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7. ब्राह्मणवाद की विजय: राजहत्या अथवा प्रतिक्रांति का जन्म

डॉ- बाबासाहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को ‘दि ट्रम्फ ऑफ ब्राह्मेनिज्म’ (ब्राह्मणवाद की विजय) शीर्षक के अंतर्गत केवल तीन टंकित पृष्ठ प्राप्त हुए थे। सौभाग्यवश, निबंध की एक प्रति श्री एस-एस- रेगे ने दी, ताकि उसे अंग्रेजी की पुस्तक में सम्मिलित किया जा सके। इन पृष्ठों की जांच करते समय कमेटी के सदस्यों ने यह देखा कि श्री रेगे से जो प्रति  प्राप्त हुई है, उसमें तीन से सात तक और नौ से सत्रह तक के पृष्ठ नहीं हैं।  इस लेख के कुल टंकित पृष्ठों की संख्या बानवे थी, जिसमें लापता पृष्ठ भी  सम्मिलित थे। श्री रेगे की प्रति पर ‘दि ट्रम्फ ऑफ ब्राह्मेनिज्म’ (ब्राह्मणवाद की विजय) शीर्षक दिया गया था, जब कि कमेटी को प्राप्त कागजों में पांडुलिपि   के प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक ‘रेजिसाइड और दि बर्थ ऑफ काउंटर-रिवोल्यूशन’  (राजहत्या अथवा प्रतिक्रांति का जन्म) दिया गया था। इस विषय का वर्गीकरण नौ अध्यायों में किया गया है और कमेटी को प्राप्त प्रति में इसका उल्लेख है,  जब कि श्री रेगे की प्रति में यह लापता है। डॉ- अम्बेडकर की हस्तलिखित प्रति में शीर्षक और वर्गीकरण, दोनों का ही उल्लेख है। इसलिए उन्हें अंग्रेजी के प्रकाशन में यथावत रख लिया गया है। संयोगवश कमेटी को नौ से सत्रह तक के पृष्ठ किसी अन्य फाइल में बंधे प्राप्त हुए। इन सभी कागजों को अंग्रेजी प्रकाशन में यथोचित स्थान पर लगा दिया गया है। इस प्रकार पृष्ठ संख्याचार से सात के अतिरिक्त, यह पांडुलिपि पूर्ण है। कमेटी को प्राप्त प्रति में इस विषय के वर्गीकृत जिन नौ आध्यायों का उल्लेख है, वे हैं- 1. दि ब्राह्मेनिक रिवोल्ट अगेन्स्ट बुद्धिज्म (बौद्ध धर्म के विरुद्ध ब्राह्मणवादी विद्रोह), 2. मनु दि एपोस्टिल ऑफ ब्राह्मेनिज्म (ब्राह्मणवाद के देवदूत मनु), 3. ब्राह्मेनिज्म एंड दि ब्राह्मिन्स राइट टू रूल एंड रेजिसाइड (ब्राह्मणवाद तथा ब्राह्मण का शासन करने का अधिकार और राजहत्या), 4. ब्राह्मेनिज्म एंड दि प्रिवीलेजज ऑफ  ब्राह्मिन्स (ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों के विशेष अधिकार), 5. ब्राह्मेनिज्म एंड दि क्रीएशन आफ कास्ट्स (ब्राह्मणवाद और जाति संरचना), 6. ब्राह्मेनिज्म एंड दि डिग्रेडेशन ऑफ नॉन-ब्राह्मिन्स (ब्राह्मणवाद और गैर-ब्राह्मण लोगों का अधःपतन), 7. ब्राह्मेनिज्म एंड दि सप्रेशन ऑफ दि शूद्र (ब्राह्मणवाद और शूद्रों का दमन), 8. ब्राह्मेनिज्म एंड दि सबजेक्शन ऑफ वीमेन (ब्राह्मणवाद और महिलाओं की पराधीनता), और 9. ब्राह्मेनिज्म एंड दि लीगेलाइजेशन ऑफ दि सोशल सिस्टम (ब्राह्मणवाद और सामाजिक व्यवस्था का वैधीकरण) – संपादक

I

भारत के विषय में बोलते हुए प्रो- ब्लूमफील्ड अपनी भाषण माला ‘वैदिक धर्म’ के प्रारंभ में अपने श्रोताओं को स्मरण कराते हैं कि ‘भारत कई अर्थों में अनेक धर्मों की भूमि है। इसने अपने स्वयं के संसाधन, अनेक अलग-अलग व्यवस्थाओं और पंथों को जन्म दिया है।

‘एक अन्य अर्थ में भारत अनेक धर्मों की भूमि है। अन्य किसी भी स्थान पर जीवन का तानाबाना धार्मिक विश्वासों और प्रथाओं से इतना अधिक अनुप्राणित नहीं मिलता।’1 …..

इस अभिमत में बहुत सच्चाई है। उन्होंने इस सच्चाई का कहीं अधिक गहन तथा सटीक बखान किया होता, यदि उन्होंने यह कहा होता कि भारत परस्पर विरोधी धर्मों की भूमि है। वास्तव में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां धर्म ने उसके इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, जैसी कि उसने भारत के इतिहास में निभाई है। भारत काइतिहास और कुछ नहीं, सिर्फ बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच जातीय संघर्ष का इतिहास है। इस सत्य की इतनी अवहेलना की गई है कि कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो इसे तुरंत स्वीकार कर ले। वास्तव में ऐसे कम व्यक्ति मिलेंगे जो इस प्रकार के अभिमत का खंडन कर सकें।

मैं यहां संक्षेप में भारतीय इतिहास के मुख्य-मुख्य तथ्यों को प्रस्तुत कर रहा हूं। यह इसलिए भी कि जिन लोगों ने भारत के इतिहास को कुछ भी समझा है, उनको यह जान लेना चाहिए कि यह इतिहास और कुछ नहीं है, बल्कि  ह्मणवाद और बौद्ध धर्म के बीच महत्ता के लिए संघर्ष का इतिहास है।

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  1. दि रिलीजन ऑफ दि वेद, पृ. 1

कहा जाता है कि भारत का इतिहास आर्यों के आगमन से प्रारंभ हुआ, जिन्होंने भारतपर आक्रमण किया, इसे अपना घर बनाया और अपनी संस्कृति स्थापित की। आर्य लोगों के गुण, उनकी संस्कृति, उनका धर्म तथा उनकी सामाजिक पद्धति कुछ भी क्यों न हो, परंतु हम उनके राजनीतिक इतिहास के बारे में बहुत कम जानते हैं। अनार्यों की तुलना में आर्यों की श्रेष्ठता के जो भी दावे पेश किए जाते हैं, उस सबके बावजूद यह तो निश्चित है कि आर्यों ने अपनी राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा है, जो इतिहास का अंग बन सके। नागा नाम की अनार्य जाति के उत्थान से भारत के राजनैतिक इतिहास का प्रारंभ होता है, जो कि शक्तिशाली लोग थे, जिन्हें आर्य पराजित नहीं कर सके तथा जिनके साथ आर्यों ने शांति-समझौता किया और जिन्हें आर्यों को अपने समान ही मान्यता देने के लिए बाध्य होना पड़ा। भारत ने प्राचीन-काल में राजनीतिक क्षेत्र में जो भी ख्याति और गौरव अर्जित किया, उसका श्रेय पूर्णतः अनार्य नागाओं  को जाता है। यही वे लोग हैं,जिन्होंने भारत को विश्व के इतिहास में महान और शानदार स्थान दिलाया।

भारत के राजनीतिक इतिहास में सर्वप्रथम युगांतरकारी घटना थी, बिहार में 642 ईसा पूर्व मगध साम्राज्य का उदय। कहा जाता है कि मगध साम्राज्य के संस्थापक का नाम शिशुनाग1 था और यह नागा नामक अनार्य जाति का था।

शिशुनाग द्वारा स्थापित यह छोटा-सा मगध राज्य उसके वंश में उत्पन्न समर्थ शासकों के अधीन विशाल होता गया और बिम्बसार के अधीन तो यह एक साम्राज्य ही बन गया जो इस वंश में उत्पन्न पांचवां शासक था। यह राज्य मगध साम्राज्य कहा जाने लगा। शिशुनाग वंश ने 413 ईसा पूर्व तक शासन किया। उस समय शिशुनाग वंश के सम्राट महानंद का शासन था। इस सम्राट महानंद की नंद नाम के एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति नेहत्या कर दी और वह सम्राट बन बैठा। उसने नंद राजवंश की स्थापना की। इस नंद वंश ने मगध साम्राज्य पर 322 ईसा पूर्व तक शासन किया। इसके अंतिम सम्राट को चन्द्रगुप्त ने पदच्युत किया और उसने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त शिशुनाग वंश के अंतिम सम्राट के परिवार से संबंधित था2 । इसलिए कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त नेजो क्रांति की, वह वस्तुतः मगध के नाग साम्राज्य की पुनर्स्थापना थी।

मौर्यों को जो मगध साम्राज्य मिला, उसकी सीमाएं उन्होंने अपने पराक्रम से काफी दूर-दूर तक फैलाई। अशोक के अधीन इस साम्राज्य की सीमा यहां तक बढ़ी कि इसे एक दूसरा ही नाम दिया जाने लगा। इसे मौर्य साम्राज्य या अशोक साम्राज्य कहा जाने लगा। (इसके आगे अंग्रेजी की मूल पांडुलिपि में पृ. चार से सात तक का अंश नहीं मिलता)।

उस समय जितने विभिन्न धर्म प्रचलित थे, यह उन जैसा नहीं रहा। अशोक ने इसेराजकीय धर्म घोषित किया। निश्चय ही यह ब्राह्मणवाद के लिए बहुत बड़ा आघात था।

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  1. इसे शिशुनाक भी कहा जाता है।
  2. श्री हरिकृष्ण देव, स्मिथ द्वारा उल्लिखित, अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया (1924), पृ. 44 फुटनोट।

इससे ब्राह्मणों को राज्य का संरक्षण मिलना बंद हो गया। अशोक साम्राज्य में उन्हें गौण या अधीनस्थों का दर्जा दिया जाने लगा और उनकी उपेक्षा की जाने लगी। निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह दमन इस छोटे से कारण से हुआ कि अशोक ने सभी प्रकार के पशुओं की बलि पर रोक लगा दी थी, जो ब्राह्मणवाद का मूल आधार थी। ब्राह्मणों को न केवल राज्य का संरक्षण मिलना बंद हुआ, बल्कि उनका व्यवसाय भी छिन गया। यह व्यवसाय था यज्ञ-कर्म कराना और उसके बदले शुल्क लेना, जो कभी-कभी बहुत अधिक होता था और यही उनकी जीविका का मुख्य स्त्रेत था। इस प्रकार लगभग 140 वर्षों तक मौर्य साम्राज्य रहा, ब्राह्मण दलित और दलित वर्गों की तरह रहे।1

बेचारे ब्राह्मणों के पास बौद्ध साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। यही विशेष कारण था, जिससे पुष्यमित्र ने मौर्य साम्राज्य के विरुद्धविद्रोह का नेतृत्व किया। पुष्यमित्र सुघ् गोत्र का था। सुघ् लोग सामवेदी ब्राह्मण होते थे2 , जो पशुबलि और सोमबलि में विश्वास करते थे। इसलिए समूचे मौर्य साम्राज्य में पशुबलि निषिद्ध होने और अशोक द्वारा जगह-जगह शिलालेखों आदि पर उसकी घोषणा लिखवा देने से सुघों को अनेक कष्टों का भोगना स्वाभाविक था। यदि पुष्यमित्र ने, जो एक सामवेदी ब्राह्मण था, बौद्ध साम्राज्य को जो ब्राह्मनों के सभी कष्टों का कारण था, नष्ट कर ब्राह्मणों का उद्धार करने और उन्हें अपने धर्म के पालन की छूट देने का बीड़ा उठाया, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हुई।

“पुष्यमित्र ने जो राजहत्याएं कीं, उनका उद्देश्य राज्यधर्म के रूप में बौद्ध धर्म को नष्ट करना और ब्राह्मणों को भारत का सर्वोच्च शासक बनाना था, जिससे राजा कीराजनैतिक सत्ता की सहायता से बौद्ध धर्म पर ब्राह्मण धर्म की विजय हो सके। इस तथ्यकी पुष्टि दो अन्य तथ्यों से होती है। पहला तथ्य स्वयं पुष्यमित्र के आचरण से संबंधित था। उपलब्ध साक्ष्य से पता चलता है कि राजगद्दी पर बैठने के बाद पुष्यमित्र ने अश्वमेघ यज्ञ अथवा अश्व यज्ञ कराया और इस वैदिक अनुष्ठान को केवल परम प्रभुतासंपन्न व्यक्ति ही करा सकता था। जैसा कि विन्सेंट स्मिथ कहते हैं:

“बौद्ध धर्म की सबसे अधिक उल्लेखनीय विशेषता है, पशुओं को अवध्य मानकर उनको अभय जीवन प्रदान करना। अशोक की विधि-व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता थी। इस पर बहुत अधिक बल देने के परिणामस्वरूप ऐसे सभी यज्ञ-कर्मों पर रोक लग गई, जिनमें पूजा-विधि के रूप में रक्त का उपयोग होता था और जिस विधि को कट्टर ब्राह्मण अपना प्रधान अनुष्ठान मानते थे, ब्राह्मणों ने

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  1. मनु ने मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिए जो विशेषाधिकार मांगे, उनसे मौर्य शासन में ब्राह्मणों की हीन भावना का पता चलता है। उनमें यह हीन भावना अपनी दलित स्थिति के कारण आई होगी।
  2. बुद्धिस्टिक स्टडीज (सं- लॉ), अध्या- 34, पृ. 819, में श्री हरप्रसाद शास्त्री का लेख देखें।

इस क्षेत्र में जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, उसकी शुरुआत पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने से हुई। इस प्रकार के यज्ञ-कर्म बाद में पांच शताब्दियों, समुद्रगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों के समय तक जोर-शोर से प्रचलित रहे।”

एक और प्रमाण यह है कि पुष्यमित्र ने अपने राज्यारोहण के बाद बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध जोर-शोर से और कटुतापूर्वक उन्हें सताने का आंदोलन छेड़ दिया था।

पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्म को किस निर्दयता से कुचला, इसका अनुमान उसकी उस घोषणा से लगाया जा सकता है, जो उसने बौद्ध भिक्षुओं के विरुद्ध जारी की थी। इस घोषणा में पुष्यमित्र ने हर बौद्ध भिक्षु के कटे हुए सिर की कीमत सौ   स्वर्ण मुद्राएं  निर्धारित की थी।1

पुष्यमित्र के शासन में बौद्धों पर किस प्रकार अत्याचार किया गया, इस बारे में टिप्पणी करते हुए डॉ- हरप्रसाद शास्त्री कहते हैं2:

“कट्टर और धर्मांध सुघ् के शासन-काल में बौद्धों की स्थिति का अनुमान करना, उसका वर्णन करने की अपेक्षा अधिक सरल होगा। चीनी अधिकारियों से यह पता चलता है कि बहुत से बौद्ध आज भी पुष्यमित्र का नाम उसे भला-बुरा कहे बिना नहीं लेते हैं।”

II

यदि पुष्यमित्र की क्रांति केवल राजनीतिक क्रांति थी, तब बौद्धों पर व्यापक रूप से अत्याचार करना उसके लिए कोई जरूरी नहीं था। यह तो लगभग वैसा ही कार्य था, जैसा गजनी के मोहम्मद ने हिंदू धर्म के साथ किया था। यह एक परिस्थितिजन्य साक्ष्य है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पुष्यमित्र का उद्देश्य बौद्ध धर्म को समाप्त करना और उसके स्थान पर ब्राह्मणवाद की स्थापना करना था।

एक अन्य साक्ष्य द्वारा यह पता चलता है कि मौर्य लोगों के विरुद्ध पुष्यमित्र ने जिस क्रांति का सूत्रपात किया, उसका उद्देश्य बौद्ध धर्म का विनाश और उसके स्थान पर ब्राह्मणवाद की स्थापना करना था, जो कि विधि-संहिता के रूप में मनुस्मृति को अपनाए जाने के बारे में की गई घोषणा से स्पष्ट है।

मनुस्मृति को ईश्वरीय कृति कहा जाता है। यह कहा जाता है कि इसे स्वयंभू (अर्थात् ब्रह्मा) ने मनु को सुनाया था और बाद में मनु ने इसे मनुष्यों को बताया। यह दावा स्वयं

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  1. बर्नोफ ल ‘इंट्रोडक्शन अल हिस्टरी’ ऑन बुद्धिज्म, इंडियन, (दूसरा संस्करण), पृ. 388
  2. बुद्धिस्टिक स्टडीज (सं- लॉ), अध्याय 34, पृ. 820, में श्री हरप्रसाद शास्त्री का लेख देखें।

 

स्मृति में किया गया है। यह आश्चर्यजनक बात है कि किसी ने भी इस दावे के आधारों की जांच करने की चिंता नहीं की। इसका फल यह हुआ कि भारत के इतिहास में मनुस्मृति की विशेषता, स्थान और महत्त्व का मूल्यांकन करने में कोई भी सफल नहीं हो सका है। हालांकि हिंदू समाज एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति से होकर गुजरा था और मनुस्मृति इसका अभिलेख है, तो भी यह बात भारत के इतिहासकारों पर भी लागू होती है। लेकिन यह भी सत्य है कि मनुस्मृति ने अपने कृतिकार के विषय में जो दावा किया है, वह बिल्कुल झूठा है और इस झूठे दावे के कारण जो आस्थाएं उपजी हैं, वह कोई तर्कसंगत नहीं हैं।

प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु की आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।1 भृगु की इस कृति का वास्तविक नाम मनु की धर्म-संहिता है। भृगु का नाम इस संहिता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जोड़ दिया गया है। इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शताब्दी में नारदस्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार सुमति भार्गव नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु संहिता की रचना की। सुमति भार्गव कोई काल्पनिक नाम नहीं है। अवश्य ही यह कोई ऐतिहासिक व्यक्ति रहा होगा। इसका कारण यह है कि मनुस्मृति के महान टीकाकार मेधातिथे2 का यह मत था कि यह मनु निश्चय ही कोई ‘व्यक्ति’ था। इस प्रकार मनु नाम सुमति भार्गव का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे।

सुमति भार्गव ने इस संहिता की रचना कब की? यह संभव नहीं है कि इसकी रचना की सही तिथि बताई जाए। परंतु वह सही अवधि दी जा सकती है, जिसमें इस ग्रंथ की रचना की गई। कुछ ऐसे विद्वानों के अनुसार, जिनकी विद्वता पर संदेह नहीं किया जा सकता, सुमति भार्गव ने इस संहिता की रचना ईसा पूर्व 170 और ईसा पूर्व 150 के मध्य-काल में की और इसका नाम जान-बूझकर मनुस्मृति रखा। अब यदि हम इस तथ्य पर ध्यान दें कि पुष्यमित्र ने ब्राह्मणवाद की क्रांति ईसा पूर्व 185 में प्रारंभ की थी, तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि पुष्यमित्र ने मनुस्मृति नामक जिस संहिता को लागू किया, वह मौर्यों के बौद्ध राज्य के विरुद्ध ब्राह्मणवाद की क्रांति के सिद्धांतों का मूर्त रूप थी और यह कि मनुस्मृति ब्राह्मणवाद की अनेक संस्थाओं की उत्स थी।

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  1. इस बात के लिए जायसवाल की पुस्तक हिंदू पोलिटी में मनु और याज्ञवल्क्य विषयक अध्याय देखें।
  2. कमेंट्री ऑन मनु, 1.1

 

जो भी व्यक्ति मनुस्मृति की निम्नलिखित विशेषताओं पर ध्यान देगा उसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि पुष्यमित्र ने जिस क्रांति का आह्नान किया, वह केवल व्यक्तिगत आधार पर शुरू किया गया कोई साहसपूर्ण कार्य नहीं था। पहली ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनुस्मृति एक नवीन विधि-संहिता है, जिसे पुष्यमित्र के शासन-काल में पहली बार प्रवर्तित किया गया था। पहले लोग यह समझतेथे कि कोई मानव-धर्म-सूत्र नामक एक संहिता थी और जिसे मनुस्मृति के नाम सेजाना जाता है, वह उसी पुरानी मानव-धर्म-शूत्र संहिता के आधार पर बनी है। बाद में इस मत पर लोगों का विश्वास नहीं रहा क्योंकि इस प्रकार की किसी कृति का कोई चिह्न उपलब्ध नहीं हुआ। वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रंथ विद्यमान थे। इनमें से एक मानव अर्थशास्त्र अथवा मानव राजशास्त्र अथवा मानव राजधर्म शास्त्र के नाम से एक पुस्तक बताई जाती थी। एक अन्य पुस्तक मानव गृह सूत्र के नाम से जानी जाती  थी। विद्वानों ने मनुस्मृति की तुलना की है। महत्वपूर्ण विषयों पर एक ग्रंथ के उपबंध दूसरे ग्रंथ से केवल असमान ही नहीं हैं अपितु दूसरे ग्रंथ में दिए गए उपबंधों से प्रत्येक दशा में भिन्न हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि मनुस्मृति में नए शासन की नवीन विधि दी गई है।

मनुस्मृति में बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध स्पष्ट व्यवस्थाएं दी गई हैं, जिनसे यह

पता चलता है कि पुष्यमित्र का नवीन शासन बौद्धों और बौद्ध धर्म का विरोधी था। इस

संबंध में मनुस्मृति के निम्नलिखित सूत्रें पर ध्यान दीजिए:-

9.225. जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं… राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने

साम्राज्य से निष्कासित कर दें।

9.226. राजा के साम्राज्य में रहने वाले छद्मवेश में ये डाकू अपने कुकृत्यों से

संभ्रात जगत को अनवरत हानि पहुंचाते हैं।

5.89. जल का तर्पण उन लोगों (आत्माओं) को अर्पित नहीं किया जाएगा जो

(निर्धारित अनुष्ठानों की उपेक्षा करते हैं और जिनके लिए यह कहा जाता है कि)

उनका जन्म व्यर्थ ही हुआ है; ऐसे लोगों को भी जल-तर्पण नहीं किया जाएगा जो

जातियों के अवैध समागम से उत्पन्न हुए हैं; उन लोगों का भी जल-तर्पण नहीं

किया जाएगा जो संन्यासी (विधर्मी वर्गों के लोग) हैं और उन लोगों को जल-तर्पण

नहीं किया जाएगा, जिन्होंने आत्महत्या की है।

5.90. उन महिलाओं (की आत्माओं को जल-तर्पण नहीं किया जाएगा) जो विधर्मी

पंथ में सम्मिलित हो गई हैं।

4.30. वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे)

को सम्मान न दे।

12.95. वे सभी परंपराएं और वे सभी दर्शन की हेय पद्धतियां, जो वेद पर आधारित

नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि

वे अंधकार पर आधारित हैं।

12.96. वे सभी (सिद्धांत) जो (वेद) से विमुख हैं, उत्पन्न होते और (शीघ्र ही)

मिट जाते हैं, वे व्यर्थ हैं और झूठे हैं क्योंकि वे अर्वाव्फ़ (अर्थात् इस समय के

रचे हुए) हैं।

वे कौन से विधर्मी हैं जिनके बारे में मनु ने संकेत किया है और वे नए राजा से

किसे चाहते हैं कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे और वह कौन-सा

गृहस्वामी है, जिसके लिए उसके जीवन-काल में और मृत्यु के बाद आदर देने की बात

नहीं उठती? आधुनिक युग का यह व्यर्थ का दर्शन क्या है जो वेदों से भिन्न है और

अज्ञान पर आधारित है तथा जिसका निश्चय ही विनाश हो जाएगा? इसमें कोई संदेह

नहीं कि मनु के शब्दों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलंबी है, और वेदों से भिन्न आधुनिक युग

का दर्शन जिसे निस्सार कहा गया है, बौद्ध धर्म है। मनुस्मृति के एक अन्य टीकाकार

कुल्लुक भट्ट स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनु के इन श्लोकों में विधर्मियों से तात्पर्य

बौद्ध धर्मावलंबियों और बौद्ध धर्म से है।

तीसरा साक्ष्य वह स्थान है जो मनुस्मृति के लिए निर्धारित किया गया है। मनुस्मृति

के निम्नलिखित श्लोकों पर ध्यान दीजिए:

1.93. ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण, ज्येष्ठ होने से, वेद के धारण करने

से धर्मानुसार ब्राह्मण ही संपूर्ण सृष्टि का स्वामी होता है।

1.96. समस्त सृजन में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ हैं,

बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।

1.100. पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब ब्राह्मणों का है, अर्थात् ब्राह्मण अच्छे

कुल में जन्म लेने के कारण इन सभी वस्तुओं का स्वामी है।

1.101. ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है

तथा दूसरे व्यक्ति की कृपा से इन सबका भोग करते हैं।

10.3. जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति-स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान

आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत-संस्कार आदि की श्रेष्ठता से

ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।

11.35. ब्राह्मण के बारे में यह घोषित है कि वह विश्व का सृजक, दंडदाता,

अध्यापक है और इसलिए सभी सृजित मानवों का उपकारक है, कोई भी व्यक्ति

जो अहितकारी नहीं कह सकता और न उसके विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग

कर सकता है।

मनु आगे दिए गए शब्दों के द्वारा ब्राह्मणों को असंतुष्ट करने के विरोध में राजा को

यह चेतावनी देता है:

9.313. (राजा) को घोरतम विपत्ति में भी ब्राह्मणों को क्रुद्ध होने के लिए उत्तेजित

नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण क्रोधित होने पर उस राजा को, उसकी सेना,

हाथियों, घोड़ों, वाहनों को नष्ट कर सकते हैं।

मनु ने इससे आगे भी घोषणा की है:

11.31. नियमों को अच्छी तरह जानने वाले ब्राह्मण को किसी दुःखदायी आघात

की स्थिति में राजा से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अपनी

शक्ति द्वारा ही उस व्यक्ति को दंड दे सकता है जो उसे आघात पहुंचाता है।

11.32. उसकी निजी शक्ति जो केवल उसी पर निर्भर करती है, राजकीय शक्ति

से प्रबल होती है जो दूसरे व्यक्तियों पर निर्भर है। अतः ब्राह्मण अपनी शक्ति से

ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।

ब्राह्मणों को देवता स्वरूप समझना और उन्हें राजा से ऊंचा स्थान देना तब तक संभव

नहीं होगा जब तक राजा स्वयं ब्राह्मण न हो और मनु द्वारा व्यक्त विचारों से सहानुभूति

न रखता हो। पुष्यमित्र और उसके उत्तराधिकारियों ने ब्राह्मणों के इन अतिशयोक्तिपूर्ण

दावों को सहन नहीं किया होगा, जब तक कि वे स्वयं ब्राह्मण न रहे होंगे और

ब्राह्मणवाद की स्थापना में रुचि न रखते होंगे। वास्तव में यह अधिक संभव है कि मनुस्मृति

पुष्यमित्र के ही आदेश पर रची गई थी। यह ग्रंथ ब्राह्मणवाद का दर्शन-ग्रंथ है।

इन सभी तथ्यों पर ध्यान देने के बाद अब कोई संदेह नहीं रहता कि पुष्यमित्र की

क्रांति का एकमात्र उद्देश्य बौद्ध धर्म का विनाश करना तथा ब्राह्मणवाद की पुनः स्थापना

करना था।

भारत का इतिहास जिस रीति से लिखा गया है, उससे मैं अगर संतुष्ट होता, तब इस

अध्याय के लिए भारत के इतिहास के बारे में मेरी उपर्युक्त टिप्पणी की कोई आवश्यकता नहीं

थी। सच तो यह है कि मैं बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूं। इसकी वजह यह है कि मुसलमानों

के हमलों और इन हमलों में उनकी जीत पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है। पन्ने-पर-पन्ने

यह दिखाने के लिए लिखे गए हैं कि किस तरह एक के बाद एक मुसलमानों के हमले

इस तरह होते गए, जैसे पहाड़ की चोटी से बरफ और चट्टानें बार-बार गिर रही हों, और

इन हमलों ने कैसे गांव के गांव उजाड़ दिए और शासकों को अपदस्थ करते गए। भारत

के इतिहास से यह बताने की कोशिश की गई कि इसमें एक ही महत्त्वपूर्ण बात मुसलमानों

के आक्रमणों की सूची है। लेकिन अगर इसी संकीर्ण दृष्टि से देखा जाए, तो यह स्पष्ट हो

जाएगा कि मुसलमानों के आक्रमण ही पठनीय नहीं हैं। यहां ऐसे ही अनेक आक्रमण हुए

हैं, जो भले ही कोई अधिक महत्त्वपूर्ण न रहे हों। अगर हिंदू भारत पर मुसलमान आक्रमण्

शकारियों ने आक्रमण किए तो बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमणकारियों ने आक्रमण किए

थे। हिंदू भारत पर मुसलमानों के आक्रमण और बौद्ध भारत पर ब्राह्मणों के आक्रमण, दोनों

में बहुत-सी समानताएं हैं। हिंदू भारत के मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपने-अपने वंश

की समृद्धि के लिए परस्पर लड़ाइयां लड़ीं। अरबों, तुर्कों, मंगोलों और अफगानों ने आपस

में एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन इनमें एक बात समान थी।

उनका उद्देश्य मूर्तिपूजा को नष्ट करना था। इसी प्रकार बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमण्

शकारियों ने परस्पर अपने ही वंश की श्रीवृद्धि के लिए लड़ाइयां लड़ीं। शुंगों, कण्वों और

आंध्रों ने परस्पर एक-दूसरे पर अपनी धाक जमाने के लिए लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन हिंदू

भारत पर मुसलमान आक्रमणकारियों की तरह उनका एक-समान उद्देश्य था – बौद्ध धर्म

और मौर्यों द्वारा स्थापित बौद्ध साम्राज्य का विनाश। अगर हिंदू भारत पर मुसलमानों के

आक्रमण इतिहासकारों के लिए विवेचन का विषय बन सकते हैं, तो बौद्ध भारत पर ब्राह्मणों

के आक्रमण भी विवेचन का विषय होना चाहिए। बौद्ध भारत में बौद्ध धर्म के दमन के

लिए ब्राह्मणों ने जो उपाय और साधन अपनाए थे, उन उपायों और साधनों की तुलना में

कम हिंसापूर्ण और कठोर नहीं थे, जो मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदू धर्म का दमन

करने के लिए अपनाए थे। सामान्य जनता के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पर स्थाई

प्रभाव की दृष्टि से यदि हम विचार करें तो कहा जा सकता है कि बौद्ध भारत पर ब्राह्मण

आक्रमण का इतना अधिक गंभीर प्रभाव पड़ा कि उसकी तुलना में हिंदू भारत पर मुसलमानों

के आक्रमण का प्रभाव वस्तुतः सतही और क्षणिक रहा। मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदू

धर्म के बाहरी प्रतीकों, जैसे मंदिरों और मठों आदि को तो नष्ट किया था, लेकिन उन्होंने

हिंदू धर्म को न तो निर्मूल किया और न उन्होंने उन सिद्धांतों या मतों से जनता को विमुख

करने की ही कोशिश की, जो सामान्य जन के आध्यात्मिक जीवन को संचालित करते थे।

ब्राह्मण आक्रमणों के प्रभाव ने उन सिद्धांतों में आमूल परिवर्तन कर दिया, जिनकी शिक्षा

बौद्ध धर्म में एक शताब्दी से आध्यात्मिक जीवन के सच्चे और शाश्वत सिद्धांतों के रूप

में दी थी और जो जन-सामान्य द्वारा जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिए गए और

जिनका अनुपालन भी होता था। अगर हम इस रूपक को थोड़ा उलट कर कहें, तो कह

सकते हैं कि उन्होंने किसी जलाशय में नहाते वक्त उसके जल को खूब हिलाया-डुलाया

व मथा, और यह भी कुछ देर तक किया। उसके बाद वह थक गए और बाहर निकल

आए, जिससे जलाशय फिर शांत हो गया। अगर हम हिंदू धर्म के सिद्धांतों को प्रतीक के

लिए बालक मान लें तो कहा जा सकता है कि उन्होंने कभी भी जलाशय से बालक को

बाहर निकाल कर नहीं फेंका। लेकिन बौद्ध धर्म के विरुद्ध संघर्ष में ब्राह्मणवाद ने तो सब

कुछ ही बदल दिया। उन्होंने जलाशय से बौद्ध धर्म रूपी बालक और सारे जल को बाहर

निकाल फेंका और उसकी जगह अपना जल भर दिया और वहां अपना बालक ले आए।

ब्राह्मणवाद यह देखने के लिए नहीं रुका कि स्वच्छ और सुगंधियुक्त जल की तुलना में

जो बौद्ध धर्म के पावन स्रोत से निःसृत हो रहा था, उसका जल कितना मटमैला और गंदा

है। ब्राह्मणवाद इस बात पर विचार करने के लिए नहीं रुका कि बौद्ध शिशु की तुलना

में उसका अपना शिशु कितना विकृत और कुरूप है। ब्राह्मणवाद ने अपने आक्रमणों के

द्वारा बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने के लिए राजनैतिक शक्ति प्राप्त की और उसने बौद्ध

धर्म को समूल नष्ट भी किया। इस्लाम ने हिंदू धर्म को नष्ट कर उसके स्थान पर अपने

को स्थापित नहीं किया। इस्लाम ने अपने उद्देश्य को कभी भी व्यापक नहीं होने दिया।

ब्राह्मणवाद ने यह कार्य किया। इसने बौद्ध धर्म को धर्म के रूप में निकाल बाहर किया

और स्वयं उसका स्थान ले लिया।

इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हिंदू भारत पर मुसलमान आक्रमणों के कारण

जितना भी प्रभाव उत्पन्न हो सकता था, उसकी तुलना में बौद्ध भारत पर ब्राह्मण आक्रमणों

का प्रभाव भारत के इतिहासकारों के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन इतिहासकारों

ने उन दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तनों पर बहुत कम ध्यान दिया है, जो मौर्यों द्वारा निर्मित बौद्ध भारत

को झेलने पड़े और यदि कहीं कुछ वर्णन हुआ भी तो वहां ऐसे प्रश्नों का सटीक विवेचन

करने पर ध्यान नहीं दिया गया जो सहज ही उत्पन्न होते हैं, जैसे शुंग, कण्व और आंध्र

कौन थे, उन्होंने बौद्ध भारत को नष्ट क्यों किया जिसका निर्माण मौर्यों ने किया था। इस

तरह उन परिवर्तनों का विवेचन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, जो ब्राह्मणवाद ने

बौद्ध धर्म पर विजय पाने के बाद राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में किए थे।

भारत के इतिहास के इस पहलू को न समझने का कारण कुछ बहुत ही गलत धारणाएं

हैं जो काफी प्रचलित हैं। यह आमतौर पर मान लिया गया है कि भारत की एक ही

संस्कृति रही है और सारे इतिहास में यही मिलती है, ब्राह्मणवाद, बौद्ध धर्म और जैन धर्म

इसके विभिन्न पहलू हैं और इनमें परस्पर कोई मूल विरोध नहीं रहा है। दूसरी धारणा

यह कि भारतीय राजनीति में जो भी झगड़े व लड़ाइयां देखने के लिए मिलती हैं, उनका

आधार केवल राजनीति और वंशगत बैर आदि रहा है, और इनका कोई भी सामाजिक

और आध्यात्मिक महत्व नहीं रहा। इन्हीं गलत धारणाओं के कारण भारत का इतिहास

जड़वत हो गया और एक वंश का अभिलेख मात्र बनकर रह गया। इस प्रवृत्ति या इस

प्रकार इतिहास लिखने के तरीकों में तभी सुधार आ सकता है, जब इन दो तथ्यों को

स्वीकार कर लें जिनके बारे में कोई विवाद नहीं है।

सबसे पहली बात तो यह स्वीकार कर लेनी चाहिए कि एक-समान भारतीय संस्कृति

जैसी कोई चीज कभी नहीं रही और यह कि भारत तीन प्रकार का रहा – ब्राह्मण भारत,

बौद्ध भारत और हिंदू भारत। इनकी अपनी-अपनी संस्कृतियां रहीं। दूसरी बात यह स्वीकार

की जानी चाहिए कि मुसलमानों के आक्रमण के पहले भारत का इतिहास ब्राह्मणवाद

और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा है। जो कोई इन

दो तथ्यों को स्वीकार नहीं करता, वह भारत का सच्चा इतिहास कभी नहीं लिख सकता,

ऐसा इतिहास जो उस युग के अर्थ और उद्देश्य को स्पष्ट कर सके। भारत का इतिहास

जिस प्रकार लिखा गया, उसे सुधारने और बीते युग का अर्थ और उद्देश्य स्पष्ट करने

की भावना से प्रेरित होकर मैं बौद्ध भारत पर ब्राह्मण भारत के आक्रमण और बौद्ध धर्म

पर ब्राह्मणवाद की राजनैतिक विजय का इतिहास फिर से लिख रहा हूं।

इसलिए हम इस तथ्य को स्वीकार कर अपनी बात शुरू करेंगे कि पुष्यमित्र की

क्रांति राजनैतिक क्रांति थी, जिसकी योजना ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म को निकाल बाहर करने

के लिए तैयार की थी।

जिज्ञासु सहज ही यह पूछेगा कि ब्राह्मणवाद ने विजयी होने के बाद क्या किया? मैं अब

इसी प्रश्न को लेता हूं। विजय के दर्प से फूले इस ब्राह्मणवाद के कृत्यों अथवा दुष्कृत्यों की

सूची सात शीर्षकों में बनाई जा सकती है – (1) इसने ब्राह्मणों को शासन करने और राजहत्या

करने का अधिकार प्रदान किया, (2) इसने ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों का

वर्ग बनाया, (3) इसने वर्ण को जाति में बदल दिया, (4) इसने विभिन्न जातियों के बीच

संघर्ष और समाज-विरोधी भावना पैदा की, (5) इसने शूद्रों और स्त्रियों को हेय माना, और

(6) इसने वर्ण-असमानता की प्रणाली को थोप दिया, और (7) इस सामाजिक व्यवस्था

को कानूनी और कट्टर बना दिया जो पहले पारंपरिक और परिवर्तनशील थी।

हम पहले शीर्षक से शुरू करते हैं।

पुष्यमित्र ने जिस क्रांति का सूत्रपात किया, उसने शुरू में ब्राह्मणों के लिए कठिनाई

पैदा कर दी। लोग आसानी से इस क्रांति के साथ समझौता नहीं कर सके। जनता के विरोध

को बाण1 कवि ने बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। वह इस क्रांति का उल्लेख करते हुए

पुष्यमित्र की, उसे अधम जाति में पैदा हुआ बताकर, आलोचना करता है और उसके द्वारा

की गई राजहत्या को अनार्य, अर्थात् आर्य नियम के विरुद्ध बताता है। पुष्यमित्र की क्रांति

के आरम्भ होने तक तीन बातों पर आर्य नियम पूर्ण रूप से स्पष्ट थे। तत्कालीन आर्य

  1. हर्ष चरित, स्मिथ (1924) द्वारा उद्धृत, पृ. 208

नियमों में इस बात का स्पष्ट विधान था कि (1) राजा होने का अधिकार केवल क्षत्रिय

का है, कोई ब्राह्मण राजा नहीं हो सकता, (2) कोई भी ब्राह्मण आयुधों का व्यवसाय नहीं

करेगा1

, और (3) राजा के विरुद्ध विद्रोह पाप है। पुष्यमित्र ने विद्रोह को संरक्षण देकर

इन व्यवस्थाओं में प्रत्येक के विरुद्ध पाप किया है। वह ब्राह्मण था। उसने ब्राह्मण होते हुए

राजा के विरुद्ध विद्रोह किया। उसने आयुधों का व्यवसाय अपनाया और वह राजा बन बैठा।

सामान्य-जन उसके इस कार्य से असंतुष्ट था जो नियम-विरुद्ध था। ब्राह्मणों को पुष्यमित्र

द्वारा उत्पन्न इस परिस्थिति को विनियमित करना पड़ा। ब्राह्मणों ने यह कार्य सारी व्यवस्था

में परिवर्तन कर पूरा किया। व्यवस्था में यह परिवर्तन मनुस्मृति में बहुत ही स्पष्ट दिखाई

देता है। मैं मनुस्मृति में से संबंधित श्लोकों को यहां उद्धृत कर रहा हूं:

12.100. राज्य में सेनापति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर

शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है।

यहां हम नियम में एक परिवर्तन देखते हैं। नया नियम यह घोषित करता है कि

ब्राह्मण को सेनापति बनने, किसी राज्य को जीतने, उस राज्य का शासक और उसका

राजा बनने का अधिकार है।

11.31. नियमों को अच्छी तरह जानने वाले ब्राह्मण को किसी दुःखदायी आघात की

स्थिति में राजा से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अपनी शक्ति

द्वारा ही उस व्यक्ति को दण्ड दे सकता है और उसे आघात पहुंचाता है।

11.32. उसकी निजी शक्ति जो केवल उसी पर निर्भर करती है, राजकीय शक्ति

से प्रबल होती है जो कि दूसरे व्यक्तियों पर निर्भर है। अतः ब्राह्मण अपनी शक्ति

के द्वारा ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।

11.261.62. कोई भी ब्राह्मण जिसने चाहे तीनों लोकों के मनुष्यों की हत्याएं क्यों

न की हों, उपनिषदों के साथ-साथ ऋव्फ़, यजु या सामवेद का तीन बार पाठ कर

सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

  1. यह नियम इतना कठोर था कि आपस्तम्ब धर्म सूत्र के अनुसार, ‘कोई भी ब्राह्मण अपने हाथों में आयुध

नहीं ग्रहण करेगा, चाहे वह उसकी जांच क्यों न करना चाहता हो।’ अतः पुष्यमित्र ने, जो कि ब्राह्मण

था, ऐसा कार्य किस प्रकार किया, यह आश्चर्य की बात है क्योंकि इन परिस्थितियों में यह कार्य वही

कर सकता था जो वीर जाति का हो। इसे हरप्रसाद शास्त्री ने बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है। उनके

अनुसार, शुंग यद्यपि ब्राह्मण था, तथापि वह वीर जाति का था। युद्धशील ब्राह्मणों में दो ब्राह्मण शेष

ब्राह्मणों से पृथक थे, विश्वामित्र और भारद्वाज। विश्वामित्र की पत्नी बांझ होने से, एक भारद्वाज से

प्राचीन प्रथा ‘नियोग’ के अनुसार विश्वामित्र के लिए पुत्र पैदा करने के लिए कहा गया। इससे शुंग

पैदा हुआ। वह एक गोत्र का जनक बना। इस गोत्र ने सामवेद का अध्ययन करना शुरू किया। शुंग का

गोत्र द्वैमुश्य गोत्र कहा गया, अर्थात् दो गोत्रें, विश्वामित्र और भारद्वाज, दोनों ने युद्ध को अपना व्यवसाय

चुना। – देखें, बुद्धिस्टिक स्टडीज (सं- लॉ-), अध्याय 34, पृ. 820.

यहां नियम में दूसरा परिवर्तन किया गया है। यह ब्राह्मण को न केवल राजा की

हत्या, बल्कि जन-सामान्य में नर-संहार करने का भी अधिकार देता है, बशर्ते वह उसकी

शक्ति और पद को क्षति पहुंचाते हों।

8.348. यदि किसी द्विज के कर्तव्य को बलपूर्वक किया जाता है या उन पर विपत्ति

आती है या उनके दुर्दिन आते हैं तो वे शस्त्र उठा सकते हैं।

9.320. यदि कोई क्षत्रिय ब्राह्मण के विरुद्ध सभी अवसरों पर हिंसक ढंग से शस्त्र

उठाता है, तो उसे स्वयं वह ब्राह्मण ही दंड देगा क्योंकि क्षत्रिय मूलतः ब्राह्मण से

ही पैदा हुआ है।

यह तीसरा वैधानिक परिवर्तन है। यह विद्रोह करने और राजहत्या करने के अधिकार

को मान्यता देता है। यह नया नियम बड़ी ही कुशलतापूर्वक बनाया गया है। यह विद्रोह

करने का अधिकार तीन उच्च वर्गों को देता है। लेकिन यह अधिकार ब्राह्मणों को दिया

गया और इसके लिए ऐसी परिस्थिति की व्यवस्था की गई, जिसके रहते विद्रोह में

क्षत्रिय और वैश्य, ब्राह्मण का सहभागी न बन सकें। विद्रोह करने के अधिकार को भली

प्रकार परिसीमित किया गया। इस अधिकार का प्रयोग केवल ऐसी दशा में होगा, जब राजा

विभिन्न वर्णों के लिए मनु द्वारा निर्दिष्ट व्यवसायों में उलट-फेर करने का दोषी हो।

यह नियम-परिवर्तन जितने आवश्यक थे, उतने ही क्रांतिकारी। इनका उद्देश्य उस

स्थिति को अधिनियमित और नियमित करना था जो पुष्यमित्र ने अंतिम मौर्य राजा की

हत्या कर उत्पन्न की थी। इन विधिक परिवर्तनों के होने से कोई भी ब्राह्मण राजा बन

सकता था, आयुध ग्रहण कर सकता था, किसी भी राजा को राजगद्दी से उतार या उसकी

हत्या कर सकता था, जो चातुर्वर्ण्य का विरोधी हो और किसी भी व्यक्ति की हत्या कर

सकता था, जो ब्राह्मण की सत्ता का विरोध करता हो। मनु ने ब्राह्मणों को नर-संहार का

अधिकार दे दिया, बशर्ते यह उनके हितों की रक्षा करने के लिए आवश्यक हो जाए।

इस प्रकार ब्राह्मणवाद ने शासन करने के ब्राह्मण के अधिकार को सुस्थापित कर

दिया और इस संबंध में जो भी शंकाएं और विवाद थे, उन सबको दूर कर दिया। लेकिन

यह समूचे ब्राह्मण वर्ग के लिए कोई लाभ की बात न थी। यदि ब्राह्मण-शासन में किसी

ब्राह्मण के साथ गैर-ब्राह्मणों की तरह सामान्य-जन जैसा व्यवहार किया जाए और उसको

उन जैसे अधिकार और कर्त्तव्य प्राप्त हों, तब कोई खास अंतर नहीं कहा जा सकता था।

यदि ब्राह्मण-शासन को अपने अस्तित्व के बारे में कोई औचित्य सिद्ध करना था, तब

उसे ब्राह्मणों के समस्त वर्ग को विशेषाधिकार और विशेष रियायत देनी चाहिए थी। यदि

पुष्यमित्र की क्रांति में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्वीकार न की गई होती और उन्हें विशेष

सुविधाएं न प्रदान की गई होतीं, तब निश्चय ही वह असफल हो जाती। मनु इससे पूरी

तरह परिचित था और इसीलिए उसने, जैसा कि मनुस्मृति से स्पष्ट है, ब्राह्मणों के लिए

कुछ एकाधिकार निश्चित किए और कुछ विशेष रियायतें और विशेषाधिकार स्वीकृत

किए। पहले एकाधिकारों को लीजिएः

1.88. ब्राह्मणों के लिए उसने (वेद) पढ़ना और पढ़ाना अपने तथा दूसरों के लाभ

के लिए यज्ञ करना और कराना, दान देना और लेना कर्म निर्धारित किए हैं।

10.1. तीन प्रकार की द्विज जातियां (वर्ण) अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करने

के साथ-साथ (वेद का) अध्ययन करें, लेकिन इनमें से (केवल) ब्राह्मण वेद

पढ़ावें, दूसरे को वर्ण नहीं पढ़ावें, यह एक सुस्थापित सत्य है।

10.2. लोगों की आजीविका के जो भी साधन धर्म द्वारा निश्चित किए गए हैं,

उन्हें ब्राह्मण को जानना चाहिए, तदनुरूप वह दूसरों को निर्देश दे और स्वयं भी

धर्म के अनुसार जीवनयापन करें।

10.3. जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान

आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत, संस्कार आदि की श्रेष्ठता से

ब्राह्मण ही सब (वर्णों) का स्वामी है।

10.74. ऐसे ब्राह्मण जो उत्कृष्ट देवत्व प्राप्त करने के इच्छुक हैं और अपने कर्त्तव्य के

प्रति दृढ़ हैं, वे निम्नांकित छह कार्यों को क्रमानुसार पूर्णरूपेण निष्पादित करें।

10.75. वेदों का अध्ययन करना, दूसरों को वेदों का अध्ययन कराना, अपने लिए

एवं दूसरों को यज्ञ में सहायता करना, दान देना और दान लेना, ये छह कार्य

ब्राह्मण के लिए निर्दिष्ट हैं।

10.76. परंतु उसके लिए (ब्राह्मण के लिए) इन धर्म निर्दिष्ट छह कार्यों में से तीन

कार्य उसकी आजीविका के साधन हैं, अर्थात् अन्य के लिए यज्ञ-कर्म, अध्यापन

और सदाचारी व्यक्तियों से दान लेना।

10.77. ब्राह्मणों और क्षत्रियों में से क्षत्रियों के लिए वे तीन कर्म वर्जित हैं जो

ब्राह्मणों के लिए निर्दिष्ट हैं, अर्थात् अध्यापन, अन्य के लिए यज्ञ-कर्म और तीसरा,

दान स्वीकार करना।

10.78. वे कार्य इसी प्रकार वैश्य के लिए वर्जित हैं, यह निश्चित सत्य है, क्योंकि

मनु ने, जो प्रजापति हैं, इन दोनों जातियों के व्यक्तियों के लिए इन्हें निर्दिष्ट नहीं

किया है।

10.79. आजीविका के रूप में आयुध से आक्रमण करने और उसे फेंक कर मारने

का कार्य क्षत्रियों के लिए निर्दिष्ट है, व्यापार करना, पशुपालन और कृषि-कार्य

वैश्यों के लिए निर्दिष्ट हैं। लेकिन उदारता, वेदों का अध्ययन और यज्ञ-कर्म करना

उनके कर्त्तव्य हैं।

यहां तीन कार्य ऐसे हैं, जिन पर मनु ने ब्राह्मणों का एकाधिकार निश्चित किया हैः

ये कार्य हैं, वेदों का अध्ययन, यज्ञ-कर्म और दान लेना।

ब्राह्मणों को जो छूट दी गई, वह निम्नलिखित है। इसकी कोटियां हैं – कर से मुक्ति

और अपराध करने पर अपराधी को दिए जाने वाले दंड के कुछ रूप।

7.133. चाहे कोई राजा (अपूर्ण इच्छा ग्रस्त होकर) मर भी क्यों न रहा हो, तब

भी उसे श्रोत्रियों पर कोई कर नहीं लगाना चाहिए और उसके राज्य में रह रहे

किस भी श्रोत्रिय की भूख से मृत्यु नहीं होनी चाहिए।

8.122. वे घोषित करते हैं कि विज्ञों ने ये आर्थिक दंड मिथ्या साक्ष्य देने वालों

के लिए निर्धारित किए हैं, जिससे न्याय-व्यवस्था असफल न हो और जिससे

अन्याय को रोका जा सके।

8.123. लेकिन न्यायप्रिय राजा तीन निचली जातियों (वर्णों) के व्यक्तियों को

आर्थिक दंड देगा और उन्हें निष्कासित कर देगा, जिन्होंने मिथ्या साक्ष्य दिया है,

लेकिन ब्राह्मण को वह केवल निष्कासित करेगा।

8.124. स्वयंभू के पुत्र मनु ने ऐसे दस स्थान बताए हैं जहां निचली तीन जातियों

के वर्णों के मामले में दंड दिया जा सकता है। लेकिन ब्राह्मण (उस देश से)

अक्षत निर्वासित हो जाएगा।

8.379. ब्राह्मण के लिए मृत्यु-दंड के स्थान पर उसका सिर मुंडा देना निश्चित

किया गया है, लेकिन अन्य जातियों (के लोगों) को मृत्यु-दंड भुगतना होगा।

8.380. वह किसी भी ब्राह्मण की कभी भी हत्या न करे, चाहे उस ब्राह्मण ने

कितने भी अपराध किए हों, उसे ऐसे अपराधी को देश से अपनी संपत्ति सहित

और सकुशल चले जाने देना चाहिए।

इस प्रकार मनु ब्राह्मण को गंभीरतम अपराधों के लिए निर्धारित सामान्य दंड-विधान से

ऊपर रखता है। मृत्यु-दंड के लिए उसके अपराधों के सिद्ध होने पर भी उसे सकुशल और

अपनी संपत्ति सहित देश से निकल जाने की स्वीकृति देता है। उसे आर्थिक दंड या मृत्यु-दंड

से बरी रखता है। उसे केवल देश निष्कासन का दंड भोगने देता है। जघन्यतम अपराध करने

पर इस स्थिति को होब्स ने केवल ‘वातावरण में परिवर्तन’ की संज्ञा दी है।

मनु ने ब्राह्मण को कुछ विशेषाधिकार दिए हैं। न्यायाधीश ब्राह्मण होना चाहिए:

8.9. परंतु यदि राजा अभियोगों की जांच स्वयं नहीं करता, तब उसे इन अभियोगों

पर विचार करने के लिए विद्वान ब्राह्मण की नियुक्ति करनी चाहिए।

8.10. ऐसा व्यक्ति उस श्रेष्ठतम न्यायालय में तीन निर्धारकों के साथ आएगा और

राजा के सम्मुख समस्त कारणों पर, बैठकर या खड़े होकर, पूर्ण विवेचन करेगा।

अन्य विशेषाधिकार आर्थिक थे:

8.37. जब किसी विद्वान ब्राह्मण को कोई निधि मिल गई हो और उसने उसे उसी

भांति जमा कर दिया हो, तब वह उस संपूर्ण निधि को ले सकता है, क्योंकि वह

प्रत्येक वस्तु का स्वामी है।

8.38. जब राजा को भूमि में गड़ी कोई पुरानी निधि मिल जाए, तब उसे उसका

आधा भाग ब्राह्मणों को दे देना चाहिए। और शेष आधा भाग अपने राजकोष में

जमा कर देना चाहिए।

9.323. परंतु (जो राजा यह अनुभव करता है कि उसका अंत निकट आ रहा है)

उसे अपना समस्त धन, जो दंड आदि से एकत्र हुआ हो, ब्राह्मणों को दान कर

देना चाहिए, अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप देना चाहिए और युद्ध क्षेत्र में वीर

गति प्राप्त करनी चाहिए।

9.187. मृतक की संपदा सपिंड को मिलेगी जो तीन पीढ़ियों में आता हो और

दिवंगत के सबसे निकट हो, इसके बाद उसका एक भाग (उत्तराधिकारी को,

उसके बाद) आध्यात्मिक गुरु या शिष्य को मिलेगा।

9.188. परंतु किसी भी उत्तराधिकारी के न होने पर, ऐसे ब्राह्मण उसे आपस में

बांट लेंगे जो तीनों वेदों में पारंगत हों, पवित्र और संयमी हों, इस प्रकार विधि

का उल्लंघन नहीं होता है।

9.189. ब्राह्मण की संपत्ति राजा द्वारा कभी भी नहीं ली जानी चाहिए, यह एक

निश्चित नियम है, लेकिन अन्य जाति के व्यक्तियों की संपत्ति उनके उत्तराधिकारियों

के न रहने पर राजा ले सकता है।

ये वे सुविधाएं, रियायतें और विशेषाधिकार हैं, जो मनु ने ब्राह्मणों को दिए। ये इस

बात के प्रतीक हैं कि ब्राह्मण किस प्रकार राजा बन जाता है।

ब्राह्मणवाद के समर्थक – ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता में उनका इतना दृढ़ विश्वास है

कि अभी तक कोई व्यक्ति उसका समर्थन तर्क द्वारा करने के लिए तैयार नहीं है – उन

प्रतिबंधों का उल्लेख करने से नहीं अघाते जो मनु ने ब्राह्मणों पर आरोपित किए हैं। ऐसा

करने में उनका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना है कि मनु ने ब्राह्मणों के लिए निर्धनता और

सेवा-भावना का आदर्श निश्चित किया था। यह सत्य है कि मनु ने ब्राह्मणों के लिए

कुछ सीमाएं निश्चित की हैं। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा और

तथ्यों को सोद्देश्य तोड़ना-मरोड़ना होगा, जिसके लिए मनुस्मृति में कोई आधार भी नहीं

है कि ब्राह्मणों के लिए मनु का आदर्श उसकी निर्धनता और सेवा-भावना है।

यह समझने के लिए कि मनु ने ये सीमाएं ब्राह्मणों के लिए क्यों निश्चित कीं, हमें

दो बातें ध्यान में रखनी चाहिएं। पहली बात वह स्थान है, जो मनु ने समाज की सामान्य

योजना में ब्राह्मणों के लिए निश्चित किया है, और दूसरी बात इन सीमाओं की प्रकृति

है। मनु ने जो स्थान निश्चित किया है, उसकी विवेचना उसने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में

की है। चूंकि यह विषय महत्त्वपूर्ण है, इसलिए मैं उन श्लोकों को पुनः उद्धृत कर रहा

हूं, जिन्हें मैं पहले उद्धृत कर चुका हूं:

1.93. ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण, ज्येष्ठ होने से, वेद के धारण करने

से धर्मानुसार ब्राह्मण ही संपूर्ण सृष्टि का स्वामी होता है।

इस सीमा की प्रकृति पर विचार कीजिए।

4.2. ब्राह्मण विपत्ति के समय को छोड़कर शेष समय में अपनी आजीविका इस

प्रकार ग्रहण करें कि जिसके कारण अन्य लोगों को कोई पीड़ा न हो या अत्यल्प

पीड़ा हो।

4.3. मात्र आजीविका प्राप्त करने के लिए, वह अपने शरीर को अनुचित रूप से

कष्ट न देकर ऐसे अनिंदनीय व्यवसायों का अनुसरण कर धन का संग्रह करें, जो

उसकी जाति के लिए निर्धारित हैं।

8.337. चोरी करने पर शूद्र को आठ गुना, वैश्य को सोलह गुना और क्षत्रिय को

बत्तीस गुना पाप होता है।

8.338. ब्राह्मण को चौंसठ गुना या एक सौ गुना या एक सौ अट्ठाईस गुना तक,

इनमें से प्रत्येक को अपराध की प्रकृति की जानकारी होती है।

8.383. उन दोनों जातियों की रक्षित स्त्रियों के साथ संभोग करने पर ब्राह्मण एक

सहस्त्र पण दंड के रूप में देने के लिए बाध्य किया जाएगा, रक्षित शूद्र स्त्री के साथ

संभोग करने पर क्षत्रिय या वैश्य को एक सहस्त्र पण का दंड दिया जाएगा।

8.384. अरक्षित क्षत्रिय स्त्री के साथ संभोग करने पर वैश्य को पांच सौ पण का

दंड दिया जाएगा, लेकिन इसी प्रकार अपराध करने पर क्षत्रिय का सिर गधे के

पेशाब से मुंडवाया जाएगा या उतना ही (पांच सौ पण) का दंड दिया जाएगा।

8.385. जो ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य जाति की अरक्षित स्त्रियों या शूद्र जाति की

स्त्री के साथ संभोग करता है, उसे पांच सौ पण का, लेकिन सबसे नीची जाति

अर्थात् अन्त्यज की स्त्री के साथ संभोग करने पर एक हजार पण का दंड दिया

जाएगा।

मनु द्वारा ब्राह्मण को जो स्थान दिया गया है, उसके परिप्रेक्ष्य में इन सीमाओं का

विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सीमाओं का उद्देश्य यह नहीं था कि

ब्राह्मण हानिकर स्थिति में रहे, बल्कि इससे तो यह स्पष्ट होता है कि मनु का उद्देश्य

ब्राह्मण को उस उच्च पद से भ्रष्ट होने से बचाना था, जहां उसने उसे प्रतिष्ठित किया

और उसका उद्देश्य उसे गैर-ब्राह्मणों से निंदित होने से बचाना था।

मनुस्मृति में दी गई अन्य व्यवस्थाओं से यह स्पष्ट होता है कि मनु का उद्देश्य

ब्राह्मणों को दीनता और अभाव की स्थिति में रखना नहीं था। इस संबंध में मनुस्मृति में

दिए गए आचरण संबंधी उन नियमों पर ध्यान देना होगा, जिनका ब्राह्मण को उस समय

पालन करना चाहिए, जब वह विपत्ति में हो।

10.80. जितने भी व्यवसाय हैं, उनमें ब्राह्मणों के लिए वेद का अध्यापन, क्षत्रिय

के लिए लोगों की रक्षा करना और वैश्य के लिए व्यापार सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय है।

10.81. लेकिन यदि ब्राह्मण अपने उस व्यवसाय से, जिसका अभी उल्लेख किया

गया है, जीवन-निर्वाह नहीं कर सके, तब क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट व्यवसाय को

अपनाकर जीवन-निर्वाह करे, क्योंकि वह पद के अनुसार उसके बाद आता है।

10.82. यदि यह पूछा जाए, ‘अगर वह इन दोनों व्यवसायों में से किसी भी एक

व्यवसाय से अपना जीवन-निर्वाह नहीं कर सके, तब क्या किया जाए?’ उत्तर है,

वह वैश्य की जीवन-पद्धति अपना ले, स्वयं खेती करे और पशुपालन करे।

10.83. परंतु जो ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य की जीवन-पद्धति के अनुसार

जीवन-यापन करता है, उसे सावधानी से कृषि कार्य से विरत रहना चाहिए, जिसमें

अनेक जीवों की हिंसा होती है और जो दूसरों पर निर्भर करता है।

10.84. कुछ लोग कृषि को उत्तम कर्म कहते हैं, किंतु परोपकारी व्यक्ति जीविका

के इस साधन को हेय कहते हैं, क्योंकि लोहे के मुख लगा लकड़ी का उपकरण

भूमि और उसमें रहने वाले जीवों को क्षति पहुंचाता है।

10.85. लेकिन जो व्यक्ति जीविका के उत्तम साधनों के अभाव में उचित व्यवसायों

को नहीं अपना सकता है, वह उन वस्तुओं की बिक्री कर धन अर्जित कर सकता

है, जो व्यापारी बेचते हैं। लेकिन इनमें निम्नलिखित वस्तुओं को शामिल न करे।

यहां ध्यान देने की बात यह है कि जो सीमाएं ब्राह्मण पर आरोपित की गईं, वह

तभी तक रहती हैं जब तक वह अपने उन व्यवसायों से फलता-फूलता रहता है, जो

किसी अधिकार के कारण उसके अपने हैं। ज्यों ही वह अपने लिए आरक्षित व्यवसाय

के साथ-साथ जो भी उसे पसंद हो, वैसा हर प्रकार का कर्म करने के लिए स्वतंत्र

है और वह ब्राह्मण भी बना रहता है। इसके अलावा यह निर्णय करना भी ब्राह्मण के

अपने विवेक पर छोड़ दिया गया है कि वह विपत्तिग्रस्त है अथवा नहीं। इस प्रकार

संपत्तिवान ब्राह्मण तक पर कोई रोक नहीं है कि वह अपने विवेक के आधार पर किसी

भी परिस्थिति को विपत्ति कह किसी भी व्यवसाय को चुनकर, जो उसके लिए खुला

है, अपनी आय में वृद्धि न कर सके।

मनुस्मृति में और भी व्यवस्थाएं हैं, जिनका उद्देश्य ब्राह्मणों को भौतिक दृष्टि से समृद्ध

बनाना है। ये हैं, दक्षिणा और दान। दक्षिणा वह शुल्क है, जो कोई ब्राह्मण तब लेने का

अधिकारी होता है, जब उसे धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए बुलाया जाता है। ब्राह्मण

धर्म में अनेक धार्मिक रीति और अनुष्ठान वर्णित हैं। हम इस बात का सहज अनुमान

लगा सकते हैं कि यह प्रत्येक ब्राह्मण के लिए आय का कितना बड़ा स्रोत रहा होगा।

शायद ही कोई ऐसा अवसर आता हो जब पुजारी को उसका शुल्क न दिया जाता हो।

दक्षिणा के बारे में धार्मिक भावना उसके अनिवार्य रूप से दिए जाने का पर्याप्त कारण

थी। लेकिन मनु ब्राह्मण को उसे अपना शुल्क लेने का अधिकार देना चाहता था।

11.38. जो ब्राह्मण संपत्तिशाली होने पर भी प्रजापति को अग्न्याधेय का अनुष्ठान

करने पर शुल्क के रूप में पवित्र अश्व नहीं देता है, वह ऐसे व्यक्ति के समान

है जिसने अग्निहोत्र नहीं किया है।

11.39. जो व्यक्ति श्रद्धालु है, जिसे अपनी इंद्रियों पर संयम है, उसे अन्य पुण्य

कार्य करने चाहिए, लेकिन उसे किसी भी दशा में ऐसे यज्ञ नहीं करने चाहिए,

जिसमें वह (शास्त्र-सम्मत शुल्क से) कम दक्षिणा दे।

11.40. जिस यज्ञ में बहुत थोड़ी दक्षिणा दी गई हो, ऐसा यज्ञ इंद्रिय, प्रतिष्ठा,

स्वर्ग-सुख, दीर्घ आयु, यश, संतान और पशुधन को नष्ट कर देता है, अतः थोड़ा

धन वाले व्यक्ति को (श्रौत) यज्ञ नहीं करना चाहिए।

वह यह घोषित कर ब्राह्मण को इस सीमा तक क्षमा कर देता है कि अगर अपनी

दक्षिणा प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी अपराध करता है तो वह धर्म के अनुसार दंड

का भागी नहीं होता।

8.349. जो व्यक्ति आत्मरक्षा के लिए पूजा करने वाले पुजारी को उसकी दक्षिणा

दिलाने, स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा करने जैसी परिस्थितियों में धर्म के निमित्त

किसी की हत्या करता है, तो वह कोई पाप नहीं करता।

लेकिन दान का विधान ऐसा विधान है, जो ब्राह्मणों के लिए आय का प्रचुर स्रोत

है। मनु राजा को ब्राह्मणों को दान देने के लिए प्रेरित करता है।

7.79. राजा अनेक यज्ञ (श्रौत कर्म) करें, जिनमें दक्षिणाएं दी जाएं और यश प्राप्त

करने के लिए वह ब्राह्मणों को भोग के पदार्थ और धन दे।

7.82. वह उन ब्राह्मणों की पूजा करे, जो गुरु के गृह से (वेद का अध्ययन करने

के बाद) वापस आए हैं, क्योंकि जो धन ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह राजाओं

के लिए अक्षय कोष कहा गया है।

7.83. उसे न तो चोर और न शत्रु ही लेते हैं और वह नष्ट नहीं हो सकता, इसलिए

राजाओं द्वारा कोई अक्षय कोष ब्राह्मणों के पास अवश्य रखा जाना चाहिए।

11.4. लेकिन राजा जैसा कि उचित है, यज्ञ विधानार्थ सभी प्रकार के रत्न और

उपहार वेदज्ञाता ब्राह्मणों को दे।

मनु की राजा को यह चेतावनी ब्राह्मणों के लिए केवल आशा के रूप में नहीं रही।

इतिहास साक्षी है कि ब्राह्मणों ने इस उपदेश का पूरा-पूरा लाभ उठाया। इसके प्रमाण

स्वरूप अनेक दान-पत्र हैं, जिन्हें पुरातत्वज्ञों ने खोज निकाला है और जो इसकी सूचना

देते हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ब्राह्मणों ने राजाओं को इतना मूर्ख बनाया कि

उन्होंने गांव के गांव धूर्त, आलसी और अकर्मण्य ब्राह्मणों को हस्तांतरित कर दिए। निस्संदेह

आज के ब्राह्मणों के पास जो संपत्ति है, वह इसी ठग विद्या के कारण है जिसका प्रयोग

धूर्त ब्राह्मण धार्मिक प्रवृत्ति के किंतु मूर्ख राजाओं पर करते रहे। मनु इसी बात से संतुष्ट

नहीं था कि दान के लिए ब्राह्मण राजा का शोषण करे। उसने दान के मामले में ब्राह्मण

को जनता का भी शोषण करने की अनुमति दी। यह उसने तीन प्रकार से किया। सबसे

पहले तो वह लोगों को उस कर्त्तव्य के एक भाग के रूप में दान देने के लिए प्रेरित

करता है, जिसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझता है। इसके साथ-साथ वह यह

भी बताता है कि ब्राह्मण को दिया गया दान सर्वश्रेष्ठ होता है।

  1. जो ब्राह्मण नहीं है, उसको दिया गया दान सामान्य (फल), जो अपने को

ब्राह्मण कहता है, उसको दिया गया दान दुगुना फल, जो ब्राह्मण विद्वान है उसको

दिया गया दान दस लाख गुना फल, जो ब्राह्मण वेद और अंगों को जानता है

उसको दिया गया दान अपरिमित फल देने वाला होता है।

7.86. चूंकि दान प्राप्त करने वाले विशिष्ट गुणों के अनुसार और दान देने वाले

की श्रद्धा के अनुसार दान के बदले कुछ थोड़ा या अधिक फल अगले जन्म में

प्राप्त होगा।

इसके आगे मनु यह कहता है कि कुछ परिस्थितियों में ब्राह्मण को दान देना

अनिवार्य है।

11.1. उसे जो संतान के लिए विवाह करने का इच्छुक है, उसे जो यज्ञ करना चाहता

है, यात्री को, उसे जिसने अपनी सारी संपत्ति दे दी है, उसे जो अपने गुरु, अपने

पिता, अपनी माता के लिए भिक्षा मांगता है, वेद के विद्यार्थी को और रोगी को।

11.2. इन नौ ब्राह्मणों को स्नातक समझना चाहिए जो धर्म के अनुसार पवित्र

कर्म करने के लिए भिक्षा लेते हैं, ऐसी इन निर्धन व्यक्तियों को उनकी विद्या के

अनुसार दान देना चाहिए।

11.3. द्विजों में इन सर्वश्रेष्ठ द्विज को अन्न और धन का दान देना चाहिए, यह

घोषित किया जाता है कि अन्य लोगों को यज्ञ वेदी के बाहर अन्न दिया जाना

चाहिए।

11.6. वेद में निष्णात और अकेले रहने वाले ब्राह्मणों को अपनी क्षमता के

अनुसार धन देना चाहिए। इस प्रकार वह व्यक्ति मृत्यु के बाद स्वर्ग का आनंद

भोगता है।

मनु ने दान देने का नियम बनाया। यह निस्संदेह आय का सुरक्षित और स्थाई स्रोत बन

गया, जो बहुत ही स्पष्ट है। मनु ने दान को प्रायश्चित से जोड़ दिया। मनु की व्यवस्था

में कोई भी अनुचित कार्य पाप हो सकता है, भले ही वह कोई अपराध न हो, या यह

पाप और अपराध, दोनों हो सकता है। पाप के रूप में उसका दंड धर्मनिरपेक्ष कानून का

विषय है। पाप के रूप में, वह अनुचित कार्य पातक कहा जाता है और इसके लिए जो

दंड है, उसे प्रायश्चित कहते हैं। मनु की व्यवस्था में प्रत्येक पातक कर्म से प्रायश्चित

का कर्म कर, मुक्त हुआ जा सकता है।

11.44. जो कोई व्यक्ति निर्धारित कार्य नहीं करता या निंदनीय कार्य करता है या

ऐन्द्रिक सुखोपभोग में लीन रहता है, उसे प्रायश्चित करना चाहिए।

11.45. (सभी) ऋषि अज्ञान से किए गए कार्य के लिए प्रायश्चित का विधान

करते हैं, कुछ उपलब्ध पाठ के साक्ष्य के आधार पर यह कहते हैं कि यह सोद्देश्य

किए गए अपराधों के लिए किया जाए।

11.46. जो पाप अज्ञान से किया जाता है, वह वेद की ऋचाओं का पाठ करने से

दूर हो जाता है। लेकिन जो पाप (लोग) अपनी मूर्खतावश सोद्देश्य करते हैं, वह

विभिन्न प्रकार के (विशेष) प्रायश्चित कर्म कर दूर किया जा सकता है।

11.52. इस प्रकार पूर्व जन्म के बचे हुए दुष्कृत्यों के कारण मूर्ख, गूंगे, अंधे,

बहरे और विकृत अंगों वाले मनुष्य पैदा होते हैं, जो गुणीजनों के द्वारा हेय समझे

जाते हैं।

11.53. इसलिए शुद्धि के लिए प्रायश्चित अवश्य करना चाहिए, क्योंकि जिनके

पाप दूर नहीं होते हैं, वे अशोभनीय चिह्न लिए (पुनः) जन्म लेते हैं।

मनु ने अनेक प्रकार के प्रायश्चित निर्धारित किए हैं। जिज्ञासु लोग यह जानने के

लिए कि ये प्रायश्चित क्या हैं, मनुस्मृति देख सकते हैं। इन प्रायश्चितों के बारे में जो बात

ध्यान देने की है, वह यह है कि इन प्रायश्चितों का कुछ इस प्रकार विधान किया गया

है, जिससे ब्राह्मण को भौतिक लाभ हो। कुछेक प्रायश्चित का रूप ब्राह्मण को दान देना

मात्र है। अन्य में कुछ धार्मिक कृत्य किए जाने का विधान है। लेकिन चूंकि धार्मिक कृत्य

ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा नहीं किए जा सकते और धार्मिक कृत्य के

लिए शुल्क देना होता है, अतः दान की प्रथा से केवल ब्राह्मण को ही लाभ होता है।

अतः यह कहना निरर्थक बात होगी कि मनु ब्राह्मणों के सम्मुख विनम्रता, दीनता,

सेवा का आदर्श प्रस्तुत करना चाहता था। ब्राह्मणों ने मनु को इस रूप में ग्रहण नहीं

किया। निश्चय ही उनका यह विश्वास था कि उन्हें एक विशेष दर्जा दिया जा रहा है।

उन्हें इसमें विश्वास ही नहीं था, बल्कि अन्य क्षेत्रें में भी उन्होंने अपने विशेषाधिकार

समझे, जिनके बारे में बाद में चर्चा की जाएगी। उनका जो दृष्टिकोण था, उसमें वह

पूरी तरह सही थे। मनु ने ब्राह्मणों को ‘प्रभु’ कहा है और (नियम) इतनी सावधानीपूर्वक

बनाए कि वे सदा इसी रूप में बने रहे।

ब्राह्मण-शासन और ब्राह्मण-प्रभुता के लिए पूरी व्यवस्था करने के बाद मनु ने समाज

को बदलने का विधान किया, जिससे उसका उद्देश्य पूरा हो सके।

ब्राह्मणवाद अपनी विजय के बाद मुख्य रूप से जिस कार्य में जुट गया, वह था वर्ण

को जाति में बदलने का कार्य, जो बड़ा ही विशाल और स्वार्थपूर्ण था। हमारे पास उन

उपायों के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, जो ब्राह्मणवाद ने इस प्रकार के परिवर्तन

को लाने के लिए किए। इसके बजाए ‘वर्ण’ और ‘जाति’ के बीच के संबंध के बारे में

कुछ भ्रांत विचारधाराएं हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि वर्ण और जाति एक ही बात है। जो

लोग इन्हें अलग-अलग समझते हैं, उनका यह विश्वास है कि जब सामाजिक व्यवस्था

में अंतर्विवाह निषिद्ध समझा जाने लगा, तब वर्ण जाति बन गया। वस्तुतः यह सब गलत

है और यहां गलती इस तथ्य में है कि वर्ण को जाति में बदलते समय मनु ने अपने

उद्देश्य की कहीं भी व्याख्या नहीं की और न यही स्पष्ट किया कि उसके साधन उन

उद्देश्यों के साथ किस प्रकार संबद्ध हैं। ऑस्कर वाइल्ड का कहना है कि इसे समझने के

लिए खोज करनी आवश्यक है। मनु किसी की पकड़ में नहीं आना चाहता था। इसलिए

वह अपने लक्ष्यों और साधनों के विषय में मौन है। वह यह काम लोगों के लिए छोड़

देता है कि वह इनके बारे में अनुमान करें। हिंदुओं के लिए यह विषय अत्यंत महत्वपूर्ण

है। इसे स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है, जिससे मनु की योजना के बारे में विभिन्न

व्यक्तियों के अनुमानों के कारण उत्पन्न भ्रांतियों को दूर किया जा सके और यह स्पष्ट

किया जा सके कि ब्राह्मणवाद ने समाज के आधार के रूप में वर्ण की मूल संकल्पना

को किस प्रकार गलत और घातक स्वरूप दे दिया।

जैसा कि मैंने कहा है, मनु ने जो उपाय अपनाए, उन्हें उसने व्यक्त नहीं होने दिया,

उन्हें प्रच्छन्न रखा। इसलिए हम जाति के रूप में वर्ण के इस परिवर्तन का ब्यौरेवार और

तिथिक्रम से विवरण नहीं दे सकते। लेकिन सौभाग्य से कुछ ऐसे संकेत उपलब्ध हैं,

जिनसे इस बात की पर्याप्त रूप से स्पष्ट जानकारी मिलती है कि यह परिवर्तन किस

प्रकार किया गया।

यह बताने से पहले कि यह परिवर्तन किस प्रकार किया गया, मैं उस भ्रांति को

स्पष्ट करना चाहता हूं जो लोगों के दिमाग में वर्ण और जाति को लेकर फैली हुई है।

इसे दूर करने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि हम इन दोनों के बीच समान तत्वों

और विषमताओं पर गौर करें। वर्ण और जाति कानूनी अर्थ में एक-दूसरे के पर्यायवाची

हैं। दोनों का अभिप्राय पद और व्यवसाय से है। पद और व्यवसाय, दो ऐसी अवधारणाएं

हैं जो वर्ण और जाति, दोनों की धारणाओं में सन्निहित हैं। लेकिन वर्ण और जाति, दोनों

का एक विशेष महत्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या

व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था

निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं और इसे पुत्र अपने पिता से

ग्रहण करता है।

जब मैं यह कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा

आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।

यह परिवर्तन किस प्रकार किया गया? जैसा मैंने कहा, कि इस परिवर्तन को करने के

लिए ब्राह्मणवाद ने जो उपाय किए, उनके कोई पदचिह्न उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन ऐसे संकेत

हैं जो हमें इसका स्पष्ट चित्र देते हैं कि यह योजना किस प्रकार कार्यान्वित की गई।

यह परिवर्तन विभिन्न चरणों में संपन्न किया गया। जाति के रूप में वर्ण के रूपांतरण

में तीन चरण तो बिल्कुल स्पष्ट हैं। पहला चरण तो यह था जब व्यक्ति का वर्ण, अर्थात्

पद और व्यवसाय केवल निर्धारित अवधि के लिए होता था। दूसरा चरण वह था कि

जब किसी व्यक्ति के वर्ण में निहित पद और व्यवसाय केवल उसके जीवन-काल तक

सुनिश्चित रहा। तीसरा चरण वह था जब वर्ण का पद और व्यवसाय वंशानुगत हो गया।

कानून की शब्दावली में कहा जाए तो यह कि वर्ण द्वारा प्रदत्त संपदा शुरू में केवल किसी

एक अवधि के लिए थी। इसके बाद यह जीवन-भर के लिए ही बनी और अंत में यही

संपदा वंशानुगत बन गई। इस प्रकार वर्ण जाति में परिवर्तित हो गए। ऐसा प्रतीत होता है

कि इस बात की पुष्टि के लिए परंपरा के आधार पर पर्याप्त प्रमाण हैं, जिसका उल्लेख

धार्मिक साहित्य1 में हुआ है कि वर्ण जिन अवस्थाओं में से होकर जाति बने, वह यही

तीन अवस्थाएं हैं। इस परंपरा को कुछ इस प्रकार समझने का कोई कारण नहीं है कि यह

वास्तविक स्थिति की प्रतीक न हो। इस परंपरा के अनुसार किसी भी व्यक्ति के वर्ण का

निश्चय करने का काम अधिकारियों के एक दल द्वारा किया जाता था, जिन्हें मनु और

सप्तर्षि कहते थे। व्यक्ति के समूह में से मनु उनका चुनाव करता था, जो क्षत्रिय और वैश्य

होने के योग्य होते थे और सप्तर्षि उन व्यक्तियों को चुनते थे जो ब्राह्मण होने के योग्य

होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने के लिए मनु और सप्तर्षियों द्वारा व्यक्तियों का चुनाव

करने के बाद बाकी व्यक्ति जो नहीं चुनने जा सकते थे, वे शूद्र कहलाते थे। इस प्रकार

जो वर्ण-व्यवस्था निश्चित की जाती थी, वह एक युग, अर्थात् चार वर्ष की अवधि तक

रहती थी। हर चौथे वर्ष अधिकारियों का नया दल नयाचुनाव करने के लिए नियुक्त होता

था। जिसकी पद संज्ञा, वही मनु और सप्तर्षि, होती थी। इस प्रक्रिया में यह होता था कि

जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य

होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने

के लिए चुने गए थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार

वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे। यह एक प्रकार से निश्चित अवधि पर होने वाला परिवर्तन

था। जैसे ताश के पत्ते हर बाजी के बाद फेंट दिए जाते हैं, और व्यक्तियों का चुनाव उनकी

मानसिक और शारीरिक अभिरुचि और व्यवसायों के आधार पर होता था, जो समाज के

जीवन के लिए अनिवार्य होते थे। जिस काल में वर्णों में व्यक्तियों की अदला-बदली होती

थी, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते थे। इस शब्द का अर्थ वह अवधि भी है, जिसके लिए किसी

व्यक्ति को वर्ण निश्चित किया जाता था। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसका अर्थ मनु द्वारा किया

गया वर्ण-व्यवस्था के आवश्यक तत्वों को अभिव्यक्त करता है, ये दो तत्व थे। पहला

यह कि वर्ण का निश्चय लोगों की एक स्वतंत्र सत्ता के द्वारा किया जाता था, जिसे मनु

और सप्तर्षि कहते थे। दूसरा यह कि अमूक वर्ण किसी अवधि का था, जिसके बाद मनु

द्वारा परिवर्तन किया जाता था2 पुराणों में वर्णित प्राचीन परंपरा के अनुसार जितनी अवधि के

लिए किसी भी व्यक्ति का वर्ण मनु और सप्तर्षि द्वारा निश्चित किया जाता था, वह चार

वर्ष की होती थी और उसे युग कहते थे। चार वर्ष की अवधि की समाप्ति पर मन्वन्तर

होता था जिसके द्वारा हर चार वर्ष बाद सूची में संशोधन कर दिया जाता था। इस संशोधन

के अधीन कुछ का पिछला वर्ण बदल जाता था, कुछ का बना रहता था, कुछ अपने वर्ण

को गंवा देते थे और कुछ को लाभ हो जाता था।1

  1. मैं यहां श्री दफ्रतरी और प्रज्ञानेश्वर यति के शोध में प्राप्त विवरण को अपने लेख में अपना आधार बना

रहा हूं। श्री दफ्रतरी की धर्म रहस्य और श्री यति की चातुर्वर्ण्य नामक पुस्तक में उनके दृष्टिकोण सर्वथा

मौलिक हैं, अतः ये बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। उन्होंने जो रूपरेखा दी है, उसके आधार पर निस्संदेह

आगे अनुसंधान किया जाना चाहिए।

  1. इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि सुमति भार्गव ने अपनी संहिता का नाम मनुस्मृति क्यों रखा। इससे

वह मनु को आदृत और प्राधिकृत करना चाहता था।

ऐसा लगता है कि मूल पद्धति का उद्देश्य प्रौढ़ व्यक्तियों के वर्ण का निर्धारण करना

था। यह किसी पूर्ण प्रशिक्षण या प्रवृत्ति और अभिरुचि के सूक्ष्म परीक्षण पर आधारित

नहीं थी। मनु और सप्तर्षि एक प्रकार का चयन मंडल था, जो साक्षात्कार के आधार

पर प्रत्येक व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण करता था। वर्ण का निर्धारण अनियमित रीति

से होता था। ऐसा लगता है कि यह पद्धति व्यवहार में नहीं रही। इसके स्थान पर एक

पद्धति शुरू हुई। इसे गुरुकुल-पद्धति कहा जाता था। गुरुकुल एक प्रकार का विद्यालय

होता था। इसका भार एक गुरु पर होता था, जिसे आचार्य भी कहते थे। सभी बच्चे इसी

गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते थे। शिक्षा की अवधि बारह वर्ष होती थी।

जब तक कोई बालक गुरुकुल में रहता था, वह ब्रह्मचारी कहलाता था। जब शिक्षा की

अवधि पूरी हो जाती, तब उसके बाद अत्यंत महत्वपूर्ण उपनयन समारोह होता था। यही

वह समारोह होता था, जिसमें आचार्य प्रत्येक विद्यार्थी का वर्ण निश्चित करते थे और उसे

संसार में अपने वर्ण के कर्तव्य को पूरा करने के लिए वापस भेज देते थे। आचार्य द्वारा

उपनयन वर्ण को निश्चित करने का नया तरीका था, जो मनु और सप्तर्षि द्वारा निर्धारण

करने की पद्धति के स्थान पर प्रचलित हुआ। यह नई प्रणाली पुरानी प्रणाली की तुलना

में निस्संदेह श्रेष्ठ थी। इसमें पुरानी प्रणाली का वास्तविक तत्व निहित था, अर्थात् वर्ण

का निर्धारण तटस्थ और स्वतंत्र सत्ता द्वारा किया जाना चाहिए। लेकिन इसमें एक नया

तत्व आया, अर्थात् वर्ण के निर्धारण के लिए पूर्व-प्रशिक्षण आवश्यक हो गया। इसका

कारण यह है कि प्रशिक्षण ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करता है और किसी भी

व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण करने का सबसे निरापद उपाय उसके व्यक्तित्व का परिचय

प्राप्त करना है। इस नए तत्व के समावेश से निस्संदेह बहुत सुधार हुआ।

आचार्य वाली गुरुकुल प्रणाली के शुरू होने से वर्ण की अवधि में परिवर्तन हुआ। कोई वर्ण

किसी अवधि तक रहने के बजाए, जीवन-पर्यन्त हो गया। लेकिन यह वंशानुगत नहीं था।

स्पष्ट है कि ब्राह्मणवाद उस पद्धति से असंतुष्ट था। इस पद्धति के अधीन इस बात

की पूरी संभावना बनी रहती थी कि आचार्य ब्राह्मण के बालक को केवल शूद्र होने के

योग्य घोषित कर दे। स्वाभाविक है कि ब्राह्मणवाद इस परिणाम की संभावना को दूर

करने के बारे में अधिक चिंतित था। वह वर्ण को वंशानुगत बनाना चाहता था। वह वर्ण

को वंशानुगत बनाकर ही ब्राह्मण के बालक को शूद्र घोषित किए जाने से बचा सकता

था। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्राह्मणवाद ने जितनी ढिठाई के साथ कोशिश

की, उसकी कल्पना शायद असंभव है।

  1. मनु का यह कथन है कि शूद्रों को वेदों का पाठ नहीं करना चाहिए और न उन्हें सुनना चाहिए। इस

कथन के संदर्भ में यह कहना कि वेदों में कुछ शब्द शूद्रों द्वारा विरचित हैं, एक गूढ़ प्रश्न है। इस प्रश्न

का समाधान इसी सिद्धांत से हो सकता है।

III

बालक के वण र् का निधा र्रण करने की प्रणाली में ब्राह्मणवाद ने तीन सबसे अधिक

बुनियादी परिवर्तन किए। सबसे पहले गुरुकुल-पद्धति को खत्म कर दिया। इस पद्धति

में गुरुकुल वह स्थान था, जहां बालक को प्रशिक्षण दिया जाता, और जहां प्रशिक्षण

की अवधि के पूरे होने पर गुरु उसके वर्ण का निर्धारण करता था। मनु को गुरुकुलों

के बारे में पर्याप्त जानकारी थी और वह गुरुवास1 अर्थात् गुरु के अधीन गुरुकुल में

प्रशिक्षण और निवास का उल्लेख करता है। लेकिन वह उपनयन के संबंध में गुरु का

अप्रत्यक्ष रूप से भी उल्लेख न कर उपनयन कराने के सक्षम अधिकारी के रूप में गुरु

की सत्ता को समाप्त कर देता है। गुरु के स्थान पर मनु बालक के पिता द्वारा अपने

घर पर उपनयन करने की अनुमति देता है।2 प्राचीन काल में उपनयन दीक्षांत-समारोह3

जैसा होता था, जो गुरु अपने गुरुकुल के विद्यार्थियों को उपाधियां प्रदान करने के

लिए आयोजित करता था और उसमें किसी वर्ण विशेष के कर्तव्यों में दक्षता प्राप्त

करने के प्रमाण-पत्र दिए जाते थे। मनु के नियमों में उपनयन का अर्थ और इस

सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्था का प्रयोजन बिल्कुल बदल गया। तीसरे, उपनयन

के साथ प्रशिक्षण का संबंध पूरी तरह उलट दिया गया। प्राचीन प्रणाली में प्रशिक्षण

उपनयन के पहले था। ब्राह्मणवाद में उपनयन का स्थान प्रशिक्षण से पहले हो गया।

मनु यह निदे र्श देता है कि बालक को प्रशिक्षण के लिए गुरु के पास भेजा जाए।

लेकिन उसे उपनयन के बाद, अर्थात् तब भेजा जाए, जब उसका वर्ण उसके पिता

द्वारा निर्धारित कर लिया जाए।4

उपनयन के मामले में ब्राह्मणवाद ने जो मुख्य परिवर्तन किया, वह था उपनयन कराने

का अधिकार गुरु से लेकर पिता को देना।

इसका परिणाम यह हुआ कि चूंकि पिता को अपने पुत्र का उपनयन करने का

अधिकार था, इसलिए वह अपने बालक को अपना वर्ण देने लगा और इस प्रकार उसे

वंशानुगत बना दिया। इस प्रकार वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे

पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।

  1. मनुस्मृति, 2.67.
  2. वही, 2.36.37.
  3. इस संबंध में उपनयन पर प्रज्ञानेश्वर की पुस्तिका देखें।
  4. मनुस्मृति, 2.69.

वर्ण के जाति में बदल जाने की यही कहानी है। एक स्थिति से दूसरी स्थिति में

जाने की यह कहानी निश्चय ही पुनर्निर्मित है। जैसा कि हम पहले बता आए हैं, यह

उतनी सटीक और ब्यौरेवार नहीं हो सकती, जितनी कि कोई अपेक्षा करता है। लेकिन

मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस क्रम और रीति से वर्ण का अस्तित्व समाप्त हुआ

और जाति का जन्म हुआ, वह क्रम और रीति लगभग वैसी ही रही होगी, जिसका वर्णन

इस विषय पर ऊपर विवेचन में किया गया है।

इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है कि वर्ण को जाति में बदलने में ब्राह्मणवाद का

उद्देश्य क्या रहा होगा। वह उद्देश्य यह था कि प्राचीन-काल से ब्राह्मण जिस उच्च पद

और प्रतिष्ठा का उपभोग करते आए हैं, वह विशेषाधिकार प्रत्येक ब्राह्मण और उसकी

संतति को गुण या योग्यता की अपेक्षा किए बिना मिलता रहे। दूसरे शब्दों में, उद्देश्य

यह था कि प्रत्येक ब्राह्मण को चाहे वह कितना ही भ्रष्ट और अयोग्य क्यों न हो, पद

और गौरव देकर उस उच्च स्थान पर बिठाया जाए, जिस पर कुछ लोग अपने गुणों के

कारण प्रतिष्ठित हैं। यह बिना अपवाद समस्त ब्राह्मण समुदाय को महिमामंडित करने

का प्रयत्न था।

ब्राह्मणवाद का यह उद्देश्य मनु के निदे र्शाें से स्पष्ट है। मनु जानता था कि

वर्ण को वंशानुगत बना देने से सबसे अधिक मूढ़ ब्राह्मण1 भी उस पद की प्रतिष्ठा

प्राप्त कर लेगा, जो सबसे अधिक विद्वान ब्राह्मण को प्राप्त है। उसे आशंका थी कि

सबसे अधिक म ूढ़ ब्राह्मण को वैसी प्रतिष्ठा प्राप्त न हो, जितनी कि सबसे अधिक

विद्वान ब्राह्मण को प्राप्त है। मनु का समस्त ब्राह्मण समुदाय को गौरव दिलाने का

यही उद्देश्य था। मनु मूढ़ ब्राह्मण के विषय में बहुत चिंतित था, जो एक नई बात

थी। वह मूढ़ और भ्रष्ट ब्राह्मण के प्रति अनादर का भाव रखने पर लोगों को

चेतावनी देता हैः

9.317. जिस प्रकार शास्त्र विधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही

श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान, दोनों ही रूपों

में श्रेष्ठ देवता हैं।

9.319. इस प्रकार ब्राह्मण यद्यपि निंदित कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, तथापि ब्राह्मण सब

प्रकार से पूज्य हैं, क्योंकि वे श्रेष्ठ देवता हैं।

  1. वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है,

जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।

यदि समस्त ब्राह्मण-वर्ग को गौरव प्रदान करना ही उद्देश्य था, तब चेतावनी देने की

कोई आवश्यकता ही नहीं थी। यह एक ऐसी स्थिति है, जब कोई भ्रष्ट व्यक्ति ढोंग के

लिए भी गुणवान व्यक्ति को आदर देने से इन्कार कर देता है। जब मनु ब्राह्मण की पूजा

करने पर बल देता है, चाहे वह भ्रष्ट और मूढ़ ही क्यों न हो, तब क्या इससे अधिक

नैतिक पतन भी हो सकता है?

वर्ण से जाति में परिवर्तन संबंधी विषय पर इतना ही पर्याप्त है। इस परिवर्तन का

परिणाम क्या हुआ?

यदि तटस्थ होकर विचार किया जाए ये परिणाम आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत अधिक

हानिकारक हुए। इस हानि का अनुमान मनु के विधान के परिणामस्वरूप पुरोहित के रूप

में उत्पन्न ब्राह्मण की स्थिति की तुलना इंग्लैंड के चर्च के अधीन पादरी कानून के साथ

करने से शायद और अच्छी तरह लग सकता है। वहां पादरी दंड-विधान के उतना ही

अधीन होता है, जितना कि कोई अन्य नागरिक। इसके साथ वह चर्च अनुशासन अधिनियम

के भी अधीन होता है। यदि किसी व्यक्ति ने योग्यता प्राप्त किए बिना पादरी का कार्य

किया है, तब यह दंड-विधान के अधीन दंडनीय होगा। चर्च अनुशासन अधिनियम के

अधीन अपने इस आचरण के लिए जो अपराध नहीं होने पर भी नैतिक दृष्टि से गलत

काम कहा जाएगा, पादरी के रूप में काम करने के आयोग्य घोषित किया जाएगा।

पादरी पर यह दुहरा नियंत्रण न्यायसंगत माना जाता है, क्योंकि पादरी के व्यवसाय के

लिए जिससे यह आशा की जाती है कि वह लोगों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को

पूरा करेगा, ज्ञान और नैतिकता का होना लगभग बहुत ही आवश्यक समझा जाता है।

ब्राह्मणवाद में केवल ब्राह्मण ही पुरोहित हो सकता है, जिसके लिए यह आवश्यक नहीं

कि वह ज्ञाने और नैतिकता का एकमात्र कर्ता है। जो मत इसे अनुमोदित करता है, उसके

बारे में टिप्पणी करना व्यर्थ है।

धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से देखें तो हम पाएंगे कि जाति में वर्ण के रूपांतरण ने हिंदुओं में

एक बहुत ही घातक प्रवृत्ति पैदा कर दी। इस कारण गुण की अवहेलना और केवल जन्म

को महत्व दिया जाने लगा। जो व्यक्ति ऊंची जाति का वंशज है, उसे आदर मिलेगा,

चाहे उसमें गुण या योग्यता का बिल्कुल ही अभाव क्यों न हो। जो व्यक्ति ऊंची जाति में

पैदा हुआ है, वह उस व्यक्ति से श्रेष्ठ होगा, जिसने नीची जाति में जन्म लिया है, भले

ही नीची जाति में जन्म लेने वाला योग्यता की दृष्टि से ऊंची जाति में जन्म लेने वाले

से श्रेष्ठ क्यों न हो। गुण स्वयं में कुछ भी नहीं होता। यह पद को गुण से अलग करने

के कारण है, जो ब्राह्मण धर्म का कार्य है। एक अप्रगतिशील समाज का निर्माण करने

के लिए जो कुलीन वर्ग के विशेषाधिकार की वेदी पर प्रतिभावान लोगों के अधिकारों

की बलि कर देता हो, इससे अच्छी योजना क्या बनाई जा सकती थी।

बौद्ध धर्म पर विजय प्राप्त करने के बाद ब्राह्मणवाद ने जो कार्य किए, उस सूची में

से अब तीसरे कार्य पर विचार किया जाए। यह कार्य ब्राह्मणों को गैर-ब्राह्मणों के प्रभाव

से अगल करना और गैर-ब्राह्मणों को विभिन्न सामाजिक स्तरों में बांटना था।

पुष्यमित्र की ब्राह्मण क्रांति का उद्देश्य चातुर्वर्ण्य की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का

उद्धार करना था, जिसे बौद्ध शासन में काल की कसौटी पर परखा जा रहा था। लेकिन

जब बौद्ध धर्म पर ब्राह्मणवाद ने विजय प्राप्त कर ली, तब उसे चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था

को उसी रूप में, जिस रूप में वह पहले थी, पुनः स्थापित करने पर भी संतोष

नहीं हुआ। बौद्ध पूर्व समय में चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें

गुंजाइश थी। इसका कारण यह है कि इसका विवाह व्यवस्था से कोई संबंध नहीं था।

चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था में जहां चार विभिन्न वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया

था, वहां इन वर्गों में आपस में विवाह-संबंध करने पर कोई निषेध नहीं था। किसी

भी वण र् का पुरुष विधिप ूव र्क द ूसरे वण र् की स्त्री के साथ विवाह कर सकता था।

उस दृष्टिकोण की पुष्टि में अनेक दृष्टांत उपलब्ध हैं। मैं नीचे कुछ दृष्टांत दे रहा

हूं, जो ऐसे प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हैं, जिन्हें हिंदुओं की पवित्र भाषाओं

में काफी यश प्राप्त हैः

पति वर्ण पत्नी वर्ण

  1. शांतनु क्षत्रिय   गंगा     शूद्र अनामिका
  2. शांतनु क्षत्रिय   मत्स्यगंधा          शूद्र धींवर स्त्री
  3. पाराशर ब्राह्मण मत्स्यगंधा          शूद्र धींवर स्त्री
  4. विश्वामित्र क्षत्रिय   मेनका   अप्सरा
  5. ययाति क्षत्रिय   देवयानी            ब्राह्मण
  6. ययाति क्षत्रिय   शर्मिष्ठा  आसुरी-अनार्य
  7. जरत्कारू ब्राह्मण  जरत्कारि           नाग-अनार्य

जिस किसी को इस बारे में शंका हो कि विभिन्न वर्गों में समाज के विभाजन में

इन चार वर्णों में परस्पर अन्तर्विवाह का कोई निषेध नहीं था, उससे मेरा आग्रह है कि

वह महान ब्राह्मण ऋषि व्यास के परिवार की वंशावली पर ध्यान देने की कृपा करें,

जो नीचे दी गई है-

व्यास की वंशावली

वरुणमित्र = उर्वशी

वशिष्ठ = अक्षमाला

शक्ति =

पाराशर = मत्स्यगंधा

= व्यास

ब्राह्मणवाद ने पशु की तरह घोर नृशंस हो विभिन्न वर्णों के बीच अंतर्विवाहों को रोक

देने का काम जारी रखा। मनु एक नया नियम बना देता है। यह नियम निम्न प्रकार से

हैः

3.12. द्विजों के प्रथम विवाह के लिए समान जाति की स्त्रियां श्रेष्ठ होती हैं।

3.13. यह सच है कि शूद्र स्त्री ही किसी शूद्र की पत्नी हो सकती है।

3.14. किसी भी (प्राचीन) आख्यान में ब्राह्मण या क्षत्रिय की (प्रथम) पत्नी के

शूद्र होने का उल्लेख नहीं किया गया है, हालांकि इन्होंने कष्टपूर्ण जीवनयापन

किया है।

3.15. जो द्विज लोग मोह में नीची (शूद्र) जाति की स्त्रियों के साथ विवाह कर

लेते हैं, वे शीघ्र ही अपने परिवारों और उनके बच्चों को शूद्रों की स्थिति में ला

देते हैं।

3.16. अत्रि का और उतथ्य के पुत्र (गौतम) का मत है कि जो शूद्र स्त्री के साथ

विवाह कर लेता है, वह जातिच्युत हो जाता है, शौनक का और भृगु का मत है

कि जब किसी के केवल शूद्र स्त्री से किसी संतान का जन्म होता है (तब वह

जातिच्युत हो जाता है)।

3.17. जो ब्राह्मण किसी शूद्र स्त्री के साथ शैया पर संभोग करता है, वह (मृत्यु

के बाद) नरक में जा गिरता है।

यदि वह उससे संतान उत्पन्न करता है, तो वह ब्राह्मणत्व से भ्रष्ट हो जाता है।

3.18. जो व्यक्ति मुख्यतः (शूद्र पत्नी की) सहायता से देव-कार्य या पितृ-कार्य

और अतिथि भोजनादि करता है, उसके हव्य और कव्य को क्रमशः देवता और पितर

स्वीकार नहीं करते और ऐसा व्यक्ति स्वर्ग को नहीं प्राप्त करता।

3.19. जो व्यक्ति शूद्र स्त्री का अधर पान करता है, जो उसके श्वास से दूषित

होता है और जो उससे संतान उत्पन्न करता है, उसकी किसी प्रायश्चित से शुद्धि नहीं

हो सकती।

ब्राह्मणवाद अंतर्विवाह का निषेध कर संतुष्ट नहीं हुआ। उसने इससे आगे सहभोज

का भी निषेध किया।

मनु ने भोजन करने के बारे में कुछ आरोप लगाए हैं। कुछ स्वास्थ्य संबंधी हैं, कुछ

सामाजिक हैं। जो सामाजिक हैं, उनमें से निम्नलिखित ध्यान देने योग्य हैं:

4.218. राजा के द्वारा दिया गया भोजन उसके तेज को नष्ट करता है, शूद्र वर्ग के

द्वारा दिया गया भोजन उसके ब्रह्म वर्चस्व को, सुनार के द्वारा दिया गया भोजन उसके

जीवन को और चर्मकार के द्वारा दिया गया भोजन उसके यश को नष्ट करता है।

4.219. रसोइया या इस प्रकार के शूद्र शिल्पियों के द्वारा दिया गया भोजन उसकी

संतति को और धोबी के द्वारा दिया भोजन शारीरिक बल को नष्ट करता है।

4.221. अन्य के द्वारा दिया गया भोजन, जिनका उल्लेख क्रम से किया गया है,

कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, उनके अन्न को बुद्धिमान चमड़े, हîóी और सिर के

बाल कहते हैं।

4.222. यदि इस प्रकार के व्यक्तियों में से किसी का भी अन्न अज्ञानपूर्वक ग्रहण

कर लिया गया है, तब तीन दिन का उपवास करना चाहिए, लेकिन यदि ज्ञानपूर्वक ग्रहण

कर लिया हो, तब उसे वैसा ही कृच्छव्रत करना चाहिए, मानो उसने शुक्र मल और मूत्र

ग्रहण कर लिया हो।

मैंने यह कहा है कि ब्राह्मणवाद ने अंतर्विवाह और सहभोज पर रोक लगाने का काम

पशु की तरह नृशंस होकर किया। यदि किसी को उसमें संदेह हो, तो अनुरोध है कि

मनु की भाषा पर विचार करना चाहिए। शूद्र स्त्री के संबंध में मनु जो घृणा व्यक्त करता

है, उस पर ध्यान दीजिए। शूद्र के भोजन के बारे में मनु जो-कुछ कहता है, कहता है,

उस पर ध्यान दीजिए। वह कहता है कि वह अशुद्ध है, जैसे शुक्र या मूत्र।

इन दो नियमों ने जातिप्रथा को जन्म दिया। अंतर्विवाह और सहभोज का निषेध दो

स्तंभ हैं, जिन पर जातिप्रथा टिकी हुई है। जातिप्रथा और अंतर्विवाह तथा सहभोज से

संबंधित नियम एक-दूसरे से ऐसे जुड़े हुए हैं, जैसे उद्देश्य के साथ उसको पूरा करने वाले

उपाय। निश्चय ही यह उद्देश्य किन्हीं अन्य उपायों द्वारा पूरे नहीं किए जा सकते थे।

इन उपायों की योजना से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणवाद का उद्देश्य जातिप्रथा

को जन्म देना था और यही उसका अंतिम लक्ष्य था। ब्राह्मणवाद ने अंतर्विवाह और

सहभोज के विरूद्ध निषेध के नियम बनाए। लेकिन, बा्रह्मणवाद सामाजिक व्यवस्था में

अन्य परिवर्तनों का भी सूत्रपात किया। अगर इन परिवर्तनों का प्रयोजन वही था जिनकी

संभावना की मैंने अभी चर्चा की है, तब इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई आपत्ति

नहीं होनी चाहिए कि ब्राह्मणवाद जातिप्रथा को कायम रखने के बारे में इतना अधिक

आतुर था कि इसने इसके लिए प्रयुक्त साधनों के उचित या अनुचित, नैतिक या अनैतिक

होने की कोई परवाह नहीं की। मैं लड़कियों के विवाह और विधवाओं के जीवन के

संबंध में मनुस्मृति में उल्लिखित नियमों की ओर ध्यान दिला रहा हूं। स्त्रियों के विवाह

के संबंध में मनु जो नियम बनाता है, उन्हें देखिएः

9.4. वह पिता दोषी है जो उचित समय आने पर (अपनी पुत्री को) विवाह में

नहीं देता है।

9.88. पिता, समान जाति के श्रेष्ठ और सुंदर वर को अपनी पुत्री, चाहे उसकी आयु

उचित न भी हो, अर्थात् वह ऋतुमती न हुई हो, निर्धारित विधि के अनुसार दे।

इस नियम के अनुसार मनु यह निर्देश देता कि चाहे कोई लड़की गर्भ-धारण करने

योग्य न हुई हो, अर्थात् चाहे वह बच्ची ही हो, तब भी उसका विवाह कर देना चाहिए।

विधवाओं के संबंध में मनु निम्नलिखित नियम घोषित करता हैः

5.157. वह (अर्थात् विधवा) अपने सुख के लिए स्वेच्छापूर्वक शुद्ध पुष्पों, कंदमूल

और फलों का आहार कर अपने शरीर को क्षीण कर ले, लेकिन वह अपने पति

के निधन के बाद किसी दूसरे पुरुष का नाम भी न ले।

5.161. परंतु जो विधवा संतानोत्पत्ति की इच्छा से दुबारा विवाह कर अपने दिवंगत

पति का अनादर करती है, वह इस लोक में निंदा का पात्र बनती है और वह

(स्वर्ग में) अपने पति के सामीप्य से वंचित रहेगी।

5.162. पति के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुष से उत्पन्न स्त्री की संतान उसकी

संतान नहीं कहलाती, पत्नी के अतिरिक्त किसी दूसरी स्त्री से उत्पन्न किसी पुरुष

की संतान उसकी नहीं कहलाती, पतिव्रता स्त्री का दूसरा पति कहीं भी नहीं

निर्धारित है।

स्त्री के लिए यह आरोपित वैधव्य के नियम हैं। यहां सती या उस विधवा के संबंध

में चर्चा कर ली जाए जो अपने पति की चिता पर स्वयं को भस्म कर देती है और

अपने जीवन का अंत कर देती है। मनु इस संबंध में मौन है।

याज्ञवल्क्य1 नामक विद्वान जो मनु जितना ही महान है, कहता है कि स्त्री को अलग

या अकेले नहीं रहना चाहिए।

  1. जब किसी स्त्री का पति दिवंगत हो जाए, तब वह अपने पिता, मां, पुत्र,

भाई, सास या अपने मामा से अलग न रहे, अन्यथा वह निंदा की पात्र बन सकती

है।

यहां याज्ञवल्क्य यह नहीं कहता कि विधवा को सती हो जाना चाहिए लेकिन

याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका मिताक्षरा के लेखक प्रज्ञानेश्वर उक्त श्लोक की टीका करते

हुए निम्नलिखित मत व्यक्त करते हैं: ‘यह विष्णु2 के पाठ के अनुसार विकल्प के रूप

में ब्रह्मचर्य का जीवनयापन करने की स्थिति में होता है। पति की मृत्यु के बाद या तो

ब्रह्मचर्य या उसके साथ चिंता में बैठना। प्रज्ञानेश्वर3 इसमें अपना मत जोड़ते हैं कि उसके

बाद चिता में बैठने का बड़ा महत्व है।

इससे कोई भी बड़ी सरलता और स्पष्टतापूर्वक यह जान सकता है कि सती होने

का नियम किस प्रकार बना। मनु का नियम था कि कोई भी विधवा दुबारा विवाह

नहीं कर सकती। लेकिन प्रज्ञानेश्वर के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि विष्णुस्मृति

के समय से मनु के नियम की कुछ भिन्न व्याख्या की जाने लगी थी। इस नई व्याख्या

के अनुसार मनु के नियम का आशय विधवा स्त्री को दो विकल्पों में किसी एक

का चुनाव करने का अधिकार देना थाः (1) या तो तुम अपने पति की चिता में

भस्म हो जाओ, और (2) यदि तुम ऐसा नहीं करतीं, तब अविवाहित रहो। निस्संदेह

यह बिल्व फ़ुल गलत व्याख्या थी और मनु के स्पष्ट शब्दाें में निहित आशय के ठीक

विपरीत थी। यह किसी प्रकार ग्राह्य हो गई। विष्णुस्मृति तीसरी या चौथी शताब्दी के

आसपास की रचना है। अतः यह कहा जा सकता है कि सती होने का नियम उसी

समय बना था।

एक बात तो निश्चित है कि ये नियम नए थे। मनु का यह नियम की लड़की

का विवाह उसके ऋतुमती होने के पहले कर देना चाहिए, एक नया नियम है। बौद्ध

  1. याज्ञवल्क्यस्मृति, सन् 150.200 की रचना है।
  2. विष्णुस्मृति, अध्याय 25.14
  3. उन्होंने सन् 1070 और 1100 के बीच मिताक्षरा की रचना की।

पूर्व ब्राह्मणवाद में विवाह ऋतुमती होने के बाद ही नहीं किए जाते थे, बल्कि तब

किए जाते थे जब लड़कियों की इतनी आयु हो जाती थी कि उन्हें वयस्क कहा जा

सके। इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। इसी प्रकार यह नियम भी नया है कि स्त्री को एक

बार अपने पति के दिवंगत हो जाने पर दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए। बौद्ध पूर्व

ब्राह्मणवाद1 में विधवा के पुनर्विवाह पर कोई रोक नहीं थी। संस्कृत भाषा में ‘पुनर्भू’

(अर्थात् वह स्त्री जिसका दूसरा विवाह हुआ हो) और ‘पुनर्भव’ (अर्थात् दूसरा पति)

जैसे शब्द मिलते हैं। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध पूर्व ब्राह्मणवाद में इस

प्रकार के विवाह एक आम बात थी।2 सती के बारे में कि यह प्रथा कब शुरू हुई

है3

, इस बात का भी साक्ष्य है कि यह प्राचीन काल में होती थी। लेकिन इस बात

का भी साक्ष्य है कि यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गई और बौद्ध धर्म पर पुष्यमित्र

के अधीन ब्राह्मणवाद की विजय के बाद फिर से शुरू की गई, हालांकि यह लगभग

मनु के बाद ही हुआ होगा।

प्रश्न यह है कि यह परिवर्तन विजयी ब्राह्मणवाद ने क्यों किए? ब्राह्मणवाद लड़कियों

का विवाह उनके ऋतुमती होने के पहले ही कर, विधवाओं को पुनर्विवाह के अधिकार

का निषेध कर, और उन्हें अपने दिवंगत पति की चिता पर आत्मदाह करने का निर्देश

देकर कौन-सा उद्देश्य पूरा करना चाहता था? इन परिवर्तनों के कारणों का कुछ भी पता

नहीं चलता। श्री सी.वी. वैद्य, जो लड़कियों के विवाह के बारे में स्पष्टीकरण देते हैं,

कहते हैं4 कि लड़कियों का विवाह उनको बौद्ध धर्म में भिक्षुणी बनने से रोकने के लिए

शुरू किया गया। मैं इस स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं हूं। श्री वैद्य मनु द्वारा निर्धारित एक

अन्य नियम, अर्थात् विवाह के लिए उपयुक्त आयु से संबंधित नियम पर विचार करने

से चूक जाते हैं। इस नियम के अनुसारः

9.94. तीस वर्ष की आयु का व्यक्ति बारह वर्ष की आयु की कुमारी से विवाह

करे जो उसको प्रसन्न रखेगी या चौबीस वर्ष की आयु का व्यक्ति आठ वर्ष की

आयु की लड़की के साथ।

प्रश्न यह नहीं है कि बाल-विवाह को क्यों आरंभ किया गया। प्रश्न यह है कि मनु

ने वर और कन्या की आयु में इतने अधिक अंतर की क्यों अनुमति दी?

  1. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, काणे, खण्ड-1
  2. वही, काणे, खंड 2, भाग 2
  3. सती प्रथा के बारे में उपलब्ध प्रमाण श्री काणे ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में संग्रहीत किए

हैं, खंड 2, भाग-1, पृ. 617.36

  1. हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खण्ड-2

श्री काणे1 ने सती-प्रथा का स्पष्टीकरण देने का उद्यम किया है। उनका कहना है

कि इसमें कोई नई बात नहीं है। यह प्राचीन-काल में भारत में भी थी, जैसी कि विश्व

के अन्य भागों में थी। इससे दुनिया को संतोष नहीं है। यदि यह भरत के बाहर थी तो

वहां यह उतने बड़े पैमाने पर नहीं होती थी, जितनी कि यह भारत में होती थी। दूसरे,

अगर इसके चिह्न प्राचीन भारत में क्षत्रियों में पाए जाते थे तो इसे फिर से क्यों शुरू

किया गया। इसे विश्वव्यापी क्यों नहीं बनाया गया? इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं

है। श्री काणे का यह कहना कि यह उत्तराधिकार संबंधी नियमों के प्रसंग में प्रचलित

थी, मुझे कोई बहुत अधिक संतोषप्रद नहीं लगती। इसका कारण यह हो सकता है कि

उत्तराधिकार के बारे में हिंदू कानून के तहत स्त्री संपत्ति में एक भाग की अधिकारी

होती थी, जैसा कि बंगाल में होता था। पति के संबंधी विधवा पर सती हो जाने के

लिए दबाव डालते थे, जिससे कि वह उस भाग के संबंध में मुक्त हो सकें। शायद यह

एक कारण हो जिससे बंगाल में इतने बड़े पैमाने पर सती-प्रथा का प्रचलन रहा। लेकिन

इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि यह किस प्रकार शुरू हुई और यह किस प्रकार भारत

के अन्य भागों में व्यवहार में लाई जाने लगी।

इसके अलावा विधवाओं के पुनर्विवाह पर निषेध के कारणों का कुछ भी पता नहीं

चलता। विधवा-विवाह की प्रथा के प्रचलित होते हुए भी विधवा को विवाह करने से

क्यों वर्जित किया गया? उससे कष्टपूर्ण जीवन बिताने की अपेक्षा की गई। उसे विरूप

क्यों किया गया?

लड़कियों के विवाह, आरोपित वैधव्य और सती-प्रथा के बारे में मेरा मत सर्वथा

विपरीत है। मैं इसकी प्रामाणिकता या महत्व के बारे में कोई दावा न करते हुए इसे

यहां प्रस्तुत कर रहा हूं2

:

‘इस प्रकार बहिर्जातीय विवाह पद्धति के स्थान पर सजातीय विवाह पद्धति के आरंभ

का अर्थ है, जातिप्रथा का सृजन। लेकिन यह कोई सरल कार्य नहीं है। आइए, हम कोई

काल्पनिक वर्ग लें जो जाति बनाना चाहता है और इस बात का विश्लेषण करें कि इस

वर्ग को सजातीय विवाह पद्धति का बनाने के लिए कौन से उपाय अपनाने होंगे। यदि यह

वर्ग जाति बनना चाहता है, तब बाहर के वर्गों के साथ सजातीय विवाह पर औपचारिक

निषेधाज्ञा से कोई प्रयोजन नहीं पूरा होगा, विशेषकर ऐसी स्थिति में जब अंतर्जातीय

विवाह पद्धति आरंभ करने से पूर्व सभी वैवाहिक संबंधों के लिए बहिर्जातीय विवाह

पद्धति नियम होती थी। इसके अलावा, जो वर्ग एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ संपर्कपूर्वक

  1. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र
  2. यह ‘कास्ट्स इन इंडिया’ नामक मेरे लेख में मिलेंगे जो इंडियन एंटीक्वैरी नामक पत्रिका में मई, 1917

के अंक में प्रकाशित हुआ था।

रहते हैं, उन सभी में एक-दूसरे को आत्मसात और समेकित कर लेने और इस प्रकार

समरूप में संगठित हो जाए, तो एक परिधि खींचनी आवश्यक होगी, जिसके बाहर के

वर्ग के लोग विवाह नहीं करेंगे।

तथापि, वर्ग से बाहर विवाह को रोकने के लिए परिधि बनाने से उस वर्ग में समस्याएं

पैदा होंगी, जिनका समाधान कोई बहुत सरल बात नहीं होगी। सामान्यतः प्रत्येक वर्ग में

स्त्री-पुरुषों की संख्या थोड़ी-बहुत एक-समान होती है, और मोटे तौर पर एक ही आयु

से स्त्री-पुरुषों के बीच समानता भी होती है। लेकिन यह समानता वास्तविक समकक्षों

में कभी नहीं देखी गई। जो वर्ग अपनी एक अलग जाति बनाना चाहता है, उसके लिए

स्त्री-पुरुषों की संख्या में समानता का होना चरम लक्ष्य बन जाता है, क्योंकि इसके

बिना सजातीय विवाह व्यवस्था नहीं बनी रह सकती। दूसरे शब्दों में, अगर सजातीय

व्यवस्था को बनाए रखना है, तो वर्ग में ही विवाह के लिए विवाह योग्य स्त्री और

पुरुषों का उपलब्ध होना आवश्यक है, अन्यथा उस वर्ग के लोग स्वेच्छानुसार अपना

विवाह करने के लिए बाध्य हो जाएंगे। लेकिन क्योंकि वर्ग में ही परस्पर विवाह योग्य

स्त्री-पुरुष उपलब्ध होने हैं इसलिए जो वर्ग अपनी अपनी एक अलग जाति बनाना चाहता

है, उसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वहां परस्पर विवाह योग्य स्त्री-पुरुषों की

संख्या बरार-बराबर हो। इस प्रकार की समानता के द्वारा ही उस वर्ग की सजातीय विवाह

व्यवस्था सुरक्षित बनी रह सकती है और इस संख्या में बहुत बड़ी विषमता निश्चित ही

उस व्यवस्था को भंग कर देगी।

तब जाति की समस्या अंततः वर्ग में विवाह योग्य स्त्री-पुरुषों की संख्या में विषमता

को दूर करने की समस्या मात्र बनकर रह जाती है विवाहयोग्य स्त्री-पुरुषों की संख्या में

अपेक्षित समानता तभी बनी रह सकती है, जब पति-पत्नी एक साथ दिवंगत हों। लेकिन

यह संयोग बहुत ही विरल होता है। कोई पुरुष अपनी पत्नी से पहले मर सकता है और

अपने पीछे एक स्त्री छोड़ जाता है, जो अतिरिक्त हो जाती है। इस पत्नी की व्यवस्था

इसका अंतर्विवाह करके की जानी चाहिए, नहीं तो यह अस वर्ग की सजातीय विवाह

व्यवस्था को भंग कर देगी। इस प्रकार किसी स्त्री के देहांत के बाद उसका पति बचा रहे,

तो समाज को चाहिए कि वह उसकी पत्नी के दुर्भाग्यपूर्ण देहावसान पर संवेदना प्रकट करने

के साथ-साथ उसकी भी व्यवस्था कर दे, नहीं तो वह जाति के बाहर विवाह कर लेगा

और सजातीय विवाह व्यवस्था को भंग कर देगा। इस प्रकार अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त

स्त्री, दोनों जाति के लिए संकट बन जाते हैं, और इनके लिए उनकी निर्धारित परिधि में

उचित साथी की व्यवस्था करके उनकी व्यवस्था नहीं की गई (और वे स्वयं भी कुछ नहीं

खोज सकते, क्योंकि उनके चारों ओर युगल ही युगल होते हैं), तो बहुत संभव है कि वह

परिधि का संक्रमण कर दें, जाति के बाहर विवाह कर लें और ऐसे लोगों को ले आएं जो

जाति के बाहर के हैं। आइए, अब हम इस बात पर विचार करें कि हमारा काल्पनिक वर्ग

इस अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री के बारे में क्या व्यवस्था कर सकता है। हम पहले

अतिरिक्त स्त्री के बारे में विचार करते हैं। किसी जाति की सजातीय विवाह व्यवस्था को

अक्षुण्ण रखने के लिए उसकी व्यवस्था दो प्रकार से हो सकती है।

“पहला, उसे उसके दिवंगत पति की चिता पर बिठाकर भस्म कर डाला जाए और

उससे मुक्ति प्राप्त कर ली जाए। लेकिन स्त्री-पुरुष की संख्या में विषमता की समस्या

को हल करने का यह संभवतः एक अव्यवहारिक उपाय है। कुछ स्थितियों में यह हो

सकता है, लेकिन कुछ में यह संभव नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रत्येक अतिरिक्त स्त्री

की व्यवस्था नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि यह हल तो सरल है, किंतु

उसे व्यवहार में लाना अत्यंत कठिन है, लेकिन अगर इस अतिरिक्त स्त्री की व्यवस्था नहीं

की जाती और वह वर्ग में बनी रहती है, तो उसके बने रहने से दोहरा खतरा हो जाता

है। वह जाति के बाहर विवाह कर सकती है और सजातीय विवाह पद्धति को भंग कर

सकती है या वह जाति में ही विवाह कर प्रतियोगी बनकर ऐसी लड़की के विवाह की

संभावनाओं में हस्तक्षेप कर सकती है, जो उसकी जाति में वास्तविक रूप से वधू बनने

की अधिकारिणी है। इसलिए वह प्रत्येक स्थिति में संकट का कारण बनी रहती है।”

फ्दूसरा उपाय है कि उसे आजीवन विधवा बनाए रखा जाए। जहां तक वस्तुनिष्ठ

परिणामों का संबंध है, किसी भी ऐसी स्त्री को आजीवन विधवा बनाए रखने के बजाए

उसे जला देना एक अच्छा समाधान है। विधवा को जला देने से वे तीनों संकट दूर हो

जाते हैं, जो विधवा के कारण उत्पन्न होते हैं। जब वह मर जाती है और इस प्रकार

समाप्त हो जाती है, तब जाति में या जाति के बाहर उसके पुनर्विवाह की कोई समस्या

ही नहीं पैदा होती। लेकिन जलाने की अपेक्षा आजीवन विधवा बनाए रखना श्रेष्ठ है

क्योंकि यह अधिक व्यवहारिक है। यह मानवीय तो है, इसके अलावा इससे पुनर्विवाह

की समस्या भी उसी प्रकार हल हो जाती है जिस प्रकार उसे जला देने से होती है।

लेकिन इससे उस वर्ग के आदर्श नहीं बने रहते। निस्संदेह आजीवन विधवा बनाए रखने

से स्त्री मरने से बच तो जाती है, लेकिन चूंकि इससे भविष्य में किसी की वैध पत्नी

होने का अधिकार मात्र उससे छिन जाता है, इसलिए दुराचार को प्रोत्साहन मिलता है।

लेकिन यह कोई बड़ी भारी कठिनाई नहीं है। उसे ऐसी अवस्था में रखा जा सकता है

कि वह भविष्य में लोगों के लिए आकर्षण नहीं बन सके।”

फ्जो वर्ग अपनी एक अलग जाति बनाना चाहता है, वहां अतिरिक्त पुरुष (विधुर) की

समस्या अतिरिक्त स्त्री की समस्या से अधिक महत्वपूर्ण और कठिन है। स्त्री की तुलना में

पुरुष का स्थान अनादिकाल से ही उच्च रहा है। प्रत्येक वर्ग में उसकी स्थिति प्रभावशाली

रही है और स्त्री व पुरुष को गौरव दिया गया है। स्त्री की तुलना में पुरुष की परंपरागत

श्रेष्ठता होने के कारण उसकी इच्छाओं का सदा ध्यान रखा गया है। दूसरी ओर स्त्री सभी

प्रकार के अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का, चाहे वह धार्मिक हों, सामाजिक हों या आर्थिक, आसानी

से शिकार बनती रही है। लेकिन इन प्रतिबंधों का निर्माता होने के कारण पुरुष इन सबसे

निष्प्रभावित रहा है। जब ऐसी स्थिति हो तब आप अतिरिक्त पुरुष के साथ वैसा व्यवहार

नहीं रोक सकते, जैसा आप अपनी जाति में अतिरिक्त स्त्री के साथ कर सकते हैं।”

“पुरुष को उसकी दिवंगत पत्नी के साथ जलाने की बात सोचना दो प्रकार से

संकटपूर्ण है पहली बात तो यह है कि यह इसलिए नहीं किया जा सकता कि वह

पुरुष है। दूसरे यह कि अगर ऐसा किया गया तो उससे जाति को एक स्वस्थ शरीर की

हानि होती है। तब केवल दो उपाय रह जाते हैं जिनको अपनाने से आसानी से उसकी

व्यवस्था हो सकती है। मैं ‘आसानी’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि वह

वर्ग के लिए परिसंपत्ति है।”

“जिस प्रकार वह वर्ग के लिए महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार सजातीय विवाह व्यवस्था

और भी अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए समाधान ऐसा होना चाहिए कि दोनों ही उद्देश्य पूरे

हो सकें। इन परिस्थितियों में उस पर विधवा की तरह आजीवन विधुर रहने के लिए जोर

देना चाहिए। मैं कहूंगा कि इस बात के लिए उसे प्रेरित किया जाना चाहिए। यह समाधान

तो बिल्कुल भी कठिन नहीं है। इसका कारण यह है कि कुछ लोग तो स्वयं ब्रह्मचर्य का

जीवन बिताना पसंद करते हैं या कुछ लोग एक कदम आगे बढ़कर संसार और उसके

सुखों से संन्यास ले लेते हैं। लेकिन जैसी कि मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, यह आशा करना

कि सभी इस प्रकार के समाधान को स्वीकार कर लेंगे, एक मुश्किल बात है। दूसरी ओर,

जिसकी संभावना अधिक है कि अगर वह वर्ग के कार्यकलापों में सक्रिय रूप से भाग

लेता है तो वह वर्ग के आदर्शों के लिए खतरा बन जाता है। अगर इसे एक भिन्न दृष्टि से

देखा जाए तो ब्रह्मचर्य उस जाति की भौतिक उन्नति में कोई अधिक सहायक नहीं होता,

यद्यपि यह उन स्थितियों में सरल समाधान होता है, जहां यह सफल हो जाता है। अगर

वह वास्तविक रूप में ब्रह्मचर्य अपना लेता है और संसार को त्याग देता है, तब वह अपनी

जाति में सजातीय विवाह व्यवस्था या जातीय आदर्शों को बनाए रखने में संकट नहीं बनता,

क्योंकि तब वह विरक्त व्यक्ति की तरह जीवन-यापन करता है। जहां तक किसी जाति

की भौतिक समृद्धि का संबंध है, संन्यासी ब्रह्मचर्य का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा कि

उस व्यक्ति का, जिसे जला दिया गया हो। जाति में कुछ निश्चित जनसंख्या होनी चाहिए,

जिससे कि वह अपने लोगों को स्वस्थ-सामाजिक जीवन प्रदान कर सके। लेकिन इसकी

आशा करना और उसके साथ ब्रह्मचर्य की घोषणा करना, ये दोनों बातें ऐसी हैं जैसी किसी

क्षयग्रस्त रोगी का इलाज उसका निरंतर खून निकाल कर करना।”

“इसलिए वर्ग में इस अतिरिक्त पुरुष पर ब्रह्मचर्य आरोपित करना सैद्धांतिक और

व्यवहारिक, दोनों ही प्रकार से असफल हो जाता है। उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में,

जिसे संस्कृत में गृहस्थ (जो विवाह कर अपना परिवार बना सके) कहते हैं, रखना जाति

के हित में है। लेकिन यहां समस्या उसे उसी जाति की पत्नी की व्यवस्था करने की

है। शुरू में यह संभव नहीं हो सका, क्योंकि तब जाति में अनुपात एक पुरुष के लिए

एक स्त्री का होगा और किसी को दोबारा विवाह करने का अवसर नहीं मिल सकता।

इसका कारण यह है कि जाति स्वतः आत्मकेंद्रित होती है, उसमें विवाह-योग्य पुरुषों

के लिए विवाह-योग्य स्त्रियां पर्याप्त मात्र में होती हैं। इन परिस्थितियों में अतिरिक्त

पुरुष के लिए वधू की व्यवस्था उन लड़कियों में से की जा सकती है जो विवाह-योग्य

अभी नहीं हुई हैं, जिससे वह व्यक्ति उस वर्ग से जुड़ा रहे। अतिरिक्त पुरुष के मामले

में निश्चित ही यही यथासंभव श्रेष्ठ समाधान है। ऐसा करने से उसे जाति में ही रखा

जा सकता है। ऐसा करने से उस जाति को छोड़कर निरंतर बाहर आने वाली जनसंख्या

पर नियंत्रण रखा जा सकता है और ऐसा करने से सजातीय विवाह व्यवस्था और आदर्श

सुरक्षित रखे जा सकते हैं।”

“इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन उपायों द्वारा स्त्री-पुरुषों के बीच संख्यात्मक

विषमता को नियंत्रित रखा जा सकता है – वे चार हैं, (1) दिवंगत पति के साथ उसकी

विधवा का अग्निदाह, (2) अनिवार्य वैधव्य अग्निदाह का हल्का रूप, (3) विधुर पर

अनिवार्य ब्रह्मचारी का जीवन आरोपित करना, और (4) उसका विवाह ऐसी लड़की से

कर देना जो विवाह योग्य न हो। जैसा मैं कह चुका हूं कि विधवा का अग्निदाह और

विधुर का अनिवार्य ब्रह्मचारी का जीवन आरोपित करना, ये दोनों उपाय ऐसे हैं जिनके

किसी समुदाय में सजातीय विवाह व्यवस्था बनाए रखने में कार्यान्वित होने में संदेह है,

ये दोनों उपाय मात्र हैं। लेकिन जब यह उपाय कठोरतापूर्वक कार्यान्वित किए जाते हैं तब

लक्ष्य पूरा हो जाता है। ये उपाय कौन-सा लक्ष्य पूरा करते हैं? ये सजातीय विवाह व्यवस्था

का सृजन और उसे स्थाई बनाते हैं। जाति की विभिन्न परिभाषाओं में हमारे विश्लेषण

के अनुसार जाति और सजातीय विवाह व्यवस्था, दोनों एक ही वस्तु हैं। इस प्रकार इन

उपायों का प्रयोजन जाति और जाति-व्यवस्था में ये दोनों ही उपाय निहित हैं।”

“मेरे विचार में किसी भी जाति-व्यवस्था में जाति का यही सामान्य रूप होता है।

आइए, अब हिंदू समाज की जातियों और उनकी व्यवस्था पर विचार करें। हम सभी

जानते हैं कि भारत में जाति एक अत्यंत प्राचीन व्यवस्था है, और यह कि जो लोग

अतीत को उद्घाटित करना चाहते हैं, उनके रास्तों में बहुत सी कठिनाइयां आती हैं।

यह बात वहां के लिए तो और भी सच होती है, जहां न तो कोई प्रमाणिक या लिखित

इतिहास होता है, और न ही कोई अभिलेख होते हैं, या जहां लोग इस प्रकार संगठित

रहते हैं, जैसे हिंदू, जिनके लिए इतिहास लिखना इसलिए महत्वपूर्ण कार्य है कि यह

सारा विश्व ही मिथ्या है। फिर भी व्यवस्थाएं तो रहती हैं, चाहे चिरकाल तक इनका

इतिहास अलिखित ही क्यों न रह जाए और इनके थोड़े-बहुत आचार-विचार और नैतिक

आदर्श जीवाश्व की तरह हैं, जो अपना इतिहास कहते हैं। अगर यह सच है और अगर

हम इसका विश्लेषण करें कि हिंदुओं ने इस अतिरिक्त पुरुष और स्त्री की समस्या का

किस प्रकार समाधान किया, तो हम काफी सफल हो सकते हैं।

हिंदू समाज की कार्यप्रणाली में, जो यद्यपि बहुत ही जटिल रही है, पत्नियों के

संबंध में मोटे तौर पर तीन रीतियां मिलती हैं, जो किसी और समाज में नहीं मिलतीं।

ये निम्नलिखित हैं:

(1)          सती अर्थात् विधवा को उसके दिवंगत पति के शव के साथ चिता में जला

देना,

(2)          अनिवार्य वैधव्य जिसके द्वारा किसी भी विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति

नहीं है, और

(3)          बाल्यावस्था में विवाह।

इसके अलावा, अधिकांश विधुर व्यक्तियों में संन्यास लेने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है,

जो कुछ मामलों में केवल मानसिक झुकाव के कारण हो सकती है। “जहां तक मैं जानता

हूं, इन प्रथाओं की उत्पत्ति का कोई वैज्ञानिक कारण आज तक नहीं मिल पाया है। इस

बारे में हमें पर्याप्त चिंतन सामग्री उपलब्ध है कि इन प्रथाओं में लोगों की श्रद्धा क्यों थी?

(तुलना कीजिएः ब्रिटिश सोशियोलॉजिकल रिव्यू, वॉल्यूम 6, 1953 में ए-के- कुमारस्वामी

– सतीः ए डिफेंस ऑफ दि ईस्टर्न वीमेन) चूंकि यह शरीर और आत्मा, पति और पत्नी

की पूर्ण एकता और कब्र के बाद भी निष्ठा का प्रमाण है, चूंकि यह स्त्रीत्व के आदर्श

का प्रतीक है जिसे उमा ने बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त किया है, जब वह कहती हैः ‘अपने

पति के प्रति निष्ठा स्त्री का गौरव है, वह उसका शाश्वत स्वर्ग है।’ वह मानवों की भांति

बड़ा आर्तनाद करते हुए कहती है, ‘हे महेश्वर, यदि आप मुझसे संतुष्ट नहीं हैं, तो मैं स्वर्ग

भी नहीं चाहती।’ मैं यह नहीं जानती कि अनिवार्य वैधव्य को क्यों गौरव दिया जाता है,

हालांकि बहुत से लोग अनिवार्य वैधव्य का समर्थन करते हैं। लेकिन मुझे कोई भी ऐसा

व्यक्ति नहीं मिला, जिसने इसकी प्रशंसा की हो। छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह

कर देने की प्रथा की प्रशंसा में डॉ- केतकर ने बताया है, जो इस प्रकार है – ‘जो पुरुष

या स्त्री वास्तविक रूप से निष्ठावान है, उसे अपनी पत्नी या पति के अतिरिक्त, जिसके

साथ उसका विवाह हो गया है, किसी भी दूसरी स्त्री या पुरुष के प्रति अनुरक्त नहीं होना

चाहिए। यह शुचिता न केवल विवाह के बाद, बल्कि विवाह के पहले भी अनिवार्य है

क्योंकि यही ब्रह्मचर्य का सच्चा आदर्श है। अगर कोई कुमारी उस व्यक्ति, जिसके साथ

उसका विवाह होगा, के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम-भाव रखती है, तब वह शुद्ध

नहीं मानी जा सकती। चूंकि वह यह नहीं जानती कि किसके साथ उसका विवाह होगा,

उसे चाहिए कि वह विवाह के पूर्व किसी भी व्यक्ति के प्रति अनुरक्त नहीं हो। यदि वह

ऐसा करती है तो वह पाप है, इसलिए प्रत्येक लड़की के यह हित में है कि काम-प्रवृत्ति

जागने के पहले वह उस व्यक्ति को जान ले, जिसके साथ विवाह होने वाला है।” इसलिए

लड़कियों का बचपन में ही विवाह होना शुरू हुआ।

“इस अलंकारिक भाषा और विलक्षण कुतर्क से यह तो पता चलता है कि यह

प्रथाएं क्यों अच्छी समझी जाती थीं। लेकिन इससे यह पता नहीं चलता कि ये प्रथाएं

क्यों अमल में लाई गईं। मेरा अपना मत तो यह है कि चूंकि ये प्रथाएं अमल में लाई

गईं, इसलिए इन्हें अच्छा समझ जाने लगा। जिस किसी को 18वीं शताब्दी में व्यक्तिवाद

के उदय की थोड़ी-बहुत भी जानकारी है, वह मेरी टिप्पणी से सहमत होगा। प्रत्येक युग

में आंदोलन को सबसे अधिक महत्व दिया गया है और काफी समय बीत जाने के बाद

उसे पुष्ट करने और नैतिक समर्थन प्रदान करने के लिए विभिन्न दर्शन उत्पन्न हो जाते

हैं। इस आधार पर मेरा यह कहना है कि जिस प्रकार इन प्रथाओं की खूब प्रशंसा की

गई, उससे यह सिद्ध होता है कि इन प्रथाओं को जारी रखने के लिए प्रशंसा आवश्यक

रही होगी। इस प्रश्न के उत्तर में कि ये प्रथाएं क्यों उत्पन्न हुईं, मेरा यह विनम्र मत है

कि जाति का ढांचा खड़ा करने के लिए इन प्रथाओं को आवश्यक समझा जाता था और

इनके बारे में जिन दर्शनों का जन्म हुआ, उनका उद्देश्य उन्हें लोकप्रिय बनाना था। हम

कह सकते हैं कि एक प्रकार से लोहे पर सोने-चांदी का मुलम्मा चढ़ाना था और यह

प्रथाएं सीधी-सादी भोली जनता को इतनी अधिक घृणित और दहशत पैदा कर देने वाली

लगी होंगी कि इनको चाशनी में पागना अत्यंत आवश्यक हो गया होगा। हालांकि इन

प्रथाओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है लेकिन ये प्रथाएं वास्तव में अत्यंत

ही घृणित प्रकृति की हैं। इस मुलम्मे या चाशनी के चक्कर में हमें उन परिणामों को

नहीं भूलना चाहिए, जो इनसे उत्पन्न होते हैं। हम कह सकते हैं कि साधनों को आदर्श

रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक होता है और इस विशेष मामले में ऐसा इन प्रथाओं को

अधिक कारगर बनाने के लिए किया गया। साधनों को लक्ष्य कहने से हानि नहीं होती,

सिवाए इसके कि इससे लक्ष्य का वास्तविक रूप छिप जाता है। लेकिन इससे उसकी

वास्तविक प्रकृति नहीं समाप्त होती, और न उसके साधन ही नष्ट होते हैं। जिस प्रकार

आप किसी साधन को लक्ष्य कह सकते हैं, उसी प्रकार आप यह कानून बना सकते हैं

कि सभी बिल्लियां कुत्ते होती हैं। अतः यदि मैं कह दूं कि यह लक्ष्य है या यह साधन

है तो कोई अनुचित नहीं। सती-प्रथा, अनिवार्य वैधव्य और बालिका विवाह प्रथाएं हैं,

जिनका उद्देश्य जाति में अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्या को हल करना

और सजातीय विवाह व्यवस्था को बनाए रखना था। इन प्रथाओं के बगैर सजातीय विवाह

व्यवस्था को सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता और सजातीय विवाह व्यवस्था के बगैर

जाति एक धोखा है।” पर रोक लगाकर यही उद्देश्य पूरा करना चाहता था। अंतर्जातीय

विवाह को रोकना कठिन कार्य है। भिन्न-भिन्न जातियों के लोग प्रेम या आवश्यकता

होने के कारण अपनी-अपनी जातियों के बाहर जा सकते हैं। ब्राह्मणवाद ने ये नियम इसी

आवश्यकता के विरुद्ध व्यवस्था करने के लिए ही बनाए। मेरा यह स्पष्टीकरण इन नए

नियमों के बारे में है, जो ब्राह्मणवाद ने बनाए हैं। यह स्पष्टीकरण सभी को स्वीकार्य न

हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि ब्राह्मणवाद विभिन्न वर्गों के बीच हो

रहे विवाहों को रोकने के लिए हर संभव उपाय कर रहा था।

ब्राह्मणवाद के अभिप्राय का एक और दृष्टांत यह नियम है जो मनु ने किसी व्यक्ति

को जाति से बहिष्कृत करने के बारे में बनाया था।

मनु कहता है कि जो व्यक्ति अपनी जाति से बहिष्कृत1 कर दिया जाता है, उसे ऐसे

समझना चाहिए जैसे वह वास्तविक रूप में मर गया हो।

मनु आदेश देता है कि उसकी अंत्येष्टि करनी चाहिए। वह उसकी अंत्येष्टि के बारे

में विधि और पद्धति निश्चित करता है।

11.182. बहिष्कृत व्यक्ति के सपिंड और समानोदकों को चाहिए कि वह संबंधियों,

ऋत्विकों और गुरुओं की उपस्थिति में सायंकाल को किसी अशुभ दिन (नगर से) बाहर

(उसे, जैसे वह दिवंगत हो गया है) जल (तर्पण) करे।

11.183. दासी जल से भरे घड़े को अपने पैर से ठोकर मारकर उलट दे, जैसे किसी

मृत व्यक्ति को (जल का अर्पण किया गया), (उसके सपिंड) और समानोदक एक

दिन और एक रात अशुद्ध रहेंगे।

तथापि मनु, जैसा कि निम्नलिखित नियमों से स्पष्ट है, बहिष्कृत व्यक्ति को प्रायश्चित

करने पर जाति में वापस सम्मिलित होने की अनुमति देता हैः

11.186. लेकिन जब वह प्रायश्चित कर ले, वे उसके साथ किसी पवित्र सरोवर में

स्नान करें और जल से भरे गए घड़े को उस जलाशय में छोड़ दें।

11.187. लेकिन वह उस घड़े को जलाशय में छोड़ दे, अपने घर में प्रवेश करे

और पहले की तरह जाति संबंधी सभी कार्यों को करे।

11.188. बहिष्कृत हुई स्त्रियों के साथ भी इसी नियम का पालन किया जाए, लेकिन

उन्हें वस्त्र, भोजन और पानी दिया जाए और वह अपने परिवार के घर के पास रहे।

लेकिन यदि बहिष्कृत व्यक्ति अवमानना करता है और पश्चाताप-मुक्त नहीं है, तब

मनु दंड की व्यवस्था करता है। मनु बहिष्कृत व्यक्ति को परिवार के साथ रहने की

अनुमति नहीं देता। मनु निर्देश देता हैः

  1. जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है, ‘बहिष्कृत’ और ‘अछूत’ दो अलग-अलग संकल्पनाएं हैं।

11.189. …उन्हें (अर्थात् परिवार से बहिष्कृत व्यक्तियों को) वस्त्र, भोजन और

पानी दिया जाए और वह (अपने परिवार के) घर के पास रहें।

3.92. वह (अर्थात् गृहस्थ) कुत्तों, बहिष्कृतों, चांडालों और पिछले पाप के लिए

दंड स्वरूप रोगों से ग्रसित व्यक्तियों, कौओं और कीड़ों-मकोड़ों के लिए धीरे से

भूमि पर (कुछ अन्न) रखें।

मनु कहता है कि बहिष्कृत व्यक्ति के साथ सामाजिक शिष्टाचार पाप है। वह

स्नातक को चेतावनी देता हैः

4.79. …बहिष्कृत व्यक्ति के साथ मत रहो।

4.213. …बहिष्कृत व्यक्ति के द्वारा दिए गए अन्न को मत ग्रहण करो।

मनु गृहस्थ के लिए कहता है:

3.151. वह (अर्थात् गृहस्थ) श्राद्ध में न बुलाएं।

3.157. जो व्यक्ति (पर्याप्त) कारण बिना अपनी मां, अपने पिता या गुरु को

छोड़ देता है, वह जिसने बहिष्कृतों के साथ वेद अथवा विवाह के द्वारा संबंध

स्थापित किया है।

मनु आदेश देता है कि जो लोग उस व्यक्ति से संपर्क रखते हैं, उन्हें दंडित किया

जाए और इस प्रकार बहिष्कृत व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाएः

11.180. जो किसी बहिष्कृत व्यक्ति के साथ एक वर्ष तक संपर्क रखता है, यज्ञ

नहीं करने, वेद नहीं पढ़ने या उसके साथ संपर्क रखने से स्वयं भी बहिष्कृत हो

जाता है, क्योंकि इन कार्यों से वह अपनी जाति को तुरंत खो देता है, बल्कि उसके

साथ सवारी करने या उसके स्थान पर बैठने या एक ही आसन पर साथ-साथ

भोजन करने से भी (बहिष्कृत हो जाता है)।

11.181. जो व्यक्ति किसी बहिष्कृत के साथ संपर्क करता है, उसे इस संपर्क से

शुद्धि के लिए वही प्रायश्चित करना चाहिए, जो उस बहिष्कृत व्यक्ति के लिए

निर्धारित है।

इसके अलावा, जो बहिष्कृत व्यक्ति अपनी जाति की अवमानना करता है और

बहिष्कृत बना रहना चाहता है, उसके लिए दंड का विधान है। मनु उसे अगले जन्म में

भोगने वाले दंड का स्मरण कराता हैः

12.60. जो बहिष्कृत व्यक्ति के साथ संपर्क रखता है, वह ब्रह्मराक्षस (अर्थात्

प्रेत) बनेगा।

मनु बहिष्कृत व्यक्ति के बारे में इतने से ही संतुष्ट नहीं है। वह दंड का भी विधान

करता है, जिसकी कठोरता के बारे में कोई संदेह नहीं कर सकता। बहिष्कृत व्यक्ति के

लिए मनुस्मृति में निम्नलिखित दंड विधान है:

3.150. जो ब्राह्मण…बहिष्कृत हैं…और नास्तिक हैं, वह देव-कार्य तथा पितृ-कार्य

में (भाग लेने के) अयोग्य हैं।

9.201. …बहिष्कृतों को पैतृक संपत्ति में कोई भाग नहीं मिलता।

11.184. लेकिन इसके बाद (अर्थात् बहिष्कृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार होने के

बाद, उसके साथ बात करना, उसके साथ बैठना-उठना, उसे पैतृक संपत्ति में भाग

देना और अन्य सलोक व्यवहार करना वर्जित है)।

11.185. और (अगर बहिष्कृत व्यक्ति ज्येष्ठ है) तब उसकी ज्येष्ठता नहीं रहती

और ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अतिरिक्त भाग उसके स्थान पर छोटा भाई गुणवान

होने (अर्थात् जो जाति के नियमों का अनुपालन करता है) के कारण ज्येष्ठ का

अंश प्राप्त करेगा।

बहिष्कृत व्यक्ति के संबंध में मनु के नियम यही हैं। इन दंडों की कठोरता स्पष्ट है।

इनका प्रयोजन उसे सभी प्रकार के लोक व्यवहार से अलग रखना, पर्व आदि पर सभी

समारोहों में उसे आमंत्रित न करना, उसे सभी प्रकार के पदों के लिए अयोग्य करना और

हर प्रकार की पैतृक संपत्ति से वंचित कर देना है। इन कष्टों और दंडों के अधीन बहिष्कृत

व्यक्ति मृतक के समान हो जाता होगा, जैसा कि मनु उसे समझता है, उसे तर्पण देने का

निर्देश देता है, जैसे वह स्वाभाविक रूप से मर गया हो। सुख-सुविधाओं से वंचित कर देने

और अवमानित करने की यह पद्धति उन व्यक्तियों पर भी लागू की गई, जो बहिष्कृतों के

साथ संपर्क रखने का प्रयास करते और उनके लिए भी वैसा दंड-विधान निर्धारित किया

गया। यह दंड केवल बहिष्कृतों तक ही सीमित नहीं रहा, न ही यह पुरुषों तक सीमित

रहा। बहिष्कृतों से संबंधित नियम पुरुषों और स्त्रियों, दोनों के लिए लागू रहे। यहां तक कि

ये नियम उनकी संतत्ति पर भी लागू किए गए। यह नियम बहिष्कृत व्यक्ति के पुत्र पर भी

लागू किया गया। जो पुत्र अपने पिता के बहिष्कृत होने से पहले पैदा हुआ हो, वह अपने

पिता की संपत्ति को उत्तराधिकार के रूप में तुरंत प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता, मानो

उसका पिता दिवंगत हो गया हो। जो बहिष्कृत होने के बाद पैदा होता, उसे उत्तराधिकार का

कोई अधिकार नहीं रह जाता, अर्थात् अपने पिता के साथ वह भी बहिष्कृत हो जाता।

बहिष्कृतों के बारे में मनु के नियम निस्संदेह अन्यायपूर्ण और अमानवीय हैं। कोई यह

कह सकता है कि यह कोई बहुत विलक्षण बात नहीं। इसका कारण यह है कि ये नियम

धर्मविमुखता और धर्मद्रोह संबंधी नियमों की तरह हैं, जो सभी धर्म-संहिताओं में मिलते

हैं। दुर्भाग्य से यह सच है। बौद्ध धर्म को छोड़कर प्रत्येक धर्म ने अपनी-अपनी संहिता

में अटूट निष्ठा रखने और तद्नुसार आचरण करने पर बल देने के लिए उत्तराधिकार के

नियमों का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग किया है। सम्राट कांस्टैंटीन्स और जुलियन ने ईसाई

व्यक्ति को यहूदी धर्म अपनाने या विधर्मी बन जाने या कोई और धर्म अपनाने पर दंडित

किया। सम्राट थियोडोसियस और वैलेंटीनियोस ने धर्म-प्रचारकों के लिए, यदि वे उसी

प्रकार अन्याय से दूसरों को पथभ्रष्ट करने का साहस करते हैं, तो मृत्युदंड तक देने की

व्यवस्था की थी। यूरोप के अन्य देशों1 में दंड-विधान की यही पद्धति अपने यहां ईसाई

धर्म लागू करने के लिए अपनाई गई।

बहिष्कृत व्यक्ति संबंधी कानून के बारे में ऐसा दृष्टिकोण अपनाना ओछी बात है। सबसे

पहली बात तो यह कि किसी व्यक्ति को बहिष्कृत करने की प्रथा को ब्राह्मणवाद ने जन्म

दिया। यह पद्धति जाति प्रथा के कारण उत्पन्न हुई। ब्राह्मणवाद ने जातिप्रथा को जन्म देने

का जब एक बार निश्चय कर लिया, तब बहिष्कृत व्यक्तियों के बारे में ऐसा नियम बनाना

आवश्यक ही था। बहिष्कृत व्यक्ति को दंडित कर ही जातिप्रथा लागू की जा सकती थी।

दूसरे, ईसाई धर्म या मुसलमान धर्म के धर्मविमुखता संबंधी नियमों और ब्राह्मणवाद के जाति

संबंधी नियमों में अंतर है। ईसाई या मुसलमान धर्म में विधर्मी होने का अर्थ, धर्म में आस्था

न रखने या धर्म का गलत निर्वचन करने तक सीमित था। ब्राह्मणवाद में विधर्मी होने का

संबंध धार्मिक आस्था नहीं होने या उसका अभाव हो जाने से बिल्कुल भी नहीं था। इसका

संबंध एक सामाजिक संस्था, अर्थात् जातिप्रथा को मानने या न मानने से था। इस जाति से

बाहर चले जाने को दंडनीय समझा गया। यह एक महत्वपूर्ण अंतर है।

ब्राह्मणवाद धर्म के बहिष्कृत व्यक्ति संबंधी नियमों की तुलना अगर अन्य धर्मों के

विधर्मिता संबंधी नियमों से की जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि ब्राह्मण धर्म में ईश्वर में

आस्था रखना आवश्यक नहीं है, मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास रखना ब्राह्मणवाद में

आवश्यक नहीं है, सदाचार के द्वारा मुक्ति या ईश्वर के दूत में विश्वास रखना ब्राह्मण

धर्म में आवश्यक नहीं है, लेकिन वेदों की पवित्रता में विश्वास रखना ब्राह्मणवाद में

आवश्यक है। केवल यही एक चीज है जो ब्राह्मणवाद में आवश्यक है। केवल जाति का

उल्लंघन ही दंडनीय है। बाकी अन्य का उल्लंघन किया जा सकता है।

जो लोग एकीकरण की इन शक्तियों को देखते-समझते हैं, वे यह स्वीकार करेंगे कि

अंतर्जातीय विवाह या सहभोज का निषेध करना समाज को तोड़ देने के बराबर है। यह

एकता के लिए मौत का पैगाम है, एकजुट होकर काम करने के रास्ते में एक जबरदस्त

बाधा है। हम आगे चलकर देखेंगे कि ब्राह्मणवाद गैर-ब्राह्मणों द्वारा इसे उखाड़ फेंकने के

लिए हर संयुक्त कार्रवाई को विफल करने के बारे में सचेत था। और इसीलिए उसने

भारतीय समाज को इस प्रकार वर्गों में विभाजित किया। लेकिन किसी भी विष का प्रभाव

  1. देखिए, लॉज ऑफ इंग्लैंड पर स्टीफन की टीका (15वां संस्करण), खंड 4, पृ. 179

उसका प्रयोग करने वाले के मूल उद्देश्य तक सीमित नहीं रह सकता। यही जाति के

मामले में भी हुआ। ब्राह्मणवाद ब्राह्मणों के विरुद्ध गैर-ब्राह्मणों को पंगु बना देना चाहता

था, उसकी योजना उन्हें राष्ट्र के रूप में विदेशी शक्ति के विरुद्ध पंगु बना देने की नहीं

थी। लेकिन जाति रूपी विष का परिणाम यह है कि उनमें ब्राह्मणवाद के ही नहीं, विदेशी

शक्तियों के विरुद्ध भी सिर उठाने की शक्ति नहीं रह गई। दूसरे शब्दों में, ब्राह्मणवाद ने

जातिप्रथा को जन्म देकर राष्ट्रीयता के विकास को भी महान क्षति पहुंचाई।

चाहे लोग कुछ भी कहें, हिंदू जातिप्रथा में किसी भी दोष को स्वीकार नहीं करेगा

और एक दृष्टि से यह सही भी है। प्रत्येक परिवार में उसके सदस्यों में एक-दूसरे के

प्रति प्रेम, एकता और सहायता करने की भावना होती है। चोरों में भी एक-दूसरे के

सामान्य हितों के प्रति सद्भाव होता है। डाकुओं के गिरोह में सब का एक ही स्वार्थ

होता है और सब एक-दूसरे का ख्याल रखते हैं। इनके गिरोह चाहे एक-दूसरे के विरोधी

क्यों न हों, तब भी इनमें परस्पर भाईचारे और अपने-अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण

की भावना होती है। और इसी से ये पहचाने जाते हैं। इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि

एक जाति में वे सभी गुण होते हैं जो किसी समाज में होने चाहिए।

इसमें परस्पर प्रेम, एकता और एक-दूसरे की सहायता करने की प्रबल भावना होती

है जो किसी परिवार के गुण कहे जाते हैं। चोरों जैसी बंधुत्व की भावना का इसे श्रेय

प्राप्त है। इसमें निष्ठा और भाईचारे की यह भावना भी होती है, जो हमें भिन्न-भिन्न

गिरोहों में मिलती है और इसमें समान हित या स्वार्थ की वह भावना भी होती है, जो

डाकुओं में मिलती है।

जाति में इन प्रशंसनीय गुणों के होने के कारण हिंदू गौरव का अनुभव कर सकता है

और यह कह सकता है कि ‘जाति’ में कोई दोष नहीं होता। लेकिन वह यह भूल जाता

है कि उसकी जाति के बारे में यह धारणा, कि यह सामाजिक संगठन का एक आदर्श

रूप है, जो इस अनुमान या कल्पना पर आश्रित है कि प्रत्येक जाति अपने आपको एक

स्वतंत्र समाज कह सकती है, यही उसका लक्ष्य है, जैसा कि किसी राष्ट्र के संबंध में

होता है। लेकिन जब हम हिंदू समाज और उसी के अनुरूप जातिप्रथा पर विचार करते

हैं, तब यह सिद्धांत अर्थहीन हो जाता है।

यहां तक कि इस विषय पर विचार करते समय हिंदू यह कभी नहीं स्वीकार करेगा

कि जातिप्रथा एक बुरी प्रथा है। आप हिंदुत्व को जातिप्रथा के दोषों के लिए उत्तरदायी

ठहराएं, तब हिंदू तुरंत कह उठेगा कि ‘यूरोप में भी वर्ग प्रणाली (क्लास सिस्टम) है।’

इस प्रतिक्रिया का आशय अगर यह है कि दार्शनिकों का ऐसा समाज तो कहीं नहीं है,

जहां मूलभूत एकता हो, सबका एक जैसा उद्देश्य हो, परस्पर सहानुभूति हो, सार्वजनिक

हित के प्रति निष्ठा हो और सबके कल्याण की चिंता हो। अगर हिंदू यह कहे कि

प्रत्येक समाज में ऐसे परिवार और वर्ग होते हैं, जहां अलगाव, संदेह और ईर्ष्या उन्हीं

परिवारों और वर्गों की भांति पाई जाती है, जहां डाकुओं के गिरोह, गुटबाजी, संकीर्ण

दलबंदी, टेªड यूनियन, कर्मचारी संगठन, कार्तेल, चैम्बर ऑफ कॉमर्स और राजनैतिक

पार्टियां होती हैं, तो किसी को क्या शिकायत हो सकती है। इनमें से कुछ स्वार्थ और

लूटने के कारण आपस में संगठित होती हैं और बाकी ऐसी जो जनता की सेवा करने

का उद्देश्य लेकर उठ खड़ी होती हैं, लेकिन वह उसको अपना शिकार बनाने में कोई

संकोच नहीं करतीं।

यह स्वीकार किया जा सकता है कि हर जगह वास्तविक समाज पूर्ण रूप से एक

नहीं होता, बल्कि उसमें छोटे-छोटे वर्ग होते हैं, जिनकी अपनी-अपनी समस्याएं होती हैं

और ये समस्याएं उन तात्कालिक और विशिष्ट प्रयोजनों से प्रेरित होती हैं। लेकिन हिंदू

अपनी जाति व्यवस्था और गैर-हिंदू वर्ग प्रणाली के बीच इस समानता को अपनी ढाल

नहीं बना सकता और उसके पीछे दुबक कर बैठा नहीं रह सकता जैसे इस विषय पर

और कुछ करने के लिए नहीं रह गया है। सच तो यह है कि इससे भी बड़ा प्रश्न है,

जिसका उसे उत्तर देना है। उसे इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि हालांकि हर समाज

में वर्ग होते हैं, कुछ ऐसे समाज हैं जिनमें वर्ग असामाजिक होते हैं और कुछ ऐसे भी

समाज हैं जिनमें वर्ग समाज-विरोधी होते हैं। वर्ग-प्रणाली वाले समाज और जाति-प्रणाली

वाले समाज में अंतर सिर्फ इस बात में है कि वर्ग-प्रणाली सिर्फ गैर-सामाजिक होती

है, लेकिन जाति-प्रणाली तो निश्चित रूप से समाज-विरोधी है।

यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि किसी समाज में वर्ग-प्रणाली गैर-सामाजिक भावना

को क्यों पैदा करती है और दूसरे समाज में समाज-विरोधी भावना क्यों पैदा करती है।

इसका जो स्पष्टीकरण प्रोफेसर जॉन डेवी ने दिया है, उससे अधिक अच्छा स्पष्टीकरण

नहीं दिया जा सकता। उनके मतानुसार हर चीज इस बात पर निर्भर करती है कि ये वर्ग

अलग-अलग हैं या एक-दूसरे से संबद्ध हैं। क्या ये एक-दूसरे के हितों के बारे में ख्याल

रखते हैं, या उनमें इस भावना का अभाव है। अगर ये वर्ग एक-दूसरे से संबद्ध है, अगर

इनमें एक-दूसरे के हितों के बारे में ख्याल नहीं है तब उनमें एक-दूसरे के प्रति सिर्फ

गैर-सामाजिक भावना होगी। अगर इन वर्गों एक-दूसरे के हित के बारे में ख्याल नहीं है

तब इनमें समाज-विरोधी भावना होगी। प्रोफेसर डेवी1 के शब्दों में:

दल या गुट की अपनी पृथकता और एकांतता के कारण समाज-विरोधी भावना व्याप्त

हो जाती है और जहां भी किसी वर्ग का स्वार्थ अपने तक सीमित होता है, वहां ऐसी

ही भावना पाई जाती है। इससे उसका पूर्ण संपर्क दूसरे वर्गों के साथ नहीं रहता और

  1. डेमोक्रेसी एंड एजूकेशन, पृ. 99

“दल या गुट की अपनी पृथकता और एकांतता के कारण समाज-विरोधी भावना

व्याप्त हो जाती है। और जहां भी किसी का स्वार्थ अपने तक सीमित होता है, वहां

ऐसी ही भावना पाई जाती है। इससे उसका पूर्ण संपर्क दूसरे वर्गों के साथ नहीं रहता

और उसका मुख्य उद्देश्य पुनर्गठित और संपर्क द्वारा प्रगति करने के बजाए उसी की रक्षा

करना रह जाता है, जो उसके पास पहले से ही है। यह भावना राष्ट्रों को एक-दूसरे से

अलग कर देती है। इसी प्रकार जो परिवार अपने घरेलू मामलों में उलझे रहते हैं, जैसे

उनका व्यापक जीवन में कोई संबंध न हो, स्कूल भी तब अलग जा पड़ते हैं, जब उनका

घर और समुदाय से कोई संबंध न हो, स्कूल भी तब अलग जा पड़ते हैं, जब उनका

घर और समुदाय से कोई संबंध नहीं रहता, अमीर और गरीब, शिक्षित और अशिक्षित

में भेद बढ़ जाता है। मुख्य बात यह है कि पृथकता से जीवन संकीर्ण और औपचारिक

मात्र रह जाता है, वर्ग में उसके आदर्श जड़ और स्वार्थपूर्ण हो जाते हैं।”

प्रश्न यह है कि क्या समाज में वर्ग हैं या समाज एक संपूर्ण इकाई होता है। प्रश्न

यह है कि विभिन्न वर्गों में परस्पर साहचर्य, सहयोगात्मक संपर्क और संबंध किस मात्र

से हद तक रहता है। उनके ऐसे कौन से उद्देश्य हैं, जिनमें वे प्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे

सहभागी रहते हैं। अन्य संस्थाओं के साथ संबंध रखने में वे कितने मुक्त हैं? कोई समाज

इसलिए अवांछनीय नहीं है कि उसमें कई वर्ग हैं। यह तब अवांछनीय हो जाता है जब

उनके वर्ग अलग-अलग हो जाते हैं। हर वर्ग की अपनी कार्यशैली होती है। इसी से

अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति-समाज-विरोधी भावना का पैदा होना संभव हो जाता है।

वर्गों में एक-दूसरे से अलग-अलग रहना ब्राह्मणवाद के कारण हुआ। इसके लिए

ब्राह्मणवाद ने प्रमुखतः जो कार्य किया, अंतर्जातीय विवाह और सहभाज की प्रणाली को

समाप्त करना था, जो प्राचीन-काल में चारों वर्णों में प्रचलित थी। इस बारे में हम इस

अध्याय के पहले खंड में चर्चा कर चुके हैं। इस वृत्त का एक भाग कहा जाना बाकी। है।

मैं कह चुका हूं कि वर्ण-व्यवस्था का विवाह से कोई संबंध नहीं था। और विभिन्न वर्णों

के पुरुष और स्त्रियां आपस में विवाह कर सकते थे और उन्होंने किया भी। कानून अंतर्वर्ण

विवाह के रास्ते आड़े नहीं आता था। इन विवाहों का विरोध समाज में नैतिकता की दृष्टि

से भी नहीं होता था। सवर्ण विवाह करना न तो कानूनन जरूरी समझा जाता था और न

समाज ही इस पर बल देता था। इस बात के बावजूद कि वर की अपेक्षा वधू उच्च वर्ण

की है या वर उच्च वर्ण का है और वधू निम्न वर्ण की है, विभिन्न वर्णों के सभी विवाह

वैध होते थे। वास्तव में जैसा कि प्रो- काणे कहते हैं, अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के

अंतर को कोई नहीं जानता था और स्थिति यह थी कि अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों,

अर्थात् उच्च वर्ण की स्त्री और निम्न वर्ण के पुरुष के बीच विवाह पर रोक लगा दी। यह

वर्णों के बीच आपसी संबंध को समाप्त करने और इनमें एक-दूसरे के प्रति गैर-भावना

पैदा करने की दिशा में एक कदम था। लेकिन जहां प्रतिलोम विवाह के द्वारा अंतः संबंधों

का द्वार खुला रखा गया, उसे बंद किया गया। जैसा कि क्रमिक असमानता विषयक खंड

में कहा गया है, ब्राह्मणवाद ने अनुलोम विवाह, अर्थात् उच्च वर्ण के पुरुष और निम्न वर्ण

की स्त्री के बीच विवाह जारी रखा। अनुलोम विवाह बहुत अच्छा नहीं कहा गया और यह

सिर्फ एक ओर जाने का द्वार था, तो भी यह एक-दूसरे को मिलाने वाला द्वार था जिसके

माध्यम से वर्णों का एक-दूसरे से बिल्कुल अकेले होने से रोकना संभव था। लेकिन यहां

पर भी ब्राह्मणवाद ने चाल चली, जिसे ओछापन ही कहा जाएगा। यह कार्य कितना ओछा

था, उन नियमों का यहां बताना आवश्यक है जो शिशु की स्थिति निर्धारित करने के लिए

बनाए गए। प्राचीन-काल से चले आ रहे नियमों के अधीन शिशु की स्थिति उसके पिता

के आधार पर निर्धारित की जाती थी। मां के वर्ण का कोई महत्व नहीं था।

निम्नलिखित उदाहरणों से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी:

पिता का                पिता का                मां का                    मां का                    शिशु का                 शिशु का

नाम                       वर्ण                        नाम                       वर्ण                        नाम                       वर्ण

  1. शांतनु               क्षत्रिय                  गंगा                    शूद्र                      भीष्म                   क्षत्रिय
  2. शांतनु               क्षत्रिय                  मत्स्यगंधा           अनामिका           विचित्र वीर्य        क्षत्रिय

(धीवर)

  1. पाराशर               ब्राह्मण                 मत्स्यगंधा           शूद्र                      कृष्ण-द्वैपायन       ब्राह्मण

(धीवर)

  1. विश्वामित्र क्षत्रिय                  मेनका                  अप्सरा                 शकुंतला               क्षत्रिय
  2. ययाति               क्षत्रिय                   देवयानी                ब्राह्मण                  यदु                      क्षत्रिय
  3. ययाति                क्षत्रिय                   शर्मिष्ठा                  आसुरी                  द्रुह्य                     क्षत्रिय

(अनार्य)

  1. जरत्कारू ब्राह्मण                 जरत्कारि            नाग                   असित                  ब्राह्मण

(अनार्य)

यह नियम पितृ-सवर्ण्य का नियम कहलाता था। अनुलोम और प्रतिलोम विवाह-पद्धतियों

पर इस पितृ-सवर्ण्य नियम के प्रभाव का विवेचन एक रोचक विषय है।

प्रतिलोम विवाह का प्रभाव यह होगा कि उच्च वर्ग की माताओं के बच्चे नीचे के वर्ण

के कहलाएंगे, जो उनके पिता का है। अनुलोम विवाह पर इसका प्रभाव उलटा होगा। नीचे

के वर्ण की माताओं के बच्चे ऊंचे वर्ण के कहलाएंगे, जो उनके पिता का वर्ण है।

मनु के प्रतिलोम विवाह को रोक दिया और इस प्रकार उच्च वर्ण के आने पर रोक लगा

दी। यह चाहे जितना भी खेदजनक क्यों न हो, जब तक अनुलोम विवाह और पितृ-सवर्ण्य

का नियम व्यवहृत होता रहा, तब तक कोई अधिक क्षति नहीं हुई। इन दोनों ने मिलकर

एक बहुत ही उपयोगी व्यवस्था का निर्माण किया। अनुलोम विवाह-पद्धति ने परस्पर संबंध

की बनाए रखा और पितृ-सवर्ण्य नियम ने उच्च वर्णों की स्वयं को पर्याप्त सुगठित रखने

में सहायता की। वे निम्न वर्ण में जा नहीं सकते थे, लेकिन वे विभिन्न वर्णों की माताओं

से जन्मते रहे। ब्राह्मणवाद विभिन्न वर्णों के बीच संबंध के इस द्वार को खुला रखने का

इच्छुक नहीं था। यह उसे बंद कर देने पर तुला बैठा था। उसने इसे ऐसी रीति से किया

जो अप्रतिष्ठाजनक है। सीधा और सच्चा रास्ता अनुलोम विवाह को रोक देना था। लेकिन

ब्राह्मणवाद ने ऐसा नहीं किया। उसने अनुलोम विवाह पद्धति को जारी रखा। उसने जो कुछ

किया, वह यह कि उसने शिशु की स्थिति का निर्णय करने वाले नियम को बदल दिया।

उसने पितृ-सवर्ण्य नियम के स्थान पर मातृ-सवर्ण्य नियम लागू किया, जिससे शिशु की

स्थिति मां की स्थिति के आधार पर निर्धारित की जाने लगी। इस परिवर्तन से विवाह परस्पर

सामाजिक संपर्क का वह साधन नहीं रह गया, जो वह मुख्य रूप से है। इससे उच्च वर्ण

के पुरुष अपने बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से सिर्फ इसलिए मुक्त हो गए कि ये

बच्चे निम्न मां से पैदा हुए हैं। इसने अनुलोम विवाह का सिर्फ भाग, निम्न वर्णों को सताने

और अपमानित करने और उच्च वर्णों को निम्न वर्ण की स्त्रियों के साथ कानूनी रूप में

वेश्या कर्म करने, का एक साधन बना दिया। और व्यापक सामाजिक दृष्टि से इसने वर्णों

को एक-दूसरे से पूरी तरह अलग-अलग कर दिया। वर्णों में परस्पर यही अलगाव हिंदू

समाज के लिए शाप हो गया है। इस सबके बावजूद कट्टर हिंदू अभी भी यह विश्वास

करता है कि जाति व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था है। लेकिन कट्टर हिन्दुओं की ही चर्चा

क्यों करें। ऐसे लोग तो प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों में भी मिल जाएंगे। राजनीतिज्ञों

और इतिहासकारों, दोनों में ही ऐसे भारतीय आसानी से मिल जाते हैं जो जोरदार शब्दों से

इसका खंडन करते हैं कि जाति-व्यवस्था राष्ट्र-प्रेम के आड़े आती है। यह मानते हैं कि

भारत एक राष्ट्र है और जब कोई भारत राष्ट्र न कहकर भारत देश कहता है, तब वे बहुत

गुस्सा हो जाते हैं जैसे कि उनके विरुद्ध कोई खराब बात कह दी गई हो। समझ में नहीं

आता कि यह दृष्टिकोण क्यों है। राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों में ज्यादातर लोग ब्राह्मण हैं

और उनसे यह आशा नहीं हो सकती कि वे अपने पूर्वजों के कुकृत्यों को स्वीकार कर

लें। किसी से भी यह सवाल कीजिए, क्या भारत एक राष्ट्र न कहकर भारत देश कहता

है, तब वे बहुत गुस्सा हो जाते हैं जैसे कि उनके विरुद्ध कोई खराब बात कह दी गई हो।

समझ में नहीं आता कि यह दृष्टिकोण क्यों है। राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों में ज्यादातर

लोग ब्राह्मण हैं और उनसे यह आशा नहीं हो सकती कि वे अपने पूर्वजों के कुकृत्यों का

पर्दाफाश करने का साहस करें या उनके कुकृत्यों को स्वीकार लें। किसी से भी यह सवाल

कीजिए, क्या भारत एक राष्ट्र है और वे एक स्वर में ‘हां’ कहें। आप इसके कारण पूछिए।

वे कहेंगे कि भारत एक राष्ट्र है, पहला कारण तो यह कि भारत एक भौगोलिक इकाई है

और दूसरा कारण यहां की संस्कृति में मूलभूत एकता का होना है। यह सब तो तर्क के

लिए स्वीकार किया जा सकता है, फिर भी सच बात तो यह है कि इससे यह निष्कर्ष

निकालना कि भारत एक राष्ट्र है, भ्रांति को पाले रखना है। राष्ट्र क्या? राष्ट्र उस अर्थ में

कोई देश नहीं होता, जिसकी भौतिक सीमाएं होती हैं, चाहे ये कितनी ही दूर तक क्यों न

फैली हुई हों। राष्ट्र वह जनसंख्या नहीं होती जो एक भाषा, एक धर्म या एक प्रजाति होने

के कारण परस्पर संश्लिष्ट रहती है। मैंने इस बारे में एक जगह कहा हैः

“राष्ट्रीयता व्यक्तिनिष्ठ मनोवैज्ञानिक अनुभूति है। यह अनुभूति जिसमें होती है, वे

सब यह अनुभव करते हैं कि वे एक-दूसरे के सगे-संबंधी हैं। राष्ट्रीयता की भावना

दुधारी तलवार की तरह होती है। यह अपने संबंधियों के प्रति मैत्री-भाव, और जो

लोग संबंधी नहीं हैं, उनके प्रति अमैत्री-भाव जागृत करती है। यह ‘वर्ण चेतना’ की

भावना, जो उन सभी लोगों को परस्पर एकसूत्र में बांधती है जो खून के रिश्ते की

सीमा में आते हैं और जो इस सीमा में नहीं आते, उनसे पृथक कर देती है। यह

अपने वर्ग से जुड़े रहने की इच्छा है। यह दूसरे वर्ग से न जुड़ने की इच्छा है। जिसे

राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय भावना कहा जाता है, उसका यही सार है। अपने ही वर्गों से

जुड़े रहने की इच्छा है। यह दूसरे वर्ग से न जुड़ने की इच्छा है। जिसे राष्ट्रीयता की

भावना कहा जाता है, उसका यही सार है। अपने ही वर्गों से जुड़े रहने की यह इच्छा,

जैसा कि मैंने कहा, व्यक्तिनिष्ठ मनोवैज्ञानिक भावना है और जो बात खासतौर से याद

रखने की है, वह यह है कि अपने ही वर्ग से जुड़े रहने की इच्छा का भूगोल-संस्कृति

या आर्थिक या सामाजिक संघर्ष से कोई सरोकार नहीं होता। कहीं भौगोलिक एकता

हो सकती है, लेकिन तो भी जुड़ने की इच्छा नहीं हो सकती। आर्थिक संघ्ार्ष और वर्ग

विभाजन हो सकते हैं, लेकिन जुड़े रहने की इच्छा रहे। कहना यह है कि राष्ट्रीयता

मुख्यतः भूगोल, संस्कृति का विषय नहीं है।”

वैदिक काल की अवनति1 के दिनों, शूद्रों और स्त्रियों का स्थान बहुत नीचे हो गया

था। बौद्ध धर्म के अभ्युदय ने इन दोनों की स्थिति में एक महान परिवर्तन ला दिया। संक्षेप

में कहें तो यह कि बौद्ध काल में शूद्र संपत्ति, विद्या अर्जित कर सकता था और यहां

तक कि वह राजा भी बन सकता था। बल्कि वह समाज में सर्वोच्च स्थान तक पहुंच

सकता था, जो वैदिक शासन में ब्राह्मण के अधिकार में होता था। बौद्ध भिक्षु-व्यवस्था

वैदिक ब्राह्मण-व्यवस्था का प्रतिरूप थी। ये दोनों ही व्यवस्थाएं अपने-अपने धर्म की

व्यवस्थाओं में पद और प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक-दूसरे के समान थीं। वैदिक काल में

शूद्र ब्राह्मण बनने की कभी आकांक्षा नहीं कर सकता था, लेकिन वह भिक्षु बन सकता

था और उसी पद और प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकता था, जो ब्राह्मण को प्राप्त थी। वेदों

के ब्राह्मणवाद में शूद्रों का प्रवेश वर्जित था, लेकिन भिक्षुओं के बौद्ध धर्म के द्वार शूद्रों

के लिए खुले हुए थे। बहुत से शूद्रों ने, जो वैदिक काल में ब्राह्मण नहीं बन सके, बौद्ध

  1. अवनति के दिनों से मेरा तात्पर्य उस समय से है, जब ब्राह्मणों ने चातुर्वर्ण्य के संतुलन को अपनी श्रेष्ठता

का दावा कर बिगाड़ना शुरू कर दिया था।

धर्म में भिक्षु बने और उन्होंने ब्राह्मण के समान पद प्राप्त किया। इसी प्रकार के परिवर्तन

स्त्रियों के संबंध में भी मिलते हैं। बौद्ध धर्म के अधीन उसे स्वतंत्र स्थान मिला। विवाह

हो जाने पर भी उसका स्थान स्वतंत्र रहा। बौद्ध धर्म में विवाह एक संविदा था। बौद्ध धर्म

के अनुसार वह संपत्ति अर्जित कर सकती थी। वह विद्या अर्जित कर सकती थी और

जो सबसे विलक्षण बात थी, वह यह कि बौद्ध धर्म में भिक्षुणी बन सकती थी और उसी

पद और प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकती थी, जो ब्राह्मण को प्राप्त थी। शूद्रों और स्त्रियों

को ऊंचा स्थान दिलाने में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि बौद्ध

धर्म के विरोधी इसे शूद्र धर्म (अर्थात् निम्न वर्ग के लोगों का धर्म) कहते थे।

निस्संदेह इस सबसे ब्राह्मणों को बड़ी खीज होती होगी। इससे ब्राह्मणों को कितनी

अधिक खीज हुई, यह उनके उस बर्बर व्यवहार से स्पष्ट है, जो उन्होंने बौद्ध धर्म पर

विजय पाने के बाद शूद्रों और स्त्रियों की उस उच्च स्थिति को पूर्ण ध्वस्त करने के लिए

अपनाया जहां ये बौद्ध धर्म के जीवनदायी सिद्धांतों के आधार पर क्रांतिकारी परिवर्तन के

कारण प्रतिष्ठित हुए थे।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर अगर हम शूद्रों के बारे में मनु के बनाए गए नियमों

पर विचार करें, तो इनकी अमानवीयता और निर्दयता को देखकर कंपकंपी आ जाती है।

मैं यहां उनमें से कुछ को कुछ फुटकर शीर्षकों के अंतर्गत उद्धृत कर रहा हूं।

मनु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग के गृहस्थों से कहता हैः

4.61. वह उस देश में न रहें, जहां के शासक शूद्र हैं।…

इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उस देश को छोड़कर

चले जाएं जहां शूद्र शासक है। इसका यही अर्थ हो सकता है कि अगर शूद्र शासक

बन जाए तो उसे मार डालना चाहिए। शूद्र को न केवल राजा होने के अयोग्य समझना

चाहिए, बल्कि उसे आदर के भी योग्य नहीं समझना चाहिए। मनु नियम बनाता हैः

11.24. ब्राह्मण यज्ञ के लिए (अर्थात् धार्मिक कार्यों के लिए) शूद्र से भिक्षा नहीं मांगेगा।

शूद्र के साथ सभी विवाह संबंध गैर-कानूनी कर दिए गए । तीनों उच्च वर्गों में से

किसी भी वर्ग की स्त्री के साथ विवाह निषिद्ध कर दिया गया। शूद्र उच्च वर्गों की स्त्री

के साथ कोई संबंध नहीं रख सकता था और यदि कोई शूद्र उसके साथ जार कर्म करता

है, तब मनु ने उसे ऐसा अपराध घोषित किया, जिसके लिए प्राण-दंड दिया जाए।

8.374. किसी शूद्र ने उच्च वर्ग की रक्षित1 या अरक्षित स्त्री के साथ संभोग किया

है, उसे निम्नलिखित रीति से दंड दिया जाए, यदि वह अरक्षित थी, तब इसका लिंग

कटवा दिया जाए, यदि वह रक्षित थी तब उसे प्राण-दंड दिया जाए और उसकी

संपत्ति जब्त कर ली जाए।

  1. रक्षित का अर्थ है संबंधियों के संरक्षण में। अरक्षित का अर्थ है-अकेले।

मनु इस बात पर बल देता है कि शूद्र नीच रहेगा, पद के अयोग्य, अशिक्षित,

संपत्ति-रहित और निंदित व्यक्ति रहेगा, उसे और उसकी संपत्ति का बलपूर्वक उपयोग

किया जा सकेगा। पद के बारे में मनु निर्धारित करता हैः

8.20. कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है, अर्थात् जिसने न तो वेदों का अध्ययन

किया है और न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है, वह राजा के अनुरोध पर

उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है, अर्थात् न्यायाधीश के रूप में कार्य

कर सकता है, लेकिन शूद्र यह कभी भी नहीं कर सकता (चाहे वह कितना ही

विद्वान क्यों न हो)।

8.21. जिस राज्य में उसका राजा दर्शक की भांति केवल देखता रहता है और उसी

की ही उपस्थिति में शूद्र न्याय करता है, वह राज्य उसी प्रकार अधोगति को प्राप्त

होता है जिस प्रकार गाय दलदल में नीचे धंस जाती है।

8.272. अगर कोई शूद्र अभिमानपूर्वक ब्राह्मण को धर्मोपदेश देने का साहस करता

है, तो राजा उसके मुंह और कानों में खौलता हुआ तेल डलवाएं।

प्राचीन-काल में वेदों के अध्ययन का तात्पर्य विद्या था। मनु घोषित करता है कि

प्रत्येक व्यक्ति को वेदों के अध्ययन करने का अधिकार नहीं है और यह अधिकार कुछ

लोगों को ही प्राप्त है। मनु शूद्रों को वेदों के अध्ययन करने का अधिकार नहीं देता। वह

यह विशेषाधिकार केवल तीन उच्च वर्णों को देता है। वह शूद्रों को अध्ययन करने से

वंचित ही नहीं करता बल्कि उन व्यक्तियों के विरुद्ध दंड की व्यवस्था भी करता है जो

शूद्रों को वेदों का अध्ययन करने में सहायता करेगा। जिस व्यक्ति को वेदों के अध्ययन

करने का विशेषाधिकार प्राप्त है, उसके लिए मनु निर्देश देता हैः

4.99. उसे शूद्रों की उपस्थिति में वेदों का कभी भी अध्ययन नहीं करना चाहिए।

और निर्धारित करता हैः

3.156. जो शूद्र शिष्यों को शिक्षा देता है और जिसका गुरु कोई शूद्र है, वह श्राद्ध

में निमंत्रित करने के अयोग्य हो जाता है।

मनु के बाद के स्मृतिकार तो वेदों का अध्ययन करने पर शूद्रों के साथ किए जाने

वाले निर्दय व्यवहार में उनसे भी आगे निकल गए। उदाहरण के लिए, कात्यायन का

यह नियम है कि जो शूद्र किसी को वेद पढ़ते हुए सुन लेता है या वेद के एक शब्द

का भी उच्चारण करने का साहस करता है, राजा उसकी जिह्वा को चिरवा देगा और

उसके कानों में पिघलता हुआ जस्ता डलवाएगा।

संपत्ति के विषय में मनु कोई दया का व्यवहार नहीं करता और वह हठी भी है।

मनु की संहिता के अनुसार:

10.129. किसी भी शूद्र को संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए, चाहे वह इसके

लिए कितना ही समर्थ क्यों न हो, क्योंकि जो शूद्र धन का संग्रह कर लेता है,

उसे इसका मद हो जाता है और वह अपने उद्धृत या उपेक्षापूर्ण व्यवहार से ब्राह्मणों

को कष्ट पहुंचाता है।

इस नियम का प्रयोजन नियम की अपेक्षा कहीं अधिक उग्र था। वस्तुतः मनु को

यह विश्वास नहीं था कि शूद्र को संपत्ति अर्जित करने से रोकने के लिए यह निषेधाज्ञा

यथेष्ट होगी। शूद्र को संपत्ति एकत्र कर ब्राह्मण की अवज्ञा करने का अवसर ही न मिले,

यह सुनिश्चित करने के लिए मनु ने अपनी संहिता में एक और खंड जोड़ दिया। इसमें

उसने घोषित कियाः

8.417. यदि किसी ब्राह्मण का जीवन संकटग्रस्त हो, वह निस्संकोच शूद्र के धन

को अधिग्रहीत कर ले।

मनु निर्धारित करता है कि शूद्र का धन ही नहीं, बल्कि शूद्र का श्रम भी अधिग्रहीत

किया जा सकेगा। मनु की निम्न व्यवस्था की तुलना करें:

8.413. ब्राह्मण शूद्र को वेतन देकर या वेतन न देकर उसे दास कर्म करने के

लिए बाध्य कर सकता है क्योंकि ब्रह्मा ने ब्राह्मणों की सेवा के लिए ही शूद्रों

की सृष्टि की है।

मनु शूद्र से यह अपेक्षा करता है कि वह बोल-चाल में नीच होगा। वह अपनी

बोलचाल में किस सीमा तक नीच हो सकता है, यह मनु द्वारा की गई निम्नलिखित

व्यवस्थाओं से देखा जा सकता हैः

8.270. जो शूद्र द्विज व्यक्ति की उसे दारुण वचनों से संबोधित कर अवमानना

करता है, उसकी जीभ कटवा देनी चाहिए, क्योंकि वह नीच से उत्पन्न है।

8.271. यदि वह (द्विज) और उसकी जाति का नाम धृष्टतापूर्वक लेता है, तब

उसके मुख में दस अंगुल लंबी दहकती हुई लोहे की कील डाल देनी चाहिए।

मनु का उद्देश्य शूद्र को केवल नीच बनाकर ही नहीं, बल्कि पूरी तरह तिरस्कार

के योग्य बना देना था। मनु शूद्र को अपने बड़े-बड़े नाम रखने की अनुमति नहीं देता।

अगर मनु के ये अकाट्य प्रमाण नहीं उपलब्ध होते, तब यह विश्वास करना कठिन हो

जाता कि ब्राह्मणवाद शूद्र पर अत्याचार करने में इतना अधिक कठोर और दया-शून्य

था। विभिन्न वर्ग अपने-अपने बच्चों के नाम किस प्रकार रखें, इस संबंध में मनु के

नियम पर विचार कीजिएः

2.31. ब्राह्मण के नाम का पहला भाग ऐसा हो जो शुभ हो, क्षत्रिय का शक्ति से

संबंधित, वैश्य का संपत्ति से और शूद्र का पहला नाम ऐसा हो जो तिरस्कारणीय

भाव का सूचक हो।

2.32. ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग ऐसा हो जिसमें सुख का भाव निहित हो,

क्षत्रिय का ऐसा हो जिसमें रक्षा का भाव और वैश्य का ऐसा हो जिसमें समृद्धि

का भाव तथा शूद्र का ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।

इन सारे अमानवीय नियमों का आधार वह सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन मनु ने

शूद्रों के संबंध में किया था। स्मृति में आरंभ में मनु जोरदार शब्दों में और बिना हिचक

कहता हैः

1.91. ब्रह्मा ने शूद्र के लिए केवल एक कर्म निर्धारित किया है कि वह विनम्र

होकर इन तीन अन्य जातियों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की सेवा करे।

मनु ने यह निश्चित करने के बाद कि शूद्र का जन्म दास बनने के लिए हुआ है,

तद्नुसार अपने नियम बनाए जिससे उसे नीच बने रहने के लिए बाध्य किया जा सके।

बौद्ध काल में शूद्र न्यायाधीश, पुजारी और यहां तक कि राजा बनने की इच्छा कर

सकता था जो उच्चतम पद था और जहां तक पहुंचने की उसकी इच्छा हो सकती थी।

इसकी तुलना उस आदर्श से कीजिए जो मनु शूद्र के सम्मुख प्रस्तुत करता है तो आपको

ब्राह्मणवाद के अंतर्गत उसके लिए नियम किए गए भाग्य का अंदाजा लग जाएगा।

10.121. यदि कोई ब्राह्मणों की सेवा करके अपना जीवन निर्वाह करने में असमर्थ

है। तब वह क्षत्रिय की सेवा करे या वह किसी धन वैश्य की सेवा कर अपना

जीवन-निर्वाह करे।

10.122. लेकिन शूद्र ब्राह्मण की सेवा स्वर्ग अथवा दोनों इस जीवन और इसके

बाद जीवन के लिए करे क्योंकि जो ब्राह्मण का सेवक कहलाता है, वह कृतकृत्य

हो जाता है।

10.123. शूद्र का उत्तम कर्म केवल ब्राह्मणों की सेवा करना कहा गया है, क्योंकि

इसके अतिरिक्त वह जो कुछ करता है, उसका उसे कुछ भी फल नहीं मिलता।

10.124. ब्राह्मणों को चाहिए कि वह उस शूद्र की योग्यता, उसके उत्साह और

उनकी संख्या पर विचार कर जिनको उसे आश्रय देना है, अपने परिवार (संपत्ति)

में से उसकी जीविका निश्चित करें।

10.125. उसके लिए बचा हुआ अन्न और पुराने खाट-बर्तन आदि दिए जाएं। मनु

जितना शूद्र के प्रति कठोर है, स्त्रियों के प्रति वह उससे कम कठोर नहीं है। वह

स्त्रियों के बारे में ऊंची धारणा नहीं रखता। मनु कहता हैः

2.213. इस संसार में स्त्रियों का स्वभाव पुरुषों को मोहित करना है। इस कारण

बुद्धिमान स्त्रियों के बीच अरक्षित नहीं रहते।

2.214. क्योंकि स्त्रियां इस संसार में केवल मूर्ख को ही नहीं, बल्कि विद्वानों को

भी पथभ्रष्ट करने और उन्हें काम और क्रोध का दास बना देने में सक्षम हैं।

2.215. कोई किसी की माता, बहन या पुत्री के साथ एकांत में न बैठे, क्योंकि

इंद्रियां शक्तिशाली होती हैं और विद्वान को भी अपने वश में कर लेती हैं।

9.14. स्त्रियां रूप की अपेक्षा नहीं करतीं, न उनका ध्यान आयु पर रहता है। वह

यह सोचकर कि (यह ही पर्याप्त है कि) वह पुरुष है, सुंदर या कुरूप के साथ

संभोग कर बैठती हैं।

9.15. चाहे इस संसार में जितनी भी रक्षा क्यों न की जाए, पुरुषों के प्रति अपनी

काम-भावना, अपनी चंचल प्रकृति और अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के कारण

वह अपने पति के प्रति निष्ठारहित हो जाती हैं।

9.16. उनका ऐसा स्वभाव जानकर, जो ब्रह्मा ने उन्हें अपनी सृष्टि के समय दिया

है, प्रत्येक मनुष्य को उनकी रक्षा के लिए विशेष अमल करना चाहिए।

9.17. मनु ने स्त्रियों की सृष्टि करते समय इनमें (अपनी) शैया, (अपने) स्थान

और (अपने) आभूषणों के लिए प्रेम, वासना, क्रोध, बेइमानी, ईर्ष्या और दुराचरण

निहित किया है।

स्त्रियों के प्रति मनु के ये नियम अकाट्य हैं। स्त्रियां किसी भी परिस्थिति में स्वतंत्र

नहीं हैं। मनु के मतानुसार:

9.2. स्त्रियों को उनके परिवारों के पुरुषों द्वारा दिन-रात अधीन रखा जाना चाहिए

और यदि वे अपने को विषयों में आसक्त करें तो उन्हें अपने नियंत्रण में अवश्य

रखें।

9.3. स्त्री की रक्षा उसके बचपन में उसका पिता करता है, युवावस्था में उसका

पति, जब उसका पति दिवंगत हो जाता है, तब उसके पुत्र (उसकी रक्षा करते

हैं)। स्त्री कभी भी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है।

9.5. स्त्रियों की विशेषकर रक्षा दुष्प्रवृत्ति से की जानी चाहिए, जो चाहे कितनी

भी नगण्य (क्यों न प्रतीत हों), क्योंकि यदि उनकी रक्षा नहीं की गई तो वे दोनों

परिवारों के क्लेश का कारण बनती हैं।

9.6. इसे सभी वर्णों का उत्तम धर्म समझते हुए, दुर्बल पतियों को भी अपनी पत्नी

की रक्षा करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

5.147. लड़की को, नवयुवती को या वृद्धा को भी अपने घर में कोई काम

स्वतंत्रतापूर्वक नहीं करना चाहिए।

5.148. स्त्री को बचपन में अपने पिता, युवावस्था में अपने पति और जब उसका

पति दिवंगत हो जाए तब अपने पुत्रें के अधीन रहना चाहिए, स्त्री को कभी भी

स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए।

5.149. स्त्री को अपने पिता, पति या पुत्रें से अपने को अलग करने की इच्छा

नहीं करनी चाहिए, इनको त्याग कर वह दोनों परिवारों (उसका परिवार और पति

का परिवार) को निंदित कर देती है। स्त्री को अपना पति छोड़ देने का अधिकार

नहीं मिल सकता।

9.45. पति अपनी पत्नी के साथ एक इकाई है। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री

का एक बार विवाहित होने के बाद कोई विच्छेद नहीं हो सकता।

बहुत से हिंदू यहीं रुक जाते हैं, मानों विवाह-विच्छेद के बारे में मनु के नियम

का यही सब कुछ सार हो और इसे आदर्श कहते रहते हैं। वह यह सोचकर अपने

विवेक पर पर्दा डाल देते हैं कि मनु ने विवाह को संस्कार की तरह माना है और

इसलिए उसने विच्छेद की अनुमति नहीं दी। यह बात निश्चय ही सत्य से कोसों दूर

है। मनु के विच्छेद-नियम का बिल्कुल भिन्न उद्देश्य था। वह पुरुष को स्त्री से बांध

देने की बात नहीं, बल्कि यह स्त्री को पुरुष से बांध देने और पुरुष को स्वतंत्र रखने

की बात थी, क्योंकि मनु पुरुष को अपनी पत्नी को त्याग देने से नहीं रोकता। वस्तुतः

वह उसे अपनी पत्नी को केवल छोड़ देने की अनुमति नहीं, बल्कि उसे बेच देने की

भी अनुमति देता है। वह पत्नी को स्वतंत्र न रहने का नियम बनाता है। देखिए, मनु

क्या कहता हैः

9.46. न तो बेचने और न त्याग देने से कोई स्त्री अपने पति से मुक्त होती है।

इसका अर्थ यह है कि कोई स्त्री बेचे या त्याग दिए जाने से किसी दूसरे व्यक्ति

की, जिसने उसे खरीद लिया है या त्याग देने के बाद प्राप्त किया है, वैध पत्नी नहीं

हो सकती। अगर यह असंगत नहीं है, तो कुछ भी असंगत नहीं हो सकता। लेकिन

मनु अपने नियम के परिणामस्वरूप होने वाले न्याय या अन्याय के बारे में चिंतित नहीं

था। वह स्त्री को उस स्वतंत्रता से वंचित कर देना चाहता था जो उसे बौद्ध काल में

थी। वह यह जानता था कि स्त्री द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने या शूद्र के

साथ विवाह करने की उसकी इच्छा होने से वर्ण-व्यवस्था नष्ट हो गई थी। मनु स्त्री

की स्वतंत्रता से क्रुद्ध था और इसे रोक कर उसने उसे उसकी स्वतंत्रता से वंचित

कर दिया।

संपत्ति के मामले में पत्नी का स्थान मनु द्वारा दास के स्तर पर लाकर पटक दिया

गया।

9.146. पत्नी, पुत्र और दास, इन तीनों के पास कोई संपत्ति नहीं हो। वे जो संपत्ति

अर्जित करें, वह उसकी होती हैं, जिसकी वह पत्नी/पुत्र/दास हैं।

परिवार में रहते हुए अगर वह विधवा हो जाए, तब मनु उसके लिए निर्वाह-योग्य

व्यय की अनुमति देता है। और अगर उसका पति अपने परिवार से अलग था, तब उसे

उसके पति की संपत्ति में से विधवा को संपत्ति मिलेगी। लेकिन मनु उसे संपत्ति पर

अधिकार की अनुमति नहीं देता।

मनु के नियमों के अधीन स्त्री को शारीरिक दंड दिया जा सकता है और मनु पति

को अपनी पत्नी को मारने-पीटने की अनुमति देता है।

8.299. स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य और छोटा भाई यदि अपराध करे, तब रस्सी से या

बांस की छड़ी से पीटना चाहिए।

अन्य परिस्थितियों में मनु स्त्री का स्थान शूद्र के स्थान के समान मानता है। उसे वेद

का अध्ययन मनु द्वारा उसी प्रकार निषिद्ध किया गया जिस प्रकार शूद्र को।

2.66. स्त्री के लिए भी संस्कारों का किया जाना जरूरी है और वे किए जाने

चाहिए। लेकिन ये वेद मंत्रें के बिना किए जाने चाहिए।

9.18. स्त्रियों को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए उनके संस्कार

वेद-मंत्रें के बिना किए जाएं। चूंकि स्त्रियों को वेद को जानने का अधिकार नहीं

है इसलिए उन्हें धर्म का कोई ज्ञान नहीं हो। पाप दूर करने के लिए वेद-मंत्रें का

पाठ उपयोगी है। चूंकि स्त्रियां वेद-मंत्रें का पाठ नहीं कर सकतीं, वे उसी प्रकार

अपवित्र हैं जिस प्रकार असत्य अपवित्र होता है।

ब्राह्मण मत के अनुसार, यज्ञ करना धर्म का सार है, फिर भी मनु स्त्रियों को यज्ञ

करने की अनुमति नहीं देता। मनु निदेश देता हैः

11.36. स्त्री वेद विहित दैनिक अग्निहोत्र नहीं करेगी।

11.37. यदि वह करती है, तब वह नरक में जाएगी।

मनु स्त्री को ब्राह्मण पुरोहित की सहायता व उसकी सेवा ग्रहण करने से वर्जित

करता है, जिससे वह यज्ञ-कर्म न कर सके।

4.205. ब्राह्मण उस यज्ञ-कर्म में दिए गए भोजन को ग्रहण न करे, जो किसी

स्त्री द्वारा किया गया हो।

4.206. जो यज्ञ कर्म स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं, वे अशुभ और देवताओं को

अस्वीकार्य होते हैं। अतः उसमें भाग नहीं लेना चाहिए।

स्त्रियों को कोई बौद्धिक कार्य नहीं करना चाहिए, उनको स्वतंत्र इच्छा नहीं करनी

चाहिए और न ही उन्हें अपने विचारों में स्वतंत्र होना चाहिए। वह कोई अन्य धर्म, जैसे

बौद्ध धर्म स्वीकार नहीं कर सकतीं। यदि वह आजीवन उसका पालन करती हैं तब उन्हें

जल का तर्पण नहीं किया जाएगा, जो अन्य मृतकों के लिए किया जाता है।

अंत में, जीवन के उस आदर्श को भी देखिए जो मनु स्त्रियों के लिए निर्धारित करता

है। इसे उसी के शब्दों में कहना उचित होगाः

5.151. वह आजीवन उसकी आज्ञा का पालन करेगी जिसे उसका पिता, या उसका

भाई अपने पिता की अनुमति से उसे सौंप देगा और जब वह दिवंगत हो जाए तब

उसके श्राद्ध आदि कर्म का उल्लंघन नहीं करेगी।

5.154. चाहे पति सदाचार से हीन हो, या वह अन्य स्त्री में आसक्त हो, या वह

सद्गुणों से ही हीन हो, तो भी वह पतिव्रता स्त्री के द्वारा देवता के समान पूज्य

होता है।

5.155. स्त्री पति से पृथक कोई यज्ञ, कोई व्रत या उपवास न करे; यदि स्त्री अपने

पति का अनुपालन करती है, तब वह इस कारण ही स्वर्ग में पूजित होती है।

अब उन विशिष्ट सूत्रें पर ध्यान दीजिए, जो उस आदर्श के आधार हैं जिसे मनु ने

स्त्रियों के लिए प्रस्तुत किया है।

5.153. जिस पति ने किसी का वरण अपनी पत्नी के रूप में पवित्र मंत्रें के

उच्चारण के बाद किया है, वह उसके लिए ऋतुकाल में तथा ऋतुभिन्न काल में

भी नित्य ही इस लोक में तथा परलोक में सुख देने वाला होता है।

5.150. उसे सर्वदा प्रसन्न, गृह-कार्य में चतुर, घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में

सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।

हिंदू लोग इसे स्त्रियों के लिए सर्वोच्च आदर्श समझते हैं।

शूद्रों और स्त्रियों के बारे में इन नियमों का कठोर होना यह प्रमाणित करता है

कि बौद्ध-काल में इन वर्गों के अभूतपूर्व अभ्युदय ने ब्राह्मणों को रुष्ट ही नहीं किया,

बल्कि उनकी स्थिति इन्हें असहनीय हो गई थी। यह ऊपर से नीचे तक उनकी पवित्र

सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह उलट देना था। जिसका स्थान प्रथम था, वह अंतिम

हो गया और जो अंतिम स्थान पर था, वह प्रथम स्थान पर आ गया था। मनु के

नियम से यह भी स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों ने किस प्रकार जान-बूझकर शूद्रों और

स्त्रियों को पदावनत कर उनकी स्थिति पर लाने के लिए अपनी राजनैतिक शक्ति

का उपयोग किया। विजयोन्मत्त ब्राह्मणों ने पुराने आदर्श के अनुसार अर्थात् इनको

दसावत बनाए रखकर शूद्रों और स्त्रियों के विरुद्ध जोरदार अभियान शुरू किया और

वे इनको पराधीन बनाने में सफल भी हुए। शूद्र तीनों उच्च वर्ण के दास और स्त्रियां

अपने-अपने पतियों की गुलाम बना दी गईं बौद्ध धर्म पर विजय पाने के बाद ब्राह्मण्

शवाद ने जो काले कारनामे किए, उनमें सबसे ज्यादा काला कारनामा यही था। इतिहास

में इसके जोड़ की कोई मिसाल नहीं मिलती जहां बलपूर्वक अधिकार जमाने वाली

किसी सत्ता ने अपने वर्ग के आधिपत्य को बनाए रखने के लिए किसी को इस प्रकार

पदावनत करने के इतने घृणित कार्य किए हों। ब्राह्मणवाद ने पददलित करने का जो

कार्य किया, उसे दुर्भाग्यवश उसमें पूरी सफलता नहीं मिली। यह ‘स्त्री’ और ‘शूद्र’

जैसे शब्दों तक रह गई। जो लोग अपने पातक कर्म की थोड़ी बहुत झलक पाना

चाहते हैं, वह इन दोनों शब्दों के पीछे खड़ी भीड़ को देखें। ये शब्द जनसंख्या के

कितने बड़े भाग को अपने में समेट लेते हैं? स्त्रियां सारी जनसंख्या का आधा भाग

हैं। जो कुछ बचा, उसमें दो तिहाई तक शूद्र हैं। ये दोनों मिलकर सारी जनसंख्या का

75 प्रतिशत तक होते हैं। यह वह विशाल जनसमूह है जिसे ब्राह्मणवाद पर पदावनत

कर 75 प्रतिशत लोगों से उनके जीने का, उनकी आजादी का और उनके सुख-चैन

से रहने का अधिकार छीन लिया गया, जिसके कारण अगर भारत एक मृत राष्ट्र नहीं

तो ह्रासशील राष्ट्र बनकर रह गया।

वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत सारी मनुस्मृति में छाया हुआ है। जीवन का कोई

ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां मनु ने वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत को आधार न बनाया हो।

इस सिद्धांत की पूरी व्याख्या करने के लिए सारी मनुस्मृति को पुनः उद्धृत करना होगा।

मनु के कारण वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत किस तरह सामाजिक जीवन में रच-पच

गया है, इसे स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ ही क्षेत्रें की चर्चा करूंगा। विवाह को लीजिए

और मनु के नियमों को देखिए:

3.13. शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है, वह और वैश्य स्त्री वैश्य

पुरुष की, शूद्र और वैश्य स्त्री क्षत्रिय पुरुष की, तथा यह तीनों वर्णों की स्त्रियां

तथा ब्राह्मणी-ब्राह्मण की पत्नी हो सकती है।

अब अतिथियों के सत्कार के बारे में मनु के नियम लीजिएः

3.110. लेकिन क्षत्रिय जो ब्राह्मण के घर आता है, अतिथि नहीं कहलाता, न वैश्य,

न शूद्र और न कोई मित्र, न संबंधी, न ही गुरु।

3.111. लेकिन क्षत्रिय अगर ब्राह्मण के घर अतिथि के रूप में आ जाए, तब गृहस्थ

उसे उक्त ब्राह्मणों के भोजन करने के बाद अपनी इच्छानुसार भोजन कराए।

3.112. यदि कोई वैश्य और कोई शूद्र उसके घर अतिथि के रूप में आ जाए,

तब वह उसे दया भाव से अपने सेवकों के साथ भोजन करा सकता है।

ब्राह्मण के घर में ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी और को अतिथि बनने का गौरव नहीं

मिल सकता।1 अगर कोई क्षत्रिय अतिथि के रूप में ब्राह्मण के घर आता है, तब उसे

सभी ब्राह्मणों के बाद भोजन कराना चाहिए और अगर वैश्य और शूद्र अतिथि के रूप में

आएं, तब उन्हें सब लोगों के बाद और केवल नौकरों के साथ भोजन कराना चाहिए।

संस्कारों के बारे में मनु के नियम देखिए:

10.126. शूद्र को यह अधिकार नहीं है कि उसका संस्कार हो।

10.68. यह विधान है कि इन दोनों (अर्थात् जो मिश्रिम जाति के हैं) में से कोई

भी संस्कार के योग्य नहीं है, पहला वह जो नीच माता-पिता से उत्पन्न होने के

कारण जातियों के क्रम के प्रतिलोम हैं और नीच हैं।

2.66. स्त्रियों के सारे संस्कार2 उनकी काया को पवित्र करने के लिए उचित समय

पर तथा उचित क्रम से किए जाने चाहिए। लेकिन यह पवित्र मंत्रें के उच्चारण

के बिना हो।

मनु और आगे निर्धारित करता हैः

6.1. द्विज स्नातक जो इस प्रकार गृहस्थाश्रम के नियमों के अनुसार जीवनयापन

कर चुका है, संकल्प-मन हो और अपनी इंद्रियों को अपने अधीन कर (नीचे दिए

गए नियमों का विधिवत् पालन करते हुए) वन में रहे।

6.33. और इस प्रकार (पुरुष की सामान्य आयु) का तृतीयांश वन में बिताने

के बाद वह सभी सांसारिक विषयों में आसक्ति को त्याग कर अपनी आयु का

चतुर्थांश संन्यासी के रूप में व्यतीत करे।

मनु ने वर्गीकृत असमानता को न्याय-व्यवस्था का भी आधार बनाया है। उदाहरण के

लिए केवल दो, मानहानि व दुर्व्यवहार और मारपीट संबंधी कानून लीजिएः

8.267. ब्राह्मण से कटु वचन बोलने वाले क्षत्रिय को सौ पण, वैश्व को डेढ़ सौ

या दो सौ पण का दंड और शूद्र को शारीरिक दंड दिया जाए।

8.268. क्षत्रिय से कटु वचन बोलने वाले ब्राह्मण को पचास पण, वैश्य के मामले

में पच्चीस पण और शूद्र के मामले में बारह पण का दंड दिया जाए।

  1. मनु अतिथि शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में करता है और इसका अर्थ उस ब्राह्मण से है, जो केवल

एक रात्रि के लिए रुकता है। देखिए 3.102

  1. उपनयन के अतिरिक्त सभी संस्कार, जो स्त्रियों के लिए वर्जित हैं।

8.269. समान जाति (वर्ण) वाले से कटु वचन बोलने वाले द्विज को बारह पण

तथा ऐसे वचन बोलने पर जो उच्चारण योग्य नहीं है, प्रत्येक अपराध के लिए

दुगना दंड दिया जाना चाहिए।

8.276. ब्राह्मण और क्षत्रिय द्वारा एक-दूसरे को अपवचन कहने पर विवेकशील

राजा ब्राह्मण को सबसे कम आर्थिक दंड और क्षत्रिय को सबसे मध्यम आर्थिक

दंड दे।

8.277. वैश्य और शूद्र को भी इसी प्रकार उनकी अपनी जातियों के अनुसार दंड देना

चाहिए लेकिन उसकी (शूद्र की) जीभ नहीं काटनी चाहिए, यही निर्णय है।

8.279. नीची जाति का व्यक्ति अपने जिस किसी भी अंग से (तीन उच्च जातियों

के) व्यक्ति को क्षति पहुंचाए, वह अंग ही काट दिया जाए, यह मनु का आदेश

है।

8.280. जो अपना हाथ उठाए या लाठी या छड़ी ले, उसका हाथ काट दिया जाए,

अगर वह क्रुद्ध हो अपने पैर से मारे, तब उसका पैर काट दिया जाए। यह मनु

का आदेश है।

वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत सभी जगह मिलता है। यह सामाजिक व्यवस्था के

लिए इतना पक्का हो गया कि जहां कहीं मनु इसे अपना आधार बनाने से चूक गया

वहां उनके अनुयायियों ने इसे ला देने में कोई भी चूक नहीं की। उदाहरणार्थ, मनु ने

दास प्रथा को मान्यता दी थी, लेकिन वह यह सुनिश्चित नहीं कर पाया था कि वर्गीकृत

असमानता का सिद्धांत दास प्रथा का आधार बन सकता है या नहीं।

कहीं यह समझ जाएं कि वर्गीकृत असमानता दासत्व का आधार नहीं बन सकती

और ब्राह्मण शूद्र का दास बन सकता है। याज्ञवल्क्य इस संदेह को शीघ्र ही स्पष्ट कर

देते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था:

14.183. दासत्व का आधार वर्णों का अवरोही क्रम है न कि आरोही क्रम।

याज्ञवल्क्य स्मृति की शंका में प्रज्ञानेश्वर ने अपना एक उदाहरण देकर उक्त कथन

की पुष्टि की है। वह लिखते हैं:

ब्राह्मण और शेष वर्णों आदि में दासत्व का आधार अवरोही क्रम में अनुलोम्येन

होगा। इस प्रकार क्षत्रिय और शेष वर्ण ब्राह्मण का दास हो सकता है, वैश्य और

शूद्र क्षत्रिय का, और शूद्र वैश्य का दास हो सकता है। इस प्रकार दास प्रथा

अवरोही क्रम में व्यवहृत होगी।

समानता और असमानता की भाषा में कहा जाए तो इसका अर्थ है कि चूंकि ब्राह्मण

किसी का भी दास नहीं हो सकता और उसे किसी भी वर्ग के व्यक्ति को अपने दास

के रूप में रखने का अधिकार है अतः वह उच्चतम है। चूंकि शूद्र को हर वर्ग अपने

दास के रूप में रख सकता है और वह शूद्र के अतिरिक्त किसी को भी अपना दास

नहीं बना सकता अतः वह निम्नतम है। क्षत्रिय और वैश्य को जो स्थान दिया गया है,

उससे वर्गीकृत असमानता की प्रणाली लागू हो जाती है। चूंकि क्षत्रिय ब्राह्मण से हीन है

इसलिए वह उन्हें अपना दास बनाकर रख सकता है, वैश्यों और शूद्रों को क्षत्रिय को

अपने दास के रूप में रखने का कोई अधिकार नहीं है। इसी प्रकार वैश्य, जो ब्राह्मणों

और क्षत्रियों से हीन है और जिसे वे अपना दास बना सकते हैं। लेकिन वह इनमें से

किसी को भी अपना दास नहीं बना सकता, वह गर्व कर सकता है कि वह कम से

कम शूद्र से तो श्रेष्ठ है और उसे वह अपना दास बना सकता है। लेकिन शूद्र वैश्य को

अपना दास नहीं बना सकता।

यही वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत है, जिसे ब्राह्मणवाद ने समाज की हिîóयों और

मज्जा में घोल दिया। अन्याय को समाप्त करने के लिए समाज को पंगु बनाने के लिए

इससे अधिक बुरा कुछ और नहीं किया जा सकता था। हालांकि इसके प्रभाव स्पष्ट रूप

से नजर नहीं आते लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसके कारण हिंदू पंगु हो गए।

समाज का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी समानता और असमानता के बीच अंतर को पढ़कर

संतुष्ट हो जाते हैं। कोई यह नहीं अनुभव करता कि समानता और असमानता के अलावा

वर्गाश्रित असमानता जैसी भी एक चीज है। यह वर्गीकृत असमानता जितनी हानिकर है,

उसकी आधी भी असमानता हानिकर नहीं होती। असमानता में उसके विनाश के बीज छिपे

होते हैं। असमानता अधिक दिनों तक नहीं रहती। जहां केवल असमानता होती है, वहां दो

बातें होती हैं। उससे असंतोष जन्म लेता है जो क्रांति का बीज होता है। दूसरे, यह त्रस्त

लोगों को समान शत्रु और समान कष्ट के विरुद्ध संगठित कर देती है। लेकिन वर्गाश्रित

असमानता की प्रकृति और परिस्थितियां कुछ ऐसी होती हैं जिसमें उक्त दोनों बातों में से

किसी एक के भी होने की गुंजाइश नहीं होती। वर्गीकृत असमानता लोगों में अन्याय के

विरुद्ध सामान्य असंतोष के पैदा होने में आड़े आती है। इसलिए यह क्रांति की प्रेरणा का

आधार नहीं बन सकती। दूसरे, इस असमानता से त्रस्त लोग लाभ और हानि, दोनों ही

मामलों में असमान होते हैं। इसलिए अन्याय के विरुद्ध सभी वर्गों के आमतौर पर एक-दूसरे

के साथ संगठित होने की कोई संभावना नहीं होती। उदाहरणार्थ, विवाह के बारे में ब्राह्मणों

के विवाह संबंधी नियम को लीजिए जो अन्याय से भरा हुआ है। ब्राह्मण का यह अधिकार

कि वह अपने वर्ग से नीचे के वर्ग की लड़की तो ले सकता है लेकिन वह इन वर्गों को

अपने वर्ग की लड़की नहीं देगा, अन्यायपूर्ण है। लेकिन इस अन्याय को समाप्त करने के

लिए क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र परस्पर संगठित नहीं होंगे। क्षत्रिय ब्राह्मण के इस अधिकार

के विरुद्ध कुढ़ता है, लेकिन वह दो कारणों से वैश्य या शूद्र के साथ संगठित नहीं होगा।

पहला, वह तीनों वर्गों से लड़की लेने का ब्राह्मण के अधिकार से इसलिए संतुष्ट है कि

उसे भी बाकी दो वर्गों से लड़की लेने का अधिकार मिला हुआ है। उसे उतना नुकसान नहीं

होता है जितना बाकी दो वर्गों को होता है। दूसरे, अगर वह इस अन्यायपूर्ण विवाह-पद्धति

के विरुद्ध आम आंदोलनकारियों के बीच जा खड़ा होता है। तब भले ही वह ब्राह्मणों के

स्तर पर पहुंच जाए, लेकिन दूसरी ओर सभी वर्ग एक समान हो जाएंगे जिसका अर्थ यह

होगा कि वैश्य और शूद्र उसके स्तर पर पहुंच जाएंगे, अर्थात् इस वर्ग के लोग क्षत्रियों की

लड़कियां लेने लग जाएंगे, जिसका अर्थ यह है कि वह गिर कर उनके स्तर पर पहुंच

जाएगा। आप अन्याय का कोई दूसरा उदाहरण लीजिए और उसके विरुद्ध आंदोलन के बारे

में अनुमान लगाइए। यही सामाजिक मनःस्थिति यह स्पष्ट करेगी कि इस अन्याय के विरुद्ध

विद्रोह एक असम्भव बात है।

ब्राह्मणवाद और उसके अन्याय के विरुद्ध क्यों नहीं हुआ, इसके कारणों में से एक

कारण का आधार केवल वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत है। यह लूट-खसोट में हिस्सा

देने की प्रणाली है जिससे अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए समर्थक जुटाए जा सकें।

यह घटिया दर्जे की चालाकी है जो आदमी अन्याय को बरकरार रखने और उससे अपना

स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अब तक ईजाद कर सका है। यह और कुछ नहीं, अन्याय

में अपना-अपना हिस्सा लेने के लिए लोगों को न्यौता देना है, जिससे कि वे सब लोग

अन्याय के समर्थक बन जाएं।

ब्राह्मणवाद के इस नाटक के अंतिम अंक का पर्दा उठाना बाकी रह गया है।

ब्राह्मणवाद को प्राचीन वैदिक धर्म से चातुर्वर्ण्य पद्धति दाय के रूप में प्राप्त हुई

थी। चातुर्वर्ण्य पद्धति, जिसे हिंदू अपने आर्य पूर्वजों की अद्वितीय सृष्टि मानते हैं, किसी

भी अर्थ में ऐसी नहीं है। इसमें कोई भी मौलिकता नहीं है। यह संपूर्ण प्राचीन विश्व

में व्याप्त थी। वह मिस्र के निवासियों में थी और प्राचीन फारस के लोगों में भी थी।

प्लेटो इसकी उत्कृष्टता से इतना अभिभूत था कि उसने इसे सामाजिक संगठन का आदर्श

रूप कहा था। चातुर्वर्ण्य का आदर्श त्रुटिपूर्ण है। कुछेक व्यक्तियों को एक में मिलाकर

उनका एक अलग-अलग वर्ग बनाना मनुष्य और उसकी शक्तियों को जैसे बाहर-बाहर

देखना है। प्राचीन आर्यों ने और प्लेटो ने भी हर व्यक्ति की विलक्षणता, दूसरों के साथ

अतुलनीयता और हर व्यक्ति अपने आप में एक पृथक वर्ग है, इसकी कोई कल्पना नहीं

की थी। उन्होंने इस पर विचार नहीं किया कि व्यक्ति की प्रवृत्तियां अनंत होती हैं और

एक व्यक्ति में भी कई तरह की प्रवृत्तियां होती हैं। उन्होंने प्रतिभा या शक्ति के प्रकार

के आधार पर व्यक्ति को वर्गीकृत किया। स्पष्टतः यह गलत है। आधुनिक विज्ञान ने

यह सिद्ध कर दिया है कि कुछेक व्यक्तियों को मिलाकर और उनके अलग-अलग वर्ग

बनाकर प्रत्येक को कुछ खास क्षेत्रें में निहित कर देने से व्यक्ति और समाज, दोनों के

प्रति अन्याय होता है। वर्ग और व्यवसाय के आधार पर समाज को स्तरों में विभाजित

करने से समाज की क्षमता का पूर्ण उपयोग, जो प्रगति के लिए आवश्यक है, नहीं होता

और यह व्यक्ति की सुरक्षा के साथ-साथ सामान्यतः समाज के कल्याण और उसकी

सुरक्षा के लिए भी असंगत है।1

प्राचीन हिंदुओं और प्लेटो ने एक और गलती की। संभवतः इस बात में कुछ सच्चाई

हो कि जिस तरह कीड़े-मकोड़ों में द्विरूपता या बहुरूपता पाई जाती है, उसी तरह यह

विशेषता मनुष्यों में भी है यद्यपि इनमें यह केवल मनोवैज्ञानिक रूप में ही मिलती है।

अभी हम यह मान लें कि मनुष्यों में मनोवैज्ञानिक द्विरूपता या बहुरूपता है तो भी इनको

वर्गों में इस प्रकार बांटना कि अमुक तो अमुक कार्य करने के लिए और अमुक कोई

दूसरा ही कार्य करने के लिए पैदा हुआ है, कुछ शासन करने, अर्थात् स्वामी बनने और

कुछ आज्ञा का पालन करने अर्थात् दास बनने के लिए पैदा हुए हैं। यह अनुमान करना

भी गलत है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति में कुछ गुण हैं और अन्य में इनका अभाव है।

बल्कि सच तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति में सभी गुण होते हैं और यह सच उस बात

से नकारा नहीं जा सकता। कुछ प्रवृत्ति इस सीमा तक प्रबल हो जाती है कि उसके

अलावा कोई दूसरी प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती।

हमने अक्सर देखा है कि मनुष्य में किसी एक क्षण में उसकी जो प्रवृत्ति प्रधान

होती है, वह उस प्रवृत्ति से भिन्न या उस प्रवृत्ति की बिल्कुल ही उल्टी होती है जो उसी

मनुष्य में किसी क्षण प्रधान थी। प्रो- बर्गसां ‘‘मनुष्य2 और ‘दास’ के संबंध में नीत्शे की

झूठी प्रतिस्थापना के बारे में लिखते हुए कहते हैं: हमने क्रांति के दिनों में इस (झूठ)

को बेनकाब होते देखा है। सीधे-सादे नागरिक, जो उस क्षण तक विनम्र और आज्ञाकारी

थे, लोगों का नेतृत्व करने के लिए एक दिन जाग उठते हैं।’’ मुसोलिनी और हिटलर

का चरित्र आर्यों के और प्लेटो के भी सिद्धांत झुठला देता है।

चातुर्वर्ण्य की बौद्धिक प्रणाली एक आदर्श बनने के बजाए उन परिवर्तनों से और

भी बदतर हो गई जो ब्राह्मणों ने किए। इन परिवर्तनों का वर्णन किया जा चुका है।

निस्संदेह इनमें हर परिवर्तन कुटिलतापूर्ण था। भिक्षुओं का बौद्ध संघ और ब्राह्मणों की

वैदिक प्रणाली एक समान उद्देश्य के लिए बनी थी। उन्होंने समाज में विशिष्ट वर्ग का

निर्माण किया जिसका काम समाज को सही रास्ते पर ले जाना था। हालांकि बौद्ध भिक्षु

से वही काम अपेक्षित था जो ब्राह्मण से था, तो भी वह अपेक्षाकृत अधिक अच्छी

स्थिति में था। इसका कारण यह है कि बुद्ध ने जो एक शर्त निर्धारित की उनसे पहले

  1. इस विषय पर और अधिक चर्चा के लिए हिंदी के खंड 1 में ‘जातिप्रथा-उन्मूलन’ शीर्षक मेरा लेख

देखिए।

  1. टू सोर्सेज ऑफ मोरेलिटी, (होल्ट), पृ. 267

या उनके बाद किसी ने नहीं किया था। बुद्ध ने यह आवश्यक समझा कि समाज को

सही रास्ता दिखाने वाले और उसके विश्वसनीय मार्गदर्शक व्यक्ति को मानसिक दृष्टि

से स्वतंत्र हेाना चाहिए और जो बात अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि उसकी कोई

निजी संपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि उसके ऊपर निजी संपत्ति का दायित्व है, तब वह

सही रास्ते से समाज का नेतृत्व करने और उसका मार्गदर्शन करने के कर्तव्य को पूरा

करने में अवश्य असफल होगा। बुद्ध ने इसलिए सतर्क हो भिक्षुकों की आचरण-संहिता

में एक नियम यह रखा कि भिक्षुक के लिए निजी संपत्ति का होना निषिद्ध है। ब्राह्मणों

की वैदिक प्रणाली में इस प्रकार का कोई निषेध नहीं था। ब्राह्मण निजी संपत्ति रखने के

लिए स्वतंत्र था। इस अंतर ने बौद्ध भिक्षु और वैदिक ब्राह्मण के आचरण और दृष्टिकोण

में गहरा अंतर ला दिया। भिक्षुओं का वर्ग बौद्धिक बन गया। दूसरी ओर ब्राह्मणों का वर्ग

शिक्षितों का वर्ग बन गया। बौद्धिक वर्ग और शिक्षित वर्ग में बड़ा भेद होता है। किसी

वर्ग या किसी काम से जुड़ने के कारण उस पर कोई बंदिश नहीं होती। दूसरी ओर,

शिक्षित वर्ग कोई बौद्धिक वर्ग नहीं होता, हालांकि उसमें तर्क करने, समझने और सोचने

की अपनी शक्ति होती है। इसका कारण यह है कि शिक्षित वर्ग की दृष्टि का आयाम

और नई विचारधारा के प्रति उसका रवैया उस वर्ग के हित में नियंत्रित होता है जिससे

वह पहले से ही जुड़ा होता है।

इसलिए ब्राह्मण शुरू से ही केवल शिक्षित वर्ग रहा जिसके पास बुद्धि तो थी, लेकिन

वह स्वार्थ-प्रेरित थी। ब्राह्मणों की इस वैदिक प्रणाली में यह दोष पुरानी वैदिक प्रणाली

में किए गए परिवर्तनों के कारण चरम सीमा तक पहुंच गया। शासन करने के अधिकार

और अन्य विशेषाधिकारों ने ब्राह्मणों को और अधिक स्वार्थी बना दिया और उनमें ऐसी

प्रेरणा भर दी कि वे अपनी शिक्षा का उपयोग ज्ञान की संवृद्धि के लिए न कर, अपने

समुदाय के उपयोग के लिए और समाज की उन्नति के विरुद्ध करने लगे।

उनकी समस्त शक्ति और उनकी शिक्षा जनता के हित के बजाए अपने ही

विशेषाधिकारों को बरकरार रखने पर खर्च हुई। अधिकांश हिंदू लेखकों का यह दावा रहा

है कि भारत की सभ्यता विश्व में प्राचीनतम सभ्यता है। वह इसी बात पर जोर देंगे कि

ज्ञान की कोई ऐसी शाखा नहीं है जिसमें उनके पूर्वज अग्रणी नहीं थे। आप प्रो- विनय

कुमार सरकार की दि पोजिटिव बैकग्राउंड ऑफ हिंदू सोशियोलोजी या डॉ- बृजेन्द्र नाथ

शील की दि पोजिटिव साइंसेज ऑफ दि एनसिएंट हिंदूइज्म जैसी कोई भी पुस्तक लीजिए।

उन्होंने विभिन्न वैज्ञानिक विषयों में पूर्वजों के ज्ञान के बारे में जो आंकड़े दिए हैं, उनसे

हर कोई चमत्कृत हो जाता है। इन पुस्तकों से यह पता चलेगा कि प्राचीन भारतवासी

खगोल विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, जीव-विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित, चिकित्सा, खनिज

विज्ञान, भौतिक विज्ञान और यहां तक कि जैसा कि बहुत से लोगों का विश्वास है

201

विमानन भी जानते थे। हो सकता है कि यह सब कुछ बहुत सच हो। अब महत्वपूर्ण

प्रश्न यह है कि प्राचीन भारतीयों ने इन प्रत्यक्ष विज्ञानों की खोज कैसे की। महत्वपूर्ण

प्रश्न यह है कि प्राचीन भारतीयों ने उन विज्ञानों में कोई प्रगति क्यों नहीं की जिनमें वे

अग्रणी थे? प्राचीन भारत में विज्ञान की प्रगति अचानक अवरुद्ध क्यों हो गई और इस

बात पर जितना आश्चर्य होता है, उतना ही खेद होता है। विज्ञान की दुनिया में भारत

का स्थान है। यह स्थान आदिम देशों में भले ही पहला हो, लेकिन सभ्य देशों में अंतिम

है। यह कैसे हुआ कि जिस देश ने विज्ञान में प्रगति करनी शुरू की, वह क्योंकर प्रगति

करते-करते रह गया, रास्ते में रुक गया और उसने उसे प्रारंभिक अवस्था में और अपूर्ण

छोड़ दिया? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर विचार करना और जिसका उत्तर दिया जाना

आवश्यक है, न कि यह कि प्राचीन भारतीय क्या-क्या जानते थे।

इस प्रश्न का केवल एक उत्तर है और यह बहुत ही आसान है। प्राचीन भारत में

केवल ब्राह्मण शिक्षित वर्ग होता था। यही वह वर्ग था, जो अन्य सभी वर्गों से उच्च

होने का दावा करता था। बुद्ध ने ब्राह्मणों की उच्चता के दावे का विरोध किया और

उनके विरुद्ध संघर्ष किया था। ब्राह्मणों ने बौद्धिक वर्ग से भिन्न एक शिक्षित वर्ग के

रूप में वैसा ही कार्य किया, जैसा शिक्षित वर्ग करता है। इसने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में

काम करना छोड़ दिया और अपनी उच्चता के दावे की रक्षा करने और अपने वर्ग के

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हितों की रक्षा करने में जुट गया। विज्ञान पर पुस्तकें

लिखने के बजाए, ब्राह्मणों ने स्मृतियां लिखने का काम हाथ में ले लिया। भारत में

विज्ञान की प्रगति के रुक जाने का यही कारण है। सामाजिक समानता के बौद्ध सिद्धांत

का प्रतिरोध करने के लिए ब्राह्मणों ने स्मृतियां लिखना अधिक महत्वपूर्ण और अधिक

आवश्यक समझा।

ब्राह्मणों ने कितनी स्मृतियां लिखीं?

श्री काणे ने, जो स्मृति साहित्य के बहुत बड़े मर्मज्ञ हैं इनकी संख्या 128 बताई है।

ये किसलिए? स्मृतियां नियम-पुस्तक कहलाती हैं, किंतु इन पुस्तकों की विषयवस्तु कुछ

और है। ये वस्तुतः टीकाएं हैं, जिनमें ब्राह्मणों की सर्वोच्चता और उनके विशेषाधिकारों की

व्याख्या की गई है। ब्राह्मणवाद की रक्षा करना विज्ञापन की प्रगति से अधिक महत्त्वपूर्ण

था। ब्राह्मणवाद ने अपने विशेषाधिकारों की रक्षा नहीं की, बल्कि इन विशेषाधिकारों का

आगे इस प्रकार विस्तार किया कि कोई भी सभ्य व्यक्ति लज्जित हुए बिना नहीं रहेगा।

ब्राह्मणों ने विशेष रूप से कुछ ऐसे विशेषाधिकारों का विस्तार करना शुरू किया, जो

उनके लिए मनु ने स्वीकृत किए थे।

मनु ने ब्राह्मणों को दान प्राप्त करने का अधिकार दिया है। यह हमेशा धन या चल

संपत्ति के रूप में होता था। लेकिन कुछ समय बाद दान की अवधारणा का विस्तार

किया गया, जिससे स्त्री-दान भी शामिल किया जा सके और जिसे ब्राह्मण अपनी स्त्री

के रूप में रख सकें या जिसे ब्राह्मण धन लेकर वापस कर सकें।1

मनु ने ब्राह्मणों को भू-देव अर्थात् पृथ्वी के देवता की संज्ञा दी है। ब्राह्मणों ने इस

कथन को व्यापक बनाया और वे अन्य वर्गों की स्त्रियों के साथ संभोग करना अपना

अधिकार समझने लगे। रानियां-महारानियां भी इस अधिकार से न बच सकीं। लुडोविको

डि वर्थेमा ने, जो भारत में सन् 1502 के आसपास यात्री के रूप में आया था, कालीकट

के ब्राह्मणों के विषय में निम्नलिखित वृत्तान्त लिखा हैः

“ये जानना उचित है कि ये ब्राह्मण कौन हैं। इनका यहां के धर्म में वही स्थान

है जो हमारे यहां पादरियों का है। जब राजा विवाह करता है, तब वह इन ब्राह्मणों में

सबसे अधिक योग्य और सबसे अधिक पूजित ब्राह्मण को चुनता है और उससे अपनी

पत्नी के साथ पहली रात सोने का आग्रह करता है ताकि वह उसके कौमार्य को भंग

कर सकें’’।2

इसी प्रकार एक दूसरा लेखक हैमिल्टन3 लिखता हैः

“जब सैमोरिन विवाह करे तब उसे तब तक अपनी पत्नी के साथ संभोग न करना

चाहिए जब तक नम्बूद्री (नम्बूद्री ब्राह्मण) या प्रधान पुरोहित उसके साथ संभोग न

कर ले और यह पुरोहित यदि चाहे तो उसके साथ तीन रात तक सहवास कर सकता

है, क्योंकि उस स्त्री की पहली संतान उस देवता का नैवेद्य होनी चाहिए, जिसकी वह

आराधना करती थी।”

बंबई प्रेसिडेंसी में वैष्णव संप्रदाय के पुरोहितों ने यह दावा किया कि उन्हें अपने

संप्रदाय की स्त्रियों के साथ उनके विवाह की पहली रात संभोग करने का अधिकार है।

यह मामला सन् 1869 में बंबई उच्च न्यायालय में किन्हीं करसोनदास मुलजी के विरुद्ध

इस संप्रदाय के प्रधान पुरोहित द्वारा दायर किए गए महाराजा मानहानि मुकदमे की सुनवाई

के वक्त उठा था। इससे पता चलता है कि इस समय तक पहली रात का लाभ उठाने

का अधिकार अमल में था।

अगर पहली रात का संभोग करने का अधिकार निचले वर्ग पर लागू किया जा

सकता था तो ब्राह्मण इसका विस्तार करने से नहीं चूके। उन्होंने खासतौर से यह मलाबार

  1. मुझे एक ऐसे केस की रिपोर्ट पढ़ने के लिए मिली जिसमें एक ब्राह्मण ने जिसे एक विवाहित स्त्री दान

के रूप में मिली और जिसने उस स्त्री के पति द्वारा धन देने पर भी उसे वापस करना अस्वीकार कर

दिया था।

  1. दि ट्रैवल्स ऑफ लुडोविको डि वर्थेमा (प्रकाशक हृकयट सोसायटी), पृ. 141; वर्थेमा आगे लिखते हैं,

‘आप यह मत समझिए कि ब्राह्मण स्वेच्छया यह काम करने जाता है। राजा को उसे चार सौ या पांच

सौ डुकैट देना पड़ता है।’

  1. ए न्यू एकाउंट ऑफ दि ईस्ट इंडीज (1744), खंड 1, पृ. 310

में किया। मनु ने ब्राह्मणों को भू-देव, पृथ्वी के स्वामी की संज्ञा दी थी। ब्राह्मणों ने इस

कथन को व्यापक बनाया और अन्य वर्गों की स्त्रियों के साथ स्वच्छंद होकर संभोग करने

का अधिकार जताने लगे। यह खासतौर से मलाबार में हुआ। वहां-1

फ्ब्राह्मण जातियां मक्त्यम पद्धति का अनुसरण करती हैं, अर्थात् वह पद्धति जिसके

अनुसार बच्चा अपने पिता के परिवार का होता है। जातियां अपनी ही जाति में विवाह करती

हैं और सभी कानूनी और धार्मिक प्रतिबंधों और अधिकारों का पालन करती हैं। लेकिन

ब्राह्मण पुरुष अक्सर निचली जाति की स्त्रियों के साथ भी विवाह (संबंधन) करते हैं।”

केवल इतना ही नहीं है। जरा और देखिए, लेखक आगे क्या लिखता हैः

“इस विवाह (संबंधन) में कोई भी पक्ष दूसरे परिवार का सदस्य नहीं हो जाता और

पति-पत्नी से उत्पन्न बच्चा मां के परिवार का कहलाता है। जहां तक कानून की बात

है, इस बच्चे का अपने पिता की संपत्ति का अंश या उससे अपने पालन-पोषण के लिए

खर्च प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं होता।”

इस प्रथा के उद्भव के बारे में गजेटियर के लेखक का कहना है कि इस प्रथा

का जन्मः

“भू-देवों या (पृथ्वी के देवताओं) अर्थात् (ब्राह्मणों) और उसके बाद निचले वर्ग, अर्थात्

क्षत्रियों का शासक वर्ग का यह अधिकार इस दावे से सिद्ध होता है कि निचली जाति

की स्त्री अपने विवाह के बाद नजराने के रूप में सुहागरात उनके साथ मनाएगी। यह

अधिकार यूरोप में सामंत या जागीरदार के तथाकथित इस अधिकार के समान है कि

उसके आसामी की बहू विवाह के बाद उसके साथ अपनी सुहागरात मनाएगी।”

यदि यह कहा जाए कि सिर्फ नजराना लेने का अधिकार है जिसे यूरोप में ‘पहली

रात का नजराना’ कहा जाता था, तो कुछ कम होगा। यह उससे अधिक है। यह निचली

जाति पर ब्राह्मण का आम अधिकार होता है कि वह अपनी यौन पिपासा को बुझाने के

लिए उस जाति की किसी भी स्त्री के साथ वैश्यावृत्ति कर सकता है और उस पर उससे

विवाह करने की कोई जिम्मेदारी नहीं है।

ये वे अधिकार थे, जो आध्यात्म के उपदेशकों ने सामान्य जनता में अपने लिए

सुनिश्चित किए। इतिहास में बोर्गीज के पोप लोगों को आध्यात्म के उपदेशकों की जाति

में सबसे अधिक चरित्र-भ्रष्ट जाति कहा गया है, जिन्होंने पीटर के राज-सिंहासन को

अपने अधीन किया था। कोई पूछ सकता है कि क्या वे लोग वास्तव में भारत के ब्राह्मणों

से अधिक निकृष्ट थे?

  1. गजेटियर ऑफ मलाबार एंड एंजेंगो डिस्ट्रिक्ट, सी-ए-ईन्स, खंड 1, पृ. 95

बुद्ध ने एक शुद्ध वर्ग की कल्पना की थी, जो मुक्त होकर कल्याण की कामना

करेगा और जिसका किसी वर्ग के हित में कोई स्वार्थ नहीं होगा। ऐसी कल्पना कहीं

और नहीं मिलती। अभी कुछ दिनों तक लोग यही मानते आए हैं कि बौद्धिक चिंतन

में लगे रहने वाले व्यक्ति की स्वतंत्रता उसकी निजी संपत्ति होने से सीमित हो जाती

है। इस कारण बौद्धिक वर्ग को जो अभाव हो जाता है, उसकी पूर्ति अन्य देशों में कुछ

इस प्रकार की गई है कि वहां समाज के हर स्तर का अपना एक शिक्षित वर्ग होता है।

वहां समाज के विभिन्न स्तरों के शिक्षित वर्गों द्वारा विभिन्न प्रकार के मत व्यक्त किए

जाते हैं। इससे हालांकि कोई निश्चित मार्गदर्शन नहीं मिलता तो भी सुरक्षा रहती है। इतने

ढेर सारे विचारों के व्यक्त होते रहने से समाज को एक ही वर्ग के शिक्षित समुदाय

के विचारों द्वारा मार्गदर्शन करने का भय नहीं रहता, क्योंकि वह वर्ग देश के हित की

अपेक्षा स्वभावतः अपने ही वर्ग के हितों को सर्वोपरि मानता है। लेकिन ब्राह्मणवाद

द्वारा जो परिवर्तन किए गए, उससे बौद्धिक वर्ग का सुरक्षित और सटीक मार्गदर्शन समाप्त

हो गया। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह हुई कि हिंदू अभय और सुरक्षित नहीं रह गए,

क्योंकि वहां समाज के विभिन्न विचारों का वैविध्य नहीं रह गया।

ब्राह्मणों ने शूद्रों को शिक्षा से वंचित कर, क्षत्रियों को सेना के काम में लगाकर और

वैश्यों को व्यापार की ओर प्रेरित कर और शिक्षा को अपने लिए सुरक्षित कर केवल

स्वयं को शिक्षित वर्ग के रूप में संगठित किया। वे सारे समाज को गलत दिशा में

मोड़ने और उसका गलत मार्गदर्शन करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हो गए। वर्ण को जाति में

परिवर्तित कर उन्होंने यह घोषित कर दिया कि मनुष्य की योग्यता का वास्तविक और

अंतिम मानदंड यह है कि वह किस जाति में पैदा हुआ है। जाति और वर्गीकृत असमानता

से फूट और वैमनस्य एक आम बात हो गई।

अगर मूल वर्ग पद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित

रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के

बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित पद्धति मनुस्मृति में

व्यक्ति और गृहस्थ के धर्म के रूप में उपलब्ध है। इनमें किसी को कोई संदेह नहीं

हो सकता।

मनु ने यह विधान किया कि अगर निचली जाति का कोई व्यक्ति अपने को उच्च

जाति के स्तर का होने या उच्च जाति का हेाने की अनधिकार चेष्टा करता है, तब वह

अपराध माना जाएगा।

10.96. निचली जाति का कोई व्यक्ति यदि लोभवश ऊंची जातिवाले व्यक्ति के

व्यवसाय को अपनाकर जीवन यापन करता है तब राजा उसकी संपत्ति छीन ले तथा

उसे निर्वासित कर दे।

11.56. असत्य रूप में अपने को ऊंचे कुल में जन्मा बताना, राजा को (किसी

अपराध के बारे में) सूचना देना और अपने गुरु की झूठी निंदा करना (ऐसे अपराध

हैं जो) किसी ब्राह्मण की हत्या करने के समान हैं।

यहां दो अपराधों का वर्णन है, सामान्य छद्म व्यक्तिता (रूप धारण करना, 10.96)

और शूद्र द्वारा छद्म व्यक्तिता। कृपया यह देखिए, कितना भयंकर दंड है। पहले अपराध

के लिए दंड है संपत्ति का छीन लिया जाना और निर्वासन। दूसरे अपराध के लिए वही

दंड है जो किसी ब्राह्मण की मृत्यु का कारण बनने के लिए है।

आधुनिक न्याय व्यवस्था में छद्म व्यक्तिता का अपराध जाना-पहचाना अपराध है।

भारतीय दंड-संहिता की धारा 419 इसी के बारे में है। लेकिन भारतीय दंड-संहिता छद्म

व्यक्तिता के लिए क्या दंड देती है? जुर्माना, और अगर कैद तो तीन साल की, या

दोनों। मनु अपने जाति वाले कानून को अंग्रेज सरकार द्वारा इतना हल्का बना दिए जाने

पर स्वर्ग में जरूर अपना सिर धुन रहा होगा।

मनु इसके बाद राजा को निर्देश देता है कि उसे इस नियम को कार्यान्वित करना

चाहिए। पहले, वह राजा से उसे उसके पवित्र कर्तव्य की साक्षी देते हुए अपील करता

हैः

8.172. जातियों के एक-दूसरे में विलय को रोकने से राजा की शक्ति बढ़ती है

और वह उस जीवन में और मृत्यु के बाद समृद्धिवान होता है।

मनु संभवतः जानता था कि वर्णों के परस्पर विलय से संबंधित नियम राजा को

संभवतः रुचिकर न हो और वह इसे कार्यान्वित न करे। इसलिए मनु राजा को यह

बताता है कि नियमों को कार्यान्वित करने के संबंध में उसे किस प्रकार का आचरण

करना चाहिए।

8.177. इसलिए राजा को अपनी रुचि या अरुचि पर ध्यान नहीं देना चाहिए तथा

ठीक यम की तरह व्यवहार करना चाहिए, अर्थात् उसे उसी तरह पक्षपात रहित होना

चाहिए जिस प्रकार यम, मृत्यु का न्यायकर्ता होता है।

मनु, तथापि इसे राजा के पवित्र कर्तव्य के सहारे नहीं छोड़ देना चाहता। मनु इसे

राजा के लिए अनिवार्य कर देता है। तदनुसार मनु इसे दायित्व घोषित करता हैः

8.410. राजा को वैश्य को व्यापार करने, रुपया सूद पर देने, कृषि करने, पशु उधार

देने और शूद्र को द्विजों की सेवा करने का आदेश देना चाहिए।

मनु इस विषय पर आगे प्रकाश डालता हैः

8.418. राजा सावधानीपूर्वक वैश्यों और शूद्रों को अपना-अपना कर्तव्य (जो उनके

लिए निर्धारित है) करने के लिए बाध्य करे, क्योंकि यदि वे अपने कर्तव्य से विरत

होते हैं तो वे इस समस्त संसार को अस्त-व्यस्त कर डालेंगे।

अगर राजा अपने इस दायित्व को पूरा न करे, तब क्या होगा? मनु की दृष्टि में

चातुर्वर्ण्य के इस नियम की सत्ता इतनी परम है कि वह उस राजा के सामने झुकने

को तैयार नहीं है जो इस नियम को कार्यान्वित करने के बारे में अपने दायित्व को पूरा

नहीं करता। वह दृढ़प्रतिज्ञ हो, एक नए नियम का सृजन कर देता है कि ऐसे राजा को

राज-सिंहासन से च्युत कर दिया जाएगा। इससे हम कल्पना कर सकते हैं कि चातुर्वर्ण्य

की पद्धति मनु को कितनी प्रिय थी।

जैसा कि मैंने कहा है, चातुर्वर्ण्य की वैदिक पद्धति जाति-व्यवस्था की अपेक्षा उत्तम

थी। लेकिन यह पद्धति ऐसे समाज के सृजन के पक्ष में नहीं थी, जिसे एक पूरा समाज

कहा जा सके, जहां आदर्श समाज में मिलने वाली एकता हो। चातुर्वर्ण्य सिद्धांत में ही

चार वर्गों का जन्म हुआ। इन चार वर्गों का आपस में कोई मैत्रीभाव नहीं था। ये आपस

में झगड़ते थे और ये झगड़े कभी-कभी इतने कटु हो जाते थे कि वे वर्गयुद्ध का रूप

ले लेते। फिर भी, प्राचीन चातुर्वर्ण्य पद्धति में दो अच्छाइयां थीं, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने

स्वार्थ में अंधे होकर निकाल दिया। पहली, वर्णों की आपस में एक-दूसरे से पृथक

स्थिति नहीं थी। एक वर्ण का दूसरे वर्ण में विवाह, और एक वर्ण का दूसरे वर्ण के

साथ भोजन, दो बातें ऐसी थीं जो एक-दूसरे को आपस में जोड़े रखती थीं। विभिन्न

वर्णों में असामाजिक भावना के पैदा होने के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, जो समाज के

आधार को ही समाप्त कर देती है। हालांकि क्षत्रिय ब्राह्मणों के, और ब्राह्मण क्षत्रियों के

विरुद्ध लड़ते थे तो भी ऐसे क्षत्रियों1 की कमी नहीं थी जो ब्राह्मण के लिए क्षत्रियों के

विरुद्ध लड़े हों और इसी प्रकार ऐसे ब्राह्मणों2 की भी कमी नहीं थी, जिन्होंने क्षत्रियों से

मिलकर ब्राह्मणों को न दबाया हो।

दूसरी बात यह है कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था रूढ़िगत थी। यह समाज का आदर्श थी,

लेकिन यह शासन का नियम नहीं थी। ब्राह्मणवाद ने वर्णों को अलग-अलग कर दिया

और उनकी एक-दूसरे से पृथक स्थिति हो गई। उसने परस्पर बैर के बीज बो दिए। जो

रूढ़िगत था, ब्राह्मणवाद ने उसे नियम बना दिया। इस नियम का आधार बनाकर उसने

दुष्कृत्य कर डाला। यदि वैदिक चातुर्वर्ण्य व्यवस्था हानिकर थी, तब वह काल और

परिस्थितियों के आघात से स्वतः मिट जाती। ब्राह्मणवाद ने इसे नियम का रूप प्रदान

  1. क्षत्रियों के विरुद्ध परशुराम के युद्धों की कहानी के बारे में यह मेरी व्याख्या है।
  2. बौद्ध धर्म ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक विद्रोह था। तो भी प्रारंभ में बुद्ध और बौद्ध धर्म के

अधिकांश अनुयायी ब्राह्मण थे।

कर शाश्वत बना दिया। संभवतः यह सबसे महान कुकृत्य था, जो ब्राह्मणवाद ने हिंदू

समाज के प्रति किया।

इस प्रश्न पर विचार करते समय हर व्यक्ति के ध्यान में यह बात आती है कि

चातुर्वर्ण्य के नियम को, जो वर्गीकृत असमानता का एक दूसरा रूप हैं, कार्यान्वित करने

का जो दायित्व राजा को सौंपा गया है, उसका अभिप्राय यह नहीं कि राजा इस नियम

को ब्राह्मणों और क्षत्रियों पर भी लागू करे। यह दायित्व इस नियम को वैश्यों और शूद्रों

पर लागू करने तक सीमित है। इस बात को ध्यान में रखने के बाद कि ब्राह्मणवाद

इस पद्धति को नियम का रूप देने के बारे में दृढ़संकल्प था, यह कहला कोई अधिक

अनुचित नहीं कि इसके परिणाम बड़े ही भयावह रहे। इस व्यवस्था को नियम बनाने

की इन कोशिशों के बावजूद यह व्यवस्था आधी रूढ़िगत रही और आधी ही नियम

बनी। वह वैश्यों और शूद्रों के लिए नियम बन गई और ब्राह्मणों और क्षत्रियों के संबंध

में केवल रूढ़िगत रही।

इस अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है। क्या ब्राह्मणवाद इस व्यवस्था को नियम का

रूप देने में कपटरहित था? क्या उसका यह अभिप्राय था कि चारों वर्णों में से प्रत्येक

वर्ण पर यह नियम लागू हो? तथा तथ्य कि ब्राह्मणवाद ने अपने बनाए इस नियम को

ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए अनिवार्य नहीं किया, इस बात को सिद्ध करता है कि

ब्राह्मणवाद पूरी तरह निष्कपट नहीं था। यदि उसे यह विश्वास था कि यह एक आदर्श

व्यवस्था है, तो वह इसे सभी पर लागू करने में कोई कोर-कसर न उठा रखता।

इस कूट-कर्म में कपट के अतिरिक्त कुछ और भी है। हम यह समझ सकते हैं कि

ब्राह्मणों को उस नियम से क्योंकर मुक्त और अनियंत्रित रखा गया। मनु ने उन्हें पृथ्वी

के देवता कहा और देवता तो नियम के ऊपर होते हैं। लेकिन ब्राह्मण को जिस प्रकार

मुक्त रखा गया, उस प्रकार क्षत्रियों को क्यों मुक्त रखा गया? वह जानते थे कि क्षत्रिय

ब्राह्मणों के सम्मुख अपना सिर नहीं झुकाएंगे। इसलिए वह क्षत्रियों को चेतावनी देते हैं

कि अगर वे उद्धृत होते हैं और विद्रोह की योजना बनाते हैं तो ब्राह्मण उनको किस

प्रकार दंडित कर सकते हैं।

9.320. जब क्षत्रिय किसी भी प्रकार ब्राह्मणों के प्रति निरंकुश हो जाएं तो ब्राह्मण

स्वयं उसे विधिवत कर सकते हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से उत्पन्न हुए हैं।

9.321. जल से अग्नि, ब्राह्मणों से क्षत्रिय, पत्थर से लोहा उत्पन्न हुए हैं। इन (तीनों)

की बेधन शक्ति का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता, जहां से ये उत्पन्न हुई।

हम यह कह सकते हैं कि मनु क्षत्रिय पर नियम लागू करने का दायित्व राजा को

इसलिए नहीं सौंपता कि ब्राह्मणों ने यह अनुभव किया कि वे अपनी शक्ति से और राजा

की सहायता के बिना क्षत्रियों से निबट सकते हैं और जब समय आएगा, परिणाम के

विषय में चिंता किए बिना वे क्षत्रियों का निषेध कर सकते हैं। मनु एकाएक शांत हो जाता

है और क्षत्रियों से सहयोग करने और ब्राह्मणों के साथ मिलकर एक मिला-जुला मोर्चा

बनाने की वकालत करने लगता है। जिस श्लोक में मनु क्षत्रियों के विरुद्ध गर्जन-तर्जन

और अभिशाप आदि की चर्चा करता है, उसके आगे के श्लोक में वह कहता हैः

9.323. लेकिन (जो राजा यह अनुभव करता है कि उसका अंत निकट है), वह

अपनी समस्त संपत्ति जो उसने अर्थ दंड लगाकर संग्रहीत की ब्राह्मणों को सौंप दे। अपना

राज्य अपने पुत्र को सौंप दे तथा युद्ध में मृत्यु का वरण करे।

अभिशाप के बाद अनुनय-विनय के स्वर विचित्र अलाप लगते हैं। क्षत्रियों के विरुद्ध

आचार-व्यवहार में इस नरमी की वजह क्या है? ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच इस

सहयोग का उद्देश्य क्या है? यह मोर्चा किसके विरुद्ध बनाया जा रहा है? मनु इसे स्पष्ट

नहीं करता। इस पहेली को सुलझाने और प्रश्नों का संतोषप्रद रीति से उत्तर देने के पहले

एक हजार वर्ष का संपूर्ण इतिहास बताया जाना चाहिए।

जो इतिहास इस पहेली के समाधान की कुंजी प्रदान करता है, वह ब्राह्मणों और

क्षत्रियों के बीच वर्ग-युद्धों का इतिहास है।

अधिकांश रूढ़िवादी हिंदू वर्ग-युद्ध के उस इतिहास का विरोध करते हैं, जिसका

प्रतिपादन कार्ल मार्क्स ने किया था और अगर उनसे यह कहा जाए कि मार्क्स अपने

सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए जो अकाट्य साक्ष्य खोज रहा था, वह संभवतः उनके

अपने पूर्वजों के इतिहास में ही मिल जाएं तो वे अवश्य भौंचक्के रह जाएंगे। निश्चय

ही ब्राह्मणों और क्षत्रियों में अनेक वर्ग जुड़ गए और प्राचीन हिंदू साहित्य में उन्हीं का

उल्लेख1 किया गया है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण थे। हमें ब्राह्मणों और राजाओं के बीच जो

सभी क्षत्रिय थे, युद्धों के वृत्त उपलब्ध हैं। इनमें पहला युद्ध राजा वेण के साथ, दूसरा

पुरुरवा के साथ, तीसरा नहुष के साथ, चौथा निमि के साथ और पांचवां सुमुख के साथ

हुआ। हमें वशिष्ठ नामक ब्राह्मण और विश्वामित्र के बीच, जो साधारण क्षत्रिय थे राजा

नहीं थे, हुए युद्ध का भी वर्णन मिलता है। हम कृतवीर्य के क्षत्रिय वंशजों द्वारा भृगु

गोत्र के ब्राह्मणों का सामूहिक हत्या का वृत्तांत भी जानते हैं। इसके बाद हमें ब्राह्मणों के

प्रतिनिधि के रूप में समस्त क्षत्रिय जाति का समूल नष्ट करने का वृत्तांत भी उपलब्ध

है। ये युद्ध जिन विषयों को लेकर हुए, वे काफी व्यापक हैं। इनसे पता चलता है कि

ब्राह्मणों और क्षत्रियों में परस्पर कितनी कटुता थी। ऐसे भी युद्धों का वर्णन मिलता है जो

इसी बात को लेकर हुए कि क्या क्षत्रिय को ब्राह्मण बनने का अधिकार है। इस प्रश्न

को लेकर भी युद्ध हुए कि ब्राह्मण सत्ता के अधीन है अथवा नहीं। इस प्रश्न को लेकर

  1. यह सारा वृत्त प्रो- म्यूर ने अपनी पुस्तक ओरिजनल संस्कृत टैक्स्ट्स, खंड 1 में संग्रहीत किया है।

भी युद्ध हुए कि कौन किसका पहले अभिवादन करे और कौन किसके जाने के लिए

रास्ता दे। ये युद्ध सत्ता, पद और प्रतिष्ठा के लिए लड़े गए युद्ध1 थे।

इन युद्धों का परिणाम औरों के लिए तो नहीं, बल्कि ब्राह्मणों के लिए तो बिल्कुल

स्पष्ट था। उन्होंने बड़ी-बड़ी गर्वोक्तियां कीं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें यह अनुभव हो

गया था कि क्षत्रियों का दमन करना उनके लिए असंभव है और क्षत्रियों का समूल नष्ट

करने के लिए किए गए युद्धों के बावजूद ब्राह्मणों को कष्ट देने के लिए वे काफी संख्या

में अभी भी बच रहे हैं। हमें ब्राह्मणों द्वारा कही गई इस अश्लील कहानी पर ध्यान देने की

कोई आवश्यकता नहीं और जिसे मनु के नाम से जोड़ दिया जाता है कि मनु के युग में

क्षत्रियों की नई पीढ़ी उन लोगों की थी, जो परशुराम के द्वारा क्षत्रियों का संहार करने के

बाद उनकी विधवाओं से ब्राह्मणों द्वारा पैदा हुए थे। किसी के चरित्र के बारे में मनगढ़त

कहानियां बनाना और उन्हें डराकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना एक ऐसा साधन है जिसका

उपयोग करने में ब्राह्मणों द्वारा पैदा हुए थे। किसी के चरित्र के बारे में मनगंढ़त कहानियां

बनाना और उन्हें डराकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना एक ऐसा साधन है जिसका उपयोग

करने में ब्राह्मणों को कभी भी संकोच नहीं हुआ। क्षत्रियों के विरुद्ध ब्राह्मणों की लड़ाई

शुरू से ही एक मूर्ख व्यक्ति और एक धौंस जमाने वाले व्यक्ति के बीच की लड़ाई रही।

ब्राह्मण चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को स्थापित करने के लिए क्षत्रियों के विरुद्ध लड़ रहे थे लेकिन

यही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है, जिसने क्षत्रियों के लिए अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए और ब्राह्मणों के

लिए इन्हें वर्जित रखा। इस सिद्धांत के अधीन ब्राह्मण सफलता की किस आशा में क्षत्रियों

के विरुद्ध लड़ सकते थे? इस सच्चाई को पहचानने में ब्राह्मणों को अधिक समय नहीं

लगना चाहिए था, जो टैलीरेंड ने नेपोलियन को बताई थी कि अस्त्र-शस्त्र देना तो सरल

है, लेकिन उनको लेकर चुप बैठना बहुत ही कठिन है और यह कि चूंकि क्षत्रियों के पास

अस्त्र-शस्त्र थे और ब्राह्मणों के पास नहीं थे, इसलिए क्षत्रियों के विरुद्ध युद्ध मौत के मुंह

में जाना था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच इन युद्धों का प्रत्यक्ष परिणाम हुआ। लेकिन कुछ

अन्य भी थे, जो ब्राह्मणों की दृष्टि से ओझल नहीं हो सके। जब ब्राह्मण और क्षत्रिय आपस

में लड़ रहे थे, वैश्यों और शूद्रों पर रोकथाम रखने व उन्हें नियंत्रण में रखने वाला कोई

नहीं बचा था। वे लोग सामाजिक समता की ओर बढ़ रहे थे और ब्राह्मणों और क्षत्रियों के

स्तर को लगभग छू रहे थे। क्षत्रियों को परास्त करना ब्राह्मणों के लिए बहुत कठिन था और

इस बात का खतरा बहुत ज्यादा था और वास्तविक भी था कि वैश्य और शूद्र उनसे आगे

निकल जाएं। क्या ब्राह्मण क्षत्रियों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखता और वैश्यों और शूद्रों के

खतरे की उपेक्षा करता रहता? या क्या ब्राह्मण क्षत्रियों के विरुद्ध संघर्ष को, जिसमें सफलता

मिलने की कोई आशा नहीं थी, छोड़ उनसे मैत्री करता और उनसे मिलकर वैश्यों और शूद्रों

के बढ़ते हुए खतरे को खत्म करने के लिए मिला-जुला मोर्चा बनाता? क्षत्रियों के विरुद्ध

  1. देखिए होपकिन्स की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ दि रूलिंग रेसेज

युद्धों में जब ब्राह्मण थक गया, तब उसने दूसरा विकल्प चुना। उसने अपने पराक्रमी शत्रु

क्षत्रियों के साथ नए आदर्श, अर्थात् अपने और क्षत्रियों के बाल वाले वर्णों और शूद्रों को

गुलाम बनाने व उनका शोषण करने के लिए मैत्री करने का प्रयत्न किया। यह नया आदर्श

उस समय तक स्वीकृत हो चुका था, जब शतपथ ब्राह्मण की रचना हो रही थी। शतपथ

ब्राह्मण में हमें इसलिए आदर्श का वर्णन मिलता है और यह पूर्ण प्रतिष्ठित हो चुका था।

यह आदर्श इतना प्रभावपूर्ण है कि मैं उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना चाहता हूं। शतपथ1

का लेखक लिखता हैः

“तब उन्होंने पशुओं को (आह्वानीय2) वापस भेज दिया, पहले बकरा जाता है,

फिर गधा और अंत में घोड़ा। अब यहां (आह्वानीय) के पास से वापस आते समय

घोड़ा पहले, तब गधा और फिर बकरा जाता है – घोड़ा/क्षात्र (सामन्त वर्ग) का प्रतीक

है। गधा-वैश्य और शूद्र का, और बकरा-ब्राह्मण का प्रतीक है और चूंकि यहां से जाते

समय घोड़ा पहले जाता है, इसलिए क्षत्रिय पहले जाता है, उसके बाद तीन अन्य जातियां,

और चूंकि वहां से वापस आते समय, बकरा पहले आता है, इसलिए ब्राह्मण पहले आता

है और उसके बाद तीन अन्य जातियां। और चूंकि गधा पहले नहीं जाता, चाहे यहां से

वापस जाते समय या वहां से वापस आते समय हो, इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी

भी वैश्य और शूद्र के पीछे नहीं जाते। वे क्रम चलते हैं, जिससे अच्छे और बुरे में भ्रांति

न हो। इस प्रकार वह उन दोनों जातियों (वैश्य और शूद्र) को पुरोहित और सामंत वर्ग

से घेरे रखता है और उन्हें (अर्थात् दोनों जातियों को) निरीह बनाए रखता है।”

क्षत्रियों के प्रति मनु के विस्मयजनक दृष्टिकोण का यहां समाधान हो जाता है। वह

क्षत्रियों को अधीन बनाना चाहता है, लेकिन उनके विरुद्ध खुलकर युद्ध करने से डरता है।

वह उन पर शासन करना चाहता है, लेकिन मित्र बनाना ज्यादा अच्छा अनुभव करता है।

इन युद्धों और संधियों ने मनु को यह शिक्षा दी कि ब्राह्मणों का आधिपत्य स्वीकार

करने के लिए क्षत्रियों को बल से अधीन बनाने की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं

होगा। यही एक आदर्श हो सकता है, जिसे सामने रखना होगा। लेकिन व्यवहार की

राजनीति में यह एक असंभव आदर्श था। बिस्मार्क की तरह मनु जानता था कि राजनीति

ऐसा खेल है जिसमें सब कुछ संभव हो जाता है। संभव यही था कि ब्राह्मणों और

क्षत्रियों के बीच वैश्य और शूद्रों के विरुद्ध एक आम मुद्दा और एक आम मोर्चा बनाया

जाए और यही मनु ने किया। यहां दुःख इस बात पर है कि यह धर्म के नाम पर किया

गया लेकिन जिस किसी ने ब्राह्मणवाद को अच्छी तरह समझ लिया है, उसे इससे दुःखी

होने की कोई बात नहीं। ब्राह्मणवाद के लिए धर्म, एक आवरण है जिसकी आड़ में वे

लोभ और स्वार्थ की राजनीति करते आए हैं।

  1. इगलिंग, शतपथ ब्राह्मण, भाग 3, 226.27
  2. आह्वानीय