- कौरवों ने पांडवों के अस्तित्व का पता लगाने के लिए गुप्तचर भेजे, परंतु वे
गुप्तचर दुर्योधन के पास लौट आते हैं और बताते हैं कि वे पांडवों का पता लगाने में
असमर्थ हैं। ये दुर्योधन की आज्ञा के अभिलाषी हैं कि अब क्या किया जाए? – (विराट
पर्व, अध्याय-25)
- दुर्योधन अपने सलाहकारों से परामर्श करता है। कर्ण ने कहा कि अन्य गुप्तचर
भेजे जाएं। दुःशासन ने कहा कि पांडव समुद्र पार चले गए होंगे। परंतु उनकी खोज की
जाए।-(वही, अध्याय-26)
- द्रोण ने कहा कि पांडवों को हराना अथवा उन्हें नष्ट करना संभव नहीं है। वे
तपस्वी के वेष में होंगे, अतः सिद्धों और ब्राह्मणों को गुप्तचर के रूप में भेजा जाए-
(वही, अध्याय-27)
- भीष्म द्रोण का समर्थन करते हैं।-(वही, अध्याय-28)
- कृपाचार्य ने भीष्म का समर्थन किया और कहा – पांडव हमारे सबसे बड़े शत्रु
हैं। परंतु बुद्धिमान लोग छोटे शत्रुओं की भी अवहेलना नहीं करते हैं। जब वे अज्ञातवास
में हैं तो आप अभी से जाकर सेनाओं को एकत्र करें।-(वही, अध्याय-29)
- इसके बाद त्रिगढ़ के सम्राट सुशर्मा ने एक अलग विषय प्रस्तुत किया। उसने
बताया कि कीचक के बारे में ‘मैंने’ सुना है कि उसका निधन हो गया है, जो सम्राट
विराट का सेनापति था। सम्राट विराट का सेनापति था। सम्राट विराट हमें अत्यधिक कष्ट
देने वाला है। कीचक के निधन के बाद विराट को बहुत अधिक दुर्बल होना चाहिए।
विराट के साम्राज्य पर क्यों न आक्रमण किया जाए? यह सबसे उपयुक्त समय है। कर्ण
ने भी सुशर्मा का समर्थन किया। पांडवों के बारे में चिंता क्यों की जाए? ये पांडव धन
और सेना से वंचित हैं तथा परास्त हैं। उनके बारे में परेशान क्यों हुआ जाए? वे अब
तक मौत की गोद में चले गए होंगे। इस खोज-अभियान का त्याग कर दिया जाए और
सुशर्मा की योजना को अमल में लाया जाए।-(वही, अध्याय-30)
- सुशर्मा विराट पर आक्रमण करता है। सुशर्मा विराट की गायों को ले आता है।
गायों के चरवाहे विराट को यह सूचना देते हैं और सम्राट से आग्रह करते हैं कि सुशर्मा
का पीछा किया जाए तथा गायों की रक्षा की जाए।-(वही, अध्याय-31)
- विराट युद्ध के लिए तैयार हो गया। इस बीच विराट के छोटे भाई शतनीक
ने सुझाव दिया कि अकेले जाने के बजाय वह अपने साथ कनक (सहदेव), बल्लभ
(युधिष्ठिर), शांतिपाल (भीम) और ग्रांथिक (नकुल) को अपने साथ ले लें, ताकि वे
सुशर्मा से युद्ध करने में उनकी सहायता करें। विराट ने इस सुझाव पर अपनी सहमति
प्रकट की और वे सभी गए।-(वही, अध्याय-31)
- सुशर्मा और विराट के बीच युद्ध।-(वही, अध्याय-32)
- युधिष्ठिर विराट की रक्षा करता है।-(वही, अध्याय-33)
- विराट नगरी में घोषणा होती है कि उनके सम्राट सुरक्षित हैं।-(वही,
अध्याय-34)
विराट नगरी में कौरवों का प्रवेश
- जब सम्राट विराट सुशर्मा का पीछा कर रहे थे, तभी दुर्योधन, भीष्म, द्रोण,
कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, शकुनि, दुःशासन, विविनशति, विकर्ण, चित्रसेन, दुर्मुख, दुशल
और अन्य योद्धाओं के साथ विराट नगरी में घुस गए तथा विराट की गायों को पकड़
कर ले जाने लगे। चरवाहे सम्राट विराट के महल में आए और उन्हें यह समाचार दिया।
उन्हें सम्राट को खोजने की आवश्यकता नहीं हुई, उन्हें सम्राट का पुत्र उत्तर मिल गया।
इसलिए उन्होंने उसे ही यह समाचार दिया।-(वही, अध्याय-35)
- उत्तर ने गर्व से कहा कि वह अर्जुन से श्रेष्ठ है और वह उनकी रक्षा कर लेगा।
परंतु उसकी यह शिकायत थी कि उसका कोई सारथी नहीं है। द्रौपदी ने उसे बताया
कि किसी समय ब्रह्मानंद अर्जुन का सारथी था। उससे क्यों न कहा जाए? उसने कहा
कि उसके पास साहस नहीं है, अतः उसने द्रौपदी से निवेदन किया कि वह स्वयं जाकर
उस सारथी से कहें। आप अपनी छोटी बहन मनोरमा से क्यों नहीं कहते। इसलिए उसने
मनोरमा से कहा कि वह ब्रह्मनंद को ले आए।-(वही, अध्याय-36)
- मनोरमा ब्रह्मनंद को अपने भाइयों के पास ले जाती है और उत्तर उसे अपना
सारथी बनने के लिए प्रेरित करता है। ब्रह्मनंद ने स्वीकृति दे दी और कौरवों के समक्ष
उत्तर का रथ संभाल लिया।-(वही, अध्याय-37)
- कौरवों की सेना देखकर उत्तर ने रथ छोड़ दिया और भागना प्रारंभ कर दिया।
अर्जुन ने उसे रोक लिया। कौरवों ने यह देखकर संदेह करना प्रारंभ किया कि यह
व्यक्ति अर्जुन होगा। अर्जुन ने उससे कहा कि इसमें भयभीत होने की कोई बात नहीं
है।-(वही, अध्याय-38)
- अर्जुन अपना रथ शामी वृक्ष तक ले गाया। इसे देखकर द्रोण ने कहा कि इस
व्यक्ति को अर्जुन ही होना चाहिए। यह सुनकर कौरव अधिक बेचैन हो गए। परंतु दुर्योधन
ने कहा कि यदि द्रोण सही है, तो यह समाचार हमारे लिए सुखद है क्योंकि तेरहवें वर्ष
से पूर्व ही पांडवों का पता लग गया है और उन्हें 12 वर्ष के लिए फिर वनवास का
दंड भोगना पड़ेगा।-(वही, अध्याय-39)
- अर्जुन, उत्तर से शामी वृक्ष पर चढ़ने के लिए कहता है तथा शस्त्र नीचे डालने
को कहता है।-(वही, अध्याय-40)
- उत्तर द्वारा शामी वृक्ष पर शव होने का संदेह करना।-(वही, अध्याय-41)
- शस्त्रें को देखकर उत्तर का हतप्रभ होना।-(वही, अध्याय-42)
- अर्जुन द्वारा शस्त्रें का वर्णन।-(वही, अध्याय-43)
- पांडवों के आवास के बारे में उत्तर की पूछताछ।-(वही, अध्याय-44)
- वृक्ष से उतरते हुए उत्तर।-(वही, अध्याय-45)
- हनुमान के चिह्न के साथ रथ। द्रोण इस बात से आश्वस्त हो जाते है कि वह
अर्जुन ही है। कौरवों की सेना को अपशकुन दिखाई देते हैं।-(वही, अध्याय-46)
- दुर्योधन सैनिकों को प्रोत्साहित करता है, जो द्रोण के यह कहने पर भयभीत हो
गए थे कि वह अर्जुन है। द्रोण के प्रति कर्ण की भर्त्सना और दुर्योधन को यह सुझाव
कि द्रोण को मुख्य सेनापति के पद से हटा दिया जाए।-(वही, अध्याय-47)
- कर्ण ने गर्व से यह घोषित किया और प्रतिज्ञा की कि वह अर्जुन को परास्त
कर देगा।-(वही, अध्याय-48)
- कृपाचार्य ने कर्ण को आत्मश्लाघी बनने और गर्व दिखाने पर चेतावनी दी।
शास्त्रें द्वारा युद्ध को बुरा माना गया है।-(वही, अध्याय-49)
- अश्वत्थामा कर्ण और दुर्योधन की भर्त्सना करता है, क्योंकि उन्होंने द्रोण की
झूठी निंदा की है।-(वही, अध्याय-50)
- अश्वत्थामा ने कर्ण और दुर्योधन को अपशब्द कहे, क्योंकि उन्होंने द्रोण की निंदा
की। कर्ण ने उत्तर दिया, ‘अंततोगत्वा मैं केवल सूत हूं।’ परंतु अर्जुन ने उसी प्रकार दुर्व्यवहार
किया है, जिस प्रकार राम ने बाली के साथ किया था।-(वही, अध्याय-50)
- भीष्म, द्रोण और कृप द्वारा अश्वत्थामा को चुप करा दिया गया तथा दुर्योधन
और कर्ण ने द्रोण से क्षमा याचना की।-(वही, अध्याय-51)
- भीष्म का निर्णय कि पांडवों ने अपने बनवास के 13 वर्ष पूरे कर लिए
हैं।-(वही, अध्याय-52)
- अर्जुन ने कौरवों की सेना को परास्त कर दिया।-(वही, अध्याय-53)
- अर्जुन कर्ण के भ्राता को पराजित करता है। अर्जुन, कर्ण को हराता है और
कर्ण भाग जाता है।-(वही, अध्याय-54)
- अर्जुन कौरवों की सेना का विनाश कर देता है तथा कृपाचार्य के रथ का विध्वंस
कर देता है।-(वही, अध्याय-55)
- देवता लोग आकाश में आ गए और उन्होंने अर्जुन तथा कौरवों की सेना के
बीच घमासान युद्ध देखा। -(वही, अध्याय-56)
- कृप और अर्जुन के मध्य युद्ध और कृप का युद्ध के मैदान से भाग जाना।-(वही,
अध्याय-57)
- द्रोण और अर्जुन के मध्य युद्ध और द्रोण का युद्ध के मैदान से भाग जाना।-(वही,
अध्याय-58)
- अश्वत्थामा और अर्जुन के मध्य युद्ध।-(वही, अध्याय-59)
- कर्ण और अर्जुन के मध्य युद्ध।-(वही, अध्याय-60)
- अर्जुन द्वारा भीष्म पर आक्रमण।-(वही, अध्याय-61)
- अर्जुन कौरवों के सैनिकों को मौत के घाट उतारता है।-(वही, अध्याय-62)
- भीष्म की पराजय और उसका युद्ध के मैदान से पलायन।-(वही,
अध्याय-64)
- कौरवों के सैनिकों का मूर्छित हो जाना। भीष्म का यह कहना कि वे अपने गृह
को लौट जाएं।-(वही, अध्याय-66)
- कौरव सैनिक अभय से अर्जुन के समक्ष आत्म-समर्पण करते हुए। उत्तर और
अर्जुन विराट नगरी लौट आते हैं।-(वही, अध्याय-67)
- विराट अपनी राजधानी में प्रवेश करता है तथा प्रजा उसका सम्मान करती
है।-(वही, अध्याय-68)
- पांडव सम्राट की सभा में प्रवेश करते हैं।-(वही, अध्याय-69)
- अर्जुन अपने भाइयों का परिचय विराट से करवाता है।-(वही, अध्याय-71)
- अर्जुन के पु़त्र और विराट की पुत्री का विवाह।-(वही, अध्याय-72)
- उसके बाद पांडव विराट नगरी को छोड़ देते है और वे उपप्लव नगरी में रहने
लगते हैं।-(वही, अध्याय-72)
- इसके बाद अर्जुन अपने पुत्र अभिमन्यु, वासुदेव और यादव को अमृत देश से
लाता है।-(वही, अध्याय-72)
- युधिष्ठिर के मित्र सम्राट काशिराज और शल्य दो अक्षौहिणी सेनाओं के साथ
आते हैं। इसी प्रकार यज्ञसेन द्रुपदराज एक अक्षौहिणी सेना के साथ आता है। द्रौपदी के
सभी पुत्र अजिक्य, शिखंडी, धृष्टद्युम्न भी आ गए।-(वही, अध्याय-72)
उद्योग पर्व
- अभिमन्यु के विवाह के बाद यादव तथा पांडव सम्राट विराट की सभा में एकत्र
हुए। कृष्ण उन्हें संबोधित करते हैं कि भविष्य में क्या करना है। हमें वही करना चाहिए
जो कौरवों और पांडवों, दोनों के ही हित में हो। धर्म कुछ भी स्वीकार कर सकता
है। यहाँ तक कि एक गांव भी धर्म स्वीकार कर सकता है। यदि उसे दुर्योधन का पूरा
साम्राज्य भी दिया जाए तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगा। अभी तक पांडवों ने नीति का
पालन किया है। पंरन्तु यदि कौरव अनीति का पालन करते हैं, तो पांडवों को कौरवों का
नाश करने में कोई हिचक नहीं होगी। किसी को भी इस तथ्य से भयभीत नहीं होना
चाहिए कि पांडव अल्पसंख्यक हैं। उनके मित्र हैं जो उनकी सहायता करने आ जाएंगे।
हमें कौरवों की इच्छा का पता करना चाहिए। मेरा सुझाव है कि हमें दुर्योधन के पास
एक संदेशवाहक भेजना चाहिए और उससे यह कहा जाए कि वह अपने साम्राज्य का
एक भाग पांडवों को दे दे।-(वही, अध्याय-1)
- बलराम कृष्ण के सुझाव का समर्थन करता है, परंतु आगे कहता है कि यह धर्म
की भूल थी, जब कि वह जानता था कि वह शकुनि के हाथों से पराजित हो रहा है।
इसलिए कौरवों के साथ युद्ध न करके यह ठीक होगा कि संधि-वार्ता से जो कुछ भी
मिले, उसे प्राप्त करना चाहिए।-(वही, अध्याय-2)
- सात्यकी उठ खड़े हुए और उन्होंने बलराम की प्रवृत्ति की भर्त्सना की।-(वही,
अध्याय-3)
- द्रुपद ने सात्यकी का समर्थन किया। द्रुपद इस बात पर सहमत हो गए कि वह
अपने पुरोहित केा संदेशवाहक के रूप में भेजेंगे।-(वही, अध्याय-4)
- कृष्ण ने द्रुपद का समर्थन किया और वह द्वारका चले जाते हैं। द्रुपद और विराट
द्वारा आमंत्रित सभी सम्राट आ पहुंचते हैं। इसी प्रकार दुर्योधन द्वारा जिन सम्राटों को
आमंत्रित किया गया, वे भी पहुंच गए।-(वही, अध्याय-5)
- द्रुपद अपने पुरोहित को निर्देश देता है कि उसे सभा में किस प्रकार बोलना है
तथा इस मामले को सुलझाना है।-(वही, अध्याय-6)
- अर्जुन और दुर्योधन, दोनों ही द्वारका जाते हैं तथा युद्ध के लिए उनसे सहायता की
याचना करते हैं। उसने कहा कि वह उन दोनों की सहायता करेगा। मैं एक को अपनी
सेना दे सकता हूँ और दूसरे के साथ अकेला रह सकता हूँ। आप यह चुनें कि आपको
क्या चाहिए। दुर्योधन ने सेना को चुना। अर्जुन ने कृष्ण को चुना।-(वही, अध्याय-7)
- शल्य का बृहद् सेना के साथ पांडवों के पास आना। दुर्योधन उसे निम्न वर्ग का
मानता है। शल्य और पांडवों की बैठक। पांडव शल्य से निवेदन करते हैं कि युद्ध में
कर्ण को हतोत्साहित किया जाए। शल्य के साथ समझौता।-(वही, अध्याय-8)
- अध्याय-9.असंगत।
- अध्याय-10.असंगत।
- अध्याय-11.असंगत।
- अध्याय-12.असंगत।
- अध्याय-13.असंगत।
- अध्याय-14.असंगत।
- अध्याय-15.असंगत।
- अध्याय-16.असंगत।
- अध्याय-17.असंगत।
- अध्याय-18.असंगत।
- सात्यकी अपनी सेना सहित पांडवों के पास आता है और भागदत्ता दुर्योधन के
पास जाता है।-(वही, अध्याय-19)
- द्रुपद का पुरोहित कौरवों की सभा में प्रवेश करता है। पुरोहित ने कहा कि
पांडव कौरवों के कुकृत्यों को भूल जाने के लिए तैयार हैं और उनके साथ संधि करना
चाहते हैं। उसने बताया कि पांडवों के पास भारी सेना है फिर भी वे संधि करना चाहते
हैं।-(वही, अध्याय-20)
- भीष्म पुरोहित का समर्थन करता है। कर्ण आपत्ति करता है। भीष्म और कर्ण
के बीच वाद-विवाद। धृतराष्ट्र सुझाव देता है कि संजय को उनकी ओर से समझौता
करने के लिए भेजा जाए।-(वही, अध्याय-21)
- धृतराष्ट्र संजय को पांडवों के पास भेजता है और उससे कहता है कि इस
अवसर पर जो भी उचित समझो, वही कहो जिससे दोनों के बीच शत्रुता न बढ़े।-(वही,
अध्याय-22)
- संजय का पांडवों के पास जाना।-(वही, अध्याय-23)
- संजय और युधिष्ठिर के बीच बातचीत।-(वही, अध्याय-24)
- संजय युद्ध की निंदा करता है।-(वही, अध्याय-25)
- धर्म का कहना है, ‘मैं समझौता करने के लिए तैयार हूँ, यदि कौरव हमारे
इंद्रप्रस्थ साम्राजय को हमें वापस कर दें।’-(वही, अध्याय-26)
- गुरुजन का वध करना और साम्राज्य को प्राप्त करना अधर्म है। यदि कौरव
बिना युद्ध के किसी साम्राज्य को वापस करने से इंकार करते हैं तो यह अच्छा रहेगा
कि आप वृष्णि और अंधक के साम्राज्य में भिक्षा मांगकर जीवनयापन करें।-(वही,
अध्याय-27)
- इस अध्याय में कहा गया है कि क्या संजय उन्हें धर्म के विरुद्ध कार्य करने
अथवा धर्म के विरुद्ध किए गए कार्य का दोषी मानता है। संजय कहता है कि ‘मैं स्वधर्म
अथवा क्षमा को चाहता हूँ।’-(वही, अध्याय-28)
- कृष्ण संजय से कहते हैं कि युद्ध क्यों वैध है और संजय को बताते हैं कि
वह धृतराष्ट्र को उनके विचारों से अवगत करा दें।-(वही, अध्याय-29)
- संजय कौरवों के पास आता है और दुर्याेधन को युद्ध करने के लिए कहता
है। दुर्योधन को या तो इंद्रप्रस्थ पांडवों को वापस कर देना चाहिए अथवा युद्ध के लिए
तैयार रहना चाहिए।-(वही, अध्याय-30)
- संजय दुर्योधन से कहता है कि वह स्वयं जीवित रहे और उन्हें जीवित रहने
दे। यदि वह इंद्रप्रस्थ वापस नहीं कर सकता तो उन्हें कम से कम पांच गांव दे देने
चाहिए।-(वही, अध्याय-31)
- संजय रात्रि में धृतराष्ट्र के पास पहुंचता है और उससे कहता है कि मैं प्रातः
धर्म के संदेश को बताऊंगा।-(वही, अध्याय-32)
- धृतराष्ट्र बेचैन होता है और उस संदेश के बारे में जानना चाहता है जो संजय
लाया है। इसलिए वह संजय को शीघ्र बुलाता है। संजय उनका संदेश देता है और
कहता है कि साम्राज्य का उनका भाग उन्हें देकर समझाैता कर लिया जाए।-(वही,
अध्याय-33)
- धृतराष्ट्र विदुर को आंमत्रित करता है और उसका परामर्श मांगता है। उसका परामर्श
यह हैं कि पांडवों को उनके साम्राज्य का भाग दे दिया जाए।-(वही, अध्याय-34)
- अध्याय-35.असंगत।
- असंगत । विदुर का कहना है कि दोनों पक्षों को मित्र होना चाहिए।-(वही,
अध्याय-36)
- अध्याय-37.असंगत।
- अध्याय-38.असंगत।
- धृतराष्ट्र विदुर से कहता है कि मैं दुर्योधन को छोड़ नहीं सकता, यद्यपि वह
बुरा है।-(वही, अध्याय-39)
- विदुर चातुर्वर्ण्य का वर्णन करता है।-(वही, अध्याय-40)
- धृतराष्ट्र विदुर से बह्मा के बारे में पूछता है। वह कहता है कि मैं नहीं बता
सकता, क्योंकि मैं शूद्र हूं। इसके बाद सनत सुजाता आता है।-(वही, अध्याय-41)
- ब्रह्म विद्या के बारे में धृतराष्ट्र और सनत सुजाता में परस्पर वार्तालाप होता
है।-(वही, अध्याय-42)
- सनत सुजाता और धृतराष्ट्र के बीच एक ही विषय पर विचार-विमर्श किया
जाता है।-(वही, अध्याय-43)
- ब्रह्म विद्या पर सनत सुजाता के विचार।-(वही, अध्याय-44)
- सनत सुजाता योग का उपदेश देता है।-(वही, अध्याय-45)
- सनत सुजाता आत्मा के बारे में बताता है।-(वही, अध्याय-46)
- कौरवों संजय द्वारा लाए गए संदेश को सुनने के लिए सभा में आते है।-(वही,
अध्याय-47)
- संजय संदेश सुनाता है। (संदेश का, विशेषकर वह अंश, जो अर्जुन ने कहा
था)।-(वही, अध्याय-48)
- भीष्म द्वारा कृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा। कर्ण क्रोधित हो उठता है। द्रोण भीष्म
का समर्थन करता है और समझौता करने का परामर्श देता है।-(वही, अध्याय-49)
- धृतराष्ट्र संजय से मालूम करता है कि पांडवों और उनके कौन-कौन मित्र
हैं तथा उनकी कितनी शक्ति है? संजय उलाहना देता है तथा उत्तर देता है।-(वही,
अध्याय-50)
- धृतराष्ट्र के पराक्रम का विचार करता है और चिंतित होता है।-(वही,
अध्याय-51)
- धृतराष्ट्र अर्जुन के पराक्रम का विचार करता है और चिंतित होता है।-(वही,
विराट पर्व और उद्योग पर्व की विश्लेषणात्मक टिप्पणियां
274 बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाघ्मय
अध्याय-52)
- धृतराष्ट्र धर्म और उसके मित्रें के पराक्रम का विचार करता है। वह अपने पुत्रें
से कहता है कि वे पांडवों के साथ संधि कर लें।-(वही, अध्याय-53)
- संजय कौरवों की पराजय की भविष्यवाणी करता हेै।-(वही, अध्याय-54)
- दुर्योधन कहता है कि पांडव हमें पराजित नहीं कर सकते, क्योंकि हमारा
सैन्य-बल अधिक है।-(वही, अध्याय-55)
- संजय पांडवों द्वारा सेना की सुव्यवस्था का वर्णन करता है।-(वही,
अध्याय-56)
- संजय यह बताता है कि पांडवों ने कौरवों के योद्धाओं को मौत के घाट उतारने
की किस प्रकार की योजना तैयार की है। दुर्योधन कहता है कि वह पांडवों से भयभीत
नहीं है कि वे कौरवों को पराजित कर देंगे। कौरवों के पास अधिक सेना है।-(वही,
अध्याय-57)
- धृतराष्ट्र दुर्योधन से कहता है कि वह युद्ध न करे। दुर्योधन शपथ लेता है कि
वह युद्ध से विमुख न होगा। धृतराष्ट्र रो पड़ता है।-(वही, अध्याय-58)
- धृतराष्ट्र संजय से कहता है कि वह उसे बताए कि कृष्ण और अर्जुन के बीच
क्या वार्तालाप हुआ?-(वही, अध्याय-59)
- धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बताया कि देवता पांडवों की सहायता करेंगे और कौरवों
का विनाश कर देंगे।-(वही, अध्याय-60)
- दुर्योधन कहता है कि वह इससे भयभीत नहीं है।-(वही, अध्याय-61)
- कर्ण कहता है कि वह स्वयं अर्जुन का वद्य करने में सक्षम है।-(वही,
अध्याय-62)
- दुर्योधन कहता है कि वह कर्ण पर निर्भर होकर युद्ध कर रहा है और उसे
भीष्म, द्रोण आदि पर उतना विश्वास नहीं है।-(वही, अध्याय-63)
- विदुर दुर्योधन से कहता है कि शत्रुता त्याग दे।-(वही, अध्याय-64)
- धृतराष्ट्र दुर्योधन की भर्त्सना करता है।-(वही, अध्याय-65)
- संजय अर्जुन का संदेश धृतराष्ट्र को बताता है।-(वही, अध्याय-66)
- जो सम्राट कौरवों के सभागार में एकत्र हुए थे, से अपने-अपने गृहों को लौट
गए। व्यास और गांधारी विदुर के साथ आते है। व्यास ने संजय से कहा कि वह धृतराष्ट्र
को वह सभी बताए, जो उसे कृष्ण के वास्तविक स्वरूप और अर्जुन के बारे में ज्ञात
है।-(वही, अध्याय-67)
- संजय धृतराष्ट्र को कृष्ण के बारे में बताते हैं।-(वही, अध्याय-68)
- धृतराष्ट्र दुर्योधन से कहता है कि वह कृष्ण के आगे आत्म-समर्पण कर दे।
दुर्योधन इंकार करता है। गांधारी दुर्योधन से अपशब्द कहती है।-(वही, अध्याय-69)
- कृष्ण के अलग-अलग नाम और उनका मूल।-(वही, अध्याय-70)
- धृतराष्ट्र कृष्ण को समर्पित हो जाता है।-(वही, अध्याय-71)
- युधिष्ठिर और कृष्ण में संवाद। युधिष्ठिर बताता है कि संजय ने उससे कहा
है कि धृतराष्ट्र पर विश्वास न किया जाए। युधिष्ठिर संपत्ति के महत्व पर बल देता है।
क्षात्रधर्म के बारे में बताता है तथा उसके पालन की आवश्कता पर बल देता है। कृष्ण
स्वयं कौरवों के पास जाने का सुझाव देता है। युधिष्ठिर को वह विचार अच्छा नहीं लगता,
परंतु वह यह कहता है कि कृष्ण जो कहते हैं, वही सर्वोत्तम है।-(वही, अध्याय-72)
- कृष्ण धर्म को वह रहस्य बताते हैं, जो उनके मन में है। कृष्ण धर्म से कहते
हैं कि कौरवों के साथ मधुर वचन कहने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे अन्य कई कारण
हैं कि आपको कौरवों के साथ समझौता क्यों नहीं करना चाहिए। इस बात पर बल देना
है कि कौरवों ने द्रौपदी को कितना अपमानित किया? इसलिए हे धर्म! उनको मारने में
न हिचकिचाओ।-(वही, अध्याय-73)
- भीम कृष्ण से कहता है कि कौरवों के साथ सौहार्द्र से बातचीत की जाए।-(वही,
अध्याय-74)
- कृष्ण भीम का उपहास करते हैं।-(वही, अध्याय-75)
- भीम युद्ध करने के लिए अपना मन पक्का कर लेता है।-(वही,
अध्याय-76)
- कृष्ण भीम को दैव और पौरुष का अंतर समझाते हैं।-(वही, अध्याय-77)
- अर्जुन कृष्ण से कहता है कि ‘क्षमा’ अर्थात् युद्ध न करने का विचार किया
जाए।-(वही, अध्याय-78)
- कृष्ण का अर्जुन से संवाद। मैं शांति के समझौते के लिए प्रयत्न करुंगा। यदि
वह समझौता संभव नहीं हो तो युद्ध करने के लिए तैयार रहना। मैं दुर्योधन को धर्म की
उस सहमति के बारे में नहीं बताऊंगा कि वह पांच गांव स्वीकार करने के लिए सहमत
है।-(वही, अध्याय-79)
- नकुल कृष्ण से कहता है, जो सर्वश्रेष्ठ हो, वही किया जाए।-(वही,
अध्याय-80)
- सहदेव कृष्ण से मिलता है तथा कहता है कि कौरवों के साथ युद्ध किया जाए।
सात्यकी ने कहा कि यहां जितने भी योद्धा एकत्र हुए हैं, वे सभी सहदेव के विचार से
सहमत हैं।-(वही, अध्याय-81)
- द्रोपदी कृष्ण से भेंट करती है और उन्हें बताती है कि वह तब तक संतुष्ट नहीं
होगी, जब तक दुर्योधन का विनाश नहीं हो जाता। कृष्ण उसे आश्वासन देते हैं।-(वही,
अध्याय-82)
- अर्जुन और कृष्ण के बीच अंतिम बैठक होती है। अर्जुन क्षमा, अर्थात् शांति के
लिए भरसक प्रयत्न करता है। युधिष्ठिर कृष्ण से कहते हैं कि कुंती को आश्वासन दिया
जाए। कृष्ण अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए जाते हैं।-(वही, अध्याय-83)
- कृष्ण जब हस्तिनापुर जाते हैं, तो मार्ग में उन्हें अच्छे और बुरे शकुन होते दिखाई
पड़ते हैं।-(वही, अध्याय-84)
- दुर्योधन कृष्ण के लिए हस्तिनापुर की यात्र में स्थान-स्थान पार विश्रामालय
बनवाते हैं।-(वही, अध्याय-85)
- धृतराष्ट्र विदुर से पूछते हैं कि कृष्ण को कौन-कौन से उपहार दिए जाएं।-(वही,
अध्याय-86)
- विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं कि वह कृष्ण को पांडवों से अलग नहीं मानते।-(वही,
अध्याय-87)
- दुर्योधन का कहना है कि कृष्ण पूज्य हैं। परन्तु यह समय नहीं है कि उनकी
पूजा की जाए। भीष्म दुर्योधन से कहते हैं कि पांडवों के साथ समझौता कर लिया जाए।
दुर्योधन की इच्छा कृष्ण से साक्षात्कार करने की है। भीष्म दुर्योधन का घोर विरोध
करता है।-(वही, अध्याय-88)
- कृष्ण हस्तिनापुर में प्रवेश करते हैं। धृतराष्ट्र से भेंट। वे विदुर के यहां ठहरते
हैं।-(वही, अध्याय-89)
- कुंती और कृष्ण की भेंट । कुंती अपने दुःख से आहत है, कृष्ण उसको सांत्वना
देते हैं। कुंती कृष्ण से कहती हैः (1) मेरे पुत्रें से कहो कि वे अपने साम्राज्य के लिए
युद्ध करें। (2) मैं द्रौपदी के लिए दुःखी हूं।-(वही, अध्याय-90)
- कौरव कृष्ण को भोजन करने के लिए बुलाते हैं। कृष्ण इंकार कर देते हैं।
कृष्ण विदुर के साथ भोजन करते हैं।
- विदुर कृष्ण से कहता है कि वह नहीं चाहता कि कृष्ण कौरवों के बीच
जाएं।-(वही, अध्याय-92)
- कृष्ण विदुर को बताते हैं कि कौरव उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते
हैं। मैं केवल यहां इसलिए आया हूं क्योंकि क्षमा, अर्थात् शांति पुण्यकार्य है।-(वही,
अध्याय-93)
- कृष्ण कौरवों के सभागार में प्रवेश करते हैं।-(वही, अध्याय-94)
- कृष्ण सभा को संबोधित करते हैं। उन्होंने कौरवों से कहा कि पांडव शांति
और युद्ध, दोनों के लिए ही तैयार हैं। उन्हें उनका आधा साम्राज्य दे दिया जाए।-(वही,
अध्याय-95)
- जामदग्नि दंभ के विरोध में एक कहानी कहता है।-(वही, अध्याय-96)
- मातलि आख्यान। (वही, अध्याय-97.105)
- नारद का दुर्योधन को परामर्श।-(वही, अध्याय-106)
- गाल्व आख्यान।-(वही, अध्याय-106.123)
- धृतराष्ट्र कृष्ण से कहता है कि वह दुर्योधन को परामर्श दे।-(वही,
अध्याय-124)
- भीष्म का दुर्योधन को परामर्श। द्रोण का समर्थन। विदुर दुर्योधन की भर्त्सना
करते हैं। धृतराष्ट्र का परामर्श।-(वही, अध्याय-125)
- भीष्म और द्रोण दूसरी बार दुर्योधन को समझाते हैं।-(वही, अध्याय-126)
- दुर्योधन यह घोषणा करता है कि पांडवों को कुछ भी नहीं दिया जाएगा।-(वही,
अध्याय-127)
- कृष्ण दुर्योधन की भर्त्सना करते हैं। दुर्योधन सभा त्याग देता है। दुःशासन का
भाषण। कृष्ण भीष्म को चेतावनी देते हैं।-(वही, अध्याय-128)
- धृतराष्ट्र विदुर से कहते हैं कि गांधारी को सभागार में लाया जाए। दुर्योधन
वापस आता है। गांधारी उससे कहती हैं कि साम्राज्य का आधा भाग पांडवों को दिया
जाए।-(वही, अध्याय-129)
- दुर्योधन सभा का त्याग करता है। उसका इरादा है कि कृष्ण का वध कर
दिया जाए। सात्यकि धृतराष्ट्र को इस गुप्त कुचक्र की सूचना देता है। कृष्ण का भाषण्
श। धृतराष्ट्र दुर्योधन को सभा में फिर बुलाता है, उसे चेतावनी देता है। विदुर द्वारा
भर्त्सना।-(वही, अध्याय-130)
- भगवान का विश्व रूप दर्शन, धृतराष्ट्र को दिव्य चक्षु प्राप्त होते हैं। कृष्ण
सभा छोड़ देते हैं और कुंती के पास जाते हैं।-(वही, अध्याय-131)
- कृष्ण कुंती से कहते हैं कि सभा में क्या-क्या हुआ। कुंती कृष्ण से कहती
है कि क्षत्रियों के लिए युद्ध अनिवार्य है। इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है।-(वही
अध्याय-132)
- कुंती अपने मत को पुष्ट करने के लिए कृष्ण से विदुला की कहानी कहती
है।-(वही, अध्याय-133)
- विदुला की कहानी।-(वही, अध्याय-134)
- विदुला की कहानी।-(वही, अध्याय-135)
- विदुला की कहानी।-(वही, अध्याय-136)
- कुंती की अपने पुत्रें को सलाह। कृष्ण का कर्ण को परामर्श और कृष्ण का
उपप्लव्य नगरी के लिए प्रस्थान।-(वही, अध्याय-137)
- भीष्म और द्रोण द्वारा दुर्योधन को परामर्श।-(वही, अध्याय-138)
- भीष्म का दुःख। द्रोण फिर दुर्योधन को परामर्श देता है।-(वही,
अध्याय-139)
- धृतराष्ट्र और संजय के मध्य वार्तालाप। कर्ण को कृष्ण परामर्श देता है।-(वही,
अध्याय-140)
- कर्ण का कृष्ण को उत्तर।-(वही, अध्याय-141)
- कृष्ण का कर्ण को आश्वासन, पांडवों की विजय होगी।-(वही,
अध्याय-142)
- कर्ण को अपशकुन होते हैं। पांडवों को समाप्त करने का उसका दृढ़ निश्चय।
उसका गृह को प्रस्थान।-(वही, अध्याय-143)
- विदुर और पृथु के मध्य वार्तालाप। उसे पता चलता है कि दुर्योधन युद्ध करने
के लिए दृढ़ है। कुंती का दुःख। कर्ण को उसके मूल के बारे में बताने की इच्छा। कुंती
नदी के किनारे जाती है।-(वही, अध्याय-144)
- कुंती कर्ण से भेंट करती है। वह कर्ण को उसके मूल के बारे में बताती है
तथा उससे निवेदन करती है कि वह पांडवों के साथ हो जाए।-(वही, अध्याय-145)
- सूर्य कुंती से प्रस्ताव का समर्थन करता है। कर्ण उसको अस्वीकार कर देता है
अर्जुन को छोड़कर सभी पांडवों को बचाने का वचन देता है।-(वही, अध्याय-146)
- कृष्ण पांडवों के पास जाते हैं। युधिष्ठिर पूछता है कि कौरव-सभा में क्या-क्या
हुआ।-(वही, अध्याय-147)
- कृष्ण पूरी कहानी सुनाता है।-(वही, अध्याय-147, 148, 149, 150)
- पांडवों की सेना के सेनापति की नियुक्ति। कुरुक्षेत्र में पांडवों की सेना का
प्रवेश।-(वही, अध्याय-151)
- सेना को रसद पहुंचाने के लिए पांडवों की व्यवस्था के विवरण।-(वही,
अध्याय-152)
- कौरवों की ओर प्रबंध। हमारी सेना को कल प्रातः ही कुरुक्षेत्र में प्रवेश करना
चाहिए।-(वही, अध्याय-153)
- धर्म को यह भय है कि वह युद्ध करने के लिए गया तो वह अपने नैतिक
औचित्य से गिर जाएगा। कृष्ण ने उसे संतुष्ट किया। अर्जुन ने कहा कि तुम्हें युद्ध करना
चाहिए।-(वही, अध्याय-154)
- दुर्योधन की सेना का विवरण।-(वही, अध्याय-155)
- भीष्म को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया।-(वही, अध्याय-156)
कर्ण इससे नाराज होते हैं। वह निर्णय करता है कि भीष्म की मृत्यु होने तक वह
कौरव सेना की बागडोर नहीं संभालेगा।
- कृष्ण पांडवों की सेना के सेनापति बन जाते हैं।-(वही, अध्याय-157)
- बलराम तीर्थयात्र पर यह कहकर चले जाते हैं कि मैं कौरवों को नष्ट होते
नहीं देखना चाहता।
- रुक्मिणी को न तो अर्जुन चाहता है और न दुर्योधन चाहता है अतः वह घर
चली जाती है।-(वही, अध्याय-158)
- संजय और धृतराष्ट्र के बीच वार्तालाप। वह धृतराष्ट्र को दोषी ठहराता है।-(वही,
अध्याय-159)
- पांडवों की सेना हिरण्यवती नदी के किनारे ठहरी हुई है। दुर्योधन पांडवों को
आक्रमण के लिए ललकारता है और कृष्ण कहते हैं कि यदि तुम युद्ध कर सकते हो
तो युद्ध करो।-(वही, अध्याय-160)
- उल्का संदेश लेकर जाता है।-(वही, अध्याय-164)
- क्रोधित पांडव गुस्से से भरे संदेश भेजते हैं। वे कल से युद्ध आरंभ करने का
आदेश देते हैं।-(वही, अध्याय-162)