जातिप्रथा – उन्मूलन
और
महात्मा गांधी को दिया गया उत्तर
सत्य को सत्य और असत्य को असत्य के रूप में जानो
– बु)
जो तर्क नहीं करेगा, वह धार्मांधा है
जो तर्क नहीं कर सकता, वह मुर्ख है
जो तर्क करने का साहस नहीं करता, वह दास है
– एच- ड्रुमोंड
1944 के तीसरे संस्करण से मुद्रित
जातिप्रथा-उन्मूलन
द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना
लाहौर के जातपांत तोड़क मंडल के लिए जो भाषण मैंने तैयार किया था, उसका हिन्दू
जनता द्वारा अपेक्षाकृत भारी स्वागत किया गया। यह भाषण मैंने मुख्य रूप से इन्हीं लोगों
के लिए तैयार किया था। एक हजार पांच सौ प्रतियों का अंग्रेजी संस्करण इसके प्रकाशन
के दो महीनों के भीतर ही समाप्त हो गया। इसका गुजराती और तमिल में अनुवाद किया
गया। अब इस भाषण का मराठी, हिन्दी पंजाबी और मलयालम में अनुवाद किया जा रहा
है। अंग्रेजी पाठ की मांग अभी भी निरंतर बनी हुई है। इसलिए इस मांग को पूरा करने
के लिए दूसरा संस्करण निकालना आवश्यक हो गया है। इतिहास की दृष्टि और अनुरोधा
को धयान में रखते हुए मैंने निबंधा के मौलिक स्वरूप, अर्थात् भाषण के स्वरूप को यथावत्
बनाए रखा, हालांकि मुझसे कहा गया था कि मैं इसे सीधाी वर्णनात्मक शैली में नया रूप
दूं। इस संस्करण में मैंने दो परिशिष्ट जोड़े हैं। परिशिष्ट प् में मैंने ‘हरिजन‘ में अपने भाषण
की समीक्षा के रूप में श्री गांधाी द्वारा लिखे गए दो लेख और जातपांत तोड़क मंडल के
एक सदस्य श्री संत राम को लिखा गया उनका प= संकलित किया है। परिशिष्ट प्प् में
मैंने परिशिष्ट प् में संकलित श्री गांधाी के लेखों के उत्तर में अपने विचारों को प्रकाशित
किया है। श्री गांधाी के अलावा अन्य अनेक लोगों ने मेरे उन विचारों की तीखी आलोचना
की है जो मैंने अपने भाषण में व्यक्त किए थे। किन्तु मैंने यह महसूस किया है कि इस
प्रकार की प्रतिकूल टिप्पणियों पर धयान देते हुए मैं अपने को केवल श्री गांधाी तक ही
सीमित रखूं। मेरे ऐसा करने का कारण यह नहीं है कि इनकी बात में इतना वजन है कि
इसका उत्तर दिया जाना चाहिए, बल्कि कारण यह है कि अनेक हिन्दुओं की दृष्टि में श्री
गांधाी एक आप्त पुरुष हैं और इतने महान् हैं कि जब वे किसी बात पर कुछ कहने लगते
हैं तो यह आशा की जाती है कि सब बहस खत्म हो जानी चाहिए और इस पर किसी
को कुछ भी नहीं बोलना चाहिए, किन्तु संसार ऐसे विद्रोहियों का _णी है, जिन्होंने धार्म
गुरुओं के मुंह पर ही तर्क करने का साहस किया है और जोर देकर कहा है कि आप जो
कहते हैं, वही सही नहीं है। मुझे ऐसा श्रेय नहीं चाहिए, जो प्रत्येक प्रगतिशील समाज को
अपने विद्रोहियों को देना चाहिए। यदि मैं हिन्दुओं को इस बात का अहसास करा दूं कि
वे भारत के ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमें दोष व्याप्त हैं और उनके दोषों से अन्य भारतीयों की
खुशहाली और प्रगति को खतरा उत्पन्न हो रहा है, तो मुझे संतोष होगा।
भीमराव अम्बेडकर
28
तीसरे संस्करण की प्रस्तावना
इस निबंधा का दूसरा संस्करण 1937 में प्रकाशित हुआ था और बहुत थोड़े ही
समय में वह बिक गया। काफ़ी समय से इसके नए संस्करण की मांग आ रही थी। मेरी
मंशा थी कि मैं इस निबंधा को नया रूप दूं और इसमें अपने एक अन्य निबंधा ‘भारत में
जातियां, उनका उद्गम और उनकी संरचना‘ को भी शामिल कर दूं। मेरा यह निबंधा
‘इंडियन एंटीक्वेरी‘ जरनल के मई 1917 के अंक में प्रकाशित हुआ था। किन्तु मुझे
समय नहीं मिल सका और ऐसा करने की संभावना भी बहुत कम है और चूंकि जनता
भी लगातार इसकी मांग कर रही है, इसलिए प्रस्तुत संस्करण को इसके दूसरे संस्करण
के मा= पुनर्मुद्रण के रूप में ही प्रकाशित करके ही मुझे संतोष है।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यह निबंधा इतना अधिाक लोकप्रिय रहा। मुझे
आशा है कि यह अपने अपेक्षित उद्देश्य की पूर्ति कर सकेगा।
भीमराव अम्बेडकर
22, पृथ्वीराज रोड,
नई दिल्ली,
1 दिसम्बर, 1944