इसकी पांडुलिपि में टाइप किए हुए तेंतालीस फुलस्केप पृष्ठ हैं। इसके मूल शीर्षक ‘ब्राह्मिन्स एंड क्षत्रियाज एंड दि काउंटर-रिवोल्यूशन’ (ब्राह्मण व क्षत्रिय तथा प्रतिक्रांति) के कवर पर डॉ. अम्बेडकर द्वारा संशोधित शीर्षक ‘ब्राह्मिन्स वर्सेज क्षत्रियाज’ (ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय) दिया गया है। यह निबंध पूर्ण लगता है-संपादक
हिंदुओं के धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच अनेक संघर्षों के वृत्तांत मिलते
हैं, यहां तक कि इन संघर्षों में अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए एक-दूसरे का
रक्तपात भी किया गया मिलता है।
जो सबसे पहला उल्लेख मिलता है, वह राजा वेन का है। वेन एक क्षत्रिय राजा
था। ब्राह्मणों के साथ उसके संघर्ष का उल्लेख अनेक लेखकों ने किया है। निम्नलिखित
वृत्तांत हरिवंश से लिया गया है।
“प्राचीन-काल में अत्रि के गोत्र में प्रजापति (प्राणियों का स्वामी), धर्म का रक्षक
हुआ जिसका नाम अंग था।1 उसका उस जैसा ही पुत्र था, जिसका नाम प्रजापति वेन
था। उसकी मां का नाम सुनीता था, जो मृत्यु की पुत्री थी। वह धर्म के प्रति उदासीन
था। मृत्यु की पुत्री के इस पुत्र ने अपने नाना से प्राप्त दोष के कारण अपने धर्म की
उपेक्षा की, और माया के वशीभूत हो आसक्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लग गया। इस
राजा ने धर्मविहीन आचरण की पद्धति प्रतिष्ठित की, वेदोक्त मर्यादा का उल्लंघन कर
वह न्यायविहीन कार्यों में रुचि रखने लगा। इसके शासन में लोग धर्मग्रंथों का अध्ययन न
करते हुए और यज्ञ के अंत में होतृ द्वारा उच्चरित होने वाले मंत्रदि के बिना जीवनयापन
करने लगे, जिससे देवताओं को यज्ञ में होमे गए सोम का पान होना समाप्त हो गया।”
‘कोई भी यज्ञ या पूजा नहीं होगी – यह उस प्रजापति का कठोर संकल्प था।
उसका विनाश निकट आ रहा था। उसने घोषणा की – मैं यज्ञ में आराध्य हूं, यज्ञ भी
- म्यूर, खंड 1, पृ. 302.303
मैं हूं, मेरे लिए यज्ञ अर्पित किया जाए तथा मेरे लिए ही नैवेद्य अर्पित किया जाए।
धर्म की मर्यादाओं का अतिक्रमण वाले राजा से, जो अपने लिए उस पद का दंभ
करने लगा जिसका वह पात्र नहीं था, तब मरीचि के नेतृत्व में सभी बड़े-बड़े ऋषियों
ने उससे कहा, ‘हम सब एक महान (दीर्घसत्र) यज्ञ करने जा रहे हैं जो अनेक वर्षों
तक चलेगा। हे वेन, आप अधर्म का आचरण न करें, यह धर्म की सनातन रीति नहीं
है। निस्संदेह, आप हर दृष्टि से अत्रि वशं के प्रजापति हैं और आपने प्रजा की रक्षा
करने का दायित्व लिया है।’ जब इन बड़े-बड़े ऋषियों ने इस प्रकार कहा तब उस
मूर्ख वेन ने, जिसे उचित अनुचित का विवेक नहीं था, उन पर हंसकर कहा, ‘मेरे
अतिरिक्त दूसरा कौन धर्म का नियामक है? इस पृथ्वी पर वेद, वीर्य, तप और सत्य
में मेरे समान दूसरा कौन है? आप लोग मोहग्रस्त और विवेकहीन हैं और यह नहीं
जानते कि मैं ही सभी जीवों और धर्मों का उत्पत्ति स्थल हूं। आपको ज्ञात होना चाहिए
कि यदि मैं चाहूं तो इस पृथ्वी को उलट-पलट दूं या इसे जल से आप्लावित कर दूं
या आकाश और पृथ्वी को मिलाकर एक कर दूं।’ जब वेन अपने मोह और दंभ के
कारण वश में नहीं किया जा सका, तब सभी ऋषि क्रोध में भर उठे। उन्होंने उस
बलवान और दुर्धर्ष राजा को पकड़ लिया और उसकी बाईं जांघ को रगड़ डाला।
इस जांघ के रगड़े जाने पर इससे श्याम वर्ण का एक पुरुष प्रकट हुआ, जो ठिगना
था। वह डरा हुआ था। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। अत्रि ने उसे भय से कांपता
हुआ देख उससे कहा, ‘निषीथ’ (बैठ जाओ)। वह निषाद वंश का प्रवर्तक हुआ और
धीवरों का जनक भी हुआ, जो वेन के विकार से उत्पन्न हुए।’
दूसरा उदाहरण पुरुरवा का है। वह एक और क्षत्रिय राजा था। वह इला का पुत्र
और मनु वैवस्वत का पौत्र था। उसका ब्राह्मणों के साथ संघर्ष हो गया। इस संघर्ष का
विवरण महाभारत के आदि पर्व में मिलता है जो निम्नलिखित हैः
‘इसके बाद इला से मेधावी पुरुरवा का जन्म हुआ।1 जैसा कि हमने सुना है, वह
उसकी माता भी थी और पिता भी। उसने महासागर में तेरह द्वीपों में राज्य किया। उसकी
सारी प्रजा देव थी। वह स्वयं भी प्रख्यात था। पुरुरवा को सत्ता का मद हो गया। तब
उसने ब्राह्मणों से बैर मोल ले लिया और भारी प्रतिरोध के बावजूद भी उसने उनके
सारे रत्न छीन लिए। इस पर स्वर्ग से सनतकुमार आए और उन्होंने उसे चेतावनी दी,
जिसे उसने अनसुनी कर दिया। इस पर ब्राह्मणों ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया। जिसके
परिणामस्वरूप शक्ति के मद में विमूढ़ हुए इस राजा की मृत्यु हो गई।’
तीसरा संघर्ष नहुष और ब्राह्मणों के बीच हुआ जो कुछ अधिक गंभीर था। नहुष
पुरुरवा का पौत्र था। महाभारत में इसका दो स्थानों पर उल्लेख है। एक बार वन पर्व में
- म्यूर, खंड 1, पृ. 307
और दूसरी बार उद्योग पर्व में। निम्नलिखित विवरण महाभारत के उद्योग पर्व से लिया
गया हैः
‘वृत्रसुर वध के पश्चात् इंद्र को ग्लानि हुई कि उन्होंने एक ब्राह्मण की हत्या
कर दी है।1 (क्योंकि वृत्र को ब्राह्मण कहा जाता था) इस कारण वह जल में छिप
गया। देवराज के लुप्त हो जाने पर स्वर्ग और पृथ्वी, सभी जगह अव्यवस्था फैल
गई। ऋषियों और देवताओं ने तब नहुष से राजा बनने के लिए निवेदन किया। आरंभ
में उसने स्वयं को निर्बल बताकर अनिच्छा प्रकट की, किंतु उनके बहुत कहने पर
उसने यह उच्च पद ग्रहण कर लिया। इस पद की प्राप्ति से पूर्व वह सद्जीवन व्यतीत
करता था। किंतु अब वह भोग और विलास में लिप्त रहने लगा। यहां तक कि वह
इंद्र की पत्नी इंद्राणी को पाने की भी कामना करने लगा, जिसे उसने संयोगवश देख
लिया था। रानी अंगिरस बृहस्पति की शरण में गई, जो देवताओं के गुरु थे। उन्होंने
उसे अभयदान दिया। इस हस्तक्षेप के विषय में सुनकर नहुष उत्तेजित हो उठा। परंतु
देवताओं ने उसे शांत कर दिया और परस्त्री गमन के दोषों की ओर संकेत किया,
परंतु उसने एक न मानी और कामासक्त नहुष अपनी बात पर अड़ा रहा कि इस संबंध
में वह स्वयं इंद्र से घटकर नहीं था।’
‘इंद्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ ऋषि के जीवित रहते हुए दुराचार
किया था। ‘तुमने उसे रोका क्यों नहीं? इंद्र ने अन्य अनेक पाशविक और अधार्मिक
कृत्य किए हैं, उसने अनेक छल प्रपंच किए हैं। तब तुमने उसे क्यों नहीं रोका?’ नहुष
के कहने पर वे तब इंद्राणी को लाने गए। परंतु बृहस्पति ने उसे नहीं सौंपा। बृहस्पति
के कहने पर इंद्राणी ने नहुष को कुछ मोहलत देने के लिए राजी कर लिया कि वह
अपने पति की खोज-खबर कर ले। यह अनुरोध स्वीकार कर लिए जाने पर वह अपने
पति की खोज पर निकल पड़ी और उपश्रुति (रात्रि की देवी और रहस्य उद्घाटक) की
सहायता से उसने हिमालय के उत्तर में जाकर इंद्र को ढूंढ़ लिया, जो वहां पर महासागर
में स्थित एक महाद्वीप में स्थित एक झील में उग रहे कमल की नाल में अत्यंत सूक्ष्म
रूप में छिपा हुआ बैठा था। उसने नहुष की कुत्सित मनोवृत्ति के विषय में इंद्र को
बताया और उससे कहा कि वह अपनी शक्ति का उपयोग करे और उसकी रक्षा करे।
नहुष की अधिक शक्ति को देखते हुए इंद्र ने तुरंत कोई कदम उठाने से मना कर दिया।
परंतु उसने अपनी पत्नी को एक सुझाव दिया, जिसके अनुसार नहुष को उसके पद से
नीचे गिराया जा सकता था। उसने उससे यह कहा कि वह नहुष से यह कहे कि वह
उस पालकी पर चढ़कर आए जिसे ऋषि ढो रहे हों, तो वह उसके सम्मुख स्वयं को
सहर्ष समर्पित कर देगी।’
- म्यूर, खंड 1, पृ. 310.313
‘इंद्राणी ने नहुष से कहा – ‘हे देवताओं के राजा, मैं चाहती हूं कि आपका वाहन
ऐसा हो जो सर्वथा नवीन हो जैसा न विष्णु के पास हो, न रुद्र के पास और न ही
असुरों और राक्षसों के पास। हे देव! सभी प्रमुख ऋषि परस्पर मिलकर आपकी पालकी
उठाएं। इससे मुझे सुख मिलेगा। नहुष ने गर्व में भरकर इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया
और अपनी प्रशंसा करते हुए उसने यह उत्तर दिया- ‘मैं इतना निर्बल नहीं हूं कि जो
ऋषि मुनियों को अपनी पालकी का वाहक न बना सकूं। मैं महाशक्ति का अनन्य भक्त
हूं, भूत, भविष्य और वर्तमान का स्वामी हूं। यदि मैं क्रुद्ध हो जाऊं तो पृथ्वी ठहर नहीं
सकती। सब कुछ मुझ पर निर्भर है…. इसलिए हे देवी! तुम जो कहती हो उसे मैं पूरा
करूंगा। सप्तऋषि और सभी ब्रह्मऋषि मुझे ढोएंगे। हे सुंदरी! मेरा प्रताप और मेरा ऐश्वर्य
देखना।’ तदनुसार उस दुरात्मा, अधर्मी, अत्याचारी, मदांध, स्वेच्छाचारी ने ऋषियों को अपने
वाहन में जोत दिया और चलने का आदेश दिया। इंद्राणी तब फिर बृहस्पति के पास गई।
उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि नहुष अपनी क्रोधाग्नि से स्वयं भस्म हो जाएगा। उन्होंने
यह भी आश्वासन दिया कि मैं आततायी के इस विनाश और इंद्र के छिपने के स्थान
का पता लगाने के लिए स्वयं एक यज्ञ करूंगा।
‘इसके बाद इंद्र की खोज करने और उन्हें बृहस्पति के पास लाने के लिए अग्नि को
भेजा गया। बृहस्पति ने इंद्र को आने पर बताया कि उसकी अनुपस्थिति में क्या-क्या हुआ।
जिस समय इंद्र कुबेर, यम, सोम और वरुण के साथ नहुष के विनाश की बात सोच रहे
थे, तभी अगस्त्य ऋषि आए और इंद्र को उसके प्रतिद्वंद्वी के पतन की सूचना देकर बधाई
दी। उन्होंने इस प्रकार कहाः ‘पापी नहुष को ढोते हुए जब देवता और शुभ्र ब्राह्मण ऋषिगण
थकने लगे तो उन्होंने नहुष से एक कठिनाई हल करने के लिए कहाः वासव! आप सभी
योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं। क्या आप उन ब्राह्मण मंत्रें को श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं, जो पशुओं की
बलि के समय पढ़े जाते हैं? ‘नहीं’ नहुष ने कहा। उसकी मति भ्रष्ट हो गई थी। ऋषियों
ने प्रतिवाद किया और कहा – ‘तुमने अधर्म में फंसकर धर्म-परायणता गंवा दी है। हम इन
मंत्रें को श्रेष्ठ समझते है।, जिनका हमारे पूर्व-महर्षि पाठ करते थे। तब (अगस्त्य ने आगे
कहा) नहुष ने अधर्म से प्रेरित होकर मेरे सिर पर लात मारी। इसके परिणामस्वरूप राजा
का गौरव समाप्त हो गया और उसका ऐश्वर्य विलीन हो गया। वह तुरंत घबरा उठा और
भयाक्रांत हो उठा। मैंने उससे कहा, अरे बेवकूफ, तूने उन ब्राह्मण मंत्रें का निरादर किया
है जो प्राचीन ऋषियों द्वारा रचे गए हैं और जो ब्राह्मण ऋषियों के द्वारा प्रयुक्त होते रहे हैं।
तूने मेरे सिर पर लात मारी है। तूने ब्राह्मण ऋषियों से चाकरी करवाई है और अपने ढोने
के लिए ऋषियों से पालकी उठवाई है। तेरी कुवासना के फलस्वरूप तेरे सारे पुण्य नष्ट
हो गए हैं। तेरा पतन हो जाए तू स्वर्ग से गिरकर पृथ्वी पर जा और सहस्त्रें वर्षों तक एक
अजगर के रूप में जीवन बिता। जब यह अवधि समाप्त होगी, तू स्वर्ग में आ सकेगा।’
इस प्रकार वह पापी देवताओं के राजा के पद से च्युत हो गया। हे इंद्र! अब हमें सुखी
होना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों का शत्रु नष्ट हो गया है। तुम तीनों लोकों की सत्ता संभालो।
वहां के प्राणियों की रक्षा करो। हे शचीपति, अपनी इंद्रियों को वश में रख अपने शत्रुओं
का नाश करो और ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करो।’
चौथा उदाहरण निमि का है। निमि इक्ष्वाकु के पुत्रें में से एक था। ब्राह्मणों के साथ
उसके संघर्ष का वर्णन विष्णुपुराण में मिलता है, जो इस प्रकार हैः
‘निमि ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से एक यज्ञ का पौरोहित्य करने का अनुरोध किया, जो एक
सहस्त्र वर्ष तक चलने वाला था।1 वशिष्ठ ने उत्तर दिया, मैंने पहले ही इंद्र को एक यज्ञ
का पौरोहित्य करने का वचन दे रखा है, जो पांच सौ वर्ष तक चलेगा। राजा ने कुछ
भी नहीं कहा। वशिष्ठ चले गए और उन्होंने यह अनुमान लगाया कि राजा ने उनके
प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। लौटने पर उन्होंने देखा कि निमि ने यज्ञार्थ गौतम (जो
वशिष्ठ के समान ब्रह्मर्षि थे) और अन्य ऋषियों को नियुक्त कर रखा है। उनको राजा
की ओर से इस बात की कोई सूचना नहीं दी गई थी यह देखकर उन्हें क्रोध हो आया।
उन्होंने राजा को जो उस समय सोया हुआ था, शाप दिया कि उसका शरीरांत हो जाए।
जब निमि जागे तब उन्हें पता चला कि उन्हें बिना किसी सूचना दिए शाप दिया गया है।
उन्होंने वशिष्ठ को ऐसा ही शाप देकर उसका प्रतिकार किया और वह मृत्यु को प्राप्त
हो गए। निमि के शरीर को सुरक्षित रख दिया गया। जिस यज्ञ को निमि ने शुरू किया
था, उसकी समाप्ति के बाद देवताओं ने ऋषियों के अनुरोध पर यह इच्छा प्रकट की
कि निमि को पुनरुज्जीवित कर दिया जाए। लेकिन निमि ने इसे अस्वीकार कर दिया।
तब देवताओं ने निमि को उसकी इच्छा के अनुसार सभी जीवित प्राणियों की आंखों में
प्रस्थापित कर दिया। इसी कारण सभी प्राणी अपनी आंखें खोलते और बंद करते हैं।
(निमिष का अर्थ पलक का उठना और गिरना होता है)।’
पांचवां प्रसंग वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच विवाद का है। वशिष्ठ ब्राह्मण पुरोहित
थे और विश्वामित्र एक क्षत्रिय थे। उनकी हार्दिक इच्छा ब्रह्मर्षि बनने की थी। निम्न उद्धरण
रामायण से है जिससे यह पता चलता है कि वह ब्रह्मर्षि क्यों बनना चाहते थे। ‘कहते हैं
कि प्राचीन काल में कुश नाम का एक राजा था।2 वह प्रजापति का पुत्र था। कुश का एक
पुत्र था, जिसका नाम कुशनाभ था। वह गाधि का पिता था। गाधि विश्वामित्र का पिता था।
विश्वामित्र ने सहस्त्रें वर्ष पृथ्वी पर राज्य किया। एक बार जब वह पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर
रहा था, वह वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुंचे जहां अनेक संत, ऋषि, मुनि और भक्त
सुखपूर्वक रहते थे। उसे पहले तो वहां ब्रह्मा के पुत्र का आतिथ्य ग्रहण करने में संकोच
हुआ, किंतु बाद में उसने अपने साथियों सहित उनका आतिथ्य ग्रहण कर लिया। विश्वामित्र
- म्यूर, खंड 1, पृ. 316
- वही, खंड 1, पृ. 397.400
उनकी विलक्षण गौ पर मुग्ध हो गया, जिसने सभी को भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध
कराए थे। विश्वामित्र ने पहले तो यह कहा कि एक लाख गौ के बदले वह गौ उनको सौंप
दी जाए। उसने कहा कि यह गौ रत्न-स्वरूप है और चूंकि रत्न राजा की संपत्ति होती है
अतः इस गौ पर उसका अधिकार है। जब इस कीमत को स्वीकार नहीं किया गया, तब
राजा ने और भी कीमत देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। तब वह
कृतघ्नतापूर्वक और बलपूर्वक बोला कि यह गौ उसे ले जाने दी जाए, वह बलपूर्वक इस
गौ को ले जाएगा। जब वह ऐसा करने लगा, तब वह गौ उसके परिचारकों से अपने को
छुड़ाकर अपने स्वामी के पास आ गई और उससे बोली – तुम मुझे त्याग रहे हो। उसने
उत्तर दिया कि वह उसे नहीं त्याग रहा है, लेकिन राजा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली
है। गौ ने उत्तर दिया, ‘लोग क्षत्रिय को बलशाली नहीं समझते। ब्राह्मण अधिक शक्तिशाली
होते हैं। ब्राह्मणों का बल अतुलनीय है। विश्वामित्र यद्यपि बहुत शक्तिशाली हैं, लेकिन
वह आपसे अधिक शक्तिशाली नहीं हैं। आपमें अपूर्व बल है। आप मुझे ले चलें। आपने
ब्रह्मशक्ति से बल अर्जित किया है। मैं इस दुराचारी राजा के गर्व, शक्ति और प्रयत्नों को
विफल कर दूंगी।’ उसने रंभा-रंभा कर सैंकड़ों पहल्व पैदा कर दिए, जिन्होंने विश्वामित्र
के समस्त दल का नाश कर दिया। ये पहल्व विश्वामित्र द्वारा एक-एक कर मौत के घाट
उतार दिए गए। तब उसने शक और यवन पैदा किए, जो अत्यंत बलशाली और सशस्त्र
भी थे। उन्होंने राजा की सेना का संहार कर दिया। राजा ने इन्हें भी पछाड़ दिया। तब उस
गौ ने रंभा कर अपने शरीर से विभिन्न जातियों के योद्धा उत्पन्न कर दिए। इन योद्धाओं ने
विश्वामित्र की सारी सेना, पदातिकों, हाथियों, अश्वों, रथों आदि को नष्ट कर दिया। तब
राजा के सैंकड़ों पुत्र विभिन्न शस्त्र धारण कर क्रोध में भर वशिष्ठ की ओर झपटे, लेकिन
वे सभी ऋषि के मुख से निकलने वाली आग में झुलस कर भस्म हो गए। विश्वामित्र इस
प्रकार अब निस्सहाय हो गया। उसने अपने एक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बना दिया और
वह हिमालय की ओर चला गया, जहां वह तप करने लग गया। उसने वहां भगवान शंकर
के दर्शन किए। उन्होंने उसकी प्रार्थना पर उसे युद्धकला की विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं
की शिक्षा दी और दैवी अस्त्र प्रदान किए, जिनके बल पर उसने वशिष्ठ के आश्रम को
उजाड़ डाला और वहां के निवासी भागने लगे। वशिष्ठ ने तब विश्वामित्र को चुनौती दी
और उन्होंने अपने ब्रह्मदंड को उठा लिया। विश्वामित्र ने भी अपने आग्नेयास्त्र को उठा
लिया और अपने शत्रु को ललकारा। वशिष्ठ ने उसे अपनी शक्ति के प्रदर्शन की चुनौती
दी और कहा कि वह उसके गर्व को शीघ्र चूर्ण कर देंगे। वह बोले, ‘क्षत्रिय के बल और
ब्राह्मण के बल में यह तुलना कैसी? नीच क्षत्रिय, मेरा ब्रह्मतेज देख। तब गाधि के पुत्र के
द्वारा फेंका गया आग्नेयास्त्र ब्राह्मण के दंड से परास्त हो गया, जैसे अग्नि जल से शांत हो
जाती है। विश्वामित्र द्वारा तब बहुत से दैवी प्रक्षेपास्त्र, जैसे ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश
और विष्णु चक्र तथा शिव का त्रिशूल अपने शत्रु पर फेंके गए। लेकिन ब्रह्मा के पुत्र ने
इन सभी को अपनी प्रबल गदा के आघात से चूर्ण कर दिया। अंत में उस योद्धा ने ब्रह्मा
का भयंकर अस्त्र फेंका, जिस पर सभी देवता स्तब्ध रह गए। यह अस्त्र भी ब्राह्मण ऋषि
का कुछ न कर सका। वशिष्ठ ने अब रौद्र रूप धारण कर लिया था। उनके शरीर के हर
छिद्र से अग्नि और धुआं निकल रहा था। उनके हाथ में ब्रह्मदंड निर्धूम अग्नि पिंड या
यमराज का दंड जैसा लग रहा था। ऋषि-मुनियों द्वारा शांत किए जाने पर, जिन्होंने उनको
अपने प्रतिद्वंद्वी से श्रेष्ठ घोषित किया, वशिष्ठ ने अपने क्रोध को शांत किया। विश्वामित्र
तब कराहते हुए बोला, क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्राह्मण की शक्ति ही शक्ति है।
ब्राह्मण के एक ही दंड द्वारा मेरे समस्त शस्त्रास्त्र नष्ट हो गए।
‘इस प्रकार पराजित राजा के लिए इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता कि
वह इस असहाय, हीन अवस्था में मौन धारण कर ले, या वह ब्रह्मत्व के पद को प्राप्त
करने के लिए अपनी उन्नति का प्रयत्न करे। उसने अंतिम विकल्प को चुना। ‘इस पराभव
पर पूर्ण विचार कर मैं अपनी इंद्रियों और चित्त को अपने वश में कर कठोर तप करूंगा,
जो मुझे ब्राह्मणत्व के पद पर ले जाएगा।’ वह अत्यंत विषण्ण तथा संतप्त हो अपने शत्रु
के प्रति घृणा का भाव भर आर्तनाद करता अपनी पत्नी के साथ दक्षिण की ओर चला
आया और अपने संकल्प को पूरा करने लग गया। एक सहस्त्र वर्ष बाद ब्रह्मा प्रकट हुए
और उन्होंने यह घोषणा की कि उसने राजर्षि का पद प्राप्त कर लिया है। उसकी कठोर
तपस्या के फलस्वरूप लोग उसे राजर्षि के पद को प्राप्त हुआ समझने लगे।’
ऐसा प्रतीत होता है कि यह संघर्ष सुदास नाम के राजा के शासनकाल में शुरू हुआ
था, जो इक्ष्वाकु वंश के थे। वशिष्ठ सुदास के कुल-पुरोहित थे। किसी कारण से, जो
स्पष्ट नहीं, बताया जाता है कि सुदास ने विश्वामित्र को अपना कुल-पुरोहित नियुक्त
कर दिया। इससे विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच बैर हो गया। एक बार यह बैर-भाव
हो जाने पर दीर्घ समय तक चलता रहा।
दोनों के बीच इस संघर्ष ने विचित्र मोड़ ले लिया। यदि विश्वामित्र किसी विवाद
में फंस जाते हैं तो वशिष्ठ बीच में आ कूदते और विश्वामित्र का विरोध करने लगते।
वह एक-दूसरे को नीचा दिखाने जैसा कार्य था।
इस संबंध में पहली घटना सत्यव्रत से संबंधित है, जिसका एक नाम त्रिशंकु भी
था। इस कथा का वर्णन हरिवंश में हुआ है, जो निम्नलिखित हैः
‘इस बीच वशिष्ठ राजा (सत्यव्रत के पिता) और अपने बीच यजमान और पुरोहित
का संबंध होने के कारण अयोध्या नगर, राज्य और रनिवास का प्रबंध करने लग गए।1
लेकिन सत्यव्रत या तो मूर्खतावश या दैवी प्रेरणा वश वशिष्ठ से निरंतर अधिकाधिक
- म्यूर खंड 1, पृ. 377.378
क्रुद्ध रहने लगा, जिन्होंने उसके पिता को किसी (उचित) कारण से उसे राज्याधिकार से
वंचित करने से नहीं रोका था। सत्यव्रत बोला – विवाह संस्कार तभी वैध होता है जब
सप्तपदी हो जाए। जब मैंने उस सुंदरी का हरण किया था, तब यह सप्तपदी नहीं हुई थी,
लेकिन वशिष्ठ ने, जो धर्म के नियम जानते हैं, मेरी कोई सहायता नहीं की। इस प्रकार
सत्यव्रत मन ही मन वशिष्ठ के प्रति क्रुद्ध रहने लगा, जिन्होंने एक दृष्टि से वही किया
जो उचित था। न सत्यव्रत ने अपने पिता द्वारा आरोपित मौन व्रत को (उसके औचित्य
को) समझा… जब उन्होंने उस कठिन तप का समर्थन किया, तब उन्होंने यह समझा कि
उन्होंने उसके परिवार की प्रतिष्ठा को बचा लिया है। पूज्य मुनि वशिष्ठ ने (जैसा कि
ऊपर कहा गया है) उसके पिता को उसे राज्याधिकार से वंचित करने से नहीं रोका,
बल्कि उन्होंने उसके पुत्र को राजा बनाने का निश्चय कर लिया। जब वह शक्तिमान
राजकुमार बारह वर्षों की कठिन तपस्या पूरी कर रहा था और उसके पास खाने के
लिए कुछ भी नहीं था, तभी उसकी दृष्टि वशिष्ठ की गौ पर पड़ी जो सभी प्रकार की
मनोकामना पूरी करती है। उसने क्रोध, विभ्रम, दुर्बलता के वशीभूत और भूख से पीड़ित
हो तथा दस कर्तव्यों की उपेक्षा कर उसकी हत्या कर दी…और उसका मांस अपने खाने
के लिए रख लिया तथा कुछ मांस विश्वामित्र के पुत्र को भी खाने के लिए दिया। यह
सुनकर वशिष्ठ उस पर कुपित हो गए और उन्होंने शाप देकर उसका नाम त्रिशंकु रख
दिया, क्योंकि उसने तीन प्रकार के पाप किए थे। जब विश्वामित्र अपने आश्रम में लौटे,
तब वह उस जीविका को देखकर संतुष्ट हुआ जो उसकी पत्नी को मिलती थी और
उन्होंने त्रिशंकु से वर मांगने के लिए कहा। जब ऐसा कहा गया, तब त्रिशंकु ने सदेह
स्वर्ग जाने का वर मांगा। बारह वर्षों तक अनावृष्टि के सभी कष्ट समाप्त हो गए। मुनि
(विश्वामित्र) ने त्रिशंकु को उसके पिता की राजगद्दी पर बिठाया और उसके निमित्त यज्ञ
किया। पराक्रमी कौशिक ने देवताओं और वशिष्ठ1 द्वारा प्रतिरोध किए जाने के बावजूद
राजा को सदेह स्वर्ग में प्रतिष्ठित कर दिया।’
हरिवंश के अनुसार
‘जो पापाचार किए गए थे, उनके परिणामस्वरूप इंद्र ने बारह वर्षों तक वृष्टि नहीं
की।2 उस समय विश्वामित्र अपनी पत्नी और पुत्रें को छोड़कर समुद्र तट पर तप करने
चले गए। उनकी पत्नी अभावों से पीड़ित हो अपने दूसरे पुत्र को एक सौ गांवों के बदले
- जैसा कि हरिवंश में एक दूसरी जगह वर्णन आता है कि त्रिशंकु को उसके पिता ने कुवासना से प्रेरित होकर
एक नागरिक की पत्नी का हरण करने के अपराध में घर से बाहर कर दिया और वशिष्ठ ने इस निष्कासन
को रोकने के लिए कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। यह प्रसंग इसी ओर संकेत करता है।
- म्यूर, खंड 1, पृ. 376.377
बेचना चाहती थी, जिससे वह अन्य पुत्रें का भरण-पोषण कर सके। लेकिन सत्यव्रत के
द्वारा बीच में हस्तक्षेप करने पर ऐसा न हो सका। सत्यव्रत ने उसके पुत्र को छुड़ा लिया
और उनके परिवार को जंगली पशुओं का मांस देकर उनकी रक्षा की और अपने पिता
की आज्ञा के अनुसार बारह वर्षों तक कठिन तप किया।
जिस दूसरी घटना में इन दोनों को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी दिखाया गया है, वह
त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र की है। यह कथा विष्णुपुराण और मार्कण्डेय पुराण में आती
है। यह कथा इस प्रकार हैः
‘एक बार जब राजा शिकार खेल रहा था तब उसने किसी स्त्री के रोने की आवाज
सुनी जो ऐसा लगता था कि वह (आवाज) उन विधाओं (साइसेज) की थी, जिनको
क्रोधोन्मत्त तपस्वी ऋषि विश्वामित्र उस रीति से अपने अधिकार में कर लेना चाहते थे,
जिस रीति से किसी ने भी नहीं किया था। और इसलिए ये विधाएं उनके बल से भयभीत
होकर विलाप कर रही थीं। निर्बल की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म होता है। इस कारण,
और गणेश देवता से प्रेरित हो, जो उसके शरीर में प्रवेश कर गए थे। हरिश्चन्द्र ने कहा
– ‘कौन पापी है जो मुझे बल और तेजस्विता से दीप्तमान के रहते अपने वस्त्रें में आग
लगा रहा है। शीघ्र ही उसके अंग-प्रत्यंग को मेरे धनुष से निकलने और समस्त आकाश
को प्रदीप्त करने वाले बाण बेधकर रख देंगे और वह चिर निंद्रा में सो जाएगा।’ यह
चुनौती सुनकर विश्वामित्र उत्तेजित हो उठे। उनके क्रोध के परिणामस्वरूप सभी विधाएं
मृत हो गईं, और हरिश्चन्द्र अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते की तरह कांपते हुए विनयपूर्वक बोले
कि मैंने तो राजा के रूप में केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है जो इस प्रकार
वर्णित है – श्रेष्ठ ब्राह्मणों और अल्प साधन वाले व्यक्तियों को दान देना, निर्बल की
रक्षा करना और शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध करना। विश्वामित्र तब उससे ब्राह्मण के रूप में
दान मांगते हैं और एक ही वस्तु के मिलने पर मनु संतुष्ट होने की बात करते हैं। राजा
उन्हें वचन देता है कि वह अपनी इच्छानुसार इन वस्तुओं में से कोई भी वस्तु चुन लें
– सुवर्ण, पुत्र, पत्नी, काया, राज्य, सौभाग्य। ऋषि पहले तो राजसूय यज्ञ के लिए दान
मांगते हैं। राजा के स्वीकार करने और अन्य वस्तुएं भी दान करने का वचन देने पर
ऋषि उनसे उनको, उनकी पत्नी व पुत्र को छोड़कर समस्त पृथ्वी पर स्थित राज्य मांगते
हैं, जिसमें शेष सभी कुछ शामिल होगा। वह उनसे उनकी समस्त संपत्ति मांगते हैं जो
उनके पास है या जहां भी वह जाएंगे तब उनके पास होगी। हरिश्चन्द्र सहर्ष स्वीकार
कर लेते हैं। विश्वामित्र तब उनसे अपने समस्त आभूषण उतारने, वल्कल वस्त्र पहनने
और पत्नी शैव्या तारामती तथा पुत्र सहित राज्य छोड़ने के लिए कहते हैं। जब वह जाने
लगते हैं, तब ऋषि उनको रोकते हैं और उनसे दान की दक्षिणा मांगते हैं जो उन्हें अभी
- म्यूर खंड 1, पृ. 376.377
तक नहीं मिली है। राजा उत्तर देते हैं कि उनके पास उनकी पत्नी और पुत्र को छोड़कर
कुछ भी नहीं है। विश्वामित्र राजा से कहते हैं कि उन्हें तो दक्षिणा देनी ही होगी। और
ब्राह्मणों को दान देने की प्रतिज्ञा पूरी न करने पर उनका विनाश हो जाएगा। अभगा राजा
इस प्रकार धमकाए जाने पर एक महीने की अवधि में दक्षिणा चुकता कर देने का वचन
देता है और अपनी प्रजा को बिलखता छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्र पर निकल
पड़ता है, जिसने ऐसे कष्ट पहले कभी नहीं भोगे थे। जब वह राज्य छोड़ते समय अपने
पुरजनों के विलाप पर कुछ देर के लिए रुकता है, तब विश्वामित्र आते हैं और राजा
के द्वारा देर करने और रूकने पर क्रुद्ध होकर अपने दंड से रानी पर प्रहार करते है और
राजा अपनी पत्नी को उसका हाथ खींचते हुए आगे निकल जाते हैं। इसके बाद हरिश्चन्द्र
अपनी पत्नी और पुत्र के साथ यह सोचकर काशी आते हैं कि यह तो शिव की संपत्ति
होने के कारण पावन नगरी है और यह किसी मर्त्य के अधिकार में नहीं होगी। यहां वह
देखता है कि निष्ठुर विश्वामित्र उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और अनुग्रह की अवधि के
पूरी होने के पूर्व ही दक्षिणा देने का हठ करने के लिए तैयार खड़े हैं। इस विकट स्थिति
में रानी शैव्या सिसकते हुए राजा से कहती है कि वह उसे बेच दें। यह प्रस्ताव सुनकर
राजा मूर्छित हो जाता है। यह देखकर उसकी पत्नी भी मूर्छित हो जाती है। जब ये दोनों
मूर्छित पड़े हुए होते हैं, तभी उनका भूख से पीड़ित पुत्र भी कष्ट से चिल्लाने लगता है,
पिताजी! पिताजी! मुझे रोटी दो, मां! मां! कुछ भोजन दो। मैं भूख से व्याकुल हूं। मेरी
जीभ भी सूख रही है। इसी बीच विश्वामित्र वहां वापस आते हैं और हरिश्चन्द्र के शरीर
पर जल छिड़क कर उसे होश में लाते हैं तथा दक्षिणा देने के लिए पुनः पुनः हठ करते
हैं। राजा फिर बेहोश हो जाता है, वह पुनः होश में लाया जाता है। ऋषि उसे धमकाते हैं
और कहते हैं कि अगर वह सूर्यास्त होने के पूर्व अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं करेगा तो वह
उसे शाप दे देंगे। अपनी पत्नी के बार-बार अनुरोध करने पर रजा उसे बेच देने के लिए
राजी हो जाता है और कहता है, ‘यदि मैं इतने निकृष्ट शब्द का उच्चारण कर सकता
हूं तब क्रूर और अभागे क्या कुछ नहीं कर सकते।’ वह फिर नगर में जाता है और
अपने को कोसता हुआ अपनी रानी को दासी के रूप में बेचने के लिए बोली लगाता है।
एक धनाढ्य वृद्ध ब्राह्मण उसकी बोली लगाता है तथा उसकी कीमत देकर अपने घर में
दासी के रूप में रख लेता है। उसका पुत्र अपनी मां को ले जाता हुआ देखकर उसके
पीछे-पीछे रोता और मां-मां चिल्लाता हुआ भागता है। जब वह अपनी मां के पास आता
है, तब वृद्ध ब्राह्मण, जिसने उसकी मां को खरीदा है, उसे लात मारता है। लेकिन वह
अपनी मां को आगे जाने नहीं देता और लगातार मां-मां चिल्लाता है। रानी तब ब्राह्मण
से कहती है, ‘दया कीजिए, मेरे स्वामी। इस बच्चे पर भी दया कीजिए। उसके बिना मैं
आपके किसी काम न आ सकूंगी। मेरी दीनता पर दया कीजिए। मुझे मेरे पुत्र से अलग
मत कीजिए, जैसे गौ को उसके बछड़े से अलग नहीं किया जाता है। ब्राह्मण मान जाता
है और कहता है, ‘यह धन लो और इस लड़के को मुझे सौंप दो। जब ब्राह्मण अपनी
खरीदी हुई संपत्ति को लेकर दूर चला जाता है, तब विश्वामित्र पुनः आते हैं और अपनी
मांग दुहकराते हैं। जब विपत्तिग्रस्त हरिश्चन्द्र उस थोड़े से धन को, जो उन्हें अपनी पत्नी
और पुत्र को बेचने से प्राप्त हुआ था, विश्वामित्र को देते हैं, तब वह क्रुद्ध होकर कहते
हैं – दुष्ट क्षत्रिय, यदि तुम यह समझते हो कि यह दक्षिणा मेरे उपयुक्त है, तब तुम
मेरे कठोर तप, निष्कलंक ब्रह्मत्व, पुण्य, प्रताप और मेरे वेदाध्ययन की शुचिता का शीघ्र
अनुभव करोगे। हरिश्चन्द्र उन्हें और दक्षिणा देने का वचन देते हैं और विश्वामित्र उन्हें
उस दिन के शेष समय में चुकता करने की अनुमति देते हैं। भयभीत और त्रस्त राजा
जब अपने को बेचना चाहता है, तब वीभत्स और क्रूर चांडाल के रूप में धर्म प्रकट
होते हैं और जो भी कीमत राजा अपनी लगाता है, उस पर उसे खरीदने के लिए तैयार
हो जाते हैं। हरिश्चन्द्र इस निकृष्ट कर्म को करने से इंकार कर देते हैं और कहते हैं
कि इस दुर्भाग्य को स्वीकार करने की अपेक्षा, वह अपने उत्पीड़क के शाप की अग्नि
में भस्म हो जाना श्रेयस्कर समझते हैं। विश्वामित्र पुनः आते हैं और कहते हैं कि वह
चांडाल द्वारा कीमत के रूप में दिए जा रहे प्रचुर धन को क्यों नहीं स्वीकार कर लेते।
जब हरिश्चन्द्र यह कारण बताते हैं कि वह सूर्यवंश की संतान है। तब विश्वामित्र उन्हें
यह कहकर धमकाते हैं कि अगर वह अपने वचन को उक्त धनराशि स्वीकार कर पूरा
नहीं करते, तब वह उन्हें शाप दे देंगे। हरिश्चन्द्र अनुनय करते हैं कि उन्हें यह नीच कर्म
करने के लिए बाध्य न किया जाए और अपने ऋण को चुकाने के लिए वह विश्वामित्र
का दास बनने के लिए तैयार हैं। इस पर ऋषि कहते हैं – ‘अगर तुम मेरे दास हो तब,
मैं तुम्हें इसी रूप में एक लाख मुद्राओं के बदले चांडाल को बेचता हूं।’
‘चांडाल सहर्ष यह धन चुकता कर देता है और दुःखी हरिश्चन्द्र को अपने निवास
स्थान पर ले जाता है। चांडाल उसे श्मशान जाकर कफन चुराने का काम करने के लिए
कहता है। वह बताता है कि इससे उसे 2/6 भाग प्राप्त होगा जो उस (चांडाल) का
होगा और 1/6 भाग राजा को मिलेगा। राजा ने इस भयानक क्षेत्र में नीच कर्म करते हुए
बारह वर्ष व्यतीत किए, जो उसे सौ वर्षों के बराबर लगे। वह तब सो जाता है। उसे
अपने जीवन के विषय में अनेक स्वप्न आए। जब वह जागा तब उसकी पत्नी अपने
पुत्र का अंतिम संस्कार कराने आई, जो सर्पदंश से मर गया था। पहले तो पति-पत्नी ने
एक-दूसरे को नहीं पहचाना, क्योंकि उनकी आकृति कष्ट सहते-सहते विकृत हो गई
थी। हरिश्चन्द्र ने उसके विलाप से तुरंत पहचान लिया कि यह उसकी पत्नी ही है, जो
दुर्भाग्य की मारी हुई है। वह बेहोश हो जाता है। रानी भी उसे पहचान लेती है, वह
भी बेहोश हो जाती है। जब उनकी मूर्छा भंग होती है, तब वे दोनों रोने लगते हैं। पिता
अपने पुत्र की मृत्यु पर और रानी अपने पति की अधोगति पर रोती है। वह उसके गले
से लिपट जाती है और कहती है, ‘मैं विभ्रम में हूं, क्या यह स्वप्न है या यथार्थ है?
यदि यह यथार्थ है, तब उन्हें धर्म का बोध हो रहा है, जो इसका आचरण करते हैं।’
हरिश्चन्द्र को अपने पुत्र की चिता में आग लगाने से पहले स्वामी के लिए शुल्क न लेने
के लिए हिचक होती है, लेकिन बाद में वह हर परिणाम को भुगतने और ऐसा करने
का निश्चय कर लेता है और अपने को ढाढस दिलाता है कि ‘यदि मैंने दान दिए हैं
और ऋषि-मुनियों को मेरे यज्ञ-कर्म आदि से संतोष हैं, तब मैं स्वर्ग में अपने पुत्र और
अपनी पत्नी से जाकर मिलूंगा।’ रानी भी उसी प्रकार मरने का निर्णय कर लेती है। जब
हरिश्चन्द्र अपने पुत्र को चिता पर रखकर भगवान श्री नारायण कृष्ण, परमात्मा का स्मरण
और ध्यान कर रहे थे, तभी धर्म के आगे-आगे सभी देवतागण विवामित्र के साथ वहां
उपस्थित हो गए। धर्म राजा को आवेश में कठोर कर्म करने से वर्जित करने लगे। इंद्र
ने घोषणा की कि राजा, उसकी पत्नी और उसके पुत्र ने अपने सत्कर्म से स्वर्ग जीत
लिया है। देवताओं ने आकाश से अमृत व पुष्पों की वर्षा की और राजा का पुत्र पुनः
जीवित हो उठा तथा स्वरथ हो गया।
‘स्वर्गिक वस्त्र और मालाओं से आभूषित हो राजा और रानी ने अपने पुत्र को गले
लगा लिया। हरिश्चन्द्र ने कहा कि जब तक मुझे अपने स्वामी चांडाल की अनुमति नहीं
मिल जाती और उनको प्रचुर धन नहीं दे देता, तब तक मैं स्वर्ग नहीं जा सकता। धर्म
तब राजा को यह रहस्य बताते हैं कि मैंने स्वयं ही चांडाल का स्वरूप धारण कर रखा
था। तब राजा पुनः कहता है कि मैं तब तक यहां से विदा नहीं ले सकता, जब तक मेरी
प्रजा को मेरे साथ स्वर्ग चलने की अनुमति नहीं होती, क्योंकि मेरे पुण्य में उसका भी
अंश है, चाहे वह एक दिन के लिए ही चले। इसे इंद्र स्वीकार करते हैं। विश्वामित्र राजा
के पुत्र रोहिताश्व को राज-सिंहासन पर आसीन कराते हैं और तब हरिश्चन्द्र, उनके साथी
और अनुयायी एक साथ स्वर्गारोहण करते हैं। इस चरमोत्कर्ष के बाद जब वशिष्ठ ने यह
वृत्तांत गंगा के जल में बारह वर्षों तक निवास करने के बाद सुना, जो हरिश्चन्द्र के कुल
पुरोहित थे, तो वह उस क्लेश के कारण बहुत क्रुद्ध हुए जो ऐसे श्रेष्ठ राजा को भोगना
पड़ा, जिसके गुणों और ईश्वर तथा ब्राह्मण भक्ति की वह प्रशंसा करते थे। उन्होंने कहा
कि जब विश्वामित्र ने उनके अपने सौ पुत्रें का वध किया था, तब उन्हें इतना क्रोध नहीं
आया था। उन्होंने विश्वामित्र को बगुला बन जाने का शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि वह
दुष्ट व्यक्ति, ब्राह्मणद्रोही, मेरे शाप से बुद्धिमान जीवों के समाज से बहिष्कृत हो जाए तथा
अपनी बुद्धि खोकर वक बन जाए। विश्वामित्र ने इसके बदले वशिष्ठ को शाप दे दिया
और उन्हें अरि नामक पक्षी बना दिया। इन नए रूपों में दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। अरि
आकाश में दो सहस्त्र योजन अर्थात्-18,000 मील ऊपर उड़ सकता था और वक 3,090
योजन तक ही उड़ सकता था। जब अरि ने अपने पंजों से आक्रमण किया, तब वक ने
अपने प्रतिद्वंद्वी पर वैसे ही आक्रमण किया। इन दोनों के डैनों की फड़फड़ाहट से भयंकर
चक्रवात आए, पर्वत चूर्ण होने लगे, सारी पृथ्वी कांपने लगी, समुद्र में जल तट के ऊपर
की तरफ चढ़ने लगा, पृथ्वी टूटकर पाताल की ओर जाने लगी। इन दोनों के युद्ध से अनेक
जीवों की मृत्यु हो गई। इस भयंकर अव्यवस्था को देखकर वहां सभी देवताओं सहित ब्रह्मा
उपस्थित होते हैं और दोनों प्रतिद्वंद्वियों को युद्ध बंद करने का आदेश देते हैं। इस आदेश पर
दोनों को भयंकर क्रोध हो उठता है, लेकिन ब्रह्मा उनको उनके मूल रूप में प्रतिष्ठित कर
देते हैं और परस्पर शांति रखने की सलाह देते हैं।
एक अन्य प्रकरण जिसमें ये एक-दूसरे के विरोधी दिखाए गए हैं, अयोध्या के राजा
अम्बरीष से संबंधित है। कथा इस प्रकार हैः1
अम्बरीष एक यज्ञ करा रहा था तो इंद्र बलि पात्र को उठा ले गया। पुरोहित ने कहा
कि यह एक अमंगल है जो प्रगट करता है कि राजा का शासन कुशासन-ग्रस्त है और
इसके लिए बहुत बड़े प्रायश्चित की जरूरत है, और वह प्रायश्चित है, मानव की बलि।
काफी तलाश के बाद राजर्षि अम्बरीष एक ब्रह्मर्षि ऋचीक के पास गए, जो भृगु के
वंशज थे। अम्बरीष ने ऋचीक से कहा कि वह बलि के लिए अपना एक पुत्र बेच दे,
जिसके लिए उन्हें एक लाख गाएं दी जाएंगी। ऋचीक ने उत्तर दिया कि वह अपने ज्येष्ठ
पुत्र को नहीं बेचेंगे, उनकी पत्नी ने कहा कि वह छोटे बेटे को नहीं बेचेगी। उसने कहा
कि बड़े पुत्र पर सामान्यतः पिता का दुलार होता है और छोटे पर माता का। तब मझले
पुत्र शुनःशेप ने कहा कि इस प्रकार तो उसी को बेचा जाना है और राजा से कहा कि
वह उसे ले चलें। एक लाख गाय, एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं, ढेर सारे आभूषण शुनःशेप
के बदले में दिए गए। जब वे पुष्कर होकर जा रहे थे, तो अपने मामा विश्वामित्र से
मिले जो अन्य ऋषियों के साथ वहां यज्ञ कर रहे थे। शुनःशेप उनकी गोदी में गिर पड़ा
और उसने अपने मामा से अपनी विवशता का वर्णन करते हुए दया की भीख मांगी।
‘विश्वामित्र ने उसे सांत्वना दी और अपने पुत्रें पर इस बात के लिए दबाव डाला
कि उनमें से कोई एक शुनःशेप के स्थान पर बलि चढ़ जाए। इस प्रस्ताव पर मधुसयंद
और राजर्षि के दूसरे पुत्र सहमत न हुए। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि आप यह कैसे
कह सकते हैं कि आपका अपना पुत्र बलि चढ़ जाए और उसके स्थान पर किसी अन्य
को बचा लिया जाए? हम इसे ठीक नहीं समझते। यह इसी प्रकार हुआ जैसे कि कोई
अपना ही मांस खाए। राजर्षि को इस पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपने पुत्रें को
शाप दिया कि वे अत्यंत नीच जातियों में पैदा हों, जैसे वशिष्ठ के पुत्र उत्पन्न हुए हैं
और वे हजारों वर्षों तक कुत्ते का मांस खाएं। तब उन्होंने शुनःशेप से कहा कि जब तुम
रस्सियों से बंध जाओ, तुम्हारे गले में लाल डोरी पड़ी हो, जब तुम्हें सुगंधित लेप चढ़ाए
जाएं और जब विष्णु के बलि स्तंभ के निकट ले जाया जाए, तब तुम अग्नि से प्रार्थना
करना और अम्बरीष के यज्ञ में इन दो श्लोकों को पढ़ना। तुमको सफलता मिलेगी।
- म्यूर, खंड 1, पृ. 405.407
‘जब शुनःशेप को ये दो श्लोक प्राप्त हो गए, तब वह तुरंत अम्बरीष के पास गया
और उससे तुरंत यज्ञ-स्थल के लिए चलने का आग्रह किया। जब उसे यज्ञ के खंभे
से बांधा गया और उसे लाल वस्त्र पहनाए गए तो उसने इंद्र और उसके अनुज विष्णु
की स्तुतियों में वे श्लोक पढ़े। सहस्राक्ष इंद्र इन गुप्त श्लोकों से प्रसन्न हुआ और उसने
शुनःशेप को चिरंजीवी रहने का वरदान दिया।’
अंतिम प्रकरण, जिसमें इन दोनों की प्रतिद्वंद्विता का संकेत मिलता है, वह राजा
कल्माषपाद से संबंधित हैं। इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में इस प्रकार किया
गया हैः
‘कल्माषपाद इक्ष्वाकु वंश का राजा था। विश्वामित्र उसके राजपुरोहित बनना चाहते थे,
लेकिन राजा वशिष्ठ को चाहता था। एक बार जब राजा मृगया पर गया और उसने बहुत
से पशु-पक्षियों का शिकार कर लिया, तब वह बहुत थक गया। उसे भूख और प्यास लग
आई। उसने वशिष्ठ के सौ पुत्रें में से ज्येष्ठ पुत्र शक्ति को रास्ते से हट जाने को कहा।
ऋषि ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘वह रास्ता मेरा है। हे राजन, सभी लोग कहते हैं कि राजा
को चाहिए कि वह ब्राह्मण के लिए रास्ता खाली कर दे। यह अनादि नियम है।’ दोनों में से
कोई पक्ष दूसरे को रास्ता देने को तैयार नहीं था। विवाद बढ़ता गया। तब राजा ने मुनि पर
अंकुश चला दिया। मुनि ने जैसा कि अन्य मुनि क्रुद्ध होने पर कहते हैं, राजा को नरभक्षी
हो जाने का शाप दे डाला। उस समय कल्माषपाद के पौरोहित्य पद को लेकर विश्वामित्र
और वशिष्ठ के बीच शत्रुता चल रही थी। विश्वामित्र राजा के पीछे-पीछे चल रहे थे।
जब राजा शक्ति के साथ विवाद में उलझा हुआ था तब, वह उसके पास गया। जब उसने
अपने प्रतिद्वंद्वी के पुत्र को देखा तो वह छिप गया और मौके की तलाश में उनके पास से
निकल गया। राजा शक्ति की अनुनय-विनय करने लगा, लेकिन विश्वामित्र उनमें समझौता
नहीं होने देना चाहता था। अतः उसने एक राक्षस को आदेश दिया कि वह राजा के शरीर
में प्रवेश कर ले। ब्रह्मर्षि के पाप और विश्वामित्र का आदेश, दोनों के प्रभाव से राक्षस ने
आदेश का पालन किया। विश्वामित्र ने देखा कि उसका उद्देश्य पूरा हो गया, तब वहां से
चल दिया। रास्ते में राजा को एक भूखा ब्राह्मण मिला। उसने अपने रसोइए के हाथों (जो
कुछ अन्य वस्तुएं नहीं ला सकता था) खाने के लिए नरमांस भेजा। उसने उसे वैसा ही
शाप दिया, जैसा शक्ति ने दिया था। अब तो शाप द्विगुणित हो गया। राजा के खा लेने के
कारण शक्ति उसका पहला शिकार बना। विश्वामित्र की प्रेरणा से वशिष्ठ के अन्य पुत्रें
को भी यही भोगना था। विश्वामित्र ने शक्ति को मरा हुआ देखकर राक्षस को वशिष्ठ
के अन्य पुत्रें की ओर भी प्रेरित किया। इस प्रकार उस भयंकर राक्षस ने उन पुत्रें का
भी भक्षण कर लिया, जो शक्ति से छोटे थे, जैसे कोई सिंह वन में छोटे-छोटे पशुओं का
भक्षण कर लेते हैं। विश्वामित्र द्वारा अपने पुत्रें के किए गए विनाश को सुनकर वशिष्ठ ने
धैर्य बनाए रखा, जैसे विशाल पर्वत को पृथ्वी धारण कर रखे हो। उन्होंने अपने ही नाश
का ध्यान किया, लेकिन कौशिकों को विनष्ट करने की कल्पना नहीं की। उस ब्रह्मर्षि ने
मेरू की चोटी से छलांग लगा ली। लेकिन वह चट्टान पर ऐसे गिरे, जैसे कोई रुई के ढेर
पर गिरता है। उन्होंने जब यह देखा कि मैं मरने से बच गया हूं, तब वह जंगल में जल
रही विशाल अग्नि में प्रवेश कर गए। यह आग भयंकर रूप से जल रही थी, लेकिन यह
भी उन्हें नहीं जला सकी और पूरी तरह से ठंडी पड़ गई। तब वे अपने गले में चट्टान को
बांधकर समुद्र में कूद पड़े, लेकिन वहां तरंगों ने उन्हें सूखे तट पर लाकर फेंक दिया। वह
तब अपनी कुटिया में चले आए। वहां उन्होंने उसे सूनी और निर्जन पाया। तब पुनः दुःख
से भर गए और बाहर निकल आए। उन्होंने देखा कि वर्षा होने से विपाशा में बाढ़ आ गई
है और वह अपने तट पर बहुत से पेड़ों को उखाड़ती बह रही है। उन्होंने उसमें डूबने की
सोची और अपने हाथ-पैरों को बांध उसमें डुबकी लगा ली। लेकिन नदी ने उनके सारे
बंधन तोड़ दिए और सूखे तट पर ला दिया। इस नदी का नाम उन्हीं का दिया हुआ है।
उन्होंने इसके बाद शतद्रु (सतलुज) नदी को देखा और उन्होंने उसमें छलांग लगा ली। नदी
में घड़ियाल आदि थे। यह ब्रह्मर्षि को, जो अग्नि के समान दीप्तमान थे, देखकर सैकड़ों
दिशाओं में बहने लगी, जिससे इसका यह नाम पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप यह पुनः
सूखे तट पर आ गए। उन्होंने जब यह देखा कि वह अपने को नहीं मार सकते, तब वह
पुनः अपने आश्रम को लौट गए।’
‘इन दोनों में एक-दूसरे के प्रति व्यापक शत्रुता के ये कुछ विशेष उदाहरण हैं। यह
शत्रुता बड़ी भीषण थी। यहां तक कि विश्वामित्र वशिष्ठ की हत्या तक के लिए तैयार
थे। इसका वर्णन महाभारत के शल्य पर्व में मिलता है। महाभारतकार लिखता हैः
‘विश्वामित्र और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के बीच अपनी-अपनी तपस्या में भी भारी शत्रुता
थी।1 वशिष्ठ का एक स्थानुतीर्थ में विशाल आश्रम था। उसके पूर्व में विश्वामित्र का
आश्रम था। दोनों तपस्वी प्रतिदिन एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर आहुतियां देते थे। विश्वामित्र
वशिष्ठ के प्रभुत्व को देखकर बहुत अधिक ईर्ष्या रखते थे। वह गहरे सोच में डूब गए।
उनका विचार इस प्रकार थाः ‘सरस्वती नदी अपनी धारा के साथ वशिष्ठ ऋषि को, जो
जप करने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, मेरे पास बहाकर ले आएगी, जब यह श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरे
पास आएगा, तो मैं निश्चित रूप से उसका वध कर दूंगा।’ ऐसा संकल्प करके विश्वामित्र
ने जब अपनी आंखें खोलीं, तो वे क्रोध से जल उठीं और उन्होंने नदियों की देवी का
आह्वान किया। यह देवी सरस्वती उनके पास आई तो वह बड़ी आशंकित हुई, क्योंकि
वह उनकी शक्ति से अवगत थी। कांपती हुई वह हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो
गई, जैसे कि किसी स्त्री का पति उसके सामने मार डाला गया हो। वह बड़ी दुःखी
थी। उन्होंने उनसे पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा करूं। उत्तेजित मुनि बोले – ‘वशिष्ठ
- म्यूर, खंड 1, पृ. 420.422
को तुरंत मेरे पास लाओ, मैं उसका वध करूंगा। कमल लोचनी देवी ने हाथ जोड़कर
भय से ऐसे कांपने लगी जैसे तेज हवा में लताएं कांपती हैं, किंतु विश्वामित्र ने यद्यपि
उनकी दशा देख ली थी, फिर भी अपना आदेश दोहराया। सरस्वती जानती थी कि
उनका संकल्प कितना पापमय है और वशिष्ठ की शक्ति भी अपरिमेय है। वह कांपती
हुई वशिष्ठ की ओर चली गई। वह सोच रही थी कि उसे कहीं दोनों मुनियों का शाप
न झेलना पड़े। जो-कुछ विश्वामित्र ने कहा था, उसने वह वशिष्ठ को बताया। उसका
लटका हुआ, पीला और चिंतित चेहरा देखकर वशिष्ठ ने कहा, ‘हे नदियों की देवी! जो
मुझे कहना है, कह। मुझे निस्संकोच विश्वामित्र के पास ले चल। कहीं वह तुझे शाप न
दे दे। दयालु ऋषि की वाणी सुनकर सरस्वती ने सोचा कि वह किस प्रकार बुद्धिमानी
का कार्य कर सकती है। उसने मन में विचार किया कि वशिष्ठ मेरे प्रति सदैव दयालु
रहे हैं। मुझे इनका कल्याण करना चाहिए। फिर उन्हें विश्वामित्र का ख्याल आया, जो
उसके किनारे पर यज्ञ कर रहे थे। उसने सोचा कि यह एक अच्छा अवसर है। अपनी तेज
धार से सरस्वती ने अपने किनारे को काट डाला। इस प्रकार मित्र और वरुण (वशिष्ठ
के पुत्र) को बहाकर नीचे की ओर ले गई। और जब वह उसे इस तरह बहाकर ले जा
रही थी, तो ऋषि ने नदी की पूजार्चना की। हे सरस्वती! तू ब्रह्मकुंड से निकली है और
अपनी श्रेष्ठ धाराओं के रूप में सारे संसार में विचरती है। तू आकाश में निवास करती
है। तू बादलों के माध्यम से वर्षा करती है। तू ही सभी नदियों का स्वरूप है। तुझमें
पालक शक्ति, मेधा और प्रकाश है, तू वाणी है, तू स्वाहा है, ये सारा संसार तेरा दास
है, तू सभी प्राणियों की आश्रयदाता है।
‘वशिष्ठ को सरस्वती द्वारा निकट लाते देख विश्वामित्र शस्त्र तलाश करने लगे,
जिससे वे वशिष्ठ का वध कर सकें। उनके क्रोध को देखते हुए कि कहीं ब्रह्महत्या न
हो जाए, यह सोचकर सरस्वती वशिष्ठ को पूर्वी दिशा में दूर ले गई। इस तरह दोनों
ऋषियों के आदेश का पालन तो हो गया, लेकिन विश्वामित्र की मनोकामना पूर्ण नहीं
हुई। जब विश्वामित्र ने देखा कि वशिष्ठ इस प्रकार बचा लिए गए हैं, तो वे क्रोध से
अधीर हो उठे और नदी से इस प्रकार बोले – ‘हे नदियों की देवी! तूने मुझे चकमा
दिया, जा तेरा पानी रक्त में बदल जाएगा, जो केवल राक्षसों के उपयोग में ही आ
सकेगा। सरस्वती को जब ऐसा शाप मिला, तो एक वर्ष तक उसमें रक्तिम जल बहता
रहा। राक्षसों के लिए उसकी धारा तीर्थस्थल बन गई, विशेष रूप से वह स्थान जहां से
वशिष्ठ को बहाया गया था। राक्षस इस रक्त को नाचते-गाते पीने लगे, जैसे कि उन्हें
स्वर्ग मिल गया हो। कुछ समय पश्चात् जब वहां कुछ ऋषि आए, तो वे रक्तिम जल
को देखकर भयभीत हो गए, जिसे राक्षस उपयोग में ला रहे थे। तब उन्होंने इस नदी
की रक्षा का विचार किया।’
ये उदाहरण कुछ ऐसे हैं, जो एक विशिष्ट ब्राह्मण और एक विशिष्ट क्षत्रिय के बीच
व्यक्तिगत संघर्ष के हैं। आगे अब जो उदाहरण दिए जा रहे हैं, वे एक ओर ब्राह्मणों और
दूसरी ओर क्षत्रियों के बीच वर्ग या जातिगत संघर्ष से संबंधित है। ये केवल संघर्ष ही नहीं
थे, और न इन्हें जातीय संघर्ष जैसा कहना ही ठीक है। ये संघर्ष वर्ग-संघर्ष थे, जो एक वर्ग
ने दूसरे वर्ग की जड़ें खोदने के लिए किए थे। महाभारत में ऐसे दो वर्ग संघर्षों का वर्णन
है। पहला संघर्ष हैह्य क्षत्रियों और भार्गव ब्राह्मणों के बीच का है। यह संघर्ष हैह्य राजा
कृतवीर्य के समय में हुआ। महाभारत के आदि पर्व में इसका वर्णन इस प्रकार हैः
एक राजा था, जिसका नाम कृतवीर्य था।1 इस राजा का पुरोहित भृगु था, जो वेदों
में पारंगत था। राजा की कृपा से उसके राजपुरोहित के पास प्रचुर धन-धान्य हो गया।
जब वह दिवंगत हो गया तो उसके वंशजों को धन की आवश्यकता पड़ी। वे धन मांगने
भृगुओं के पास गए, जिनकी संपन्नता से वे अवगत थे। कुछ भृगुओं ने अपनी संपत्ति
जमीन में गाड़ रखी थी। क्षत्रियों के डर के कारण ब्राह्मणों को दान दे दी थी। एक बार
ऐसा हुआ कि जब कोई क्षत्रिय जमीन खोद रहा था, तो उसे एक भृगु के घर में गड़ा
धन प्राप्त हुआ। उस क्षत्रिय ने दूसरे क्षत्रियों को एकत्र किया और उन सबने उस कोष को
देखा। इस पर वे उत्तेजित हो गए, और उन्होंने सभी भृगुओं का वध कर दिया, जिनको
वे तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के गर्भस्थ शिशुओं का भी वध
कर दिया। विधवाएं हिमालय पर्वत की ओर भाग गईं। उनमें से एक ने अपने अजन्मे
शिशु को अपनी जंघा में छिपा लिया। एक ब्राह्मण ने जब क्षत्रियों को इसकी सूचना दी
तो वे उसे मारने पहुंच गए, किंतु वह अपनी माता की जंघा से बाहर निकल आया और
अपनी दीप्ति से आक्रमणकारियों को अंधा बना दिया। कुछ काल तक पहाड़ों में भटकने
के बाद उन्होंने उस बालक की माता से विनयपूर्वक अपनी दृष्टि लौटाने का अनुरोध
किया। किंतु उसने कहा कि वे उसके विलक्षण शिशु और्व के पास जाएं, जिसमें सभी
वेदों और छहों वेदांग समाहित हैं, क्योंकि उसी ने अपने संबंधियों के वध के प्रतिकार
स्वरूप उनको निर्वस्त्र किया और उनकी दृष्टि छीनी है और वही उनकी दृष्टि उन्हें लौटा
सकता है। तद्नुसार वे उसके पास गए और उनकी दृष्टि उन्हें वापस मिल गई। और्व ने
सारी सृष्टि के विनाश के लिए तपस्या की, क्योंकि वह भृगुओं के विनाश का प्रतिशोध
लेना चाहता था। इसलिए वह तपस्या करने लगा। इस पर देवताओं, असुरों, मानवों में
खलबली मच गई। तब उसके पितृगण प्रकट हुए और उन्होंने उससे कहा कि वह अपना
संकल्प त्याग दें, क्योंकि वे क्षत्रियों से कोई प्रतिशोध नहीं लेना चाहते हैं। इसका कारण
भृगुओं की निर्बलता भी नहीं है कि वे क्षत्रियों के द्वारा किए गए हत्याकांड को भूल
जाएं। उन्होंने कहा कि जब हम अपनी वृद्धावस्था से ऊब चुके थे तो हम स्वयं यह
- म्यूर, खंड 1, पृ. 448.49
चाहते थे कि क्षत्रिय हमारी हत्या कर दें। किसी भृगु के घर में जो धन छिपा था, वह
भी घृणा उत्पन्न करने के लिए जान-बूझकर छिपाया गया था, ताकि क्षत्रिय भड़क उठें।
हम सब स्वर्ग में आना चाहते थे। हमें धन से कोई लेना-देना नहीं था। उसके पितरों
ने कहा कि उन्होंने यह उपाय सोचा, क्योंकि वे आत्महत्या का पाप नहीं करना चाहते
थे। और अंत में उन्होंने और्व से कहा कि वह अपना क्रोध त्याग दे और उस पाप का
भागी न बने जो वह सोच रहा है। उन्होंने कहा-हे पुत्र! क्षत्रियों का विनाश न कर, और
न ही सातों लोकों को नष्ट कर। अपने क्रोध का दमन कर जो तेरी तपस्या को निष्फल
कर देगा। किंतु और्व ने उत्तर दिया कि वह अपने वचन को व्यर्थ नहीं जाने देगा। जब
तक उसका क्रोध किसी का विनाश नहीं करेगा तो वह स्वयं ही अपने क्रोध की चपेट
में आ जाएगा और उसने न्याय, औचित्य तथा कर्तव्य की साक्षी देकर अपने पितरों की
दयाशीलता का प्रतिवाद किया। किंतु उसके पितरों ने उसे समझा लिया और कहा कि
वह अपने क्रोध की अग्नि को समुद्र में छोड़ दे, जहां वह जल में जंतुओं का विनाश
कर देगी और इस प्रकार उसके वचन की पूर्ति भी हो जाएगी।’
दूसरा वर्ग युद्ध, और जो विनाशकारी भी था, भार्गव ब्राह्मणों ने हैह्य क्षत्रियों के
विरुद्ध छेड़ा था। इसमें भार्गव ब्राह्मणों के नेता परशुराम थे। परशुराम के जन्म की कथा
विष्णु पुराण में इस प्रकार आती हैः
‘गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह ऋचीक नाम के एक वृद्ध ब्राह्मण से हुआ, जो
भृगु वंश का था।1 इसका उद्देश्य यह था कि उससे जो पुत्र उत्पन्न हो, उसमें ब्राह्मण के
गुण विद्यमान हों। ऋचीक ने अपनी स्त्री के लिए चावल, जौ, दाल, घी और दूध से युक्त
चारू नामक भोजन तैयार कराया। इसी प्रकार का पदार्थ उसने अपनी पत्नी की माता के
लिए भी तैयार कराया। उनका विचार था कि वह भी एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करें, जिसमें
योद्धा के गुण विद्यमान हों। किंतु सत्यवती की मां ने अपनी पुत्री को समझा-बुझा कर
उसका भोजन अपने भोजन के साथ बदल दिया। जब उसके पति घर लौटे तो अपनी
पत्नी से यह जानकर बहुत कुपित हुए।’
मैं उसके कथन को मूल रूप से नीचे उद्धृत कर रहा हूं:
‘हे पापी स्त्री, तूने यह क्या कर दिया। मुझे तेरा शरीर भयानक प्रतीत होता है। अवश्य
ही तूने अपनी माता के लिए तैयार किए चारू भोजन को खाया है। यह ठीक नहीं हुआ।
मैंने उसमें वीरों के सभी गुण, संपूर्ण पराक्रम, शूरता और बल की संमत्ति का आरोपण किया
था। तुम्हारे भोजन में शांति, ज्ञान, तितिक्षा आदि संपूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों का समावेश किया
था। उनका विपरीत उपयोग करने से तेरे जो पुत्र होगा, वह अति भयानक, युद्धप्रिय और
- म्यूर, खंड 1, पृ. 349.350
हत्या-कर्म में प्रवृत्त क्षत्रियों जैसा आचरण करने वाला होगा और तुम्हारी माता के शांतिप्रिय
और ब्राह्मणों का आचरण करने वाला पुत्र होगा। यह सुनते ही सत्यवती ने अपने पति के
चरण पकड़ लिए और कहा – भगवन्, मैंने अज्ञान से ही ऐसा किया है। मुझ पर दया
कीजिए और ऐसा कीजिए कि मेरा पुत्र ऐसा नहीं हो, जैसा कि आपने वर्णन किया है। भले
ही वैसे गुण वाला पौत्र हो जाए। इस पर मुनि ने कहा ऐसा ही होगा।
‘तदन्तर उसने जमदग्नि को जन्म दिया और उसकी माता ने विश्वामित्र को उत्पन्न
किया। सत्यवती कौशिकी नाम की नदी हो गई। जमदग्नि ने इक्ष्वाकु वंश की रेणु की कन्या
रेणुका से विवाह किया। उससे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम परशुराम था।’
महाभारत के वन पर्व में परशुराम के परिवार का और भी ब्यौरा मिलता है, जो
निम्नलिखित हैः
‘जमदग्नि और सत्यवती के पांच पुत्र थे।1 उनमें सबसे छोटा पुत्र परशुराम था, जो
उग्र स्वभाव का था। उसने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता का वध कर दिया
था, जो कुवासना में ग्रस्त होने के कारण पवित्र नहीं रह गई थी। उसके चार भाइयों
ने अपनी मां का वध करना अस्वीकार कर दिया था और इस कारण अपने पिता के
शाप के कारण उनका तेज नष्ट हो गया था। किंतु परशुराम के आग्रह पर उसके पिता
ने उनकी माता को पुनः जीवित कर दिया और उसके भाइयों को उनकी शक्ति लौटा
दी थी। परशुराम मातृहत्या के पाप से मुक्त हो जाता है और अपने पिता से चिरायु होने
का वरदान प्राप्त करता है।’
दूसरा जाति-युद्ध राजा कृतवीर्य के पुत्र हैह्य वंशीय राजा अर्जुन के शासन काल
में हुआ था। इस संघर्ष का आरंभ ब्राह्मणों से हुआ, जो अपने कुछ विशेषाधिकारों और
शक्तियों पर बल दे रहे थे और अर्जुन तिरस्कारयुक्त शब्दों द्वारा उनकी भर्त्सना कर रहा
था। महाभारत के अनुशासन पर्व में इसका वर्णन इस प्रकार हुआ हैः
‘तब सूर्य के समान चमकते हुए तेजस्व रथ पर चढ़कर अपने पराक्रम के नशे में
उन्मत्त होकर वह बोला – वीरता, साहस, ख्याति, शूरता, शक्ति और बल की दृष्टि से
कौन मेरी बराबरी कर सकता है?2 जब वह अपनी बात कह चुका तब उसे संबोधित
करते हुए आकाशवाणी हुई, हे मूर्ख, क्या तू नहीं जानता कि ब्राह्मण क्षत्रिय से उत्तम
होता है। क्षत्रिय अपनी प्रजा पर जो शासन करता है, वह ब्राह्मण की सहायता से करता
है। अर्जुन ने उत्तर दिया, यदि मैं चाहूं तो सृष्टि कर सकता हूं और यदि मैं क्रुद्ध हो
जाऊं तो सभी जीवों का विनाश कर दूं। कोई ब्राह्मण कार्य, विचार या शब्द में मुझसे
श्रेष्ठ नहीं है। पहला सिद्धांत यह है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं और दूसरा यह कि क्षत्रिय श्रेष्ठ
- म्यूर, खंड 1, पृ. 450
- म्यूर, खंड 1, पृ. 454
हैं। तुमने इन दोनों के बारे में बताया, लेकिन इन दोनों में अंतर है। ब्राह्मण क्षत्रियों पर
निर्भर होते हैं और क्षत्रिय ब्राह्मणों पर निर्भर नहीं होते। ब्राह्मण क्षत्रियों पर अत्याचार करते
हैं और इसके लिए वेदों का सहारा लेते हैं। प्रजा की रक्षा, अर्थात् न्याय क्षत्रिय का धर्म
है। ब्राह्मणों को उनसे जीविका प्राप्त होती है, तब ब्राह्मण क्षत्रियों से श्रेष्ठ क्यों कर हो
सकते हैं? मैं आज से उन सभी ब्राह्मणों को अपने अधीन रखूंगा जो भिक्षा पर निर्भर
करते हैं और जो अपने को श्रेष्ठ समझते हैं। चूंकि गायत्री ने आकाश में सत्य कहा है
अतः मैं उन अनुशासनहीन ब्राह्मणों को अपने वश में करूंगा, जो मृग की खाल पहनते
हैं। उन तीनों लोकों में कोई भी, चाहे वह कोई देव हो या मानव, मुझे राजसिंहासन से
च्युत नहीं कर सकता, जिसके कारण मैं प्रत्येक ब्राह्मण से श्रेष्ठ हूं।’
‘यह सुनकर वायु देवता प्रकट हुए और अर्जुन से बोलेः ‘तुम इस दूषित भावना को
त्याग दो और ब्राह्मणों का आदर करो।1 यदि तुम अपना अहित करोगे तो तुम्हारे राज्य
में विप्लव मच जाएगा। वे तुम्हें पराजित कर देंगे, वे तुम्हें अपने अधीन कर लेंगे। वे
तुम्हें तुम्हारे राज्य से निष्कासित कर देंगे। कृतवीर्य ने पूछाः आप कौन हैं? वायु ने उत्तर
दियाः ‘मैं देवताओं का दूत वायु हूं। मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात बता रहा हूं।’ कृतवीर्य
ने कहाः ‘हे वायुदेव, ऐसी बात बता रहे हो यह कहकर आपने ब्राह्मणों के प्रति भक्ति
और अनुराग का परिचय दिया है। यह बताइए कि क्या ब्राह्मण पृथ्वी पर उत्पन्न किसी
भी जीव के समान है? या यह बताइए कि यह परम श्रेष्ठ ब्राह्मण क्या वायु जैसा है?
अग्नि जल के समान है, या सूर्य, या आकाश जैसा है?
इसके पश्चात् वायु ने अनेक उदाहरण दिए, जिनमें ब्राह्मणों की श्रेष्ठता बताई गई
थी। इस पर अर्जुन ने ब्राह्मणों के प्रति अपना बैर-भाव त्याग दिया और वह उनका मित्र
बन गया। अनुशासन पर्व में उसने कहाः-
‘मैं सदा ब्राह्मणों के हित में उनके साथ में रहता हूं।2 मैं ब्राह्मणों के लिए समर्पित हूं।
और सदा उनकी इच्छाओं के अनुरूप कार्य करता हूं। और यह दत्तात्रेय (एक ब्राह्मण) की
ही अनुकंपा है कि मुझे यह शक्ति और ख्याति प्राप्त हुई है और मैं धर्म-परायण हूं।’
दूसरे चरण में परशुराम का उल्लेख है, जिन्होंने क्षत्रियों का संहार किया था। शांति
पर्व में इस प्रकरण का वर्णन इस प्रकार हैः
‘अर्जुन एक विनम्र और धर्मपरायण और दयालु स्वभाव का राजा था। इसलिए
उसने किसी को कष्ट देने की बात कभी नहीं सोची।3 परंतु उसके पुत्र हठधर्मी और
अत्याचारी थे, इस कारण वे उसकी मृत्यु का कारण बन गए। वे अपने पिता को बताए
- म्यूर, खंड 1, पृ. 454
- म्यूर, खंड 1, पृ. 473
- वही, पृ. 454.455
बिना जमदग्नि का बछड़ा ले आए। इसके परिणामस्वरूप परशुराम ने अर्जुन पर आक्रमण
किया और उसकी भुजाएं काट दीं। उसके पुत्र ने जमदग्नि का वध कर दिया। अपने
पिता का वध किए जाने पर परशुराम उत्तेजित हो उठे और यह प्रतिज्ञा की कि मैं पृथ्वी
से क्षत्रियों का विनाश कर दूंगा। उसने अपने शस्त्र उठाए और अर्जुन के सभी पुत्र-पौत्रें
तथा हैह्य वंश के हजारों क्षत्रियों का विनाश कर दिया और पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन
कर दिया। इस तरह जब वे क्षत्रियों का विनाश कर चुके, तब उनके मन में करुणा
उत्पन्न हुई और वे वन चले गए। कई हजार वर्षों के बीत जाने के बाद इस वीर का,
जो स्वभावतः क्रोधी था, रैभ्य के पुत्र और विश्वामित्र के पौत्र ने भरी सभा में इन शब्दों
द्वारा उपहास उड़ाया – ‘क्या ये प्रतर्दन तथा अन्य व्यक्ति वीर नहीं हैं, जो ययाति के
नगर के यज्ञ में उपस्थित हुए हैं? क्या ये क्षत्रिय नहीं हैं? आप अपने संकल्प को पूर्ण
करने में असफल रहे और इस सभा में व्यर्थ ही गर्व करते हैं। आप क्षत्रियों के डर के
कारण पर्वत पर चले गए, जबकि पृथ्वी पर क्षत्रियों के सैकड़ों वंशज शासन करते आ
रहे हैं।’ यह शब्द सुनकर परशुराम ने अपने हथियार उठाए। जो सैकड़ों क्षत्रिय बच गए
थे, वे अब शक्तिशाली राजा बन गए थे। परशुराम ने इन सभी का उनकी संतति सहित
वध किया और अनगिनत शिशु, जो गर्भस्थ थे, उनको भी मार डाला। फिर भी कुछ
शिशुओं को उनकी माताओं ने बचा लिया।’
जो पाठक क्षत्रियों के बाद का इतिहास पढ़ने में रुचि रखते हैं, वे आदि पर्व का
यह अंश देखें:
‘इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर देने वाले जमदग्नि के पुत्र महेन्द्र पर्वत पर,
जो सबसे उत्तम पर्वत था, तपस्या में लीन हो गए।1 जब उन्होंने धरती को क्षत्रिय-विहीन
कर दिया था तो क्षत्रियों की विधवाएं ब्राह्मणों के पास आईं और उनसे संतति की याचना
की। तब धर्म परायण ब्राह्मणों ने निष्काम भाव से उन स्त्रियों के साथ सहवास किया
जो बाद में गर्भवती हो गईं और उन्होंने वीर क्षत्रिय लड़के-लड़कियों को जन्म दिया,
जिससे क्षत्रिय जाति आगे भी रहे। इस प्रकार जो क्षत्रिय उत्पन्न हुए, वे क्षत्रिय स्त्रियों से
ब्राह्मणों के जाए हैं, उनकी संख्या बढ़ती गई। फिर ब्राह्मणों से हीन चार वर्णन बने।’
इन दोनों जातियों के बीच इस शत्रुता में एक-दूसरे को चुनौतियां दी जाती रहीं,
जिससे यह प्रकट होता है कि दोनों पक्षों में क्रोधाग्नि जल रही थी। राजा निमि द्वारा
ब्राह्मणों को अपने रथ में जोतना और घोड़ों की तरह उनसे अपना रथ खिंचवाना, इससे
यह प्रकट होता है कि क्षत्रिय ब्राह्मणों का निरादर करने के लिए कितने कृतसंकल्प थे।
कृतवीर्य अर्जुन ने ब्राह्मणों को जो चुनौती दी, उससे पता चलता है कि वह ब्राह्मणों को
नीचा दिखाना चाहते थे। ब्राह्मण भी ऐसी चुनौती देने में नहीं चूकते थे। उन्होंने भी क्षत्रियों
- म्यूर, खंड 1, पृ. 451.452
को चुनौतियां दीं कि वे ब्राह्मणों को उत्तेजित न करें। यह ब्राह्मणों के दूत वायु के उस
कथन से स्पष्ट है जो उन्होंने अर्जुन कृतवीर्य से संवाद के समय तब कहा था, जब उसने
ब्राह्मणों को चुनौती दी थी। वायु ने अर्जुन को बताया कि अत्रि ने समुद्र में मूत्र त्याग
कर उसका जल किस प्रकार खारा कर दिया था, किस प्रकार दंडकों को ब्राह्मणों ने
राज सिंहासन से उतार दिया था। अकेले ब्राह्मण और्व ने किस प्रकार तालजंघ के सभी
क्षत्रियों का संहार कर दिया था। ब्राह्मणों की मारक शक्ति क्षत्रियों से ही नहीं, बल्कि
देवों से भी श्रेष्ठ है। वायु अर्जुन से देवताओं पर ब्राह्मणों की विजय का वर्णन करते हैं।
उन्होंने बताया कि वरुण किस प्रकार सोम की पुत्री भद्रा और अंगिरस कुल के उतथ्य
ब्राह्मण की पत्नी का हरण कर ले गया। किस प्रकार उतथ्य ने अपने शाप से धरती पर
अकाल ला दिया था और किस प्रकार वरुण को उतथ्य के सामने झुकना पड़ा तथा
उसकी पत्नी लौटानी पड़ी। वायु ने बताया कि किस प्रकार एक बार देवों पर असुरों ने
विजय प्राप्त कर ली, असुरों और दानवों ने मिलकर देवों को सभी आहुति कर्म से वंचित
कर दिया, उनके गौरव को विनष्ट कर दिया, तब वे ब्राह्मण अगस्त्य के पास गए और
उन्होंने संरक्षण देने के लिए प्रार्थना की, और किस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने दानवों को
स्वर्ग और पृथ्वी से निकाल कर दक्षिण की ओर खदेड़ दिया और देवताओं को उनका
राज्य वापस दिलाया। वायु ने अर्जुन को यह भी बताया कि एक बार जब आदित्यगण
यज्ञ कर रहे थे और उनका खल नामक दानवों के साथ संघर्ष हुआ जो हजारों की
संख्या में उनका वध करने आए थे। किस प्रकार आदित्यगण इंद्र के पास पहुंचे, और
इंद्र ने दैत्यों के साथ स्वयं युद्ध किया किंतु फिर भी आदित्यों को विजय नहीं दिला
सके तो वे ब्रह्मऋषि वशिष्ठ से सहायता लेने गए, तब किस प्रकार वशिष्ठ ने आदित्यों
पर दया करके दानवों को जीवित भस्म किया और आदित्यों की रक्षा की। उन्होंने अर्जुन
को फिर बताया कि किस प्रकार दानवों ने देवों के साथ युद्ध किया और किस प्रकार
भयंकर अंधेरे में घेरकर देवों का वध किया गया। किस प्रकार देवों ने ब्राह्मण अत्रि से
कहा कि वह चंद्रमा का रूप धारण करके सूर्य का प्रकाश उत्पन्न कर दें। अत्रि ने ऐसा
ही किया और दानवों से देवों की रक्षा की। ब्राह्मणों की प्रभुता के बारे में अंतिम प्रकरण
वायु ने अर्जुन को बताया कि किस प्रकार च्यवन ऋषि ने इंद्र को इस बात के लिए
विवश किया कि अश्विनी पुत्रें को समकक्ष स्वीकार किया जाए और समानता के प्रतीक
के रूप में उनके साथ सोमपान किया जाए। और जब इंद्र ने ऐसा करने से इंकार कर
दिया तो उसे धरती और आकाश दोनों स्थानों से बहिष्कृत होना पड़ा। और इस प्रकार
उन्होंने मद नाम के राक्षस की रचना की और देवों को इंद्र सहित उसके मुख में धकेल
दिया। फिर किस प्रकार च्यवन ने इंद्र को यह स्वीकार करने के लिए विवश किया कि
अश्विनी समान पद के अधिकारी हैं, उनके साथ इंद्र को सोमपान कराया और अंत में
किस प्रकार इंद्र ने च्यवन के सम्मुख आत्मसमर्पण किया।
वायु ने ब्राह्मणों की प्रभुता के बारे में केवल यही नहीं कहा, उन्होंने और भी काफी
कुछ कहा। प्रत्येक बार उसने अर्जुन को एक उदाहरण बताया, जिसमें ब्राह्मणों की महत्ता
का वर्णन था, और अंत में अर्जुन से एक प्रश्न पूछा ‘क्या तुम बता सकते हो कि कौन
क्षत्रिय उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, जिसका प्रसंग दिया गया है? सोचकर ऐसे क्षत्रिय का
नाम बताओ जो श्रेष्ठता में उनके समान हो। मुझे बताओ कि कोई क्षत्रिय क्या अत्रि की
समानता कर सकता है।’
ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच यह वर्ग-संघर्ष युगों-युगों तक चलता रहा होगा। इस
पृष्ठभूमि में इस वर्ग-युद्ध के प्रति मनु का दृष्टिकोण बहुत ही विचित्र लगता है।
मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोकों पर विचार कीजिएः
4.135. जो समृद्धिशाली होना चाहता है उसे चाहिए कि वह क्षत्रिय, सांप और
विद्वान ब्राह्मण की कभी भी उपेक्षा न करे, चाहे वह कितने ही निर्बल क्यों न हों।
4.136. क्योंकि ये तीनों अनाहत होने पर उसे पूर्ण रूप से विनष्ट कर देंगे, अतः
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह कभी इनकी उपेक्षा न करे।
10.322. ब्राह्मण के बिना क्षत्रिय संपन्न नहीं हो सकता, क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण
समृद्ध नहीं होता। ब्राह्मण और क्षत्रियों का निकट संबंध हैं। इसलिए वे इस लोक
और पर-लोक में समृद्ध होते हैं।
यहां यह स्पष्ट है कि मनु इन दोनों के बीच मेल करा देना चाहता है। मनु किसके
विरुद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियों को आपस में मिलाना चाहता है? क्या यह प्रयास इसलिए था
कि ये दोनों पिछली शत्रुता को भूल जाएं या इसलिए था कि किसी अनुचित उद्देश्य की
पूर्ति के लिए ये किसी षड्यंत्र में परस्पर मिल जाएं। वे क्या परिस्थितियां थीं, जिन्होंने
मनु को इस बात के लिए विवश किया कि वे ब्राह्मणों को यह सलाह दें कि वे क्षत्रियों
के साथ युगों पुराने अपने वैमनस्य को भूल जाएं और सहायता के लिए आगे आएं। ये
परिस्थितियां बहत ही कठिन और अनिवार्य रही होंगी, क्योंकि दोनों वर्गों के बीच मैत्री
का कोई आधार नहीं बचा था। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों की जी भर के निंदा की। उनकी
प्रतिष्ठा को खुलेआम यह कहकर चोट पहुंचाई कि क्षत्रिय ब्राह्मणों की अवैध संतान हैं,
जो उन्होंने क्षत्रिय विधवाओं से जन्मी है। क्षत्रियों की भावनाओं को आघात पहुंचाने के
लिए ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से यह भी कहलवा लिया कि वीरता में भी ब्राह्मण क्षत्रियों से
श्रेष्ठ हैं, जैसा कि भीष्म से कहलाया गयाः
ब्राह्मणों की शक्ति देवताओं का भी संहार कर सकती है जो इस संसार के स्वामी
कहे जाते हैं।1 कोई ब्राह्मण चाहे चन्दन का तिलक लगाता हो, अथवा कीचड़ में सन
- म्यूर, खंड 1, पृ. 473.474
गया हो, चाहे वह भोजन करता हो या व्रत रखता हो, रेशमी टाट लपेट कर रहता हो
या मृग चर्म धारण किए हुए हो, वह सांसारिक को दैविक और दैविक को सांसारिक
बना सकता है, क्रुद्ध होने पर वह नई सृष्टि कर सकता है। ब्राह्मण देवाधिदेव हैं और
कारणों के कारण हैं। अज्ञानी ब्राह्मण भी देवता है और ज्ञानी ब्राह्मण तो देवताओं से
बढ़कर हैं, जैसे विशाल महासागर है।
इन सब तथ्यों से यह बड़ा ही रहस्यपूर्ण लगता है कि ब्राह्मणों का अचानक पतन,
क्षत्रियों को जीतने के लिए उनका यह असफल प्रयास क्योंकर हुआ? इस रहस्य का
कारण क्या हो सकता है?