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5. बौद्ध धर्म की अवनति तथा पतन

डॉ- भीमराव अम्बेडकर ने अंग्रेजी में लिखित ‘रिवोल्यूशन एंड काउंटर-रिवोल्यूशन’ विषयक शोध के एक अंग के रूप में ‘दि डिक्लाइन एंड फाल आफ बुद्धिज्म’ (बौद्ध धर्म की अवनति तथा पतन) शीर्षक लेख लिखा था। उनके कागजों में उसके केवल पांच पृष्ठ मिले, जिन्हें संशोधित भी नहीं किया गया था। डॉ- बाबासाहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को इस निबंध की प्रति श्री एस- एस- रेगे से मिली, जिसमें डॉ- अम्बेडकर द्वारा यत्र तत्र अपनी कलम से किए गए कुछ संशोधन मिलते हैं। अंग्रेजी में यह निबंध अट्ठारह टंकित पृष्ठों में है – संपादक

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भारत से बौद्ध धर्म के लोप हो जाने पर उन सभी लोगों को अत्यधिक आश्चर्य होता है, जिन्होंने इस विषय पर कुछ चिंतन किया है और उन्हें इसकी ऐसी स्थिति देखकर दुख भी होता है। परंतु यह चीन, जापान, बर्मा, स्याम, इंडोचीन, श्रीलंका तथा मलाया द्वीप-समूह में कहीं-कहीं अभी भी विद्यमान है। केवल भारत में ही इसका अस्तित्व नहीं रहा है। भारत में केवल इसका अस्तित्व ही समाप्त नहीं हुआ, बल्कि बुद्ध का नाम भी अधिकांश हिंदुओं के दिमाग से निकल गया है। ऐसा कैसे हो गया, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है। केवल यही बात नहीं है कि इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है, बल्कि किसी भी व्यक्ति ने इसके संतोषजनक उत्तर को ढूंढने का प्रयास भी नहीं किया है। इस विषय पर विचार करते समय लोग एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंतर को भूल जाते हें। यह अंतर बौद्ध धर्म की अवनति और पतन के बीच का है। दोनों में अंतर रखना आवश्यक है। बौद्ध धर्म का पतन एक ऐसी बात है जो उन कारणों से भिन्न है, जिनसे इसकी अवनति हुई। पतन के कारण तो बिल्कुल स्पष्ट हैं, जब कि अवनति के कारण उतने स्पष्ट नहीं हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में बौद्ध धर्म का पतन मुसलमानों के आक्रमणों के कारण हुआ था। इस्लाम ‘बुत’ के शत्रु के रूप में प्रकट हुआ। ‘बुत’ शब्द, जैसा कि लोग जानते हैं, अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ ‘मूर्ति’ है। तथापि, बहुत से लोगों को यह पता नहीं है कि ‘बुत’ शब्द की व्युत्पत्ति कहां से हुई है। ‘बुत’ शब्द अरबी भाषा में बुद्ध का बिगड़ा हुआ रूप है। इस प्रकार इस शब्द की व्युत्पत्ति से यह पता चलता है कि मुसलमान विचारकों की दुष्टि में मूर्तिपूजा और बौद्ध धर्म, दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। मुसलमानों के लिए मूर्तिपूजा तथा बौद्ध धर्म एक जैसे ही थे। इस प्रकार मूर्तिभंजन करने का लक्ष्य, बौद्ध धर्म को नष्ट करने का लक्ष्य बन गया। इस्लाम ने बौद्ध धर्म को केवल भारत में ही नष्ट नहीं किया, बल्कि वह जहां भी गया, वहीं उसने बौद्ध धर्म को मिटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस्लाम धर्म के अस्तित्व में आने से पहले बौद्ध धर्म बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान, गांधार तथा चीनी तुर्किस्तान का धर्म था और एक प्रकार से यह धर्म समूचे एशिया में फैला हुआ था।1 इन सब देशों में इस्लाम ने बौद्ध धर्म को नष्ट किया। जैसा कि विन्सेंट स्मिथ2 ने कहा हैः

“मुसलमान आक्रमणकारियों ने अनेक स्थानों पर जो भीषण हत्याकांड किए, वे रूढ़िवादी हिंदुओं द्वारा किए गए अत्याचारों से कहीं अधिक प्रबल थे और भारत के कई प्रांतों से बौद्ध धर्म के लुप्त होने के लिए भारी जिम्मेदार हैं।”

इस स्पष्टीकरण से सब लोग संतुष्ट नहीं होंगे। यह पर्याप्त नहीं लगता। इस्लाम ने ब्राह्मणवाद तथा बौद्ध धर्म, दोनों पर आक्रमण किया। यह पूछा जा सकता है कि उनमें से एक जीवित क्यों रहा और दूसरा नष्ट क्यों हो गया? यह तर्क युक्तिसंगत तो लगता है, परंतु इससे उक्त सिद्धांत का खंडन नहीं होता। ब्राह्मणवाद जीवित रहा तथा उसका अस्तित्व बना रहा। इस बात को स्वीकार करने का अभिप्राय यह नहीं है कि बौद्ध धर्म का पतन इस्लाम की तलवार की धार, अर्थात उनके आक्रमणों के कारण नहीं हुआ। इसका अभिप्राय केवल यह है कि उस समय कुछ ऐसी परिस्थितियां थीं, जिनके कारण इस्लाम के आक्रमण के सामने ठहरना व जीवित रहना ब्राह्मणवाद के लिए तो संभव था, लेकिन बौद्ध धर्म के लिए असंभव हो गया था।

जो लोग इस विषय पर और अधिक विचार करेंगे, उनको यह पता चलेगा कि उस समय तीन ऐसी विशेष परिस्थितियां थीं, जिन्होंने मुस्लिम आक्रमणों के संकट के सामने ब्राह्मणवाद को टिका व बने रहना संभव और बौद्ध धर्म के लिए असंभव बना दिया था। पहली बात तो यह है कि मुस्लिम आक्रमणों के समय ब्राह्मणवाद को राज्य की सहायता

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  1. आधुनिक अनुसंधानों से पता चलता है कि बौद्ध धर्म यूरोप में फैल गया था और ब्रिटेन में सैल्ट बौद्ध थे। देखिए, डोनाल्ड ए- मैकेंजी की पुस्तक बुद्धिज्म इन प्री-क्रिश्चियन ब्रिटेन
  2. अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (1924)

व समर्थन प्राप्त था। बौद्ध धर्म को ऐसी कोई सहायता व समर्थन प्राप्त नहीं था। तथापि, जो बात अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह है कि ब्राह्मणवाद को राज्य की सहायता व समर्थन तब तक प्राप्त रहा, जब तक इस्लाम एक शांत धर्म के रूप में विकसित नहीं हुआ और उसके अंदर मूर्तिपूजा के विरुद्ध एक लक्ष्य के रूप में प्रारंभ में उन्माद की जो ज्वाला जल रही थी, वह समाप्त नहीं हुई। दूसरी बात यह है कि इस्लाम की तलवार ने बौद्धों के पौरोहित्य को बुरी तरह नष्ट कर दिया और उसे फिर से जीवित नहीं किया जा सका। इसके विपरीत ब्राह्मणवादी पौरोहित्य को मिटाना व नष्ट करना इस्लाम के लिए संभव नहीं हुआ। तीसरी बात यह है कि भारत के ब्राह्मणवादी शासकों ने बौद्ध जनसाधारण पर अत्याचार किए। उनके इस अत्याचार व उत्पीड़न से बचने के लिए भारत के बौद्ध लोगों को बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम को अंगीकर करना पड़ा और उन्होंने बौद्ध धर्म को सदा के लिए छोड़ दिया।

इनमें से कोई भी ऐसा तथ्य नहीं है, जिसकी पुष्टि इतिहास न करता हो।

भारत के जो प्रांत मुस्लिम प्रभुत्व व शासन के अधीन आए थे, उनमें सिंध पहला प्रांत था। इस प्रांत पर पहले एक शूद्र राजा का शासन था। परंतु बाद में उसे एक ब्राह्मण ने अपने राज्य में मिला लिया। वहां उसके वंश का शासन रहा। सन् 712 में जब इब्ने कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण किया गया तो उस समय उसके द्वारा ब्राह्मणवादी धर्म की सहायता करना स्वाभाविक था। सिंध का शासक दाहिर था। इस दाहिर का संबंध ब्राह्मण शासकों के वंश से था।

ह्वेनसांग ने स्वयं अपनी आंखों से यह देखा था कि उसके समय में पंजाब पर एक क्षत्रिय बौद्ध राजवंश का शासन था। इस राजवंश ने पंजाब पर लगभग सन् 880 तक शासन किया। इसके बाद उस राज्य को लल्लिया नामक एक ब्राह्मण सेनाध्यक्ष ने अपने अधीन कर लिया था, जिसने ब्राह्मणशाही राजवंश की स्थापना की। इस वंश ने पंजाब पर सन् 880 से 1021 तक शासन किया। इस प्रकार यह दिखाई पड़ेगा कि जिस समय सुबुक्तगीन तथा मौहम्मद ने पंजाब पर आक्रमण आरंभ किए थे, तब-तब देशी शासक ब्राह्मण धर्मावलंबी थे और जयपाल (960-980 ई-), आनंदपाल (980-1000 ई-) तथा त्रिलोचनपाल (1000-21 ई-) ब्राह्मण धर्मावलंबी शासक थे। सुबुक्तगीन तथा मौहम्मद के साथ इनके संघर्ष के बारे में हमने बहुत पढ़ा है।

मध्य भारत मुस्लिम आक्रमणों से ग्रस्त रहने लगा था। ये आक्रमण मौहम्मद के समय से आरंभ हुए थे और शहाबुद्दीन गौरी के नेतृत्व में जारी रहे। उस समय मध्य भारत में अलग-अलग राज्य थे। मेवाड़ (अब उदयपुर) पर गहलौतों का शासन था,सांभर (अब बूंदी, कोटा तथा सिरोही में विभक्त) पर चौहानों का शासन था, कन्नौज1

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  1. कन्नौज में कुछ नहीं बचा था। यद्यपि पृथ्वीराज ने बड़ी वीरता से उसकी रक्षा की थी, परंतु मौहम्मद ने इसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया था।

पर प्रतिहार, धार पर परमार, बुंदेलखंड पर चंदेल, अन्हिलवाड़ पर चावड़ा और चेदि पर कलचुरि शासन करते थे। इन सभी राज्यों के शासक राजपूत थे और राजपूत कुछ कारणों से, जो रहस्यपूर्ण हैं और जिनकी मैं बाद में चर्चा करूंगा, ब्राह्मणवादी धर्म के सबसे कट्टर समर्थक हो गए थे।

इन आक्रमणों के समय बंगाल दो राज्यों, पूर्वी तथा पश्चिम में, विभक्त हो गयाथा। पश्चिम बंगाल पर पाल वंश के राजाओं का शासन था और पूर्वी बंगाल पर सेन वंश के राजाओं का शासन था।

पाल क्षत्रिय थे। वे बौद्ध धर्मावलंबी थे, परंतु श्री वैद्य1 के शब्दों में, ‘शायद वे केवल प्रारंभ में या नाममात्र के लिए बौद्ध थे।’ सेन राजाओं के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ- भंडारकर का कहना है कि ये सब ब्राह्मण थे, जिन्होंने क्षत्रियों के सैनिक व्यवसाय को अपना लिया था। श्री वैद्य इस बात को बलपूर्वक कहते हैं कि सेन राजा आर्य क्षत्रिय या चंद्रवंशी राजपूत थे। कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं है कि राजपूतों की भांति सेन सनातन या रूढ़िवादी धर्म के समर्थक थे।2

नर्मदा नदी के दक्षिण में, मुस्लिम आक्रमण के समय चार राज्य विद्यमान थे-(1) पश्चिमी चालुक्यों का दक्कन राज्य, (2) चोलों का दक्षिण राज्य, (3) पश्चिमी तट पर कोंकण में सिलहाड़ा राज्य, तथा (4) पूर्वी तट पर त्रिकलिंग का गंग राज्य। ये राज्य सन् 1000-1200 के दौरान समृद्ध हुए। यही समय मुस्लिम आक्रमणों का था। उनके अधीन कुछ सामंती राज्य थे। ये राज्य 12वीं शताब्दी में पुनः शक्तिशाली हो गए और 13वीं शताब्दी में स्वतंत्र तथा शक्ति-संपन्न हो गए थे। ये राज्य हैं-(1) देवगिरि जिस पर यादवों का शासन, (2) वारंगल जिस पर काकतीय वंश का शासन, (3) हैयबिड पर होयसल वंश का शासन, (4) मदुरा पर पांड्य वंश का शासन, तथा (5) त्रवणकोर पर चेर वंश के राजाओं का शासन था।

ये सब शासक रूढ़िवादी ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे।

भारत पर मुस्लिम आक्रमण सन् 1001 में आरंभ हो गए थे। इन आक्रमणों की अंतिम लहर सन् 1296 में दक्षिण भारत में पहुंची, जब अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि राज्य को अपने अधीनस्थ बनाया। भारत पर मुस्लिम विजय वास्तव में सन् 1296 तक पूरी नहीं हुई थी। अधीन बनाने के लिए ये युद्ध मुस्लिम विजेताओं तथा स्थानीय शासकों के बीच चलते रहे, जो यद्यपि पराजित हो गए थे, पर अधीन नहीं हुए थे। परंतु जिस बात को ध्यान में रखने की आवश्यकता है, वह यह है कि मुसलमानों के इन विजय-युद्धों

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  1. हिस्ट्री आफ मैडिवल हिंदू इंडिया, खंड 2, पृ. 142
  2. वही, खंड 3, अध्याय 10

की 300 वर्ष की इस अवधि के दौरान सारे भारत पर ऐसे राजाओं का शासन था, जो ब्राह्मण धर्म के रूढ़िवादी व सनातन मत को मानते थे। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा आहत ब्राह्मण धर्म सहायता तथा समर्थन के लिए शासकों की ओर देख सकता था और वह मिला भी। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा पराजित तथा आहत बौद्ध धर्म के पास ऐसी कोई आशा की किरण नहीं थी। वह अनाथ बन चुका था। उसका कोई संरक्षक नहीं था। वह देशी शासकों की उपेक्षा के शीत झोंकों में मुरझा गया और विजेताओं द्वारा आक्रमणों की प्रज्ज्वलित अग्नि में जलकर नष्ट हो गया।

मुसलमान आक्रमणकारियों ने जिन बौद्ध विश्वविद्यालयों को लूटा, इनमें कुछ नाम नालंदा, विक्रमशिला, जगद्दल, ओदंतपूरी के विश्वविद्यालय हैं। उन्होंने बौद्ध मठों को भी तहस-नहस कर दिया, जो सारे देश में स्थित थे। हजारों की संख्या में भिक्षु भारत से बाहर भागकर नेपाल, तिब्बत और कई स्थानों में चले गए। मुसलमान सेनापतियों ने बहुत बड़ी संख्या में भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। बौद्ध भिक्षुओं को मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपनी तलवार से किस प्रकार नष्ट किया, उसका वर्णन स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों ने किया है। मुसलमान सेनापति ने बिहार में सन् 1197 में अपने आक्रमण के दौरान बौद्ध भिक्षुओं की किस प्रकार हत्याएं कीं, इसका संक्षिप्त वर्णन करते हुए विन्सेंट स्मिथ लिखते हैं:1

“बार-बार लूटमार और आक्रमणों के कारण बिहार में जिस मुसलमान सेनापति का नाम पहले ही आंतक बन चुका था, उसने एक झटके में ही यहां राजधानी पर कब्जा कर लिया। लगभग उन्हीं दिनों एक इतिहासकार की भेंट सन् 1243 में आक्रमण करने वाले दल के एक व्यक्ति से हुई। उससे उसको यह पता चला था कि बिहार के किले पर केवल दो सौ घुड़सवारों ने बेखटके, निधड़क होकर पिछले द्वार से धावा बोला और उस स्थान पर अधिकार कर लिया था। उन्हें लूट में भारी मात्र में माल मिला और ‘सिरमुंडे ब्राह्मणों’ अर्थात बौद्ध भिक्षुओं की इस प्रकार से हत्या करके उनका सफाया कर दिया था कि जब विजेता ने मठों व विहारों के पुस्तकालयों में पुस्तकों की विषय-वस्तु को समझाने व स्पष्ट करने के लिए किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति की तलाश की, तो ऐसा कोई भी जीवित व्यक्ति नहीं मिला जो उनको पढ़ सकता। हमें यह बताया गया कि बाद में यह पता चला था कि समूचा दुर्ग तथा नगर एक महाविद्यालय (कॉलिज) था। हिंदी भाषा में महाविद्यालय को वे विहार कहते थे।”

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  1. अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया (1924), पृ. 419-20

इस प्रकार बौद्ध पुजारियों का मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा संहार किया गया। उन्होंने जड़ पर ही कुल्हाड़ी मारी। धम्मोपदेष्टा की हत्या कर इस्लाम ने बौद्ध धर्म की ही हत्या कर दी। यह एक घोर संकट था, जो भारत में बौद्ध धर्म के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। किसी अन्य विचारधारा की भांति धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही की जा सकती है। यदि प्रचार असफल हो जाए तो धर्म भी लुप्त हो जाता है। पुजारी वर्ग, वह चाहे जितना भी घृणास्पद हो, धर्म के प्रवर्तन के लिए आवश्यक होता है। धर्म-प्रचार के आधार पर ही रह सकता है। पुजारियों के बिना धर्म लुप्त हो जाता है। इस्लाम की तलवार ने पुजारियों पर भारी आघात किया। इससे वह या तो नष्ट हो गया या भारत के बाहर चला गया। बौद्ध धर्म के दीपक को प्रज्ज्वलित रखने के लिए कोई भी जीवित नहीं बचा।

कहा जा सकता है कि वही बात ब्राह्मणवादी पौरोहित्य के संबंध में भी हुई होगी। ऐसा होना संभव है, भले ही उस सीमा तक नहीं हो। परंतु यह अंतर इन दोनों धर्मों के संगठन में रहा और यह अंतर इतना बड़ा है कि इसी कारण ब्राह्मण धर्म तो मुसलमानों के आक्रमण के बाद भी बचा रहा, परंतु बौद्ध धर्म नहीं बच सका। ये अंतर पुरोहित वर्ग से संबंधित है। ब्राह्मणवादी पौरोहित्य का एक बहुत ही विस्तृत व व्यापक संगठन रहा है। इसका स्पष्ट किंतु संक्षिप्त विवरण स्वर्गीय सर रामकृष्ण भंडारकर ने (इंडियन  एंटिक्वैरी) में दिया है।1 उन्होंने लिखा हैः

‘प्रत्येक ब्राह्मण परिवार में किसी न किसी वेद या वेद की एक विशेष शाखा का नियमपूर्वक वास होता है और उस परिवार के घरेलू संस्कार उस वेद से संबंधित सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार संपन्न किए जाते हैं। उसके लिए उस विशेष वेद की ऋचाओं को कंठस्थ करना अनिवार्य होता है। उत्तरी भारत में मुख्यतः शुक्ल यजुर्वेद की प्रधानता है। यहां की शाखा मध्यंदिन है। लेकिन इसका पाठ आदि लगभग समाप्त हो चुका है। अब यह केवल बनारस में ही रह गया है। यहां पर भारत के सभी भागों से आकर ब्राह्मण परिवार बस गए हैं। कुछ सीमा तक यह पद्धति गुजरात में प्रचलित है। परंतु ये उससे अधिक महाराष्ट्र में प्रचलित है और तेलंगाना में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज भी इसके अध्ययन में लगे हुए हैं। इनमें से बहुत से ब्राह्मण देश के सभी भागों में दक्षिणा (शुल्क-भिक्षा) लेने के लिए जाते हैं और देश के खाते-पीते संपन्न लोग अपने साधनों के अनुसार उनको सहायता प्रदान करते हैं। वे उनसे अपने से संबंधित वेद के अंशों को सुनते हैं। यह अधिकांशतः कृष्ण यजुर्वेद और सूत्र आपष्तम्ब होता है। वहां बंबई में कोई भी सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब तेलंगाना से कोई ब्राह्मण मेरे पास

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  1. इंडियन एंटिक्वैरी (1874), पृ. 132, मैक्स मूलर द्वारा उद्धृत हिब्बर्ट लेक्चर्स (1878), पृ. 162-66

दक्षिणा मांगने के लिए न आता हो। प्रत्येक अवसर पर मैं उन लोगों से जो कुछ उन्होंने पढ़ा है, उसका पाठ सुनता हूं और अपने पास रखे मुद्रित मूल पाठ के साथ उसका मिलान व तुलना करता हूं।’

‘अपने व्यवसाय के अनुसार प्रत्येक वेद के ब्राह्मण सामान्यतः दो वर्गों में विभक्त हैं-गृहस्थ और भिक्षु। गृहस्थ स्वयं सांसारिक व्यवसाय में लगे रहते हैं, जब कि भिक्षु इन पवित्र पुस्तकों व ग्रंथों के अध्ययन में तथा धार्मिक अनुष्ठान करने में अपना समय व्यतीत करते है।’

‘इन दोनों वर्गों के लोगों को प्रतिदिन संध्या-वंदन अथवा सुबह-शाम प्रार्थना करनी होती है, इनके रूप विभिन्न वेदों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। परंतु ‘तत्सवितुर्वरेण्यम् गायत्री मंत्र’ का पाठ पांच बार, फिर अट्ठाईस बार या एक सौ आठ बार करना सबके लिए सामान्य बात है, यह पाठ प्रत्येक धर्मानुष्ठान का मुख्य अंग होता है।’

‘इसके अलावा, बहुत से ब्राह्मण प्रतिदिन एक अनुष्ठान करते हैं, जिसे ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। यह कुछ अवसरों पर सबके लिए आवश्यक होता है। यह ऋग्वेद के लिए होता है। इसमें प्रथम मंडल का प्रथम स्त्रेत, ऐतरेय ब्राह्मण का उपोद्घात, ऐतरेय आरण्यक के पांच मंडल, यजुः संहिता, साम-संहिता, अथर्व-संहिता, आश्वलायन कल्प सूत्र, निरूक्त, खंड, निघंटु, ज्योतिष, शिक्षा, पाणिनि, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और कणाद, जैमिनि तथा बादरायण के सूत्र समिलित होते हैं।’

यह बात याद रखने की है कि अनुष्ठान के मामले में भिक्षु1 तथा गृहस्थ में कोई अंतर व भेद नहीं होता। ब्राह्मण धर्म में दोनों ही पुरोहित हैं और एक गृहस्थ एक पुरोहित के रूप में अनुष्ठान करने के लिए भिक्षु से किसी भी तरह से कम सुपात्र नहीं होता। यदि कोई गृहस्थ एक पुरोहित के रूप में अनुष्ठान का कार्य नहीं करता, तो इसका कारण यह होता है कि उसने मंत्रें तथा धर्मिक अनुष्ठानों में विशेषता प्राप्त नहीं की है या वह इसकी अपेक्षा कुछ और अधिक लाभप्रद व्यवसाय करता है। ब्राह्मण धर्म में प्रत्येक ब्राह्मण में जो बहिष्कृत नहीं है, पुरोहित होने की क्षमता होती है। भिक्खु वास्तविक पुरोहित होता है और गृहस्थ संभावित पुरोहित होता है। प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित

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  1. भिक्षुओं का (ब्राह्मण धर्म में) आगे (1) वैदिक, (2) याज्ञिक, (3) श्रोत्रिय, तथा (4) अग्निहोत्री में उप-विभाजन किया गया है। वैदिक वे होते हैं जो वेदों को कंठस्थ रखते हैं और उन्हें बिना किसी त्रुटि के ठीक-ठीक सुना देते हैं। याज्ञिक वे होते हैं जो यज्ञ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। श्रोतिय वे हैं जो महान यज्ञ व बलि के अनुष्ठान करने की कला में पारंगत होते हैं। अग्निहोत्री वे हैं जो तीन प्रकार की यज्ञाग्नि को दीप्त रखते हैं (इष्टि, पाक्षिक बलि) तथा चातुर्मास (प्रत्येक चार महीनों में किए जाने वाले यज्ञ का अनुष्ठान) करते हैं।

बन सकता है। इसके अलावा, ब्राह्मण के लिए एक पुरोहित या पुजारी के रूप में कार्य के लिए कोई प्रशिक्षण या दीक्षा आवश्यक नहीं होती। पुरोहित या पुजारी का कार्य करने के लिए उसकी इच्छा ही पर्याप्त होती है। इस प्रकार ब्राह्मण धर्म में पौरोहित्य कर्म कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित हो सकता है और उसे आवश्यकता पड़ने पर इस कार्य में प्रवृत्त किया जा सकता है, लम्पट से लम्पट व्यक्ति के जीवन तथा प्रगति को रोकने वाली को चीज नहीं है। बौद्ध धर्म में यह संभव नहीं है। उपासक या धर्मोपदेष्टा का कार्य करने से पहले उसे पहले से अभिषिक्त पुरोहितों द्वारा स्थापित संस्कारों के अनुसार अभिषिक्त किया जाना चाहिए। बौद्ध पुरोहितों के संहार के बाद यह अभिषेक असंभव हो गया था, जिससे बौद्ध धर्मोपदेष्टा का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। बौद्ध धर्मोपदेष्टा के अभाव को भरने के लिए प्रयास किया गया। सभी उपलब्ध स्रोतों से बौद्ध धर्मोपदेष्टा का वर्ग तैयार करना पड़ा। वे निश्चय ही सवोत्तम नहीं थे। हरप्रसाद शास्त्री1 का मत हैः

“भक्खु के अभाव से बौद्ध धर्मोपदेष्टा में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। विवाहित पुरोहित वर्ग ने, जो परिवार वाला था और आर्य कहलाता था, मर्यादित भिक्षुओं का स्थान ले लिया और उसने सामान्य रूप से बौद्धों के धार्मिक क्रियाकलापों को संपन्न करना आरंभ कर दिया। उन्हें कुछ अनुष्ठान करने के बाद सामान्य भिक्षुओं की प्रतिष्ठा दी जाने लगी (भूमिका-पृष्ठ 19.7, तथाकर गुप्त की पुस्तक आदि कर्म रचना 149, पृ. 1207.1208)। वे धार्मिक अनुष्ठान करते, परंतु साथ ही राजगीर, रंगसाज, मूर्तिकार, सुनार तथा बढ़ई जैसे व्यवसाय करके अपना जीविकोपार्जन करते। ये कारीगर व शिल्पकार पुरोहित जिनकी संख्या बाद में पर्यादित भिक्खु की तुलना में काफी अधिक हो गई, लोगों के धार्मिक मार्गदर्शक हो गए। अपने व्यवसाय के कारण उनके पास विद्या व ज्ञान प्राप्ति के लिए, गंभीर मनन व विचार के लिए, तथा ध्यान करने एवं अन्य आध्यात्मिक कार्यों के लिए बहुत कम समय बचता था और इसमें उनकी रुचि भी नहीं रही थी। उनसे यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वे अपने प्रयास से ह्रासोन्मुख बौद्ध धर्म को कोई उच्चतर स्थिति प्रदान कर सकेंगे। उनसे यह आशा भी नहीं की जा सकती थी कि वे तत्कालीन स्थिति में थोड़ा सुधार कर बौद्ध धर्म को समाप्त होने से रोक सकते थे।”

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  1. नरेन्द्रनाथ लॉ द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत विचार हरप्रसाद शास्त्री मैमोरियल खंड, पृ. 363-64

यह बात स्पष्ट है कि इन नए बौद्ध पुरोहित में न तो कोई गरिमा थी और न ही वे ज्ञानवान ही थे। ब्राह्मण पुरोहितों की तुलना में वे हीन थे, जो इनके प्रतिद्वंद्वी होते थे और जो विद्वान होते थे और उतने ही चतुर भी।1

ब्राह्मण धर्म विनाश के गर्त में डूबने से क्यों बच गया और बौद्ध धर्म क्यों नहीं बच सका, इसका कारण यह नहीं है कि बौद्ध धर्म की अपेक्षा ब्राह्मण धर्म में कोई श्रेष्ठता अंतर्निहित रही। इसका कारण उसके पुरोहितों का विशिष्ट चरित्र रहा। बौद्ध धर्म इसलिए समाप्त हुआ, क्योंकि उसके पुरोहितों का वर्ग ही नष्ट हो गया था और उसे फिर से जीवित करना संभव नहीं था। यद्यपि ब्राह्मण धर्म पराजित हो गया था, परंतु वह पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ था। प्रत्येक जीवित ब्राह्मण पुरोहित व पुजारी बन गया था और उसने अपने पूर्वज प्रत्येक ब्राह्मण पुरोहित का स्थान ग्रहण कर लिया था।

इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि बौद्ध धर्म के पतन का एक कारण, बौद्ध लोगों द्वारा इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेना भी था।

प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ सेन ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के प्रारंभिक मध्यकालीन तथा राजपूत अध्ययन खंड की गोष्ठी में, जो सन् 1938 में इलाहाबाद में हुई थी, अपने अध्यक्षीय भाषण में यह बात बहुत सटीक व सही कही थी कि भारत के मध्यकालीन इतिहास से संबंधित दो समस्याएं हैं, जिनका अभी तक कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है। उन्होंने दो समस्याओं का उल्लेख किया, पहली, राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित है। दूसरी, भारत में मुस्लिम जनसंख्या के विस्तार से संबंधित है। दूसरी समस्या के संबंध में उन्होंने कहाः

“परंतु मुझे एक प्रश्न पर विचार करने की अनुमति दी जाए, जो आज पूर्णतया पुरातत्व विषयक रुचि का नहीं है। भारत में मुस्लिम जनसंख्या के विस्तार के संबंध में कुछ स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि इस्लाम का विस्तार उसकी विजय के साथ-साथ हुआ और जिन लोगों को अधीनस्थ बनाया गया, उनको इस्लामी शासकों का धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया था। जब हम सीमांत प्रांत तथा

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  1. नए बौद्ध पुरोहित अपने-अपने व्यवसायों को क्यों नहीं छोड़ सके और अपने को पूर्णतया धर्म के प्रचार में क्यों नहीं लगा सके, इसका कारण जैसा कि हरप्रसाद शास्त्री बताते हैं, यह हैः ‘बौद्ध धर्म को मानने वाली जनता में कमी के कारण भी बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई हुई। चूंकि एक भिक्षु तीन से अधिक घरों में भिक्षा नहीं ले सकता था और उसी उद्देश्य से उसी घर में एक महीने के अंदर नहीं जा सकता था, इसलिए एक भिक्षु को भिक्षा के लिए नब्बे घरों की आवश्यकता होती है।’ हरप्रसाद शास्त्री मैमोरियल खंड, पृ. 362

पंजाब में मुसलमानों का आधिक्य व प्रधानता देखते हैं, तब इस विचार को बल मिलता है। परंतु इस सिद्धांत के आधार पर पूर्वी बंगाल में मुसलमानों के भारी बहुमत की बात समझ में नहीं आती। इस बात की संभावना हो सकती है कि कुषाण के समय में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में तुर्क लोग बस गए थे और उनका इस्लाम को आसानी से स्वीकार करना, नव विजेताओं के साथ उनके  जातीय भाईचारे या जातिगत संबंधों के कारण बताया जा सकता है। परंतु पूर्वी बंगाल के मुसलमानों का तुर्की तथा अफगानों के साथ निश्चित रूप से कोई जातीय संबंध नहीं है और उस क्षेत्र के हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को किन्ही अन्य कारणों से स्वीकार किया होगा।1

ये अन्य कारण क्या हैं? प्रो- सेन ने इन कारणों का उल्लेख किया है, जो मुस्लिम इतिहास ग्रंथों में भी मिलते हैं। वह सिंध का उदाहरण लेते हैं। इसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध हैं। वह कहते हैं:2

“चचनामा के अनुसार सिंध के बौद्धों ने अपने ब्राह्मण शासकों के अधीन सभी प्रकार के अपमान तथा निरादर सहे, और जब अरबों ने उनके देश पर आक्रमण किया तो बौद्धों ने उनकी पूरे दिल से सहायता की। बाद में, जब दाहिर का वध कर दिया गया और उसके देश में मुस्लिम शासन की दृढ़ता से स्थापना हो गई, तो बौद्धों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि जहां तक उनके अधिकारों, विशेषाधिकारों तथा सुविधाओं का संबंध है, अरब उनके लिए यथास्थिति में कोई परिवर्तन करने के लिए तैयार नहीं थे, और यहां तक कि नई व्यवस्था में भी हिंदुओं के साथ उत्तम व्यवहार किया गया। इस कठिनाई से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका इस्लाम धर्म को स्वीकार करना था, क्योंकि धर्मपरिवर्तन करने वाले लोग शासक वर्ग के लिए आरक्षित सब विशेषाधिकार व विशेष सुविधाओं के हकदार हो जाते थे। अतः सिंध के बौद्धों ने बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया और वे मुसलमानों में शामिल हो गए।”

इसके बाद प्रो- सेन एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं:

“यह एक अप्रत्याशित घटना नहीं हो सकती कि पंजाब, कश्मीर, बिहार शरीफ के आसपास के जिले, उत्तर-पूर्व बंगाल जहां पर मुसलमानों की अब प्रधानता व बहुतायत है, मुसलमानों से पहले शक्तिशाली बौद्ध केंद्र थे। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि बौद्धों ने हिंदुओं की अपेक्षा राजनीतिक प्रलोभनों

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  1. अर्ली कैरियर ऑफ कान्हाजी आंग्रे एंड अदर पेपर्स, पृ. 188-89
  2. वही, पृ. 188-89

के सामने आसानी से हार मान ली और उन्होंने धर्मपरिवर्तन अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व स्थिति में वृद्धि की संभावनाओं के कारण किया था।”

दुर्भाग्यवश, उन कारणों का पता नहीं लगाया गया है, जिन्होंने भारत के बौद्ध लोगों को इस्लाम के पक्ष में बौद्ध धर्म को त्यागने के लिए बाध्य किया था। इसलिए यह कहना असंभव है कि ब्राह्मण राजाओं का अत्याचार इसके लिए कहां तक उत्तरदायी था। परंतु ऐसे संकेतों की भी कमी नहीं है, जिनसे यह पता चलता है कि यही इसका प्रमुख कारण था। हमारे पास दो ऐसे राजाओं के निश्चित प्रमाण हैं, जो बौद्ध लोगों पर अत्याचार करते थे व उनका उत्पीड़न करते थे।

उनमें पहला नाम मिहिरकुल का है। वह हूण था। हूणों ने भारत पर सन् 455 के लगभग आक्रमण किया था। उत्तरी भारत में अपने राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने पंजाब में साकल (आधुनिक स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया था। मिहिरकुल ने सन् 528 के लगभग शासन किया। विन्सेंट स्मिथ का कहना है:1

समस्त भारतीय परंपराएं मिहिरकुल को एक रक्त पिपासु, क्रूर व अत्याचारी शासक के रूप में चित्रित करती हैं। ‘भारत के आतताई’ के रूप में इतिहासकारों ने हूणों के स्वभाव की यह विशेषता नोट की कि साधारण मात्र के कठोर और क्रूर स्वभाव की अपेक्षा, वे अत्यधिक क्रूर स्वभाव के थे। मिहिरकुल ने शांतिपूर्ण बौद्ध पंथ के विरुद्ध क्रूर शत्रुता दर्शाई। उसने स्तूपों तथा मठों को निष्ठुरता से नष्ट किया और वहां की सारी संपत्ति को लूट लिया।2

दूसरा राजा पूर्वी भारत का राजा शशांक था। उसने सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक के लगभग शासन किया और वह हर्ष के विरुद्ध युद्ध में पराजित हुआ। विन्सेंट स्मिथ का कहना है3:

शशांक को हर्ष के भाई का विश्वासघाती हत्यारा कहा गया है। वह संभवतः गुप्त वंश का वंशज था। वह शिव का उपासक था और बौद्ध धर्म से घृणा करता था। उसने बौद्ध धर्म का उन्मूलन करने का हर संभव प्रयास किया। एक जनश्रुति के अनुसार उसने बुद्ध गया में पवित्र बोधि वृक्ष को जड़ से खुदवा कर उसे जलवा दिया था, जिस पर अशोक की अत्यधिक भक्ति व श्रद्धा थी। उसने पाटलिपुत्र में उस पत्थर को भी तोड़ दिया, जिस पर बुद्ध के पदचिह्न अंकित थे। उसने मठों व आश्रमों को नष्ट कर दिया। भिक्षुओं को तितर-बितर कर दिया। उसने इनका पीछा नेपाल की तराइयों तक किया।”

 

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  1. अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया (1924), पृ. 336
  2. वही, पृ. 337
  3. वही, पृ. 360

सातवीं शताब्दी भारत में धार्मिक अत्याचार व उत्पीड़न की शताब्दी प्रतीत होती है। स्मिथ का कहना है1: ‘सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में इस जैसे ही धर्म जैनमत को भी नष्ट करने की भयंकर कोशिश की गई।’

जब मुस्लिम आक्रमण होने लगे, तब हमें सिंध का उदाहरण मिलता है, जहां पर उत्पीड़न व अत्याचार ही निस्संदेह बौद्ध धर्म के पतन का कारण बना। यह अत्याचार तथा उत्पीड़न मुसलमानों के आक्रमण तक जारी रहा। इसका अनुमान इस तथ्य से भी लग सकता है कि उत्तरी भारत में राजा या तो ब्राह्मण थे या राजपूत। ये दोनों ही बौद्ध धर्म के विरोधी थे। जैनियों पर 12वीं शताब्दी में भी अत्याचार हुए। इसका समर्थन इतिहास भी प्रचुर मात्र में करता है। स्मिथ ने गुजरात के एक शैव राजा अजय देव का उल्लेख किया है, जो सन् 1174‑76 में सिंहासन पर बैठा। उसने जैनियों पर निर्दयतापूर्वक अत्याचार से अपना शासन आरंभ किया था और उनके नेता को यातना देकर मरवा दिया था। स्मिथ लिखते हैं: ‘कठोर उत्पीड़न व अत्याचार के अनेक पुष्ट उदाहरणों का उल्लेख किया जा सकता है।’

इसलिए अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि बौद्ध धर्म के पतन का कारण बौद्धों द्वारा इस्लाम धर्म को अंगीकार करना था। यह मार्ग उन्होंने ब्राह्मणवाद के अत्याचार व क्रूरता से बचने के लिए अपनाया था। यद्यपि प्रमाण इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करते, पर कम से कम इसकी संभावना अवश्य दर्शाते हैं। उस समय यदि कोई संकट था, तो यह ब्राह्मणवाद के कारण था।