वेदों के संदर्भ में उपनिषदों की स्थिति क्या है? क्या उनका एक-दूसरे के प्रति सौहार्द है या फिर प्रतिस्पर्धा? सचमुच कोई हिंदू अब यह स्वीकार नहीं करेगा कि वेद और उपनिषद एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं। इसके विपरीत यह अवधारणा है कि उनके बीच कोई प्रतिरोध नहीं है और दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्या यह विश्वास सारगर्भित है?
इस विश्वास का प्रमुख कारण यह तथ्य है कि उपनिषदों का दूसरा नाम वेदांत है। वेदांत के दो अर्थ हैं। एक से परिलक्षित होता है कि वेदों का अंतिम भाग हैं। दूसरा अर्थ – वेदों का सार। वेदांत शब्द उपनिषद् का दूसरा नाम होने के कारण उसके यह अर्थ उपनिषदों ने अंगीकार कर लिए। इसी अर्थ के कारण यह धारणा है
कि वेद और उपनिषदों में कोई खींचातानी नहीं है।
वास्तव में किसी सीमा तक उपनिषदों के लिए यह अर्थ सार्थक है? पहली बात तो यही है कि ‘वेदांत’ शब्द का अर्थ जान लिया जाए। वेदांत का मूल अर्थ क्या था? क्या इसका अर्थ वेदों का अंतिम अंग है?
जैसा कि प्रोफेसर मैक्समूलर1 ने अवलोकन किया कि:
वेदांत एक तकनीकि शब्द है और मूलरूप से इसका अर्थ वेदों का अंतिम अंश नहीं है और न ही वैदिक साहित्य का अंतिम अधयाय है। अपितु वेदों का अंतिम मनोरथ है। तैत्तरीय आरण्यक (सम्पादक राजेन्द्र मित्र- पृ- 820) जैसे ग्रंथों में कुछ ऐसे वाक्यांश हैं, जिनसे भारतीय और यूरोपीय विद्वानों को भ्रांति हुई है कि वेदांत का
सरल सा अर्थ है-वेदों का उपसंहारः ‘‘या वेदादु स्वरः प्रकटो वेदांते का प्रतिष्ठितः
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1- दि उपनिषद् (एस-बी-ई) खंड 1, भूमिका
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15 पृष्ठों की यह टंकित पांडुलिपि लेखक के हाथ से संशोधित है। मूल रूप से इसका शीर्षक ‘‘वेदा वर्सेस उपनिषद’’ था। अंतिम दो परिच्छेद लेखक ने हाथ से जोड़े हैं। – संपादक
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ओम से वेद का आरम्भ होता है और उसी से वेद का समापन होता है। यहां वेदों का जो सीधा अर्थ है वह वेदादू के विपरीत है जैसा कि सायण ने इसका अनुवाद किया है। उसका अनुवाद वेदांत अथवा उपनिषद के रूप में असंभव है। वेदांत दर्शन के रूप में तैत्तरीय आरण्यक पृष्ठ 817 में दिग्दर्शित हुआ है। नारायणिया उपनिषद् के एक मंत्र में, जिसकी आवृति मांडुक्य उपनिषद तीन, 2, 6 में तथा अन्यत्र भी हुई है। ‘वेदांत विज्ञान सुनिश्चितारह’ जो विद्वान वेदांत मर्मज्ञ हैं, उनके अनुसार वह वेदों का उपसंहार नहीं और श्वेताश्वतर उप- 6, 22 वेदांत प्रमाणम गुहयम नहीं, भाष्यकार के मन में यह वेद का उपसंहार नहीं जो कालांतर में बहुवचन के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् भाष्यकार ने कहा हैः
‘‘क्षुरीकोपनिषद, 10 (बिबलि इंड, पृ- 210) पुण्डारिकेति वेदांतेषु निगादयाते,’ वेदांत को छांदोग्य तथा अन्य उपनिषदों में पुण्डरीक कहा गया है परन्तु यह प्रत्येक वेद का अंतिम ग्रंथ नहीं। इस संबंध में गौतम धर्म सूत्र में और स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध है। अध्याय 19 के बारहवें मंत्र में शुद्धीकरण पर गौतम का कथन हैः
‘‘शुद्धीकरण (पाठ) उपनिषद वेदांत संहिता – सभी वेदों के पाठ (हैं)’’ आदि। इससे यह स्पष्ट है कि गौतम के समय उपनिषद और वेद अलग-अलग माने जाते थे और उपनिषद वेदों का अंग नहीं माने जाते थे। हरदत्त ने अपने भाष्य में कहा है ‘‘आरण्यक के वे अंश जो (उपनिषद) नहीं है, वेदांत कहलाते हैं। यह निर्विवाद साक्ष्य है कि उपनिषद वैदिक सिद्धांतों से भिन्न थे। भगवतगीता में वेद के उल्लेख से भी इसी विचार को बल मिलता है। भगवतगीता में वेद शब्द का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। श्री भट्ट1 के अनुसार इस शब्द का प्रयोग इस भाव से किया गया है कि लेखक ने इस आशय से उपनिषद को सम्मिलित नहीं किया है। उपनिषदों की विषयवस्तु भी वेदों से भिन्न हैं। यह दूसरा तर्क है कि उपनिषद वेदों का अंग नहीं है। ‘उपनिषद’ शब्द की व्युत्पत्ति क्या है? यह अस्पष्ट है। अधिकांश यूरोपीय विद्वान उपनषिद् की व्युत्पत्ति ‘‘षद’’ धातु से मानते हैं जिसका अर्थ है ‘‘बैठना’’। इसके पूर्व दो सर्ग ‘‘नि’’ और ‘‘उप’’ हैं जिनमें ‘‘नि’’ का अर्थ है ‘‘नीचे’’ और ‘‘उप’’ का आशय है ‘‘निकट’’। इस प्रकार इसका आशय है समागम अथवा सभा। जिसका तात्पर्य है गुरु के निकट बैठकर उसका उपदेश सुनना। यही कारण है कि त्रिखंडाशेष में उपनिषद की व्याख्या ‘समीप साधना’ अथवा किसीपरन्तु जैसा कि प्रो- मैक्समूलर ने मत व्यक्त किया है, इस व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में दो आपत्तियां हैं। पहली बात तो यह है कि ऐसा लगता है कि ऐसा शब्द वेद के उपनिषद समेत अन्य अंश के लिए प्रयुक्त हुआ होगा तो इसके सीमित अर्थ कैसे किए गए? फिर समागम के रूप में उपनिषद का प्रयोग सार्थक नहीं लगता।
जहां भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है, इसका अर्थ है सिद्धांत अथवा इसका प्रयोग दार्शनिक लेख के रूप में हुआ है। जिसका आशय है गुह्य सिद्धांत। प्रोफेसर मैक्समूलर ने शंकर के अन्य भाष्य का उल्लेख किया है जो तैत्तरीय
उपनिषद 2, 9 के विषय में है। उनके अनुसार उपनिषद से परम आनन्द प्राप्त होता है। इसी कारण उसे उपनिषद कहते हैं। इस संबंध में प्रो- मैक्समूलर कहते हैं :
‘‘आरण्यकों में ऐसी व्युत्पतियों की भरमार है जो वास्तविक नहीं शब्दों के साथ खिलवाड़ है, फिर भी उनका कुछ अर्थ निकल आता है।’’ फिर भी प्रो- मैक्समूलर ‘उपनिषद’ शब्द का मूल ‘षद’ धातु से विनाश के अर्थ में मानते हैं, अर्थात् ऐसा ज्ञान जो मोक्ष के साधन के लिए ब्राह्मणों के ज्ञान से अज्ञान का विनाश करता है। प्रो- मैक्समूलर का कथन है कि भारतीय विद्वान उपनिषद का यही अर्थ निकालने पर सर्वसम्मत है। यदि यह स्वीकार कर लिया जाए कि उपनिषद शब्द का जो अर्थ मैक्समूलर सुझाते हैं वह सही है तब यह एक ऐसा साक्ष्य होगा कि हिंदुओं में भ्रांतियां हैं और वेदों तथा उपनिषदों की विषय-वस्तु एक-दूसरे की पूरक नहीं वरन उनमें विरोधाभास है कि निःसंदेह उपनिषदों की विचार-पद्धति वेदों के प्रतिकूल है। वेदों का खंडन प्रकट करने के लिए उपनिषदों के कुछ उदाहरण पर्याप्त हैं।
मुण्डकोपनिषद का कथन है –
1 सभी दवेताओं में सबसे पहले विश्वनियंता, जगतपालक ब्रह्मा उत्पन्न हएु । उन्होनें अपने ज्येष्ठतम पुत्र अथर्व को ब्रह्मविज्ञान की शिक्षा दी जो समस्त ज्ञान का आधार है। 2- अथर्व ने यह ज्ञान, जो उन्हें ब्रह्मा से मिला था, अंगिस को दिया_ उन्होंने भारद्वाज की सतंति सत्यवाह को समझाया जिन्हानें जिन्होंने किंवदतियों के अनुसार यह ज्ञान अंगिरस को दिया। 3- शौनक पूर्ण शिष्टाचार पूर्वक अंगिरस के पास गए और पूछा- ‘‘हे आदरणीय ऋषि, वह कौन सा साधन है जिससे इस सम्पूर्ण जगत का ज्ञान हो सकात है |’’
4- अंगिरस ने उत्तर दिया, ये दो विधाएं पवित्र विद्याओं में इस प्रकार मानी जाती हैं, एक श्रेष्ठ और दूसरी अश्रेष्ठ। 5- अश्रेष्ठ विद्याएं हैं _ग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, स्वाराघात, आधयात्मिक व्याकरण, भाष्य, पिंगल और खगोल शास्त्र । श्रेष्ठ विद्या अक्षय, अनित्य है, जिसका आशय उपनिषदों से है।
छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार:
(1) ‘‘नारद सनत्कुमार के पास गये और कहा- ‘‘मुझे उपदेश करें’’। नियमानुसार आये हुए नारद से सनत्कुमार ने कहा- तुम जो कुछ जानते हो उसे बतलाते हुए मेरे पास आओ, फिर मैं तुम्हें तुम्हारे ज्ञान से आगे उपदेश करूंगा।’’ (2) ऐसा सुनकर नारद ने कहा, ‘‘मैं ऋग्वेद पढ़ा हूं। यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद भी जानता हूं। सिवाय इनके इतिहास, पुराण रूप पंचमवेद, वेदों का वेद व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, कलानिधि शास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, शिक्षाकल्प, छंद और ब्रह्मविद्या, भूतशास्त्र, धनुर्वेद, ज्योतिषविद्या, गारुड़विद्या, नृत्य संगीतादि विद्या – यह सब मैं जानता हूं। (3) यह सब जानते हुए भी वह मैं केवल शब्दार्थ मात्र ही जानता हूं, आत्मा को मैं नहीं जानता। मैंने आप पूज्यजनों के जैसे महापुरुषों से सुना है। आत्मज्ञानी शोक को पारकर जाता है। मैं तो शोक करता हूं। ऐसे शोकग्रस्त मुझे शोक से पारकर देवें, अर्थात् मुझे अभय प्राप्त करा देवें। ऐसा सुनकर सनत्कुमार ने नारद से कहा- ‘‘अभी तक यह जो कुछ तुम जानते हो, वह नाममात्र ही है’’। (4) क्योंकि ऋग्वेद नाम है यजुर्वेद, सामवेद, चौथा अथर्ववेद, पांचवां वेद इतिहास पुराण, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात ज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, वेद विद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्योतिष, गारुड़, संगीतादि कला और शिल्पशास्त्र – ये सब भी नाम ही हैं। अतः प्रतिमा में विष्णु बुद्धि के समान। तुम नाम की ब्रह्म बुद्धि से उपासना करो। (5) वह जो नाम ब्रह्मा है, ऐसी उपासना करता है, जहां तक नाम की गति है, वहां तक नाम के विषय में उस उपासक की यथेष्ट गति हो जाती है। जो ‘‘यह ब्रह्म है’’ इस प्रकार नाम की उपासना करता है। (नारद ने कहा) भगवान् क्या नाम से बढ़कर भी कोई वस्तु है। सनत्कुमार ने कहा नाम से भी बढ़कर वस्तु है। तब नारद ने कहा भगवन्, मुझे उसका ही उपदेश करें।’’
बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार:
इस सुषुप्तावस्था में पिता अपिता हो जाता है, माता अमाता हो जाती है अर्थात् जन्य जनक भाव संबंध नहीं रह जाता। लोक अलोक हो जाते हैं। देव अदेव और वेद अवेद हो जाते हैं, अर्थात् सभी साध्य-साधन का अभाव हो जाता है। यहां पर चोर अचोर हो जाता है। भ्रूण हत्यारा अभ्रूण हो जाता है। चांडाल-चांडाल नहीं रह जाता है। पुल्कस अपौल्कस हो जाता है। शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पनन संतान को चाण्डाल कहते हैं। शूद्रा में ब्राह्मण से उत्पनन संतान को निषाद कहते हैं एवं निषाद से क्षत्रिय में उत्पन्न संतान को पुल्कस कहते हैं। परिव्राजक अपरिव्राजक और वानप्रस्थी अतापसहो जाता है, अर्थात् किसी वर्णाश्रम धर्म की या पुण्य-पाप की प्रतीति नहीं होती। उस समय यह पुरुष पुण्य से असंबद्ध तथा पास से भी संबंध रहित हो जाता है।
किंबहुनाः- उस अवस्था में हृदयस्थ समस्त शोकों को पार कर जाता है।
कठोपनिषद का मत निम्न प्रकार से है:
आत्मा उपदेश से प्राप्त नहीं। न ही ज्ञान से, न पठन से। वह उसी को प्राप्त होती है जिसे वह चाहे। आत्मा उसी शरीर में वास करती है जिसे वह चुन लेती है। यद्यपि आत्मा का ज्ञान कठिन है तथापि समुचित साधनों से उसे जाना जा सकता है। वह (लेखक) कहता है, इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे न तो उपदेश से ना ही कई वेदों के ज्ञान से न बुद्धि से न पुस्तकों के रखने से ना ही मात्र पाठन से। फिर वह कैसे लभ्य हैं? वह यह घोषित करता है। उपनिषदों में कितनी प्रतिकूलता है और इनकी दार्शनिकता कितनी असंगत है, इसका आभास तभी हो सकता है जब कोई हिंदुओं की विवाह-पद्धति अनुलोम और प्रतिलोम शब्दों का उत्पत्ति समझेगा। उसकी उत्पत्ति के विषय में काणे1 का कथन है-
अनुलोम और प्रतिलोम (विवाह की परम्परा) ये दोनों वैदिक साहित्य में दुर्लभ हैं। बृहदारण्यक उपनिषद (2,1-5) और कौषीतकि (4,8) में प्रतिलोम शब्द का प्रयोग उस स्थिति के लिए किया गया है, जब कोई ब्राह्मण, ब्राह्मण के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय के पास जाए। अनुलोम का अर्थ है, शास्त्रनुसार सहज परम्परा से कार्य सम्पन्न होगा, प्रतिलोम का अर्थ है सहज परम्परा के विपरीत। श्री काणे के कथनानुसार प्रतिलोम की परिभाषा के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि उपनिषदों को वैदिक साहित्य की मान्यता नहीं है। उन्हें यदि तिरस्कृत भी नहीं किया गया है तो भी वैदिक ब्राह्मणों ने उनका स्थान तुच्छ रखा है। वह एक और प्रमाण है जो प्रकट करता है कि वेदों और उपनिषदों का संबंध सौहार्दपूर्ण न होकर प्रतिस्पर्धापूर्ण है।’’ उपनिषदों का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणों के प्रति वैदिक ब्राह्मणों के व्यवहार का एक अन्य उदाहरण भी है। बौधायन ने अपने धर्मसूत्र (8-3) में कहा है। श्राद्ध क्रिया के लिए यदि कोई अन्य ब्राह्मण उपलब्ध न हो तो किसी रहस्यविद् को बुलाया जाए। रहस्यविद् का अर्थ है उपनिषद पाठी ब्राह्मण।
यह धारणा कि वेदों और उपनिषदों के संबंध सौहार्दपूर्ण हैं, वास्तव में एक पहेली है।
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1- हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र, खंड 2, भाग 1, पृ- 52