वतर का मनु धर्मसावर्णी होंगे। उसके समय देव होंगे विहंगम, कामागम और निर्माणरति और प्रत्येक की संख्या तीस होगी। इस मन्वंतर का इन्द्र वृष होगा। सप्तर्षि होंगे निश्चर, अग्नितेज, वपुस्मान, विष्णु, आरुणी, हविष्मान और अनघ। पृथ्वीपालक मनु के पुत्र होंगे सावर्ग, सर्वधर्म, देवानिक और अन्य।”

“बारहवें मन्वंतर में रुद्र-सावर्णी का पुत्र मनु होगा;उस काल का इन्द्र होगा ऋतुधामा, देवों के नाम होंगे हरित, लोहित, सुमानस और सुकर्मा। प्रत्येक की संख्या पन्द्रह होगी। सप्तर्षि इस प्रकार होंगे: तपस्वी सुतप, तपोमूर्ति, तपोर्ति, तपोधृति, तपोद्युति और तपोधन;और मनु के मेधावी और बलशाली पुत्र होंगे-देव, उपदेव तथा देवश्रेष्ठ आदि।”

“तेरहवें मन्वंतर का मनु रौच्य होगा। देववर्ग होगा- सुधामन, सुधर्मन, और सुकर्मण, उनका इन्द्र दिवसपति होगा। सप्तर्षि होंगे निर्मोह, तत्वदर्शन, निष्प्रकंप, निरुत्सुक धृतिमत, अव्यय और सुतापस तथा त्रिसेन, विचित्र तथा अन्य नृप होंगे।”

“चौदहवें मन्वतर का मनु भौत्य होगा। शुचि उसका इन्द्र होगा। देवताओं के पांच वर्ग होंगे चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, भ्रजीराज, और वैवृद्ध। सप्तर्षि इस प्रकार होंगे। अग्निबाहु, शुचि, शिक्रमागध, ग्रिधृ, युक्त और अजित। मनु के पुत्रों के नाम होंगे उरु, गभीर, गभीरा, बृधन, आदि राजा होंगे और इस धरा के शासक होंगे।”

इस प्रकार की है मन्वंतरों की कहानी। आजकल हम सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की बातें सुनते हैं। ब्राह्मणों का सिद्धान्त इसके ठीक विपरीत है। उनका सिद्धान्त है सर्वहारा पर स्वर्ग में बैठे पिताओं का अधिनायकवाद।

इस प्रकार एक प्रमुख प्रश्न उठता है। एक के पश्चात् एक मनुओं ने किस प्रकार प्रजा पर शासन किया? “प्रजा के लिए उन्होंने कौन से विधान बनाए?” इसका उत्तर केवल मनुस्मृति से ही प्राप्त होता है।

मनुस्मृति के प्रथम अध्याय से यह उत्तर मिलता है:

  1. ऋषिगण मनु के पास गए जो एकाग्रचित्त बैठे थे;उनकी समुचित उपासना करके उन्होंने ऐसा कहाः
  2. देव हमें साररूप में उचित क्रम में चारों (मुख्य) वर्णों और मध्यवर्तियों के लिए पवित्र विधान बताएं।
  3. क्योंकि, हे देव! केवल आपको ज्ञात है कि स्वायंभुव (मनु) ने क्या अनुष्ठान और आत्मा के ज्ञान का उपदेश किया है जो ज्ञान और अनुभव के परे हैं।

मनु उन्हें उत्तर देते हैं:

  1. यह ब्रह्मांड अंधकारमय अदृश्य था। इसका कोई आकार नहीं था। पहचान नहीं थी। न इसे समझा जा सकता था, न इसे जाना जा सकता था क्योंकि यह गहरी निद्रा में सुप्त था।
  2. स्वायंभुव मनु ने सोचा मैं एक से अनेक होऊं। उन्होंने सर्वप्रथम जल की रचना की और उसमें बीज डाल दिया।
  3. वह (बीज) एक स्वर्णिम अण्डज बन गया। दीप्ति में सूर्य के समान इसी अण्डे से वह स्वयं ब्रह्मा जन्मे, समस्त सृष्टि के रचयिता।
  4. तब मैंने सृष्टि रचना के लिए कठोर तप किया। इसके पश्चात् दस महान ऋषियों को बनाया जो सृष्टि के स्वामी थे।
  5. मारीचि, अत्रि, आंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेतस, वशिष्ठ भृगु और नारद को रचा।
  6. परन्तु उसने पवित्र विधान का सम्पादन कर उन्हें दीक्षित किया। स्वयं उन्हें सिखाया, शास्त्रनुसार आरंभ में मात्र मुझे ही, फिर मैंने वे (विधान) मारीचि और अन्य ऋषियों को बताए।
  7. भृगु ये विधान तुम्हें बताएंगे क्योंकि उस ऋषि ने सम्पूर्ण रूप में पूर्णता से मुझसे सीखा है।”

इससे यह प्रकट होता है कि केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायंभुव मनु था। विष्णु पुराण के अनुसार प्रत्येक मन्वंतर का एक मनु है। उन्होंने अपने मन्वंतरों के लिए विधान क्यों नहीं चाहिए? अथवा स्वायंभुव मनु का बनाया विधान शाश्वत है। यदि ऐसा है तो ब्राह्मणों ने अलग मन्वंतर क्यों बनाए?