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अध्याय – 1 – वीज़ा की प्रतीक्षा: आत्मकथात्मक नोट्स

आरम्भ में हमारा परिवार बम्बई प्रेसीडेन्सी के रत्नागिरी जिले के दपोली तालुका में रहता था। ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन आरम्भ होते ही मेरे पूर्वज अपने पैतृक पेशे को छोड़कर कम्पनी की फौज में नौकरी करने लगे। मेरे पिताजी ने भी पारिवारिक परम्परा का पालन किया और सेना में नौकरी करते हुए वे एक अधिकारी के पद पर पहुंचे और सूबेदार के रूप में सेवानिवृत्त हुए। मेरे पिता सेवानिवृत्ति के पश्चात् अपने परिवार को लेकर दपोली पहुंचे जहां वह बसना चाहते थे। लेकिन कुछ कारणों से उन्होंने अपना विचार बदल दिया। हमारा परिवार दपोली से सतारा पहुंचा जहां हम 1904 तक रहे। पहली घटना जो मुझे याद है और जिसका मैं उल्लेख कर रहा हूँ वह लगभग 1901 में घटी जब हम सतारा में थे। मेरी मां तब मर चुकी थीं। मेरे पिता दूर सतारा जिले के खातव तालुका के कोरेगांव (गोरेगाँव) में खजांची थे जहाँ बम्बई की सरकार ने सूखे से पीड़ित लोगों को, जो भूख के कारण मर रहे थे, रोजगार देने के उद्देश्य से तालाब खोदने का काम आरम्भ कर रखा था। जब मेरे पिता कोरेगाँव गए तो वह मुझे मेरे भाई, जो मुझसे बड़ा था, और मेरी बड़ी बहन  मर चुकी थीं, के दो बच्चों को मेरी चाची और कुछ दयालु पड़ोसियों की देखरेख में छोड़ गए। मैं जानता हूँ कि मेरी चाची बहुत दयालु थीं लेकिन वह हमारी कोई सहायता नहीं कर सकती थीं वे बौनी थीं और उनकी टाँगों में कुछ खराबी थी जिससे वह बिना किसी की सहायता के चल-फिर नहीं सकती थीं। उन्हें अक्सर उठाना पड़ता था। मेरी बहनें थीं। वे शादीशुदा थीं और अपने परिवार के साथ दूर रहती थीं। अपना खाना बनाना हमारे लिए समस्या बन गया था। खासतौर से इसलिए कि हमारी चाची असहाय होने के कारण यह काम नहीं कर सकती थीं। हम चार बच्चे विद्यालय जाने वाले थे और हम अपना खाना भी स्वयं बनाते थे। हम रोटी नहीं बना सकते थे। इसलिए हम पुलाव पर गुज़ारा करते थे जिसे बनाना हमारे लिए आसान था, क्योंकि उसमें केवल चावल और माँस को ही मिलाना पड़ता था।

खजांची होने के कारण हमारे पिता हमारे पास सतारा आने के लिए अपना कार्यालय नहीं छोड़ सकते थे। अतः उन्होंने हमें कोरेगाँव आने और गर्मी की छुट्टियाँ वहीं उनके साथ बिताने के लिए लिखा। हम बच्चों को इस पर बड़ी उत्सुकता हुई क्योंकि हमने तब तक रेलवे स्टेशन नहीं देखा था।

बड़ी तैयारियाँ की गईं। यात्र के लिए अंग्रेजनुमा चमकीली सितारों वाली टोपियां, नए जूते, नई रेशमी किनारों की धोती दे दी गई। रास्ते की सम्पूर्ण जानकारी पिताजी ने दे दी थी और उन्होंने हमें यह सूचित करने के लिए लिखा था कि हम किस तरह चलेंगे ताकि वह स्टेशन अपने चपरासी को भेज सकें, जो हमें मिले और कोरेगाँव ले जाए। जैसा कि पिताजी चाहते थे, मैं, मेरा भाई और मेरी बहन का एक लड़का सतारा से चल पड़े और अपनी चाची को पड़ोसियों की देखरेख में छोड़ दिया जिन्होंने उनकी देखभाल करने का वादा किया। हमारे स्थान से स्टेशन 10 मील दूर था और हमें स्टेशन ले जाने के लिए एक ताँगा किराए पर लिया गया। हमने विशेष रूप से इस अवसर के लिए बनाए गए कपड़े पहने हुए थे और खुशी से हमने घर छोड़ा। लेकिन जिस समय हमने घर छोड़ा हमारी चाची दुःखी थीं।

हम स्टेशन पहुँचे तो मेरे भाई ने टिकटें खरीदीं और मुझे तथा मेरी बहन के लड़के को दो-दो आने जेबखर्च के लिए दिए ताकि हम जैसे चाहें उन्हें खर्च कर सकें। हम तुरन्त उछलने-कूदने लगे और एक तरफ लेमन की बोतल का ऑर्डर दे दिया। थोड़ी देर में सीटी बजाती हुई गाड़ी आ गई और हम पीछे न रह जाएं, इस डर से जल्दी ही गाड़ी में चढ़ गए। हमें मसूर में गाड़ी से उतरने के लिए कहा गया था जो कोरेगांव से सबसे निकट का स्टेशन था।

गाड़ी मसूर में शाम को 5 बजे पहुँची और हम अपने सामान के साथ उतर गए। कुछ ही मिनटों में जो यात्री गाड़ी से उतरे थे अपने-अपने गंतव्य स्थान को चले गए। हम चार बच्चे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर रह गए और अपने पिता या उनके नौकर को, जिसको उन्होंने भेजने का वचन दिया था, देखने लगे। बहुत देर तक हमने प्रतीक्षा की लेकिन वहाँ कोई नहीं आया। एक घंटा बीत गया और स्टेशन मास्टर पूछने के लिए आया। उन्होंने हमसे हमारी टिकटें मांगी हमने अपनी टिकटें उनको दिखा दीं। उन्होंने हमसे पूछा कि हम क्यों रुके हैं। हमने उनसे कहा कि हमें कोरेगाँव जाना था और हम अपने पिताजी या उनके नौकर के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन अभी तक कोई नहीं आया है और अब हम कोरेगाँव कैसे पहुँचें। हमने अच्छे कपड़े पहने थे। हमारे कपड़ों और बातचीत से कोई यह नहीं पहचान सकता था कि हम अछूत हैं। स्टेशन मास्टर को विश्वास था कि हम ब्राह्मण बच्चे हैं और वह हमें इस दशा में देखकर द्रवित हुआ। जैसा कि हिन्दुओं में आमतौर पर होता है, स्टेशन मास्टर ने पूछा कि हम कौन हैं। एक भी क्षण सोचे बिना मैंने कहा कि हम महार हैं। महार एक ऐसी जाति है जो बम्बई प्रेसीडेन्सी में अछूत मानी जाती है। उसे अचम्भा हुआ। उसका चेहरा अचानक बदल गया। हम देख रहे थे कि वह दुःखी था। जैसे ही उसने मेरा उत्तर सुना वह अपने कमरे में चला गया और हम वहीं खड़े रहे जहां खड़े थे। पंद्रह-बीस मिनट गुज़रे, सूर्य लगभग छिप रहा था। पिताजी नहीं आए थे और न ही उन्होंने नौकर को भेजा था और अब स्टेशन मास्टर भी हमको छोड़कर चला गया था। हम पूरी तरह परेशान थे। जो खुशी और प्रसन्नता हमने यात्र आरम्भ करने पर महसूस की थी वह खत्म हो गई थी और अब हम उदास हो गए थे। आधे घंटे के पश्चात् स्टेशन मास्टर लौटा और उसने हमसे पूछा कि हम क्या करना चाहते हैं। हमने कहा कि यदि हमको कोई बैलगाड़ी किराए पर मिल सके तो हम कोरेगाँव चले जाएंगे और यदि यह बहुत दूर नहीं है तो हम तुरंत चलना चाहेंगे। वहां बहुत-सी बैलगाड़ियाँ किराए के लिए खड़ी थीं। लेकिन गाड़ी वालों ने स्टेशन मास्टर को यह बताते हुए सुन लिया था कि हम महार हैं। उनमें से कोई गन्दा होने को तैयार नहीं था और अछूत वर्गों के बच्चों को ले जाकर अपनी प्रतिष्ठा कम नहीं करना चाहता था। हम दोगुना किराया देने को तैयार थे। लेकिन हमने देखा कि पैसा कुछ नहीं करता। स्टेशन मास्टर जो हमारी ओर से सौदा कर रहा था चुपचाप खड़ा देख रहा था कि क्या करे। अचानक एक विचार उसके दिमाग में आया और उसने हमसे पूछा, “तुम गाड़ी चला सकते हो?” यह समझकर कि वह हमारी कठिनाइयों का हल ढूंढ रहा है, हम बोल उठे “हाँ” हम चला सकते हैं। हमारा उत्तर सुनकर वह चला गया और हमारी ओर से प्रस्ताव किया कि हम गाड़ीवान को दोगुना किराया देंगे और बैलगाड़ी स्वयं चलाएंगे। गाड़ीवान को हमारे साथ केवल पैदल चलना होगा। एक गाड़ीवान तैयार हो गया क्योंकि इस प्रकार उसे किराया भी मिल गया और वह गन्दगी से भी बच गया।

जब हम चलने को तैयार थे तो शाम के करीब 6:30 बजे थे। लेकिन हम स्टेशन छोड़ने के लिए उस समय तक तैयार नहीं थे जब तक यह विश्वास न दिला दिया जाए कि हम कोरेगाँव अंधेरा होने से पूर्व पहुँच जाएंगे। अतः हमने गाड़ीवान से पूछा कि कोरेगाँव यहाँ से कितनी दूर है और वहां पहुंचने में कितना समय लगेगा। उसने हमें विश्वास दिलाया कि कोरेगाँव पहुंचने में तीन घंटे से ज्यादा नहीं लगेंगे। उसके शब्दों पर विश्वास करके, हमने अपना सामान गाड़ी में रख दिया। स्टेशन मास्टर को धन्यवाद दिया और गाड़ी में बैठ गए। हम में से एक ने बैलों की लगाम पकड़ी और गाड़ी चल दी – गाड़ीवान गाड़ी के साथ चल रहा था।

स्टेशन से थोड़ी दूर पर एक नदी बहती थी जो बिल्कुल सूखी थी। कुछ ही स्थानों पर गड्ढे थे जिसमें पानी भरा था। गाड़ी वाले ने प्रस्ताव किया कि हम वहां ठहर कर अपना खाना खा लें क्योंकि फिर कहीं पानी नहीं मिलेगा। हम सहमत हो गए। उसने हमें कुछ किराया देने के लिए कहा जिससे वह गाँव में जाकर कुछ खा सके। मेरे भाई ने कुछ पैसे उसे दिए और शीघ्र लौटने का वायदा करके वह चला गया। हम बहुत भूखे थे और कुछ खाने का अवसर पाकर बहुत प्रसन्न हुए। मेरी चाची ने पड़ोस की औरतों से कुछ अच्छे-अच्छे पकवान रास्ते में खाने के लिए हमारे लिए तैयार करवा लिए थे। हमने टिफिन खोला और खाना आरम्भ किया। हमें बर्तन धोने के लिए पानी की आवश्यकता थी। हममें से एक पास की नदी के गड्ढे से पानी लेने गया लेकिन वह पीने लायक पानी नहीं था। वह कीचड़ और गाय भैंस के पेशाब और गोबर का मिश्रण था, जो वहाँ पानी पीने आते थे। वास्तव में वह पानी मनुष्यों के प्रयोग के लिए नहीं था। पानी की दुर्गंध इतनी अधिक थी कि हम उसे पी नहीं सकते थे। अतः संतुष्ट होने से पूर्व ही हमने अपना खाना बंद कर दिया और गाड़ीवान की प्रतीक्षा करने लगे। वह बहुत दूर तक नहीं आया और हम जो कर सकते वह यह था कि उसे चारों ओर देखते रहे। अन्त में वह आया और हमने यात्र आरम्भ कर दी। चार-पांच मील तक हमने गाड़ी चलाई और वह पैदल चलता रहा। फिर वह अचानक उछलकर गाड़ी पर बैठ गया और लगाम अपने हाथ में ले ली। हमें गाड़ीवान के इस आचरण पर बड़ा आश्चर्य हुआ। पहले तो उसने गन्दा होने के डर से हमें गाड़ी देने से इन्कार कर दिया था और अब सभी धार्मिक संकोच त्याग कर उसी गाड़ी में हमारे साथ बैठने को तैयार हो गया किन्तु हमने इस बारे में उससे कोई प्रश्न करने की हिम्मत नहीं की। हम जल्दी अपनी मंज़िल गोरेगाँव पहुँचने के लिए उत्सुक थे। हम चाहते थे कि गाड़ी चलती रहे। लेकिन शीघ्र ही हमारे चारों ओर अंधेरा छा गया। अंधेरे को दूर करने के लिए कोई रोशनी नहीं थी। कोई स्त्री, पुरुष या पशु चलता दिखाई नहीं दिया जिससे हमें महसूस हो कि हम उनके बीच चल रहे हैं। हमें एकांत में डर लगने गला जिसने हमें चारों ओर से घेर लिया था। हमारी चिन्ता बढ़ रही थी। हमने हिम्मत से काम लिया। हम मसूर से बहुत दूर आ चुके थे। कोई तीन घंटे से अधिक यात्र कर चुके थे। लेकिन गोरेगाँव का कोई संकेत नहीं था। हममें एक विचित्र विचार उत्पन्न हुआ। हमें संदेह होने लगा कि गाड़ीवान विश्वासघात करना चाहता है। वह हमें मारने के इरादे से किसी एकान्त स्थान पर ले जा रहा है। हमारे पास सोने के बहुत से जेवरात थे, जिससे हमारी आशंका को बल मिला। हमने उससे पूछा कि गोरेगाँव कितना दूर है। वहाँ पहुँचने में देर क्यों हो रही है। वह कहता रहा, बहुत दूर नहीं है, हम वहाँ शीघ्र पहुँच जाएंगे। जब रात के लगभग 10 बज गए और हमें गोरेगाँव का कोई निशान दिखाई नहीं दिया तो हम बच्चों ने चिल्लाना और बुरा-भला सुनाना शुरू कर दिया। हमारा रोना-चिल्लाना देर तक चलता रहा। गाड़ीवान ने कोई उत्तर नहीं दिया। अचानक हमने थोड़ी दूरी पर दीपक जलता देखा। गाड़ीवान ने कहा, “क्या तुम्हें वह रोशनी दिख रही है? वह चुंगी कलक्टर की रोशनी है। हम वहाँ रात को आराम करेंगे।” हमने कुछ राहत महसूस की और चिल्लाना बन्द कर दिया। रोशनी दूर थी। हम उस तक कभी पहुंचते दिखाई नहीं दे रहे थे। चुंगी-कलक्टर की कुटीर तक पहुँचने में हमें दो घंटे लगे। समय के अन्तराल में हमारी चिन्ता और बढ़ गई और हम गाड़ीवान से तरह-तरह के प्रश्न पूछते रहे, जैसे कि वहां पहुँचने में देर क्यों हो रही है, क्या हम उसी सड़क पर जा रहे हैं, इत्यादि।

अन्ततः आधी रात गाड़ी चुंगी-कलक्टर की कुटीर पर पहुँची। यह एक पहाड़ी के नीचे लेकिन पहाड़ी की दूसरी ओर स्थित थी। जब हम वहां पहुंचे तो हमने बहुत-सी बैलगाड़ियाँ वहाँ देखीं। ये सब वहाँ रात को आराम करने के लिए रुकी थीं। हमें बहुत भूख लगी थी और हम भोजन करना चाहते थे। लेकिन यहां भी पानी का प्रश्न था। हमने अपने गाड़ीवान से कहा क्या पानी मिल सकता है? उसने हमें चेतावनी दी कि चुंगी-कलक्टर हिन्दू था यदि तुमने सत्य कहा कि हम महार हैं तो यहाँ पानी नहीं मिल सकेगा। उसने कहा, “तुम कहना हम मुसलमान हैं और अपना भाग्य आजमाओ।” उसकी सलाह पर मैं चुंगी-कलक्टर की कुटीर में गया और उससे कहा आप हमें कुछ पानी देंगे। “तुम कौन हो?” उसने पूछा। मैंने उत्तर दिया कि हम मुसलमान हैं। मैंने उससे उर्दू  में बातचीत की, जो मैं बहुत अच्छी तरह जानता था, ताकि मेरे मुसलमान होने में कोई संदेह न हो। लेकिन यह चाल कामयाब नहीं हुई और उसने कड़े रुख में उत्तर दिया “तुम्हारे लिए पानी किसने रखा है। पानी ऊपर पहाड़ी पर है यदि तुम चाहो तो जाकर ले आओ, मेरे पास कोई पानी नहीं है।” इस प्रकार उसने मुझे टाल दिया। मैं गाड़ी की ओर लौट आया और उसका उत्तर भाई को बता दिया। मैं नहीं जानता कि मेरे भाई ने कैसा महसूस किया। उसने हमें सिर्फ सो जाने को कहा।

बैलगाड़ी के जुए से खोल दिए गए थे और गाड़ी ज़मीन पर टेक दी गई थी। हमने अपने बिस्तर गाड़ी में नीचे बने तख्ते पर बिछा दिए और आराम के लिए लेट गए। चूँकि अब हम सुरक्षित स्थान पर पहुँच गए थे, जो कुछ हुआ हमने महसूस नहीं किया। लेकिन हमारा दिमाग नवीनतम घटना की ओर चला ही गया। हमारे पास बहुत खाना था। हमारे अन्दर भूख की अग्नि जल रही थी। यह सब होते हुए भी हमें खाना खाए बिना सोना पड़ रहा था क्योंकि हमें पानी नहीं मिला और पानी इसलिए नहीं मिला कि हम अछूत थे। यह विचार हमारे मन में आया। मैंने कहा, हम सुरक्षित स्थान पर आ गए हैं। मेरे बड़े भाई को कुछ भ्रान्ति हुई। उसने कहा कि हम चारों के लिए सो जाना विवेकपूर्ण नहीं है। कुछ भी हो सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि एक समय में दो को सोना चाहिए और दो को पहरा देना चाहिए। इस प्रकार हमने पहाड़ी के नीचे रात बिताई।

प्रातः 5 बजे हमारा गाड़ीवान आया और सुझाव दिया कि हमें गोरेगाँव के लिए चल देना चाहिए। हम लोगों ने साफ मना कर दिया। हमने उससे कहा कि हम आठ बजे से पहले नहीं चलेंगे। हम कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे। उसने कुछ नहीं कहा। इस प्रकार हमने 6 बजे चलना शुरू किया और गोरेगाँव11 बजे पहुंचे। मेरे पिताजी हमें देखकर हैरान हुए और कहा कि उन्हें हमारे आने की सूचना नहीं मिली है। हमने कहा कि सूचना तो दी थी। उन्होंने इस तथ्य से इन्कार कर दिया। बाद में पता लगा कि मेरे पिताजी के नौकर की गलती थी। उसने हमारा पत्र प्राप्त कर लिया था लेकिन पिताजी को नहीं दिया था।

यह घटना मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। जिस समय घटना हुई मैं नौ वर्ष का बालक था। लेकिन इसने मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी। यह घटना होने से पूर्व मैं जानता था कि मैं एक अछूत हूं और अछूतों को कुछ अपमान और भेदभाव सहन करने पड़ते हैं। उदाहरण के तौर पर मैं जानता था कि मैं अपनी कक्षा के छात्रों के बीच अपने क्रम के अनुसार नहीं बैठ सकता था, अपितु मुझे स्वतः एक कोने में बैठना होता था। मैं जानता था कि स्कूल की सफाई करने के लिए रखा नौकर मेरे उस टाट को नहीं छुएगा जिसका मैं प्रयोग करता हूं। मुझे टाट का टुकड़ा शाम को अपने साथ ले जाना होता था और उसके अगले दिन प्रातः अपने साथ लाना होता था। स्कूल में सवर्णों के बच्चे प्यास लगने पर नल से पानी लेकर प्यास बुझा सकते थे। इसके लिए उन्हें केवल अध्यापक की इजाजत लेनी होती थी। मेरी स्थिति अलग थी। मैं नल को छू नहीं सकता था और जब तक इसे कोई सवर्ण व्यक्ति खोलता नहीं था, मैं अपनी प्यास नहीं बुझा सकता था। मेरे मामले में अध्यापक की अनुमति लेना काफी नहीं था। स्कूल के चपरासी की उपस्थिति आवश्यक थी क्योंकि वही एक ऐसा आदमी था जिसे कक्षा-अध्यापक इस काम के लिए इस्तेमाल कर सकता था। यदि चपरासी उपलब्ध नहीं होता था, तो मुझे बिना पानी के रहना पड़ता। इस स्थिति को संक्षेप में इस प्रकार बयान किया जा सकता है – चपरासी नहीं तो पानी नहीं। मैं जानता हूँ कि घर में कपड़े धोने का काम मेरी बहनें करती थीं। ऐसी बात नहीं है कि सतारा में कोई धोबी नहीं था। ऐसी बात भी नहीं कि हम धोबी को पैसे नहीं दे सकते थे। मेरी बहनें इसलिए कपड़े धोती थीं कि हम अछूत थे और कोई धोबी किसी अछूत के कपड़े नहीं धोता था। मेरे तथा अन्य लोगों के बाल काटने या हजामत बनाने का काम मेरी बड़ी बहन करती थी जो हामरे बाल काटते-काटते बाल काटने में माहिर हो गई थी। इसका कारण यह नहीं था कि सतारा में कोई नाई नहीं था और न ही इसका यह कारण था कि हम नाई को पैसे नहीं दे सकते थे। हजामत बनाने और बाल काटने का काम मेरी बहन इसलिए करती थी कि हम अछूत थे और कोई नाई अछूत के बाल काटने को तैयार नहीं था। यह सब जानते थे। इस घटना से मुझे इतना अधिक धक्का लगा जितना पहले कभी नहीं लगा था और इससे पहले मैं छुआछूत को अन्य सवर्णों और अछूतों की तरह एक आम बात समझता था। लेकिन इस घटना ने मुझे छुआछूत के बारे में सोचने के लिए बाध्य किया।