डॉ- बाबासाहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को पृष्ठ छह से चौदह और पृष्ठ सत्रह से उनतालीस तक मूल अंग्रेजी के इस निबंध के बिखरे हुए पन्ने मिले थे। ऐसा लगता है कि ये पृष्ठ ‘दि डिक्लाइन एंड फाल आफ बुद्धिज्म’ (बौद्ध धर्म की अवनति तथा पतन) नामक लेख के ही अंतिम अंश के रूप में लिखे गए थे। कुछ पन्ने मूल हैं, तो शेष की कार्बन प्रति है। इनके अतिरिक्त चौदह पृष्ठ और मिले हैं, जिनमें वेदांत सूत्रें और भगवत्गीता का विवेचन हुआ है। जिन कागजों पर (1) दि डिक्लाइन एंड फाल आफ बुद्धिज्म (बौद्ध धर्म की अवनति तथा पतन, (2) दि लिटरेचर ऑफ ब्राह्मेनिज्म (ब्राह्मण साहित्य), तथा (3) वेदांत सूत्र एंड भगवत्गीता, टंकित किए गए हैं, उनका आकार-प्रकार एक जैसा है, किंतु अन्य अध्यायों के आकार-प्रकार से यह भाग भिन्न है -संपादक
I
बौद्ध धर्म के पतन के कारणों से संबंधित तथ्यों को उस ब्राह्मण साहित्य से छानबीनकर एकत्र किया जाना चाहिए, जो पुष्यमित्र की राजनैतिक विजय के बाद लिखा गया था।
इस साहित्य को छह भागों में बांटा जा सकता हैः (1) मनुस्मृति, (2) गीता, (3) शंकराचार्य का वेदांत, (4) महाभारत, (5) रामायण, और (6) पुराण। मैं इस साहित्य का विश्लेषण केवल इसी उद्देश्य से कर रहा हूं कि इससे उन तथ्यों का पता चल जाए, जो अनुमानतः बौद्ध धर्म के पतन के कारण रहे होंगे। चूंकि साहित्य समाज का ऐसा दर्पण होता है, जिसमें लोगों का जीवन देखा जा सके। यह कोई अनुचित कार्य नहीं होगा। एक बात मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं। उसका संबंध इस साहित्य के रचना-काल से है। हो सकता है, सभी इसे स्वीकार न करें कि यह साहित्य पुष्यमित्र की क्रांति के बाद की रचना है। इस तथ्य के विपरीत अधिकांश हिंदू, चाहे परंपरावादी हों या विरोधी, चाहे शिक्षित हों या अशिक्षित, इस बात में अटूट विश्वास रखते हैं कि उनका पवित्र साहित्य अति-प्राचीन है। अपने धार्मिक साहित्य को सबसे प्राचीन साहित्य मानना उनके लिए किसी धार्मिक सिद्धांत के मानने जैसा ही है।
मनु के काल-निर्धारण के प्रसंग में मैंने संदर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति की रचना ईसा पूर्व 185, अर्थात पुष्यमित्र की क्रांति के बाद सुमति भार्गव द्वारा की गई थी। इस विषय में मुझे अधिक कुछ नहीं कहना है।
भगवत्गीता के लेखन-काल के बारे में अनेक मतभेद हैं। श्री तेलंग के अनुसार गीता तीसरी सदी ईसवी पूर्व के पहले की रचना होनी चाहिए, किंतु कितने समय पहले, इस बारे में वह मौन हैं।
प्रो- गार्बे का कहना है1: ‘गीता का वर्तमान स्वरूप उसके मूल स्वरूप से भिन्न है।’ अनेक भारतविद् भी अब यह मानने लगे हैं कि भगवत्गीता जिस रूप में आज उपलब्ध है, उसमें समय-समय पर अनेक मूलभूत रूपांतरण होते रहे हैं। प्रो- गार्बे बताते हैं: ‘गीता में एक सौ छियालीस श्लोक नए हैं।’ ये श्लोक मूल गीता में नहीं थे। उसके रचना-काल के बारे में प्रो- गार्बे ने कहा, ‘संभवतः इसे ईसा पूर्व दूसरी सदी से पहले की रचना नहीं माना जा सकता।’
प्रो- कोसांबी गीता को बालादित्य सम्राट के शासन-काल की रचना मानते हैं। बालादित्य गुप्त वंश का सम्राट था, जिसने आंध्र राजवंश सत्ताच्युत कर दिया था। वह सन् 467 में राजगद्दी पर बैठा। गीता को इतने बाद की रचना मानने के उन्होंने दो कारण बताए हैं। शंकराचार्य से पूर्व (जन्म 788-मृत्यु 820) उन्होंने भगवत्गीता की टिप्पणी लिखी, इससे पहले वह अज्ञात रचना थी। शांतरक्षित के तत्वसंग्रह में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता, जब कि यह ग्रंथ शंकराचार्य के आगमन के केवल पचास वर्ष पहले लिखा गया था। उन्होंने दूसरा कारण यह बताया है कि वसुबंधु ‘विज्ञानवाद’ नामक एक संप्रदाय का प्रणेता था। शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य में इस विज्ञानवाद की आलोचना मिलती है। गीता2 में एक जगह ब्रह्म सूत्र भाष्य का उल्लेख मिलता है। गीता को वसुबंधु और ब्रह्म सूत्र भाष्य के बाद की रचना माना जाना चाहिए। वसुबंधु गुप्तवंशीय नरेश बालादित्य
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- प्रो- उटगीकर के अंग्रेजी अनुवाद ‘इंट्रोडक्शन टू दि भगवत्गीता’ में प्रो- गार्बे की भूमिका देखें।
- गीता, अध्याय 13, श्लोक 4
का गुरु था। तद्नुसार यह माना जा सकता है कि गीता की रचना या तो बालादित्य के शासन-काल में हुई होगी या उसके बाद।
शंकराचार्य के काल-निर्धारण के बारे में इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। उनके जीवन-काल और रचना-काल के बारे में अब सामान्यतः एक ही स्वीकार्य मत पाया जाता है। पर हां, उनकी जीवन संबंधी घटनाओं के बारे में अधिक शोध की आवश्यकता है। इस विषय पर मैं अन्यत्र अपने विचार प्रकट करूंगा। यहां बस इतना कहना ही पर्याप्त होगा।
महाभारत के रचना-काल का ठीक-ठीक निर्धारण करना लगभग असंभव है। इसके रचना-काल के निर्धारण के बारे में कुछ प्रयत्न किया जा सकता है। महाभारत के अब तक तीन संस्करण माने जा सकते हैं। प्रत्येक संपादक ने उसके नाम और कथावस्तु में भी परिवर्तन किया। अपने मूल रूप में यह ग्रंथ जय नाम से जाना जाता था। यह नाम तृतीय संस्करण के आरंभ और अंत, दोनों स्थानों में आया है। जय नामक यह मूल ग्रंथ किसी व्यास नाम के लेखक की रचना था। इसका दूसरा संस्करण भारत कहलाया। इसका संपादक कोई वैशम्पायन नाम का व्यक्ति था। वैशम्पायन का संस्करण भारत का अकेला द्वितीय संस्करण नहीं था। वैशम्पायन के अतिरिक्त व्यास के और भी कई शिष्य थे, जिनमें से प्रमुख चार थे सुमंतु, जैमिनि, पैल, और शुक। इन सभी ने व्यास से शिक्षा पाई थी। सभी ने भारत के अपने-अपने संस्करण तैयार किए। इस तरह तब भारत के चार और संस्करण तैयार हुए। वैशम्पायन ने इन चारों संस्करणों की पुनर्रचना कर अलग से अपना संस्करण तैयार किया। तीसरे संस्करण का संपादक सौति था। उसने वैशम्पायन के भारत को नया रूप प्रदान किया। सौति का यही संस्करण आगे चलकर महाभारत कहलाया। आकार और कथावस्तु, दोनों ही रूपों में यह संस्करण अपने पूर्ववर्ती संस्करण का विस्तार था। व्यास का जय काव्य एक लघु काव्य था, जिसमें 8,800 से अधिक श्लोक नहीं थे। वैशम्पायन के संस्करण में इस काव्य के श्लोकों की संख्या बढ़कर 24,000 हो गई। सौति के महाभारत में 96,836 श्लोक हैं। कथावस्तु की दृष्टि से व्यास के जय काव्य में केवल कौरवों और पांडवों के युद्ध की कथा थी। वैशम्पायन की कलम ने इस कथा सूत्र में नैतिक उपदेशों को पिरो दिया। इस तरह एक विशुद्ध ऐतिहासिक कृति रूपांतरित होकर एक उपदेश-प्रधान रचना बन गई, जिसका उद्देश्य सामाजिक, नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों के नियम सिखाना था। सौति ने अंतिम संपादक के रूप में इस कृति को पौराणिक गाथाओं का एक विशाल भंडार बना दिया। भारत काव्य में जितनी भी प्रचलित दंतकथाएं या स्वतंत्र रूप से विख्यात जो भी ऐतिहासिक आख्यान थे, उन सबको सौति ने इस काव्य में सम्मिलित कर दिया, ताकि वे विस्मृत न हो जाएं अथवा कम से कम सभी एक स्थान पर मिल जाएं। सौति की एक अन्य आकांक्षा यह भी थी कि इस ग्रंथ को शिक्षा और ज्ञान का अक्षय भंडार बना दिया जाए। इसलिए राजनीति, भूगोल, धनुर्विद्या जैसे ज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रें से संबंधित सामग्री उन्होंने इसमें सम्मिलित की। सौति आवृति या पुनर्कथ्य के इतना अभ्यस्त थे कि भारत उनके हाथों से निकलकर निश्चय ही महाभारत बन गया। इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं लगता।
अब इसके तिथि-निर्धारण की बात करें। इसमें यद्यपि कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध की घटना अत्यंत प्राचीन घटना है फिर भी यह नहीं माना जा सकता कि व्यास रचित जय काव्य भी उतनी ही प्राचीन है, अर्थात हम उसे किसी घटना का समसामयिक काव्य नहीं कह सकते। तीनों संस्करणों का तिथि-निर्धारण करना संभव नहीं है। फिर भी इन सबके बारे में प्रो- होपकिन्स का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है1
‘‘इस तरह महाभारत का रचना-काल सामान्यतः सन् 200 से सन् 400 के बीच ठहरता है। इस निर्णय पर पहुंचते वक्त हमने न तो इसके उत्तरवर्ती संस्करणों पर ध्यान दिया है और न ही इसके विभिन्न कथ्यों के परिवर्तित रूपों पर, जो कदाचित अनुगामी प्रतिलिपिकारों के हाथों से गुजरते हुए माने जा सकते हैं।’’
किंतु कुछ ऐसे साक्ष्य हैं, जिनके आधार पर निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि यह बाद की रचना है।
महाभारत में हूणों से संबंधित उल्लेख आया है। स्कंदगुप्त ने हूणों से युद्ध किया था और उसने इन पर सन् 455 में या उसके आसपास विजय पाई थी। इस पराजय के बावजूद हूणों के आक्रमण सन् 528 तक होते रहे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत की रचना उसके काल में या इसके बाद हुई होगी।
कुछ और भी संकेत मिले हैं, जो इसे और भी बाद की रचना बताते हैं। महाभारत में म्लेच्छों अथवा मुसलमानों का उल्लेख हुआ है। महाभारत के वन पर्व के 190वें अध्याय के 29वें श्लोक में रचनाकार कहता है कि ‘सारा संसार इस्लाममय हो जाएगा। सभी यज्ञ, अनुष्ठान, विधि-विधान, पर्व और त्यौहार समाप्त हो जाएंगे, इसका सीधा संबंध मुसलमानों से है। यद्यपि इसका संबंध भविष्य से है, फिर भी चूंकि महाभारत पुराण काव्य है और पुराणों में ‘जो हो गया है’ उसका कथन होता है, इसलिए इसे भी इसी अर्थ में लेना चाहिए। इस श्लोक की इस तरह व्याख्या कर लेने पर यह सिद्ध हो जाता है कि महाभारत की रचना भारत पर मुसलमानों के आक्रमण के बाद हुई होगी।
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- दि ग्रेट इपिक आफ इंडिया, प्रो- होपकिन्स, पृ. 389
कुछ अन्य संदर्भों से भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। इसी अध्याय के 59वें श्लोक में कहा गया है कि ‘वृषलों के सताए हुए ब्राह्मण भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगेंगे और कोई रक्षक न मिलने के कारण सारी पृथ्वी पर निश्चय ही भटकते फिरेंगे।’
इस श्लोक में जिन वृषलों की ओर संकेत है, वे बौद्ध नहीं हो सकते। इस बात का लेशमात्र भी प्रमाण नहीं मिलता कि बौद्धों के हाथों ब्राह्मणों को कभी सताया गया हो। उलटे, इस बात के प्रमाण तो मिले हैं कि बौद्धों के शासन-काल में बौद्ध भिक्षुओं की ही तरह ब्राह्मणों के साथ भी उदारता का व्यवहार किया जाता था। यहां ‘वृषल’ से अर्थ है, असभ्य और ऐसा विशेषण मुसलमान आक्रांताओं के लिए ही प्रयुक्त हुआ लगता है।
वन पर्व के इसी अध्याय में अन्य श्लोक भी हैं। ये श्लोक हैं: 65, 66 और 67। इनमें कहा गया है कि ‘समाज अव्यवस्थित हो जाएगा। लोग एडूकों की पूजा करेंगे। वे देवों का बहिष्कार करेंगे। द्विजों की सेवा नहीं करेंगे। सारे संसार में एडूक व्याप्त हो जाएंगे। युग का अंत हो जाएगा।’
इस ‘एडूक’ शब्द का अर्थ क्या है? कुछ ने इसका अर्थ ‘बौद्ध चैत्य’ किया है। किंतु श्री कोसांबी के अनुसार यह ठीक नहीं है।1 न तो बौद्ध साहित्य में, और न ही वैदिक साहित्य में, अर्थात कहीं भी ‘एडूक’ शब्द ‘चैत्य’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उलटे अमरकोश और उसके व्याख्याकार महेश्वर भट्ट के अनुसार तो ‘एडूक’ का अर्थ ऐसी दीवार से है जिसे लकड़ी का ढांचा लगा कर पुष्ट किया गया हो। इस अर्थ को ध्यान में रखते हुए कोसांबी ने इस शब्द का अर्थ ‘ईदगाह’ लगाया है, जहां मुसलमान नमाज अदा करते हैं। यदि यह व्याख्या सही है, तो फिर स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि महाभारत के कुछ अंश मोहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद लिखे गए थे। मुसलमानों का पहला आक्रमण इब्ने कासिम के नेतृत्व में सन् 712 में हुआ था। उसने उत्तरी भारत के कुछ नगरों पर कब्जा तो कर लिया था, किंतु उन्हें कोई बहुत नुकसान नहीं पहुंचाया। उसके बाद मौहम्मद गजनी ने हमला किया। उसने मंदिरों और विहारों को बुरी तरह से तोड़ा-फोड़ा और दोनों धर्मों के पुरोहितों का कत्लेआम किया। किंतु उसने भारत में मस्जिदें या ईदगाहें नहीं बनवाईं। ऐसा तो मौहम्मद गौरी ने किया। इससे यह साबित होता है कि महाभारत का लेखन सन् 1200 तक पूर्ण नहीं हुआ था।
ऐसा लगता है कि महाभारत की ही तरह रामायण के भी एक-एक कर तीन संस्करण तैयार हुए। महाभारत में रामायण के बारे में दो प्रकार के संदर्भ मिलते हैं। एक प्रसंग में
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- हिंदू संस्कृति आणि अहिंसा, पृ. 156
रामायण का संदर्भ तो आया है, किंतु उसके लेखक का उल्लेख नहीं मिलता। दूसरे प्रसंग में वाल्मीकि की रामायण का उल्लेख हुआ है। किंतु इन दिनों जो उपलब्ध रामायण है, वह वाल्मीकि1 रचित नहीं है। श्री सी.वी. वैद्य के मतानुसार2:
वर्तमान रामायण वाल्मीकि द्वारा मूलतः लिखित रामायण नहीं है, चाहे इसे इसी रूप में महान चिंतक और भाष्यकार कटक ने ही क्यों न स्वीकार किया हो। रूढ़िवादी विचारक भी इस तथ्य को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाएगा। चाहे कोई वर्तमान रामायण को सरसरी तौर पर ही क्यों न पढ़े, वह उसमें आई असंगतियों, पृथक प्रसंगों में परस्पर संबंधहीनता या प्रचुर मात्र में उपलब्ध नूतन और पुरातन, दोनों प्रकार के विचारों के गठबंधन को देखकर अवश्य हतप्रभ रह जाएगा। यह बात रामायण के बंगाल या बंबई वाले किसी भी पाठ में देखी जा सकती है। इन सब बातों को देखकर कोई भी इस नतीजे पर अवश्य पहुंचेगा कि वाल्मीकि रामायण में आगे चलकर बहुत फेर-बदल हुआ।
महाभारत की ही तरह रामायण की कथावस्तु में भी कालांतर में क्षेपक जुड़ते गए। आरंभ में रामायण की कथा इतनी भर थी कि रावण ने राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया, इसलिए राम और रावण युद्ध हुआ। अगले संस्करण में इस कथा में कुछ उपदेश भी जुड़ गए। तब एक विशुद्ध ऐतिहासिक काव्य के स्थान पर यह कृति उपदेशात्मक बन गई, जिसका उद्देश्य सामाजिक, नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों के सही नियमों की शिक्षा देना था। जब इसका तीसरा संस्करण बना तो यह भी महाभारत की ही तरह दंतकथाओं, ज्ञान, शिक्षा, दर्शन तथा अन्य कलाओं और विज्ञानों का भंडार बन गई।
रामायण की रचना कब हुई, इसके बारे में एक सर्वसम्मत दृष्टिकोण यह है कि राम की घटना पांडवों की घटना से अधिक पुरानी है, किंतु रामायण और महाभारत का लेखन-कर्म साथ-साथ ही चला होगा। हो सकता है कि रामायण के कुछ अंश महाभारत से पहले लिखे गए हों, किंतु इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं है कि रामायण का अधिकांश भाग महाभारत के अधिकांश भाग के लिखे जाने के बाद ही लिखा गया होगा।3
(अपूर्ण)
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- दि ग्रेट इपिक ऑफ इंडिया, होपकिन्स पृ. 62
- दि रिडिल ऑफ दि रामायण, अध्याय 2, पृ. 6
- इन दोनों महाकाव्यों में समान पदावली के लिए होपकिन्स की दि ग्रेट इपिक आफ इंडिया में परिशिष्ट ‘ए’ देखें।
II
अपने मत की पुष्टि के लिए मैं जिन-जिन ग्रंथों के उदाहरण देना चाहता हूं, वे हैं: 1. भगवत्गीता, 2. वेदांतसूत्र, 3. महाभारत, 4. रामायण, और 5. पुराण। इस साहित्य का विश्लेषण करते हुए मैं उन तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहता हूं, जिनसे बौद्ध धर्म के पतन के कोई कारण या कारणों का अनुमान किया जा सके।
इस साहित्य-संपदा की विषय-वस्तु का परीक्षण शुरू करने से पहले इस प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक है कि इनकी रचना कब हुई होगी। संभवतः सभी इस तथ्य से सहमत नहीं होंगे कि उपर्युक्त साहित्य की रचना पुष्यमित्र की क्रांति के बाद हुई थी। उलटे, अधिकतर हिंदू, वे चाहे परंपरावादी हों या उदारतावादी, शिक्षित हों या अशिक्षित, सभी की यह धारण है कि काल की दृष्टि से उनका उपर्युक्त पवित्र साहित्य अत्यंत पुराना है। इस पर उनकी अगाध श्रद्धा है। इस कारण वह अपने इस साहित्य को कालातीत मान बैठते हैं।
भगवत्गीता
आइए, हम भगवत्गीता से शुरू करें। इसके रचना-काल के बारे में विवाद है। श्री तेलंग1 ईसा पूर्व दूसरी सदी को अंतिम सदी मानते हैं, जिसके पूर्व गीता की रचना अवश्य हो गई होगी। स्वर्गीय तिलक2 का दृढ़ मत था कि वर्तमान गीता का रचना-काल हर हालत में शक संवत् के 500 वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। प्रो- गार्बे3 के अनुसार गीता का रचना-काल सन् 200 से 400 के बीच माना जाना चाहिए। श्री कोसांबी का मत इनसे अलग है जो विवाद-रहित तथ्यों पर आधारित है। प्रो- कोसांबी यह बात जोर देकर कहते हैं कि गीता की रचना गुप्तवंशीय नरेश बालादित्य के शासन-काल में हुई थी। बालादित्य उस गुप्त वंश से संबंधित था जिसने आंध्रवंश को सत्ताच्युत कर दिया था। बालादित्य सन् 467 में सत्तारूढ़ हुआ। गीता के रचना-काल को इतने बाद का बताने के उन्होंने दो कारण दिए हैं: 1. शंकराचार्य का जन्म सन् 788 और मृत्यु सन् 820 में हुई थी। उन्होंने भगवत्गीता का भाष्य लिखा। इससे पहले गीता को कोई नहीं जानता था। शांतरक्षित के तत्वसंग्रह में इसका कहीं उल्लेख नहीं आया है जब कि शंकराचार्य के आविर्भाव के लगभग 50 वर्ष पहले यह ग्रंथ लिखा गया था। दूसरा कारण उन्होंने बताया है कि वसुबंधु
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- सेक्रेड बुक ऑफ दि ईस्ट सीरीज में भवगत्गीता (अनुवाद श्री तेलंग) में उनकी भूमिका देखें।
- गीता रहस्य (अंग्रेजी अनुवाद, खंड 2), पृ. 800, श्री तिलक के मतानुसार मूल गीता इससे कुछ शताब्दी पूर्व लिखी गई होगी
- प्रो- उटगीकर के अंग्रेजी अनुवाद ‘इंट्रोडक्शन टू दि भगवत्गीता में प्रो- गार्बे की भूमिका
‘विज्ञानवाद’ नामक एक संप्रदाय का प्रवर्तक था। ब्रह्म सूत्र भाष्य में इस विज्ञानवाद की वसुबंधु कृत आलोचना मिलती है। गीता में एक जगह ब्रह्म सूत्र भाष्य का उल्लेख आया है।1 इसलिए गीता की रचना वसुबंधु और ब्रह्मसूत्र भाष्य के बाद ही हुई होगी। वसुबंधु गुप्तवंशीय नरेश बालादित्य का गुरु था। इसी आधार पर पूरी भगवत्गीता का लेखन या कम से कम उसके कुछ अंशों का मूल गीता में जोड़ा जाना निश्चय ही बालादित्य के शासनकाल में या उसके बाद, अर्थात सन् 467 के लगभग हुआ होगा।
यद्यपि भगवत्गीता के रचना-काल के बारे में तो मतभेद पाया जाता है, किंतु इस बारे में किसी तरह का मतभेद नहीं मिलता कि भगवत्गीता के कालांतर में अनेक संस्करण हुए थे। सभी इस बारे में सहमत हैं कि आज हमें भगवत्गीता जिस स्वरूप में उपलब्ध है, वह उसका मूल रूप नहीं है। अलग-अलग समय में अलग-अलग संपादकों के हाथों इसमें क्षेपक जुड़ते रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि जिन-जिन संपादकों के हाथों इसमें रूपांतर होता रहा है, उन सबकी क्षमता समान नहीं थी। प्रो- गार्बे कहते हैं2:
गीता निश्चय ही कोई ऐसी कलात्मक कृति नहीं जिसकी रचना किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति ने की हो। इसमें कल्पना की उड़ान तो बहुत बार दिखाई पड़ जाती है, किंतु वह भी कभी-कभी ही। इसमें केवल आडंबरपूर्ण और अर्थहीन शब्दावली के माध्यम से बार-बार किसी एक ही विचार की आवृत्ति दिखाई पड़ती है। कभी-कभी तो साहित्यिक अभिव्यक्तियां भी प्रचुर मात्र में दोषपूर्ण पाई जाती हैं। अनेक छंद उपनिषदों से ज्यों के त्यों उठाकर रख दिए गए लगते हैं। और यही बात ऐसी है, जिसकी अंतःप्रेरणा से युक्त हर कवि सदा बचना चाहेगा। सत्व, रजस् और तमस् का व्यवस्थित विवेचन पांडित्य प्रदर्शन भर के लिए हुआ है। इनके अतिरिक्त, कई ऐसी बातें और हैं जिनके आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि गीता किसी सच्चे और सृजनात्मक कविहृदय की उपज नहीं है….
होपकिन्स का भगवत्गीता के बारे में कथन है कि यह कृति अपनी उदात्तता और अपने बचकानेपन, अपनी तार्किकता और उसके अभाव, दोनों के बारे में विशिष्ट है, अपनी यत्र-तत्र अभिव्यक्ति शक्तिमता और रहस्यात्मक प्रशंसा के बावजूद भगवत्गीता काव्यात्मक कृति की दृष्टि से संतोषजनक नहीं है। एक ही बात को बार-बार दोहराया गया है। आवृत्ति दोष के साथ ही साथ इसमें पदावली और अर्थ में परस्पर विरोध के असंख्य उदाहरण मिलते हैं। इन सब बातों को देखते हुए यदि इसके बारे में यह कहा जाए कि ‘यह एक अद्भुत गीत है जो रोमांचित कर देता है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। यह कहकर कि यह सब विदेशियों के विचार हैं, इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा
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- गीता, अध्याय 13, श्लोक 4
- वही, पृ. 3
सकता। प्रो- रोजवाडे1 भी इनसे पूर्णतः सहमत लगते हैं। वह कहते हैं कि जिन लोगों का भगवत्गीता की रचना में हाथ रहा होगा, उन्हें व्याकरण के नियम भी मालूम नहीं थे।
सभी इस तथ्य से तो सहमत हैं कि अलग-अलग संपादकों के हाथों में पड़कर गीता के अलग-अलग संस्करण तैयार हुए, किंतु उनमें इस बात को लेकर असहमति है कि गीता में कौन से अंश जोड़े गए हैं। स्वर्गीय राजाराम शास्त्री भागवत के अनुसार मूल गीता में केवल साठ श्लोक थे। हम्बोल्ड्ट का यह विचार रहा कि मूलतः गीता में केवल आरंभिक ग्यारह अध्याय ही थे। बारहवें से लेकर अट्ठारहवें अध्याय तक की समस्त सामग्री बाद में जोड़ी गई थी। होपकिन्स के अनुसार गीता के आरंभिक चौदह अध्याय ही उसका मर्म है। प्रो- राजवाडे दसवें और ग्यारहवें अध्यायों को प्रक्षिप्त मानते हैं। प्रो- गार्बे कहते हैं कि भगवत्गीता के 146 छंद नए हैं, जो मूल गीता के अंश नहीं थे। इसका अर्थ यह है कि गीता का लगभग पांचवां हिस्सा नया है।
गीता का लेखक कौन है, इसके बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। गीता तो समरभूमि में अर्जुन और कृष्ण का संवाद है, जिसमें कृष्ण ने अपने दर्शन का प्रतिपादन अर्जुन के समक्ष किया था। इस संवाद का प्रत्याख्यान संजय ने कौरवों के पिता धृतराष्ट्र के सम्मुख किया था। गीता को तो महाभारत का अंश होना चाहिए था, क्योंकि जिस अवसर पर यह संवाद हुआ था, वह महाभारत की एक घटना का स्वाभाविक अंश है। किंतु गीता महाभारत का अंश नहीं है, यह तो एक अलग से स्वतंत्र रचना है। फिर भी, इसके लेखक का नाम इसमें नहीं मिलता। हम तो केवल इतना जानते हैं कि व्यास ने संजय को आदेश दिया कि युद्ध-भूमि में अर्जुन और कृष्ण के बीच जो संवाद हुआ, उसे वह धृतराष्ट्र को सुनाए। इसलिए यह माना जा सकता है कि व्यास ही गीता के लेखक रहे होंगे।
वेदांत सूत्र
पहले कहा जा चुका है कि वैदिक साहित्य में वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् सम्मिलित हैं। विषय-वस्तु के अनुसार इस तरह के साहित्य को दो वर्गों में बांटा जा सकता है: (1) कर्मकांड अर्थात धार्मिक नियम, संस्कार तथा अनुष्ठान आदि से संबंधित साहित्य, और (2) ज्ञानकांड अर्थात ईश्वर (वैदिक संज्ञा-ब्रह्म) का ज्ञान कराने वाला साहित्य। चारों वेद और ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक साहित्य के प्रथम वर्ग में आते हैं, तो आरण्यक और उपनिषद द्वितीय वर्ग में।
वैदिक साहित्य की मात्र बढ़ते-बढ़ते असीमित हो गई, किंतु महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि यह वृद्धि जंगली घास की तरह हुई। इस तरह जो दुर्व्यवस्था फैली, उससे छुटकारा
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- भंडारकर मैमोरियल वॉल्यूम
पाने के लिए किसी तरह की व्यवस्था, किसी तरह के समन्वय की आवश्यकता थी। इसलिए जिज्ञासा संबंधी एक शाखा विकसित हुई, जिसे ‘मीमांसा’ कहते हैं। मीमांसा में वैदिक साहित्य के पाठ से संबंधित अर्थ पर विचार हुआ। जिन्होंने इस व्यवस्था, कार्य और समन्वय के काम को हाथ में लेना आवश्यक समझा, वे कर्मकांड को व्यवस्थित करने वाले, और ज्ञानकांड को व्यवस्थित करने वाले, इन दो संप्रदायों में बंट गए। परिणाम यह हुआ कि मीमांसा शास्त्र की दो शाखाएं विकसित हो गईं, जिनमें से एक पूर्व मीमांसा शाखा और दूसरी उत्तर मीमांसा शाखा कहलाई। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, पूर्व मीमांसा शाखा ने वैदिक साहित्य के आरंभिक अंश, अर्थात दो और ब्राह्मण ग्रंथों पर विचार किया। इसलिए यह पूर्व मीमांसा कहलाई। उत्तर मीमांसा शाखा ने वैदिक साहित्य के बाद वाले अंश, अर्थात आरण्यकों और उपनिषदों पर विचार किया, इसलिए यह उत्तर मीमांसा कही जाती है।
इन दोनों शाखाओं से संबंधित विपुल मात्र में साहित्य उपलब्ध है। इनमें से सूत्रें के दो संग्रह प्रमुख और अन्यतम मानने जाते हैं। पहला सूत्र संग्रह जैमिनि की रचना माना जाता है, जब कि दूसरा बादरायण का। जैमिनि के सूत्र-संग्रह में कर्मकांड1 का विवेचन हुआ है जब कि बादरायण के सूत्र-संग्रह में ‘ज्ञानकांड’ का। निस्संदेह इन दोनों के पहले भी कुछ लेखकों ने इन्हीं विषयों पर व्याख्या लिखी थी। फिर भी, मीमांसा शास्त्र की दोनों शाखाओं में जैमिनि और बादरायण की कृतियां ही आदर्श ग्रंथ माने जाते हैं।
यद्यपि इन दोनों के सूत्र मीमांसा शास्त्र से संबंधित हैं, फिर भी जैमिनि के सूत्र मीमांसा सूत्र2 कहलाते हैं, जब कि बादरायण के सूत्र वेदांत सूत्र। वेदांत का अर्थ है, वेद का अंत, अर्थात वेदों के अंतिम अध्याय में प्रतिपादित सिद्धांत। वेदों के अंतिम अध्याय से अर्थ है, उपनिषद और उपनिषदों को वेदों का अंतिम लक्ष्य माना जाता है। चूंकि बादरायण के सूत्रें ने इनके व्यवस्थापन और समन्वय का काम किया है, इसलिए इन सूत्रें का वेदांत सूत्र3 कहते हैं। वेदों के अध्याय में प्रतिपादित इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार संजय को उक्त आदेश दिया गया था। वेदांत सूत्रें का यही उद्गम है।
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- वस्तुतः वैदिक साहित्य के कर्मकांड विषयक अंश के व्यवस्थापन से दो प्रकार की कृतियां तैयार हुईं:
- कल्प सूत्र, और 2. पूर्व मीमांसा सूत्र। कल्प सूत्रें में ब्राह्मण ग्रंथों में विहित कर्मकांडों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है, जब कि पूर्व मीमांसा सूत्रें में उस सामान्य की व्याख्या और समर्थन किया गया है, जिसका अनुसरण करना कल्प सूत्रकार के लिए आवश्यक है, बशर्ते कि वह अपने नियमों को वेदों की शिक्षा के अनुरूप पूरी तरह व्याख्यातित करना चाहे।
- इन्हें पूर्व मीमांसा अथवा कर्म मीमांसा भी कहते हैं।
- इनके और भी नाम हैं, यथा-उत्तर मीमांसा सूत्र, ब्रह्म सूत्र या शारीरिक सूत्र या शारीरिक मीमांसा सूत्र।
यह बादरायण कौन है? उसने इन सूत्रें का प्रणयन क्यों किया और कब किया? इस नाम को छोड़कर बादरायण के बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।1 यह भी निश्चित नहीं है कि लेखक का यह नाम वास्तविक नाम था या नहीं। यहां तक कि इन सूत्रें के बड़े-बड़े भाष्यकारों में भी इन सूत्रें के रचयिता के बारे में पर्याप्त मतभेद हैं। कुछ कहते हैं कि इनके लेखक बादरायण थे। कुछ कहते हैं कि इन सूत्रें के रचयिता व्यास हैं। शेष लोगों का मत है कि बादरायण और व्यास एक ही व्यक्ति हैं। इन सूत्रें के रचयिता के बारे में इतने मतभेद देखकर आश्चर्य होता है।
उसने इन सूत्रें की रचना क्यों की? हर कोई इस बात को भली-भांति स्वीकार कर लेगा कि ब्राह्मणों का यह कर्तव्य था कि वे वैदिक साहित्य के कर्मकांड विषयक साहित्य को व्यवस्थित और वर्गीकृत करें, क्योंकि कर्मकांड से उनका गहरा संबंध था। उनकी आजीविका का साधन कर्मकांड ही था। दूसरी ओर, वैदिक साहित्य की ज्ञानकांड शाखा में उनकी रुचि नहीं थी। तब वे इसे भी व्यवस्थित करने का प्रयत्न क्यों करते? ऐसा प्रश्न अभी तक न तो किसी ने उठाया है, और न ही इस विषय में अभी तक कुछ विचार ही हुआ है। किंतु यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसका उत्तर देना भी अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। प्रश्न महत्वपूर्ण क्यों है और उसका उत्तर क्या है, इसका विवेचन मैं आगे चलकर करूंगा।
वेदांत सूत्र के बारे में दो प्रश्न और हैं। पहला, इसे धर्मशास्त्र विषयक कृति माना जाए या विशुद्ध दर्शन विषयक? या सूत्रकार ने इसकी रचना कर दर्शन को स्थापित धर्मशास्त्र के साथ गठबंधन करना चाहा है, ताकि धार्मिक कर्मकांड को घातक और हानिकर होने से बचाया जा सके। अगला प्रश्न वेदांत सूत्र के भाष्यों से संबंधित है। कुल मिलाकर पांच भाष्य उपलब्ध हैं, जो सुप्रसिद्ध आचार्यों के हैं। ये सभी बौद्धिक दृष्टि से मेधावी विद्वान थे। इनके नाम हैं: 1. शंकराचार्य (788-820 ई.), 2. रामानुजाचार्य (1017.1137 ई.), 3. निंबार्काचार्य (मृत्यु लगभग 1162 ई.), 4. मध्वाचार्य (1197.1276 ई.), और 5. बल्लभाचार्य (जन्म 1417 ई.)। इन आचार्यों की वेदांत सूत्र की व्याख्या वेदांत सूत्र से भी अधिक प्रसिद्ध हुई। इनके बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि वेदांत सूत्र के एक ही पाठ
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- यही बात जैमिनि पर भी लागू होती है। केन का कथन है – ‘जैमिनि के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। जैमिनि के नाम से एक ब्राह्मण ग्रंथ, एक स्त्रेत सूत्र और एक गृह्य सूत्र मिलते हैं। किंतु इस बात की संभावना प्रतीत नहीं होती कि ये ग्रंथ पूर्व मीमांसाकार की ही रचनाएं हैं। आश्वलायन गृह्य सूत्र के ‘तर्पण’ में सुमंतु और वैशम्पायन के साथ जैमिनि का उल्लेख मिलता है। भगवत् पुराण में जैमिनि को सुमंतु का गुरु और सामवेद का प्रणेता बताया गया है। पंचतंत्र के अनुसार, मीमांसाकार जैमिनि की मृत्यु हाथी के पांव तले दब कर हुई थी। (ए ब्रीफ स्केच आफ दि पूर्व मीमांसा सिस्टम, पृष्ठ 12)
की इन पांचों आचार्यों ने पांच अलग-अलग विचारधाराओं के अनुसार व्याख्या प्रस्तुत की। शंकर ने बताया कि वेदांत सूत्र परम अद्वैत की शिक्षा देते हैं, जब कि रामानुज के अनुसार विशिष्ट द्वैत की, निंबार्क के अनुसार द्वैताद्वैत की, माधव के अनुसार द्वैत की और वल्लभ के अनुसार शुद्ध द्वैत की। इन सभी पारिभाषिक शब्दों का क्या अर्थ है, यहां मैं इस पर विचार नहीं करूंगा। मैं तो केवल इतना भर बताना चाहता हूं कि एक ही सूत्र संग्रह की पांच अलग-अलग व्याख्याओं के परिणामस्वरूप पांच अलग-अलग संप्रदायों के उदय और विकास की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या यह केवल व्याकरण का विषय है? या इन विविध व्याख्याओं या टीकाओं के पीछे और कोई उद्देश्य छिपा है? इतने प्रकार की टीकाओं के कारण एक और प्रश्न उठता है। इन पांचों टीकाओं में आत्मा और परमात्मा को पहचानने के पांच रास्ते अपनाए गए हैं, जब कि वस्तुतः ये रास्ते दो ही हैं। एक रास्ता वह है जो शंकराचार्य ने अपनाया और दूसरा रास्ता वह है जिस पर शेष चारों आचार्य चले। यद्यपि चारों आचार्यों के बीच परस्पर मतभेद रहा, किंतु शंकराचार्य के विपक्ष में उनकी दो बातों को लेकर उनमें पूर्ण सहमति थी: 1. आत्मा और परमात्मा के बीच पूर्ण एकरूपता है, और 2. संसार माया है। यहीं तीसरा प्रश्न और उठता है। बादरायण के वेदांत सूत्रें की व्याख्या करते हुए शंकराचार्य ने अपना इतना अनदेखा मत क्यों प्रतिपादित किया? क्या उन्होंने सूत्रें का आलोचनात्मक विवेचन कर ऐसा किया? या क्या ऐसा करना उनके लिए अपने पूर्व विचारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अभिलाषा कल्पित चिंतन मात्र था?
मैं केवल यह प्रश्न कर रहा हूं। यहां उसका उत्तर पाने के लिए विवेचन करना नहीं चाहता। मैं तो यहां केवल यह जानने का इच्छुक हूं कि यह साहित्य किस काल की रचना माना जाए-बौद्ध-काल के पूर्व की अथवा बौद्ध-काल के बाद की।
वेदांत सूत्र के रचना-काल को निर्धारित करने में आरंभिक कठिनाई यह सामने आती है कि भगवत्गीता की ही तरह इस ग्रंथ के पाठ में भी अनेक बार संशोधन होते रहे हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार1 वेदांत सूत्र में तीन बार संशोधन हुए। इसी वजह से इसके निर्माण की सही-सही तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती।2 जो विचार अब तक सामने आए हैं, वे केवल संभावित काल की ही सूचना देते हैं। निस्संदेह वेदांत सूत्र की रचना बुद्ध धर्म के जन्म के बाद ही हुई होगी, क्योंकि इन सूत्रें में स्पष्ट उल्लेख न होते हुए भी बौद्ध धर्म के बारे में संकेत अवश्य मिलते हैं। वेदांत सूत्रें की रचना मनु के बाद की नहीं मानी जा सकती, क्यों मनुस्मृति में वेदांत सूत्रें का उल्लेख मिलता है। प्रो- कीथ की मान्यता है कि इन सूत्रें की रचना सन् 200 के आस-पास हुई होगी। प्रो- जेकोबी कहते हैं कि इनकी रचना सन् 200 और सन् 450 के बीच हुई होगी।
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- देखे बेलवल्कर, बसु मलिक लेक्चर्स ऑन वेदांत, लेक्चर 4
- देखें, राधाकृष्णन, इंडियन फिलोसफी, खंड 2, पृ. 430, जहां संबंधित साक्ष्य संकलित है।
महाभारत
महाभारत की रचना-तिथि का निर्धारण करना असंभव-सा है। हां, उसकी रचना के युग-निर्धारण का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। महाभारत के तीन संस्करण हुए हैं और हर संस्करण के संपादक ने उसके शीर्षक और कथावस्तु, दोनों में परिवर्तन किए हैं। अपने मूल रूप में यह जय के नाम से जाना जाता था। यही मूल नाम तीसरे संस्करण के आरंभ और अंत, दोनों स्थानों में आया है। इस मूल रूप जय की रचना किसी व्यास ने की थी। इसका दूसरा संस्करण भारत कहलाया। भारत का संपादन वैशम्पायन ने किया था। भारत नामक इस काव्य का वैशम्पायन कृत द्वितीय संस्करण ही अकेला संस्करण नहीं था। व्यास के शिष्यों में वैशम्पायन के अतिरिक्त सुमंतु, जैमिनि, पैल और शुक भी थे। इन सभी ने व्यास से विद्या ग्रहण की थी। इन्होंने अपने-अपने संस्करण तैयार किए। इस प्रकार भारत के ही चार और संस्करण उपलब्ध थे। वैशम्पायन ने इन सभी को नए रूप में ढालकर अपना नया संस्करण तैयार किया। तीसरे संस्करण का संपादक सौति था। उसने वैशम्पायन के संस्करण को नए रूप में ढाला। सौति का संस्करण अंततोगत्वा महाभारत के नाम से जाना गया। यह संस्करण आकार और कथावस्तु, दोनों रूपों में अपने पूर्ववर्ती संस्करणों का परिवर्धित रूप था। व्यास के जय नामक लघु काव्य ग्रंथ में 8,800 से अधिक श्लोक नहीं थे। वैशम्पायन के भारत में यह संख्या बढ़कर 24,000 हो गई। सौति ने श्लोकों की संख्या में विस्तार किया और इस तरह महाभारत में श्लोकों की संख्या बढ़कर 96,836 हो गई। कथावस्तु के रूप में व्यास के मूल काव्य में केवल कौरवों और पांडवों की युद्ध कथा थी। वैशम्पायन के काव्य में कथावस्तु में दोगुनी वृद्धि हो गई। मूल युद्ध-कथा के साथ में उपदेश, अर्थात शिक्षाप्रद घटनाएं भी जुड़ गईं। इस तरह एक विशुद्ध ऐतिहासिक काव्य के स्थान पर इस कृति ने उपदेशात्मक रूप ग्रहण कर लिया, जिसका उद्देश्य सामाजिक, नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों, अर्थात नित्य-नियमों की शिक्षा देना हो गया। अंतिम संपादक के रूप में सौति ने इस महाभारत को दंतकथाओं, आख्यानों, घटनाओं आदि का एक विशाल सर्वतोमुखी संग्रह बना दिया। भारत में वर्णित कथा के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से जितनी भी दंतकथाएं या ऐतिहासिक आख्यान प्रचलित थे, उन सबको सौति ने अपने ग्रंथ में समाविष्ट कर लिया, ताकि वे विस्मृत न हो जाएं अथवा कम से कम एक स्थान पर तो उपलब्ध हो जाएं। सौति की एक आकांक्षा यह भी थी कि भारत को शिक्षा और ज्ञान का अक्षय भंडार बना दिया जाए इसलिए उसने इसमें राजनीति, भूगोल, धनुर्विद्या आदि ज्ञान और शिक्षा की सभी शाखाओं से संबंधित सामग्री जोड़ दी। सौति पुनरावृत्ति का शौकीन था। इसे ध्यान में रखते हुए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि यह कहा जाए कि उसके हाथों से निकलकर भारत, महाभारत बन गया।
अब तिथि निर्धारण के बारे में विचार करें। निस्संदेह कौरवों और पांडवों का युद्ध एक अत्यंत प्राचीन घटना थी। किंतु इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि व्यास की कृति भी उस घटना की ही तरह प्राचीन है अथवा उस घटना की समकालीन रचना है। प्रत्येक संस्करण का तिथि-निर्धारण करना कठिन कार्य है। इस संपूर्ण कृति पर विचार करते हुए प्रो- होपकिन्स लिखते हैं:1
“इस तरह मोटे तौर पर संपूर्ण महाभारत का रचना काल सन् 200 से सन् 400 के बीच का ठहरता है। यह निर्धारण करते समय न तो उत्तरवर्ती काल में हुए बाद के संस्करणों को, जैसा कि हम जानते हैं, ध्यान में रखा गया है और न ही उन वाचिक रूप में हुए परिवर्तनों-परिवर्धनों को ध्यान में रखा गया है, जो परवर्ती प्रतिलिपिकारों के हाथों हुए होंगे।”
किंतु कुछ अन्य साक्ष्यों के आधार पर निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना इससे भी बाद में हुई होगी।
महाभारत में हूणों का उल्लेख मिलता है। स्कंदगुप्त ने हूणों से युद्ध किया था और उन्हें सन् 455 में या उसके आसपास पराजित किया। इसके बावजूद हूणों के आक्रमण सन् 528 तक होते रहे। स्पष्ट है कि महाभारत की रचना उस समय या उसके बाद में हुई होगी।
प्रो- कोसांबी2 ने कुछ और भी संकेत दिए हैं, जो इसे और बाद की रचना सिद्ध करते हैं। महाभारत में म्लेच्छों अथवा मुसलमानों का जिक्र हुआ है। महाभारत के वन पर्व के 190वें अध्याय के 29वें श्लोक में रचनाकार कहता है कि ‘सारा संसार इस्लामय हो जाएगा। सभी यज्ञ, अनुष्ठान, विधि-विधान, पर्व और त्यौहार समाप्त हो जाएंगे।’ इस कथन का सीधा संबंध मुसलमानों से है। यद्यपि इसका संबंध भविष्यत काल से है, फिर भी, चूंकि महाभारत पुराण काव्य है और पुराणों में जो हो गया है, उसी का कथन होता है, इसलिए इसे भी इसी अर्थ में लेना चाहिए। इस श्लोक की इस तरह व्याख्या कर लेने पर यह सिद्ध हो जाता है कि महाभारत की रचना भारत पर मुसलमानों के आक्रमण के बाद ही हुई होगी।
कुछ अन्य संदर्भों से भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।
इसी अध्याय के 59वें श्लोक में कहा गया है कि ‘वृषलों के सताए हुए ब्राह्मण भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगेंगे और कोई रक्षक न मिलने के कारण सारी पृथ्वी पर निश्चय ही भटकते फिरेंगे।’
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- प्रो- होपकिन्स, दि ग्रेट इपिक आफ इंडिया, पृ. 389
- हिंदू संस्कृति आणि अहिंसा (मराठी)
इस श्लोक में जिन वृषलों की ओर संकेत है, वे बौद्ध नहीं हो सकते। इस बात का लेशमात्र भी प्रमाण नहीं मिलता कि बौद्धों के हाथों ब्राह्मणों को कभी सताया गया हो। उलटे, इस बात के प्रमाण तो मिले हैं कि बौद्धों के शासन-काल में बौद्ध भिक्षुओं की ही तरह ब्राह्मणों के साथ उदारता का व्यवहार किया जाता था। यहां वृषल से अर्थ है असभ्य और ऐसा विशेषण मुसलमान आक्रांताओं के लिए ही प्रयुक्त हुआ लगता है।
यदि यह बात सही है, तब तो यह मानना ही पड़ेगा कि महाभारत का कुछ अंश निश्चय ही भारत पर मुसलमानों के आक्रमण के बाद लिखा गया होगा।
वन पर्व के इसी अध्याय में कुछ अन्य श्लोक भी हैं जो इसी निष्कर्ष की ओर संकेत करते हैं। ये हैं: 65वां, 66वां और 67वां श्लोक। इनसे भी यही निष्कर्ष निकलता है। इनमें कहा गया है कि ‘समाज अव्यवस्थित हो जाएगा। लोग एडूकों की पूजा करेंगे। वे देवों का बहिष्कार करेंगे। शूद्र, द्विजों की सेवा नहीं करेंगे। सारे संसार में एडूक व्याप्त हो जाएंगे। युग का अंत हो जाएगा।’
यहां ‘एडूक’ शब्द का बहुत ही महत्व है। कुछ ने इस शब्द का अर्थ बौद्ध चैत्य लगाया है। यह इसलिए कि एडूक का अर्थ है हड्डी, विशेषकर बुद्ध की अस्थियां। आगे चलकर इसका अर्थ हुआ चैत्य, क्योंकि चैत्य में बुद्ध की अस्थियां होती हैं, किंतु श्री कोसांबी के मतानुसार यह अर्थ ठीक नहीं है। न तो बौद्ध साहित्य में, और न ही वैदिक साहित्य में कहीं भी ‘एडूक’ शब्द ‘चैत्य’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उलटे, अमरकोश और उसके व्याख्याकार महेश भट्ट के अनुसार तो एडूक का अर्थ ऐसी दीवार है, जिसे लकड़ी के ढांचे से पुष्ट किया गया हो। इस अर्थ को ध्यान में रखते हुए कोसांबी ने इस शब्द का अर्थ ‘ईदगाह’ लगाया है, जहां मुसलमान नमाज अदा करते हैं। यदि यह व्याख्या सही है, तब तो स्पष्ट रूप से यही कहा जा सकता है कि महाभारत के कुछ अंश मुसलमानों के आक्रमणों, विशेषकर मौहम्मद गौरी के आक्रमणों के बाद लिखे गए थे। मुसलमानों का पहला आक्रमण इब्ने कासिम के नेतृत्व में सन् 721 में हुआ था। उसने उत्तरी भारत के कुछ भागों पर कब्जा तो कर लिया था, किंतु वहां के मंदिरों और विहारों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, और न ही दोनों धर्मों के पुजारियों का संहार ही किया था। उसने मस्जिदें और ईदगाह नहीं बनवाईं। यह काम तो मौहम्मद गौरी ने किया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि महाभारत का लेखन सन् 1200 तक चलता रहा होगा।
रामायण
यह एक तथ्य है कि महाभारत की ही तरह रामायण के भी एक-एक कर तीन संस्करण तैयार हुए। महाभारत में रामायण के बारे में दो प्रकार के संदर्भ मिलते हैं। एक प्रसंग में रामायण का तो संदर्भ आया है, किंतु उसके लेखक का उल्लेख कहीं नहीं मिलता; दूसरे प्रसंग में वाल्मीकि रामायण का उल्लेख हुआ है, किंतु इन दिनों जो रामायण उपलब्ध है, वह वाल्मीकि रचित नहीं है।1 श्री सी.वी. वैद्य2 के मतानुसारः
‘वर्तमान रामायण वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण नहीं है, चाहे इसे इसी रूप में महान चिंतक और भाष्यकार कटक ने ही क्यों न स्वीकार किया हो। कट्टर से कट्टर विचारक भी इस तथ्य को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाएगा। चाहे कोई वर्तमान रामायण को सरसरी तौर पर ही क्यों न पढ़े, वह उसमें आई असंगतियों को देखकर पूर्व प्रसंगों में परस्पर संबंधहीनता देखकर या काफी मात्र में उपलब्ध नूतन, और पुरातन, दोनों प्रकार के विचारों के गठबंधन को देखकर हतप्रभ रह जाएगा। यह बात रामायण के बंगाल या बंबई वाले किसी भी पाठ में देखी जा सकती है। इन सब बातों को देखकर कोई भी इस नतीजे पर अवश्य पहुंचेगा कि वाल्मीकि की रामायण में आगे चलकर बहुत फेर-बदल हुआ।’
महाभारत की ही तरह रामायण की कथावस्तु में भी कालांतर में क्षेपक जुड़ते गए। आरंभ में रामायण की कथा मात्र इतनी ही थी कि रावण ने राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया, इसलिए राम और रावण के बीच युद्ध हुआ। अगले संस्करण में इस कथा में कुछ उपदेश भी जुड़ गए। तब एक विशुद्ध ऐतिहासिक काव्य के स्थान पर यह कृति भी उपदेशात्मक बन गई, जिसका उद्देश्य सामाजिक, नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों के सही नियमों की शिक्षा देना था। जब इसका तीसरा संस्करण बना तो यह भी महाभारत की ही तरह दंतकथाओं, ज्ञान, शिक्षा, दर्शन तथा अन्य कलाओं और विज्ञानों का भंडार बन गई।
रामायण की रचना कब हुई, इसके बारे में एक सुस्थापित कथन यह है कि राम वाली घटना पांडवों वाली घटना से अधिक पुरानी है, किंतु रामायण और महाभारत का लेखन-कार्य साथ ही चला होगा। हो सकता है कि रामायण के कुछ अंश महाभारत से पहले लिखे गए हों, किंतु इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं हो सकता कि रामायण का अधिकांश भाग महाभारत के अधिकांश भाग के लिखे जाने के बाद ही लिखा गया होगा।
पुराण
इस समय उपलब्ध पुराणों की संख्या अट्ठारह है।4 शुरू में पुराणों की संख्या इतनी
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- होपकिन्स, दि ग्रेट इपिक ऑफ इंडिया, पृ. 62
- दि रिडिल ऑफ दि रामायण, अध्याय 2, पृ. 6
- इन दोनों महाकाव्यों में समान वाक्य खंडों के लिए होपकिन्स की पुस्तक दि ग्रेट इपिक ऑफ इंडिया का परिशिष्ट ‘ए’ देखें।
- पुराणों की सामग्री के बारे में जो कुछ मैंने ऊपर कहा है, वह काले की पुराण निरीक्षण (मराठी) और पार्टीजर की एनसिएंट हिस्टोरिकल ट्रेडिशन नामक पुस्तक में दी गई सूचना पर आधारित है।
नहीं थी। परंपरागत मान्यता के अनुसार, और इस मान्यता में संदेह की गुंजाइश नहीं है, सबसे पहले केवल एक पुराण था। यह भी माना जाता है कि यह पुराण वेदों से भी पुराना था। अथर्ववेद में इस पुराण का उल्लेख है और ब्रह्मांड पुराण के अनुसार यह वेदों से भी पुराना है। यह एक कथा थी, जिसे राजा को शतपथ के लिए जानना आवश्यक था। ब्राह्मण कहता है कि यज्ञ के दसवें दिन अध्वर्यु द्वारा इसे राजा को सुनाने का विधान रहा।
अट्ठारह पुराणों के जन्म की कथा व्यास से संबंधित है। कहते हैं कि व्यास ने ही उस मूल पुराण को काट-छांटकर, अर्थात उसे घटा-बढ़ाकर उससे ही अट्ठारह पुराण बना दिए। इस तरह इन अट्ठारह पुराणों के निर्माण की घटना को पुराणों के विकास का द्वितीय चरण माना जा सकता है। इन अठारह पुराणों में से प्रत्येक पुराण के आरंभ के अंश को जिसे व्यास ने अभिव्यक्त या प्रकाशित किया, आदि पुराण1 कहते हैं। मूल कथा व्यास द्वारा रचित है। जब व्यास इन अट्ठारह पुराणों की रचना कर चुके, तब उन्होंने इनको अपने शिष्य रोमहर्षण को सुनाया। रोमहर्षण द्वारा रचित पुराणों का तीसरा संस्करण बना है। रोमहर्षण के छह शिष्य थे। इनमें से तीन शिष्यों, कश्यप, सावर्णी और वैशम्पायन, ने भी अपने-अपने संस्करण तैयार किए, जिन्हें पुराणों का चौथा संस्करण कहा जा सकता है। ये तीनों संस्करण अलग-अलग इन्हीं तीनों के नाम से जाने जाते हैं। भविष्य पुराण के अनुसार पुराणों में संशोधन राजा विक्रमादित्य2 के शासन-काल में हुआ।
अब पुराणों की कथावस्तु के बारे में विचार करें। प्राचीनकाल से ही पुराण ज्ञान की एक शाखा रहा है। इसे इतिहास से भिन्न माना गया है। इतिहास का अर्थ था किसी शासक राजा से संबंधित प्राचीन घटनाओं का वर्णन। आख्यान से तात्पर्य था, आंखों देखी घटनाओं का मौखिक रूप से कथन। इसी तरह उपाख्यान सुनी हुई कथा के पुनर्कथन को कहते थे। पूर्वजों, प्रकृति और ब्रह्मांड विषयक गीतों को गाथा कहा जाता था।
श्राद्ध और कल्प3 विषयक प्राचीन कर्मकांडों को कल्पशुद्धि4 कहते थे। ज्ञान की इन
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- आदि पुराण का यह अर्थ नहीं है कि यह इस नाम से एक अलग पुराण है। इसका अर्थ प्रत्येक अट्ठारह पुराणों के प्रथम संस्करण से है।
- विक्रमादित्य कौन है, यह कोई नहीं जानता।
- श्री हजारा (कल्प शुद्धि के बजाय) कल्प ज्योति कहते हैं, जिसका अर्थ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही जनश्रुति से है-देखें, पुराण के कालतत्व, पृ. 4
- ‘कल्प’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है, जैसे, 1. व्यवहारिक, 2. उचित, और 3. योग्य, सक्षम। अन्य स्थानों में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है जैसे, 1. धार्मिक नियम, 2. निर्धारित विकल्प, 3. अनुष्ठान में निर्मित, 4. संसार का अंत, प्रलय, 5. ब्रह्म युग का एक दिन, 6. रोगी का उपचार, और 7. छह वेदांगों में से एक, जिसमें अनुष्ठान तथा विभिन्न पर्व और यज्ञ-कर्म संपन्न करने की विधि निर्धारित की गई है।
शाखाओं से पुराण भिन्न माने जाते थे। पुराण में ये पांच विषय होते थेः 1. सर्ग, 2. प्रति सर्ग, 3. वंश, 4. मन्वंतर, और 5. वंशचरित। सर्ग का अर्थ है ब्रह्मांड की रचना, प्रति सर्ग का अर्थ है ब्रह्मांड का विलय। वंश से तात्पर्य है जीवन का क्रम, अर्थात वंशावली। विभिन्न मनुओं के युगों को मन्वंतर कहते थे, विशेष रूप से उन चौदह मनुओं की परंपराको जिनसे इस पृथ्वी पर सृष्टि का विकास हुआ माना जाता है। वंशचरित से तात्पर्य है, राजा-महाराजाओं की पीढ़ियों का वर्णन।
पुराणों की विषय-वस्तु के क्षेत्र में पर्याप्त विस्तार हुआ लगता है क्योंकि आज पुराण जिन रूपों में मिलते हैं, उनमें उनकी विषय-वस्तु उपर्युक्त पांच विषयों तक ही सीमित नहीं है। उनमें इन पांच निर्धारित विषयों के अतिरिक्त भी अनेक नए विषय सम्मिलित हो गए हैं। वस्तुतः पुराणों के विषय-क्षेत्र की अवधारणा में ही इतना परिवर्तन हो गया है कि कुछ पुराणों में तो पूर्व-निर्धारित विषयों में से किसी का विवेचन मिलता ही नहीं, उलटे उनमें केवल नए अथवा अतिरिक्त विषयों का विवेचन ही हुआ है। इन अतिरिक्त विषयों में निम्नलिखित विषय सम्मिलित हैं:
- स्मृति धर्म-(क) वर्णाश्रम धर्म, (ख) आचार, (ग) अहनिका, (घ)भाष्याभाष्य, (घ) विवाह, (च) अशौच, (छ) श्राद्ध, (ज) द्रव्यशुद्धि,(झ) पताका, (ट) प्रायश्चित, (ठ) नरक, (ड) कर्म विपाक, और (द) युग-धर्म,
- व्रत धर्म-व्रत रखना, पर्व का पालन,
- क्षेत्र धर्म-तीर्थ यात्र, और
- दान धर्म-दान-पुण्य करना।
इनके अतिरिक्त दो विषय और हैं, जिनके बारे में इन पुराणों में बहुत-कुछ कहा गया है।
पहला विषय किसी मत या पंथ विशेष की पूजा-आराधना से संबंधित है। हर पुराण का कोई न कोई इष्ट देवता है और वह पुराण उसी देवता की आराधना-पद्धति अपनाने और उसी देवता को अपना इष्ट बनाने पर बल देता है। अट्ठारह पुराणों में से पांच पुराण1 विष्णु की आराधना पर बल देते हैं। आठ2 शिव पूजा पर, एक3 ब्राह्मण की पूजा पर, एक4 सूर्य की पूजा पर, दो देवी की पूजा पर और एक गणेश की पूजा पर।
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- (1) विष्णु (2) भागवत् (3) नारद (4) वामन और (5) गरुड़
- (1) शिव, (2) ब्रह्म, (3) लिंग, (4) वराह, (5) स्कंद, (6) मत्स्य, (7) कर्म, और (8) ब्रह्मांड
- पद्म
- अग्नि
पुराणों की कथा-वस्तु का दूसरा सर्वाधिक प्रिय विषय है, ईश्वर के अवतार। पुराणों में भगवान का वास्तविक स्वरूप क्या है, और ईश्वर ने कौन-कौन से अवतार धारण किए थे, इसमें भेद किया गया है। जहां तक ईश्वर के स्वरूप का प्रश्न है, पुराण कहते हैं कि ईश्वर की सत्ता तो एक ही है किंतु उसे दो नामों से जाना जाता है। पर जब ईश्वर मानव या पशु के रूप में अवतार लेता है, तो वह कुछ न कुछ चमत्कार अवश्य दिखाता है। अवतारवाद के बारे में जानने का सर्वाधिक उपयोगी स्त्रेत विष्णु पुराण है, क्योंकि केवल विष्णु ने ही समय-समय पर अवतार लेकर अनेक अलौकिक कार्य किए हैं। पुराणों में अवतारवाद के इसी विषय पर अत्यंत विस्तार से चर्चा मिलती है।
यदि यह कहा जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि इन्हीं नए विषयों के विस्तार से जुड़ जाने के कारण पुराणों के असली स्वरूप को पहचानना कठिन हो गया है।
पुराणों के वास्तविक रचयिता कौन थे, यह प्रश्न भी विचारणीय है, क्योंकि ऐसा लगता है कि रचयिताओं के नाम बदलते रहें हैं। प्राचीन हिंदुओं में साहित्य सृष्टाओं के दो अलग-अलग वर्ग थे। एक वर्ग ब्राह्मणों का था, तो दूसरा सूतों का। ये सूत ब्राह्मणेत्तर थे। दोनों वर्गों ने अलग-अलग प्रकार के साहित्य की रचना की। सूतों का एकाधिकार पुराणों पर था। इन पुराणों की रचना अथवा इनके कथा-वाचन से ब्राह्मणों का कोई संबंध नहीं था। यह केवल सूतों के लिए आरक्षित था और इससे ब्राह्मणों का कोई संबंध नहीं था। यद्यपि सूतों ने पुराणों की रचना और उनके वाचन का पैतृक अधिकार प्राप्त कर लिया था और यह कार्य उनके लिए निर्धारित हो गया था, किंतु एक समय ऐसा आया जब ब्राह्मणों ने सूतों के हाथ से यह व्यवसाय छीनकर उस पर अपना एकाधिकार जमा लिया। इस प्रकार पुराणों के रचयिता बदल गए। सूतों के स्थान पर अब ब्राह्मण थे जो इनके रचयिता हो गए।1
जब पुराणों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित हो गया, तथा कदाचित इनके अंतिम संस्करण तैयार हुए और उनमें नए-नए विषय जोड़ दिए गए। नए-नए विषय जुड़ जाने से इनमें जो परिवर्धन-संशोधन हुए, वे अभूतपूर्व थे। ब्राह्मणों ने परंपरा से प्राप्त पुराणों कें अनेक नए अध्याय जोड़ दिए, पुराने अध्यायों को बदलकर नए अध्याय लिख दिए और पुराने नामों से ही अध्याय रच दिए। इस तरह इस प्रक्रिया से कुछ पुराणों की पहले वाली सामग्री ज्यों-की-त्यों रही, कुछ की पहले वाली सामग्री लुप्त हो गई, कुछ में नई सामग्री जुड़ गई तो कुछ नई रचनाओं में ही परिवर्तित हो गए।
पुराणों के रचना-काल का निर्धारण टेढ़ी खीर है। ब्राह्मणों ने जिन-जिन इतिहास ग्रंथों की रचना की, उनमें निर्माण-तिथि का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। पुराण भी इसके अपवाद नहीं रहे। इसलिए पुराणों के रचना-काल का निर्धारण भी उन अन्य साक्ष्यों
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- पार्टिजर
के आधार पर ही किया जा सकता है, जिनसे संबंधित घटनाओं की तिथियां मान्य हो चुकी हैं। कौन-सा पुराण कब लिखा गया, इस विषय पर उतनी बारीकी से अभी तक विचार नहीं हुआ है, जितना अन्य ब्राह्मणवादी साहित्यिक विधाओं पर हो चुका है। विद्वान शोधकर्ताओं ने वैदिक साहित्य पर जितना अधिक ध्यान दिया है, उतना पुराण साहित्य पर नहीं दिया लगता है। मेरी जानकारी के अनुसार अब तक केवल श्री हजारा ने ही पुराणों के काल-निर्धारण के क्षेत्र में काम किया है। उनके काम का सारांश नीचे दिया जा रहा है:
पुराण रचना-काल
- मार्कंडेय सन् 200.600 के बीच
- वायु सन् 200.500 के बीच
- ब्रह्मांड सन् 200.500 के बीच
- विष्णु सन् 100.350 के बीच
- मत्स्य कुछ अंश लगभग सन् 325
कुछ अंश लगभग सन् 1100
- भागवत् सन् 500.600 के बीच
- कूर्म सन् 550.1000 के बी
- वामन सन् 700.1000 के बीच
- लिंग सन् 600.1000 के बीच
- वराह सन् 800.1500 के बीच
- पद्म सन् 600.950 के बीच
- बृहन्नारदीय सन् 875.1000 के बीच
- अग्नि सन् 800.900 के बीच
- गरुड़ सन् 850.1000 के बीच
- ब्रह्म सन् 900.1000 के बीच
- स्कंद सन् 700 के बाद
- ब्रह्म वैवर्त सन् 700 के बाद
- भविष्य सन् 500 के बाद
पुराणों के रचना-काल का इससे अधिक सटीक निर्धारण फिलहाल संभव नहीं है। नई खोज से इस अवधि की ऊपरी और निचली, दोनों सीमाओं का पुनर्निर्धारण तो हो सकता है पर इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस अवधि में कोई आमूल परिवर्तन हो जाए, अर्थात शताब्दियों का अंतर आ जाए।
उपर्युक्त संक्षिप्त सर्वेक्षण से यह बात साफ हो जाती है कि पुराण साहित्य की रचना बुद्धेतर काल में हुई थी। सर्वेक्षण से एक और महत्वपूर्ण तथ्य सिद्ध होता है कि पुराण साहित्य पुष्यमित्र के नेतृत्व में ब्राह्मणों की विजय के बाद के काल में लिखा गया था। इस सर्वेक्षण से एक बात और सामने आती है, वह यह है कि व्यास ने ही महाभारत की रचना की, व्यास ने ही गीता रची और व्यास ने ही पुराण भी लिखे। महाभारत में अट्ठारह पर्व हैं, गीता में अठारह अध्याय हैं और पुराणों की संख्या भी अट्ठारह है। तो क्या यह संख्या संयोग मात्र है? या यह एक सुनियोजित, अर्थात सोची-समझी युक्ति या किसी विद्वत गोष्ठी में हुई सहमति का परिणाम? इसका उत्तर पाने के लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी।
III
वेदांत सूत्र
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, बादरायण के वेदांत सूत्र जैमिनि के कर्म सूत्रें की ही तरह ज्ञान की एक विशेष शाखा है। सहज ही पूछा जा सकता है कि इन दोनों संप्रदायों के प्रणोताओं की एक-दूसरे की विचारधाराओं के बारे में क्या धारणा थी? जब इसके बारे में खोज-खबर लेने का हम प्रयत्न करते हैं, तो हमें बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य ज्ञात होते हैं। प्रो- बैलवल्कर1 के शब्दों में एक तो यह कि ‘वेदांत सूत्रें की रचना पूरी तरह कर्म सूत्रें के अनुकरण पर ही हुई है।’ रचना-पद्धति और शब्दावली, दोनों ही दृष्टियों से जैमिनि ने जो नियम निर्धारित किए, उन्हें बादरायण ने ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया। पारिभाषिक शब्द और उनके आशय, दोनों में ही समान अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। बादरायण ने वही दृष्टांत दिए हैं, जो जैमिनि ने दिए हैं।
यह समानता तो थोड़ी कम आश्चर्यकारी है। अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब हम यह देखते हैं कि एक-दूसरे की विचारधाराओं के प्रति उनकी धारणाएं क्या थीं। मैं एक उदाहरण देता हूं।
बादरायण ने वेदांत के बारे में जैमिनि के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित सूत्र उद्धृत किए हैं2:
_______________________
- बसु मलिक लेक्चर्स, पृ. 152
- स्वामी वीरेश्वरानंद-ब्रह्म सूत्र (अद्वैत आश्रम, संस्करण, 1936) पृ. 408.11
- चूंकि (यज्ञादि कर्मों में) (आत्मा) गौण होती है (आत्मा-ज्ञान के फल) केवल कर्ता के गुण बताते हैं, यह अन्य विषयों के संबंध में भी है, ऐसा जैमिनि कहते हैं।
जैमिनि के अनुसार वेद कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, जिसमें मोक्ष की प्राप्ति सम्मिलित है, इससे अधिक कुछ और नहीं, केवल विधियां निर्धारित करते हैं। उनका तर्क है कि आत्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त होने से कुछ पृथक परिणाम नहीं प्राप्त होते हैं, जैसा कि वेदांत का मत है, बल्कि उसका संबंध कर्ता के माध्यम से कार्यों से है। जब तक किसी को इस बात का विश्वास न हो कि इसकी सत्ता शरीर से भिन्न है और मृत्यु के बाद वह स्वर्ग जाएगा जहां वह (अपने द्वारा किए गए) यज्ञादि कर्मों के परिणामों का भोग करेगा, कोई भी कोई यज्ञ-कर्म नहीं करता है। आत्मा-ज्ञान से संबंधित ग्रंथों से केवल कर्ता का ज्ञान होता है और इसलिए यह यज्ञादि कर्म के अधीन है। वेदांत के ग्रंथ आत्मा के ज्ञान के संबंध में जिन परिणामों को घोषित करते हैं, वह अन्य विषयों से संबंधित है, चाहे यह ग्रंथ ऐसे परिणामों को गुण के रूप में क्यों न घोषित करते हों। सार रूप में जैमिनि का मत है कि इस ज्ञान से कि उसकी आत्मा शरीर के बाद भी जीवित रहेगी, कर्ता यज्ञ-कर्म करने के लिए सक्षम हो जाता है, जैसे कि शुद्धि संबंधी संस्कार करने से अन्य वस्तुएं यज्ञ-कर्म के बाद सक्षम हो जाती हैं।’
- चूंकि (इस प्रकार के धर्मग्रंथों से) हमें (आत्म ज्ञान वाले व्यक्तियों के) आचरण का बोध होता है।
जनक, विदेह के राजा, ने एक यज्ञ किया, जिसमें दानादि मुक्त रूप से दिए गए (बृहस्पति 3.1.1)। ‘अर्थात ऋषियों, मैं एक यज्ञ करूंगा।’ (छान्दोज्ञ 5.11.5)। ये दोनों अर्थात जनक और अश्वपति आत्मा के ज्ञाता थे। अगर आत्मा के इस ज्ञान द्वारा उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, तब उन्हें यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन उपर्युक्त उदाहरणों से पता चलता है कि उन्होंने यज्ञ किया था। इससे सिद्ध होता है कि किसी को केवल यज्ञ करने से मोक्ष मिल सकता है, न कि आत्मा का ज्ञान होने से, जैसा कि वेदांती लोग कहते हैं।
- धर्मग्रंथ प्रत्यक्षतः घोषित करते हैं कि (यज्ञादि कर्मों की तुलना में) आत्मा का ज्ञान होना गौण बात हैः
‘जो ज्ञान, श्रद्धा और ध्यानपूर्वक किया जाता है, वही अधिक तेजस्वी होता है’ (छान्दोज्ञ 1.1.10)। इस पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान यज्ञ-कर्म का एक अंग है।
- चूंकि दोनों (ज्ञान और कर्म) (मृत जीव के साथ फल के लिए) साथ जाते हैं। ‘इसके बाद ज्ञान, कर्म और विगत अनुभव जाते हैं’ (बृहस्पति 4.4.2)। इस पाठ से पता चलता है कि जीवात्मा के साथ ज्ञान और कर्म आते हैं और जो फल भोगने के लिए निश्चित है उसे उत्पन्न करते हैं। अकेला ज्ञान इस प्रकार फल नहीं उत्पन्न कर सकता।
- चूंकि (धर्मग्रंथ) ऐसे के लिए (कर्म का) आदेश देते हैं (जिसे वेदों के सार का ज्ञान है)।
‘धर्मग्रंथ उन्हीं के लिए कर्म का आदेश देते हैं, जिन्हें वेदों का ज्ञान है (इसमें) आत्मा का ज्ञान सम्मिलित है। इसलिए केवल ज्ञान से कुछ फल नहीं निकलता।’
- और निर्धारित नियमों के कारण ‘यहां कर्म करने के बाद मनुष्य सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा करता है।’ (ईषो- 2)। अग्निहोत्र ऐसा यज्ञ-कर्म है, जो वृद्धावस्था और मृत्यु होने तक चलता रहता है, क्योंकि इससे वृद्धावस्था या मृत्यु द्वारा ही मुक्ति होती है (शत- ब्रा- 12.4.1)। इस प्रकार निर्धारित नियमों से भी हमें पता चलता है कि कर्म की तुलना में ज्ञान का स्थान गौण है।
जैमिनि और कर्मकांड शास्त्रें के बारे में बादरायण का क्या दृष्टिकोण है? इसका स्पष्ट परिचय बादरायण के उस उत्तर में मिलता है जो उन्होंने अपने उक्त सूत्रें में वर्णित वेदांत की जैमिनि द्वारा आलोचना किए जाने पर दिया था। यह उत्तर निम्नलिखित सूत्रें में है1:
- लेकिन चूंकि (धर्मग्रंथ) यह शिक्षा देते हैं कि (आत्मा) (कर्ता से) पृथक होती है, बादरायण का दृष्टिकोण सही है, क्योंकि यही धर्मग्रंथों में मिलता है।
सूत्र 2.7 में मीमांसकों का दृष्टिकोण दिया गया है, जिसका खंडन सूत्र 8.17 में मिलता है।
वेदांत के सूत्र सीमित आत्मा की शिक्षा नहीं देते, जो कर्ता होती है बल्कि ‘आत्मा’ की शिक्षा देते हैं जो कर्ता से भिन्न होती है। इस प्रकार वेदांत के ग्रंथ जिस ‘आत्मा’ के ज्ञान की बात करते हैं, वह आत्मा के उस ज्ञान से पृथक होता है जो कर्ता के पास होता है। जो ‘आत्मा’ सभी सीमाओं से मुक्त होती है, उसके ज्ञान से सभी कर्मों में सहायता ही नहीं मिलती, बल्कि सभी कर्म समाप्त भी हो जाते हैं। वेदांत के सूत्र इसी ‘आत्मा’ की शिक्षा देते हैं, यह इसके सूत्रें से स्पष्ट है। इनमें यह हैं-यह जो सब कुछ देखता है और सब कुछ जानता है’ (मुंडको- 1.1.9) ‘हे गार्गी, इस अविकारी के प्रबल शासनमें आदि (बृहस्पति 3.8.9)।
- श्रुति के कथन दोनों दृष्टिकोणों का समान रूप से समर्थन करते हैं।
___________________
- स्वामी वीरेश्वरानंद, ब्रह्म सूत्र, पृ. 411.16
‘इस सूत्र इस मत का खंडन करता है, जो सूत्र 3 में व्यक्त हुआ है। वहां यह कहा गया है कि ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत भी जनक और अन्य कर्म में प्रवृत्त थे। इस सूत्र में यह कहा गया है कि धर्मग्रंथ भी इस मत का समर्थन करते हैं कि जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसके लिए कोई कम र् शेष नहीं है। इसी आत्मा का ज्ञान होने के बाद ब्राह्मण पुत्र-पुत्रियों, धन-संपत्ति की आकांक्षा त्याग देता है और संन्यास ले लेता है’ (बृहस्पति 3.5.1)। ‘हमें धर्मग्रंथों से यह भी पता चलता है कि जिन लोगों को आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो गया, उन लोगों ने, जैसे याज्ञवल्क्य ने, कर्म करना त्याग दिया था।’ ‘हे प्रिय, निश्चय ही इतना ही, अमृत तत्व है। ऐसा कहकर याज्ञवल्क्य ने गृह त्याग दिया था’ (बृहस्पति 4.5.15)। जनक और अन्य के कर्म को आसक्ति रहित कर्म की संज्ञा दी गई है। इसलिए यह वस्तुतः कोई कर्म नहीं था। अतः मीमांसा का तर्क कमजोर है।
- (सूत्र-4 में जिस धर्मग्रंथ का उल्लेख है, उसका कथन) विश्वसनीय रूप से सत्य नहीं है।
श्रुति के इस कथन में कि ज्ञान यज्ञादि कर्म के फल में वृद्धि करता है, सभी प्रकार का ज्ञान शामिल नहीं है, क्योंकि यह केवल उद्गीथ से संबंधित है जो इस खंड का विषय है।
- ज्ञान और कर्म भाग हैं, जैसे एक सौ (को दो व्यक्तियों में विभाजित कर दिया जाए) के संबंध में।
यह सूत्र पांचवें सूत्र का खंडन करता है। ‘इसके बाद ज्ञान, कर्म और विगत अनुभव आते हैं’ (बृहस्पति 4.4.2)। यहां हमें ज्ञान और कर्म को व्यष्टि भाव के आधार पर ग्रहण करना होगा, अर्थात ज्ञान किसी एक, और कर्म किसी दूसरे का अनुसरण करता है। यह उसी प्रकार है जैसे हम, जब यह कहते हैं कि यह सौ (मुद्राएं) इन दो व्यक्तियों को दे दी जाएं, तब हम इसे बराबर दो भागों में बांटते हैं और प्रत्येक को पचास-पचास मुद्राएं देते हैं। यह दो अलग हो जाते हैं। इस व्याख्या के बिना भी पांचवें सूत्र का खंडन किया जा सकता है, क्योंकि उद्धृत पाठ केवल ज्ञान और कर्म का उल्लेख है, जिसका संबंध अंतरणशील आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। इस पाठ से कि ऐसा वह व्यक्ति करता है जो इच्छा (अंतरण) करता है (बृह- 4.4.6), यह प्रतीत होता है कि पूर्ववर्ती पाठ में अंतरणशील आत्मा के विषय में है। मुक्त आत्मा के विषय में श्रुति का कथन है, ‘किंतु वह व्यक्ति जो कभी भी इच्छा नहीं करता (कभी भी अंतरण नहीं करता)’ आदि (बृह- 4.46)।
- धर्मग्रंथ केवल उन लोगों के लिए कर्म का आदेश देते हैं, जिन्होंने वेदों का अध्ययन कर लिया है। यह सूत्र छठे सूत्र का खंडन करता है। जिन व्यक्तियों ने वेद पढ़ लिए हैं और यज्ञादि को समझ लिया है, वे कर्म करने के अधिकारी हैं। जिन व्यक्तियों को उपनिषदों से ज्ञान प्राप्त है, उनके लिए कोई कर्म निर्धारित नहीं है। ऐसा ज्ञान कर्म के साथ मेल नहीं खाता है।
- चूंकि (जैमिनि) का कोई विशेष उल्लेख नहीं है, इसलिए यह उन पर लागू नहीं होता।
यह सूत्र सातवें सूत्र का खंडन करता है। वहां ईशोपनिषद् से जो पाठ उद्धृत किया गया है, वह एक सामान्य कथन है और उसमें ऐसा कोई विशेष उल्लेख नहीं है कि यह ज्ञानी पर भी लागू होता है। इस प्रकार के सटीक कथन के अभाव में यह उसके लिए अनिवार्य नहीं है।
- अथवा (कर्म करने की) अनुमति ज्ञान की स्तुति मात्र है।
जिन व्यक्तिों को आत्मा का ज्ञान है, उनके लिए कर्म करने का आदेश उक्त ज्ञान के गौरव को पुष्ट करता है। वह इस प्रकार देखा जा सकता हैः जिसको आत्मा का ज्ञान है, वह आजीवन कर्म करता रहे लेकिन उक्त ज्ञान के कारण वह उसके प्रभाव से आबद्ध नहीं होगा।
- और कुछ अपनी इच्छा के अनुसार (सभी कर्मों से विरत हो जाते हैं)।
सूत्र 3 में कहा गया है कि जनक और अन्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद भी कर्म में रत थे। यह सूत्र कहता है कि कुछ ने स्वयं सभी कर्म त्याग दिए थे। स्थिति यह है कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद कुछ लोग अन्य व्यक्तियों के लिए आदर्श रूप कर्म करते हैं, जब कि शेष सभी कर्मों का त्याग कर सकते हैं। कर्म के संबंध में आत्मा का ज्ञान वाले व्यक्तियों पर कोई अनिवार्यता नहीं है।
- और (धर्मग्रंथ कहते हैं कि) (कर्म करने की सभी अर्हताओं की) समाप्ति ज्ञान (प्राप्त होने के कारण होती है)।
ज्ञान सभी प्रकार के अज्ञान और उससे उत्पन्न कारक, कार्य और परिणाम आदि को नष्ट कर देता है।’ लेकिन जब ब्राह्मण के ज्ञाता को सभी वस्तुएं आत्मा हो जाती हैं, तब व्यक्ति को क्या देखना चाहिए और किसके माध्यम से देखना चाहिए आदि (बृह- 4.5.15)। आत्मा का ज्ञान सभी प्रकार के कर्म को निष्फल कर देता है। अतः यह संभवतः कर्म की अपेक्षा गौण नहीं है।
- और जो लोग संयम का आचरण करते हैं वही ज्ञानी हैं (अर्थात संन्यासियों को), क्योंकि धर्मग्रंथों में (इस चतुर्थ आश्रम का) उल्लेख हुआ है।
‘धर्मग्रंथों का कहना है कि ज्ञान की प्राप्ति जीवन की उस अवस्था में होती है, जिसमें संयम का पालन निर्धारित होता है, अर्थात चतुर्थ अवस्था या संन्यास आश्रम। संन्यासी के लिए विवेक के अतिरिक्त कुछ भी निर्धारित नहीं है इसलिए, कर्म की अपेक्षा ज्ञान किस प्रकार गौण हो सकता है। हमें धर्मग्रंथों में ही जीवन की ऐसी अवस्था का उल्लेख मिलता है जिसे संन्यास कहते हैं, जैसे कर्तव्य की तीन शाखाएं हैं। पहली है त्याग, अध्ययन और सद्भाव… ये तीनों शाखाएं सद्गुण के संसार को प्राप्त करती हैं, लेकिन केवल उसी को अमरता प्राप्त होती है, जो ब्राह्मण में पूर्व तीन हैं (छान्दो- 2.33.1-2)। ‘इस संसार (आत्मा) की इच्छा से ही भिक्षु अपने-अपने घरों को त्याग देते हैं।’ (बृ- 4.4.22), मुड़ 1.2.111 और छान्दो- 5.10.1 भी देखिए। प्रत्येक व्यक्ति गृही हुए बिना इस जीवन को अपना सकता है, जिससे ज्ञान की स्वतंत्र स्थिति का पता चलता है।’
बादरायण के सूत्रें में अनेक ऐसे सूत्र हैं, जिनमें इन दोनों संप्रदायों के एक-दूसरे के प्रति विचारों का परिचय मिल सकता है। किंतु यहां एक ही पर्याप्त है क्योंकि यह उदाहरण के रूप में प्रतीक बन गया है। अगर कोई किसी बात पर तर्क करना बंद कर देता है, तब स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। जैमिनि वेदांत की निंदा उसे एक झूठा शास्त्र, धोखाधड़ी, बहुत कुछ सतही, अनावश्यक और तत्वहीन कह कर करते हैं। इस प्रकार की आलोचना होती देख बादरायण क्या करते हैं? वह अपने ही वेदांत शास्त्र की पुष्टि करते हैं। बादरायण से किसी ने यही अपेक्षा की होगी कि वह जैमिनि के कर्मकांड की निंदा उसे एक झूठा धर्म कह कर करते। बादरायण ऐसा कोई साहस नहीं करते। उल्टे, वह बहुत ही नम्र हैं। वह यह स्वीकार कर लेते हैं कि जैमिनि का कर्मकांड धर्मग्रंथों पर आधारित है और उसका खंडन नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर वह इस बात पर जोर देते हैं कि उनके वेदांत का सिद्धांत भी सही है, क्योंकि इसे भी धर्मग्रंथों का समर्थन प्राप्त है। बादरायण के इस रवैये के बारे में कुछ स्पष्टकिरण आवश्यक है।
भगवत्गीता
भगवत्गीता, महाभारत नामक महाकाव्य के भीष्म पर्व का अंग है। यह महाकाव्यमुख्यतः चचेरे भाइयों, धृतराष्ट्र-पुत्र कौरवों और पांडु-पुत्र पांडवों के बीच प्रभुसत्ता के संबंध में परस्पर संघर्ष से संबंधित है। पांडु, धृतराष्ट्र का अनुज था। धृतराष्ट्र के अंधे होने की वजह से राजसिंहासन पर पांडु बैठा। पांडु की असामयिक मृत्यु के पश्चात पांडवों और धृतराष्ट्र-पुत्र कौरवों के बीच राजसिंहासन के उत्तराधिकार के प्रश्न पर कलह शुरू हो गया। इस संघर्ष की चरम परिणति कुरुक्षेत्र (आधुनिक पानीपत के पास) के युद्ध के रूप में हुई। इस युद्ध में कृष्ण ने पांडवों का साथ दिया और वह उनका पथप्रदर्शक, मित्र और दार्शनिक, तीनों ही था। लेकिन वह पांडवों में से उनके भाई अर्जुन का सारथी, अर्थात रथ-चालक बना।
कौरवों और पांडवों की सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए तैयार खड़ी हैं। सारथी के रूप में कृष्ण के साथ अर्जुन रथ में आरूढ़ होकर युद्ध के मैदान में आते हैं और पांडव सेना के अग्र भाग में अपना स्थान ग्रहण करते हैं। युद्ध की कामना के लिए वह शूरवीर अपनी विपक्षी कौरव सेना को निहारता है, तो उसे चारों ओर अपना ही कुल, अपने ही बंधु-बांधव, अपने ही गुरुजन दिखाई पड़ते हैं। स्वजनों के साथ होने वाले इस भयानक युद्ध में उसे अपने ही भाइयों-भतीजों, अपने ही गुरुजनों, अपने ही स्नेहियों, अपने ही श्रद्धेयों, आदि का रक्तपात करना पड़ेगा, इस विचार के आते ही वह युद्ध की भयानकता के परिणाम से भय-ग्रस्त हो जाता है। उसके मन में विषाद उत्पन्न होता है और वह अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग कर युद्ध से मना कर देता है। कृष्ण उसके साथ तर्क-वितर्क करते हैं और उसे युद्ध करने के लिए उकसाते हैं। अर्जुन और कृष्ण के बीच का यही वाद-विवाद प्रश्नोत्तर रूप में गीता है। कृष्णार्जुन-संवाद के परिणामस्वरूप अंत में अर्जुन युद्ध करने के लिए तैयार हो जाता है।
भगवत्गीता का आरंभ वृद्ध धृतराष्ट्र और संजय के बीच युद्ध करने के बारे में बातचीत से होता है। कौरवों का पिता धृतराष्ट्र युद्ध-काल में जीवित होते हुए भी अंधा होने की वजह से स्वयं कुछ नहीं देख सकता। युद्ध-भूमि में क्या-क्या हो रहा है, यह जानने के लिए वह दूसरे पर आश्रित है। धृतराष्ट्र को युद्ध-भूमि का आंखों देखा हाल कौन सुनाएगा, इस कठिनाई का पूर्वाभास होने पर कहते हैं कि महाभारतकार व्यास ने धृतराष्ट्र का रथ हांकने वाले संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि वह युद्ध-क्षेत्र में होने वाली प्रत्येक घटना को, घटना ही नहीं मनुष्य के मन में उठने वाले सभी विचारों को जान ले और उन्हें ज्यों-का-त्यों धृतराष्ट्र को सुना दे। इसलिए भगवत्गीता की कथा मुख्यतः धृतराष्ट्र और संजय के बीच हुए प्रश्नोत्तरों के रूप में है। किन्तु गीता वस्तुतः अर्जुन और कृष्ण के बीच हुई बातचीत से संबंधित है। इसलिए तो इसे ‘कृष्णार्जुन संवाद’ कहा गया है, जो उचित जान पड़ता है।
इस कृष्णार्जुन संवाद में, जो भगवत्गीता का वास्तविक नाम है, विवाद का मुख्य विषय यह है कि युद्ध किया जाए या नहीं। विवाद का और कोई प्रश्न नहीं है। केवल इसी विषय पर दोनों में वाद-विवाद होता है। केवल इसी दृष्टिकोण से विचार करें तो स्पष्ट है कि तब यह अवसर नहीं था कि कृष्ण सामान्य जनता को नैतिक उपदेश दे या कि वह अपनी किसी धार्मिक मान्यता का प्रतिपादन करे अथवा किसी पंथ विशेष की प्रश्नोत्तरी शैली का सहारा ले। किंतु गीता में यही बात तो उभरकर सामने आती है। अर्जुन का प्रश्न था, युद्ध करूं या नहीं? कृष्ण का उत्तर हां या न में आना चाहिए था, किंतु कहते हैं, गीता में तो कृष्ण ने अर्जुन को अपना सारा-का-सारा धर्म संदेश ही सुना दिया।
सबसे पहला प्रश्न है, यह कृष्ण कौन है? आश्चर्य है कि गीता में ही इस प्रश्न के अनेक प्रकार के उत्तर निहित हैं। गीता के आरंभ में कृष्ण एक सामान्य मानव के रूप में, अर्थात मानवीय व्यक्तित्व लिए उभरता है। वह योद्धा है। महान योद्धा होने के बावजूद वह अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार करता है।1 अर्जुन का रथ चलाने जैसा तुच्छ समझा जाने वाला काम अपनाता है। मानव से वह अतिमानव बन जाता है जो युद्ध का संचालक और नियामक ही नहीं, अपितु उसका भविष्य-दृष्टा भी है। अतिमानव से उसका विकास, देवतुल्य मानव और अधिनायक के रूप में होता है। जब उसके सारे तर्क अर्जुन को युद्ध के लिए सन्नद्ध करने में असफल हो जाते हैं, तो वह सीधे तौर पर अर्जुन को युद्ध करने का आदेश देता है और इस तरह भय-ग्रस्त अर्जुन उठ खड़ा होता है और उसके कथनानुसार कार्य करने को तैयार हो जाता है। तब देवतुल्य मानव से उठकर वह ईश्वर का स्थान ग्रहण कर लेता है। इस प्रसंग में उसे ईश्वर ही कहा गया है।
उपर्युक्त विवरणानुसार कृष्ण के व्यक्तित्व का निरंतर विकास हुआ है किंतु इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसी गीता में कृष्ण को ईश्वर के अन्य रूपों का प्रतिनिधित्व करने वाला भी बताया गया है। यदि कोई व्यक्ति, चाहे संयोगवश ही गीता का पाठ क्यों न करे, उसे कृष्ण के इस प्रकार के चार प्रतिनिधि चरित्रें की अवश्य जानकारी मिल जायेगी। कृष्ण वासुदेव हैः
भगवत्गीता
10.37. वृष्णिकुल में मैं वासुदेव हूं, पांडवों में धनंजय मैं हूं, मुनियों में व्यास मैं हूं, ऋषियों के लिए ऋषि उशना मैं हूं।
कृष्ण, विष्णु भगवान के अवतार हैं
10.12. आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम हैं, परम पवित्र हैं।
10.21. आदित्यों में विष्णु मैं हूं, ज्योतिष्कों में ज्योतिष्मान सूर्य मैं हूं, वायुओं मेंमरीचि मैं हूं, तारापुंज में चंद्र मैं हूं।
11.24. आपको आकाश का स्पर्श करते, नाना वर्णों में जगमगाते, आपके मुख को विशाल रूप से विवृत और आपके दीप्तमान विशाल नेत्रें को देखकर हे विष्णु, मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है और मैं धैर्य या शांति नहीं रख पा रहा हूं।
_________________________
- यह घटना कृष्ण और कौरवों के नायक दुर्योधन के बीच हुए समझौते का परिणाम थी। युद्ध शुरू होने से पहले एक बार कृष्ण दुर्योधन के पास पहुंचा और उसे कौरवों की ओर लड़ने के लिए आमंत्रित किया। कृष्ण ने दुर्योधन के सामने विकल्प रखा, मुझे चाहते हो या मेरी यादव सेना को। दुर्योधन ने यादव सेना को लेना स्वीकार किया। इसलिए कृष्ण और यादव सेना परस्पर दलों के साथ थे।
11.30. हे विष्णु! आप सब लोकों को सब ओर से निगलकर अपने धधकते हुए मुख से उन्हें चाट रहे हैं। हे सर्वव्यापी विष्णु! आपका उग्र प्रकाश समूचे जगत को तेज से पूरित कर रहा है और तपा रहा है।
कृष्ण शंकर के भी अवतार हैं:
10.23. रुद्रों में शंकर मैं हूं, यक्ष और राक्षसों में कुबेर मैं हूं, वसुओं में अग्नि मैं हूं, पर्वतों में मेरु मैं हूं।
कृष्ण ब्रह्मा हैं:
15.15. मैं सबके हृदय में अधिष्ठित हूं। स्मृति, ज्ञान और उनका अभाव मेरे कारण होता है। मैं वस्तुतः वह हूं जो समस्त वेदों जानने योग्य है। वेदांत का प्रणेता वस्तुतः
मैं हूं और वेदों का ज्ञाता भी मैं हूं।
15.16. इस लोक में दो पुरुष हैं। एक क्षर और दूसरा अक्षर है। सभी जीव क्षर हैं और उनमें जो आत्मा है, वह अक्षर कहलाती है।
15.17. इसके सिवाय कुछ और है परम पुरुष, जो परमात्मा कहलाता है। अव्यय ईश्वर जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पोषण करता है।
15.18. चूंकि मैं क्षर से परे हूं, इसलिए वेदों और लोकों में मैं पुरुषोतम नाम से प्रख्यात हूं।
15.19. हे भरत के वंशज! जो मोह रहित होकर मुझे पुरुषोतम को इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ जानता है और मुझे पूर्ण भाव से भजता है।
अब अगला प्रश्न लें। कृष्ण ने अर्जुन को किस सिद्धांत का उपदेश दिया? कहा जाता है कि यह सिद्धांत मोक्ष का सिद्धांत है। यद्यपि कृष्ण ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, वह मोक्ष से संबंधित है किंतु कृष्ण ने तो मोक्ष के तीन अलग-अलग सिद्धांतों का उपदेश दिया है।
‘ज्ञानमार्ग’ से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है जिसका सांख्य योग ने प्रतिपादन किया है।
2.39. तुझे आत्मज्ञान के गुण के विषय में बताया गया, अब तू योग के विषय में सुन। हे पार्थ, इसे सुनकर तू कर्म के बंधनों का नाश करेगा।
यह सांख्य योग पर उपदेश का अंतिम छंद है, जिसकी व्याख्या दूसरे अध्याय के ग्यारहवें से सोलहवें और अट्ठाहरवें से तीसवें छंदों में की गई है।
- कर्म मार्ग से मोक्ष प्राप्त हो सकता हैः
5.2. कर्मों का त्याग और योग, दोनों ही मोक्ष देने वाले हैं, इनमें से कर्मों का योगकर्मों के संन्यास से बढ़कर है।
- भक्तिमार्ग से मोक्ष संभव हैः
9.13. लेकिन हे पार्थ, दैवी प्रकृति से मुक्त महात्माजन मुझे सब प्राणियों का कारण और अक्षर स्वरूप जानकर अनन्य मन से मुझे भजते हैं।
9.14. ये लोग मेरी सदा स्तुति करते तथा दृढ़ निश्चय से प्रयत्न करते, भक्तिपूर्वक मुझे प्रणाम करते, सदा संकल्प युक्त मुझे भजते हैं।
9.15. और अन्य लोग भी ज्ञान के यज्ञ के (अर्थात् सभी में आत्मा को देखते हुए, मुझे जो पूर्ण है, जो एक है, जो सबसे पृथक है, जो बहुगुण है, भजते हैं)
9.17. मैं इस जगत का पिता हूं, माता हूं, धाता और पितामह हूं, गेय हूं, ओउम हूं और ऋक्, साम तथा यजुर्वेद हूं।
11.22. जो लोग मुझे अनन्य समझ मेरा ध्यान करते हैं, सभी प्राणियों में भजते हैं:, उनके लिए इस प्रकार मैं सदा उस वस्तु का वहन करता हूं जिसका उनमें अभाव है, मैं उस चीज की रक्षा करता हूं जो उनके पास है।
भगवत्गीता के दो अन्य लक्षण भी हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं।
- वेदों और वैदिक कर्मकांडों तथा बलि के प्रति वितृष्णा प्रकट की गई है:
2.42.44. हे पार्थ, जो लोग भोग विलास में लिप्त हैं और जिनकी बुद्धि को अविवेकी जनों की अलंकारमयी वाणी ने हर लिया है, जिनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं हैं और जो लोग स्वर्ग को अपना चरम लक्ष्य समझते हैं, जो लोग वेदों की चित्ताकर्षक शब्दावली से प्रसन्न होते हैं और यह कहते हैं कि इसके बाद कुछ नहीं है, उन्हें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। उनकी अलंकारमयी वाणी योग और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के विशिष्ट कर्मकांडों के वर्णन से भरीपूरी रहती है, उनके शब्द (नए) जन्मों के कारण रूप होते हैं, ठीक उनके कर्मों के परिणाम की तरह (जो सकाम किए जाते हैं)।
2.45. वेदों में तीन गुणों का वर्णन है, हे अर्जुन, तू अपने को इन तीनों से मुक्त कर सदा संतुलित रह, प्राप्ति और ग्रहण (के विचारों) से मुक्त हो और आत्मस्थित रह।
2.46. ऐसे ब्राह्मण के लिए, जिसने आत्मा को जान लिया है, उसे सभी वेदों सेउतना ही प्रयोजन होता है जितना किसी जलाशय से ऐसे समय होता है जब सर्वत्र zबाढ़ आई होती है।
9.21. इस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर वे पुण्य का क्षय हो जाने पर मृत्युलोक में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों की निषेधाज्ञाओं का पालन करते, इच्छाओं की पूर्ति की कामना लिए वे आते और जाते हैं।
(अपूर्ण)