यह जिल्दबद्ध लेख टाईप किए हुए 87 पृष्ठ का है। अम्बट्ठ सुत्त पाण्डुलिपि के पृष्ठ संख्या 69 से आरम्भ होता है और पृष्ठ 70 के पश्चात के पृष्ठों को ‘ए’ से ‘जैड’ तक संख्याबद्ध किया हुआ है। लोहिक्क सुत्त पृष्ठ 71 से आरम्भ हुआ है-सम्पादक
- आर्य समाज II. बुद्ध और सुधार III.
सर टी. माधव राव ने अपने समय के हिंदू समाज के बारे में कहा था: जितना अधिक कोई जीवित रहता है, देखता है और सोचता है, उतनी अधिक गहराई से वह महसूस करता है कि हिंदू समाज को छोड़कर पृथ्वी पर अन्य कोई समाज नहीं है, जो राजनैतिक बुराइयों से कम और स्वयं पर थोपी गई या स्वयं स्वीकार की गई या स्वयं पैदा की गई बुराइयों से अधिक ग्रस्त है और इसलिए इन बुराइयों को दूर किया जा सकता है।
ये विचार बिल्कुल सही रूप से और बिना अतिशयोक्ति के हिंदू समाज में सुधारकी आवश्यकता बताते हैं।
प्रथम समाज सुधारक और उनमें सबसे महानतम गौतम बुद्ध थे। समाज सुधार का इतिहास ही बुद्ध से शुरू होता है और कोई भी इतिहास उनकी उपलब्धियां बताए बिना अधूरा रहेगा।
सिद्धार्थ का जन्म शाक्य वंश में उत्तर भारत में नेपाल की सीमा के पास कपिलवस्तु नगर में ईसा पूर्व 563 में हुआ था। उनका कुलनाम गौतम था। वह एक राजकुमार थे। उनकी शिक्षा एक राजकुमार के रूप में हुई थी। उनका विवाह हुआ और उनके एक पुत्र भी था। आर्यों के समाज में बुराइयों और दुःखों से पीड़ित लोगों को देखकर उन्होंने सच्चाई और मुक्ति की खोज के लिए उनतीस वर्ष की उम्र में सांसारिक जीवन त्याग दिया था। उन्होंने चिंतन-मनन किया तथा दो जाने-माने शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण की। लेकिन उनकी शिक्षा से संतुष्ट न होने पर, वे शिक्षकों को छोड़कर श्रमण बन गए। इसे भी व्यर्थ समझकर उन्होंने छोड़ दिया। गहराई से सोचने पर उन्हें बोध हुआ। इस अंतर्ज्ञान के आधार पर उन्होंने अपना धम्म (धर्म) प्रतिपादित किया। यह उन्होंने पैंतीस वर्ष की अवस्था में किया। जीवन के अस्सी वर्षों में से बचे हुए समय में उन्होंने अपने धम्म को फैलाया और बौद्ध मठों की नींव रखी तथा भिक्षुओं का संघ बनाकर उसे चलाया। लगभग ईसा पूर्व 483 में अपने प्रतिबद्ध अनुयायिओं के बीच कुसीनारा में उनकी मृत्यु हो गई।
बोध होने के बाद बुद्ध ने अपना सारा जीवन अपने धम्म चक्र के प्रचार के लिए समर्पित कर दिया। आध्यात्मिक जीवन की ज्ञान-ज्योति प्रज्ज्वलित रखने के लिए एकांत में समाधि लगाने-ठीक उसी प्रकार जैसे ईसामसीह एकांत में घंटों प्रार्थना करते थे-बौद्ध भिक्षुओं की बड़ी संख्या को जीवंत उपदेश देने, उनमें से ज्यादा विकसित अनुयायियों को आंतरिक विकास की सूक्ष्म बातें बताने, संघ के कार्य के लिए निर्देश देने, अनुशासन तोड़ने वालों को फटकारने, विश्वासपात्रें के गुणों की पुष्टि करने, शिष्टमंडल का स्वागत करने, विद्वान विरोधियों से बहस करने, दुखी को सांत्वना देने, राजा और किसान से, ब्राह्मण और अछूत से, अमीर और गरीब से मिलने के कार्यों में उनका समय बंटा हुआ था। वे इजारेदार और पापियों पर भी कृपालु थे और कई वैश्याओं ने समझ आने, अन्तर्मन को समझने और दया मिलने से गलत मार्ग त्याग दिया और बुद्ध की शरण में आ गइंर्। इस प्रकार के जीवन के लिए कई प्रकार के नैतिक गुणों तथा सामाजिक प्रतिमानों और अन्य चीजों के अलावा वैभवशाली व्यवहार, कुशलता के साथ प्रजातांत्रिक भावनाओं की आवश्यकता होती है जोकि बहुधा दुर्लभ होती है। वार्तालाप पढ़कर कोई यह नहीं भूल सकता कि गौतम का जन्म और पालन-पोषण एक अभिजात के रूप में हुआ था। वह न केवल ब्राह्मणों और पंडितों से बातचीत करते थे, बल्कि राजकुमारों, मंत्रियों और राजाओं से आसानी व समान रूप से बात करते थे। ‘वह एक अच्छे अतिथि हैं और जिनमें परिहास भाव भी है तथा प्रत्येक द्वार उनके स्वागत को उद्यत होता है।’ उन्हें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसे चित्रित किया है:
“पूज्य गौतम दोनों ओर से कुलीन, विशुद्ध वंश के आकर्षक, दिखने में मनोहर, विश्वास जगाने वाले, रंग-रूप में सुंदर, गौर वर्ण, देखने में प्रभावशाली, अर्हत के सद्गुणों से सदाचारी, अच्छाई और सद्गुण से भरपूर, मधुर और विनम्र स्वर, शांत और स्थिर हैं। वह सबका स्वागत करते हैं, मैत्रीपूर्ण और शांतिकारक हैं, घमंडी नहीं हैं, सब उनसे मिल सकते हैं, और वे बातचीत में रूढ़िवादी नहीं हैं।”
लेकिन उस समय के भारतवासियों को जिस चीज ने आकर्षित किया और जो चीज युगों से आकर्षित करती आई है, उसे उक्त ब्राह्मण ने निम्न शब्दों में व्यक्त किया:
“गौतम अपने महान वंशजों को त्यागकर, धन और स्वर्ण, जमीन के दबे हुए और जमीन के ऊपर के खजाने को त्यागकर संन्यासी बने और उन्होंने धार्मिक जीवन अपनाया। वास्तव में जब वे युवक थे, सिर पर एक भी सफेद बाल नहीं था, सुंदर व्यक्ति थे, तब उन्होंने घरबार छोड़कर संन्यासी जीवन में प्रवेश किया।”
“उनके ऐसे जीवन से न केवल प्रीतिकर आचरण, सहानुभूति और दयालुता की आशा की जाती है, बल्कि दृढ़ता और साहस भी आवश्यक है। जब भी समय के अनुसार आवश्यक हुआ, उन्होंने उन लोगों से शांतिपूर्वक संबंध-विच्छेद कर लिया, जो संघ का अहित करते थे। उन्होंने शारीरिक कष्ट धैर्य से सहा, लेकिन फिर भी आंतरिक सुख में कमी नहीं हुई। साहस की आवश्यकता थी जो उनमें पाया गया, उदाहरण के लिए, देवदत्त के द्वारा उनकी हत्या के कई प्रयासों और हत्या की धमकियों के बावजूद, वे शांतचित्त बने रहे। कौशल राज्य के प्रसिद्ध डाकू का राज्य के गांवों में आतंक था। उस डाकू से बुद्ध अकेले और बिना अस्त्र के मिलने गए तथा उसका हृदय परिवर्तन किया और इस प्रकार लोक-कंटक से बदलकर उसे संघ का शांतिप्रिय सदस्य बना लिया। कष्ट, खतरे और अनादर उनकी आध्यात्मिक शांति को भंग नहीं कर पाए। जब उन्हें गाली दी गई, तो उन्होंने जवाब में गाली नहीं दी। जिनको सांत्वना व सहयोग की आवश्यकता थी, उनके लिए उनकी तरफ से कोमल सहृदयता की कमी नहीं थी।”
वह सबको प्रिय थे। बार-बार उनका वर्णन किया जाता है या वह स्वयं वर्णन करते है कि उन्होंने लोगों की भलाई के लिए, लोगों की खुशी के लिए, लोगों के लाभ के लिए, भगवान और इंसान की अच्छाई और खुशी और समग्र विश्व से सहानुभूति के लिए जन्म लिया है।
उन्होंने आर्यों के समाज पर अमिट छाप छोड़ी है। यद्यपि उनका नाम भारत के बाहर फैला है, उनकी शिक्षा का प्रभाव अभी तक यहां बना हुआ है।
उनका धर्म बड़ी तेजी से फैला। जल्दी ही यह सारे भारत का धर्म बन गया। लेकिन यह भारत तक ही सीमित नहीं रहा। यह तत्कालीन विश्व के कोने-कोने तक पहुंच गया। हर नस्ल के लोगों ने इसे स्वीकार किया। यहां तक कि एक समय अफगान लोग भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। यह एशिया तक ही सीमित नहीं रहा। इस बात के भी प्रमाण मिलते है कि बौद्ध धर्म ब्रिटेन तक फैला हुआ था।1
बौद्ध धर्म के इतनी तेजी से फैलने के क्या कारण थे?
इस बारे मे प्रोफेसर होपकिन्स का कथन उद्धृत करने योग्य है। उन्होंने कहा है:
“प्रारंभ से बौद्ध धर्म के तेजी से प्रसार का कारण उसकी शिक्षा तथा उसकी नींव डालने वाले के प्रभावोत्पादकता और प्रश्रय में निहित है। बुद्ध ने लोगों को मोहित कर दिया, उनकी शिक्षा ने उत्साह जगाया, अभिजात के रूप में उनकी जो स्थिति थी, उसने उन्हें अभिजात वर्ग में सम्मानित बनाया, उनमें विद्यमान चुंबकीय आकर्षण ने उन्हें लोगों का भक्ति-भाजन बनाया।
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- बुद्धिज्म इन प्री-क्रिश्चियन ब्रिटेन, डॉ- डोनाल्ड ए- मेकेन्जी, ब्लेकी एंड सन, लंदन, 1928
इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ से इस शिक्षक और हृदय जीतने वाले का तेजस्वी और आकर्षक व्यक्तित्व उभरता है। कोई भी व्यक्ति उनकी तरह भगवान न होते हुए भी भगवान जैसा ही रहा। देवता होने का झूठा दावा नहीं किया, भविष्य के सुख से निस्पृह, अनासक्त, वैराग्य, विचारों में युगांतरकारी लेकिन संसार की मूर्खता की प्यार से उपेक्षा करते हुए, उच्च लेकिन बहुत पसंद किए जाते थे, विश्व-बंधुत्व भाव से संपन्न वह लोगों में साधारण और शांत रूप से घूमते थे, मधुर से मधुरतम वाणी, सभी के आदर्श, सभी से मित्र भाव। उनका स्वर सम्मोहक और पटु था, उनकी आवाज श्रोता को उनका कायल बना देती थी, उनका दर्शन प्रेरणादायक था। परंपरा से ऐसा लगता है कि वे उनमें से एक होंगे, जिनका व्यक्तित्व ही आदमी को न केवल नेता, बल्कि साथियों के हृदय में भगवान बना देने के लिए काफी था। जब ऐसा कोई बोलता है, तो वह श्रोता को वश में कर लेता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या कहते हैं, क्योंकि वह गति को प्रभावित करते हैं और जो भी उनको सुनता है, वह नत-मस्तक हो जाता है। इस व्यक्तित्व के अलावा, दूसरों के मन में यह भावना आती है कि जो भी शिक्षा वह देता है, वह सामान्य नहीं है, बल्कि लोगों की मुक्ति की एक आशा की किरण है, पहली बार उनके शब्दों में सच्चाई पाते हैं जिससे गुलाम एक स्वतंत्र आदमी बन जाता है, वर्गों में भाईचारा पैदा होता है। तब ये देखना मुश्किल नहीं है कि बिजली जैसा स्फूर्ति कहां से उपजती और कैसे एक हृदय से दूसरे हृदय में प्रवाहित होती है। ऐसे आदमी थे बुद्ध, ऐसी उनकी शिक्षाएं थीं, और ऐसी ही अपरिहार्य तीव्रता से बौद्ध धर्म फैला और इस नए मत ने लोगों की नैतिक चेतना पर गहरा प्रभाव डाला।”
बुद्ध ने जब अपना अभियान शुरू किया और उनकी शिक्षा से जो महान सुधार आया, उसको समझने से पहले तत्कालीन आर्य सभ्यता की विकृत स्थिति को जानना आवश्यक है।
तत्कालीन आर्य समुदाय सबसे घृणित सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक व्यभिचार में फंसा हुआ था।
कुछ सामाजिक बुराइयां बताने का एक उदाहरण है, जुआ खेलना। आर्यों में शराब पीने की आदत की तरह जुआ भी समाज में व्यापक रूप से फैला हुआ था।
प्रत्येक राजा के यहां जुआ खेलने के लिए महल के साथ ही एक मंडप हुआ करता था। हर एक राजा जुए के विशेषज्ञ को नौकरी पर रखते, जो खेल के समय राजा का सहायक हुआ करता था। सम्राट विराट की सेवा में कंक जैसा जुआ विशेषज्ञ नौकरी करता था। जुआ राजाओं के केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं था। वे बड़े दांव लगाकर सुधारक और उनकी नियति खेलते थे। वे राज्यों, आश्रितों, रिश्तेदारों, गुलामों आदि को दांव पर लगा देते थे।1 राजा नल जुए में पुष्कर के साथ खेलते हुये हर चीज को दांव पर लगाकर हार गए। केवल स्वयं को और अपनी पत्नी दमयंती को दांव पर नहीं लगाया। नल को जंगल में जाकर एक भिखारी के रूप में रहना पड़ा। कुछ ऐसे राजा भी थे, जो नल से भी आगे बढ़ गए। महाभारत2 से पता चलता है कि पांडवों के सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर ने जुए में अपने छोटे भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित सब कुछ दांव पर लगा दिया था। जुआ आर्यों के लिए सम्मान का प्रतीक था और जुए का कोई भी आमंत्रण सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए चुनौती माना जाता था। धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा जुआ खेलने के अनर्थकारी परिणाम हुए। यद्यपि उन्हें ऐसे परिणाम की पहले ही चेतावनी दी जा चुकी थी, उनका बहाना यह था कि उन्हें जुए का आमंत्रण मिला था, और एक सम्माननीय व्यक्ति होने के नाते वह ऐसा आमंत्रण ठुकरा नहीं सकते थे।
जुए का दुर्गुण सिर्फ राजाओं तक सीमित नहीं था। यहां तक कि आम आदमी भी इससे ग्रसित था। ऋग्वेद में जुए से बर्बाद हुए निर्धन आर्य लोगों के विलाप का विवरण मिलता है। कौटिल्य के समय में जुआ खेलना इतनी आम बात हो गई थी कि जुआघरों को राजा द्वारा अनुमति-पत्र दिए जाते थे, जिससे राजा को यथेष्ट राजस्व प्राप्त होता था।
शराब पीना दूसरी बुराई थी, जो आर्यों में प्रचंड रूप से फैली हुई थी। शराब दो प्रकार की हुआ करती थी-सोम और सुरा। सोम यज्ञीय शराब थी। प्रारंभ में ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को इसे पीने की अनुमति थी, बाद में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को इसे पीने की अनुमति दी गई। वैश्यों को इसे पीना वर्जित कर दिया गया था और शूद्रों को तो इसका स्वाद चखने की भी अनुमति नहीं थी। इसका बनाना एक गुप्त प्रक्रिया थी, जिसकी जानकारी केवल ब्राह्मणों को थी। सुरा पीने की अनुमति सभी को थी तथा इसे सभी पीते थे। ब्राह्मण सुरा भी पीते थे। असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य3 ने इतनी अधिक पी ली थी कि नशे की स्थिति में उन्होंने मृतसंजीवनी मंत्र बता दिया जो केवल वही जानते थे और जिसका देवों द्वारा मारे गए असुरों को जीवित करने के लिए प्रयोग करते थे। यह मंत्र उन्होंने देवों के पुरोहित बृहस्पति के पुत्र कच को बताया था। महाभारत में एक प्रसंग है कि एक बार कृष्ण और अर्जुन ने अत्यधिक सोमरस पी लिया था। यह दर्शाता है कि आर्यों के समाज में सर्वश्रेष्ठ न सिर्फ शराब पीने के ही आदी थे, बल्कि वे बहुत अधिक शराब पीते थे। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि आर्य महिलाएं भी शराब पीने की आदी थीं। उदाहरण के लिए राजा विराट की पत्नी सुदेशना4 ने अपनी चेरी सैरंध्री को कहा कि कीचक के महल से सुरा ले आओ, क्योंकि वह पीने के लिए
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- महाभारत, वन पर्व
- वही, सभा पर्व
- वही,
- वही, विराट पर्व, अध्याय 15
मरी जा रही है। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि केवल रानियां ही शराब पीती थीं। शराब पीने की आदत हर वर्ग की महिलाओं में सामान्य बात थी और यहां तक कि ब्राह्मण महिलाएं भी इस आदत से बची हुई नहीं थीं।1 आर्य महिलाएं शराब पीती थीं और नृत्य करती थीं, यह कौसीतकी गृह्य सूत्र (1.11-12) से स्पष्ट है, जिसमें कहा गया है, ‘चार या आठ सधवा महिलाएं शराब और भोजन का सेवन कर लेने के बाद वैवाहिक समारोह से पहले की रात में चार बना नाचेंगी।’
अब आर्यों के समाज की बात करें जोकि वर्ग-संघर्ष और वर्ग अप्रतिष्ठा का शिकार था। आर्यों का समाज चार वर्गों को मान्यता देता है। वे हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें विभेद केवल धरातल का नहीं था, सामाजिक संबंधों में से एक-दूसरे के बराबर थे। ये विभेद ऊंच-नीच का था, एक वर्ग दूसरे के ऊपर था। एक-दूसरे के ऊपर या नीचे होने के कारण चारों वर्णों में ईर्ष्या और विद्वेष था। इस ईर्ष्या और विद्वेष से शत्रुता पैदा हुई। यह शत्रुता दो सर्वोच्च वर्गों, अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रियों में अधिक थी। इन दोनों में सतत् वर्ग-संघर्ष चलता रहता था। यह इतना तीव्र था, जिसका विवरण पढ़कर मार्क्सवादी प्रसन्न हो जाएंगे। दुर्भाग्य से ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच के वर्ग-संघर्ष का विस्तृत इतिहास नहीं मिलता है। केवल कुछ उदाहरण लिखे गए हैं। वेन, पुरुरवा, नहुष, सुदास, सुमुख और निमि ऐसे क्षत्रिय राजा थे, जिनका ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ था। इन संघर्षों के मुद्दे अलग-अलग थे।
वेन और ब्राह्मणों के बीच मुद्दा यह था कि क्या राजा का प्रभुत्व रहेगा और ब्राह्मण उसकी पूजा करेगा और भगवान को बलि चढ़ाने की बजाय वह राजा को बलि चढ़ाएगा। पुरुरवा और ब्राह्मणों के बीच मुद्दा यह था कि क्या राजा ब्राह्मणों की संपत्ति जब्त कर सकता है या नहीं। नहुष और ब्राह्मणों के बीच मुद्दा यह था कि क्या क्षत्रिय राजा ब्राह्मण से गुलामों जैसा कार्य करवा सकता है। निमि और ब्राह्मणों के बीच मुद्दा यह था कि क्या बलि समारोह के लिए वह परिवार के पुरोहित की सेवाएं लेने को बाध्य था। सुदास और ब्राह्मणों के बीच मुद्दा यह था कि क्या पुरोहित के पद के लिए वह केवल ब्राह्मण की सेवाएं लेने को बाध्य था।
इससे ज्ञात होता है कि इन दोनों वर्गों के बीच कितने बड़े मुद्दे थे। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इनके बीच संघर्ष सबसे अधिक कटु था। इनके बीच संघर्ष
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- निम्न वर्ग की महिलाओं की क्या कहें, सातवीं और आठवीं शताब्दी में आर्याव्रत के मध्य क्षेत्र में ब्राह्मण महिलाएं शराब पिया करती थीं, जो कुमारिल भट्ट की तंत्र-वर्तिका (1.3-4) से स्पष्ट है, जिसमें कहा गया है कि ‘आधुनिक दिनों के लोगों में हम पाते हैं कि अहिछत्र तथा मथुरा देश की ब्राह्मण महिलाएं शराब पीने की आदी हैं।’ कुमारिल ने केवल ब्राह्मणों की पीने की आदत की निंदा की है। लेकिन क्षत्रियों और वैश्यों की पीने की निंदा नहीं की है, यदि शराब फल या फुलों से अर्थात माधवी और शीरे की हो, न कि अनाजों से बनी सुरा।
केवल यदाकदा होने वाले दंगे नहीं थे। यह संघर्ष एक-दूसरे को मिटा देने के संघर्ष थे। परशुराम, जो एक ब्राह्मण थे, क्षत्रियों से इक्कीस बार लड़े और प्रत्येक क्षत्रिय को उन्होंने मार डाला।
वैसे ये दोनों वर्ग सर्वश्रेष्ठता के लिए आपस में लड़ रहे थे, फिर भी दोनों वैश्यों और शूद्रों को वश में रखने के लिए एक थे। वैश्य दूध देने वाली गाय के समान थे। उनका कार्य केवल कर चुकाना था। आमतौर पर शूद्र भार-स्वरूप जानवर थे। इन दो वर्गों का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मण व क्षत्रियों को गौरवमय बनाना और खुशहाल रखना था। उन्हें अपने जीने के कोई अधिकार नहीं थे। ये लोग अपने से श्रेष्ठ लोगों के जीवन के लिए ही जी रहे थे।
इन दोनों वर्गों के नीचे भी अन्य लोग थे। ये चांडाल और श्वपाक थे। ये लोग मात्र अछूत ही नहीं थे, बल्कि नीच माने जाते थे। ये लोग समाज और कानून की परिधि के बाहर थे। इनके न तो कोई अधिकार थे, और न इन्हें कोई अवसर थे। ये आर्यों के समाज से बहिष्कृत थे।
आर्यों के समाज की यौन अनैतिकता जानकर उनके आज के वंशजों को सदमा पहुंचेगा। बुद्ध पूर्व के आर्यों पर यौन या वैवाहिक संबंधों के लिए आज की प्रतिबंधित श्रेणियों जैसा नियम नहीं था।
आर्य धर्मग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता हैं। ब्रह्मा के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। उसके एक पुत्र दक्ष ने अपनी बहन से विवाह किया। इस भाई-बहन के विवाह से जो पुत्रियां पैदा हुईं, उनमें से कुछ ने ब्रह्मा के पुत्र मारीचि के पुत्र कश्यप से विवाह कर लिया और कुछ ने ब्रह्मा के तीसरे पुत्र धर्म से विवाह कर लिया।
ऋग्वेद में एक प्रसंग है कि यम और यमी भाई-बहन थे। इस प्रसंग के अनुसार यमी अपने भाई यम को सहवास के लिए आमंत्रित करती है और उसके ऐसा करने से इंकार करने पर क्रोधित हो जाती है।2
पिता अपनी पुत्री से विवाह कर सकता था। वशिष्ठ ने अपनी पुत्री शतरूपा के वयस्क हो जाने पर उससे विवाह किया था।3 मनु ने अपनी पुत्री इला से विवाह किया था।4 जह्नु ने अपनी पुत्री जाह्नवी से विवाह किया था।5 सूर्य ने अपनी पुत्री उषा से विवाह किया था।6 बहुपति-प्रथा प्रचलित थी, जो साधारण किस्म की नहीं थी। आर्यों
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- महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 66
- ऋग्वेद,
- हरिवंश, अध्याय 2
- वही, अध्याय 10
- वही, अध्याय 27
- यास्क निरूक्त, अध्याय 5, खंड 6
में जो बहुपति-प्रथा पाई जाती थी, उसमें एक ही परिवार के कई लोग एक ही औरत से सहवास करते थे। धहाप्रचेतनी और उसके पुत्र सोम ने मरीशा (सोम की पुत्री) से सहवास किया।1
दादा द्वारा अपनी पौत्री से विवाह रचाने के उदाहरण कम नहीं हैं। दक्ष ने अपनी पुत्री अपने पिता ब्रह्मा2 के साथ ब्याह रचाने के लिए दे दी थी और इस ब्याह से प्रसिद्ध नारद का जन्म हुआ था। दौहित्र ने अपनी 27 पुत्रियों को अपने पिता सोम को सहवास और प्रजनन के लिए दे दिया था।3
आर्यों को औरत के साथ खुले आम लोगों की आंखों के सामने सहवास करने में कोई आपत्ति नहीं थी। ऋषिगण एक धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे, जिसे वामदेव्या व्रत कहते थे। यह अनुष्ठान यज्ञ-भूमि पर किया जाता था। यदि कोई औरत वहां आकर सहवास की इच्छा व्यक्त करती थी और ऋषि से अपनी संतुष्टि के लिए कहती थी, तो ऋषि उसी समय वहीं खुले में यज्ञ-भूमि पर उसके साथ सहवास किया करते थे। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। ऋषि पराशर को ही लीजिए। उन्होंने सत्यवती के साथ इसी प्रकार सहवास किया था। ऋषि दीर्घतप ने भी ऐसा किया था। ‘अयोनि’ शब्द के अस्तित्व से पता चलता है कि यह रिवाज एक सामान्य बात थी। ‘अयोनि’ शब्द का अर्थ निष्पाप गर्भधारण समझा जाता है। लेकिन इस शब्द का मूल अर्थ यह नहीं है। ‘योनि’ शब्द का मूल अर्थ ‘घर’ होता है। ‘अयोनि’ शब्द का अर्थ घर से बाहर, अर्थात खुले स्थान पर गर्भधारण करना होता है। सीता और द्रौपदी, दोनों अयोनिजा थीं। इस तथ्य से पता चलता है कि इसे गलत नहीं माना जाता था। इस प्रथा को रोकने के लिए धार्मिक निषेधादेश जारी करना पड़ा था।4 इससे भी स्पष्ट है कि यह एक सामान्य बात थी।
आर्यों में अपनी स्त्रियों को कुछ अवधि के लिए भाड़े पर देने की प्रथा भी थी। उदाहरण के लिए, माधवी5 की कहानी का उल्लेख किया जा सकता है। राजा ययाति ने अपने गुरु गालव को अपनी पुत्री माधवी भेंट स्वरूप में दे दी थी। गालव ने माधवी को तीन राजाओं को अलग-अलग अवधि के लिए भाड़े पर दे दिया था। उसके बाद उसने उसे विवाह रचाने के लिए विश्वामित्र को दे दिया। पुत्र उत्पन्न होने तक वह उनके साथ रही। उसके बाद गालव ने लड़की को पुनः उसके पिता ययाति को लौटा दिया। अस्थाई तौर पर स्त्रियों को दूसरों को भाड़े पर देने की प्रथा के अलावा आर्यों में एक अन्य प्रथा प्रचलित थी, उनमें से सर्वोत्तम पुरुषों को संतानोत्पत्ति की अनुमति देना।
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- हरिवंश, अध्याय 2
- वही, अध्याय 3
- हरिवंश, अध्याय 3
- महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 193
- वही, उद्योग पर्व, अध्याय 106-23
वे परिवार वृद्धि को ऐसा मानते थे, मानो वह प्रजनन अथवा वंश संवर्धन मात्र हो। आर्यों में लोगों का एक ऐसा वर्ग था, जिन्हें देव कहा जाता था, जो पद और पराक्रम में श्रेष्ठ मानने जाते थे। अच्छी संतानोत्पत्ति के उद्देश्य से आर्य लोग देव वर्ग के किसी भी पुरुष के साथ अपनी स्त्रियों को संभोग करने की अनुमति दे देते थे। यह प्रथा इतने व्यापक रूप से प्रचलित थी कि देव लोग आर्य स्त्रियों के साथ पूर्वास्वादन को अपना आदेशात्मक अधिकार समझने लगे। किसी भी आर्य स्त्री का उस समय तक विवाह नहीं हो सकता था, जब तक वह पूर्वास्वादन के अधिकार से तथा देवों के नियंत्रण से मुक्त नहीं कर दी जाती थी। तकनीकी भाषा में इसे ‘अवदान’ कहते थे। ‘लाज होम’ अनुष्ठान प्रत्येक हिंदू विवाह में किया जाता है, जिसका विवरण आश्वलायन गृह्य सूत्र में मिलता है। ‘लाज होम’ देवों द्वारा आर्य स्त्री को पूर्वास्वादन के अधिकार से मुक्त किए जाने का स्मृति चिन्ह है। ‘लाज होम’ में अवदान एक ऐसा अनुष्ठान है, जो देवों के वधू के ऊपर अधिकार का समापन करता है। सप्तपदी सभी हिंदू विवाहों का सबसे अनिवार्य धर्मानुष्ठान है, जिसके बिना हिंदू विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिलती। सप्तपदी का देवों के पूर्वास्वादन के अधिकार से अंगभूत संबंध है। सप्तपदी का अर्थ है, वर का वधू के साथ सात कदम चलना। यह क्यों अनिवार्य है? इसका उत्तर यह है कि यदि देव क्षतिपूर्ति से असंतुष्ट हों तो वे सातवें कदम से पहले दुल्हन पर अपना अधिकार जता सकते थे। सातवां फेरा लेने के बाद देवों का अधिकार समाप्त हो जाता था और वर, वधू को ले जाकर, दोनों पति और पत्नी की तरह रह सकते थे। इसके बाद देव कोई अड़चन नहीं डाल सकते थे और न ही छेड़खानी कर सकते थे। कुमारी के कौमार्य का कोई नियम नहीं था। कोई भी लड़की विवाह किए बिना किसी भी पुरुष के साथ संभोग कर सकती थी और उससे संतान भी उत्पन्न कर सकती थी। ‘कन्या’ शब्द के मूल अर्थ से यह स्पष्ट है। ‘कन्या’ शब्द के मूल में ‘काम’ शब्द है, जिसका अर्थ है कि लड़की स्वयं को किसी भी पुरुष के समक्ष अर्पित करने के लिए स्वतंत्र है। कुंती और मत्स्यगंधा इस बात के उदाहरण हैं कि विधिवत् विवाह किए बिना उन्होंने अपने-आपको अन्य पुरुष को अर्पित किया और बच्चे भी उत्पन्न किए। कुंती ने पांडु के साथ विवाह रचाने से पहले अलग-अलग पुरुषों के साथ संभोग किया और बच्चे पैदा किए। मत्स्यगंधा ने भीष्म के पिता शांतनु से विवाह रचाने से पहले पराशर ऋषि के साथ संभोग किया।
पशुओं के साथ यौनाचार करना भी आर्यों में प्रचलित था। ऋषि किंदम द्वारा हिरणी के साथ मैथुन किए जाने की कहानी सर्वविदित है।1 एक दूसरा उदाहरण सूर्य द्वारा घोड़ी के साथ मैथुन किए जाने का है।2 लेकिन सबसे वीभत्स दाहरण स्त्री द्वारा अश्वमेघ यज्ञ में घोड़े के साथ मैथुन किए जाने का है।
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- महाभारत, अध्याय 1.118
- वही, 66
आर्यों के धर्म में यज्ञ या बलि का समावेश है। यज्ञ देवताओं के देवत्य में प्रवेशऔर उन्हें काबू में करने का माध्यम भी था। पारंपरिक यज्ञों की संख्या इक्कीस थी,जिन्हें सात-सात के तीन वर्गों में विभक्त किया गया था। पहले वर्ग के यज्ञों में मक्खन, दूध, अनाज आदि की आहुतियां दी जाती थीं। दूसरे वर्ग में सोम की आहुति और तीसरे में जीव की बलि चढ़ाई जाती थी। यज्ञ अल्पावधि अथवा एक वर्ष या उससे अधिक समय तक चलने वाले दीर्घकालिक हो सकते थे। दीर्घकालिक को सत्र कहा जाता था। यज्ञ के पक्ष में तर्क यह है कि इसे करने वाला शाश्वत पुण्य का भागी बनता है। यज्ञ के माध्यम से स्वयं उस मनुष्य का ही नहीं, अपितु उसके पितरों का भी उद्धार हो जाता है। अपनी भेंट द्वारा वह पितरों को सुख तो प्रदान करता ही है, साथ ही उनका वैभव बढ़ाता है और उन्हें स्वर्गलोक में रहने के लिए भेजता है।1
यज्ञ का प्रयोजन मात्र स्वर्गीय आनंद के प्राप्ति में सहायक बनना कदापि नहीं था। अधिकतर बड़े यज्ञ पृथ्वी पर उत्तम वस्तुओं की प्राप्ति के लिए किए जाते थे। भविष्य के किसी लाभ के बिना किसी ने यज्ञ किया हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती। ब्राह्मण-प्रधान भारत आभार प्रकट करना नहीं जानता था। सामान्य रूप से किसी व्यक्ति को यह लाभ उस देवता से मुआवजे के रूप में प्राप्त उपहार होता, जिसको आहुति दी जाती। यज्ञ का प्रारंभ इन शब्दों के उच्चारण के साथ होता हैः ‘वह इस मंत्र पाठ के साथ देवता को आहुति देता हैः ‘तू मुझे दे और मैं तुझे दूंगा; तू मुझे अर्पित कर और मैं तुझे अर्पित करूंगा।’
यज्ञ का अनुष्ठान विस्मय जागृत करता था। हर शब्द परिणाम-गर्भित होता था, यहां तक कि शब्द का उच्चारण अथवा लहजा भी महत्वपूर्ण होता था। तथापि ऐसे संकेत मिलते हैं कि स्वयं पुरोहित भी यह समझते थे कि अधिकांश अनुष्ठान छलावा मात्र हैं और उनका उतना महत्व नहीं है, जितना कि बताया गया है।
प्रत्येक यज्ञ का अर्थ होता था, पुरोहित को दक्षिणा देना। जहां तक दक्षिणा का संबंध है, उसके नियम स्पष्ट थे और उनके प्रतिपादक निर्लज्ज थे। पुरोहित मात्र दक्षिणा के लिए यज्ञ कराता था और उसमें मूल्यवान वस्त्र, गाय, घोड़े अथवा स्वर्ण होता था। कब क्या दिया जाना है, इसका बड़ी सावधानी से उल्लेख किया गया था। पुरोहितों ने कर्मकांड का एक ऐसा जाल बिछाया था कि हर अनुष्ठान पर वे दक्षिणा की मांग करते थे। संपूर्ण व्यय का भार, जो बहुत ही विपुल होता था, उस एक व्यक्ति पर पड़ता था, जिसके लाभ के लिए यज्ञ कराया जाता था। संपूर्ण अनुष्ठान कितना व्ययसाध्य होता था, इसे इस बात से देखा जा सकता है कि एक जगह पर यज्ञ के लिए दी जाने वाली दक्षिणा एक हजार गायों के रूप में बताई गई है। इतने बड़े लोभ के लिए वह यह घोषणा करता था कि जो एक हजार गायों का दान करता है, उसे स्वर्ग की सभी वस्तुएं प्राप्त हो
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- यह होपकिन्स की पुस्तक दि रिलीजन ऑफ इंडिया से लिया गया है।
जाती हैं। पुरोहित के पास प्रस्तुत करने के लिए अच्छा पूर्वोदाहरण यह था कि स्वर्ग के देवताओं के बारे में प्रचलित कथाओं में कहा गया है कि वे जब पड़ोसी देवताओं की मदद करते हैं, तो सदैव एक-दूसरे से पुरस्कार की मांग करते हैं। जब देवता पुरस्कार चाहते हैं, तो पुरोहित को भी वैसा करने का अधिकार है।
जीव की बलि चढ़ाये जाने वाला यज्ञ प्रमुख यज्ञ होता था। यह खर्चीला और नृशंस होता था। आर्यों के धर्म में बलि के लिए पांच जीवों का वर्णन है। बलि के लिए जीवों की इस सूची में पहला स्थान मनुष्य का था। नर-बलि सबसे महंगी होती थी। इस बलि के नियमों के अनुसार यह आवश्यक था कि वध किया जाने वाला व्यक्ति न तो पुरोहित हो और न ही दास हो। उसे क्षत्रिय अथवा वैश्य होना चाहिए। उस समय के सामान्य मूल्यांकन के अनुसार बलि के लिए खरीदे जाने वाले मनुष्य का मूल्य एक हजार गायें था। खर्चीला और नृशंस होने के अलावा यह अत्यंत वीभत्स होता होगा, क्योंकि बलि चढ़ाने वालों को केवल मनुष्य का वध ही नहीं करना होता था, बल्कि उसे खाना भी पड़ता था। मनुष्य के बाद दूसरा स्थान घोड़े का था। वह भी काफी खर्चीली बलि होती थी, क्योंकि घोड़ा आर्यों के लिए उनकी भारत विजय में एक दुर्लभ और आवश्यक पशु था। सैन्य शासन के इतने सक्षम साधन को बलि की भेंट चढ़ाना आर्यों के लिए रुचिकर नहीं था। यह बलि इसलिए भी वीभत्स होती होगी, क्योंकि अश्व-बलि चढ़ाने के एक अनुष्ठान में वध किए जाने से पूर्व घोड़े की बलि चढ़ाने वाले की पत्नी के साथ मैथुन कराया जाता था।
आमतौर पर बलि के लिए भेंट किए जाने वाले ऐसे पशु होते थे, जिनका उपयोग लोग अपने कृषि-प्रयोजनों के लिए किया करते थे। उनमें अधिकतर गाय और बैल होते थे।
यज्ञ खर्चीले होते थे और उन पर होने वाले व्यय के विचार से यह प्रथा समाप्त हो सकती थी। लेकिन वह समाप्त नहीं हुई। कारण यह है कि यज्ञ के रुकने से ब्राह्मण को होने वाली दक्षिणा की हानि का प्रश्न इससे जुड़ा हुआ है। यदि यज्ञ कराना रुक जाता तो कोई दक्षिणा भी नहीं रह पाती और ब्राह्मण भूखों मर जाता। इसलिए ब्राह्मण ने खर्चीली जीव-बलि का विकल्प खोज लिया। नर-बलि के लिए ब्राह्मण ने जीवित मनुष्य के स्थान पर घास-फूस अथवा धातु अथवा मिट्टी के बने मनुष्य को प्रस्तुत करने की अनुमति दे दी। लेकिन उन्होंने इस भय से नर-बलि का पूर्णरूप से त्याग नहीं किया कि कहीं यज्ञों का कराना बंद हो गया तो उन्हें अपनी दक्षिणा से हाथ धोना पड़ेगा। जब नर-बलि बहुत कम हो गई तो उसके विकल्प के रूप में पशु-बलि शुरू हो गई। आम लोगों के लिए पशु-बलि भी खर्चीली थी। यहां भी इस आशंका से कि कहीं इस बलि का प्रचलन ही बंद न हो जाए, ब्राह्मण बड़े पशु के स्थान पर छोटे पशु का सुझाव लेकर आगे आया, जैसे कि पहले मनुष्य और घोड़े के स्थान पर पशु-बलि की अनुमति दी गई थी। यह सब यज्ञ को जारी रखने के प्रयोजन के लिए किया गया, ताकि ब्राह्मण को दक्षिणा का नुकसान न उठाना पड़े, जोकि उसकी आजीविका थी। ब्राह्मण यज्ञ को जारी रखने के लिए इतने कटिबद्ध थे कि वे भेंट-स्वरूप मात्र चावल प्राप्त करके संतुष्ट हो जाते थे।
तथापि इससे यह नहीं माना जाना चाहिए कि प्रस्तुत विकल्प से आर्यों के यज्ञों की भयावहता में कमी आ गई थी। विकल्पों को अपनाने के बावजूद अधिक खर्चीली और नृशंस बलि का स्थान अपेक्षाकृत कम खर्चीली और निर्दोष बलि ने पूर्ण रूप से नहीं लिया। इससे यही निष्कर्ष निकला कि भेंट बलि कराने वाले की क्षमता के अनुसार हो सकती है। अगर यह गरीब हो तो भेंट चावल की हो सकती है। अगर वह संपन्न हो तो भेंट बकरी की हो सकती है। अगर वह अमीर हो तो भेंट मनुष्य, गाय, घोड़े अथवा सांड की हो सकती है। विकल्पों का प्रभाव यह हुआ कि यज्ञ को सभी की सामर्थ्य के भीतर लाया गया, ताकि कुल-मिलाकर ब्राह्मण अपेक्षाकृत अधिक लाभ अर्जित कर सके। इसके प्रभाव से पशु-बलि नहीं रुक सकी। वास्तव में असंख्य लोगों द्वारा पशु-बलि जारी रखी गई।
यज्ञ में बहुधा नियमित रूप से पशुओं की हत्या होती थी, जिसमें ब्राह्मण बधिकों का काम करते थे। किस सीमा तक इन निर्दोष पशुओं की हत्या होती थी, इसकी कुछ जानकारी बौद्ध साहित्य में निहित यज्ञों के उल्लेख से प्राप्त होती है। सुत्तनिपात में एक ऐसे यज्ञ का वर्णन किया गया है, जिसे कौशल-नरेश प्रसेनजित द्वारा संपन्न किए जाने की व्यवस्था की गई थी। यह बताया जाता है कि यज्ञ में वध के लिए खंभों से पांच सौ बैल, पांच सौ सांड, पांच सौ गाएं, पांच सौ बकरियां और पांच सौ मेंमने बांधे गए थे और यज्ञ करने वाले पुरोहितों के आदेशानुसार राजा के सेवकों को जो कार्य सौंपे गए थे, वे अपने कर्त्तव्यों का पालन आश्रुपूरित नेत्रें से कर रहे थे।
यज्ञ में जहां एक ओर भयंकर हत्या-कांड होता था, वहां वह वास्तव में एक प्रकार का उत्सव बन जाता था। भुने हुए मांस के अलावा, मादक पेय भी सुलभ होते थे। ब्राह्मणों के लिए सोम और सुरा, दोनों ही उपलब्ध होती थीं। अन्य लोगों को काफी मात्र में सुरा सुलभ होती थी। लगभग प्रत्येक यज्ञ के बाद जुआ खेला जाता था और सबसे असाधारण बात यह है कि इसके साथ-साथ खुले में संभोग भी चलता रहता था। यज्ञ अय्याशीपूर्ण बन गए थे और उनमें कोई धर्म शेष नहीं रह गया था।
आर्य धर्म अनुष्ठानों की शृंखला मात्र था। इन अनुष्ठानों के पीछे अच्छे और सदाचारी जीवन के लिए कोई ललक नहीं होती थी। पवित्रता के लिए कोई कामना या पिपासा नहीं थी। उनके धर्म में कोई आध्यात्मिक तत्व नहीं था। ऋग्वेद के देवगीत आर्य धर्म में आध्यात्मिक आधार की अनुपस्थिति का बहुत ही अच्छा प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। देवगीत आर्यों द्वारा अपने देवताओं के लिए की गई प्रार्थनाएं हैं। इन प्रार्थनाओं में वे क्या कामना करते हैं? क्या वे यह प्रार्थना करते हैं कि उन्हें लोभ से दूर रखा जाए? क्या वे बुराई से सुधारक और उनकी नियति छुटकारा पाने की प्रार्थना करते हैं? क्या वे अपने पापों के लिए क्षमादान की प्रार्थना करते हैं? अधिसंख्य देवगीतों में इंद्र की स्तुति की गई है। वे उसकी स्तुति इसलिए करते हैं, क्योंकि उसने आर्यों के शत्रुओं का विनाश किया। वे सभी गुणगान करते हैं, क्योंकि उसने कृष्ण नामक एक असुर की सभी गर्भवती पत्नियों को मार डाला। वे उसकी प्रशंसा करते हैं, क्योंकि उसने असुरों के सैकड़ों गांवों को नष्ट कर दिया। वे उसकी सराहना करते हैं, क्योंकि उसने लाखों दस्युओं को मार डाला। वे इस आशा में इंद्र की प्रार्थना करते हैं, ताकि वह अनार्यों का और भी विनाश कर सके, जिससे वे अनार्यों की खाद्य-आपूर्ति के साधन और संपदा प्राप्त कर सकें। ऋग्वेद के देवगीत आध्यात्मिक तथा उन्नायक होने की बजाय, कुत्सित विचारों तथा कुत्सित प्रयोजनों से परिपूर्ण है। आर्य धर्म का सरोकार कभी भी ऐसे जीवन से नहीं रहा, जिसे सदाचारी जीवन कहा जाता है।
II
बुद्ध के अवतरित होने के समय आर्यों के समाज की ऐसी ही स्थिति थी। सुधारक के रूप में आर्यों के समाज को सुधारने के लिए श्रम करने वाले बुद्ध के संबंध में दो संगत प्रश्न हैं। उनके सुधार में मुख्य आधार-स्तंभ क्या थे? अपने सुधार-आंदोलन में वह किस हद तक सफल हुए हैं?
पहले प्रश्न को लें। बुद्ध ने यह अनुभव किया कि अच्छे और विशुद्ध जीवन का बोध कराने के लिए आदेश की अपेक्षा उदाहरण बेहतर है। एक अच्छा और विशुद्ध जीवन बिताकर उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे कि वह सभी के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सके। उन्होंने कितना निष्कलंक जीवनयापन किया, इसका परिचय हमें ब्रह्म जाल सुत्त से प्राप्त हो सकता है। इसे नीचे उद्धृत किया जा रहा है, क्योंकि इसमें हमें केवल यही जानकारी नहीं मिलती कि बुद्ध ने कितना विशुद्ध जीवनयापन किया, अपितु यह हमें इस बारे में भी जानकारी देता है कि आर्यों में सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण कितना अस्वच्छ जीवनयापन करते थे।
ब्रह्म जाल सुत्त
- ऐसा मैंने सुना है। एक बार महाभाग लगभग पांच सौ बांधवों के साथ राजगृह और नालंदा के बीच मुख्य पथ से होकर गुजर रहे थे। और भिक्षु सुप्पिया भी अपने युवा शिष्य ब्रह्मदत्त के साथ राजगृह और नालंदा के बीच मुख्य पथ से होकर गुजर रहे थे। भिक्षु सुप्पिया, बुद्ध और उनके सिद्धांत एवं संघ की निंदा करते चले जा रहे थे। लेकिन उनके युवा शिष्य ब्रह्मदत्त बुद्ध की प्रशंसा में, सिद्धांत की प्रशंसा में, संघ की प्रशंसा में कई प्रकार से विचार व्यक्त कर रहा था। इस प्रकार परस्पर विरोधी मत रखने वाले गुरु और शिष्य, दोनों महाभाग और उनके साथी बांधवों के पीछे-पीछे चल रहे थे।
- अब महाभाग अपने साथी बांधवों के साथ रात गुजारने के लिए अम्बलत्तिका विहारोद्यान के राजकीय विश्रामगृह में रुके। भिक्षु सुप्पिया और उनके साथ उनके युवा शिष्य ब्रह्मदत्त भी वहीं ठहरे और विश्रामगृह में भी वे दोनों उसी विषय पर चर्चा करते रहे।
- और तड़के बहुत से बांधव जागकर मंडप में एकत्र हुए और आसन ग्रहण करने के पश्चात बातें करने लगे। उनकी वार्ता का रुख इस प्रकार था, ‘बंधुओं, यह कितनी आश्चर्यजनक बात है और विचित्र भी कि महाभाग, अर्हत, महान् बुद्ध जो सब-कुछ जानते और देखते हैं, उन्होंने स्पष्ट रूप से यह समझ लिया होगा कि मनुष्यों की प्रवृत्तियां कितनी भिन्न होती हैं। क्योंकि देखने की बात यह है कि जबकि भिक्षु सुप्पिया बुद्ध, सिद्धांत और संघ की निंदा करते हैं, उनका ही युवा शिष्य ब्रह्मदत्त कई प्रकार से उनकी प्रशंसा में बोलता है। इस प्रकार गुरु और शिष्य, दोनों परस्पर विरोधी विचारों को व्यक्त करते हुए महाभाग और उनके बांधवों के पीछे-पीछे चलते हैं।
- अब उनकी वार्ता के रुख को समझते हुए महाभाग मंडप में गए और उन्होंने उस आसन पर स्थान ग्रहण किया, जो उनके लिए बिछाया गया था। बैठने के बाद उन्होंने कहा, ‘आप यहां बैठे क्या बातें कर रहे हैं, और आपके बीच बातचीत का क्या विषय है?’ और उन्होंने उन्हें सब-कुछ बता दिया। और उन्होंने कहा:
- ‘बधुओ, अगर बाहर के लोग मेरे विरुद्ध अथवा संघ के विरुद्ध अथवा सिद्धांत के विरुद्ध बोलते हैं, तो आपको उस आधार पर न तो विद्वेष रखना चाहिए, न ईर्ष्या से पीड़ित होना चाहिए और न दुर्भावना-ग्रस्त होना चाहिए। अगर आप उस आधार पर क्रोध करेंगे अथवा आहत होंगे, तो उससे आपकी अपनी आत्म-विजय में बाधा पहुंचेगी। अगर, दूसरों के हमारे विरुद्ध बोलने पर आप क्रोध करेंगे और दुखी होंगे, तो क्या ऐसी स्थिति में आप यह निर्णय कर सकेंगे कि उनके भाषण में कौन-सी अच्छी या बुरी बात कही गई थी?’
‘श्रीमान्, यह नहीं होगा।’
‘लेकिन जब बाहर वाले मेरे अथवा सिद्धांत अथवा संघ के विरुद्ध बोलते हैं, तो आपको यह कहकर झूठ का उद्घाटन करना चाहिए और बताना चाहिए कि यह मिथ्या है, क्योंकि इस या उस कारण से यह तथ्य नहीं है, यह ऐसा नहीं है। ऐसी चीज हमारे बीच नहीं होती, न हममें होती है।’
- ‘लेकिन बंधुओं, अगर बाहर वाले मेरी, सिद्धांत की ओर संघ की सराहना में बोलते हैं, तो उस आधार पर आपको आनंदित अथवा हर्षित अथवा गर्वित नहीं होना चाहिए। यदि आप ऐसा करेंगे, तो इससे भी आपकी आत्म-विजय में बाधा पहुंचेगी। जब बाहर वाले मेरी अथवा सिद्धांत की अथवा संघ की सराहना करते हैं, तो आपको जो तथ्य है, उसे यह कहकर स्वीकार करना चाहिएः इस अथवा उस कारण से यह तथ्य है। यह ऐसा ही है। ऐसी चीज हमारे बीच पाई जाती है, हममें विद्यमान है।’
- एक गैर-धर्मांतरित व्यक्ति तथागत की सराहना करते हुए केवल छोटी-छोटी चीजों, महत्वहीन बातों और मात्र नैतिकता के बारे में बोलेगा। ऐसी छोटी-छोटी चीजें और मात्र नैतिकता के अल्प ब्यौरे क्या हैं, जिनकी वह सराहना करेगा?
(4) (नैतिकता, भाग I)
- ‘प्राणियों की हत्या को अस्वीकार करते हुए, परिव्राजक गौतम जीवन के विनाश से अलग रहते हैं। उन्होंने गदा और तलवार अलग रख दी है, और कठोरता से लज्जित तथा दया से परिपूर्ण, वह सभी जीवनधारियों के प्रति संवेदनशील एवं दयालु रहते हैं।’ तथागत की सराहना में बोलते हुए, गैर-धर्मांतरित व्यक्ति इसी प्रकार बोल सकता है।
अथवा वह कह सकता है: ‘जो नहीं दिया गया है, उसको अस्वीकार करते हुए परिव्राजक गौतम उसे ग्रहण करने से अलग रहे जो उनका अपना नहीं है। वह केवल वही लेते हैं जो दिया जाता है, और इस आशा में कि भेंट और आएगी, वह अपना जीवन ईमानदारी तथा हृदय की पवित्रता के साथ व्यतीत करते हैं।’
अथवा वह कह सकता है, ‘अशुचिता का परित्याग करते हुए परिव्राजक गौतम ब्रह्मचारी हैं। यह यौनाचार की अश्लील प्रथा से स्वयं को अलग और कोसों दूर रखते हैं।’
- अथवा वह कह सकता हैः ‘मिथ्याभाषण का परित्याग करते हुए परिव्राजक गौतम अपने-आपको झूठ से अलग रखते हैं। वह सत्य बोलते हैं और सत्य से कभी डिगते नहीं। वह निष्ठावान और विश्वास योग्य हैं तथा विश्व को दिया गया अपना वचन भंग नहीं करते।’
अथवा वह कह सकता है: ‘निंदापूर्ण बातों को अस्वीकार करते हुए परिव्राजक गौतम पर-निंदा से दूर रहते हैं। वह जो-कुछ यहां सुनते हैं, उसे यहां से लोगों के बीच विवाद उत्पन्न करने के लिए अन्यत्र दोहराते नहीं हैं, अन्यत्र को- कुछ सुनते हैं, उसे वहां के लोगों के विरूद्ध विवाद उठाने के लिए नहीं दोहराते हैं। इस तरह वह बंटे हुए लोगों को एकजुट करने के लिए जीवनयापन करते हैं, वह मित्रें को प्रोत्साहन देने वाले, शांति स्थापित करने वाले, शांति प्रेमी, शांति के लिए भावपूर्ण और शांतिवर्धक शब्दों के वक्ता हैं।’
अथवा वह कह सकता है: ‘अविनयपूर्ण वाणी का परित्याग करते हुए, परिव्राजक गौतम कठोर भाषा का प्रयोग नहीं करते। वह ऐसे शब्द बोलते हैं, जो निर्दोष, कर्ण-प्रिय, मधुर, हृदय-स्पर्शी, सुसंस्कृत, आनंददायक और लोकप्रिय हो।’
अथवा वह कह सकता है: निरर्थक बातों का परित्याग करते हुए परिव्राजक गौतम व्यर्थ की बातचीत नहीं करते। विशेष अवसर पर वह धर्म तथा संघ के अनुशासन के विषय पर तथ्यानुसार बोलते हैं, उनके शब्द सार्थक होते हैं। वह सही समय पर ऐसे शब्द बोलते हैं, जो उपयुक्त उदाहरणों से युक्त, सुस्पष्ट और प्रासंगिक किसी के भी हृदय में बस जाने योग्य होते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘परिव्राजक गौतम बीजों अथवा पौधों को नुकसान नहीं पहुंचाते।’
‘वह दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं, रात्रि को भोजन नहीं करते, दोपहर के बाद भोजन ग्रहण नहीं करते।
वह नाच, गानों और संगीत से भरपूर खेल-तमाशों और मेलों को देखने नहीं जाते।
वह पुष्पहार पहनने, इत्र तथा अनुलेपन से स्वयं को सुसज्जित करने से दूर रखते हैं।
वह विशाल एवं भव्य शय्या के उपयोग का परिवर्जन करते हैं।
वह चांदी अथवा स्वर्ण ग्रहण करने से दूर रहते हैं।
वह बिना पकाए हुए अन्न को ग्रहण करने से दूर रहते हैं।
वह कच्चा मांस ग्रहण करने से दूर रहते हैं।
वह स्त्रियों अथवा लड़कियों को स्वीकारने से दूर रहते हैं।
वह बंधुआ पुरुषों और बंधुआ स्त्रियों को स्वीकारने से दूर रहते हैं।
वह भेड़ों अथवा बकरियों को लेने से दूर रहते हैं।
वह कुक्कुटों और शूकरों को लेने से दूर रहते हैं।
वह हाथियों, पशुओं, घोड़ों और घोड़ियों को लेने से दूर रहते हैं।
वह जुते हुए खेतों अथवा बंजर भूमि को लेने से दूर रहते हैं।
वह बिचौलिए अथवा संदेशवाहक के रूप में कार्य करने से दूर रहते हैं।
वह क्रय-विक्रय से दूर रहते हैं।
वह तुलाओं, कांस्य तथा मापकों के जरिए धोखा देने से दूर रहते हैं।
वह उत्कोच, ठगी और धोखाधड़ी के कुटिल तरीके से दूर रहते हैं।
वह विकलांग बनाने, हत्या करने, दास बनाने, मुख्य पथों पर लूट, डकैती और हिंसा से दूर रहते हैं।’
बंधुआ, इसी प्रकार की बातें गैर-धर्मांतरित व्यक्ति तथागत की सराहना करते हुए कह सकता है।
* * * * *
कुलशील (आचरण के बारे में छोटा पैरा) यहां पर समाप्त होता है।
* * * * *
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण ऐसे नवपादपों और बढ़ते हुए पौधों को हानि पहुंचाने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जिनका प्रसार जड़ों अथवा कटाई से सुधारक और उनकी नियति अथवा ग्रंथियों अथवा कोपलों अथवा बीजों से होता है, परिव्राजक गौतम नवपादपों और बढ़ते हुए पौधों को इस प्रकार की हानि पहुंचाने से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वालेभोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण जिस प्रकार खाद्य, पेय, वस्त्र, साज-सामान, बिस्तरे, इत्र और कढ़ी हुई सामग्री जैसी एकत्रित वस्तुओं के उपयोग के अभ्यस्त हो जाते हैं, परिव्राजक गौतम एकत्रित की गई ऐसी वस्तुओं के उपयोग से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले परिव्राजक और ब्राह्मण ऐसे तमाशों में जाने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:
- नाच-नृत्य (नक्काम),
- गीत-गायन (गीतम),
- वाद्य संगीत (वादितम),
- मेलों में तमाशे (पेखम),
- गाथाओं का पाठ (आक्खानम),
- कर संगीत (पाणिसरम),
- चारणों का गान (वेताल),
- टम-टम वाद्य (कुंभाथुनम),
- सुंदर दृश्य (शोभा नगरकम्),
- चांडालों द्वारा नटीय करतब (चांडाल वमसा-धोपनम),
- हाथियों, घोड़ों, भैंसों-सांडों, बकरियों, भेड़ों, मुर्गों और बटेरों की लड़ाई,
- लठैती, मुक्केबाजी, मल्ल में शक्ति परीक्षण,
13-16. दिखावटी लड़ाई, हाजिरी लेना, युद्धाभ्यास, समीक्षा।
परिव्राजक गौतम ऐसे तमाशों में जाने से स्वयं को दूर रखते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वालेभोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक अथवा ब्राह्मण ऐसे खेलों और मनोरंजनोंके अभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:
(1) आठ या दस चौखानों से बनी बिसात (चौपड़),
(2) हवा में ऐसी बिसात की कल्पना करते हुए उसी प्रकार के खेलों का खेला जाना,
(3) जमीन पर खींची गई लकीरों के ऊपर चलते रहना जिससे प्रत्येक अपने अपेक्षित स्थान पर कदम रख सके,
(4) एक ढेरी में से नाखूनों के बल पर बिना हिलाए मोहरों अथवा मनुष्यों को हटाना , अथवा उन्हें ढेरी में रखना जिससे ढेरी हिल जाती है, वह हार जाता है,
(5) पांसा फेंकना,
(6) लंबी छड़ी से छोटी छड़ी पर प्रहार करना,
(7) लाख अथवा लाल रंग अथवा आटे के पानी में सनी, अंगुलियों वाले हाथ को पानी में डुबोना और गीले हाथ को जमीन अथवा दीवार पर मारना, पुकार करकहना कि ‘यह क्या होगा?’ और दिखाना कि यह शक्ल हाथी, घोड़ों आदि की होनी चाहिए,
(8) गेंद से खेल खेलना,
(9) पत्तों की बनी हुई खिलौन की बांसुरी बजाना,
(10) खिलौने के हलों से हल चलाना,
(11) कलाबाजियां दिखाना,
(12) ताड़ के पत्तों की खिलौना चक्की बनाकर खेलना,
(13) ताड़ के पत्तों का खिलौना माप बनाकर खेलना,
(14-15) खिलौना गाड़ियों अथवा खिलौना धनुषों से खेलना,
(16) हवा में अथवा साथी खिलाड़ी की पीठ पर लिखे अक्षरों का पूर्वानुमानलगाना,
(17) साथी खिलाड़ी के विचारों का पूर्वानुमान लगाना, और
(18) बहरूपियापन।
परिव्राजक गौतम इस प्रकार के खेलों और मनोरंजनों से अलग रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए गए भोजनपर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण ऊंचे और विशाल पलंगों के उपयोग के अभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:-
(1) सचल पीठिकाएं, ऊंची और छह फुट लंबी (असंदी),
(2) तख्त जिसकी पीठ पर पशु आकृतियां खुदी हों (पल्लंको),
(3) बकरी के लोमो वाली लंबी चादर (गोनाको),
(4) रंगीन थेगली से बनाए गए पलंगपोश (कित्तका),
(5) सफेद कंबल (पट्टिका),
(6) ऊनी शैयावरण जिनमें फुलों की कढ़ाई की गई हो (पटालिका),
(7) रूई से भरी हुई रजाइयां (तुलिका),
(8) तोशक, जिनमें शेर, बाघ आदि की आकृतियों की कढ़ाई की गई हो (विकाटिका),
(9) दोनों तरफ पशु लोम लगे हुए गलीचे (उद्दालोम),
(10) एक तरफ पशु लोक लगे हुए गलीचे (इकांतलोमी),
(11) रत्नजड़ित शैयावरण (कथ्थीसम),
(12) रेशमी शैयावरण (कोसीयम),
(13) सोलह नर्तकियों के लिए पर्याप्त कालीनें (कट्टाकम),
(14-16) हाथी, घोड़े और रथ के नमदे,
(17) हिरन की खालों को सिलकर बनाए गए नमदे (अगीनापवेनी),
(18) जंगली हिरन की खालों से निर्मित नमदे,
(19) कालीन जिनके ऊपर चांदनी हों (सौटारखदाम), और
(20) पीठिकाएं, जिनमें सिर और पैरों के लिए लाल तकिए हों।’
परिव्राजक गौतम ऐसी वस्तुओं के उपयोग से दूर रहते हैं।
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण सजने-संवरने और सौंदर्य केसाधनों का उपयोग करने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:
अपने शरीर पर सुगंधित चूर्ण मलना, उससे बाल धोना और स्नान करना, पहलवानों की तरह अंगों को गदाओं से थपथपाना, दर्पणों, आंखों का काजल आदि, पुष्पहारों, कुंकुम, सौंदर्य प्रसाधनों, कंगन, कंठहारों, छड़ियों, औषधियों के लिए सरकंडे के खोलों, कटारों, सायबान कशीदाकारी की हुई चप्पलों, पगड़ियों, पुष्प, किरीटों, याक की पूंछ की चंवरों और लंबी झालरदार पोशाकों का इस्तेमाल करना।
परिव्राजक गौतम शरीर को सज्जित करने, सजने-संवरने के साधनों के उपयोग से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण इस तरह के क्षुद्र वार्तालाप केअभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:
राजाओं, डाकुओं, राज्य के मंत्रियों के किस्से, युद्ध, आतंक और लड़ाइयों के वृतांत, खाद्य और पेय पदार्थों, वस्त्र, बिस्तरों, फूलमालाओं, इत्रें के बारे में बातें करना, संबंध-संपर्कों, साज-सामान, गांवों-नगरों, शहरों और देशों के बारे में बातें करना, स्त्रियों और सूरमाओं की कहानियां सुनाना, गली के नुक्कड़ों अथवा पनघट की गपशप करना, भूतों की कहानियां सुनाना, बेढंगी बातें करना, पृथ्वी अथवा समुद्र के उद्भव के बारे में अथवा अस्तित्व और अनस्तित्व के बारे में अटकलबाजी करना।
‘परिव्राजक गौतम ऐसे क्षुद्र वार्तालाप से अलग रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्ति द्वारा दिए गए भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण ऐसी विवादपूर्ण शब्दावली के प्रयोग के अभ्यस्त हो जाते हैं, जैसे:
तुम इस सिद्धांत और अनुशासन को नहीं जानते, मैं जानता हूं।
तुम इस सिद्धांत और अनुशासन को कैसे जान पाओगे?
तुम गलत विचारों में फंस गए हो। मैं ही केवल सही हूं।
मैं सही बात बोल रहा हूं, तुम नहीं।
तुम पहले को बाद में रख रहे हो और जो बाद में रखना चाहिए, वह पहले रख रहे हो।
तुमने उपाय निकालने में इतनी देर कर दी, इससे सब-कुछ गड़बड़ हो गया है।
तुम्हारी चुनौती स्वीकार कर ली गई है।
तुम गलत साबित हुए हो।
अपने विचारों को स्पष्ट बताओ।
अगर कर सकते हो, तो अपने आपको मुक्त करो।
‘परिव्राजक गौतम ऐसी विवादपूर्ण शब्दावली से अलग रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए गए भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण संदेश ले जाने, दौत्य कार्य करने और राजाओं, राज्य के मंत्रियों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों अथवा युवा मनुष्यों के बीच यह कहते हुए मध्यस्थता करने के अभ्यस्त हो जाते हैं: वहां जाओ, यहां आओ, यह अपने साथ ले जाओ, वहां से वे ले आओ।
‘परिव्राजक गौतम ऐसे दासोचित कार्यों से अलग रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए गए भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण जो अपने लाभ की लालसा से प्रवंचक, प्रमादी (देने वालों के लिए पवित्र शब्दों का प्रयोग करने वाले) शगुनिया, ओझा का काम करते हैं।
‘परिव्राजक गौतम इस प्रकार की ठगी और गूढ़ भाषा से दूर रहते हैं।’
*****
(मज्झिम शील (आचरण पर लंबा अनुच्छेद) यहां पर समाप्त होता है)
*****
- अथवा वह कह सकता हैः ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए गए भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण अपनी आजीविका कमाने के गलतसाधन अपनाते हैं और निम्न स्तर की कलाएं दिखाते हैं, जैसे:
(1) हस्तरेखा विज्ञान-एक बच्चे के हाथी, पैरों आदि के निशानों से दीर्घ जीवन,
समृद्धि आदि (अथवा उसके विपरीत) की भविष्यवाणी करना,
(2) शकुनों अथवा लक्षणों से भविष्यवाणी करना,
(3) बिजली की कड़क और खगोलीय स्थितियां देखकर शकुन-अपशकुनबताना,
(4) स्वप्नों की व्याख्या कर भविष्यवाणी करना,
(5) शरीर के निशानों के आधार पर भविष्यवाणी करना,
(6) चूहों के कुतरे हुए कपड़ों के निशानों के आधार पर शकुन-अपशकुन बताना,
(7) अग्नि को बलि चढ़ाना,
(8) चम्मच से चढ़ावा चढ़ाना,
(9-13) देवताओं को भूसी; भूसी और अनाज का आटा, उबालने योग्य भूसी निकाला हुआ अनाज, घी और तेल की भेंट चढ़ाना,
(14) सरसों मुंह से उगलकर अग्नि में डालना,
(15) देवताओं के लिए भेंट स्वरूप दाहिने घुटने से खून निकालना,
(16) अंगुलियों की गांठे आदि देखकर मंत्र गुनगुनाने के बाद यह बताना कि अमुक आदमी जन्म से भाग्यशाली है अथवा नहीं,
(17) यह बताना कि जिस स्थान पर मकान अथवा क्रीड़ा-स्थल बनना है, वह शुभ है अथवा नहीं,
(18) रीति-रिवाजों के नियमों के बारे में सलाह देना,
(19) दुष्ट आत्माओं को समाधि-क्षेत्र में गिरा देना,
(20) भूतों को भगाना,
(21) मिट्टी के घर में निवास करते समय तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना,
(22) सांपों के तंत्र-मंत्र बोलना,
(23) जहर की तंत्र विद्या दिखाना,
(24) बिच्छू की तंत्र विद्या दिखाना,
(25) चुहिया की तंत्र विद्या दिखाना,
(26) पक्षी की तंत्र विद्या दिखाना,
(27) कौए की तंत्र विद्या दिखाना,
(28) यह भविष्यवाणी करना कि आदमी कितने वर्ष और जीयेगा,
(29) मुसीबत से बचने के लिए तंत्र-मंत्र देना, और
(30) जानवरों को नियंत्रण में रखना।
‘परिव्राजक गौतम ऐसी तुच्छ कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण क्षुद्र स्तर की कलाएं दिखाकर अपनी आजीविका कमाने के लिए गलत साधन अपनाते थे। निम्नलिखित चीजों और प्राणियों में अच्छे और बुरे गुण बताते थे तथा उनके निशान देखकर उसके मालिक को शुभ या अशुभ बताते थे, जैसेः
रत्न, तख्ता, पोशाक, तलवारें, बाण, धनुष, अन्य शस्त्र, पुरुष, स्त्रियां, लड़कियां, दास, दासियां, हाथी, घोड़े, भैंसें, सांड, बैल, बकरियां, भेड़, मुर्गा, मुर्गी, बटर, गोह, हिलसा, कछुए और अन्य प्राणी।
‘परिव्राजक गौतम ऐसी क्षुद्र कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण निम्न स्तर की कलाओं द्वारा अपनी आजीविका कमाने के लिए अनुचित साधन अपनाते हैं, जैसे कि इस प्रकार की भविष्यवाणी करना:
प्रमुख महोदय कूच करेंगे, गृह-प्रमुख आक्रमण करेंगे और शत्रु पीछे हट जाएंगे,
शत्रुओं के प्रमुख आक्रमण करेंगे और हमारे प्रमुख पीछे हट जाएंगे,
गृह-प्रमुख विजयी होंगे, और हमारे प्रमुख हार जाएंगे,
विदेशी प्रमुख इस पक्ष से विजयी होंगे और हमारे प्रमुख हार जाएंगे,
इस प्रकार यह पक्ष विजयी होगा, वह पक्ष हारेगा।
‘परिव्राजक गौतम इस प्रकार की क्षुद्र कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण निम्न स्तर की कलाओं द्वारा अपनी आजीविका कमाने के लिए अनुचित साधन अपनाते हैं, जैसे कि यह भविष्यवाणी करना:
(1) चंद्र ग्रहण होगा,
(2) सूर्य ग्रहण होगा,
(3) नक्षत्रें का ग्रहण होगा,
(4) सूर्य अथवा चंद्रमा का विपथन होगा,
(5) सूर्य अथवा चंद्रमा अपने सामान्य पथ पर आ जाएंगे,
(6) नक्षत्रें का विपथन होगा,
(7) नक्षत्र अपने सामान्य पथ पर आ जाएंगे,
(8) उल्कापात होगा,
(9) जंगल में अग्निकांड होगा,
(10) भूचाल आएगा,
(11) देवता गर्जन करेंगे, और
(12-15) सूर्य अथवा चंद्रमा अथवा तारों का उदय और अस्त, उनके प्रकाश में तीव्रता अथवा धुंधलापन अथवा पंद्रह प्रकार की भविष्यवाणी करना कि इनके ऐसे-ऐसे परिणाम होंगे।
‘परिव्राजक गौतम ऐसी क्षुद्र कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण निम्न स्तर की कलाओं द्वारा अपनी आजीविका कमाने के अनुचित साधन अपनाते हैं, जैसे:
(1) भारी वर्षा की भविष्यवाणी,
(2) कम वर्षा की भविष्यवाणी,
(3) अच्छी फसल की भविष्यवाणी,
(4) अनाज की कमी होने की भविष्यवाणी,
(5) शांति की भविष्यवाणी,
(6) अशांति की भविष्यवाणी,
(7) महामारी की भविष्यवाणी,
(8) अच्छी ऋतु की भविष्यवाणी,
(9) अंगुलियों पर गणना,
(10) अंगुलियों का इस्तेमाल किए बिना गणना,
(11) बड़ी संख्याओं का योग करना,
(12) गाथा और कवित्त की रचना करना, और
(13) वाक्छल दिखाना, कुतर्क करना।
‘परिव्राजक गौतम इस प्रकार की क्षुद्र कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण निम्न स्तर की कलाओं द्वारा अपनी आजीविका कमाने के लिए अनुचित साधन अपनाते हैं, जैसे:
(1) विवाहों के लिए शुभ दिन निश्चित करना जिसमें वधू अथवा वर को घरलाया जाता है,
(2) विवाहों के लिए शुभ दिन निश्चित करना जिसमें वधू अथवा वर को भेजा जाता है,
(3) शांति की संधियों को संपन्न करने के लिए शुभ समय निश्चित करना (अथवा सद्भावना प्राप्त करने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना),
(4) विद्वेष आरंभ करने के लिए शुभ समय निश्चित करना (अथवा विद्वेष उत्पन्न करने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना),
(5) ऋण लेने के लिए शुभ समय निश्चित करना (अथवा पासा फेंकने में सफलता के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना),
(6) धन व्यय करने के लिए शुभ समय निश्चित करना (अथवा पासा फेंकने वाले प्रतिद्वंद्वी के दुर्भाग्य के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना),
(7) लोगों को भाग्यशाली बनाने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना,
(8) लोगों को भाग्यहीन बनाने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना,
(9) गर्भपात कराने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना,
(10) किसी व्यक्ति की बत्तीसी जकड़ने के लिए जादू-टोना करना,
(11) गूंगापन लाने के लिए जादू-टोना करना,
(12) किसी व्यक्ति से हार स्वीकार करवाने के लिए जादू-टोना करना,
(13) बहरापन लाने के लिए जादू-टोना करना,
(14) मायावी आइने से भविष्य-सूचक उत्तर प्राप्त करना,
(15) किसी भूत ग्रस्त लड़की के माध्यम से भविष्य-सूचक उत्तर प्राप्त करना,
(16) देवता से भविष्य-सूचक उत्तर प्राप्त करना,
(17) सूर्य की पूजा करना,
(18) श्रेष्ठतम की पूजा करना,
(19) अपने मुंह से आग की लपटें निकालना, और
(20) भाग्य की श्रीदेवी को उत्प्रेरित करना।
‘परिव्राजक गौतम इस प्रकार की क्षुद्र कलाओं से दूर रहते हैं।’
- अथवा वह कह सकता है: ‘जब कि निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्वाह करने वाले कुछ परिव्राजक और ब्राह्मण निम्न स्तर की कलाओं द्वारा अपनी आजीविका कमाने के लिए अनुचित साधन अपनाते हैं, जैसे:
(1) निश्चित लाभ प्राप्त हो जाने पर किसी देवता को भेंट अर्पित करने की प्रतिज्ञा करना,
(2) ऐसी प्रतिज्ञाओं के लिए प्रार्थना करना,
(3) मिट्टी के मकान में रहते हुए तंत्र-मंत्र का जाप करना,
(4) पुंसत्व उत्पन्न करना,
(5) किसी आदमी को नपुंसक बनाना,
(6) आवासों के लिए शुभ स्थानों का निर्धारण करना,
(7) स्थानों को पवित्र बनाना,
(8) मुंह धोने का अनुष्ठान करना,
(9) नहाने का अनुष्ठान करना,
(10) बलि चढ़ाना,
(11-14) वमनकारी तथा रेचक दवाएं देना,
(15) लोगों को सिरदर्द से राहत दिलाने के लिए संस्कारित करना (अर्थात् छींकने के लिए दवाई देना),
(16) लोगों के कानों में तेल डालना (या तो कान बड़े करने के लिए अथवा कान के अंदर के घाव ठीक करने के लिए),
(17) लोगों की आंखें ठीक करना (उनमें दवायुक्त तेल की बूंदें डालकर ठंडक पहुंचाना),
(18) नाक के जरिए दवाएं डालना,
(19) आंखों में सुरमा लगाना,
(20) आंखों के लिए मरहम देना,
(21) नेत्र-चिकित्सक के रूप में कार्य करना,
(22) शल्य-चिकित्सक के रूप में कार्य करना,
(23) बाल-चिकित्सक के रूप में कार्य करना,
(24) जड़ी-बूटियां देना, और
(25) बारी-बारी से दवाएं देना।
‘परिव्राजक गौतम इस प्रकार की तुच्छ कलाओं से दूर रहते हैं।’
‘बंधुओं, ये छोटी-छोटी बातें हैं, नैतिकता के अल्प ब्यौरे हैं, जिनके बारे में गैर-धर्मांतरित व्यक्ति तथागत की सराहना करते हुए बोल सकता है।’
*****
(आचरण पर लंबे परिच्छेद यहां पर समाप्त होते हैं)
III
वास्तव में यह किसी भी व्यक्ति द्वारा अनुसरण करने के लिए नैतिक जीवन का सर्वोच्च मानदंड था। गौतम बुद्ध के समय के आर्यों के समाज के लिए नैतिक जीवनका इतना ऊंचा मानदंड बिल्कुल अविदित था।
वह पवित्र जीवन व्यतीत करने का उदाहरण प्रस्तुत करके ही नहीं रुक गए। वह समाज में सामान्य पुरुषों और स्त्रियों के चरित्र को भी बनाना चाहते थे। उनके मार्ग दर्शन के लिए उन्होंने दीक्षा का एक ऐसा स्वरूप विकसित किया, जिसके बारे में आर्यों का समाज बिल्कुल अनभिज्ञ था। दीक्षा में यह व्यवस्था थी कि बौद्ध धर्म को अंगीकार करने वाले व्यक्ति को बुद्ध द्वारा निर्धारित कुछ नैतिक सिद्धांतों का पालन करने के लिए वचन देना पड़ता था। इन सिद्धांतों को पंचशील नाम से जाना जाता है। ये हैं:
(1) हत्या न करना,
(2) चोरी न करना,
(3) झूठ न बोलना,
(4) कामुक न बनना, और
(5) मादक पेयों का सेवन न करना।
ये पांच सिद्धांत आम लोगों के लिए थे। भिक्षुकों के लिए निम्न पांच और सिद्धांत थे:
(6) वर्जित समयों पर भोजन न करना,
(7) नृत्य, गायन में भाग न लेना अथवा नाट्य अथवा अन्य तमाशों में उपस्थितन होना,
(8) फूलमालाओं, इत्रें और आभूषणों के इस्तेमाल से दूर रहना,
(9) ऊंचे अथवा चौड़ी शैयाओं के उपयोग से दूर रहना, और
(10) कभी भी धन ग्रहण न करना।
इन शीलों अथवा सिद्धांतों से एक आचरण संहिता बन गई थी, जिसका प्रयोजन स्त्रियों और पुरुषों के विचारों और कार्यों को नियमित करना था।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत हत्या न करने का था। बुद्ध ने जोर देकर यह बात स्पष्ट कर दी थी कि इस सिद्धांत का अर्थ केवल यही नहीं है कि जान लेने से बचना चाहिए। उन्होंने आग्रह किया कि इस सिद्धांत का अर्थ प्रत्येक जीवधारी के लिए सकारात्मक संवेदना, सद्भावना और प्रेम समझा जाना चाहिए।
उन्होंने अन्य सिद्धांतों को भी इसी प्रकार के सकारात्मक और व्यापक अर्थ प्रदान किए। बुद्ध के एक साधारण अनुयायी ने उन्हें एक बार अबौद्ध संन्यासी के इस उपदेश के बारे में बताया कि सर्वोच्च आदर्श, बुरे कार्यों, बुरे शब्दों, बुरे विचारों और बुरे जीवन की अनुपस्थिति में निहित है। बुद्ध की इस संबंध में टिप्पणी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहाः
“अगर, यह सच होता तो हर दूध पीता बच्चा जीवन का आदर्श प्राप्त कर लेता… अच्छे और बुरे का ज्ञान जीवन है, और उसके बाद बुरे कार्यों, शब्दों, विचारों और जीवन के बदले अच्छे कार्यों, अच्छे शब्दों, अच्छे विचारों और अच्छे जीवन की प्राप्ति है। यह स्थिति केवल दृढ़ संकल्प और सतत प्रयास द्वारा लाई जा सकती है।……..”
बुद्ध के उपदेश केवल नकारात्मक नहीं थे। वे सकारात्मक और रचनात्मक हैं। बुद्ध अपने सिद्धांतों का अनुसरण करने वाले व्यक्ति से संतुष्ट नहीं होते थे। वह आग्रह करते थे कि दूसरों को उनका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उदाहरणार्थ, अंगुत्तर निकाय में बुद्ध ने एक अच्छे मनुष्य और बहुत अच्छे मनुष्य में भेद करते हुए बताया है कि वह जो हत्या, चोरी, कामुकता, झूठ और नशे से दूर रहता है, उसे अच्छा मनुष्य कहा जा सकता है, लेकिन बहुत अच्छा कहलाने योग्य केवल वही मनुष्य होता है, जो स्वयं इन बुरी चीजों से दूर रहता है और दूसरों को भी इससे दूर रखने के लिए प्रेरित करता है।
जैसाकि ठीक कहा गया है, बौद्ध धर्म के दो महत्वपूर्ण गुण प्रेम और विवेक हैं।
वह गुण के रूप में प्रेम के व्यवहार को कितनी गंभीरता से हृदयगंम कराते थे, उन्हीं के शब्दों से स्पष्ट हो जाता है-‘जिस प्रकार अपने जीवन का खतरा उठाते हुए मां अपने शिशु की देख-भाल करती है, उसी प्रकार व्यक्ति को सभी प्राणियों के प्रति अपार प्रेम प्रदान करने के लिए मन बनाना चाहिए। उसे संपूर्ण विश्व के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए, ऊपर-नीचे और उस पार सभी के लिए उसके मन में घृणाहीन और शत्रुता रहित अबाध प्रेम होना चाहिए। ऐसी जीवन-पद्धति विश्व में सर्वोत्तम है।’ बुद्ध ने ऐसा उपदेश दिया था।1
‘सभी पीड़ित प्राणियों के प्रति व्यापक दयाभाव, संवेदना, प्रत्येक प्रकार के संवेदनशील जीवन के प्रति सद्भावना तथागत (बुद्ध) की विशेषता थी, जैसे कि कुछ अन्य मानव पुत्रें में भी ये विशेषताएं रही हैं और वह अपने दृष्टिकोण को अनुयायियों तक पहुंचाने में अत्यंत आश्चर्यजनक रूप में सफल हुए1 ।’
________________
- सुत्त निपात
बुद्ध विवेक के सिद्धांत को उतनी ही दृढ़ता से मानते थे, जितनी दृढ़ता से वह प्रेम के सिद्धांत को मानते थे। उनकी मान्यता थी कि नैतिक जीवन का प्रारंभ ज्ञान के साथ होता है और उसकी समाप्ति विवेक के साथ होती है। वह ‘विश्व की रक्षा के लिए आए और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उनका तरीका अज्ञानता का विनाश, जीवन के सही मूल्यों एवं विवेकपूर्ण जीवन पद्धति के लिए ज्ञान का प्रसार करना था।’ बुद्ध ने यह दावा नहीं किया कि लोगों का उद्धार करने के लिए उनके पास शक्ति है। लोगों को स्वयं इसके लिए प्रयत्न करना है और ज्ञान के मार्ग पर चलकर उद्धार हो सकता है। उन्होंने ज्ञान पर इतना जोर दिया कि उनके विचार में ज्ञान के बिना नैतिकता कोई गुण नहीं है।
तीन चीजों के विरुद्ध बुद्ध ने महान अभियान छेड़ा था। उन्होंने वेदों की सत्ता को अस्वीकार किया…
दूसरे, उन्होंने धर्म के रूप में बलि की निंदा की। बलि के प्रति बुद्ध का रवैया एक कहानी के रूप में जातक-माला में भली-भांति वर्णित है। कहानी इस प्रकार है:
बलि की कहानी
जिनके हृदय पवित्र हैं, वे दुष्टों के बहकावे में नहीं आते। यह जानते हुए हृदय की पवित्रता के लिए संघर्षरत रहना है। यही उपदेश निम्नलिखित से प्राप्त होगा:
यह कहा जाता है कि बहुत समय पहले बोधिसत्व नाम के एक राजा थे, जिन्होंने अपना राज्य आनुवांशिक उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया था। वह अपने पुण्य कार्यों के प्रभाव से इस स्थिति तक पहुंचे थे। वह शांतिपूर्वक अपने राज्य पर शासन करते थे। किसी प्रतिद्वंद्वी ने अशांति उत्पन्न नहीं की। उनकी प्रभुसत्ता को सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त थी। उनका देश किसी भी प्रकार के कोप, प्रकोप अथवा विपदा से मुक्त था। अपने देश और बाहर के देशों के साथ उनके संबंध हर प्रकार से मधुर थे, और उनके सभी अधीनस्थ उनके आदेशों का पालन करते थे।
_________________
- प्रात-बुद्धिज्म, पृ. 49
- इस राजा ने अपने इच्छा रूपी शत्रुओं का दमन किया था और उसको ऐसे लाभों के प्रति कोई झुकाव नहीं था जिनका भोग करना बुरा माना जाता है, बल्कि उसकी मनोकामना अपनी प्रजा के सुख-संवर्धन की रहती थी। उसके कर्मों का एकमात्र प्रयोजन धर्माचरण था, वह एक मुनि की तरह व्यवहार करता था।
- वह मानव स्वभाव को जानता था, लोग सबसे श्रेष्ठ मानव के व्यवहार का अनुकरण करना महत्वपूर्ण मानते हैं, इसलिए अपनी प्रजा को निर्वाण दिलाने की इच्छा से उसने खासतौर से धार्मिक कृत्यों के निष्पादन की ओर विशेष ध्यान दिया।
- वह भिक्षा-दान करता था, नैतिक आचरण (शील) के सिद्धांतों का कठोरता से पालन करता था, सहिष्णुता की ओर ध्यान देता था और प्राणियों के लाभ के लिए संघर्ष करता था। अपने विचारों के अनुरूप विनम्र स्वरूप था, वह अपनी प्रजा की प्रसन्नता के लिए समर्पित रहता था और धर्म का साकार रूप दिखाई देता था।
एक बार ऐसा हुआ कि उसके द्वारा रक्षित रहते हुए भी, उसके राज्य के कई जिले, उनके निवासियों के दोषपूर्ण कार्यों और वर्षा का ध्यान रखने वाले देवों की गलती के परिणाम-स्वरूप सूखे और इस आपदा के विक्षोभकारी प्रभावों से पीड़ित हो गए। अतः राजा को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि उस पर यह विपत्ति स्वयं उसके अथवा उसकी प्रजा द्वारा धर्मपरायणता का उल्लंघन किए जाने के फलस्वरूप आई है और जिन लोगों के कल्याण के प्रति वह दृढ़-प्रतिज्ञ था, उनके कष्ट से उसे हार्दिक वेदना हुई, इसलिए उसने धार्मिक मामलों में अपने ज्ञान के लिए प्रख्यात ज्ञानियों और क्षमता-संपन्न लोगों से सलाह ली। उसने अपने परिवार के पुरोहित की अध्यक्षता में वयोवृद्ध ब्राह्मणों और अपने मंत्रियों को सलाह के लिए बुलाया और उनसे इस विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए कुछ उपाय पूछे। उन्होंने वेदों के अनुसार बलि में विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि इससे ही पर्याप्त वर्षा हो सकती है। उन्होंने राजा को इस प्रकार की भयावह बलि देने का सुझाव दिया, जिसमें सैंकड़ों जीवधारियों की हत्या अपेक्षित है। लेकिन इस प्रकार की हत्या से संबंधित ऐसी हर बात की सूचना प्राप्त कर लेने पर जोकि बलि के लिए विहित है, उसके सहज करुणाभाव ने उनकी सलाह मानने से मन ही मन में इंकार कर दिया। फिर भी शिष्टतावश अस्वीकृति के कठोर शब्दों से वह उन्हें आहत नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इस मुद्दे से हटकर बातचीत का रुख अन्य विषयों की तरफ मोड़ दिया। दूसरी ओर, राजा के मनोभावों से अनभिज्ञ उन लोगों को जब भी धार्मिक मामलों पर राजा से बातचीत का मौका मिलता, तभी वे बलि के लिए उन्हें सचेत करते रहते।
- ‘आप भूमि पर अधिकार प्राप्त करने और उस पर शासन करने के लिए निर्धारित विभिन्न प्रकार के राजकीय कर्त्तव्यों का समय पर निष्पादन करने का निरंतर ध्यान रखते हैं। इन कार्यों की संपन्नता धर्मपरायणता के सिद्धांतों के अनुरूप है।
- ‘जब कि आप (सभी अन्य मामलों में) ‘त्रयी’ (धर्म, अर्थ और काम) का अनुपालन इतनी चतुराई से करते हैं, अपने लोगों के हित में रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, तब क्या कारण है कि आप देवों की दुनिया तक पहुंचाने वाले उस पुल के संबंध में, जिसका नाम ‘बलि’ है, इतने लापरवाह और लगभग निष्क्रिय हैं?
- ‘सेवकों की तरह राजा (आपके अधीनस्थ) आपके आदेशों का इस विश्वास के साथ आदर करते हैं कि उनसे सफलता निश्चित है। अपने शत्रुओं का विनाश करने वाले, हे राजन, अब समय आ गया है कि आप बलि के जरिए अपने यश में वृद्धि करने वाले वरदान प्राप्त करें।
7-8. ‘दान की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति और संयम (अच्छा आचरण) बरतने में कठोरता के कारण एक दीक्षित के लिए अपेक्षित पवित्रता पहले से ही आपके पास है, तथापि आपके लिए यह उपयुक्त होगा कि आप ऐसी बलि द्वारा, जिनके वर्ण्य विषय वेद हैं-देवों का ऋण चुकाएं। उपयुक्त तथा निर्दोष रूप से कराई गई बलि से संतुष्ट होकर देवता बदले में वर्षा भेजकर प्राणियों का सम्मान करते हैं। इस प्रकार विचार करते हुए अपने प्रजाजन और स्वयं अपने कल्याण के बारे में सोचिए और नियमित रूप से बलि की स्वीकृति दीजिए, जिससे आपकी कीर्ति बढ़ेगी।’
इस पर राजा के मन में यह विचार आया, ‘ऐसे नेताओं के विश्वास पर अवलंबित मुझमें निरीह व्यक्ति वास्तव में असम्यक रूप से रक्षित है। विधान पर निष्ठापूर्वक विश्वास करते हुए और उसका आदर करते हुए भी दूसरों के शब्दों पर निर्भरता मेरी सहृदयता के गुण को समूल नष्ट कर देगी।
- ‘लोगों में जो सर्वोत्तम आश्रयदाता के रूप में विख्यात हैं, वही लोग विधि-विधान के आधार पर अपने तर्कों द्वारा नुकसान पहुंचाने का इरादा रखते हैं। ऐसा व्यक्ति जो उनके द्वारा दिखाए गए गलत रास्ते का अनुसरण करता है, वह शीघ्र ही स्वयं को संकटग्रस्त पाएगा, क्योंकि वह बुराइयों से घिर जाएगा।
- ‘धर्मपरायणता और पशुओं के उत्पीड़न के बीच क्या संबंध हो सकता है? देव लोक में मेरे आवास अथवा देवताओं की आराधना का उत्पीड़ितों की हत्या से क्या सरोकार है?
11-12. ‘उनका कहना है कि अनुष्ठानों के अनुसार विहित प्रार्थनाओं से, मानो कि वे पवित्र सूत्र उसे घायल करने के लिए अनगिनत बर्छियां हों, वध किया गया पशु स्वर्ग लोक को जाता है और इसी उद्देश्य से उसकी हत्या की जाती है। इस प्रकार व्याख्या करके इस कार्रवाई को विधिसम्मत माना जाता है। तथापि यह मिथ्या है। क्योंकि यह कैसे संभव है कि परलोक में कोई भी प्राणी दूसरों के द्वारा किए गए कार्य का फल भोग सकता है? और किस कारण से वह पशु, जिसकी बलि दी गई है, स्वर्गारोहण करेगा जब कि वह बुरे कार्मों से दूर न रहा हो और अच्छे कार्यों के लिए उसने स्वयं को समर्पित न किया हो? क्या केवल इसलिए वह स्वर्ग को जाएगा क्योंकि अपने स्वयं के कार्यों के आधार पर उसका वध नहीं हुआ है, बल्कि उसकी बलि दी गई है।
- ‘और अगर बलि में वध किया गया उत्पीड़ित प्राणी वास्तव में स्वर्ग को जाता है, तो क्या हमें ब्राह्मणों से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वे बलि में आत्मदाह के लिए स्वयं को प्रस्तुत करें। लेकिन इस प्रकार की कोई प्रथा कहीं भी उनमें नहीं देखी जाती। तो फिर इन सलाहकारों द्वारा दी गई सलाह को कौन हृदगगंम कर सकता है?
- ‘जहां तक देवताओं का प्रश्न है, क्या हम यह विश्वास करें कि जो सुंदर अप्सराओं द्वारा परोसे गए स्वच्छ तथा अतुलनीय सुगंधियुक्त, स्वादिष्ट और गुणकारी व्यंजन ग्रहण करते हैं, क्या वे उसका त्याग करके दयनीय प्राणी के वध का आनंद उठाएंगे? क्या वे बलि में उन्हें भेंट किए गए प्राणी की ओझड़ी अथवा ऐसे अन्य अंगों का आनंदपूर्वक आस्वादन करेंगे?
‘इसलिए यह समय अमुक कार्य करने के लिए उपयुक्त है’, इस प्रकार इरादा करके राजा ने यह ढोंग किया कि वह बलि का आयोजन करने के लिए तत्पर हैं, और उनका समर्थन करते हुए वह उनसे इस प्रकार बोले: ‘यह सच है कि आप जैसे महान सलाहकारों के होते हुए, जो कि मेरी प्रसन्नता के लिए कटिबद्ध हैं, मैं बहुत ही सुरक्षित और संतुष्ट हूं। इसलिए मैं एक हजार वध्य पुरुषों की बलि (पुरुषमेध) कराऊंगा। हर कारोबार के क्षेत्र में रत मेरे कर्मचारियों को इस प्रयोजन के लिए अपेक्षित वस्तुएं जुटाने के आदेश दे दिए जाएं। साथ ही सबके लिए डेरे डालने और अन्य भवनों का निर्माण करने हेतु सवोर्त्तम भूमि का पता चलाया जाए। साथ ही शुभ चंद्र दिवसों, करणों, मुहूर्तों और नक्षत्रें के बारे में विचार करके (ज्योतिषियों द्वारा) बलि के लिए उपयुक्त समय निश्चित किया जाए।’ पुरोहित ने उत्तर दिया, ‘अपने उद्यम में सफलता प्राप्त करने के लिए महामहिम को एक बलि के अंत में अवभृथ (अंतिम स्नान) करना होगा और तत्पश्चात् आप क्रमानुसार बलि करा सकते हैं। क्योंकि अगर एक हजार वध्य पुरुषों को एकदम पकड़ लिया जाए तो यह निश्चित है कि आपकी प्रजा आपको दोष देगी और वह एक बड़ा विद्रोह खड़ा कर देगी।’ अन्य ब्राह्मणों द्वारा पुरोहित की बात का अनुमोदन किए जाने पर राजा ने उत्तर दिया, ‘जनता के क्रोध की आशंका मत कीजिए। आदरणीय महानुभावों, मैं ऐसे कदम उठाऊंगा, जिससे मेरी प्रजा में किसी प्रकार का विद्रोह नहीं होगा।’
इसके पश्चात् राजा ने नगर-पुरुषों और भूधारकों की सभा बुलाई और कहा, ‘मेरा इरादा एक हजार नर-बलियां कराने का है। लेकिन मैं समझता हूं कि ईमानदारी से कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति अग्निदाह के लिए उपयुक्त नहीं है। इसी विचार से मैं आपको यह सलाह देता हूं कि आपमें से जिस किसी को आज के बाद नैतिक आचरण की सीमाओं का उल्लंघन और राजकीय इच्छा का निरादर करते हुए देखूंगा, उसे बलि के लिए पकड़वाने का आदेश दूंगा, क्योंकि मेरे विचार में ऐसा व्यक्ति अपने परिवार के लिए कलंक और मेरे देश के लिए खतरा होगा। इस संकल्प को लागू करने के उद्देश्य से दोष रहित और पैनी दृष्टि तथा सदैव सचेत रहने वाले दूत आपका निरीक्षण करते रहेंगे और आपके आचरण के संबंध में मुझे सूचना देंगे।’
तत्पश्चात सभा में अग्रिम पंक्ति के लोग हाथ जोड़कर और उन्हें माथे तक ले जाकर बोले:
15-16. ‘महामहिम, आपके सभी कार्य आपकी प्रजा की प्रसन्नता के लिए होते हैं और उस आधार पर आपकी अवज्ञा करने का कारण ही क्या हो सकता है? यहां तक कि ब्रह्मा (देवता) भी केवल आपके व्यवहार का अनुमोदन ही कर सकता है। महामहिम, जो गुणीजनों पर अधिकार रखते हैं, वही हमारे लिए सर्वोत्तम अधिकारी हैं। इस कारण जिससे भी महामहिम को प्रसन्नता होती है, उससे हमें भी अवश्य प्रसन्नता होगी। वास्तव में आपको हमारे आनंद और हमारी भलाई के अलावा किसी भी चीज से प्रसन्नता नहीं मिलती।’
उसके पश्चात नगर और देश के गण्यमान्य लोगों ने जब इस प्रकार उनके आदेश को मान लिया, तो राजा ने सभी नगरों और देश-भर में ऐसे अधिकारियों को भेज दिया जो बाहरी शक्ल-सूरत से लोगों को इस कार्य के लिए उपयुक्त प्रतीत होते थे और उन्हें बुरा कार्य करने वालों को पकड़ने का काम सौंपा गया और प्रतिदिन डुग-डुगी बजाकर सर्वत्र इस प्रकार के आदेश की घोषण करने का आदेश दिया गया।
- ‘राजा सुरक्षा प्रदान करता है और उस नाते वह हमेशा ईमानदारी से रहने वाले, अच्छे आचरण वाले, संक्षेप में गुणीजन की सुरक्षा का आदेश देता है, फिर भी अपनी प्रजा के लाभ के लिए वह नर-बलि के इरादे से ऐसे लोगों में से हजारों वध्य मानवों को अलग कर लेना चाहता है, जो दुराचरण में आनंद लेते हैं।
- ‘इसलिए आज के बाद जो भी मनमाने तौर पर दुर्व्यवहार करेगा, हमारे राजा के आदेश की अवज्ञा करेगा, जिसके आदेश का पालन उसके अधीनस्थ राजा भी करते हैं, उसे उसी के कार्यों के कारण बलि के वध्य व्यक्ति के रूप में ले जाया जाएगा और लोग उसकी यातनापूर्ण पीड़ा को देखेंगे, जब कि वह पीड़ा से तड़पेगा और उसके शरीर को बलि-स्तंभ से कसकर बांध दिया जाएगा।’
जब राज्य के निवासियों को उनके राजा द्वारा बलि के लिए भेंट चढ़ाने के इरादे से बुरे कर्म करने वालों की सावधानी से की जा रही खोज के बारे में जानकारी मिली, क्योंकि वे दिन-प्रतिदिन अत्यंत भयावह राज-उद्घोषणा सुनते थे और दुष्टजन को खोजने और पकड़ने के लिए नियुक्त किए गए राजा के सेवकों को अक्सर सर्वत्र देखते थे, तो उन्होंने बुरे आचरण के प्रति आसक्ति का त्याग कर दिया और नैतिक सिद्धांतों तथा आत्म-संयम का कठोरता से पालन करने का इरादा कर लिया। वे घृणा और शत्रुता के हर अवसर का त्याग करते रहे और अपने झगड़ों और मतभेदों को निपटाते हुए उन्होंने आपसी प्रेम और आदर-भाव को बढ़ावा दिया। उनमें माता-पिता तथा गुरुजन की आज्ञा का पालन, उदारता और दूसरों से सहयोग की सामान्य भावना, शिष्ट व्यवहार और नम्रता जैसे गुणों का समावेश हो गया। संक्षेप में, वे ऐसे रहते थे, जैसे कि कृत-युग (ब्राह्मण-काल) में रहते हों।
- मृत्यु के भय ने उनमें परलोक के विचार जागृत कर दिए थे, अपने परिवारों के सम्मान को कलंकित करने के जोखिम ने उन्हें अपनी ख्याति की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया था, उनके हृदय की महान पवित्रता ने उनके लोकलाज के भाव को मजबूत बना दिया था। इन कारणों से शिष्ट व्यवहार वाले लोगों की शीघ्र ही पहचान कर ली जाती थी।
- यद्यपि हर व्यक्ति पवित्र आचरण बनाए रखने के बारे में पहले से कहीं अधिक कटिबद्ध था, तथापि राज के सेवकों ने बुरे कर्म करने वालों की सतर्कता पूर्वक की जा रही खोज में कमी नहीं आने दी। इस कारण से भी लोगों की धर्मपरायणता में गिरावट नहीं आई।
- राजा को अपने दूतों से जब राज्य की इस स्थिति की जानकारी प्राप्त हुई, तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने शुभ समाचार लाने वाले संदेशवाहकों को पुरस्कार के रूप में बहुमूल्य उपहार प्रदान किए और अपने मंत्रियों को कुछ इस प्रकार बोलते हुए आदेश दियाः
22-24. ‘आपको मालूम है कि मेरी सर्वोच्च इच्छा अपनी प्रजा की रक्षा करना है। अब वे बलि के उपहारों को प्राप्त करने योग्य बन गए हैं और बलि के उद्देश्य से ही मैंने यह संपत्ति प्रदान की है। मेरे विचार से बलि को उचित रूप से जिस प्रकार संपन्न किया जाता है, मैं उसे उसी तरह पूरा करना चाहता हूं। जो भी व्यक्ति इस आशय से धन की कामना करता है कि इससे उसकी प्रसन्नता में वृद्धि होगी, उसे अपनी इच्छा की संतुष्टि के लिए मुझसे धन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आने दें। इस प्रकार जिस कष्ट और अभाव से हमारा देश पीड़ित है, वह शीघ्र ही दूर हो जाएगा। वास्तव में जब भी मैं अपनी प्रजा की रक्षा के प्रति अपने दृढ़-संकल्प और इस कार्य में आप सरीखे उत्कृष्ट साथियों से प्राप्त होने वाले असीम सहयोग के बारे में सोचता हूं, तो अक्सर मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मेरे लोगों की पीड़ाएं मेरे क्रोध को भड़का कर मेरे मस्तिष्क में ज्वाला की तरह प्रज्ज्वलित हो रही हैं।’
मंत्रियों ने राजाज्ञा को स्वीकार किया और उसे शीघ्र अमल में लाने लगे। उन्होंने सभी गांवों, नगरों और बाजारों और उसी तरह सड़कों पर सभी स्थानों पर भिक्षा-गृहों की स्थापना के लिए आदेश दिए। इस कार्य के संपन्न हो जाने के बाद उन्होंने उन सभी के लिए जो अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भीख मांगते थे, दिन-प्रतिदिन वे सभी चीजें उसी प्रकार दान-स्वरूप देने की व्यवस्था की, जिस प्रकार राजा ने आदेश दिया था।
- इस प्रकार निर्धनता दूर हो गई और राजा से धन मिलने पर विविध और अच्छी पोशाकें तथा आभूषण पहन-संवरकर लोगों ने उत्सव जैसे दिनों की भव्यता का प्रदर्शन किया।
- आनंदित उपहार प्राप्तकर्ताओं के गुणगानों से राजा की कीर्ति सभी दिशाओं में उसी प्रकार फैल गई, जैसे झील की छोटी-छोटी तरंगों द्वारा संवाहित कमल-पुष्पों का पराग सतह पर फैलता ही चला जाता है।
- और अब अपने शासक द्वारा उठाए गए विवेकपूर्ण कदमों के परिणाम स्वरूप सभी लोग शिष्ट व्यवहार के अभ्यस्त हो गए, तो समृद्धि के प्रेरक इन सभी गुणों के विकास द्वारा पराजित कष्ट और विपत्तियां लुप्त हो गईं।
- सदा समय से ऋतुएं आने लगीं और अपनी नियमित रूप से प्रत्येक व्यक्ति को आनंदित करने लगीं और राजा के नए स्थापित कार्य-व्यापार की भांति विधिसम्मत रूप से चलने लगीं। इसलिए पृथ्वी पर्याप्त मात्र में विभिन्न प्रकार के अनाज उगाने लगी और वहां भरपूर जल सुलभ रहता और सभी जलाशय कमलों से भरे रहते।
- संक्रामक रोग मानव-जाति को ग्रसित नहीं करते थे, चिकित्सीय जड़ी-बूटियां बहुत ही प्रभावशाली बन गई थीं। वर्षा सदा समय से और नियमित रूप से आने लगी ओर तारामंडल शुभ मार्ग से गुजरने लगा।
- बाहर से अथवा राज्य के भीतर से या अव्यवस्था फैलाने वाले खतरनाक तत्वों की ओर से कहीं भी कोई भय नहीं था। धर्मपरायणता, आत्म-संयम, शिष्ट व्यवहार और नम्रता का जीवनयापन करते हुए इस देश के लोगों को लग रहा था, मानो वे कृत युग के लाभों का उपयोग कर रहे हैं।
इस प्रकार विधि के सिद्धांतों के अनुसार त्याग-तपस्या करने की राजा की शक्ति द्वारा कष्ट और विपत्तियों की समात्ति के साथ निर्धनों की पीड़ाएं भी दूर हो गईं और देश समृद्ध हो गया तथा उसकी संपन्न जनता को आनंद की अनुभूति प्राप्त हुई। तद्नुसार वहां के लोग अपने राजा का गुणगान करने और सभी दिशाओं में उसकी ख्याति का विस्तार करने से कभी नहीं थकते थे।
एक दिन एक उच्च अधिकारी जिसका हृदय सत्य (निष्ठा) में प्रवृत्त था, इस प्रकार राजा से बोला, ‘सच ही, यह एक सच्ची कहावत है।
- ‘राजा अपने विवेक से कितने ही बुद्धिमान लोगों को पीछे छोड़ देते हैं, क्योंकि उन्हें सदा सभी प्रकार के कार्यों और सबसे ऊंचे, सबसे निचले और मध्यम वर्ग के लोगों से निबटना पड़ता है। महामहिम, क्योंकि आपने पशु-हत्या का दोषी बनने के पाप से मुक्त होकर धर्मपरायणता में जो त्याग-तपस्या का अनुष्ठान किया है, उसके प्रभाव से अपनी प्रजा के लिए इस लोक और परलोक का सुख प्राप्त कर लिया है। अब संकट के दिन बीत गए हैं और गरीबी के कष्ट समाप्त हो गए हैं, क्योंकि लोग अच्छे आचरण के सिद्धांतों में परिपक्व हो चुके हैं। अधिक कहने से क्या लाभ? आपकी प्रजा प्रसन्न है।
- ‘आपके अंगों को आच्छादित करने वाला काले हिरन का चर्म उज्ज्वल चंद्रमा में विद्यमान काले धब्बे के समान है, और न ही आपके ऊपर दीक्षित होने के कारण जो संयम थोपा गया है, वह आपके व्यवहार के सहज सौंदर्य को बाधित नहीं कर सकता। दीक्षा के अनुष्ठानों के अनुरूप आपने सिर पर जो वस्त्र धारण किया है, उसकी चमक आपके द्वारा पहले से धारण किए गए राज-छत्र की भव्यता से कम नहीं है। और अंत में यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आपकी विशाल हृदयता ने ख्याति प्राप्त लोगों को पीछे छोड़ दिया है और एक सौ बलि देने वाले की प्रसिद्धि के अंहकार को चूर कर दिया है।
- ‘हे बुद्विमान राजन्, नियमानुसार किसी कामना की प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले लोगों द्वारा कराई गई बलि एक कुकृत्य है, क्योंकि उसके द्वारा जीवधारियों की हत्या की जाती है। इसके विपरीत आपके द्वारा किया गया त्याग आपकी कीर्ति का स्मारक है और आपके सुंदर व्यवहार और बुराई के प्रति आपकी विमुखता के पूर्णरूप से अनुरूप है।
- ‘आपकी प्रजा प्रसन्न है, जिसे आप जैसा संरक्षक प्राप्त है। यह निश्चित है कि कोई भी पिता अपने बच्चों का आपसे बेहतर अभिभावक नहीं बन सकता।’ एक अन्य अधिकारी ने कहाः
- ‘अगर समृद्ध व्यक्ति दान देते हैं, तो वे सदगुण अपनाने की आशाओं से प्रेरित होते हैं। अच्छा अचारण भी लोगों में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त करने अथवा मृत्यु के पश्चात स्वर्ग पहुंचाने की अभिलाषा से किया जाता है। लेकिन ये दोनों प्रकार के कार्य, जिनका प्रतिपादन दूसरों को लाभान्वित करने के लिए आपकी दक्षता में दुष्टिगोचर होता है, केवल उन्हीं लोगों द्वारा किए जा सकते हैं, जो ज्ञान और सद्गुणों के प्रयास से परिपूर्ण हैं। इस प्रकार पवित्र हृदय की पवित्रता के लिए संघर्ष किया जाना चाहिए। (राजा के लिए आध्यात्मिक उपदेशों में यह भी कहा जाना चाहिएः जो अपनी प्रजा की भलाई की कामना करते हुए स्वयं प्रयास करता है, और इस प्रकार निर्वाण, कीर्ति और प्रसन्नता लाता है, इसके सिवाय जिसका कोई कार्य नहीं है, वही राजा है।’
और इसमें निम्नलिखित यह जोड़ा जा सकता हैः ‘जो (राजा) भौतिक समृद्धि के लिए प्रयास करता है, उसे यह सोचते हुए कि उसकी प्रजा का धार्मिक आचरण ही समृद्धि का स्त्रेत है, स्वयं धर्म के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए।’
इसमें आगे यह कहा जाना चाहिएः ‘पशुओं की हत्या करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, बल्कि इसे प्राप्त करने की शक्ति दान, आत्म-संयम, इंद्रिय-निग्रह आदि में निहित है और इसी कारण से जो भी मोक्ष की कामना करता है, उसे इन गुणों के लिए स्वयं प्रयास करना चाहिए।’ और तथागत के संबंध में चर्चा करते समय यह भी कहा गया हैः ‘इस प्रकार स्वामी ने, जब कि वह अभी तक अपने पूर्व अस्तित्व में थे, विश्व के हितों का ध्यान रखने की प्रवृत्ति जताई।’
IV
बलि के विरुद्ध दूसरा प्रबल प्रहार कूटदंत सुत्त के नाम से विख्यात उनके प्रवचनों में निहित है। यह इस प्रकार हैः
उचित और अनुचित बलि
- इस प्रकार मैंने सुना है। जब एक बार महाभाग लगभग पांच सौ बांधवों की भारी भीड़ के साथ यात्र करते समय मगध से गुजर रहे थे, तो वह ब्राह्मणों के खानुमाता नामक एक गांव में पहुंचे और वहां अम्बलत्तिका विहारोद्यान में ठहरे।
उस समय ब्राह्मण कूटदंत खानुमाता में ही रहता था। वह एक ऐसा स्थान था, जिसमें जीवन का स्पंदन था, काफी हरित भूमि और वन्य भूमि थी, पर्याप्त मात्र में जल और अनाज था। मगध के राजा बिम्बसार ने उपहार स्वरूप उसे यह क्षेत्र भेंट किया था। उस पर उसका ऐसा अधिकार था, मानो वह वहां का राजा हो। और तभी ब्राह्मण कूटदंत की ओर से एक विशाल बलि की तैयारी की जा रही थी। सौ सांडों, सौ बछड़ों, सौ बछियों, सौ बकरियों और भेड़ों को बलि-स्थल पर लाया गया था।
- जब खानुमाता के ब्राह्मणों और परिवारवालों ने श्रमण गौतम के पहुंचने का समाचार सुना, तो उन्होंने साथियों और भृत्यों के साथ अम्बलत्तिका विहारोद्यान जाने के लिए खानुमाता से प्रस्थान करना शुरू कर दिया। सुधारक और उनकी नियति
- और तभी ब्राह्मण कूटदंत मध्याह्न विश्राम के लिए अपने मकान के ऊपर की छत पर चला गया था। इस प्रकार लोगों को जाते हुए देखकर उसने अपने द्वारपाल से इसका कारण पूछा। द्वारपाल ने उसे कारण बताया।
- तब कूटदंत ने सोचाः ‘मैंने यह सुना है कि श्रमण गौतम तीन उपायों और उसके सोलह सहायक उपकरणों से बलि के सफल निष्पादन के बारे में समझ रखते हैं। लेकिन मुझे इस सबकी जानकारी नहीं है, फिर भी मैं बलि देना चाहता हूं। मेरे लिए यह अच्छा रहेगा कि मैं श्रमण गौतम के पास जाऊं और उसके बारे में उनसे पूछूं।’
इसलिए उसने अपने द्वारपाल को खानुमाता के ब्राह्मणों और अन्य गृहस्थों के पास यह कहने के लिए भेजा कि वे उसकी प्रतीक्षा करें, जिससे कि वह उनके साथ ही महाभाग से मिलने जा सके।
- लेकिन उस समय विशाल बलि में भाग लेने के लिए बहुत से ब्राह्मण गांव में ठहरे हुए थे। और जब उन्होंने इस बारे में सुना तो वे कूटदंत के पास गए और उसे वहां न जाने के लिए उसी आधार पर समझाया, जिस आधार पर ब्राह्मणों ने पहले सोनदंड को समझाया था। लेकिन उसने भी उन्हें उसी प्रकार का उत्तर दिया, जैसा कि सोनदंड ने उन ब्राह्मणों को दिया था। तब वे संतुष्ट हो गए और उसके साथ ही महाभाग से मिलने चले गए।
- कूटदंत ब्राह्मण ने आसन ग्रहण करने के बाद महाभाग को वह सब-कुछ बताया, जो उसने सुना था और उनसे प्रार्थना की कि वे उसे तीन उपायों और सोलह प्रकार के सहायक उपकरणों से बलि के सफल निष्पादन के बारे में बताएं।
‘अच्छा, तो हे ब्राह्मण, ध्यान से सुनो और मैं बताऊंगा।’
‘बहुत अच्छा, श्रीमन्’, कूटवंत ने उत्तर में कहा, और महाभाग ने निम्न प्रकार से बखान कियाः
- हे ब्राह्मण, बहुत समय पहले महाविगत नामक शक्तिशाली राजा था। उसके पास बहुत धन और विपुल संपत्ति थी, चांदी और सोने के भंडार थे, आनंद के अपार साधन थे, वस्तुओं और अनाज के आगार थे और उसके कोष तथा धान्यागार भरे रहते थे। जब एक बार राजा महाविगत अकेले ध्यानमग्न था, उसे इस विचार से चिंता हुई कि मेरे पास सभी अच्छी वस्तुओं की प्रचुरता है, जिसका कोई नश्वर व्यक्ति जी भरकर उपभोग कर सकता है, संपूर्ण पृथ्वी वृत्त विजय द्वारा मेरे स्वामित्व में है, कितना अच्छा होता अगर मैं एक महान बलि दे सकता, जिससे बहुत दिनों तक मेरा सुख और कल्याण सुनिश्चित हो जाता। और उसने ब्राह्मण को जो उसका पुरोहित था, बुलाया, जो कुछ भी उसने सोचा था, उसे बताया और कहा, हे ब्राह्मण, मैं बहुत दिनों तक अपने सुख-शांति और कल्याण के लिए एक विशाल बलि देना चाहता हूं, इसलिए, श्रद्धेय, मुझे अनुदेश दें कि यह कृत्य कैसे संपन्न कराया जा सकता है।’
- इस पर ब्राह्मण ने, जो पुरोहित था, राजा से कहाः ‘श्रीमन्, राजा का देश संकट-ग्रस्त तथा लूटपाट से उत्पीड़ित है। देश से बाहर जो डाकू हैं, वे गांवों और नगरों में डाका डालते हैं और सड़कों को असुरक्षित बनाते हैं। जब तक ऐसी स्थिति रहती है, तब तक राजा कोई नया कर लगा दें, तो सचमुच महामहिम का यह कार्य अनुचित होगा। लेकिन संयोगवश महामहिम यह भी सोच सकते हैं कि मैं, अपमानित तथा देश-निष्कासित करके, दंडित करके और कारावास तथा मृत्यु-दंड द्वारा शीघ्र ही इन दुष्टों का प्रपंच समाप्त कर दूंगा। लेकिन उनका स्वेच्छाचार पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता, जो दंडित होने से बच निकलेंगे, वे राज्य में परेशानी पैदा करते रहेंगे। इस अव्यवस्था को पूर्ण रूप से समाप्त करने के लिए एक उपाय काम में लाया जा सकता है। राजा के राज्य में जो भी लोग पशुपालन और खेती करते हैं, उन्हें महामहिम खाद्य तथा बीज प्रदान करें। राजा के राज्य में जो भी लोग व्यापार करते हैं, उन्हें महामहिम पूंजी प्रदान करें। राजा के राज्य में जो भी लोग सरकारी सेवा करते हैं, उन्हें महामहिम वेतन और खाद्य प्रदान करें। तब वे लोग अपना-अपना कारोबार करते हुए कभी भी राज्य में संकट उत्पन्न नहीं करेंगे। राजा का राजस्व बढ़ेगा, देश में शांति रहेगी और एक-दूसरे के साथ सुख-चैन से निर्वाह करते हुए सामान्य जन अपनी बाहों में अपने बच्चों को झुलाते हुए द्वार खुला रखकर रहेंगे।’
हे ब्राह्मण, राजा महाविगत ने अपने पुरोहित की बात मान ली और उसी के कथनानुसार कार्य किया। और अपना-अपना कारोबार करते हुए उन लोगों ने कभी राज्य में कठिनाई उत्पन्न नहीं की। राजा का राजस्व बढ़ गया और देश में सुख-शांति छा गई। सामान्य जन एक-दूसरे के साथ सुख-चैन से निर्वाह करते हुए अपनी बाहों में अपने बच्चों को झुलाते हुए द्वार खुले रखकर रहने लगे।
- तब राजा महाविगत ने अपने पुरोहित को बुलवाया और उससे कहाः ‘अव्यवस्था समाप्त हो गई है। देश में शांति है। मैं बहुत दिनों तक अपनी सुख-शांति और कल्याण के लिए महान बलि देना चाहता हूं, इसलिए, श्रद्धेय, मुझे अनुदेश दें कि यह कृत्य कैसे संपन्न कराया जा सकता है।’
‘तो राजा के राज्य में जो भी क्षत्रिय हों, उनके भृत्य हों, चाहें वे देहात में हों अथवा नगरों में हों, अथवा जो उनके मंत्री और कर्मचारी हों, चाहे वे देहात में हों अथवा नगरों में हों, अथवा जो मान्य ब्राह्मण हों, चाहे वे देहात में हों अथवा नगरों में हों, अथवा जो महत्वपूर्ण परिवार हों, चाहे वे देहात में हों अथवा नगरों में हों, उन्हें वह यह कहते हुए निमंत्रण भेजेः मैं एक बलि देना चाहता हूं, जिससे बहुत दिनों तक मुझे सुख-शांति और कल्याण प्राप्त हो सके।’ श्रद्धेय, उसके लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करें।’
हे ब्राह्मण, राजा महाविगत ने अपने पुरोहित की बात मान ली और निमंत्रण भेजे। क्षत्रियों, ब्राह्मणों और अन्य गृहस्थों ने एक-जैसा उत्तर दियाः महामहिम, बलि संपन्न कराएं। राजन् समय उपयुक्त है।
इस प्रकार ये चारों सहमति से सहयोगी के रूप में बलि कराने के लिए साधन बन गए।
- राजा महाविगत निम्नलिखित आठ गुणों से युक्त थेः उनका जन्म मातृ पक्ष और पितृ पक्ष, दोनों की ओर से अच्छे कुल में हुआ था, उनकी पिछली सात पीढ़ियां पवित्र तथा शालीन थीं, जन्म के संबंध में उन पर कोई कलंक नहीं लगा और किसी ने अंगुली नहीं उठाई।
वह सुंदर, आकर्षक, विश्वासोत्पादक, अत्यंत मनोहर स्वरूप वाले, गौर वर्ण और देखने में भव्य थे।
वह शक्तिशाली थे, प्रचुर धन-संपदा और विपुल संपत्ति से युक्त थे, चांदी और सोने, विलासिता सामग्री और अनाज के भंडारों से उनके कोष और धान्यागार परिपूर्ण रहते थे।
वह ताकतवर थे, स्वामिभक्त तथा अनुशासित चतुरंगिणी सेना (हाथी, घुड़सवार, रथ और धनुर्धर) उनके आदेशाधीन थी, मेरे विचार में अपनी कीर्ति द्वारा ही वह अपने शत्रुओं का दलन करते थे।
वह आस्थावान और उदार थे, शालीन दानी थे, घर खुला रखते, और उनके कुएं से सामान्य-जन और ब्राह्मण, निर्धन और राहगीर, भिखारी और याचक पानी भर सकते थे, वह अच्छे कार्यों के कर्ता थे।
वह सभी प्रकार के ज्ञान में अग्रणी थे।
वह कही गई बात का अर्थ समझते थे, और उसे समझा सकते थे, वह कहावत इस प्रकार है और इसका ऐसा अर्थ है।
वह बुद्धिमान, विशेषज्ञ और चतुर थे तथा वर्तमान अथवा भूत अथवा भविष्य के बारे में विचार कर सकते थे।
और उनके ये आठ गुण भी उस बलि के लिए साधन बन गए थे।
- उनका ब्राह्मण (पुरोहित) इन चार गुणों से संपन्न था-उसका जन्म मातृ पक्ष और पितृ पक्ष, दोनों की ओर से अच्छे कुल में हुआ था, उसकी पिछली सात पीढ़ियां पवित्र तथा शालीन थीं, जन्म के संबंध में उस पर कोई कलंक नहीं लगा और किसी ने अंगुली नहीं उठाई।
वह आवृत्तिकर्ता विद्यार्थी था जिसे रहस्यवादी पद्य कंठस्थ थे, वह तीन वेदों का ज्ञाता था और उसके अनुक्रम, उनकी क्रिया-पद्धति, ध्वनि-शास्त्र और भाष्य से परिचित था। उसे पुराणों की जानकारी थी, वह मुहावरों और व्याकरण में निष्णात था, लोकायत (जनश्रुति संकलन) का अच्छा ज्ञान रखता था और एक महापुरुष के शरीर में विद्यमान तीस लक्षणों से परिचित था।
वह सदाचारी था, सदाचार के लिए सिद्ध हो गया था और ऐसे गुणों से जिनको महान माना जाता है, युक्त था।
वह बुद्धिमान, विशेषज्ञ और चतुर था। आदर-सत्कार करने वालों में उसका पहला नहीं, तो दूसरा स्थान अवश्य था। इस प्रकार उसके चार गुण भी बलि कराने के लिए साधन बन गए।
- और, हे ब्राह्मण, पुरोहित ने बलि प्रारंभ कराने से पहले राजा महाविगत को तीन विधियां समझाईः ‘अगर महामहिम राजा विशाल बलि प्रारंभ कराने से पूर्व इस प्रकार का कोई खेद महसूस करें, जैसे-हाय, इसमें मेरी धन-संपत्ति का काफी हिस्सा चला जाएगा, तो राजा को इस प्रकार के खेद को स्थान नहीं देना चाहिए। अगर महामहिम राजा विशाल बलि प्रस्तुत कराते हुए इस प्रकार का कोई खेद महसूस करें, जैसे-हाय, इसमें मेरी धन-संपत्ति का काफी हिस्सा चला जाएगा, तो राजा को इस प्रकार के खेद को स्थान नहीं देना चाहिए। अगर महामहिम राजा विशाल बलि कराने के बाद इस प्रकार का कोई खेद महसूस करें, जैसे-हाय, इसमें मेरी धन-संपत्ति का काफी हिस्सा चला जाएगा, तो राजा को इस प्रकार के खेद को स्थान नहीं देना चाहिए।’
इस प्रकार, हे ब्राह्मण, बलि प्रारंभ कराने से पूर्व पुरोहित ने राजा महाविगत को तीन विधियां समझाईं।
- और इसके आगे, हे ब्राह्मण, बलि प्रारंभ होने से पूर्व किसी भी ऐसे पश्चाताप के निवारण के लिए, जो बाद के दस दिनों में उन लोगों के संबंध में उत्पन्न हो सकता है जिन्होंने उसमें भाग लिया हो, पुरोहित ने कहा, ‘हे राजन्, आपके द्वारा आयोजित बलि में ऐसे मनुष्य आएंगे जो जीवित प्राणियों का जीवन नष्ट करते हैं। और ऐसे भी जो उससे दूर रहते हैं, ऐसे मनुष्य जो उन चीजों को ग्रहण करते हैं जो उनको न दी गई हों और ऐसे भी जो उनसे दूर रहते हैं। ऐसे मनुष्य जो झूठ बोलते हैं और ऐसे भी जो झूठ नहीं बोलते, ऐसे मनुष्य जो पर निंदा करते हैं और ऐसे भी जो ऐसा नहीं करते, ऐसे मनुष्य जो अशिष्टता से बोलते हैं और ऐसे भी जो ऐसा नहीं करते, ऐसे मनुष्य जो व्यर्थ की बातें करते हैं और ऐसे भी जो उनसे अलग रहते हैं, ऐसे मनुष्य जो लोभ करते हैं और ऐसे भी जो लोभ नहीं करते, ऐसे मनुष्य जो दुर्भावना रखते हैं और ऐसे भी जो दुर्भावना नहीं रखते, ऐसे मनुष्य जिनके विचार अनुपयुक्त होते हैं और ऐसे भी जिनके विचार उपयुक्त होते हैं। इनमें से जो भी बुरा कार्य करता है, उसे उसके कर्म पर छोड़ दें। जो अच्छा कार्य करते हैं, उन्हें महामहिम भेंट प्रदान करें। राजन्, उनके लिए अनुष्ठानों की व्यवस्था करें, उन्हें संतुष्टि दें, जिससे हमें भी आंतरिक शांति प्राप्त हो सकेगी।’
- और फिर, हे ब्राह्मण, जब कि राजा बलिदान करा रहे थे तो पुरोहित ने सोलह उपायों से उनको अनुदेश दिया, प्रेरित किया और हर्षित किया। उसने कहा, ‘जब कि राजा बलिदान करा रहे हैं, उनके बारे में लोग अगर यह कहें: राजा महाविगत अपनी प्रजा के चार वर्णों को आमंत्रित किए बिना, स्वयं आठ व्यक्तिगत गुणों से संपन्न न होने पर भी और चार व्यक्तिगत गुणों से मुक्त ब्राह्मण की सहायता के बिना बलिदान करा रहे हैं, तो उनका यह कथन तथ्य के अनुसार नहीं होगा। क्योंकि चार वर्णों की सहमति प्राप्त कर ली गई है और राजा आठ व्यक्तिगत गुणों से तथा उनके ब्राह्मण चार व्यक्तिगत गुणों से संपन्न हैं। जहां तक इन सोलह शर्तों में से प्रत्येक का संबंध है, राजा को इस बात से आश्वस्त किया जा सकता है कि हर शर्त पूरी कर ली गई। वह बलिदान करा सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं और अपने मन की शांति प्राप्त कर सकते हैं।’
- और फिर, हे ब्राह्मण, उस बलिदान में न तो कोई बैल, न बकरियां, न मुर्गे, न मांसल सुअर और न किसी प्रकार के जीवित प्राणी ही मारे गए। खंभों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए कोई वृक्ष नहीं काटे गए और बलिदान-स्थल के चारों ओर विकीर्ण करने के लिए न कोई घास ही काटी गई। और वहां नियुक्त किए गए दासों, दूतों और कर्मचारियों को न तो डंडों से हांका जा रहा था और न वे भय से त्रस्त थे। काम करते हुए न तो वे रो रहे थे और न उनके चेहरे अश्रुपूरित थे। जो भी मदद करना चाहता था, वह काम करता था। जो मदद नहीं करना चाहता था, वह काम नहीं करता था। सभी अपनी रुचि के अनुकूल कार्य करते थे। जिस कार्य में उनकी रुचि नहीं थी, उसे वे बिना किए छोड़ देते थे। घी और तेल, दूध और मक्खन, शहद और खांड से ही वह बलिदान संपन्न किया गया।
- और फिर, हे ब्राह्मण, क्षत्रिय, भृत्यु, और मंत्री तथा कर्मचारी, प्रतिष्ठित ब्राह्मण और महत्वपूर्ण गृहस्थ, चाहे वे देहात के हों अथवा नगरों के, अपने साथ काफी धन-संपत्ति लेकर राजा महाविगत के पास गए और उन्होंने कहा, ‘यह प्रचुर धन संपत्ति हम राजा के उपयोग के लिए लाए हैं। महामहिम, हमारे हाथों से इसेग्रहण कर लें। इस पर राजा महाविगत ने कहा ‘मित्रें, मेरे पास पर्याप्त धन-संपत्ति है। कराधान की राशि ही बहुत है। आप अपनी संपत्ति रखिए और अपने साथ और भी ले जाइए।’
इस प्रकार राजा द्वारा उनकी बात मानने से इंकार कर दिए जाने पर, वे एक तरफ चले गए और उन्होंने एक-दूसरे के साथ इस प्रकार विचार-विमर्श किया-यदि हम इस धन-संपत्ति को पुनः अपने घरों को वापस ले जाएं, तो यह हमारे लिए उचित नहीं होगा। राजा महाविगत महान बलिदान कर रहे हैं। हमें भी इस कार्य में योगदान करना चाहिए।
- इसलिए राजा द्वारा निर्मित बलिदान-स्थल के पूर्व में क्षत्रियों ने, दक्षिण में कर्मचारियों ने, पश्चिम में ब्राह्मणों ने और उत्तर में अन्य गृहस्थों ने निरंतर दान की व्यवस्था की। उसमें जो वस्तुएं और उपहार दिए गए, वे स्वयं राजा महाविगत के महान बलिदान के अनुरूप थे।
इस प्रकार, हे ब्राह्मण, यह एक चंहुमुखी सहयोग था। राजा महाविगत आठ व्यक्तिगत गुणों से और उनके पालक ब्राह्मण चार गुणों से संपन्न थे, और उस बलिदान को कराने की तीन विधियां थीं। हे ब्राह्मण, इस सोलह प्रकार के उपस्कारों से युक्त त्रिगुणात्मक विधि से निष्पादित बलिदान को उपयुक्त उत्सव कहा जा सकता है।
- और तब, उन ब्राह्मणों ने ऊंचे स्वर में कहाः ‘कितना भव्य है यह बलिदान और कितना पवित्र है इसका निष्पादन।’
लेकिन कूटदंत ब्राह्मण वहां मौन बैठा रहा।
तब उन ब्राह्मणों ने कूटदंत से कहा: ‘आप श्रमण गौतम के सही कथन का यह कहकर अनुमोदन क्यों नहीं करते कि उन्होंने ठीक कहा है?’
ब्राह्मण कूटदंत ने कहा, ‘मैं अवश्य अनुमोदन करता हूं, क्योंकि श्रमण गौतम के सही कथन का जो यह कहकर अनुमोदन नहीं करता है कि उन्होंने ठीक कहा है, तो सचमुच उसका सिर दो भागों में विभक्त हो जाएगा। लेकिन मैं इस बात पर विचार कर रहा था कि श्रमण गौतम यह नहीं कहते हैं कि इस प्रकार मैंने सुना है। न वह यह कहते हैं कि ‘इस प्रकार यह अवश्य अनुपालनीय है।’ वह केवल यह कहते हैं-‘तब यह इस प्रकार था’, अथवा वह कहते हैं, ‘तब वह वैसा था।’ इसलिए मेरी यह धारणा है कि निश्चित रूप से उस समय श्रमण गौतम ही स्वयं राजा महाविगत रहे होंगे, अथवा वह ब्राह्मण रहे होंगे जिसने उस बलिदान में उनके कार्यपालक के रूप में कार्य किया होगा। क्या श्रद्धेय गौतम यह स्वीकार करते हैं कि जो इस प्रकार के बलिदान का उत्सव मनाता है, अथवा मनवाता है, वह मृत्यु के पश्चात शरीर के विलीन हो जाने पर स्वर्ग में किसी आनंद की अवस्था में पुनर्जन्म लेता है।’
‘हां, हे ब्राह्मण, मैं यह स्वीकार करता हूं। और उस समय मैं वही ब्राह्मण था, जिसने पुरोहित के रूप में वह बलिदान कराया था।’
- ‘हे गौतम, क्या कोई ऐसा अन्य बलिदान है, जो इसकी तुलना में कम कठिन और कम कष्टकर हो और जिसका फल और लाभ इससे अधिक हो?’
‘हां, हे ब्राह्मण, ऐसा है।’
‘हे गौतम, वह क्या हो सकता है?’
‘एक परिवार में निरंतर रखे जाने वाले वे उपहार जो विशेष रूप से सदाचारी संन्यासियों को प्रदान किए जाते हैं।’
- ‘लेकिन इसका क्या कारण है कि एक परिवार में रखे गए उपहारों का, विशेष रूप से सदाचारी संन्यासियों को निरंतर प्रदान किया जाना, तीन विधियों और सोलह प्रकार के उपसाधनों से संपन्न किए जाने वाले अन्य बलिदान की तुलना में कम कठिन और कम कष्टकर हैं, अधिक फलदायक और लाभप्रद हैं?’
‘हे ब्राह्मण, बाद में बताए गए बलिदान को न तो अर्हत और न अर्हत मार्ग पर प्रवत्त कोई अन्य कराएगा। और ऐसा क्यों नहीं होगा? क्योंकि उसमें लाठियों से प्रहार किया जाता है और गले से पकड़ा जाता है। लेकिन वे पूर्वोक्त बलिदान में जाएंगे, क्योंकि उसमें ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस प्रकार के निरंतर उपहार अन्य प्रकार के बलिदान से श्रेष्ठ होते हैं।’
- ‘और, हे गौतम, इन दोनों में से किसी की भी तुलना में कोई अन्य बलिदान है, जो अपेक्षाकृत कम कठिन और कष्टकर है, किंतु अधिक फलदायक और लाभप्रद हो?’
‘हां, हे ब्राह्मण, ऐसा है।’
‘और, हे गौतम, वह क्या हो सकता है?’
‘संघ की ओर से चारों दिशाओं में विहारों का निर्माण।’
- ‘और, हे गौतम, इन तीनों में से किसी एक और तीनों की तुलना में क्या कोई अन्य बलिदान है, जो अपेक्षाकृत कम कठिन और कष्टकर है, किंतु अधिक फलदायक और लाभप्रद हो?’
‘हां, हे ब्राह्मण, ऐसा है।’
‘और, हे गौतम, वह क्या हो सकता है?’
‘जो निष्ठापूर्ण हृदय से एक बुद्ध को अपने मार्गदर्शक के रूप में ग्रहण करता है, सत्य और संघ को ग्रहण करता है, वह एक ऐसा बलिदान है, जो खुले दान-गृह से श्रेष्ठ है, सतत भिक्षादान से श्रेष्ठ है और आवास-स्थान के उपहार से श्रेष्ठ है।
- ‘और, हे गौतम, इन चारों की तुलना में क्या कोई अन्य बलिदान है, जो अपेक्षाकृत कम कठिन और कष्टकर, किंतु अधिक फलदायक और लाभप्रद हो?’
‘जब कोई मनुष्य निष्ठापूर्ण हृदय से संयम के द्वारा जीवन को नष्ट होने से बचाता है, जो वस्तुएं उसको नहीं दी गई हैं, उनको लेने से परहेज करता है, ऐंद्रिय आसक्तियों के संबंध में बुरे आचरण का परित्याग करता है, मिथ्या वचनों का परित्याग करता है, मादक और पागल करने वाले पेय का त्याग करता है जो लापरवाही की जड़ है, तो वह एक ऐसा बलिदान है, जो खुले दान-गृह से श्रेष्ठ है, निरंतर भिक्षादान से श्रेष्ठ है, आवास स्थानों के उपहार से श्रेष्ठ है और पथ-प्रदर्शन स्वीकार करने से श्रेष्ठ है।
- ‘और हे गौतम, इन पांचों की तुलना में कोई अन्य बलिदान है, जो अपेक्षाकृत कम कठिन और कष्टकर है, किंतु अधिक फलदायक और लाभप्रद हो?’
‘हां, हे ब्राह्मण, ऐसा है।’
‘और, हे गौतम, वह क्या हो सकता है?’
(इसका उत्तर श्रमण फल सुत्त 40 से 75 में (पुस्तक के पृष्ठ 62 से 74) प्रथम गाथा के एक लंबे उद्धरण में निम्न रूप में दिया गया हैः
- बुद्ध के आविर्भाव, उनके उपदेश, श्रोता के मतांतरण, और उनके द्वारा संसार के परित्याग के संबंध में परिचयात्मक अनुच्छेद।
- शील (सहज नैतिकता)।
- विश्वास के संबंध में परिच्छेद।
- ‘इंद्रियों के द्वारा सुरक्षित है’ के संबंध में परिच्छेद।
- ‘सावधान तथा आत्मलीन’ के संबंध में परिच्छेद।
- ‘संतोष’ के संबंध में परिच्छेद।
- एकाकीपन के संबंध में परिच्छेद।
- पांच बाधाओं के संबंध में अनुच्छेद।
- प्रथम गाथा का वर्णन।
‘हे ब्राह्मण, पूर्वोक्त बलिदानों की तुलना में यह बलिदान कम कठिन, कम कष्टकर है, किंतु अधिक फलदायक और लाभप्रद है।’
दूसरी, तीसरी और चौथी गाथा में क्रमशः यही बात कही गई है (जैसा कि श्रमण फल सुत्त 72.82 में है) और ज्ञान से उत्पन्न होने वाली अंतर्दृष्टि (तदैव 83.84) और आगे (85.96 सम्मिलित, किसी भी प्रकार सीधा वर्णन न करते हुए) आसवों, घातक मादक द्रव्यों से विनाश का ज्ञान (तदैव 97.98)
‘और, हे ब्राह्मण, इससे अधिक श्रेष्ठ और मधुर बलिदानोत्सव मनुष्य नहीं मना सकता।’
- और जब वह इस प्रकार बोल चुके, तो कूटदंत ब्राह्मण ने महाभाग से कहाः ‘परम श्रेष्ठ, हे गौतम, आपके मुख से निकले शब्द अत्युत्तम हैं, जैसे कोई मनुष्य उसे स्थापित करे जो कुछ फेंक दिया गया हो, अथवा उसे प्रकट करे जो कुछ छिपाया गया हो, अथवा भटके हुए को कोई उचित मार्ग बताया जाए, अथवा अंधेरे में कोई प्रकाश दे जाए, जिससे आंखों वाले बाह्य स्वरूपों को देख सकें, ठीक वैसे ही जैसे श्रद्धेय गौतम ने मुझे सत्य का ज्ञान कराया है। मैं सिद्धांत तथा आदेश के अनुशीलन के लिए श्रद्धेय गौतम को अपने मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करता हूं। श्रद्धेय, मुझे एक ऐसे शिष्य के रूप में स्वीकार करें, जिसने आज के दिवस से जीवन-पर्यंत आपको अपना मार्गदर्शक चुन लिया है। और, है गौतम, मैं स्वयं सात सौ सांडों, सात सौ बछियों और सात सौ बछड़ों, सात सौ बकरियों और सात सौ भेढ़ों को मुक्त कराऊंगा। मैं उन्हें जीवन दान देता हूं। वे हरी घास खाएं, ताजा पानी पिएं और उनके चारों ओर ठंडी हवा बहे।’
- तब महाभाग ने ब्राह्मण कूटदंत से समुचित क्रमानुसार बातचीत की, अर्थात उन्होंने उसे उदारता, सम्यक आचरण, स्वर्ग, जोखिम, मिथ्या अहंकार, इंद्रिय आसक्तियों की अपवित्रता और परिवर्जन के लाभों के बारे में बताया। और जब महाभाग को यह ज्ञात हो गया कि कूटदंत ब्राह्मण तैयार हो गया है, मृदुल, पूर्वाग्रह रहित, उन्नत और हृदय से निष्ठावान बन गया है, तो उन्होंने उस सिद्धांत की घोषणा की, जिस पर केवल बुद्धों को ही विजय प्राप्त है, अर्थात दुःख, उसके मूल और उसकी समाप्ति तथा सन्मार्ग का सिद्धांत। और जिस प्रकार सभी प्रकार के धब्बों के धुल जाने पर कोई स्वच्छ वस्त्र शीघ्र ही रंग ग्रहण कर लेगा, ठीक वैसे ही कूटदंत ब्राह्मण को वहीं बैठे-बैठे ही सत्य के दर्शन के लिए शुद्ध तथा निष्कलंक दृष्टि प्राप्त हो गई। उसे यह ज्ञान हो गया कि जिस किसी का प्रारंभ होता है, उस प्रारंभ में उसके विलोपन की अनिवार्यता भी निहित है।
- और तब एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसने सत्य के दर्शन कर लिए हों, उस पर विजय प्राप्त कर ली हो, उसे समझ लिया हो और उसका गहन चिंतन कर लिया हो, जो संदेह के परे पहुंच गया हो, जिसने विमूढ़ता को भगा दिया हो और पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया हो, और जो गुरु के उपदेशों के अपने ज्ञान के लिए किसी अन्य पर अवलंबित न हो, ब्राह्मण कूटदंत ने महाभाग को संबोधित करते हुए कहाः ‘श्रद्धेय गौतम, कृपया संघ के सदस्यों सहित कल का भोजन मेरे साथ करने की स्वीकृति प्रदान करें।’ और महाभाग ने मौन रहकर अपनी सहमति प्रदान कर दी। यह देखते हुए कि महाभाग ने स्वीकृति प्रदान कर दी है, कूटदंत ब्राह्मण अपने स्थान से उठे और उनके दाईं ओर से गुजरते हुए, वहां से विदा हो गए। और तड़के ही उन्होंने बलिदान के लिए निर्मित वेदी पर पुष्ट और मृदु, दोनों ही प्रकार का मधुर भोजन तैयार करवाया और महाभाग के लिए समय की घोषणा की, हे गौतम, समय हो गया है, भोजन तैयार है। और महाभाग ने, जो प्रातःकाल ही तैयार हो चुके थे, अपना चीवर पहना और अपना पात्र लेकर बांधवों सहित कूटदंत के बलिदान-स्थल पर पहुंचे और वहां अपने लिए तैयार किए गए आसन पर बैठ गए और कूटदंत ब्राह्मण ने बुद्ध तथा बांधवों को अपने हाथों से पुष्ट और मृदु, दोनों ही प्रकार का मधुर भोजन तब तक परोसा, जब तक वे तृप्त नहीं हो गए, और जब महाभाग ने अपना भोजन कर लिया, अपना पात्र और हाथ धो लिए, कूटदंत ब्राह्मण ने नीचे का स्थान लिया और उनके पार्श्व में बैठ गए। और जब वह इस प्रकार आसीन हो गए, महाभाग ने धामि र्क प्रवचन द्वारा कूटदंत ब्राह्मण को अनुदिष्ट, प्रेरित, उत्साहित तथा हर्षित किया, उसके बाद वह अपने आसन से उठे और वहां से विदा हो गए।
(कूटदंत सुत्त समाप्त हुआ)
V
तीसरे, बुद्ध ने जातिप्रथा की निंदा की। जातिप्रथा उस समय वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अंतर्जातीय भोजन और अंतर्जातीय विवाह पर निषेध नहीं था। तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी। किंतु असमानता का सिद्धांत जो कि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धांत के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा। अन्य वर्गों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों के मिथ्याभिमान के वह कितने कट्टर विरोधी थे और उनके विरोध के आधार कितने विश्वासोत्पादक थे, उसका परिचय उनके बहुत से संवादों से प्राप्त होता है। इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण अम्बट्ठ सुत्त के रूप में जाना जाता है।
अम्बट्ठ सुत्त
(एक युवा ब्राह्मण की अशिष्टता और एक वृद्ध की निष्ठा)
- मैंने इस प्रकार सुना है। एक बार जब महाभाग कौशल देश की यात्र के दौरान लगभग पांच सौ बांधवों सहित कौशल के इच्छानंगल नामक ब्राह्मण के गांव में पहुंचे, और वह वहां के इच्छानंगल अरण्य में ठहरे।
उस समय पोष्करसाति नामक ब्राह्मण उक्कट्ठा में निवास करता था। वह स्थल चहल-पहल, हरियाली और वन्य भूमि तथा धान्य से परिपूर्ण था। कौशल-नरेश प्रसेनजित ने यह क्षेत्र उन्हें उपहार के रूप में प्रदान किया था, जिस पर उन्हें राजा के समान अधिकार प्राप्त था।
- अब पोष्करसाति ब्राह्मण ने यह समाचार सुनाः ‘लोग कहते हैं कि शाक्य वंश के श्रमण गौतम शाक्य परिवार का त्याग करके धम्म (धार्मिक) जीवन अंगीकार करने के लिए बड़ी संख्या में अपने संघ के बांधवों के साथ इच्छानंगल में पहुंच गए हैं और वहां अरण्य में ठहरे हुए हैं। अब जहां तक श्रद्धेय गौतम का संबंध है, उनकी इतनी ख्याति है कि विदेश में भी उनकी ऐसी चर्चा हैः महाभाग एक अर्हत, पूर्ण प्रबुद्ध, विवेक और सौजन्य से परिपूर्ण, लौकिक ज्ञान से पुष्ट, मार्गदर्शन के इच्छुक नश्वरों के लिए अनुपम पथप्रदर्शक, देवों और मनुष्यों के लिए उपदेशक, वरदान प्राप्त हैं। वह स्वयं देवताओं, ब्राह्मणों और असम प्रदेश की पहाड़ियों पर मर भाषा बोलने वाले लोगों के ऊपर के लोक और उसके नीचे संन्यासियों तथा ब्राह्मणों, राजाओं और प्रजाजन वाले लोक सहित संपूर्ण सृष्टि को इस प्रकार जानने के बाद, वह अपने ज्ञान की जानकारी दूसरों को कराते हैं। सत्य, जो अपने मूल में सुंदर है, प्रगति में सुंदर है, संपूर्णता में सुंदर है, उसी की उद्घोषणा वह भावना और शब्द में करते हैं, वह उच्चतर जीवन की पूर्णता और पवित्रता का भरपूर ज्ञान कराते हैं।’
और उस प्रकार के अर्हत के दर्शनार्थ जाना अच्छा है।
- और उस समय अम्बट्ठ नामक युवा ब्राह्मण पोष्करसाति ब्राह्मण का एक शिष्य था। वह जाप करता था (पवित्र शब्दों का), उसे रहस्यवादी पद्य कंठस्थ थे, वह तीनों वेदों का ज्ञाता था, उनके अनुक्रम, उनकी क्रियापद्धति, ध्वनिशास्त्र और भाष्य (चतुर्थ रूप में) तथा पंचमशास्त्र के रूप में दंतकथाओं का अच्छा ज्ञान था। वह मुहावरों और व्याकरण में निष्णात था, वह लोकायत, कूट तार्किकता और एक महापुरुष के शरीर पर विद्यमान लक्षणों से संबंधित शस्त्र से सुपरिचित था, त्रिसूत्री वैदिक ज्ञान पद्धति में उसे इतना पारंगत माना जाता था कि उसका गुरु भी उसके संबंध में यह कहता था, ‘जो कुछ मैं जानता हूं वह तुम जानते हो, और जो तुम जानते हो वह मैं जानता हूं।’
- और पोष्करसाति ने अम्बट्ठ को यह समाचार सुनाया और कहाः ‘प्रिय अम्बट्ठ, श्रमण गौतम के पास जाओ और यह पता लगाओ कि विदेश में उनकी ख्याति का जो डंका बज रहा है, वह वास्तविकता के अनुरूप है या नहीं, श्रमण गौतम वैसे ही हैं, जैसा कि उनके विषय में कहा जाता है, अथवा नहीं?’
- ‘लेकिन, श्रीमन्, मैं कैसे जान पाऊंगा कि वह वैसे ही हैं, या नहीं?’
‘अम्बट्ठ, हमारे रहस्यवादी पद्यों में एक महापुरुष के बत्तीस शारीरिक लक्षण बताए गए हैं। अगर वे लक्षण किसी मनुष्य में हों, तो दो में से एक वह अवश्य बनेगा, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं बनेगा। अगर वह गृहस्थ है, तो वह एकछत्र सम्राट, एक धर्मपरायण राजा बनेगा, चार महासागरों के तटों तक उसका शासन होगा, वह एक विजेता होगा और अपनी प्रजा का संरक्षक तथा सात विधियों का स्वामी होगा और ये सात विधियां हैं: चक्र, हाथी, घोड़ा, रत्न, स्त्री, कोषाध्यक्ष और मंत्री। और उसके एक हजार से अधिक वीर और शक्तिशाली पुत्र होते हैं, जो शत्रु की सेनाओं के छक्के छुड़ा देते हैं। और वह समुद्र-पर्यन्त इस विशाल पृथ्वी पर तलवार के बल के बिना धर्मपरायणता के साथ शासन करता हुआ पूर्णप्रभुता से युक्त निवास करता है। लेकिन अगर वह गृहस्थ का त्याग करके गृहविहीन स्थिति में प्रवेश करता है, तो वह बुद्ध बन जाएगा, जो विश्व की आंखों से परदा हटा देता है। अम्बट्ठ, अब तुमने मुझसे रहस्यमय शब्द प्राप्त किए हैं।’
- ‘बहुत अच्छा, श्रीमन्’, अम्बट्ठ ने उत्तर में कहा, और अपने स्थान से उठकर पोष्करसाति के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए युवा ब्राह्मणों के दल के साथ वह अश्वचालित रथ पर इच्छानंगलकला के अरण्य की ओर चल पड़ा। और वह रथ वहां तक गया, जहां तक वाहनों के लिए मार्ग उपयुक्त था। उसके बाद वह रथ से उतरकर पैदल ही उपवन में गया।
- उस समय बहुत से बांधव खुली हवा में इधर-उधर टहल रहे थे। अम्बट्ठ उनके समीप गया और कहा, ‘इस समय श्रद्धेय गौतम कहां ठहरे हुए हैं? हम यहां उनसे मिलने आए हैं।’
- तब बांधवों ने सोचाः यह युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ विशिष्ट परिवार का है और विख्यात ब्राह्मण पोष्करसाति का शिष्य है। महाभाग ऐसे व्यक्ति के साथ वार्तालाप करने में कठिनाई महसूस नहीं करेंगे। और उन्होंने अम्बट्ठ से कहा, ‘गौतम वहां ठहरे हुए हैं, जहां द्वार बंद हैं, चुपचाप ऊपर जाओ और धीरे से ड्योढ़ी में प्रवेश करो और खांसकर दस्तक दो। महाभाग तुम्हारे लिए द्वार खोल देंगे।’
- तब अम्बट्ठ ने ऐसा ही किया। और महाभाग ने द्वार खोल दिया, अम्बट्ठ भीतर चला गया और अन्य युवा ब्राह्मण भी अंदर चले गए और उन्होंने महाभाग से नम्रता तथा शालीनता से पूर्ण शुभकामनाओं का आदान-प्रदान किया तथा अपना स्थान ग्रहण किया। लेकिन अम्बट्ठ टहलता रहा और उसने अचानक बड़ी बेचैनी से खड़े-खड़े बैठे हुए महाभाग से कुछ विनीत स्वर में कहा।
- और महाभाग ने उससे कहाः ‘अम्बट्ठ, क्या वृद्ध गुरुओं और अपने गुरुओं के वयोवृद्ध गुरुजनों से बात करने का तुम्हारा यही व्यवहार है, जैसे कि तुम अब इधर-उधर टहलते हुए अथवा खड़े-खड़े मुझसे बात कर रहे हो, जब कि मैं बैठा हुआ हूं।’
- ‘अवश्य नहीं, गौतम। अगर ब्राह्मण स्वयं चल रहा हो तो उससे चलते हुए बोलना, अगर ब्राह्मण खड़ा है तो खड़े-खड़े, अगर उसने आसन ग्रहण कर लिया है तो बैठकर, अथवा अगर ब्राह्मण सहारे से लेटा है तो सहारा लेकर उससे बोलना उचित है। लेकिन मुंडित सिर वालों, छद्मवेशी साधुओं, काले भृत्यों और हमारे कुल की सेवा में रत अधम जातियों के साथ मैं उसी प्रकार बोलूंगा जैसा कि अब मैं आपसे बोल रहा हूं।
‘लेकिन, अम्बट्ठ, जब तुम यहां आए हो, तो तुम्हें किसी चीज की जरूरत रही होगी। अच्छा तो यही है कि तुम यहां अपने आने के उद्देश्य पर विचार करो। यह युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ अशिष्ट है, यद्यपि वह अपनी संस्कृति पर गर्व करता है। क्या ऐसा व्यवहार प्रशिक्षण के अभाव के सिवाय किसी अन्य कारण से हो सकता है?’
- तब अम्बट्ठ अशिष्ट कहे जाने पर महाभाग से अप्रसन्न और नाराज हो गया और यह विचार करते हुए कि महाभाग उससे कुपित हैं, उसने व्यंग्य और उपहास करते हुए अवज्ञापूर्ण ढंग से महाभाग से कहाः ‘गौतम, आपका यह शाक्य कुल असुसंस्कृत है, आपका शाक्य वंश अशिष्ट, चिड़चिड़ा और उग्र है। भृत्य केवल भृत्य हैं, वे न तो ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा रखते हैं, न उन्हें महत्व देते हैं, न उन्हें उपहार देते हैं, और न उनका सम्मान करते हैं। गौतम, ऐसा व्यवहार न तो उपयुक्त है, न ही भद्रोचित है।’
इस प्रकार युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ ने पहली बार शाक्यों पर भृत्य होने का लांछन लगाया।
- लेकिन, अम्बट्ठ, शाक्यों ने तुम्हारे प्रति कौन-सा दुर्व्यवहार किया है?
‘एक बार, गौतम, मुझे पोष्करसाति के किसी कार्य से कपिलवस्तु जाना पड़ा और मैं शाक्यों के सभा भवन में चला गया। उस समय बहुत से वृद्ध और युवा शाक्य मंडप में भव्य आसनों पर बैठे हुए आनंद मना रहे थे और साथ-साथ परिहास कर रहे थे, अपनी अंगुलियों से एक-दूसरे को धकिया रहे थे, और सच पूछो तो मेरे विचार में उनके परिहास का विषय स्वयं में था, और किसी ने बैठने तक को नहीं कहा। और, गौतम, न तो यह उपयुक्त है, और न ही भद्रोचित है, क्योंकि शाक्य भृत्य केवल भृत्य हैं, जो न तो ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा रखते हैं, न उन्हें महत्व देते हैं, न उन्हें उपहार देते हैं, और न उनका सम्मान करते हैं।
इस प्रकार युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ ने दूसरी बार शाक्यों पर भृत्य होने का लांछन लगाया।
- ‘इतनी छोटी-सी बात पर बुरा मान गए, अम्बट्ठ। नन्हीं-सी हठी चिड़िया अपने घोंसले में जो चाहे, बोल सकती है। और शाक्य तो कपिलवस्तु में अपने ही घर में थे। इतनी छोटी-सी बात पर बुरा मान जाना तुम्हें शोभा नहीं देता।’
- ‘गौतम, ये चार श्रेणियां हैं-कुलीन जन, ब्राह्मण, व्यापारी और श्रमिक जन। और इन चारों में से तीन, अर्थात कुलीन जन, व्यापारी और श्रमिक जन, वास्तव में ब्राह्मणों के सेवक हैं। इसलिए गौतम, न तो यह उपयुक्त है, और न भद्रोचित ही है कि शाक्य जो भृत्य और केवल भृत्य हैं, वे न तो ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा रखते हैं, न उन्हें महत्व देते हैं, न उन्हें उपहार देते हैं, और न उनका सम्मान ही करते हैं।’
इस प्रकार युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ ने तीसरी बार शाक्यों पर भृत्य होने का लांछन लगाया।
- तब महाभाग ने इस प्रकार सोचा: यह अम्बट्ठ शाक्यों पर भृत्य कुलीन होने का आरोप लगाकर उन्हें नीचा दिखाने पर तुला हुआ है। मैं उससे उसकी अपनी वंश-परंपरा के बारे में भी पूछ सकता हूं।’ और उन्होंने उससे कहा:
अम्बट्ठ, तुम्हारा संबंध किस परिवार से है? हां, अगर कोई पितृ और मातृ पक्ष की ओर से तुम्हारे पुराने नाम और तुम्हारी वंश-परंपरा का अध्ययन करे, तो यह पता चलेगा कि किसी समय में शाक्य तुम्हारे स्वामी होते थे और तुम उनकीकिसी एक दासी की संतान हो। लेकिन शाक्य मूलतः स्वयं को ओक्काक राजाओं के वंशधर बताते हैं।
अम्बट्ठ, बहुत समय पहले राजा ओक्काक ने अपनी चहेती रानी के पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा से अपने बड़े बच्चों-ओक्कमुख, करान्दा, हत्थीनिका और सिनीपुरा को देश से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार निष्कासित होने के बाद उन्होंने हिमालय की ढलान पर, झील के किनारे आश्रय लिया, जहां एक विशाल कोल (शाल) का वृक्ष विद्यमान था। और इस आशंका से कि कहीं उनके वंश की पवित्रता को आंच न आए, उन्होंने अपनी बहनों से अंतर्विवाह कर लिया।
अब राजा ओक्काक ने अपने दरबार में मंत्रियों से पूछा, ‘श्रीमन्, अब बच्चे कहां हैं?’
‘राजन, हिमालय की ढलान पर, झील के किनारे एक स्थान है, जहां एक विशाल कोल (शाल) का वृक्ष विद्यमान है। वहीं वे रहते हैं। और कहीं उनके वंश की पवित्रता पर आंच न आ जाए, इसलिए उन्होंने अपनी ही बहनों (शाक्य वंशीय) से विवाह कर लिया है।
तब राजा ओक्काक ने प्रशंसा से अभिभूत होकर कहा: ‘वे युवक कोल (शाक्य) के हृदय हैं, वे अपने वंश (परम शाक्य) को कायम रखे हुए हैं। अम्बट्ठ, यही कारण है कि उन्हें शाक्यों के नाम से जाना जाता है। ओक्काक की दिशा नाम की एक दासी थी। उसने एक काले बच्चे को जन्म दिया। और ज्यों ही वह उत्पन्न हुआ, उस नन्हें से काले बच्चे ने कहा, ‘मां, मुझे धोओ। मां, मुझे नहलाओ, मां, मुझे इस कलुष से मुक्त करो। तभी मैं आपके काम आ सकूंगा।’ अम्बट्ठ, अबजिस प्रकार लोग असुरों को असुर कहते हैं, उसी प्रकार उस समय लोग काले (कान्हे) को असुर कहते थे। और उन्होंने कहा: ‘यह पैदा होते ही बोल पड़ा। यह जो काला (कान्हा) बच्चा पैदा हुआ है, यह एक असुर पैदा हुआ है।’ और अम्बट्ठ कान्हायनों का मूल यही है। वह कान्हायनों का पूर्वज था। और मातृ पक्ष की ओर से तुम्हारे पुराने नाम और तुम्हारी वंश-परंपरा का अध्ययन करें, तो यह पता चलेगा कि किसी समय शाक्य तुम्हारे स्वामी होते थे और तुम उनकी किसी एक दासी की संतान हो।
- और जब वह इस प्रकार बोल चुके तो युवा ब्राह्मणों ने महाभाग से कहाः ‘श्रद्धेय गौतम, अम्बट्ठ पर दासी कुल से उत्पन्न होने का कलंक लगाकर उसे और नीचा न दिखाएं। वह अच्छे वंश में उत्पन्न हुआ है और अच्छे परिवार का है। वह पवित्र देव स्तुतियों से सुपरिचित एक योग्य पाठक और विद्वान पुरुष है और वह इन मामलों में श्रद्धेय गौतम को उत्तर देने में समर्थ है।’
- तब महाभाग ने उनसे कहा: ‘बिल्कुल ऐसा ही होगा। अगर तुम अन्यथा समझते हो, तो हमारी इस वार्ता को आगे बढ़ाने का काम तुम्हारा होगा। लेकिन जब तुम इस प्रकार सोचते हो, तो स्वयं अम्बट्ठ को बोलने दिया जाए।’
- ‘हम ऐसा नहीं सोचते। और हम मौन ही रहेंगे। अम्बट्ठ इन मामलों में श्रद्धेय गौतम को उत्तर देने में समर्थ है।’
- तब महाभाग ने अम्बट्ठ ब्राह्मण से कहाः ‘तब आगे यह प्रश्न उठता है, अम्बट्ठ, जो बहुत ही सुसंगत है, और अनिच्छापूर्वक ही सही, तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर अवश्य देना होगा। अगर तुम स्पष्ट उत्तर नहीं दोगे, अथवा दूसरे प्रसंग पर चले जाओगे, अथवा मौन रहोगे, अथवा विचलित हो जाओगे, तो तुम्हारा सिर इसी स्थल पर खंड-खंड हो जाएगा। जब वयोवृद्ध और अनुभवी ब्राह्मण तुम्हारे गुरुजन अथवा उनके गुरुजन इस बारे में आपस में बात कर रहे थे कि कान्हायनों की मूल उत्पत्ति कहां से हुई और उनका वह पूर्वज कौन था जिसका कि वे अपने-आपको वंशज बताते हैं, तुमने इस बारे में क्या सुना है?’
और जब वह इस प्रकार बोल चुके, तो अम्बट्ठ मौन रहा और महाभाग ने फिर से वही प्रश्न पूछा। और फिर भी अम्बट्ठ मौन रहा। तब महाभाग ने उससे कहा: ‘अम्बट्ठ, बेहतर यही होगा कि तुम अब इसका उत्तर दे दो। यह तुम्हारे चुप रहने का समय नहीं है। क्योंकि कोई भी यदि तथागत (जिसने सत्य पर विजय प्राप्त कर ली हो) द्वारा तीसरी बार पूछे जाने पर भी एक सुसंगत प्रश्न का उत्तर नहीं देता, तो उसका सिर वहीं टुकड़ों में खंडित हो जाता है।’
- और उस समय वज्र को धारण करने वाला प्रेत, अग्नि से दहकते हुए, चौंधियाने वाले और प्रकाशमय शक्तिशाली लोह पिंड के साथ अम्बट्ठ के ऊपर आसमान में, इस इरादे से खड़ा हो गया कि अगर उसने उत्तर नहीं दिया, तो उसका सिर वहीं टुकड़ों में खंडित कर दिया जाएगा। और महाभाग ने वज्र धारण किए हुए प्रेत को देखा, और अम्बट्ठ ब्राह्मण को भी वह दिखाई दिया और इस स्थिति से अवगत होने पर आतंकित, स्तंभित और व्यग्र अम्बट्ठ महाभाग से सुरक्षा, संरक्षण और सहायता की याचना करता हुआ भयभीत होकर उनके पार्श्व में सिमट कर बैठ गया और बोला, ‘महाभाग, आपने क्या कहा था? एक बार फिर कहिए।’
‘तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? जब वयोवृद्ध और अनुभवी ब्राह्मण, तुम्हारे गुरुजन अथवा उनके गुरुजन इस संबंध में आपस में बात कर रहे थे कि कान्हायनों की मूल उत्पति कहां से हुई और उनका वह पूर्वज कौन था जिसका कि वे अपने-आपको वंशज बताते हैं, तुमने इस बारे में क्या सुना है?’
‘ठीक ऐसा ही, गौतम, मैंने सुना है जैसा कि श्रद्धेय गौतम ने कहा है। कान्हायनों की मूल उत्पत्ति वही है, और वही उनका पूर्वज है, जिसका कि वे अपने-आपको वंशज बताते हैं।’
- और जब वह इस प्रकार बोल चुके, तो युवा ब्राह्मणों में क्षोभ, अशांति और हलचल मच गई और उन्होंने कहा: ‘उनका कहना है कि अम्बट्ठ ब्राह्मण जन्म से नीच है, वे कहते हैं कि उसके परिवार की पृष्ठभूमि अच्छी नहीं है। वे कहते हैं कि वह दासी कुल में उत्पन्न हुआ है और शाक्य उसके स्वामी थे। हम यह नहीं मानते कि श्रमण गौतम जिनके शब्दों में सत्यता है, वह विश्वासयोग्य व्यक्ति नहीं है।’
- और महाभाग ने सोचा: ‘ये ब्राह्मण एक दासी की संतान के रूप में अम्बट्ठ का बहुत अपमान कर रहे हैं। मुझे उनके अपमान से इसे मुक्त करना चाहिए। और उन्होंने कहा:
‘अम्बट्ठ ब्राह्मण को उसके वंश के आधार पर इतनी निर्दयता से अपमानित मत कीजिए। वह कान्हा एक शक्तिशाली सिद्ध पुरुष बन गया था। वह दक्षिण में गया। वहां उसने रहस्यवादी पद्य सीखे और राजा ओक्काक के पास वापस आकर उसने विवाह में उसकी बेटी मद्दरूपी का हाथ मांगा। उत्तर में राजा ने उससे कहा: ‘यह व्यक्ति वास्तव में कौन है जो मेरी दासी का पुत्र होने पर भी विवाह के लिए मेरी पुत्री का हाथ मांग रहा है। और क्षुब्ध तथा अप्रसन्न होकर उसने अपने धनुष में बाण चढ़ा दिया। लेकिन न तो वह तीर चला सका, और न वह प्रत्यंचा से पुनः उसे हटा ही सका। तब मंत्री तथा दरबारी सिद्ध पुरुष कान्हा के पास गए और कहा: ‘श्रीमान्, राजा की रक्षा कीजिए, राजा की रक्षा कीजिए।’
‘राजा को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी। किंतु उसने अगर बाण नीचे की ओर छोड़ा तो उसके राज्य-पर्यन्त धरती सूख जाएगी।’
‘श्रीमन्, राजा की रक्षा कीजिए और देश की भी।’
‘राजा को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी, न उसकी भूमि को। किंतु उसने अगर ऊपर को बाण छोड़ा, तो देवता सात वर्षों तक उसके राज्य-पर्यन्त वर्षा नहीं करेंगे।’
‘श्रीमन्, राजा की रक्षा कीजिए और देश की भी, और देवता को वृष्टि करने दीजिए।’
‘राजा को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी और न भूमि को ही, और देवता वृष्टि करेंगे। लेकिन राजा अपने सबसे बड़े पुत्र पर बाण चलाए। राजकुमार को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी, उसका बाल भी बांका नहीं होगा।’
तब हे ब्राह्मणों , मंत्रियों ने ओक्काक को यह बताया और कहा: ‘राजन, अपने सबसे बड़े पुत्र पर बाण छोड़ें, उसे कोई हानि अथवा भय नहीं होगा।’ और राजा ने ऐसा ही किया, और कोई क्षय नहीं हुआ। किंतु राजा ने जो पाठ पढ़ा था, उससे आतंकित होकर उसने उस पुरुष को पत्नी के रूप में अपनी पुत्री मद्दरूपी दे दी। हे ब्राह्मणों, आपको दासी कुल के मामले में अम्बट्ठ का इतना और अपमान नहीं करना चाहिए। वह कान्हा शक्तिशाली सिद्ध पुरुष था।
- तब महाभाग ने अम्बट्ठ को कहा: ‘अम्बट्ठ, इस बारे में तुम क्या सोचते हो? अगर एक युवा क्षत्रिय का संबंध किसी ब्राह्मण कन्या से हो जाता है और उनके सहवास से एक पुत्र का जन्म होता है। क्या ऐसा पुत्र ब्राह्मणों से आसन और जल (आदर के प्रतीक के रूप में) प्राप्त कर सकेगा?’
‘हां, गौतम, वह करेगा।’
‘लेकिन क्या ब्राह्मण उसे पितरों के निमित्त आयोजित भोज, अथवा दूध में उबाले गए खाद्य, अथवा देवताओं को दी जाने वाली भेंट, अथवा उपहार के रूप में भेजे जाने वाले भोजन में सम्मिलित होने की अनुमति देंगे?’
‘हां, गौतम, वे अनुमति देंगे।’
‘लेकिन ब्राह्मण उसे अपने पद्य सिखाएंगे अथवा नहीं?’
‘हां, गौतम, वे सिखाएंगे।’
‘किंतु उनकी स्त्रियों से उसे अलग रखा जाएगा अथवा नहीं।’
‘उसे अलग नहीं रखा जाएगा।’
‘किंतु क्या क्षत्रिय उसे एक क्षत्रिय के रूप में संस्कारित होने की अनुमति देंगे?’
‘निश्चित रूप से नहीं, गौतम।’
‘क्योंकि मातृ पक्ष की ओर से उसका वंश शुद्ध नहीं है।’
- ‘अब तुम इस बारे में क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? अगर एक युवा ब्राह्मण का संबंध किसी क्षत्रिय कन्या से हो जाता है और उनके सहवास से एक पुत्र का जन्म होता है’ क्या ऐसा पुत्र ब्राह्मणों से आसन और जल (आदर के प्रतीक के रूप में) प्राप्त कर सकेगा?’
‘हां, गौतम, वह करेगा।’
‘किंतु क्या ब्राह्मण उसे पितरों के निमित्त आयोजित भोज, अथवा दूध में उबाले गए खाद्य, अथवा देवताओं को दी जाने वाली भेंट, अथवा उपहार के रूप में भेजे जाने वाले भोजन में सम्मिलित होने की अनुमति देंगे?’
‘हां, गौतम, अनुमति देंगे।’
‘किंतु ब्राह्मण उसे अपने पद्य सिखाएंगे अथवा नहीं?’
‘हां, गौतम, वे सिखाएंगे।’
‘किंतु क्या क्षत्रिय उसे एक क्षत्रिय के रूप में संस्कारित होने की अनुमति देंगे?’
‘निश्चित रूप से नहीं, गौतम।’
‘उसकी अनुमति क्यों नहीं?’
‘क्योंकि पितृ पक्ष की ओर से उसका वंश शुद्ध नहीं है।’
- ‘तब तो, अम्बट्ठ, चाहे स्त्रियों की स्त्रियों से और पुरुषों की पुरुषों से तुलना करें, क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं और ब्राह्मण हेय हैं। और, अम्बट्ठ, इस बारे में तुम क्या सोचते हो? अगर ब्राह्मण किसी अपराध के कारण किसी ब्राह्मण को न्याय के लाभ से वंचित कर दे, उसका मुंडन करके उसके सिर पर राख मलकर उसे भूमि और बस्ती से निष्कासित कर दे, क्या उस ब्राह्मण को ब्राह्मणों के मध्य आसन अथवा जल प्रदान किया जाएगा?’
‘कदापि नहीं, गौतम।’
‘अथवा ब्राह्मण उसे पितरों के निमित्त आयोजित भोज, अथवा दूध में उबाले गए खाद्य, अथवा देवताओं को दी जाने वाली भेंट, अथवा उपहार के रूप में भेजे जाने वाले भोजन में सम्मिलित होने की अनुमति देंगे?’
‘कदापि नहीं, गौतम।’
‘अथवा ब्राह्मण उसे अपने पद्य सिखाएंगे या नहीं।’
‘कदापि नहीं, गौतम।’
‘और उसे उनकी स्त्रियों से अलग रखा जाएगा या नहीं?’
‘उसे अलग रखा जाएगा।’
- ‘किंतु इस बारे में तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? यदि क्षत्रिय उसी प्रकार किसी क्षत्रिय को न्याय के लाभ से वंचित करके भूमि अथवा बस्ती से निष्कासित कर देते हैं, तो क्या ब्राह्मणों के मध्य उसे आसन और जल प्रदान किया जाएगा?’
‘हां, उसे प्रदान किया जाएगा, गौतम।’
‘और क्या उसे पितरों के निमित्त आयोजित भोज, अथवा दूध में उबाले गए खाद्य, अथवा देवताओं को दी जाने वाली भेंट, अथवा उपहार के रूप में भेजे जाने वाले भोजनमें सम्मिलित होने की अनुमति दी जाएगी?’
‘हां, गौतम, अनुमति दी जाएगी।’
‘और क्या ब्राह्मण उसे अपने पद्य सिखाएंगे।’
‘वे सिखाएंगे, गौतम।’
‘और उसे उनकी स्त्रियों से अलग रखा जाएगा अथवा नहीं?’
‘उसे अलग नहीं रखा जाएगा, गौतम।’
‘लेकिन, अम्बट्ठ, मुंडित सिर, राख की टोकरी से सने, भूमि तथा आबादी वाले क्षेत्रें से निष्कासित क्षत्रिय का घोर पतन हो जाता है, लेकिन घोर पतन के गर्त में गिर जाने के बावजूद यह धारणा सही है कि क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं और ब्राह्मण हेय हैं।’
- ‘तथापि एक ब्रह्म देवता सुनामकुमार ने यह श्लोक कहा है’:
वंश-परंपरा के प्रति आस्थावान इस जन-समूह में क्षत्रिय सर्वोत्तम है, किंतु जो विवेक और सत्यता में परिपूर्ण है, वह देवों और मनुष्यों में सर्वोत्तम है।
‘अब, अम्बट्ठ यह श्लोक ब्रह्म सुनामकुमार द्वारा सही तौर से गाया और कहा गया था, जो अर्थपूर्ण है, रिक्त नहीं है। मैं भी इसका अनुमोदन करता हूं।’
‘मैं भी’, अम्बट्ठ कहता है।
‘वंश-परंपरा के प्रति आस्थावान इस जन-समूह में क्षत्रिय सर्वोत्तम है। लेकिन जो विवेक और न्यायनिष्ठा में परिपूर्ण है, वह देवों और मनुष्यों में सर्वोत्तम है।’
………….
(पाठ के लिए प्रथम भाग यहां समाप्त होता है)
- ‘लेकिन, गौतम, उस पद्य में व्यक्त सत्यता क्या है? और विवेक क्या है?’
‘विवेक और सत्यता की सर्वोच्च पूर्णता में, अम्बट्ठ, जन्म अथवा वंश-परंपरा, अथवा इस प्रकार के अभिमान का प्रश्न ही नहीं उठता, जिसके आधार पर यह कहा जाता है-आपको उतना ही योग्य माना जाता है, जितना मुझे, अथवा आपको उतना योग्य नहीं माना जाता, जितना मुझे। जब कभी विवाह की बात चलती है, अथवा विवाह में देने की बात होती है, तो इस प्रकार की बातों का उल्लेख किया जाता है। अम्बट्ठ, जो भी जन्म अथवा वंश-परंपरा, अथवा सामाजिक स्थिति के अभिमान, अथवा विवाह द्वारा संबंध की दासता से ग्रस्त हैं, वे सर्वोत्तम विवेक और सत्यता से दूर हैं। इस प्रकार की दासता से मुक्त होने पर ही मनुष्य विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता अपने लिए प्राप्त कर सकता है।’
- ‘लेकिन, गौतम, वह आचरण और वह विवेक क्या है?’
(यहां शील के अधीन इसका उल्लेख है)
बुद्ध के आविर्भाव, उनके उपदेश, श्रोता के मतांतरण और उनके द्वारा संसार के परित्याग के संबंध में परिचयात्मक अनुच्छेद (श्रमणफल के पाठ्य का 40.42, पृष्ठ 62, 63) उसके पश्चात आते हैं:
- उपरोक्त शील, पृष्ठ, 4.12 (8.27) में केवल आंशिक भिन्नता है। प्रत्येक खंड के अंत में दुहराए गए परिच्छेद में यह आता है: ‘यह उसमें नैतिकता के रूप में जानी जाती है।’
उसके पश्चात करुणा के अधीन
- विश्वास के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 63 के पृष्ठ 69। इसके बाद अंश इस प्रकार है: ‘यह उसमें आचरण के रूप में माना जाता है।’
- इंद्रियों का द्वार सुरक्षित है, के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 64 के पृष्ठ 70।
- सावधान और आत्मलीन के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 65 के पृष्ठ 70।
- संतोष के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 66 के पृष्ठ 71।
- एकाकीपन के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 67 के पृष्ठ 71।
- ‘पांच बाधाएं’ के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 68.74 के पृष्ठ 71.72।
- चार गहन ध्यान के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 73.76 के पृष्ठ 75.82। प्रत्येक के अंत में अंश ‘पिछले से उच्चतम और अच्छे को’ यहां वास्तव में सन्यासी के जीवन के उच्चतर फल के रूप में न पढ़कर उच्चतर आचरण के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
विवेक (विग्ग) के अधीन
- ज्ञान से उत्पन्न होने वाली अंतर्दृष्टि (नानादासनम्) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 83.84 के पृष्ठ 76। इसके बाद अंश है: ‘यह उसमें विवेक के रूप में जाना जाता है और वह अंतिम से उच्चतर और अधिक मधुर है।’
- बौद्धिक छवि के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 85.86 के पृष्ठ 77।
- रहस्यमय देन (इद्धी) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 87.88 के पृष्ठ 77।
- दिव्य कर्ण (दिब्बासोता) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 89.90 के पृष्ठ 79।
- दूसरों के हृदय का ज्ञान (कटो-परियानानम) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 91.92 के पृष्ठ 79।
- पिछले जन्म का स्मरण (पुब्बे निवास-अनुस्साती-नामा) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 93.94 के पृष्ठ 81।
- दिव्य चक्षु (दिब्बा चक्खु) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 95.96 के पृष्ठ 82।
- भयंकर बाढ़ का नाश (आसावानम खयनानम) के संबंध में अनुच्छेद, पाठ्य 97.98 के पृष्ठ 83।
‘अम्बट्ठ, इस प्रकार के मनुष्य को विवेक में, आचरण में और विवेक तथा आचरण, दोनों में परिपूर्ण कहा जाता है। और विवेक तथा आचरण में कोई अन्य पूर्णता इससे अधिक उच्चतर और मधुर नहीं है।
- ‘अब, अम्बट्ठ, विवेक और सौजन्य की इस सर्वोच्च पूर्णता में चार क्षरण हैं और ये चार क्या हैं? अम्बट्ठ, यदि कोई संन्यासी अथवा ब्राह्मण विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता, पूर्ण रूप से प्राप्त किए बिना, अपने कंधे पर बहंगी (ईंधन, पानी का घड़ा, सुइयां और भिक्षुक साधु का शेष साज-सामान ले जाने के लिए) उठाए हुए गहन वन में प्रवेश करता है, और स्वयं यह शपथ लेता है: एतद् पश्चात मैं उनमें से एक बन जाऊँगा, जो केवल स्वयं गिरे हुए फलों पर निर्वाह करते हैं तो निश्चित ही वह उसका केवल सेवक बनने की योग्यता रखता है, जिसने विवेक और सत्यता को प्राप्त कर लिया हो। और पुनः, अम्बट्ठ, यदि कोई संन्यासी अथवा ब्राह्मण विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता, पूर्ण रूप से प्राप्त किए बिना, और केवल स्वयं गिरे हुए फलों पर निर्वाह न कर पाने की स्थिति में, अपने साथ कुदाली और टोकरी लेकर गहन वन में प्रवेश करता है, और स्वयं यह शपथ लेता हैः ‘एतद् पश्चात् मैं उनमें से एक बन जाऊंगा, जो केवल कंद और फलों के मूलों पर निर्वाह करते हैं’, तो निश्चित ही, वह उसका केवल सेवक बनने की योग्यता रखता है, जिसने विवेक और सत्य को प्राप्त कर लिया हो।
‘और पुनः, अम्बट्ठ, यदि कोई संन्यासी अथवा ब्राह्मण विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता, पूर्ण रूप से प्राप्त किए बिना, और केवल स्वयं गिरे हुए फलों और कंद-मूल तथा फलों पर निर्वाह न कर पाने की स्थिति में, किसी गांव अथवा नगर की सीमाओं के समीप स्वयं अग्नि-मंदिर का निर्माण करता है और अग्नि-देव की उपासना करते हुए वहां निवास करता है, तो निश्चित ही वह उसका केवल सेवक बनने की योग्यता रखता है, जिसने विवेक और सत्यता को प्राप्त कर लिया हो।
‘और पुनः अम्बट्ठ, यदि कोई सन्यासी अथवा ब्राह्मण विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता पूर्ण रूप से प्राप्त किए बिना, और केवल स्वयं गिरे हुए फलों और कंद-मूल तथा फलों पर निर्वाह न कर पाने, और अग्नि-देव की उपासना न कर पाने की स्थिति में, किसी चौराहे पर, जहां चार उच्च मार्ग मिलते हैं, स्वयं चार द्वारों वाले एक भिक्षागृह का निर्माण करता है, और वहां रहते हुए स्वयं को यह कहता है, ‘चाहे संन्यासी हो अथवा ब्राह्मण, जो कोई भी इन चार दिशाओं में से किसी भी दिशा से यहां से गुजरेगा, मैं अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार उसका स्वागत करूंगा’, तो निश्चित ही वह उसका केवल सेवक बनने की योग्यता रखता है, जिसने विवेक और सत्यता को प्राप्त कर लिया हो।’
‘अम्बट्ठ, सत्यता और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता में ये चार क्षरण हैं।’
- ‘अब, अम्बट्ठ, तुम क्या सोचते हो? क्या एक ही गुरू के अधीन शिष्यों की एक कक्षा के रूप में तुम्हें विवेक और आचरण की सर्वोच्च पूर्णता के संबंध में अनुदेश प्राप्त हो चुके हैं।’
‘ऐसा नहीं है, गौतम। मेरा ज्ञान इतना कम है कि मैं उसका दावा भी नहीं कर सकता। विवेक और आचरण की पूर्णता कितनी महान है। मैं किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण से दूर रहा हूं।’
‘तब तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? यद्यपि तुमने विवेक और सौजन्य की यह सर्वोच्च पूर्णता पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं की है, तो क्या तुमने अपने कंधों पर बोझ उठाने और एक ऐसे मनुष्य की तरह गहन वन में प्रवेश करने का प्रशिक्षण प्राप्त किया है, जो स्वेच्छा से यह शपथ ले सके कि वह केवल स्वयं गिरे हुए फलों पर निर्वाह करेगा?’
‘वह भी नहीं, गौतम।’
‘तब तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? यद्यपि तुमने विवेक और सौजन्य की यह सर्वोच्च पूर्णता पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं की है, और तुम स्वयं गिरे हुए फलों और कंद-मूल तथा फलों पर भी निर्वाह नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हें किसी गांव अथवा नगर की सीमाओं पर स्वयं एक अग्नि-मंदिर का निर्माण करना, और एक ऐसे मनुष्य की तरह वहां रहना सिखाया गया है, जो स्वेच्छा से अग्नि-देव की सेवा करेगा।’
‘वह भी नहीं, गौतम।’
‘तब तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? यद्यपि तुमने विवेक और सौजन्य की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त नहीं की है, और तुम स्वयं गिरे हुए फलों और कंद-मूल तथा फलों पर निर्वाह नहीं कर सकते, और तुम अग्नि-देव की सेवा भी नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हें स्वयं एक ऐसे स्थान पर चार द्वारों वाले भिक्षागृह का निर्माण करना सिखाया गया है, सुधारक और उनकी नियति जहां चार उच्चतम मार्ग एक-दूसरे से मिलते हों, और जहां तुम एक ऐसे मनुष्य की तरह निवास कर सको, जो स्वेच्छा से यह शपथ लेगा कि चार दिशाओं में से किसीभी दिशा से जो कोई भी वहां से गुजरेगा, तो तुम अपनी योग्यता और अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसका स्वागत करोगे।’
‘वह भी नहीं, गौतम।’
- ‘इसलिए, अम्बट्ठ, शिष्य के रूप में सर्वोच्च विवेक और आचरण के मामले में ही नहीं, अपितु उन चार क्षरणों में से किसी एक के संबंध में भी, जिसके कारण विवेक और आचरण की पूर्ण प्राप्ति बाधित हो जाती है, तुम्हारे उचित प्रशिक्षण में कमी रह गई है, और तुम्हारे गुरु, ब्राह्मण पोष्करसाति ने भी तुम्हें यह कहावत बताई है: ‘ये मुंडित सिर वाले छद्मवेशी साधु, काले भृत्य, हमारे बांधवों के चरणों की धूल कौन हैं, जो तीनों वेदों के ज्ञान में पारंगत ब्राह्मणों से वार्ता करने का दावा करते हैं।’ जब कि वह स्वयं अपेक्षाकृत न्यून कर्तव्यों में से किसी एक का भी पालन नहीं कर सके हैं (जिनके कारण मनुष्य ऊंचे कर्तव्यों की अपेक्षा करते हैं)। देखो, अम्बट्ठ, तुम्हारे गुरु, ब्राह्मण पोष्करसाति ने तुम्हारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है।
- ‘और, अम्बट्ठ, ब्राह्मण पोष्करसाति कौशल-नरेश प्रसेनजित के अनुदान का उपभोग करता है। लेकिन नरेश उसे अपनी उपस्थिति में आने की अनुमति नहीं देता है। जब वह उससे परामर्श करता है, तो वह उससे केवल आवरण के पीछे से बोलता है। यह कैसी बात है, अम्बट्ठ, कि प्रसेनजित, जिससे वह इस प्रकार का शुद्ध और विधि-सम्मत निर्वाह-व्यय स्वीकार करता है, वह उसे अपनी उपस्थिति में आने की अनुमति नहीं देता। देखो, अम्बट्ठ, तुम्हारे गुरु, ब्राह्मण पोष्करसाति ने तुम्हारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है?
- ‘अब तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? मान लो, राजा अपने हाथी की गर्दन पर या अपने घोड़े की पीठ पर बैठा है, अथवा अपने रथ के पायदान पर खड़ा है और वह अपने प्रमुखों अथवा राजकुमारों से राज्य के बारे में चर्चा करता है, और मान लो, जैसे ही वह अपने स्थान को छोड़कर एक तरफ चला जाता है, एक श्रमिक (शूद्र) अथवा श्रमिक का दास वहां आता है और वहां खड़े होकर उस विषय पर चर्चा करते हुए कहता है, ‘राजा प्रसेनजित ने ऐसा-ऐसा कहा।’ यद्यपि उसने राजा की तरह ही कहा हो और राजा की तरह ही चर्चा की हो, तथापि क्या उससे वह राजा बन जाएगा, अथवा उसका कोई अधिकारी ही बन जाएगा?’
‘कदापि नहीं, गौतम।’
- ‘लेकिन ठीक इसी तरह, अम्बट्ठ, ब्राह्मणों के उन पुराने कवियों (ऋषियों), रचनाकारों, पद्य-गायकों के प्राचीन रूप में विद्यमान शब्दों को उन्हीं की धुन में अथवा संगीतबद्ध रूप में आज के ब्राह्मण पुनः गाते हैं, उनका पूर्वाभ्यास करते हैं और उन्हीं की तरह उनका पाठ करते हैं, जैसे अत्थका, वामका, वामदेव, यमदग्नि, अंगीरस, भारद्वाज, वशिष्ठ, विश्वामित्र, कश्यप और भृगु। तुम कह सकते हो, ‘एक शिष्य के रूप में मुझे उनके पद्य कंठस्थ हैं,’ क्या उस आधार पर तुम ऋषि की पदस्थिति प्राप्त कर सकते हो? इस प्रकार की स्थिति का कोई अस्तित्व नहीं है।
- ‘अब तुम क्या सोचते हो, अम्बट्ठ? तुमने इस बारे में क्या सुना है, जब बूढ़े और अनुभवी तथा वयोवृद्ध ब्राह्मण, तुम्हारे गुरु और उनके गुरु वार्तालाप कर रहे थे, क्या वे पुराने ऋषि जिनके पद्यों को तुम गाते और दुहराते रहते हो, सुसज्जित होकर इत्र का प्रयोग करके, अपने बालों और अपनी दाढ़ी संवार कर, पुष्पहारों तथा रत्नों-सहित, सफेद वस्त्र पहने हुए, पांचों ऐन्द्रिय सुखों का पूर्ण आनंद लेते हुए, आत्म-प्रदर्शन करते फिरते थे, जैसा कि अब तुम और तुम्हारे गुरु भी करते फिरते हैं।’
“वै नहीं, गौतम।’
‘और क्या वे उत्तम पके हुए चावलों पर अपना निर्वाह करते थे, जिससे खराब दाने निकाल दिए गए हों, और जिसे विभिन्न प्रकार के मसालों और कढ़ी से जायकेदार बनाया गया हो, जैसा कि तुम और तुम्हारे गुरु अब करते हैं?’
‘वैसा नहीं, गौतम।’
‘अथवा क्या झालरयुक्त और चुन्नटदार घाघरा पहने हुए स्त्रियां उनकी सेवा में तत्पर रहती थीं, जैसे कि अब तुम्हारी और तुम्हारे गुरु की सेवा में रहती हैं?
‘अथवा क्या वे वेणीयुक्त और चुन्नटदार पूंछों वाली घोड़ियों द्वारा खींचे गए रथों को लंबे सोटे से हांकते फिरते थे, जैसा कि अब तुम और तुम्हारे गुरु करते हैं?’
‘वैसा नहीं, गौतम।’
‘अथवा क्या उन्होंने लंबी तलवारों से सज्जित पुरुषों द्वारा, स्वयं को ऐसी किलेबंदी वाले नगरों में अभिरक्षित कराया है, जिनके चारों ओर खाइयां खुदी हुई हैं और जिनके द्वारों के सामने कैंची द्वार लगाए गए थे, जैसाकि तुम और तुम्हारे गुरु करते हैं।’
‘वैसा नहीं है, गौतम।’
- ‘तब, अम्बट्ठ, न तो तुम और न तुम्हारे गुरु ऋषि हैं और न तुम ऐसी स्थितियों में रहते हो, जिनमें ऋषि रहते थे। किंतु, अम्बट्ठ, चाहे कोई भी कारण हो, जिसकी वजह से तुम मेरे बारे में आशंका और भ्रांति में पड़े हो, तुम मुझसे पूछ सकते हो। मैं स्पष्टीकरण द्वारा उसे स्पष्ट कर दूंगा।’
- तब महाभाग अपने कक्ष से निकले और उन्होंने इधर से उधर विचरना आरंभ कर दिया। अम्बट्ठ ने भी वही किया और इस प्रकार महाभाग का अनुसरण करते हुए उसने महापुरुष में पाए जाने वाले बत्तीस लक्षण महाभाग के शरीर में हैं या नहीं, परखना चाहा। और उसे दो लक्षणों को छोड़कर सभी लक्षण दिखाई दिए। दो लक्षणों, प्रछन्न अंग और जिह्वा का विस्तार, के बारे में उसे शंका तथा भ्रम हुआ, और वह संतुष्ट और निश्चित नहीं हो पाया।
- और महाभाग को ज्ञात था कि उसे इस प्रकार की शंका है। और उन्होंने अपनी अद्भुत देन द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था की कि ब्राह्मण अम्बट्ठ ने देखा कि महाभाग का वह अंग जिसे वस्त्रें से आच्छादित होना चाहिए था, किस प्रकार एक खोल में समावृत्त था। और महाभाग ने अपनी जिह्वा को इस प्रकार घुमाव दिया कि उससे उन्होंने दोनों कानों को स्पर्श किया और सहलाया, और अपने दोनों नासिका रंध्रों को स्पर्श किया और सहलाया, और उन्होंने अपने मस्तक के समग्र भाग को अपनी जिह्वा से आवेष्ठित कर लिया।
युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ ने सोचा-श्रमण गौतम महापुरुष के केवल कुछ लक्षणों से ही नहीं, अपितु पूरे बत्तीस लक्षणों से संपन्न हैं। और उसने महाभाग से कहा: ‘अब, गौतम, हमारा जाना हितकर रहेगा। हम व्यस्त हैं और हमें बहुत से कार्य करने हैं।’
‘अम्बट्ठ, जो तुम्हें उपयुक्त लगे, वही करो।’
और अम्बट्ठ घोड़ियों द्वारा खींचे जाने वाले अपने रथ पर चढ़ा और वहां से विदा हो गया।
- उस समय ब्राह्मण पोष्करसाति ब्राह्मणों के बड़े समूह के साथ उक्कट्ठा से चला गया था, और अपने ही विहारोद्यान में बैठा हुआ वहां अम्बट्ठ की प्रतीक्षा कर रहा था। और अम्बट्ठ विहार में आया। और जब वह अपने रथ में वहां तक आया जहां तक रथों के लिए मार्ग सुगम था, वह रथ से उतर गया और पैदल ही वहां पहुंचा जहां पोष्करसाति थे, और उनका अभिवादन करके उसने सम्मानपूर्वक ढंग से एक ओर अपना आसन ग्रहण किया और उसके इस तरह आसीन हो जाने पर पोष्करसाति ने उससे कहा।
- ‘अच्छा, अम्बट्ठ, क्या तुमने महाभाग को देखा?’
‘हां, श्रीमन्, हमने उन्हें देखा।’
‘अच्छा, क्या श्रद्धेय गौतम वैसे ही हैं, जैसे उनकी ख्याति है, और जैसा कि मैंने तुम्हें बताया था, उससे अन्यथा तो नहीं हैं। वह ऐसे ही हैं अथवा नहीं?’
‘वह वैसे ही हैं, श्रीमन्, जैसी कि उनकी ख्याति घोषित करती है, उससे अन्यथा नहीं हैं। वह वैसे ही हैं, उससे भिन्न नहीं हैं। और वह महापुरुष के कुछ लक्षणों से ही नहीं, अपितु पूरे बत्तीस लक्षणों से संपन्न हैं।’
‘और क्या, अम्बट्ठ, श्रमण गौतम से तुम्हारी कोई बात हुई?’
‘हां, श्रीमन्, हुई।’
‘और वार्ता कैसी रही?’
तब अम्बट्ठ ने ब्राह्मण पोष्करसाति को उस पूरी बातचीत से अवगत कराया, जो कि महाभाग के साथ हुई थी।
- जब वह इस प्रकार बोल चुका, तो पोष्करसाति ने उससे कहा: ‘ओह, तुम कैसे ज्ञानाभिमानी हो। कितने मंदबुद्धि हो। ओह, तुम हमारे तीनों वेदों की विशेष जानकारी रखते हो। उनका कहना है कि जो मनुष्य इस प्रकार कार्य करता है, मृत्यु के पश्चात शरीर के क्षय हो जाने पर कष्ट और पीड़ा की निराशाजनक स्थिति में पुनर्जन्म लेता है। अपने अशिष्ट शब्दों में तुमने जिन प्रश्नों पर बल दिया, उनका क्या परिणाम? क्या वही नहीं है, जिसका कि श्रद्धेय गौतम ने प्रकटीकरण किया है? कितने ज्ञानाभिमानी, कितने मंदबुद्धि और हमारे तीनों वेदों के ज्ञान में निष्णात।’ और क्रोधित तथा अप्रसन्न होकर उसने अम्बट्ठ को पैर मारकर धकेल दिया और उसने तत्काल महाभाग से मिलना चाहा।
- लेकिन वहां मौजूद ब्राह्मणों ने पोष्करसाति से इस प्रकार कहा: ‘श्रीमन्, आज श्रमण गौतम से मिलने के लिए बहुत देर हो चुकी है। सम्माननीय पोष्करसाति कल यह कार्य कर सकते हैं।’
पोष्करसाति ने अपने ही घर में पुष्ट और नरम, दोनों ही प्रकार का मीठा भोजन तैयार करवाया और मशालों की तेज रोशनी में उसे वाहनों में रखवाया और उक्कट्ठा को चल पड़े। और वह स्वयं इच्छानंगल वनखंड की ओर अपना रथ हांकते हुए उस स्थान तक गया जहां तक वाहनों के लिए मार्ग सुगम था, और उसके बाद पैदल ही महाभाग के पास गया और जब उसने नम्रता तथा शालीनतापूर्वक महाभाग से अभिवादन और सम्मान का आदान-प्रदान कर लिया, तो उसने एक तरफ आसन ग्रहण कर लिया और महाभाग से बोलाः
- ‘गौतम, क्या हमारा युवा शिष्य ब्राह्मण अम्बट्ठ यहां होकर गया है?’
‘हां, ब्राह्मण, वह यहां आया था।’
‘और, गौतम, क्या आपने उससे बात की थी?’
‘हां, ब्राह्मण, मैंने की थी।’
‘और आपने उससे किस विषय पर बात की थी?’
- तब महाभाग ने, जो भी बात हुई थी, उसके बारे में ब्राह्मण पोष्करसाति को बताया, और जब वह इस प्रकार बोल चुके, तो पोष्करसाति ने महाभाग से कहा: ‘गौतम, वह युवा ब्राह्मण अम्बट्ठ अज्ञानी और मूर्ख है। गौतम, उसे क्षमा कर दीजिए।’
- और ब्राह्मण पोष्करसाति ने महाभाग के शरीर को ध्यानपूर्वक देखा और उस पर महापुरुष के बत्तीस लक्षणों को परखा। उसे दो लक्षणों को छोड़कर सभी लक्षण स्पष्ट दिखाई दिए। खोल में, प्रच्छन्न अंग और सुदीर्घ जिह्वा, इन दो लक्षणों के बारे में वह अब तक शंका और अनिर्णय की स्थिति में था। लेकिन महाभाग ने पोष्करसाति को वे लक्षण दिखा दिए, जैसे कि अम्बट्ठ को भी दिखाए थे, और पोष्करसाति ने देखा कि महाभाग महापुरुष के कुछ ही लक्षणों से ही नहीं, अपितु पूरे बत्तीस लक्षणों से संपन्न हैं, और उसने महाभाग से कहा: ‘क्या श्रद्धेय गौतम, संघ के सदस्यों सहित कल का भोजन मेरे साथ करने की कृपा करेंगे?’ और महाभाग ने मौन रहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
- तब ब्राह्मण पोष्करसाति ने यह देखते हुए कि महाभाग ने (कल के लिए) प्रार्थना स्वीकार कर ली है, समय की घोषणा की: ‘समय हो गया है, गौतम, भोजन तैयार है।’ और तब महाभाग ने जो प्रातः ही तैयार हो चुके थे, अपना चीवर पहना और अपना पात्र लेकर बांधवों के साथ पोष्करसाति के घर पर पहुंचे और अपने लिए तैयार किए गए आसन पर बैठ गए। और तब ब्राह्मण पोष्करसाति ने अपने हाथों से पुष्ट और नरम, दोनों ही प्रकार का स्वादिष्ट भोजन महाभाग को और उनके संघ के युवा ब्राह्मण सदस्यों को तब तक परोसा, जब तक कि वे तृप्त नहीं हो गए और उन्होंने और भोजन ग्रहण करने से इंकार नहीं कर दिया, और जब महाभाग भोजन कर चुके, तो उन्होंने अपना पात्र धोया और हस्त प्रक्षालन किया। पोष्करसाति ने नीचे आसन ग्रहण किया और उनके पार्श्व में बैठ गया।
- और तब इस प्रकार बैठे हुए उससे महाभाग ने उपयुक्त क्रमानुसार बात की, अर्थात उन्होंने उसे उदारता, सद्आचरण, स्वर्ग और भय के बारे में, मिथ्याभिमान और लोभ की विकृति और त्याग के लाभों के विषय में बताया। और जब महाभाग ने देखा कि ब्राह्मण पोष्करसाति प्रकटतः नरम, पूर्वाग्रह से मुक्त, उन्नत और हृदय से आस्थावान बन चुका है, तब उन्होंने उस सिद्धांत की घोषणा की, जिस पर केवल बुद्ध ही विजय पा सके हैं, अर्थात दुःख का सिद्धांत, उसका मूल, उसकी समाप्ति और इस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग। और जिस प्रकार एक स्वच्छ वस्त्र, जिसके सभी दाग धो दिए गए हैं, तुरंत रंग ग्रहण कर लेता है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण पोष्करसाति को वहां बैठे सत्य को निरखने के लिए शुद्ध और स्वच्छ दृष्टि प्राप्त हो गई, और उसे ज्ञात हुआ, ‘जिस किसी का भी प्रारंभ होता है, उसके साथ ही उसकी समाप्ति की आवश्यकता भी निहित है।’
- और तब ब्राह्मण पोष्करसाति ने, जिसने अब सत्य का दर्शन कर लिया था, उस पर विजय प्राप्त कर ली थी, उसे समझ लिया था, उसका गहन चिंतन कर लिया था, जो शंका से परे हो गया था, भ्रांति से मुक्ति पा ली थी और पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया था, और जो स्वामी के उपदेश के अपने ज्ञान के लिए किसी अन्य पर आश्रित नहीं था-महाभाग को संबोधित किया और कहा:
‘परम श्रेष्ठ, हे गौतम, आपके मुख से निकले ये शब्द परम श्रेष्ठ हैं। ठीक ऐसे ही, जैसे कोई मनुष्य किसी फेंकी हुई चीज को फिर से स्थापित करे, अथवा उसे प्रकट करे जो कुछ छिपाया गया हो, अथवा भटके हुए को सही मार्ग दिखाए, अथवा अंधेरे में प्रकाश ले आए जिससे आंखों वाले बाह्य रूपों को देख सकें, ठीक उसी प्रकार, स्वामी, श्रद्धेय गौतम ने मुझे विभिन्न रूपों में सत्य का ज्ञान कराया है। और मैं, हे गौतम, अपने पुत्रें, अपनी पत्नी, अपने संगी-साथियों सहित सत्य और संघ के लिए अपने पथप्रदर्शक के रूप में श्रद्धेय गौतम की शरण में आता हूं। श्रद्धेय गौतम, मुझे एक ऐसे शिष्य के रूप में स्वीकार करें, जिसने आज से जीवन-पर्यन्त उन्हें अपना पथप्रदर्शक बना लिया है। और जिस प्रकार श्रद्धेय गौतम उक्कट्ठा में अन्य लोगों के परिवारों और अपने शिष्यों के पास जाते हैं, वह मेरे परिवार में भी आएं। और वहां जो कोई भी हों, ब्राह्मण अथवा उनकी पत्नियां, वे श्रद्धेय गौतम के प्रति सम्मान व्यक्त करेंगे, अथवा उनकी उपस्थिति में खड़े होंगे, अथवा उन्हें आसन और जल भेंट करेंगे, अथवा उनकी उपस्थिति से प्रसन्न होंगे, उन्हें दीर्घकाल तक सुख और आनंद की प्राप्ति होगी।’ ‘जो तुम कहते हो, ब्राह्मण, वह ठीक है।’
(यहां अम्बट्ठ सुत्त समाप्त होता है)
VI
जाति के विरोध के मामले में बुद्ध ने जो शिक्षा दी, उसी को व्यवहार में भी लाए। उन्होंने वही किया, जिसे आर्यों के समाज ने करने से इंकार कर दिया था। आर्यों के समाज में शूद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नहीं बन सकता था। किंतु बुद्ध ने जातिप्रथा के विरुद्ध केवल प्रचार ही नहीं किया, अपितु शूद्र तथा नीच जाति के लोगों को भिक्षु का दर्जा दिलाया, जिनका बौद्धमत में वही दर्जा है, जो ब्राह्मणवाद में ब्राह्मण का है।
सर्वप्रथम, स्वयं अपने संघ के संबंध में, जिस पर केवल उनका ही पूर्ण नियंत्रण था, वह जन्म, व्यवसाय और सामाजिक दर्जे से प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के लाभों और हानियों की पूर्णतः तथा नितांत उपेक्षा करते हैं, और मात्र आनुष्ठानिक अथवा सामाजिक अशुचिता के मनमाने नियमों से उत्पन्न होने वाली बाधाओं और अयोग्यताओं को मिटा देते हैं।
उनके संघ के सर्वाधिक प्रख्यात सदस्यों में से एक था उपाली, जिसका उल्लेख संघ के नियमों के संबंध में स्वयं गौतम के बाद प्रमुख प्राधिकारी के रूप में किया जाता था, जो पहले नाई का काम करता था, जिसे घृणित व्यवसायों में से एक माना जाता है। इसी प्रकार बांधवों में से पुक्कुसा जाति का निम्न आदिवासी सुनीता था, जिसके पद्यों को थेरी गाथा में सम्मिलित करने के लिए चुना गया है। घोर नास्तिकता का प्रवर्तक सती, मछुआरे के पुत्रें में से था। इस जाति को भी बाद में निम्न जाति माना गया और तब भी निर्दयता के कारण उस व्यवसाय को खास तौर से घृणित माना जाता था। नंदा एक चरवाहा था। दो पंथकों का जन्म एक अच्छे परिवार की कन्या का एक दास के साथ सहवास से हुआ (जिसके कारण मनु के सूत्र 31 में निर्धारित नियमानुसार, वे वास्तव में जाति-बहिष्कृत थे)। कापा एक मृग-आखेटक की पुत्री थी। पुन्ना और पुन्निका दास कन्याएं थीं। सुमंगलमाता श्रमिकों की पुत्री और पत्नी थी, और शुभा लुहार की बेटी थी। और भी उदाहरण निश्चित रूप से दिए जा सकते हैं और ग्रंथों के प्रकाशन के बाद अन्य के बारे में भी पता चलेगा।
इस बात से कोई ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि प्रकट नहीं होती कि संख्या की अल्पता का उपहास किया जाए और यह कहा जाए कि कल्पित बौद्धिकता अथवा उदारता मात्र एक बहाना है। तथ्यों से स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जाती है, और संघ के नीच जाति के सदस्यों का प्रतिशत संभवतः शेष आबादी की तुलना में तिरस्कृत जातियों और सिप्पा लोगों के प्रतिशत के अच्छे अनुपात में था। इसी प्रकार थेरी गाथा में वर्णित साठ थेरियों की सामाजिक स्थिति का हमें पता है, जिनमें से पांच का उल्लेख ऊपर किया है, अर्थात संपूर्ण संख्या के साढ़े आठ प्रतिशत नीच जाति में जन्मे थे। इसकी काफी संभावना है कि यह सूचना उस अनुपात के बारे में है, जो एक जैसी सामाजिक स्थिति वाले व्यक्तियों की शेष जनसंख्या से था।
जिस प्रकार बुद्ध ने शूद्रों और नीच जाति के मनुष्यों को भिक्षुओं को सर्वोच्च दर्जा दिलाकर उनकी स्थिति को उन्नत किया, उसी प्रकार उन्होंने स्त्रियों की स्थिति को भी ऊंचा उठाया। आर्यों के समाज में स्त्रियों और शूद्रों को समान स्थिति प्रदान की गई थी, और आर्यों के साहित्य में स्त्रियों और शूद्रों के बारे में साथ-साथ वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनका समान स्तर है। दोनों को सन्यास लेने का कोई अधिकार नहीं था, जब कि संन्यास ही निर्वाण लिए एकमात्र मार्ग था। स्त्रियां और शूद्र निर्वाण से परे थे। बुद्ध ने स्त्रियों के विषय में इस नियम को वैसे ही भंग किया, जिस प्रकार उन्होंने शूद्रों के मामले में किया था। जिस प्रकार एक शूद्र भिक्षु बन सकता था, उसी प्रकार एक स्त्री संन्यासिनी बन सकती थी। यह आर्यों के समाज की दृष्टि में उसे सर्वोच्च दर्जा प्रदान करना था।
बुद्ध ने आर्यों के समाज के नेताओं के विरुद्ध जिस अन्य प्रश्न पर लड़ाई लड़ी, वह अध्यापक और अध्यापन के शीलाचार का प्रश्न था। आर्यों के समाज के नेताओं की यह धारणा थी कि ज्ञान और शिक्षा का विशेषाधिकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को प्राप्त है। शूद्रों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त नहीं है। उनका आग्रह था कि अगर उन्होंने स्त्रियों अथवा ऐसे पुरुषों को पढ़ाया जो द्विज नहीं हैं, तो इससे सामाजिक व्यवस्था के लिए भय उत्पन्न हो जाएगा। बुद्ध ने आर्यों के इस सिद्धांत की निंदा की। जैसा कि राइस डेविड्स ने इस प्रश्न पर कहा है: ‘हर व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए, हर ऐसे व्यक्ति को, जो कुछ योग्यताओं से संपन्न है, अध्यापन की अनुमति दी जानी चाहिए, और यदि वह पढ़ाता है तो उसे सबको सब-कुछ पढ़ाना चाहिए, कुछ भी शेष नहीं रखना चाहिए, और किसी को उससे वंचित नहीं रखा जाना चाहिए।’ इस संबंध में बुद्ध और ब्राह्मण लोहिक्क के बीच संवाद का उल्लेख किया जा सकता है, जिसे लोहिक्क सुत्त के रूप में जाना जाता है।
लोहिक्क सुत्त
(अध्यापन के शीलाचार की कुछ बातें)
- इस प्रकार मैंने सुना है। एक बार भारी संख्या में संघ के सदस्यों के साथ लगभग पांच सौ भिक्षुकों सहित कौशल जनपदों की यात्र के दौरान परम श्रेष्ठ साल-वाटिका (साल वृक्षों की पंक्ति से घिरे गांव) में पहुंचे। उस समय, ब्राह्मण लोहिक्क साल-वाटिका में सुस्थापित थे। वह जीवन की हलचल से गुंजित स्थल था, जहां पर्याप्त हरित भूमि थी, वन्य भूमि थी और अनाज था। कौशल-नरेश प्रसेनजित ने उपहार स्वरूप ये क्षेत्र उन्हें इस अधिकार के साथ प्रदान किया था, मानो वह स्वयं राजा हों।
- अब, उस समय विचारमग्न ब्राह्मण लोहिक्क निम्नलिखित कुत्सित बात सोच रहा था: ‘मान लो, कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण किसी उच्च स्थिति (मस्तिष्क की) को प्राप्त कर लेता है, तो उसे उसके बारे में किसी को नहीं बताना चाहिए। क्योंकि कोई मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है? दूसरों को बताना तो ऐसा ही होगा, मानो कि कोई मनुष्य एक पुराने बंधन को तोड़कर स्वयं को नए बंधन में फंसा ले। उसी प्रकार मैं कहता हूं कि यह (दूसरों को बताने की इच्छा) एक तरह की लालसा है। क्योंकि कोई मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है?’
- अब, ब्राह्मण लोहिक्क ने समाचार सुना: ‘लोग कहते हैं कि शाक्य कुल के श्रमण गौतम जो धार्मिक जीवन अंगीकार करने के लिए शाक्यों से अलग हो गए थे, अब अपने संघ के बहुत से बांधवों सहित कौशल के जिलों की यात्र करते हुए साल-वाटिका में पहुंच गए हैं। अब जहां तक श्रद्धेय गौतम का संबंध है, उनकी इतनी ख्याति है कि विदेश में भी उनकी ऐसी चर्चा है: महाभाग एक अर्हत, पूर्ण प्रबुद्ध, विवेक और सौजन्य से परिपूर्ण, लौकिक ज्ञान से पुष्ट, मार्गदर्शन के इच्छुक नश्वरों के लिए अनुपम पथप्रदर्शक, देवों और मनुष्यों के लिए उपदेशक, वरदान प्राप्त हैं। और वह स्वयं देवताओं, ब्राह्मणों और असम प्रदेश की पहाड़ियों पर मर भाषा बोलने वाले लोगों के ऊपर वाले लोक और उसके नीचे संन्यासियों तथा ब्राह्मणों, राजाओं और प्रजाजन वाले लोक सहित संपूर्ण सृष्टि को पूर्ण रूप से इस तरह जानते और देखते हैं, मानो वह उनके सामने हों, और उस संपूर्ण सृष्टि को जानने के बाद, वह अपने ज्ञान की जानकारी दूसरों को कराते हैं। सत्य जो अपने मूल में सुंदर है, प्रगति में सुंदर है, संपूर्णता में सुंदर है, उसी की उद्घोषणा वह भावना और शब्द में करते हैं, वह उच्चतर जीवन की पूर्णता और पवित्रता का भरपूर ज्ञान कराते हैं। और उस प्रकार के अर्हत के दर्शनार्थ जाना अच्छा है।’
- तब लोहिक्क ब्राह्मण ने भेषिक नाई से कहा: ‘आओ भेषिक, वहां जाओ जहां श्रमण गौतम टिके हुए हैं, और वहां जाकर मेरे नाम से उनसे पूछना कि क्या वह रोग और अस्वस्थता से मुक्त हैं, और स्वास्थ्य और शक्ति से पूर्ण सुविधाजनक स्थिति में हैं, और इस प्रकार कहना: क्या श्रद्धेय गौतम अपने संघ के बांधवों सहित कल का भोजन लोहिक्क ब्राह्मण से ग्रहण करना स्वीकार करेंगे?’
- भेषिक नाई ने लोहिक्क ब्राह्मण के शब्दों का पालन करते हुए कहा, ‘बहुत अच्छा, श्रीमन्, और जैसा कहा गया था, उसने वैसा ही किया। और परम श्रेष्ठ ने मौन रहकर उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।
- और जब भेषिक नाई ने देखा कि परम श्रेष्ठ ने सहमति दे दी है, वह अपने स्थान से उठा, और अपना दायां हाथ परम श्रेष्ठ की ओर करते हुए वहां से चला गया और लोहिक्क ब्राह्मण के पास पहुंच कर उससे इस प्रकार बोला: ‘श्रीमन्, आपके आदेशानुसार हमने परम श्रेष्ठ को संबोधित किया और परम श्रेष्ठ ने आने की सहमति दे दी है।’
- तब रात्रि के बीत जाने पर लोहिक्क ब्राह्मण ने अपने निवास-स्थान पर पुष्ट और नरम, दोनों ही प्रकार का स्वादिष्ट भोजन तैयार करवाया और भेषिक नाई से कहा: ‘भेषिक, वहां जाओ जहां श्रमण गौतम टिके हुए हैं, और वहां पहुंचकर यह कहते हुए समय की घोषणा कर दो: हे गौतम, समय हो गया है, और भोजन तैयार है।’
भेषिक नाई ने लोहिक्क ब्राह्मण के शब्दों का पालन करते हुए कहा, ‘बहुत अच्छा, श्रीमन्, और आदेशानुसार वैसा ही किया। और परम श्रेष्ठ, जो प्रातः ही तैयार हो गए थे, अपना पात्र लेकर संघ के बांधवों सहित साल-वाटिका की ओर चल पड़े।
- अब, ज्यों ही वह चले, भेषिक नाई परम श्रेष्ठ के पीछे-पीछे चलता रहा। और उसने परम श्रेष्ठ से कहा:
‘लोहिक्क ब्राह्मण के दिमाग में निम्नलिखित कुत्सित विचार घर कर गया है, ‘मान लो कि कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण किसी उच्च स्थिति (मस्तिष्क की) को प्राप्त कर लेता है, तो उसके बारे में किसी को नहीं बताना चाहिए। क्योंकि कोई मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है? दूसरों को बताना तो ऐसा ही होगा, मानो कि कोई मनुष्य एक पुराने बंधन को तोड़कर स्वयं को नए बंधन में फंसा ले। उसी प्रकार मैं कहता हूं कि यह (दूसरों को बताने की इच्छा) एक तरह की लालसा है।’ यह अच्छा होता, श्रीमन्, यदि परम श्रेष्ठ उसके मस्तिष्क को उस कुत्सित विचार से मुक्त कर देते। क्योंकि कोई मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है?’
‘वही ठीक रहेगा, भेषिक, वही ठीक होगा।’
- और परम श्रेष्ठ लोहिक्क ब्राह्मण के निवास स्थान पर गए और अपने लिए नियत आसन पर बैठ गए। और लोहिक्क ब्राह्मण ने बुद्ध के नेतृत्व में उनके संघ को संतुष्ट किया, अपने ही हाथों से पुष्ट और नरम, दोनों ही प्रकार का स्वादिष्ट भोजन तब तक परोसा, जब तक कि उन्होंने और ग्रहण करने से इंकार नहीं कर दिया। और जब परम श्रेष्ठ भोजन कर चुके, तो उन्होंने अपना पात्र धोया और हस्त-प्रक्षालन किया। लोहिक्क ब्राह्मण ने नीचे आसन ग्रहण किया और उनके पार्श्व में बैठ गया। और उसके इस प्रकार आसीन हो जाने पर परम श्रेष्ठ ने उससे निम्नानुसार कहा:
‘लोहिक्क, जो कुछ कहते हैं, क्या वह सच है कि तुम्हारे दिमाग में निम्नलिखित कुत्सित विचार उत्पन्न हो गया है (और उन्होंने उपरोक्त कथनानुसार वह विचार प्रकट किया)।
‘ऐसा ही है, गौतम।’
- ‘अब तुम क्या सोचते हो, लोहिक्क? क्या तुम साल-वाटिका में सुस्थापित नहीं हो?’
‘हां, ऐसा है, गौतम।’
‘तब, लोहिक्क, मान लो, कोई इस प्रकार कहे: ‘साल-वाटिका’ में लोहिक्क ब्राह्मण का राज्य है, उसे अकेले ही साल-वाटिका के संपूर्ण राजस्व और उत्पाद का उपभोग करने दो, किसी और को कुछ न मिले। ऐसी बात कहने वाला व्यक्ति खतरनाक होगा या नहीं, क्योंकि वह उन लोगों को छेड़ रहा है, जो तुम्हारे अधीन जीवनयापन करते हैं?’
‘हां, गौतम, वह खतरनाक होगा।’
‘और भय उत्पन्न करने वाला क्या वह व्यक्ति उनकी भलाई के लिए सहानुभूति रखता होगा या नहीं?’
‘वह उनकी भलाई के बारे में नहीं सोचेगा, गौतम।’
‘और उनकी भलाई की बात न सोचते हुए क्या उसका हृदय उनके प्रेम की ओर उन्मुख होगा अथवा उनसे शत्रुता रखेगा?’
‘शत्रुता रखेगा, गौतम।’
‘किंतु यदि किसी का हृदय शत्रुता में निमग्न है, तो वह अविश्वसनीय सिद्धांत है, अथवा विश्वसनीय?’
‘वह अविश्वसनीय सिद्धांत है, गौतम।’
‘अब अगर, लोहिक्क, कोई मनुष्य अविश्वसनीय सिद्धांत का मानने वाला है, तो मैं घोषणा करता हूं कि उसकी नियति यह होगी कि दो भावी जन्मों में एक बार वह या तो पाप मोचन के लिए जन्म लेगा अथवा एक पशु के रूप में उसका पुनर्जन्म होगा।’
- ‘अब तुम क्या सोचते हो, लोहिक्क? क्या कौशल-नरेश प्रसेनजित के अधिकार में काशी और कौशल नहीं हैं?’
‘हां, है, गौतम।’
‘तो, मान लो, लोहिक्क, यदि कोई इस प्रकार कहे:
‘कौशल-नरेश प्रसेनजित के अधिकार में काशी और कौशल हैं, उसे काशी और कौशल के संपूर्ण राजस्व और उत्पाद का उपभोग करने दो, अन्य किसी को कुछ न मिले। ऐसी बात कहने वाला व्यक्ति खतरनाक होगा या नहीं, क्योंकि उसने कौशल-नरेशन प्रसेनजित के अधीन जीवनयापन करने वाले मनुष्यों को, तुम्हें और अन्य लोगों को छेड़ा है।’
‘हां, गौतम, वह खतरनाक होगा।’
‘और भय उत्पन्न करने वाला वह व्यक्ति उनकी भलाई के लिए सहानुभूति रखता होगा या नहीं?’
‘वह उनकी भलाई के बारे में नहीं सोचेगा, गौतम?’
‘और उनकी भलाई की बात न सोचते हुए क्या उसका हृदय उनके प्रेम की ओर उन्मुख होगा अथवा उनसे शत्रुता रखेगा?’
‘शत्रुता रखेगा, गौतम।’
‘किंतु यदि किसी का हृदय शत्रुता में निमग्न है, तो वह अविश्वसनीय सिद्धांत है अथवा विश्वसनीय?’
‘वह अविश्वसनीय सिद्धांत है, गौतम।’
‘अब अगर, लोहिक्क, कोई मनुष्य अविश्वसनीय सिद्धांत का मानने वाला है, तो मैं घोषणा करता हूं कि उसकी नियति यह होगी कि दो भावी जन्मों में एक बार वह या तो पाप मोचन के लिए जन्म लेगा अथवा एक पशु के रूप में उसका पुनर्जन्म होगा।
- और 14. ‘इसलिए, लोहिक्क, तुम स्वीकार करते हो कि वह जो यह कहता है कि साल-वाटिका पर तुम्हारा अधिकार है, इसलिए तुम्हें वहां के संपूर्ण राजस्व और उत्पाद का उपभोग करना चाहिए और अन्य किसी को कुछ नहीं देना चाहिए, और वह जो यह कहता है कि कौशल-नरेश प्रसेनजित का काशी और कौशल पर अधिकार है, इसलिए उन्हें स्वयं वहां के संपूर्ण राजस्व और उत्पाद का उपभोग करना चाहिए और अन्य किसी को कुछ नहीं देना चाहिए, वह तुम्हारे अधीनस्थ रहने वालों के लिए भय उत्पन्न करेगा अथवा नरेश प्रसेनजित के अधीन रहने वाले तुम्हारे और अन्य लोगों के लिए भय उत्पन्न करेगा, और जो इस प्रकार दूसरों के लिए भय उत्पन्न करते हैं, उनमेंउनके प्रति सहानुभूति का अभाव होता है। और जिस मनुष्य के प्रति सहानुभूति का अभाव है, उसका हृदय शत्रुता में निमग्न हो जाता है, और अपने हृदय को शत्रुता में निमग्न कर लेना अविश्वसनीय सिद्धांत है।
- और 15. ‘ठीक ऐसे ही, लोहिक्क, जो यह कहता है: ‘मान लो, कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण किसी उच्च स्थिति (मस्तिष्क की) को प्राप्त कर लेता है, तो क्या उसे उसके बारे में किसी और को नहीं बताना चाहिए? क्योंकि कोई मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है? दूसरों को बताना तो ऐसा ही होगा, मानो कि कोई मनुष्य एक पुराने बंधन को तोड़कर स्वयं को नए बंधन में फंसा ले।’ उसी प्रकार मैं कहता हूं कि दूसरों को बताने की यह इच्छा एक तरह की लालसा है। जो इस प्रकार बात करता है, वह उन परिजनों के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करेगा, जिन्होंने उस व्यक्ति द्वारा निर्धारित सिद्धांत और अनुशासन अंगीकार किए हैं, जिन्होंने सत्य पर विजय प्राप्त कर ली है-उदाहरण के तौर पर धर्मान्तरण का फल प्राप्त कर चुके हैं, अथवा एक बार उसमें वापस जाने, अथवा कभी वापस न जाने, और यहां तक कि अर्हत के रूप में दीक्षित हो जाने की स्थिति में पहुंच चुके हैं, वह उनके मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करेगा, जो ऐसे आचरण को फलित कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्वर्ग में परमेश्वर्य की स्थितियों में पुनर्जन्म संभव है। किंतु उनके मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करके उनकी भलाई के प्रति उसकी सहानुभूति नहीं होगी, उनकी भलाई के प्रति सहानुभूति के अभाव में उसका हृदय शत्रुता में निमग्न हो जाएगा, जो कि अविश्वसनीय सिद्धांत है। अब, लोहिक्क, अगर कोई मनुष्य अविश्वसनीय सिद्धांत को मानता है, तो मैं घोषणा करता हूं कि उसकी स्थिति यह होगी कि दो भावी जन्मों में एक बार वह या तो पाप-मोचन के लिए जन्म लेगा अथवा एक पशु के रूप में उसका जन्म होगा।
- ‘लोहिक्क, विश्व में ये तीन प्रकार के गुरु हैं, जो दोषारोपण के योग्य हैं, और जो भी इस प्रकार के गुरु को दोषी बताएगा, भर्त्सना न्यायोचित होगी, तथ्यों और सत्य के अनुरूप, अनुचित नहीं होगी। यह तीन प्रकार क्या हैं?
सर्वप्रथम, लोहिक्क, एक इस प्रकार का गुरु होता है, जो श्रमण के उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका है, जिसके कारण उसने गृह-त्याग किया और गृहविहीन जीवन अंगीकार किया। उस लक्ष्य को स्वयं प्राप्त किए बिना वह अपने श्रोताओं को सिद्धांत (धम्म) का उपदेश देता है और कहता है: ‘यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है, इससे तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी।’ तब उसके वे श्रोता न तो उसे सुनते हैं, न उसके शब्दों की ओर ध्यान देते हैं, और न उसके ज्ञान के माध्यम से चित्त को स्थिर कर पाते हैं, वे अपने गुरु की शिक्षा से अलग, अपने ही मार्ग पर चलते हैं। इस प्रकार के गुरु की भर्त्सना की जानी चाहिए, और उसे इन तथ्यों की जानकारी कराते हुए यह भी बताना चाहिए: ‘तुम उस पुरुष की तरह हो, जो ऐसी स्त्री से प्रणय निवेदन करेगा, जो कि उसका तिरस्कार करती है, अथवा उसका आलिंगन करेगा जो उससे अपना मुख फेर लेती है।’ मैं कहता हूं, तुम्हारा यह लोभ भी उसी प्रकार का है (मनुष्यों के गुरु का ढोंग रचते रहना, जब कि कोई ध्यान नहीं देता, वे तुम्हारा विश्वास ही नहीं करते)। तब किस लिए, कोई मनुष्य दूसरे के लिए कुछ करे?
लोहिक्क, यह विश्व में पहले प्रकार का गुरु है, जो दोषारोपण के योग्य है। और जो कोई भी ऐसे को दोषी बताएगा, उसकी भर्त्सना न्यायोचित होगी, तथ्यों और सत्य के अनुरूप, अनुचित नहीं होगी।
- दूसरे स्थान पर, लोहिक्क, एक इस प्रकार का गुरु होता है, जो श्रमण के उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका है, जिसके कारण उसने गृह-त्याग किया और गृहविहीन जीवन अंगीकार किया। उस लक्ष्य को स्वयं प्राप्त किए बिना वह अपने श्रोताओं को सिद्धांत का उपदेश देता है और कहता है: ‘यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है, इससे तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी।’ और उसके शिष्य सुनते हैं, उसके शब्दों पर ध्यान देते हैं, कही हुई बात को समझकर वे चित्त की स्थिरता प्राप्त करते हैं, और गुरु के उपदेश से अलग वे अपने ही मार्ग पर नहीं चलते। इस प्रकार के गुरु की भर्त्सना की जानी चाहिए, और उसे इन तथ्यों की जानकारी कराते हुए यह भी बताना चाहिए: ‘तुम उस मनुष्य की तरह हो, जो अपने खेत की तरफ ध्यान न देकर अपने पड़ोसी के खेत की निराई के बारे में सोचेगा।’ मैं कहता हूं, तुम्हारा यह लोभ भी उसी प्रकार का है (दूसरों को शिक्षा देते रहना, जब कि तुमने स्वयं को शिक्षित नहीं किया है)। तब एक मनुष्य दूसरे के लिए क्या कर सकता है?
लोहिक्क, यह विश्व में दूसरे प्रकार का गुरु है, जो दोषारोपण के योग्य है। और जो भी ऐसे गुरु की भर्त्सना करेगा, उसकी भर्त्सना न्यायोचित होगी, तथ्यों और सत्य के अनुरूप, अनुचित नहीं होगी।
- और पुनः, लोहिक्क, तीसरे स्थान पर एक इस प्रकार का गुरु होता है, जो स्वयं श्रमण के उस लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है, जिसके कारण उसने गृह-त्याग किया और गृहविहीन जीवन अंगीकार किया। उस लक्ष्य को स्वयं प्राप्त कर चुकने के बाद वह अपने श्रोताओं को सिद्धांत का उपदेश देता है और कहता है: ‘यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है, इससे तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी।’ किंतु उसके वे श्रोता न तो उसकी बात सुनते हैं, न उसके शब्दों पर ध्यान देते हैं, न उसकी बात को समझकर चित्त की स्थिरता प्राप्त करते हैं। गुरु के उपदेश से अलग वे अपने ही मार्ग पर चलते हैं। इस प्रकार के गुरु की भर्त्सना की जानी चाहिए और उसे इन तथ्यों की जानकारी देते हुए यह भी बताना चाहिएः ‘तुम उस मनुष्य की तरह हो जो पुराने बंधन को तोड़कर स्वयं को नए बंधन में फंसा लेता है।’ मैं कहता हूं, तुम्हारा लोभ उसी प्रकार का है (शिक्षा देते रहना, जब कि तुमने शिक्षा देने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित नहीं किया है)। तब किसलिए, एक मनुष्य दूसरे के लिए कुछ करे?
लोहिक्क, विश्व में यह तीसरे प्रकार का गुरु है, जो दोषारोपण के योग्य है। और जो भी इस प्रकार के गुरु को दोषी बताएगा, उसकी भर्त्सना न्यायोचित होगी, तथ्यों और सत्य के अनुरूप, अनुचित नहीं होगी। और, लोहिक्क, ये तीन प्रकार के गुरु हैं, जिनके बारे में मैंने बताया।
- और जब वह इस प्रकार बोल चुके, लोहिक्क ब्राह्मण परम श्रेष्ठ से इस प्रकार बोले: ‘लेकिन, गौतम, क्या विश्व में इस प्रकार का भी कोई गुरु है, जो दोषारोपण के योग्य न हो?’
‘हां, लोहिक्क, विश्व में एक ऐसा गुरु है, जो दोषारोपण के योग्य नहीं है।’
‘और, गौतम, वह किस प्रकार का गुरु है?’
(इसका उत्तर ऊपर दिए गए व्याख्यात्मक शब्दों के रूप में श्रमण-फल में है।)
यह निम्नानुसार है:
- तथागत (जिसने सत्य पर विजय प्राप्त कर ली हो) का आविर्भाव, उनके उपदेश,
श्रोता के धर्मान्तरण और उनके द्वारा गृहविहीन स्थिति का अंगीकार किया जाना।
- शील का सूक्ष्म विवरण, जिसका वह पालन करता है।
- हृदय का विश्वास, जो वह अपने व्यवहार द्वारा प्राप्त करते हैं।
- ‘इंद्रियों का द्वार सुरक्षित है’ के संबंध में अनुच्छेद।
- ‘सावधान और आत्मलीन’ के संबंध में अनुच्छेद।
- थोड़े से संतुष्ट, जीवन की सादगी के संबंध में अनुच्छेद।
- उद्धार, असंयमित स्वभाव, आलस्य, चिंता और विमूढ़ता के संबंध में अनुच्छेद।
- इस मुक्ति के फलस्वरूप प्राप्त आनंद और शांति जिससे उसका संपूर्ण अस्तित्व परिपूर्ण हो जाता है, के संबंध में अनुच्छेद।
- चार हर्षोन्माद (गाथा) के संबंध में अनुच्छेद।
- ज्ञान से उत्पन्न अंतर्दृष्टि के संबंध में अनुच्छेद (प्रथम मार्ग का ज्ञान)।
- चार महान सत्यों, मादक द्रव्यों-लोभ, मोह, भविष्य, अज्ञानता का विनाश-और अर्हंत के पद की प्राप्ति के संबंध में अनुच्छेद।
टेक के साथ, अंतिम अनुच्छेद इस प्रकार है:
‘और गुरु, चाहे कोई भी हो, लोहिक्क, जिसके अधीन शिष्य इतनी उत्कृष्टता प्राप्त करता है, वैसे गुरु पर विश्व में कोई दोषारोपण नहीं कर सकता। और ऐसे गुरु पर जो भी दोषारोपण करेगा, उसकी भर्त्सना न्यायोचित नहीं होगी-तथ्यों अथवा सत्य के अनुरुप नहीं होगी, और उसका समुचित आधार नहीं होगा।’
- और जब वह इस प्रकार बोल चुके, तो लोहिक्क ब्राह्मण ने परम श्रेष्ठ से कहाः ‘किसी मनुष्य को कोई उसके सिर के बालों से खींचकर पकड़ ले और उसे उठाकर वापस दृढ़ भूमि पर सुरक्षित रख दे, ठीक वैसे ही पाप विमोचन स्थल पर गिरते हुए मुझे उठाकर श्रद्धेय गौतम ने वापस भूमि पर रख दिया है। परम श्रेष्ठ, हे गौतम, आपके मुख से निकले शब्द परम श्रेष्ठ हैं। ठीक ऐसे ही, जैसे कोई मनुष्य किसी फेंकी हुई चीज को फिर से स्थापित करे, अथवा उसे प्रकट करे जो कुछ छिपाया गया हो, अथवा भटके हुए को सही मार्ग दिखाए, अथवा अंधेरे में प्रकाश ले आए जिससे आंखों वाले बाह्य रूपों को देख सकें-ठीक उसी प्रकार श्रद्धेय गौतम ने मुझे विभिन्न रूपों में सत्य का ज्ञान कराया है। और मैं भी सत्य और संघ के लिए अपने पथप्रदर्शक के रूप में श्रद्धेय गौतम की शरण में आता हूं। श्रद्धेय गौतम, मुझे एक ऐसे शिष्य के रूप में स्वीकार करें, जिसने आज से जीवन-पर्यन्त उन्हें अपना पथप्रदर्शक बना लिया है।’