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अध्याय – 5 – क्या जाति प्रथा रक्त की शुद्धता को बचाती है ?

कुछ लोगों ने जातिप्रथा के समर्थन में जैविक दलील दी है। कहा जाता है कि

जाति का उद्देश्य प्रजाति की शु)ता और रक्त की शु)ता को परिरक्षित रखना है। अब

नृजाति वैज्ञानिकों का मत है कि विशु) प्रजाति के लोग कहीं नहीं हैं और संसार के

सब भागों में सभी जातियों का मिश्रण है, विशेषकर भारत के लोगों के मामले में तो यह

स्थिति आवश्यक है। श्री डी- आर- भंडारकर ने ‘‘हिन्दू जनसंख्या में विदेशी तत्व‘‘ द्धफ़ोरन

एलीमेंट्स इन द हिन्दू पॉपूलेशनऋ विषय पर अपने प्रलेख में कहा है कि ‘‘भारत में शायद

ही कोई ऐसा वर्ग या जाति होगी, जिसमें विदेशी वंश का मिश्रण न हो। न केवल राजपूत

और मराठा जैसी यो)ा जातियों में विदेशी रक्त का मिश्रण है, बल्कि ब्राह्मणों में भी है,

जो इस सुखद भ्रांति में हैं कि वे सभी विदेशी तत्वों से मुक्त हैं।‘‘ जातिप्रथा के संबंधा में

यह नहीं कहा जा सकता कि उनका विकास प्रजातियों के मिश्रण को रोकने अथवा रक्त

की शु)ता को बनाए रखने के साधान के रूप में हुआ है। वास्तव में, जातिप्रथा का जन्म

भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में

हुआ। यह मानना कि जातियों की विभिन्नताएं अथवा प्रजाति की वास्तविक विभिन्नताएं

और विभिन्न जातियों के संबंधा में यह मानना कि वे इतनी ही अधिाक विभिन्न प्रजातियां

थीं, तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है।

पंजाब के ब्राह्मणों और मद्रास के ब्राह्मणों में क्या जातीय संबंधा है? बंगाल के अछूतों

और मद्रास के अछूतों में क्या जातीय संबंधा है? पंजाब के ब्राह्मणों और पंजाब के चमारों

में क्या जातीय अंतर है? मद्रास के ब्राह्मणों और मद्रास के पेरिया में क्या जातीय अंतर

है? जाति की दृष्टि से पंजाब का ब्राह्मण उसी प्रजाति का है, जिसका पंजाब का चमार

है, और मद्रास के ब्राह्मण की वही जाति है जो मद्रास के पेरिया की। जातिप्रथा मानववंश या प्रजाति के विभाजन के निर्धाारण नहीं करती। जातिप्रथा तो एक ही प्रजाति के

लोगों का सामाजिक विभाजन है। यदि यह मान लिया जाए कि जातिप्रथा मानव प्रजाति

जातिप्रथा-उन्मूलन

56 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय

को विभाजित कर देती है तो यह भी सवाल किया जा सकता है कि अगर भारत में

अलग-अलग जाति और रक्त के समुदायों को अंतर्विवाह करने की अनुमति दी तो विभिन्न

प्रजातियों और परिवारों को एक-दूसरे में समागम से क्या हानि होगी? इसमें संदेह नहीं

कि जहां तक आदमियों और जानवरों का संबंधा है, उनमें इतना गहरा अंतर है कि विज्ञान

इन्हें दो अलग-अलग जीव-रूपों की मान्यता देता है, लेकिन जो वैज्ञानिक प्रजातियों की

शु)ता द्धमिश्रण-हीनताऋ में विश्वास करते हैं, वे भी दावे के साथ यह नहीं कहते हैं कि

अलग-अलग प्रजाति के लोग, अलग-अलग किस्म के होते हैं। वे सभी एक ही नस्ल की

अलग-अलग किस्मों के होते हैं। वे एक-दूसरे की उप-जातियों में विवाह करके संतान

उत्पन्न कर सकते हैं – ऐसी संतानें, जो स्वयं भी आगे संतान उत्पन्न करने में समर्थ

होंगी, और जो बंधया न होंगी। जातिप्रथा के पक्ष में आनुवंशिकता और सुजननिकी की

तर्कहीन बातें बताई जाती हैं। अगर जातिप्रथा सुजननिकी द्धयूरनिक्सऋ के मूलभूत सि)ांत

के अनुकूल होती तो इसमें किसी को आपत्ति न होती, क्योंकि किसी को भी उत्तम व्यक्तियों

द्वारा समागम से जाति की किस्म में सुधाार लाने में आपत्ति नहीं हो सकती है। लेकिन

यह समझना मुश्किल है कि जातिप्रथा के कारण उत्तम सि्=यों और पुरुषों में सही समागम

किस प्रकार सुनिश्चित होता है। जातिप्रथा नकारात्मक तथ्य है। यह केवल अलग-अलग

जातियों के लोगों को आपस में अंतर्विवाह का निषेधा करती है। यह ऐसा सकारात्मक उपाय

नहीं है, जिससे एक ही जाति के दो उत्तम नर-नारी आपस में विवाह कर सकें। यदि

जाति का उद्गम सुजननिकी के सि)ांत पर आधाारित है, तो उप-जातियों का प्रादुर्भाव

भी सुजननिकी के आधाार पर ही होना चाहिए। लेकिन क्या कोई गंभीरतापूर्वक यह कह

सकता है कि उप-जातियों का उद्गम सुजननिकी के कारण हुआ है? मैं समझता हूं कि

स्पष्ट कारणों से ऐसा मानना बहुत ही असंगत है। अगर जाति का आशय प्रजाति या नस्ल

से है, तो उप-जातियों में पाए जाने वाले अंतर को प्रजातीय अंतर नहीं माना जा सकता

है, क्योंकि तब उप-जातियां भी उसी परिकल्पना के आधाार पर उसी एक मूल नस्ल की

उप-खंड होंगी। इससे स्पष्ट है कि उप-जातियों में आपस में रोटी-बेटी के व्यवहार पर

रोक लगाने का उद्देश्य प्रजाति या रक्त की शु)ता बनाए रखना नहीं हो सकता। फि़र

यदि उप-जातियों का उद्गम सुजननिकी ही हो सकता, तो इस कथन में कोई दम नहीं

है कि प्रजाति का उद्गम सुजननिकी है। फि़र अगर यह मान भी लिया जाए कि जाति

का उद्गम सुजननिकी के प्रयोजन से है, तो अंतर्विवाह संबंधाी निषेधा समझ में आ जाता

है। लेकिन विभिन्न जातियों के बीच और विभिन्न उप-जातियों के बीच खान-पान पर भी

निषेधााज्ञा लगाने का क्या प्रयोजन है? आपस में खान-पान से तो रक्त पर असर नहीं

पड़ता और इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि इससे प्रजाति या नस्ल सुधारेगी या

खराब होगी। इससे सि) है कि जाति का कोई भी वैज्ञानिक उद्गम कारण नहीं है

और जो इसे सुजननिकी के आधाार पर सही बताना चाहते हैं, वे विज्ञान का नाम लेकर

घोर अवैज्ञानिक विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। सुजननिकी को व्यावहारिक संभावना के रूप

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में तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक हमें आनुवंशिकता के नियमों का

पक्का ज्ञान न हो जाए। प्रो- बेटसन अपनी पुस्तक ‘मेंडेल्स प्रिंसिपल्स ऑफ़ हैरिडिटी‘ में

कहते हैं, ‘‘यदि संतान में बेहतर मानसिक गुण आए तो उसी के आधाार पर यह कहना

संभव नहीं है कि वे केवल किसी विशेष वंश-परंपरा के गुण के कारण ही आए हैं। हो

सकता है कि जो गुण संतान में आए हैं, या जो शारीरिक शक्ति उसमें अधिक मात्र में है,

वह अनेक कारणों के होने से घटित है, न केवल एक आनुवंशिक तत्व के उसके शरीर

में होने के कारण।‘‘ यदि यह तर्क दिया जाए कि जातिप्रथा सुजननिकी की परिकल्पना

का परिणाम था, तो उसका आशय वह होगा कि आज के हिन्दुओं के पूर्वज आनुवंशिकता

के विषय में उस ज्ञान से संपन्न थे, जो आधाुनिक वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। पेड़ की

जांच उसके फ़लों से की जानी चाहिए। अगर जाति सुजननिकी के आधाार पर होती, तो

उससे किस नस्ल के आदमी पैदा होने चाहिए थे? जहां तक शारीरिक क्षमता का संबंधा

है, उसमें हिन्दू प्रजाति सबसे घटिया किस्म द्धसी-3ऋ की है। वह छोटे आकार के बोनों

की जाति है, जिनका शारीरिक विकास अवरु) है और जिनमें ‘दम‘ नहीं है। भारत ऐसा

राष्ट्र है, जिसकी नब्बे प्रतिशत जनता सैनिक सेवा के लिए अयोग्य है। इससे स्पष्ट है

कि जातिप्रथा आधाुनिक वैज्ञानिकों की सुजननिकी की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।

जातिप्रथा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जो हिन्दू-समाज के ऐसे विकृत समुदाय की

झूठी शान और स्वार्थ की प्रतीक है, जो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार इतने समृ)

थे कि उन्होंने इस जातिप्रथा को प्रचलित किया और इस प्रथा को अपनी जोर-जबरदस्ती

के बल पर अपने से निचले तबके के लोगों पर लागू किया।