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8. हिंदू समाज के आचार-विचार

इकसठ पृष्ठों की टाइप की हुई मूल अंग्रेजी की पांडुलिपि की उपलब्ध

दूसरी प्रति में डॉ- अम्बेडकर द्वारा स्वयं जो शुद्धियां और संशोधन किए गए

हैं, उन सभी को अंग्रेजी प्रकाशन और प्रस्तुत अध्याय में शामिल कर लिया

गया है। ‘मनुस्मृति और दि गोस्पल ऑफ काउंटर रिवोल्यूशन’ शीर्षक से

बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को जो अलग

से फाइल मिली, उसमें ‘मनुस्मृति’ पर विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत कुछ

टिप्पणियां लिखी मिली थीं। ये सभी टिप्पणियां ‘दि मोरल्स ऑफ दि हाउस’

(हिंदू समाज के आचार-विचार) शीर्षक निबंध में शामिल की गई मिली हैं।

उन टिप्पणियों को अलग से मुद्रित करना पुनरावृत्ति मात्र लगता है। इसलिए

उक्त टिप्पणियों को अलग से मुद्रित नहीं किया गया है – संपादक

I

हिंदुओं के आचार-विचार और धार्मिक सिद्धांत स्मृतियों द्वारा निर्धारित हैं। ये स्मृतियां

हिंदुओं के पवित्र साहित्य का एक अंग है। अगर हम हिंदुओं की नैतिकता और उनके

धर्म को समझना चाहते हैं तब हमें स्मृतियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। स्मृतियों

की संख्या कुछ कम नहीं हैं। साधारणतः अनुमान है कि उनकी कुल संख्या 108 है।

स्मृतियों की इतनी बड़ी संख्या हमारी समस्या के समाधान में कोई कठिनाई नहीं पैदा

कर सकती। इसका कारण यह है कि हालांकि स्मृतियां अनेक हैं, तो भी वे मूलतः

एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं। इनमें इतनी ज्यादा समानता है कि कभी-कभी इनको पढ़ना

नीरस लगने लगता है। इसका स्रोत एक ही है। यह स्रोत है मनुस्मृति जो ‘मानव धर्म

शास्त्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अन्य स्मृतियां मनुस्मृति की सटीक पुनरावृत्ति हैं। इसलिए

हिंदुओं के आचार-विचार और धार्मिक संकल्पनाओं के विषय में पर्याप्त अवधारणा के

लिए मनुस्मृति का अध्ययन ही यथेष्ट है।

हम कह सकते हैं कि मनुस्मृति नियमों की एक संहिता है। यह कथन अन्य स्मृतियों

के बारे में भी सच है। यह न तो नीतिशास्त्र है और न ही कोई धार्मिक ग्रंथ है। नियमों

की किसी भी संहिता को नीतिशास्त्र या किसी धार्मिक ग्रंथ के रूप में ग्रहण करना

नीतिशास्त्र, धर्म और नियम, इन तीनों को आपस में गîóमîó कर देना है।

पहली बात तो यह है कि धर्म को कानून से अलग करना आधुनिक युग की देन है।

प्राचीन समाज में कानून और धर्म एक होते थे। प्रो. मैक्समूलर1 का कहना है कि हालांकि-

फ्कानून स्वाभाविक रूप से समाज का आधार और ऐसा सूत्र प्रतीत होता है जो

किसी राष्ट्र को आपस में बांधे रखता है। जो लोग और गहराई से विचार करते हैं,

उन्हें यह बात जन्दी ही समझ में आ जाती है कि कानून, कम से कम प्राचीन कानून

को अधिकार, शक्ति और जीवन धर्म से ही प्राप्त होती है… यह विश्वास अनेक

राष्ट्रों की प्राचीन परंपराओं में मिलता है कि साधारण मनुष्यों की अपेक्षा विधिकर्ता

का देवी-देवताओं से अधिक घनिष्ठ संबंध था। – डिबयोडोरस साइकुलस के एक

प्रसिद्ध अनुच्छेद के अनुसार मिस्रवासियों का यह विश्वास था कि उनके कानून

हर्मिस द्वारा मेनबिस को बताए गए थे, क्रेताउस का विश्वास था कि मिनोस को

अपने कानून जेऊस से प्राप्त हुए, लैकेदामोनियन का विश्वास था कि लाइकुर्गुस को

अपने कानून अपोलोन से उपलब्ध हुए थे। एरियनों के मतानुसार उनके विधिकर्ता

जरथूस्त्र को अपने कानून पवित्र आत्मा से प्राप्त हुए। स्टो के अनुसार जमोलिक्सिस

को अपने कानून देवी हेस्तिया से प्राप्त हुए और यहूदियों का मत है कि मोजेस को

अपने कानून प्रभु इयास से प्राप्त हुए।”

सर हेनरी मेन्स2 ने यह बात जितना जोर देकर कही, उतना शायद ही किसी और

ने कहा हो, कि प्राचीन काल में धर्म दैवी शक्ति के रूप में जीवन के प्रत्येक पक्ष

और प्रत्येक सामाजिक संस्था में अंतर्निहित था और उसकी पुष्टि करता था। वह धर्म

के विषय में कहते हैं:

“वह एक अलौकिक सर्वोच्च सत्ता थी, जिसका उद्देश्य उस समय की सभी

प्रधान संस्थाओं, राज्य, जाति और परिवार को पवित्र रखना तथा एक-दूसरे के साथ

परस्पर जोड़े रखना था।’’

कानून को इस अलौकिक सर्वोच्च सत्ता से छुटकारा पाना बहुत दिनों तक संभव

नहीं हो सका, लेकिन बाद में इसका संबंध धर्म से बिल्कुल टूट गया। फिर भी उसमें

बहुत से ऐसे चिह्न अभी भी मिलते हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि मानव इतिहास

के आरंभिक दिनों में इसका धर्म के साथ कितना अधिक संबंध था।

  1. साइंस ऑफ रिलीजन, पृ. 150.51
  2. एनसिएंट लॉ, पृ. 6

आधुनिक युग में ही धर्म और नैतिकता के बीच भेद किया जाने लगा है। धर्म और

नैतिकता का एक-दूसरे के साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि दोनों को एक-दूसरे से अलग

नहीं किया जा सकता। सदाचार और नैतिकता तो व्यवहार का विषय है। प्रो. जैक्स1 का

जोर देकर कहना है कि नैतिकता की समस्या यही नहीं है कि लोग अच्छाई को समझें,

बल्कि यह है कि लोग अच्छे रहें। यही नहीं कि जो उचित है, उसे वैज्ञानिक आधार दिया

जाए, बल्कि यह है कि जो उचित है, वह किया भी जाए। जो अच्छा है और जो उचित

है, उसकी परिभाषा करना ही सदाचार है। प्रो. जैक्स ठीक ही कहते हैं:

“जब कभी हम सदाचार का अध्ययन उसके व्यवहार पक्ष की अनदेखी कर

करते हैं, तब मुझे यही लगता है कि हम जो कुछ अध्ययन कर रहे हैं, वह सदाचार

नहीं है। जब तक हम व्यवहार के क्षेत्र में नहीं जा पहुंचते, तब तक सदाचार का

प्रश्न ही नहीं होता। संसार में सदाचार विषयक किसी भी सिद्धांत को शुरू करने

से उसका प्रभाव तब तक कुछ भी नहीं होता, जब तक उसका व्यवहार करने के

लिए उसके पीछे कोई प्रबल प्रेरणा नहीं हो। अच्छा जीवन, जैसा कि अरिस्टाटल ने

कहा है, एक बड़ा ही कठिन कार्य है। यह तब भी एक कठिन कार्य है, जब हम

मौजूदा नियमों के अनुसार ही जीवन यापन करते हों। लेकिन जब अच्छे जीवन के

लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मौजूदा मानकों को लांघकर जीवन यापन किया

जाए, तब मुक्ति की अदम्य शक्ति के बिना यह कैसे हो सकता है?”

गलत काम करने की मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति पर सिर्फ इस जानकारी का कोई

प्रभाव नहीं पड़ता कि मनुष्य को सही काम क्यों करना चाहिए – यह उन कठिनाइयों

का समाधान नहीं है जो अच्छे जीवन के रास्ते में आती हैं।

जब तक कोई प्रेरक शक्ति सदाचार के साथ नहीं रहती, तब तक सदाचार निष्क्रिय

रहता है। जो वस्तु सदाचार को प्रेरक शक्ति देती है, वह निस्संदेह धर्म है। यह ऊर्जा है

जो प्रो. जैक्स के शब्दों में-

“प्रेरणाओं का सृजन करती है। ये प्रेरणाएं इतनी सबल होती हैं कि उनसे अच्छा

जीवन व्यतीत करने के मार्ग में आने वाली बड़ी-बड़ी दिक्कतें दूर हो जाती हैं चाहे

वे देखने में सरल ही क्यों न हों, और ये इतनी पर्याप्त होती हैं कि जिनसे नैतिक

आदर्श में निरंतर सुधार की प्रक्रिया जारी रहती है।”

प्रेरक बल के रूप में धर्म विभिन्न प्रकार से सदाचार की इच्छा को प्रबल बनाता

है। कभी वह निषेध के रूप में होता है जिसके अधीन मृत्यु के बाद पुरस्कार या दंड

का विधान होता है, कभी प्रभु के संदेश के बतौर यह सदाचार नियमों का निर्माण करता

  1. मोरल्स एंड रिलिजन-हिब्बर्ट जर्नल, खंड 19, पृ. 615.21

है, कभी इन नियमों में पवित्रता का भाव भर देता है कि लोग स्वतः इनका पालन करें।

लेकिन ये सब केवल विभिन्न रूप हैं, जिनमें धर्म के द्वारा पैदा की गई प्रेरणा शक्ति

व्यवहार में सदाचार की भावना बनाए रखती है। धर्म ऊर्जा है, जो सदाचार के चक्र को

घुमाती है।

अगर नैतिकता और सदाचार कर्तव्य हैं, तब निस्संदेह मनुस्मृति नीतिशास्त्र का ग्रंथ

है। जो मनुस्मृति को पढ़ने का कष्ट करेगा, वह यह स्वीकार करेगा कि इस ग्रंथ में

अगर कोई विषय प्रधान है, तो वह कर्तव्यों का है। मनु सर्वप्रथम वह व्यक्ति था जिसने

उन कर्तव्यों को व्यवस्थित और संहिताबद्ध किया, जिन पर आचरण करने के लिए हिंदू

बाध्य थे। वह वर्णाश्रम धर्म और साधारण धर्म में भेद करता है। वर्णाश्रम धर्म विशिष्ट

कर्तव्य हैं जिनका संबंध मनुष्य के जीवन में उसकी अवस्था से है। यह अवस्था उसके

वर्ण या जाति और उसके आश्रम अथवा जीवन की विशिष्ट स्थिति से निर्धारित होती है।

साधारण धर्म वे कर्तव्य हैं जिन्हें आयु, जाति या मत से प्रभावित किसी विशेष समुदाय

या सामाजिक वर्ग या जीवन की किसी विशेष अवस्था या आयु का होने के कारण नहीं,

वरन मनुष्य होने के नाते करने चाहिए। इस संपूर्ण ग्रंथ में कर्तव्यों के अतिरिक्त किसी

और विषय की विवेचना नहीं है।

इस प्रकार मनुस्मृति कानून का ग्रंथ है, जिसमें धर्म और सदाचार को एक में मिला

दिया गया है। चूंकि इसमें मनुष्य के कर्तव्य की विवेचना है, इसलिए यह आचार-शास्त्र

का ग्रंथ है। चूंकि इसमें जाति का विवेचन है जो हिंदू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह

धर्म ग्रंथ है। चूंकि इसमें कर्तव्य न करने पर दंड की व्यवस्था की गई, इसलिए यह

कानून है। इसे ध्यान में रखते हुए अगर हम हिंदुओं के आचार-विचार के आदर्शों और

उनकी धार्मिक संकल्पनाओं को जानने के लिए मनुस्मृति का सहारा लें, तब कोई गलत

बात नहीं होगी।

यह कहना कि मनुस्मृति एक धर्मग्रंथ है, बहुत कुछ अटपटा लगता है। इसका

कारण यह है कि हिंदू धर्म बहुत ही भ्रामक शब्द है। विभिन्न लेखकों ने इसकी परिभाषा

विभिन्न प्रकार से की है।

सर डी- इबटसन1 हिंदू धर्म की परिभाषा इस प्रकार करते हैं:

“वंशानुगत पुरोहितों का धर्म जो ब्राह्मणों द्वारा संपन्न होता है, जो जाति नामक

सामाजिक संस्था से शक्ति ग्रहण करता है और जो भारत में जन्मे धर्म के सभी पक्षों

और विविधताओं को अपने में समेटे हुए है, जो विदेशों से आए ईसाई और इस्लाम

  1. पंजाब सेन्सस रिपोर्ट (1881), पैरा 214

धर्म और बाद में बौद्ध धर्म की शाखा-प्रशाखाओं से भिन्न है, जो शायद सिख धर्म

से और जैन धर्म से, हालांकि बहुत संदेह है, भिन्न है।”

सर जे.ए. बेन्स1 ने हिंदू धर्म की परिभाषा इस प्रकार की हैः

“वह विपुल जनसंख्या जो न सिख है, न जैन, न बौद्ध या न घोर आत्मावादी, जो

इस्लाम, प्राचीन पारसी, ईसाई या हिब्रू आदि धर्मों में शामिल नहीं हैं।”

सर एडबर्ड गैट2 के लिए हिंदू धर्म-

“मत-मतांतरों का एक जटिल जीवाणु कोष है। इसमें एकेश्वरवाद, बहुदेव,

सर्वेश्वरवाद, महादेव शिव और विष्णु, दुर्गा और लक्ष्मी तथा मातृकाओं, वृक्षों,

शिलाओं और नदियों और छोटे-मोटे ग्राम देवताओं व देवियों के उपासक, वे लोग

जो अपने देवी-देवताओं को बलि देकर संतुष्ट करते हैं और वे लोग जो किसी

जीव की हिंसा नहीं करते, बल्कि वे लोग भी जो ‘काटना’ शब्द तक के प्रयोग

को वर्जित समझते हैं, वे लोग जिनकी पूजा-विधि में मुख्यतः स्तुति और भजनों

का समावेश होता है, और वे लोग जो धर्म के नाम पर गोपनीय रहस्यपूर्ण अनुष्ठान

करते हैं, सभी लोग आते हैं।”

यह हिंदू धर्म की जटिलता का बहुत कुछ पूर्ण विवरण तो है, लेकिन यह अभी भी

अपूर्ण है। इस सूची में उन लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो गौ की पूजा

करते हैं, और वे लोग भी जो उसे खाते हैं, वे लोग भी जो प्राकृतिक शक्तियों की पूजा

करते हैं, और वे लोग भी जो केवल एक ईश्वर की उपासना करते हैं और वे लोग भी

जो मूर्तियों, दानवों, प्रेतों, पितरों, संतों और शूरवीरों के उपासक हैं।

ये वे उत्तर हैं, जो तीन जनगणना आयुक्तों ने सीधे सवाल के लिए कि हिदू धर्म

क्या है। बाकी लोगों को इसका उत्तर देना काफी कठिन लगा। जरा देखिए सर ए. लाइल

इस प्रश्न का उत्तर किस प्रकार देते हैं। उन्होंने कैम्ब्रिज में सन 1891 ईस्वी में आयोजित

अपने ‘रीड व्याख्यान’ में कहा था3

:

“अगर मुझसे हिंदू धर्म की परिभाषा पूछी जाए, तब मेरे पास कोई सटीक उत्तर नहीं

होगा। मैं संक्षेप में इसकी ऐसी कोई परिभाषा नहीं दे सकता जो इसके मूल सिद्धांतों और

आस्थाओं को व्यक्त करती हो, जैसा कि मैं इतिहास प्रसिद्ध अन्य धर्मों की परिभाषा

देते हुए करता। इसका कारण यह है कि ‘हिंदू’ शब्द केवल धर्म का परिचायक नहीं

है। यह देश का भी नाम है और कुछ सीमा तक जाति का भी नाम है। जब हम ईसाई,

  1. सेन्सस ऑफ इंडिया रिपोर्ट (1881), पृ. 158
  2. वही (1881), पृ. 158
  3. एशियाटिक स्टडीज, खंड 2, पृ. 287.88

या बौद्ध कहते हैं तब व्यापक अर्थ में हमारा आशय किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से

होता है, हम जाति या स्थान का भेद नहीं करते। जब हम किसी रूसी या किसी फारसी

की चर्चा करते हैं, तब हम देश या कुल का संकेत करते हैं और वहां धर्म या मत का

अंतर हमारा अभिप्रेत नहीं होता। लेकिन जब कोई व्यक्ति मुझसे कहता है कि मैं हिंदू

हूं, तब मैं जान जाता हूं कि वह तीनों बातों का एक साथ उल्लेख कर रहा है – धर्म,

कुल और देश का।”

हिंदू धर्म के धार्मिक स्वरूप के बारे में सर अल्फ्रेड लायल कहते हैं:

“हिंदू धर्म बेतुके अंधविश्वासों, आचार-विचारों, उपासना पद्धतियों, आस्थाओं, रूढ़ियों

और पौराणिक कथाओं की पेचीदा गुंजलक है, जिन्हें धर्म-ग्रंथों और ब्राह्मणों के निर्देशों

ने मान्यता दे रखी है और जिनका प्रचार ब्राह्मणों के उपदेशों द्वारा होता है।”

“जिसे हिंदू अथवा हिंदू समुदाय के अधिकांश लोग अमल में लाते हैं वही हिंदू

धर्म है।”

अंत में, मैं एक हिंदू श्री जी-पी- सेन, द्वारा दी गई परिभाषा को उद्धृत करता हूं जो

न सिर्फ हिंदू हैं, बल्कि हिंदू धर्म के अध्येता भी हैं। श्री सेन इंट्रोडक्शन टु दि स्टडी

ऑफ हिंदूइज्म नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं:

क्या हिंदू धर्म में कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है, जिसका सभी हिंदू अपने-अपने विभिन्न

मतभेदों के बावजूद, पालन करना स्वेच्छया अपना कर्तव्य समझते हों? मुझे लगता है कि

ऐसा सिद्धांत है और यह सिद्धांत जाति का सिद्धांत है। इस बारे में मतभेद हा सकता है

कि हिंदू धर्म में कौन-कौन से मूल तत्व हैं। लेकिन इस बात में कोई मतभेद नहीं हो

सकता कि हिंदू धर्म का एक मुख्य और अभिन्न अंग है जाति। प्रत्येक हिंदू – वह चाहे

सिर्फ कानूनी हिंदू ही क्यों न हो, जाति में विश्वास करता है और इसी प्रकार प्रत्येक

हिंदू की जो कानूनी हिंदू होने पर गर्व करता है, एक जाति होती है। हिंदू उसी प्रकार

जाति में पैदा होता है, जिस प्रकार वह हिंदू धर्म में पैदा होता है। सच तो यह है कि

कोई भी व्यक्ति हिंदू धर्म में तब तक पैदा नहीं समझा जा सकता जब तक वह किसी

जाति में पैदा न हुआ हो। जाति और हिंदू धर्म एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते।

प्रो. मैक्समूलर1 का कहना हैः

“आधुनिक हिंदू धर्म-जाति पर स्थित है, जैसे वह किसी चट्टान पर हो, जिसे कोई

भी तर्क हिला नहीं सकता।”

इसका तात्पर्य यह हुआ कि चूंकि मनु ने जाति का सिद्धांत निर्धारित किया है और

चूंकि हिंदू धर्म के मूल में जाति का सिद्धांत स्थित है, अतः मनुस्मृति को धर्म ग्रंथ के

रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।

  1. साइंस ऑफ रिलिजन, पृ. 28

II

मनु ने हिंदुओं द्वारा अपनाए जाने और उनका पालन किए जाने हेतु क्या नैतिक और

धार्मिक सिद्धांत प्रतिपादित किए? मनु ने आरंभ में हिंदुओं को चार वर्णों या सामाजिक

श्रेणियों में विभाजित किया। उसने हिंदुओं को चार वर्णों में विभाजित ही नहीं किया

बल्कि उन्हें श्रेणीबद्ध भी किया, जो इस प्रकार हैं:

10.3 जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान

आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से

ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।

वह अपने तर्क को पुष्ट करते हुए निम्नलिखित कारण बताता हैः-

1.93 ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से, पहले उत्पन्न होने के कारण श्रेष्ठ होने से

और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है।

1.94 स्वयम्भू उस ब्रह्मा ने हव्य तथा कव्य को पहुंचाने के लिए और सम्पूर्ण सृष्टि की

रक्षा के लिए तपस्या कर सर्वप्रथम ब्राह्मण को ही अपने मुख से उत्पन्न किया।

1.95 जिस ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितर कव्य को खाते हैं उस

ब्राह्मण से अधिक श्रेष्ठ प्राणी कौन होगा?

1.96 भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य

श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।

मनु द्वारा दिए गए कारणों के अतिरिक्त ब्राह्मण प्रथम वर्ण का है क्योंकि वह

ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ है और देवताओं को हव्य तथा पितरों को कव्य

पहुंचाता है।

मनु ब्राह्मण की श्रेष्ठता का अन्य कारण भी बताता है। वह कहता हैः-

1.98 ब्राह्मण की उत्पत्ति ही धर्म की नित्य देह है, क्योंकि वह धर्म के लिए उत्पन्न

हुआ है और मोक्ष लाभ के योग्य होता है।

1.99 उत्पन्न हुआ ब्राह्मण पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि वह धर्म की रक्षा

के लिए समर्थ है।

मनु अन्त में यह कहता हैः

1.101. ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता

है तथा दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की दया से सब पदार्थों का भोग करते हैं।

मनु के अनुसार:

1.100. पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब ब्राह्मणों का है, अर्थात् ब्राह्मण अच्छे

कुल में जन्म लेने के कारण इन सभी वस्तुओं का स्वामी है।

यह कहना कोई बड़ी बात नहीं कि मनु के अनुसार ब्राह्मण समस्त सृष्टि का स्वामी

है। क्योंकि मनु यह चेतावनी देता है कि-

9.317. जिस प्रकार शास्त्रविधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही

श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान, दोनों ही रूपों

में श्रेष्ठ देवता है।

9.319. इस प्रकार ब्राह्मण यद्यपि निंदित कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। तथापि ब्राह्मण सब

प्रकार से पूज्य हैं, क्योंकि वे श्रेष्ठ देवता हैं।

देवता होने के कारण ब्राह्मण कानून और राजा से ऊपर है। मनु आदेश देता हैः

7.37. राजा प्रातःकाल उठकर ऋग्यजुः साम के ज्ञाता और विद्वान (राजधर्म में)

ब्राह्मणों की सेवा करें और उनके कहने के अनुसार कार्य करे।

7.38. वह वृद्ध ब्राह्मणों की प्रतिदिन सेवा करे जो वेद के ज्ञाता और शुद्ध हृदय

हैं।

अंत में मनु कहता हैः

11.35. इस प्रकार ब्रह्मा (विश्व के) सृष्टा, शास्ता, गुरु (और इसलिए सारी सृष्टि

के) संरक्षक घोषित किए जाते हैं। कोई भी व्यक्ति उनके प्रति न कोई अशुभ

और न कोई कठोर वचन कहे।

मनु संहिता में विभिन्न व्यवसायों के बारे में नियम दिए गए हैं। जिनका विभिन्न

वर्गों को पालन करना चाहिए।

1.88. स्वयंभू मनु ने ब्राह्मणों के कर्तव्य वेदाध्यान, वेद की शिक्षा देना, यज्ञ करना,

अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना और अगर वह धनी है, तब दान देना और

अगर निर्धन है, तब दान लेना निश्चित किए।

1.89. प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद का अध्ययन करना, विषय

में आसक्ति नहीं रखना, संक्षेप में क्षत्रियों के कर्तव्य हैं।

1.90. पशुपालन, दान देना, यज्ञ करना, शास्त्रें को पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज पर

ऋण देना और खेती करना वैश्यों के कर्तव्य निश्चित या अनुमोदित किए गए।

1.91. ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक ही मुख्य कर्तव्य निश्चित किया, अर्थात् उक्त

वर्गों की अनिंदित रहते हुए सेवा करना।

10.74. ऐसे ब्राह्मण जो उत्कृष्ट देवत्व प्राप्त करने के इच्छुक हैं और अपने कर्तव्य

के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वे छह कार्यों को क्रमानुसार पूर्णरूपेण निष्पादित करें।

10.75. वेदों का अध्ययन, अध्यापन-यज्ञ करना, अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना,

यदि पर्याप्त संपत्ति है तब निर्धनों को दान देना, यदि स्वयं निर्धन है तब पुण्यशील

व्यक्तियों से दान लेना, ये छह कर्तव्य प्रथम उत्पन्न वर्ग (ब्राह्मणों) के हैं।

10.76. लेकिन ब्राह्मण के लिए निर्धारित इन छह कर्मों में से तीन कर्तव्य उसकी

जीविका के लिए हैं – यज्ञ करने में सहायता देना, वेदों का अध्यापन और

पुण्यशील से दान लेना।

10.77. तीन कर्तव्य ब्राह्मणों तक सीमित हैं। वे क्षत्रियों के लिए नहीं हैं – वेदों

का अध्यापन, यज्ञ कराना और तीसरा, दान लेना।

10.78. ये तीन वैश्यों (विधि के तीन स्थाई नियम) के लिए भी वर्जित हैं,

क्योंकि प्रजापति मनु ने ये कर्तव्य उन दोनों (सैनिक और वाणिज्यिक) वर्गों के

लिए निश्चित नहीं किए हैं।

10.79. जीविका के लिए विशेष रूप से क्षत्रियों के कर्तव्य हैं। आयुध ग्रहण करना

(अस्त्र और शस्त्र), वैश्यों के कर्तव्य हैं व्यापार, पशुपालन और कृषि, लेकिन अगले

जन्म की दृष्टि से दोनों के कर्तव्य हैं – दान देना, अध्ययन और यज्ञ करना।

मनु श्रेणी और व्यवसाय निश्चित करने के साथ कुछ वर्गों को कुछ विशेषाधिकार

देता है और कुछ के लिए दंड निर्धारित करता है।

जहां तक विशेषाधिकारों का संबंध है, विवाह से संबंधित विशेषाधिकारों पर पहले

विचार कर लिया जाए। मनु कहता हैः

3.12. द्विज वर्ग के लोगों का प्रथम विवाह समान वर्ग की स्त्री के साथ हो,

लेकिन जो दुबारा विवाह करना चाहे तब क्रम के अनुसार वर्ग की स्त्री के साथ

विवाह करे।

3.13. शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है, वह और वैश्य स्त्री वैश्य

पुरुष की, शूद्र और वैश्य स्त्री तथा क्षत्रिय स्त्री क्षत्रिय पुरुष की और ये तीनों

वर्गों की स्त्री तथा ब्राह्मणी ब्राह्मण की पत्नी हो सकती है।

इसके बाद व्यवसाय में भी कुछ विशेषाधिकार हैं। ये विशेष अधिकार तब और भी

स्पष्ट हो जाते हैं, जब मनु यह निश्चित करता है कि मनुष्य को अपने ऊपर विपत्ति

पड़ने पर क्या करना चाहिएः

10.81. लेकिन यदि ब्राह्मण अपने इस व्यवसाय से जिसका अभी उल्लेख किया

गया है, जीवन-निर्वाह नहीं कर सके, तब क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट व्यवसाय को

अपना कर जीवन-निर्वाह करे क्योंकि वह पद के अनुसार उसके बाद आता है।

10.82. यदि यह पूछा जाए, ‘अगर वह इन दोनों व्यवसायों में से किसी भी एक

व्यवसाय से अपना जीवन-निर्वाह नहीं कर सके तब क्या किया जाए’ उत्तर है,

वह वैश्य की जीवन-पद्धति अपना ले, स्वयं खेती करे और पशु-पालन करे।

10.83. परंतु जो ब्राह्मण और क्षत्रिय वैश्य की जीवन-पद्धति के अनुसार जीवन

यापन करता है, उसे कृषि (व्यवसाय) कर्म करना चाहिए। कृषि के बारे में हमेशा

सतर्क रहना चाहिए (जिसमें) अनेक जीवों की हिंसा होती है और जो दूसरों,

जैसे बैल आदि पर निर्भर करता है। अतः इससे यथासंभव बचना चाहिए और

पशुपालन करना चाहिए।

10.84. कुछ लोग कृषि (खेती) को उत्तम कार्य कहते हैं किंतु परोपकारी व्यक्ति

जीविका के इस साधन को हेय कहते हैं (क्योंकि) लोहे के मुख (फार) लगा

लकड़ी का उपकरण भूमि और उसमें रहने वाले जीवों को क्षति पहुंचाता है।

10.85. लेकिन जो व्यक्ति जीविका के उत्तम साधनों के अभाव में उचित व्यवसायों

को नहीं अपना सकता, वह उन वस्तुओं की बिक्री कर धन अर्जित कर सकता है

जो व्यापारी बेचते हैं, लेकिन इनमें निम्नलिखित वस्तुओं को शामिल न करे।

10.86. उन्हें सभी तरह का द्रव पदार्थ, पका अन्न, तिल के बीज, पत्थर, नमक-पशु

और मनुष्य (दास-दासी) को बेचने का व्यापार नहीं करना चाहिए।

10.87. उन्हें बुना हुआ लाल रंग में रंगा कपड़ा, सनई से बना कपड़ा और छाल,

ऊन (चाहे वह लाल रंग की न हो), फल, कंद और औषधि में काम आने वाले

पेड़ पौधे (बेचने का व्यापार नहीं करना चाहिए)।

10.88. जल, लोहा, विष, मांस, सोम नाम की बेल, सभी तरह के इत्र, दूध,

मधु, दही, घी, तिल का तेल, मोम, गुड़ और कुश का उन्हें व्यापार नहीं करना

चाहिए।

10.89. सभी प्रकार के जंगली जंतु जैसे मृग आदि, भूख से व्याकुल जंगली जीव,

पक्षी और मछली, मदिरा, नील, लाख और खुर वाले जानवर, इनका व्यापार नहीं

करना चाहिए।

10.90. लेकिन ब्राह्मण किसान स्वेच्छापूर्वक तिल के बीज धार्मिक कृत्यों के लिए

बेच सकता है जिसे यदि वह लाभ अर्जित करने की आशा से बहुत दिनों तक

अपने पास न रखना चाहे और जिसे उसने स्वयं पैदा किया हो।

10.91. यदि वह खाने, मलने और दान देने के अतिरिक्त तिलों का उपयोग किसी

अन्य कार्य में करता है, तब वह अपने पितरों के सहित कीड़ा होकर कुत्ते की

विष्ठा में गिरता है।

10.92. मांस, लाख या नमक बेचने से ब्राह्मण तत्काल पतित हो जाता है और

लगातार तीन दिन दूध बेचने से वह शूद्र हो जाता है।

10.93. अन्य निषिद्ध वस्तुएं स्वेच्छापूर्वक बेचने से वह ब्राह्मण सात रात्रि में वैश्यत्व

को प्राप्त होता है।

10.94. द्रव पदार्थ के बदले द्रव पदार्थ लेना-देना चाहिए, लेकिन नमक के बदले

द्रव पदार्थ का लेन-देन नहीं करना चाहिए। पके अन्न के बदले पके अन्न, तिल

के बदले धान का बराबर-बराबर लेन-देन करना चाहिए।

10.102. विपत्ति में पड़ने पर ब्राह्मण किसी भी व्यक्ति से दान ग्रहण कर सकता

है क्योंकि कोई भी ऐसा धार्मिक नियम नहीं है जिसके आधार पर शुद्धता अशुद्ध

घोषित की जा सके।

10.103. अनधिकारियों को वेदाध्ययन कराने, यज्ञ कराने या उनसे दान लेने से

जो सामान्यतः अनुमोदित नहीं है, विपत्ति में पड़े ब्राह्मणों को कोई दोष नहीं होता

क्योंकि वे अग्नि और जल के समान पवित्र हैं।

इसकी तुलना उस व्यवस्था से कीजिए जो मनु ने अन्य वर्गों के लिए विपत्ति पड़ने

पर निर्धारित की है। मनु कहता हैः

10.96. नीच वर्ग का जो मनुष्य अपने से ऊंचे वर्ग के मनुष्य की वृत्ति को

लोभवश ग्रहण कर जीविका-यापन करे तो राजा उसकी सब संपत्ति छीनकर उसे

तत्काल निष्कासित कर दे।

10.97. अपना धर्म, चाहे वह त्रुटिपूर्ण रीति से ही क्यों न पूरा किया जाए, दूसरे

धर्म से श्रेष्ठ है जो चाहे कितनी ही पूर्ण रीति से क्यों न किया जाए क्योंकि जो

व्यक्ति बिना किसी आवश्यकता के दूसरे वर्ण के धर्म का निर्वाह करता है, वह

अपने धर्म से भी च्युत हो जाता है।

10.98. अपने धर्म (कार्यों) से जीवन निर्वाह न कर सकने वाला वैश्य यह विचार

न कर कि क्या किया जाना चाहिए, शूद्र द्वारा करणीय धर्म (कार्य) कर सकता

है, लेकिन जब वह समर्थ हो जाए तब उसे उस धर्म (कार्य) से निवृत्त हो जाना

चाहिए।

10.99. द्विजों की सेवा करने की अभिलाषा वाले चतुर्थ वर्ग के व्यक्ति को यदि

जीविका न मिले और उसकी पत्नी, पुत्र आदि भूख से पीड़ित हों, दस्तकारी से

जीविका अर्जित करनी चाहिए।

10.121. यदि कोई शूद्र जीविका उपार्जन करना चाहता है और ब्राह्मण की सेवा

नहीं कर सकता, तब वह क्षत्रिय की सेवा करे या यदि यह क्षत्रिय की अपने

जन्म के कारण सेवा नहीं कर सकता, तब वह धनी वैश्य की सेवा कर अपनी

जीविका का उपार्जन करे।

10.122. जो व्यक्ति ब्राह्मण की सेवा स्वर्ग प्राप्ति की कामना से या स्वयं अपनी

जीविका, दोनों की अभिलाषा से करता है, तब उस ब्राह्मण का नाम उसके नाम

के साथ जुड़ने से उसे निश्चित सफलता मिलती है।

10.123. ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है, इसके

अतिरिक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है।

10.124. ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपनी सेवा करने वाले शूद्र के लिए उसके

काम करने की शक्ति, उत्साह और परिवार के निर्वाह के प्रमाण के अनुसार

उसकी जीविका निश्चित करें।

10.125. जो कुछ पका धान्य बच जाए, वह उसे (शूद्र को) दिया जाए, जो

वस्त्र उन्होंने पहन लिए हों, वे उसे दिए जाएं और उसे पुआल और खाट आदि

दिया जाए।

10.126. लहसुन, प्याज आदि अन्य वर्जित सब्जी खाने से शूद्र को कोई पातक

(दोष) नहीं होता, उसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होना चाहिए, उसे धर्म-कार्य

करने का अधिकार नहीं है, लेकिन अगर वह यज्ञ में पका हुआ अन्न धर्म-कार्य

स्वरूप अर्पित करता है तो कोई निषेध नहीं है।

10.127. जो शूद्र अपने सारे कर्तव्य करने के इच्छुक हैं और यह जानते हुए कि

उन्हें क्या करना चाहिए, अपने गृहस्थ-जीवन में अच्छे मनुष्यों की तरह आचरण

करते हैं और स्तुति व प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई धार्मिक पाठ नहीं करते और

पातक कर्म-रहित हैं, वे प्रशंसित होते हैं।

10.128. दूसरों की निंदा न कर जो शूद्र द्विज के आचरण के अनुकूल आचरण

करता है, वह इतना करने से ही अनिंदित हो, इस लोक में और अगले लोक में

प्रशंसित होता है।

10.129. किसी भी शूद्र को संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए, चाहे वह इसके

लिए कितना ही समर्थ क्यों न हो, क्योंकि जो शूद्र धन का संग्रह कर लेता है उसे

उसका मद हो जाता है और वह अपने उद्धत या उपेक्षापूर्ण व्यवहार से ब्राह्मणों

को कष्ट पहुंचाता है।

अंत में मनु कहता हैः

10.130. विपत्ति पड़ने पर जीविकोपार्जन के संबंध में चारों वर्णों के ये कर्तव्य हैं,

जिन्हें विस्तार से कहा गया है और अगर ये वर्ण इन कर्तव्यों को सम्यक रीति से

पूरा करें तब उन्हें श्रेष्ठ गति प्राप्त होगी।

कुछ के लिए ये विशेषाधिकार केवल सामाजिक नहीं थे, बल्कि वे आर्थिक भी थेः

8.35. जो व्यक्ति सच-सच यह कह देगा कि ‘यह संपत्ति जो मैंने अपने पास

रखी है’ मेरी है, तो राजा उससे उस संपत्ति को प्राप्त करने के लिए उस संपत्ति

का छठा या बारहवां भाग लेगा।

8.36. लेकिन जो व्यक्ति ऐसा झूठ-मूठ कहे, उस पर उसकी अपनी संपत्ति का

अष्टमांश या जिस संपत्ति के बारे में झूठ-मूठ का दावा किया गया है, उसके

मूल्य का कुछ भाग, जो न्यायोचित हो, जुर्माना किया जाए।

8.37. जिस किसी विद्वान ब्राह्मण को कहीं छिपाकर रखी गई संपत्ति प्राप्त होती

है, वह उस सारी संपत्ति को ग्रहण कर ले क्योंकि वह सबका स्वामी है।

8.38. किंतु जो निधि प्राचीन-काल से भूमि में गड़ी राजा या किसी अन्य प्रजाजन

द्वारा खोज निकाली जाए तब राजा उस निधि का अर्द्धांश ब्राह्मणों में वितरित करने

के बाद शेष अर्द्धांश अपने कोष में रख ले।

9.323. लेकिन जिस राजा का अंत किसी असाध्य रोग के कारण निकट है, वह

अपनी समस्त संग्रहीत संपत्ति और अपना राज्य अपने पुत्र को दे देगा और युद्ध में

और युद्ध न हो, तब भोजन का त्याग कर अपनी मृत्यु का वरण करेगा।

7.127. खरीद और बिक्री की दरों, मार्ग की दूरी, भोजन और मिर्च, मसाले

आदि का व्यय, माल लाने पर व्यय, व्यापार में शुद्ध लाभ का पता लगाकर राजा

व्यापारियों से बेचने योग्य वस्तुओं पर कर देने के लिए कहे।

7.128. राजा अपने राज्य में उन करों को निरंतर लगाए जिनसे उसे और व्यापारी

को विभिन्न कार्यों के लिए व्यय की उचित प्रतिपूर्ति हो सके।

7.129. जिस प्रकार जोंक, बछड़ा और मधुमक्खी अपना-अपना खाद्य थोड़ा-थोड़ा

ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार राजा को प्रजा से वार्षिक कर लेना चाहिए।

7.130. राजा को पशु पर, स्वर्ण और चांदी पर, उसमें प्रतिवर्ष वृद्धि होने पर,

पचासवां भाग, अनाज पर आठवां भाग, छटवां भाग या बारहवां भाग, मिट्टी के

अंतर और उसे पैदा करने के लिए आवश्यक श्रम के अनुसार कर लेना चाहिए।

7.131. उसे वृक्षों, मांस, मधु, घी, इत्र, औषधि पदार्थ, द्रवों, पुष्पों, कंद और फल

पर प्रतिवर्ष वृद्धि का छठवां भाग भी लेना चाहिए।

7.132. एकत्रित पत्तियों, साग-भाजी, घास, चमड़े या बेंत से बने बर्तन, मिट्टी

के बर्तन और पत्थर की बनी सभी चीजों पर (छठा भाग कर के रूप में वसूल

करे)।

7.133. चाहे कोई राजा अपूर्ण इच्छाग्रस्त होकर मर भी क्यों न रहा हो तब भी

वह वेदपाठी ब्राह्मण से कर न ले, न ऐसे ब्राह्मण को कष्ट दे जो उसके क्षेत्र में

रह रहा हो और जो भूख से ग्रस्त हो।

7.134. जिस राजा के राज्य में विद्वान ब्राह्मण क्षुधाग्रस्त रहता है, उस राजा के

राज्य में शीघ्र ही अकाल पड़ता है।

7.137. राजा अपने राज्य में रहने वाले लोगों से जो सामान्यतम व्यापार कर अपना

जीविकोपार्जन करते हैं, वार्षिक कर के रूप में कुछ ग्रहण करे।

7.138. राजा उन लोगों से हर महीने एक दिन काम करवाए जो छोटे दस्तकार,

कारीगर और मजदूर हैं और जो श्रम कर जीविकोपार्जन करते हैं।

8.394. राजा अंधे व्यक्ति से, मूर्ख से, अपंग से और सत्तर वर्ष के वृद्ध से और

न उनसे जो विद्वान ब्राह्मणों के उपकार में रत हैं, किसी भी प्रकार का कर ले।

10.118. जो राजा युद्ध होने पर या आक्रमण होने पर आपातकाल में अपनी प्रजा

से उसकी पैदावार का चतुर्थांश भी लेता है और यथाशक्ति अपनी प्रजा की रक्षा

करता है, वह कोई पातक कर्म नहीं करता।

10.119. उसका मुख्य धर्म विजय प्राप्त करना है और उसे युद्ध से विमुख नहीं

होना चाहिए, जिससे जहां वह शस्त्रास्त्र से व्यापारियों और किसानों की रक्षा करता

है, वहां इस रक्षा पर व्यय की पूर्ति के लिए कानूनी तौर पर कर लगाए।

10.120. समृद्धि-काल में व्यापारियों पर उनके धन का बारहवां भाग और उनके

निजी लाभ का पांचवां भाग कर रूप में होता है, विपत्ति में यह उनके धन का

आठवां भाग या छठा भाग हो सकता है, जो औसत है। यह महान विपत्ति में

चौथा भाग भी हो सकता है, लेकिन उनके धन पर लाभ और अन्य चल संपत्ति

पर बीसवां भाग अधिकतम कर है, सेवक वर्ग, कारीगर, बढ़ई आदि जो कोई कर

नहीं देते हैं, उन्हें अपने श्रम से सहायता करनी चाहिए।

9.187. मृत व्यक्ति का निकटतम सपिंड जो, चाहे पुरुष हो या स्त्री, उसके बाद

तीसरी पीढ़ी तक उसका उत्तराधिकारी होता है, सपिंड या उनकी संतान के न होने

पर समानोदक (सजातीय) या दूर का संबंधी उत्तराधिकारी होता है, या आचार्य,

शिष्य या साथ पढ़ा व्यक्ति मृत व्यक्ति का उत्तराधिकारी होता है।

9.188. इन सबके न होने पर तीनों वेदों में निष्णात ब्राह्मण जो शरीर और मन से

शुद्ध हो, जिसके सब राग-द्वेष शांत हों, वे ही मृत व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी होते हैं, उन्हीं को ही पिंडदान करना चाहिए। इस प्रकार मृत व्यक्ति के लिए

पिंडदान आदि की क्रिया विफल नहीं हो सकती।

9.189. ब्राह्मण की संपत्ति द्वारा राजा द्वारा कभी भी नहीं ली जानी चाहिए, यह

एक निश्चित नियम है, मर्यादा है। लेकिन अन्य जाति के व्यक्तियों की संपत्ति

उनके उत्तराधिकारियों के न रहने पर राजा ले सकता है।

विभिन्न वर्गों को अपने सामाजिक जीवन का किस प्रकार निर्वाह करना चाहिए,

इसकी मनु ने कुछ नियमों में व्याख्या की है। ये नियम हिंदुओं के नैतिक सिद्धांत के

महत्वपूर्ण अंग हैं।

मनु निर्देश देता हैः

10.3. जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति-स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान

आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से

ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।

9.317. जिस प्रकार शास्त्र विधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही

श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान, दोनों ही रूपों

में श्रेष्ठ देवता है।

9.319. इस प्रकार ब्राह्मण यद्यपि निंदित कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, तथापि ब्राह्मण सब

प्रकार से पूज्य हैं, क्योंकि वे श्रेष्ठ देवता हैं।

7.35. राजा का सृजन इन सभी वर्णों और आश्रमों की रक्षा के लिए किया गया

है जो शुरू से लेकर अंत तक अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।

7.36. मैं क्रमानुसार उन सब कर्तव्यों के बारे में तुमसे कहूंगा जो शास्त्रनुसार राजा

के द्वारा अपनी प्रजा की रक्षा के लिए अपने अमात्यों की सहायता से अवश्य

किए जाने चाहिएं।

7.37. राजा प्रातःकाल उठकर ऋग्यजुःसाम के ज्ञाता और विद्वान (राजधर्म में)

ब्राह्मणों की सेवा करे और उनके कहने के अनुसार कार्य करे।

7.38. वह ब्राह्मणों का हमेशा आदर-सत्कार करे जो आयु और धर्म, दोनों दृष्टियों

से वरिष्ठ हैं, जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो काया और चित्त से शुद्ध हैं क्योंकि जो

वरिष्ठ का आदर करता है, वह राक्षसों द्वारा भी हमेशा पूजित होता है।

9.313. राजा को घोरतम विपत्ति में भी ब्राह्मणों को क्रुद्ध होने के लिए उत्तेजित

नहीं करना चाहिए, क्योंकि ब्राह्मण क्रोधित होने पर उस राजा को, उसकी सेना,

हाथियों, घोड़ा, वाहनों को नष्ट कर सकते हैं।

ऐसे थे राजनीतिक जीवन में विविध संबंध। विभिन्न वर्णों में सामान्य सामाजिक

संबंधों के बारे में मनु ने निम्नलिखित नियम निर्धारित किए हैं:

3.68. गृहस्थ के यहां वध के पांच स्थान होते हैं जहां छोटे जीवों की हत्या हो

सकती हैः चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, मूसल और जल का घट। उन्हें व्यवहृत

करता हुआ वह पाप का भागी होता है।

3.69. इन क्रमिक स्थानों पर अज्ञानवश किए गए पापों से निवृत्ति के लिए महर्षियों

ने पांच महायज्ञ प्रतिदिन करने का विधान गृहस्थों के लिए बताया है।

3.70. शास्त्रें का अध्यापन और अध्ययन ‘ब्रह्मयज्ञ’ है, पिंड और जल तर्पन करना

‘पितृयज्ञ’। हवन करना ‘देवयज्ञ’ है, बलिवैश्वदेव करना ‘भूतयज्ञ’ है तथा अतिथियों

का भोजन आदि से सत्कार करना ‘नृयज्ञ’ है।

3.71. यथाशक्ति इन पांच महायज्ञों को नहीं छोड़ने वाला व्यक्ति गृहस्थाश्रम में

रहते हुए भी (पांचों पापों) के दोषों से मुक्त रहता है।

3.84. ब्राह्मण अपनी गृह-अग्नि में सभी देवों के लिए पकाए गए अन्न को

विधिपूर्वक निम्नलिखित देवताओं को अर्पित करे।

यह अन्न जब देवताओं को अर्पित कर दिया जाए, तब उसके बाद की प्रक्रिया

के बारे में मनु निर्देश देता हैः

3.92. वह कुत्तों, जाति से बहिष्कृतों, चांडालों, पापजन्य रोग से ग्रस्त व्यक्तियों,

कौओं, कीड़ा-मकोड़ों का अंश धीरे-धीरे पृथ्वी पर रख दे।

आतिथ्य संबंधी नियमों के बारे में मनु गृहस्थ को निर्देश देता हैः

3.102. एक रात ठहरने वाला व्यक्ति अतिथि कहा जाता है, क्योंकि इतने थोड़े समय

के लिए रहने से पूरी तिथि, अर्थात् चंद्रमा के दिन के लिए भी नहीं ठहरता।

3.98. क्योंकि ब्राह्मण के मुख में स्थित अग्नि अर्पित करने से दाता विपत्ति और

अन्य भयंकर पाप से मुक्त हो जाता है, ब्राह्मण का मुख ज्ञान और पुण्य से दीप्त

रहता है।

3.107. श्रेष्ठ अतिथियों को श्रेष्ठ रूप में, निम्न को निम्न रूप में, समान को

समान रूप में आसन, शैया आदि और तदनुसार जब तक वे रहें, तब तक सत्कार

और आदर दिया जाए।

3.110. ब्राह्मण के घर आए हुए क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र, परिचित मित्र या बांधव

और गुरु ‘अतिथि’ नहीं कहे जाते।

3.111. यदि क्षत्रिय अतिथि धर्म से ब्राह्मण के घर आ जाए तब पूर्वोक्त ब्राह्मण

अतिथियों को भोजन कराने के बाद उसे उसकी इच्छा के अनुसार भोजन कराया

जाए।

3.112. अतिथि के रूप में वैश्य या शूद्र के आने पर वह उस पर दया प्रदर्शित

करता हुआ अपने नौकरों के साथ भोज कराए।

समाज में एक वर्ण की अपेक्षा दूसरे वर्ण की स्थिति कैसी होगी, इस बारे में मनु

ने जो नियम बनाए हैं, वे कम रोचक नहीं हैं। वह सामाजिक स्थिति के बारे में एक

समीकरण बताता हैः

2.135. विद्यार्थी ब्राह्मण को, जो चाहे दस वर्ष का ही क्यों न हो और क्षत्रिय को,

जो चाहे एक सौ वर्ष की आयु का हो, पिता और पुत्र के रूप में समझे, इन दोनों

में युवा ब्राह्मण को पिता समझकर आदर दे।

2.136. धन-सम्पत्ति, बंधु, आयु, नैतिक आचार और पांचवे आध्यात्मिक ज्ञान के

कारण मनुष्यों को आदर मिलता है, लेकिन इनमें जिसका उल्लेख सबसे अंत में

हुआ है, वह सबसे अधिक पूजनीय है।

2.137. तीन उच्च वर्गों में जिस किसी भी व्यक्ति के पास उक्त पांच गुणों में

संख्या और मात्र की दृष्टि से अधिक गुण हों, वह व्यक्ति अधिक पूजनीय है,

शूद्र भी यदि वह अपनी आयु के नवें दशक में प्रवेश कर रहा हो।

2.138. जो व्यक्ति किसी गाड़ी में बैठकर जा रहा हो, जो नब्बे वर्ष से अधिक

आयु का हो, जो रोगग्रस्त हो, जो बोझ लेकर जा रहा हो, स्त्री को, जो स्नातक

अपने गुरु के पास से आ रहा हो, राजकुमार और वर के लिए, रास्ता छोड़ देना

चाहिए।

2.139. अगर कोई ऐसा अवसर आए कि बहुत से लोगों से एक साथ मिलना हो

तब जो स्नातक हाल में घर वापस लौटा है, वह और राजकुमार, इन दोनों में से

राजकुमार की अपेक्षा स्नातक को अधिक आदर देना चाहिए।

सामाजिक स्थिति के नियमों को अधिक स्पष्ट करने के लिए अभिवादन से संबंधित

नियम यहां उद्धृत हैं:

2.121. जो युवक स्वभाववश वृद्ध जनों को प्रणाम करता और निरंतर उनकी

सेवा करता है, उसे अपनी चार वस्तुओं में वृद्धि प्राप्त होती है – आयु, ज्ञान,

यश और बल।

2.122. ब्राह्मण वृद्ध जनों को अपना नाम बताते हुए प्रणाम करें।

2.123. जो व्यक्ति संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण अपने नाम का अर्थ

नहीं जानते, उनसे विद्वान व्यक्ति यह कहे, ‘यह मैं हूं’ और आपको नमस्कार

करता हूं, वह इसी प्रकार स्त्रियों का अभिवादन करे।

2.124. अभिवादन में अपने नाम के बाद संबोधन सूचक अव्यय ‘भोः’ का

उच्चारण करे, क्योंकि ऋषियों ने ‘भोः’ शब्द को नामों का पूर्ण उच्चारित स्वरूप

कहा है।

2.125. अभिवादन का उत्तर देते हुए ब्राह्मण से ‘हे सौम्य! आयुष्मान हो’ कहे तथा

उसके नाम के अंतिम अक्षर के पूर्व वाले अकार स्वर का प्लुतोच्चारण करे।

2.126. जो ब्राह्मण अभिवादन के बाद प्रत्याभिवादन करना नहीं जानता, विद्वान

ब्राह्मण उसका अभिवादन न करे, क्योंकि जैसा शूद्र है वैसा ही वह भी है।

2.127. किसी विद्वान व्यक्ति को कोई ब्राह्मण मिले तब उससे कुशल, क्षत्रिय

मिले तब उसके अनामय, वैश्य मिले तब क्षेम और जब कोई शूद्र मिले तब उसके

आरोग्य होने के बारे में पूछे।

मनु ने धर्म और धार्मिक संस्कारों और यज्ञकर्म के संबंध में जो व्यवस्थाएं दी हैं,

वे उल्लेखनीय हैं:

3.68. गृहस्थ के यहां वध के पांच स्थान होते हैं या जहां छोटे जीवों की हत्या हो

सकती हैः चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, मूसल और जल का घट। उन्हें व्यवहृत

करता हुआ वह पाप का भागी होता है।

3.69. इन क्रमिक स्थानों पर अज्ञानवश किए गए पापों से निवृत्ति के लिए महर्षियों

ने पांच महायज्ञ प्रतिदिन करने का विधान गृहस्थों के लिए बताया है।

3.70. शास्त्रें का अध्यापन और अध्ययन ‘ब्रह्मयज्ञ’ है, पिंड और जल अर्पित

करना ‘पितृयज्ञ’ है, हवन करना ‘देवयज्ञ’ है, बलिवैश्वदेव करना ‘भूतयज्ञ’ है तथा

अतिथियों का भोजन आदि से सत्कार करना ‘नृयज्ञ’ है।

3.71. यथाशक्ति इन पांच महायज्ञों को नहीं छोड़ने वाला व्यक्ति गृहस्थाश्रम में

रहते हुए भी पांचों पापों के दोषों से मुक्त रहता है।

इसके बाद मनु यह निर्देश देता है कि सभी को संस्कार-लाभ का अधिकार प्राप्त

नहीं है और सभी को यज्ञ-कर्म करने का समान अधिकार नहीं है।

वह संस्कार-कर्म और यज्ञ-कर्म के प्रसंग में स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति निर्धारित

करता है। स्त्रियों के संबंध में मनु कहता हैः

2.66. उपनयन संस्कार को छोड़कर वही संस्कार स्त्रियों के लिए उतनी ही आयु

के प्राप्त होने पर उसी क्रम से किए जाने चाहिए जिससे काया शुद्ध हो सके,

लेकिन ये संस्कार बिना वेद मंत्र के किए जाएं।

शूद्रों के संबंध में मनु कहता हैः

10.127. जो शूद्र अपने सारे कर्तव्य करने के इच्छुक हैं और यह जानते हुए कि

उन्हें क्या करना चाहिए, अपने गृहस्थ-जीवन में अच्छे मनुष्यों की तरह आचरण

करते हैं और स्तुति व प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई धार्मिक पाठ नहीं करते

और पातक कर्म-रहित हैं, वे प्रशंसित होते हैं।

किसी व्यक्ति को यज्ञोपवीत पहनाना एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार हैः

2.36. ब्राह्मण बालक का गर्भ से आठवें वर्ष, क्षत्रिय बालक का गर्भ से ग्यारहवें

वर्ष और वैश्य बालक का गर्भ से बारहवें वर्ष पिता अपने शिशु का अपने वर्ण

के अनुसार यह (यज्ञोपवीत) संस्कार कराए।

2.37. वेदाध्ययन और ज्ञानवार्धक्य-प्राप्ति आदि तेज के लिए ब्राह्मण बालक का

गर्भ से पांचवें वर्ष में पराक्रम में वृद्धि के लिए, क्षत्रिय बालक का गर्भ से आठवें

वर्ष में ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार उसके पिता द्वारा कराना चाहिए।

2.38. गायत्री-सहित यज्ञोपवीत संस्कार में विलंब नहीं करना चाहिए, ब्राह्मण के

संबंध में सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय के संबंध में बाईस वर्ष तक और वैश्य के संबंध

में चौबीस वर्ष तक (यह संस्कार हो जाना चाहिए)।

2.39. इसके बाद इन तीनों वर्णों के युवक जिनका उचित समय पर यज्ञोपवीत

संस्कार नहीं होता है, व्रात्य या जातिच्युत हो जाते हैं, गायत्री भ्रष्ट हो जाते हैं और

शिष्ट जनों से निंदित होते हैं।

जहां एक गायत्री का संबंध है, वह एक मंत्र है। मनु इसके महत्व को स्पष्ट करते

हुए कहता हैः

2.76. ब्रह्मा ने तीन वेदों से तीन अक्षरों को निकाला जो परस्पर मिलकर ओउम

बनते हैं, इसके साथ तीन व्याहृतियों ‘भूः भुवः स्वः’ अर्थात् पृथ्वी, आकाश और

स्वर्ग को भी निकाला।

2.77. परमेष्ठी, ब्रह्मा ने इन तीनों वेदों से निर्वचनीय पाठ की तीन मात्रओं को

भी निकाला, जिसका आरंभ ‘तत्’ से हाता है और जिसे सावित्री या गायत्री कहते

हैं।

2.78. जो ब्राह्मण वेद जान लेगा, और इस अक्षर (ऊं) का प्रातःकाल और

संध्या-काल दोनों समय मन में उच्चारण करेगा और इस पवित्र अक्षर के बाद तीन

शब्दों का उच्चारण करेगा, उसे वेदविहित पुण्य की प्राप्ति होगी।

2.79. जो ब्राह्मण इन तीन (1. प्रणव-ॐ, 2. व्याहृति ‘भूः, भुवः, स्वः’ और

सावित्री-‘तत्’) का प्रतिदिन एक सह बार पाठ करेगा, वह एक मास में बड़े से

बड़े पाप से मुक्त हो जाएगा, जैसे सांप अपनी केंचुल से मुक्त हो जाता है।

2.80. जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन अलौकिक शब्दों का पाठ और समय पर

की जाने वाली क्रियाएं (अग्निहोत्र आदि) नहीं करेगा, वह पुण्यवानों के बीच

निंदित होगा।

2.81. ऊंकार-पूर्विका (जिनके पहले ‘ॐ’ कार है, ऐसी) ये तीनों महाव्याहृतियां

(भूः, भुवः, स्वः) अव्यय और त्रिपदा सावित्री वेद का मुख अथवा मुख्य भाग हैं।

2.82. जो व्यक्ति प्रतिदिन तीन वर्ष तक ‘ॐ’ कार सहित महाव्याहृतियों का जप

करता है, वह वायु और ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।

2.83. तीन अक्षर युक्त एकाक्षर (ॐ) ब्रह्म का प्रतीक है, ईश्वर का ध्यान कर

श्वास रोकना (प्राणायाम) सर्वश्रेष्ठ तप है, लेकिन गायत्री से श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं,

मौन की अपेक्षा सत्य भाषण श्रेष्ठ है।

2.84. वेदविहित सभी कर्म, यज्ञ और धार्मिक विधियां अपना-अपना फल देकर

नष्ट हो जाती हैं, लेकिन जो नष्ट नहीं होता वह ॐ है, इसीलिए इसे अक्षर कहते

हैं, क्योंकि यह परब्रह्म, अर्थात् सृजित जीवों के पालक का प्रतीक है।

2.85. उसके पवित्र नाम का जप विधिविहित यज्ञों से दस गुना श्रेष्ठ है, अगर

इसे कोई न सुन सके, तब सौ गुना श्रेष्ठ है और अगर यहे कवल मानस रूप हो

तब हजार गुना श्रेष्ठ है।

2.86. चारों घरेलू संस्कारों को जिनमें विधिविहित यज्ञ का विधान है, अगर एक

में मिला दिया जाए तब वह गायत्री के जप द्वारा किए गए यज्ञ के सोलहवें भाग

के भी बराबर नहीं है।

यह यज्ञोपवीत संस्कार पुनः जन्म के समान होता है।

2.147. व्यक्ति को अपना जन्म साधारण हुआ समझना चाहिए, क्योंकि यह जन्म

उसके माता-पिता ने परस्पर सुख प्राप्त करने के बाद दिया और उसे यह जन्म

माता के गर्भ में प्राप्त हुआ था।

2.148. लेकिन जो जन्म उसका आचार्य, जो संपूर्ण वेद जानता है, दिव्य माता

गायत्री के द्वारा उसे प्राप्त कराता है, वह ही वास्तविक जन्म होता है, यह जन्म

अजर और अमर होता है।

2.169. पहला जन्म असली मां से होता है, दूसरा जन्म यज्ञोपवीत धारण करने पर

होता है और तीसरा जन्म यज्ञ-कर्म करने के बाद होता है। वेद के अनुसार ये उस

व्यक्ति के जन्म होते हैं, जिसे सामान्यतः द्विज कहा जाता है।

2.170. इनमें दिव्य जन्म वह होता है जिसमें यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, ऐसे

जन्म में गायत्री उसकी मां होती है और आचार्य उसका पिता होता है।

मनु ने यह संस्कार शूद्रों और स्त्रियों के लिए स्वीकृत नहीं किए हैं।

2.103. लेकिन जो प्रातःकाल इसका खड़े होकर और संध्या समय में बैठकर

पाठ नहीं करता है, उसे शूद्र समझ कर प्रत्येक द्विज कर्म से बहिष्कृत कर देना

चाहिए।

मनु शिक्षा और अध्ययन के संबंध में नियमों का उल्लेख करना नहीं भूलता। मनु ने

सामूहिक शिक्षा के विषय में कुछ नहीं कहा है। मनु इसकी कोई उपयोगिता नहीं मानता

और वह इस संबंध में राजा या शासन के लिए कोई कर्तव्य निश्चित नहीं करता। वह

केवल धर्मग्रन्थों, अर्थात् वेदों के अध्ययन के बारे में चिंतित रहा।

वेद का अध्ययन आचार्य से और उनकी सहमति से किया जाना चाहिए। कोई भी

व्यक्ति वेद का स्वयं अध्ययन नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है, तब वह चोरी

करने का अपराध करता है।

2.116. जो अपने आचार्य की सहमति के बिना वेद का ज्ञान प्राप्त करता है, वह

शास्त्रें की चोरी करने का अपराध करता है और वह नरक में गिरता है।

9.18. स्त्रियों का वेद से कोई सरोकार नहीं होता। यह शास्त्र द्वारा निश्चित है।

चूंकि इस संबंध में धर्मशास्त्र में कोई साक्ष्य नहीं है और इनके लिए प्रायश्चित

का कोई विधान नहीं है, अतः जो स्त्रियां वेदाध्ययन करती हैं, वे पापयुक्त हैं,

और असत्य के समान अपवित्र हैं, यह शाश्वत नियम है।

4.99. वह वेद का पाठ स्वराघात और अक्षरों के स्पष्ट उच्चारण के बिना न करे,

वह शूद्र की उपस्थिति में भी वेद-पाठ न करे, रात्रि के अंतिम प्रहर में पाठ आरंभ

करने पर यदि वह थक जाए तो पुनः सो जाए।

यह निषेध तीनों उच्च वर्णों के व्रात्यों या जातिच्युत लोगों के लिए भी है। मनु कहता

हैः

2.40. ऐसे अपवित्र व्यक्तियों के साथ कोई भी ब्राह्मण वेदाध्ययन में या साहचर्य

में कोई संबंध नहीं रखे, चाहे उस पर विपत्ति ही क्यों न आ जाए।

अयोग्य घोषित व्यक्तियों के लिए यज्ञ-कर्म करना या उन्हें वेद का अध्ययन कराना

मनु द्वारा निषिद्ध था।

4.205. जो यज्ञ-कर्म वेद-पाठ के बिना हुआ हो, जो यज्ञ-कर्म बहुत सारे यज्ञ

कराने वाले यज्ञकर्मी के द्वारा किया गया हो, जो यज्ञ-कर्म स्त्री या नपुंसक द्वारा

कराया गया हो, उनमें ब्राह्मण कभी भी भोजन न करे।

4.206. जब वे लोग घी की आहुति देते हैं, तब वह सज्जनों की श्री की हानि

करता है और देवताओं में अरुचि उत्पन्न करता है, इसलिए ऐसे यज्ञ-कर्म से वह

सतर्क हो संपर्क नहीं रखे।

11.198. जो व्यक्ति जातिच्युत व्यक्तियों के लिए यज्ञ-कर्म कराता है या जो

अपरिचित का दाहकर्म करता है या जो किसी अबोध की हत्या के निमित्त यज्ञादि

करता है या जो अशुद्ध यज्ञ करता है जिसे अहिंसा कहते हैं, वह अपने पाप के

प्रायश्चित स्वरूप तीन प्रजापत्य तपस्या करने के बाद शुद्ध होता है।

अब कानून के क्षेत्र में समानता विषय लेते हैं। जब वे साक्षी के रूप में प्रस्तुत होते

हैं, तब मनु के अनुसार उनसे नीचे लिखी विधि के अनुसार शपथ कराई जाएः

8.87. न्यायकर्ता शुद्ध होकर प्रातःकाल अनेक आहूत द्विजों के साथ जो शुद्ध हों

किसी मूर्ति के सामने जो देवत्व और ब्राह्मणों का प्रतीक हो – साक्षी अपने मुख

उत्तर या पूर्व दिशा की ओर रखेंगे।

8.88. ‘न्यायकर्ता’ ब्राह्मण से ‘कहो’, क्षत्रिय से ‘सत्य कहो’ वैश्य से ‘असत्य

कहने पर गौ, बीज और सोना चुराने का पाप लगेगा’ और शूद्र से असत्य कहने

पर ‘तुम्हें उक्त या जो भी मनुष्य कर सकता है वे सभी पाप लगेंगे’ कहकर कार्य

आरंभ करेगा।

8.113. ‘न्यायकर्ता’ ब्राह्मण को उसकी सत्यनिष्ठा की, क्षत्रिय को उसके अश्व

या हाथी और उसके शस्त्रस्त्रें की, वैश्य को उसकी गौ, अन्न और सुवर्ण की,

यांत्रिक या शूद्र व्यक्ति को उसके अपने सिर और सभी संभव अपराध की, अगर

वह असत्य बोले, शपथ दिलाए।

मनु ऐसे साक्षियों का भी विवेचन करता है जो झूठी गवाही देते हैं:

8.122. विद्वानों ने ये दंड निर्धारित किए हैं, जिनका विधान महर्षियों ने झूठी गवाही

देने के अपराध के लिए किया है, जिससे अन्याय रोका जा सके और अधर्म का

निवारण हो सके।

8.123. न्यायप्रिय राजा तीनों निम्न वर्णों के व्यक्तियों पर झूठी गवाही देने पर पहले

जुर्माना करे और अगर वे बार-बार ऐसा करें, तब अपने राज्य से निष्कासित कर

दे, लेकिन ब्राह्मण को वह केवल निष्कासित करे।

लेकिन मनु ने वहां एक अपवाद का विधान किया हैः

8.112. रति या विवाह प्रस्ताव के समय स्त्री से, गौ द्वारा घास या फल खा लेने

पर, यज्ञ के लिए समिधा ले लेने पर, या ब्राह्मण के रक्षणार्थ आश्वासन देने पर,

यदि झूठी शपथ ली जाए तब वह घोर पातक कर्म होता है।

कानूनी कार्रवाई के समय संबंधित पक्ष की स्थिति की व्याख्या मनु ने कुछ उदाहरण

देकर की है, जो कुछ महत्त्वपूर्ण फौजदारी मामलों से संबंधित है। मानहानि या अपराध

लीजिए। मनु कहता हैः

8.267. जो क्षत्रिय किसी ब्राह्मण की मानहानि करेगा, तो उस पर सौ पण, वैश्य

पर डेढ़ सौ या दो सौ पण का आर्थिक दंड लगेगा, लेकिन उस प्रकार के अपराध

के लिए यांत्रिक या शूद्र को कोड़े लगाए जाएं।

8.268. कोई ब्राह्मण यदि किसी क्षत्रिय से कटु वचन कहे तब पचास पण, वैश्य

से कहे तब पचीस पण और शूद्र व्यक्ति से कहे तब बारह पण लिए जाएं।

अपमान करने का अपराध लीजिए मनु कहता हैः

8.270. यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है तब उसकी जीभ काट देनी

चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्मा के निम्नतम अंग से पैदा हुआ है।

8.271. यदि वह तिरस्कारपूर्वक उनके नाम और वर्ण का उच्चारण करता है,

जैसे वह यह कहे ‘देवदत्त तू नीच ब्राह्मण है’ तब दश अंगुल लंबी लोहे की छड़

उसके मुख में कील दी जाए।

8.272. अगर वह अभिमानपूर्वक ब्राह्मणों को उनके कर्तव्य के बारे में निर्देश दे,

तब राजा उसके मुख और कानों में गरम तेल डलवाए।

गाली देने का अपराध लीजिए। मनु कहता हैः

8.276. यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय आपस में एक-दूसरे को गाली दें, तब यह अर्थदंड विद्वान

राजा द्वारा निश्चित किया जाए, जो ब्राह्मण पर न्यूनतम और क्षत्रिय पर औसत होगा।

8.277. जैसा कि ऊपर कहा गया है जीभ काटने के दंड को छोड़कर ऐसा ही

दंड वैश्य और शूद्र के आपस में एक-दूसरे को गाली देने पर दिया जाए, यह

दंड का शाश्वत नियम है।

मारपीट करने के अपराध को लीजिए। मनु कहता हैः

8.279. निम्न कुल में पैदा कोई भी व्यक्ति यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के व्यक्ति के

साथ मारपीट करे और उसे क्षति पहुंचाए, तब उसका अंग कटवा दिया जाए, या

क्षति के अनुपात में न्यूनाधिक अंग कटवा दिया जाए, यह मनु का आदेश है।

8.280. यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध हाथ या लाठी उठाए,

तब उसका हाथ कटवा दिया जाए और अगर कोई व्यक्ति गुस्से में किसी दूसरे

व्यक्ति को लात से मारे, तब उसका पैर कटवा दिया जाए।

मिथ्या दर्प का अपराध लीजिए। मनु के अनुसारः

8.281. निम्नतम वर्ण का व्यक्ति यदि ढिठाई से उच्चतम व्यक्ति के आसन पर

साथ-साथ बैठे, तब राजा उसकी पीठ को तपाए गए लोहे से दगवा कर अपने

राज्य से निष्कासित कर दे, या उसके नितंब को कटवा दे।

8.282. यदि वह गर्व से उस पर थूक दे तब राजा दोनों ओठों को, पेशाब कर

दे तब उसके लिंग को और अगर उसकी ओर अपान वायु निकाले तब उसकी

गुदा को कटवा दे।

8.283. यदि वह ब्राह्मण को उसकी शिक्षा से या उसके दोनों पैरों से या उसकी

श्मश्रु से या गर्दन से या अंडकोष से पकड़े, तब राजा निस्संकोच उसके दोनों

हाथ कटवा दे।

8.359. यदि शूद्र वर्ण का कोई व्यक्ति ब्राह्मण की स्त्री के साथ व्यभिचार करता

है, तब वह प्राणदंड के योग्य होता है, क्योंकि चारों वर्णों की पत्नियों की निश्चय

विशेष सुरक्षा की जानी चाहिए।

8.366. यदि शूद्र वर्ग का कोई व्यक्ति उच्च वर्ग में जन्म लेने वाली किसी किशोरी

के साथ प्रेम करता है, तब उसे शारीरिक दंड दिया जाए, लेकिन जो समान वर्ग

वाली किशोरी के साथ प्रेम करे और उस किशोरी का पिता स्वीकार करे, तब

वह उसे उचित उपहार आदि देकर उसके साथ विवाह करेगा।

8.374. यदि कोई यांत्रिक या शूद्र द्विज की स्त्री के साथ जो अपने घर पर रक्षित हो

या अरक्षित हो, तब उसे इस प्रकार दंड दिया जाए। यदि वह अरक्षित थी तब उसका

आधा या सारा लिंग कटवा दिया जाए और यदि वह रक्षित थी और द्विज अनुपस्थित

था, तब उसकी सारी संपत्ति, यहां तक कि उसका जीवन भी छीन लिया जाए।

8.375. ब्राह्मण की रक्षित पत्नी के साथ व्यभिचार करने पर वैश्य को एक वर्ष

तक जेल में रखने के बाद उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाए, ऐसा ही कर्म करने

पर क्षत्रिय को एक हजार पण का आर्थिक दंड दिया जाए और उसका सिर गधे

के मूत्र से मुंडवा दिया जाए।

8.376. यदि कोई वैश्य या क्षत्रिय ब्राह्मण वर्ग की स्त्री के साथ व्यभिचार करे

और जिसकी रक्षा करने वाला उसका पति घर पर न हो, तब राजा वैश्य को पांच

सौ पण और क्षत्रिय को एक हजार पण का आर्थिक दंड दे।

8.377. ये दोनों यदि किसी ऐसी ब्राह्मणी के साथ अपराध करें जो न केवल रक्षित

हो, बल्कि सद्गुणों के लिए प्रतिष्ठित हो, तब उन्हें शूद्र वर्ग के व्यक्ति की तरह

दंड दिया जाए, या उन्हें सूखे घास या फूंस में जलाया जाए।

8.382. यदि कोई वैश्य किसी क्षत्रिय की रक्षित स्त्री के साथ, या कोई क्षत्रिय

किसी वैश्य की स्त्री के साथ व्यभिचार करे, तब ये दोनों वैसा ही दंड पाने के

अधिकारी हैं, जो अरक्षित ब्राह्मणी के प्रसंग में दिया जाता है।

8.383. किंतु यदि काई ब्राह्मण इन दोनों वर्णों की रक्षित स्त्री के साथ व्यभिचार

करता है, तब उसको एक सह पण का आर्थिक दंड दिया जाना चाहिए, ऐसा

ही अपराध शूद्र वर्ग की स्त्री के साथ करने पर क्षत्रिय या वैश्य को भी एक

हजार पण का आर्थिक दंड दिया जाना चाहिए।

8.384. यदि कोई वैश्य क्षत्रिय वर्ग की किसी स्त्री के साथ व्यभिचार करता है

और वह अरक्षित हो, तब उसको पांच सौ पण और यदि कोई क्षत्रिय इस प्रकार

का अपराध करता है, तब पेशाब से उसका सिर मुंडवा दिया जाए या उसको

उक्त आर्थिक दंड दिया जाए।

8.385. यदि कोई ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग की किसी अरक्षित स्त्री के

साथ व्यभिचार करता है, तब वह पांच सौ पण का आर्थिक दंड देगा और यदि

वह किसी अन्त्यज जाति की स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तब एक हजार

पण का आर्थिक दंड देगा।

मनु ने विभिन्न अपराधों के लिए जो योजना बनाई, उससे इस विषय पर कुछ रोचक

तथ्य प्रकाश में आते हैं:

8.379. ब्राह्मण वर्ग के व्यभिचार करने वाले व्यक्ति को मृत्यु-दंड न देकर

अपकीर्तिकर उसका सिर मुंडवाने का विधान है, जबकि अन्य वर्ग के व्यक्ति के

लिए मृत्यु-दंड तक का विधान है।

8.380. राजा ब्राह्मण का वध नहीं करेगा, चाहे उसने कितने ही भयंकर अपराध

क्यों न किए हों। वह उसे अपने राज्य से उसकी सारी संपदा सहित निष्कासित

कर दे और उसके शरीर को कोई क्षति न होने दे।

11.127. क्षत्रिय वर्ग के पुण्यशील व्यक्ति की सोद्देश्य हत्या करने का पाप उस

पाप का चौथाई है, जो ब्राह्मण की हत्या करने पर होता है। वैश्य की हत्या करने

पर केवल आठवां और शूद्र की हत्या करने पर जो अहर्निश अपने कर्तव्य का

निर्वाह करता है, यह पाप सोलहवां अंश होता है।

11.128. लेकिन यदि कोई ब्राह्मण किसी क्षत्रिय की बिना किसी दुर्भावना के

हत्या करता है, तब अपने समस्त धार्मिक कृत्यों को करने के बाद ब्राह्मणों को

एक सांड सहित एक सह गाएं दे।

11.129. या वह ब्राह्मण की हत्या करने पर की जाने वाली तपस्या को तीन वर्ष

तक इंद्रियों और क्रियाओं को संयमित करते हुए करे, अपनी जटाओं को बढ़ने दे,

नगर से दूर रहे, किसी पेड़ के नीचे अपना निवास बनाए।

11.130. यदि वह बिना किसी दुर्भावना के ऐसे वैश्य की हत्या करता है जिसका

आचरण शुद्ध है, तब वह यही प्रायश्चित एक वर्ष तक करे या ब्राह्मणों को एक

सौ गाय और एक सांड दे।

11.131. यदि किसी शूद्र की बिना किसी उद्देश्य हत्या करता है, तब वह यही

प्रायश्चित करे या वह ब्राह्मणों को दस सफेद गाएं और एक सांड दे।

8.381. इस पृथ्वी पर ब्राह्मण-वध के समान दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है। अतः

राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी न लाए।

8.126. राजा एक जैसे अपराधों की बारंबारता, उनके स्थान और समय, अपराधी

के दंड का भुगतान करने या दंड को भोग सकने के सामर्थ्य और स्वयं अपराध

पर विचार करने और निश्चय करने के बाद केवल उनको दंड दे, जो इसके

भागी हैं।

8.124. ब्रह्मा के पुत्र मनु ने दंड के दस स्थानों को निर्दिष्ट किया है जो तीन

निम्न वर्ग के व्यक्तियों के लिए उचित हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक में ब्राह्मण राज्य

से निष्कासित कर दिया जाए।

8.125. उपस्थ (मूत्रमार्ग), पेट, जीभ, हाथ और पांचवां दोनों पैर, आंख, नाक,

दोनों कान, संपत्ति और मृत्यु-दंड के मामले में संपूर्ण शरीर।

धार्मिक संस्कारों और यज्ञ-कर्म के संबंध में अधिकारों और कर्तव्यों के विषय पर

2.28. यह शरीर वेदाध्ययन से, धर्म का आचरण करने से, यज्ञ करने से, त्रैविद्य

नामक संस्कार से, देवताओं और पितरों का तर्पण करने से, पुत्रेत्पादन करने से,

पांच महायज्ञों से, पवित्र कर्म करने से ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है।

3.69. क्रमानुसार उक्त स्थानों पर अज्ञानवश पाप करने के कारण प्रायश्चित करने

के लिए महर्षियों ने प्रतिदिन पांच महायज्ञ करने का गृहस्थाश्रमियों के लिए विधान

किया है।

3.70. वेद का अध्ययन और अध्यापन ‘ब्रह्मयज्ञ’ है, पिंडदान और जल का तर्पण

करना ‘पितृयज्ञ’ है, हवन का ‘देवयज्ञ’ है, जीवों को चावल या अन्य अन्न देना

‘भूतयज्ञ’ है तथा अतिथियों का आदर करना ‘नृयज्ञ’ है।

3.71. यथाशक्ति इन पांच महायज्ञों को नहीं छोड़ने वाला व्यक्ति निरंतर गृहस्थाश्रम

में रहते हुए भी पंच सूना (पांच पाप) के दोषों से मुक्त रहता है।

ये सब मनु के आदेश हैं। नियम कभी भी पूर्ण नहीं होते कि सभी बातें आ जाएं।

इनमें कुछ न कुछ शंका अवश्य बनी रहती है। मनु इस कमी को जानता था और उसने

आपातस्थिति के आने के लिए व्यवस्था की हैः

12.108. जब कभी कोई विशेष स्थिति उत्पन्न हो जाए जो किसी नियम के अधीन

नियंत्रित न होती हो, तब कौन-सा नियम व्यवहृत किया जाए, ऐसी समस्या के

होने पर उत्तर यह है, ‘जिस नियम का ब्राह्मण भली-भांति प्रतिपादन करे, वही

नियम अकाट्य नियम समझा जाएगा।’

12.109. वे ब्राह्मण पूर्ण प्रशिक्षित हैं, जिन्होंने शास्त्रें को वेद और उनकी शाखाओं

अर्थात् वेदांग, मीसांसा, न्याय, धर्म-शास्त्रें, पुराणों का अध्ययन किया है और इनमें

से वे दृष्टांत निर्दिष्ट कर सकते हैं, जो नियमानुसार हों।

12.113. यदि अधिक ब्राह्मण एकत्र न किए जा सकें, तब एक ही ब्राह्मण का

निर्णय जो वेद के सिद्धांतों का पूर्ण ज्ञाता है, सर्वोच्च सत्ता का नियम माना जाना

चाहिए, उसे नहीं जो ऐसे अनेक व्यक्तियों द्वारा व्यक्त किया गया हो, जिन्हें शास्त्रें

का ज्ञान नहीं है।

मनु के नियम शाश्वत हैं। इसलिए यह प्रश्न ही नहीं उठता कि इनमें किसी प्रकार के

परिवर्तन किए जाएं। मनु के समक्ष तो केवल यह प्रश्न विचारणीय था कि इस व्यवस्था

को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाए।

8.410. राजा वैश्य वर्ण के प्रत्येक व्यक्ति को व्यापार करने, या ऋण देने, या

कृषि और पशुपालन का कार्य करने और शूद्र वर्ण को द्विजों की सेवा में रहने

के लिए आदेश दे।

8.418. राजा वैश्यों और शूद्रों को अपना-अपना कार्य करने के लिए बाध्य करने

के बारे में सावधान रहे, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्य से विचलित हो जाते

हैं, तब वे इस संसार को अव्यवस्थित कर देते हैं।

अगर कोई राजा अपना यह कर्तव्य नहीं पूरा करता है, तब वह अपराध है और

नियम में दंडनीय है।

8.335. पिता, आचार्य, मित्र, मां, पत्नी, पुत्र, परिवार का पुरोहित, इनमें से कोई

भी अगर अपने कर्तव्य में दृढ़ नहीं है, राजा के लिए अदंडनीय नहीं है।

8.336. जहां निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है, उसी अपराध

के लिए राजा एक सह पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे

या नदी में फेंक दे, यह शास्त्र का नियम है।

यदि कोई राजा इस व्यवस्था को नहीं मानता और कार्यान्वित नहीं करता, तब शासन

करने का उसका अधिकार छीन लिया जा सकता है। मनु ऐसे राजा के विरुद्ध विद्रोह

करने की अनुमति देता है।

8.348. जब ब्राह्मणों के धर्मचरण में बलात व्यवधान होता हो, तब द्विज शस्त्रास्त्र

ग्रहण कर सकते हैं, और तब भी जब द्विज वर्ग पर कोई भयंकर विपत्ति आ

जाए।

विद्रोह करने के अधिकार शूद्र वर्ण को नहीं, बल्कि केवल तीन उच्च वर्णों को

गया है। यह बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि इस व्यवस्था के कार्यान्वयन से इन्हीं तीन वर्णों

को लाभ होता है। लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस व्यवस्था को समाप्त करने में

क्षत्रिय वर्ण राजा की सहायता करें, तब क्या किया जा सकता है? मनु सभी वर्णों, विशेष

रूप से क्षत्रियों को दंड देने का अधिकार ब्राह्मणों को देता है।

11.31. ब्राह्मण जो धर्म ज्ञाता होता है, किसी के किसी भी अपराध की शिकायत

राजा से न करे, क्योंकि वह अपनी ही शक्ति से उन सभी लोगों को दंडित कर

सकता है, जो उसे क्षति पहुंचाते हैं।

11.32. उसकी निजी शक्ति जो केवल उसी पर निर्भर करती है, राजकीय शक्ति

से प्रबल होती है जो कि दूसरे व्यक्तियों पर निर्भर है। अतः ब्राह्मण अपनी शक्ति

के द्वारा ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।

11.33. वह निस्संकोच शक्तिशाली मंत्रें का प्रयोग कर सकता है जो अथर्वन को

प्राप्त हुए और जो उसके द्वारा अंगिरस को दिए गए, क्योंकि वाणी ही ब्राह्मण का

शस्त्रास्त्र है, जिससे वह अपने शत्रुओं का विनाश कर सकता है।

9.320. यदि कोई क्षत्रिय ब्राह्मण के विरुद्ध सभी अवसरों पर हिंसक ढंग से शस्त्र

उठाता है तो उसे स्वयं वह ब्राह्मण दंड देगा, क्योंकि क्षत्रिय मूल रूप से ब्राह्मण

से ही पैदा हुआ है।

ब्राह्मण जब तक शस्त्रास्त्र न ग्रहण करे, तब तक क्षत्रिय को किस प्रकार दंडित कर

सकता है? मनु इसे जानता था, अतः वह क्षत्रियों को दंडित करने के लिए ब्राह्मणों को

शस्त्रास्त्र ग्रहण करने का अधिकार देता है।

12.100. वेदज्ञाता मनुष्य सेनापतित्व, राज्य, दंडप्रणेतृत्त्व (न्यायाधीश आदि होने)

और संपूर्ण लोकों के स्वामित्व के योग्य है।

मनु चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का इतना प्रबल पक्षधर है कि उसने यह मौलिक परिवर्तन

करने में कोई कमी नहीं रखी। ब्राह्मण द्वारा शास्त्रस्त्र ग्रहण करने का आग्रह एक मौलिक परिवर्तन है जो मनु पूर्व विद्यमान नहीं था। ब्राह्मण द्वारा शस्त्रास्त्र ग्रहण न किए

जाने का बड़ा कठोर नियम था। मनु पूर्व आपस्तम्ब धर्म सूत्र में यह नियम निम्नानुसार

वर्णित हैः

1.10.29.6. ब्राह्मण अपने हाथ में चाहे उसे जांचने की ही इच्छा क्यों न हो शस्त्र

ग्रहण नहीं करेगा।

मनु के उत्तराधिकारी बौद्धायन ने अपने सूत्र में उसमें और संशोधन कियाः

2.24.18. गौ की रक्षा हेतु ब्राह्मण, अथवा वर्ण के विषय में भ्रांति होने पर ब्राह्मण

और वैश्य भी शस्त्रास्त्र ग्रहण कर सकते हैं, जो धर्म-सम्मत और हर कीमत पर

मान्य है।