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अध्याय – 14 – हम स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित समाज चाहते हैं

अगर आप लोगों में से कुछ जातिप्रथा द्वारा उत्पन्न दुष्प्रभावों की इस ऊबने वाली

चर्चा सुनते-सुनते थक गए हैं, तो मुझे आश्चर्य न होगा। इसमें कोई नई बात नहीं है।

इसलिए अब मैं इस समस्या के रचनात्मक पहलू के बारे में कहना आरंभ करता हूं। आपसे

यह अवश्य पूछा जा सकता है कि अगर आप जाति के विरु) हैं, तो आपके विचार से

आदर्श समाज किसे कहा जा सकता है? अगर आप मुझसे पूछें तो मेरा आदर्श एक ऐसा

समाज होगा, जो स्वाधाीनता, समानता और भाईचारे पर आधाारित हो। और ऐसा क्यों न

हो? भाईचारे के विषय में क्या आपत्ति हो सकती है? मेरे विचार से तो कोई आपत्ति नहीं

हो सकती। आदर्श समाज गतिशील होना चाहिए। उसमें ऐसी भरपूर सरणियां होनी चाहिए

कि वह समाज के एक हिस्से में हुए परिवर्तन की सूचना अन्य हिस्सों को दे दें। आदर्श

समाज में अनेक प्रकार के हित होने चाहिए, जिन पर लोग सोच-समझकर विचार-विमर्श

करें और उनके बारे में एक-दूसरे को बताएं अौर सब उसमें हिस्सा लें। समाज में विभिन्न

लोगों के बीच संपर्क के ऐसे बहुविधा और निर्विवाद बिन्दु होने चाहिए, जहां साहचर्य या

संगठन के अन्य रूपों से भी संवाद हो सके। दूसरे शब्दों में, समाज के भीतर संपर्क

का सर्व= प्रसार होना चाहिए। इसी को भाईचारा कहा जाता है और यह प्रजातं= का

दूसरा नाम है। प्रजातं=, सरकार का एक स्वरूप मा= नहीं है। यह वस्तुतः साहचर्य की

स्थिति में रहने का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से संप्रेषण

होता है। प्रजातं= का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और मान की भावना। क्या

स्वाधीनता पर किसी को भी कोई आपत्ति हो सकती है? अगर स्वाधाीनता का अर्थ

निर्बाधा रूप से कहीं भी आने-जाने का अधिाकार है, या जीवित रहने तथा शरीर की रक्षा

का अधिाकार है, तो इसमें कुछ लोगों को ही आपत्ति होगी। अगर स्वाधाीनता का अर्थ

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अपने शरीर को पूर्णतः स्वस्थ रखने के लिए जीविका-उपार्जन के लिए संपत्ति, उपकरणों

और सामग्री पर अधिाकार है, तो इस पर कोई भी आपत्ति नहीं है। स्वाधाीनता को वह

लाभ क्यों न दिया जाए, जो किसी व्यक्ति की शक्तियों के प्रभावपूर्ण और सक्षम उपयोग

से प्राप्त हो सकता है? जातिप्रथा के जो समर्थक जीवन, शरीर और संपत्ति के अधिाकार

को ही स्वाधाीनता मानते हैं, वे स्वाधाीनता के इस स्वरूप को एकदम स्वीकार नहीं करेंगे,

क्योंकि इसमें अपनी जीविका को स्वयं चुनने का अधिाकार निहित है, किन्तु इस स्वाधाीनता

पर आपत्ति करने का अर्थ है, दासता को शाश्वत बनाना, क्योंकि दासता का अर्थ केवल

कानूनी अधाीनीकरण या परतं=ता नहीं है। इसका अर्थ है, समाज में व्याप्त वह स्थिति,

जिसमें कुछ लोगों को विवश होकर अन्य लोगों से उन प्रयोजनों को भी स्वीकार करना

होता है, जिनके अनुसार उन्हें आचरण करना है। यह स्थिति तब भी रह सकती है, जब

कानूनी अर्थ में दासता का अस्तित्व न हो। यह स्थिति जातिप्रथा की तरह ऐसी दशाओं

में पाई जाती है, जहां कुछ व्यक्ति अपनी पसंद का धांधाा छोड़कर स्वयं पर थोपे गए अन्य

धांधो करने पर विवश हो जाते हैं। क्या समानता पर कोई आपत्ति हो सकती है? फ्रांस की

क्रांति के नारे का यह सबसे विवादास्पद अंश रहा है। समानता के विरु) आपत्तियां ठीक

हो सकती हैं और यही मानना होगा कि सभी लोग एक समान नहीं होते। लेकिन उससे

क्या होता है। समानता भले ही काल्पनिक वस्तु हो। किन्तु फि़र भी उसे निर्देशक सि)ांत

के रूप में स्वीकार करना ही होगा। मनुष्य की शक्ति तीन बातों पर निर्भर है द्ध1ऋ शारीरिक

आनुवाशिकता, द्ध2ऋ सामाजिक विरासत या दाय, जो उसे माता-पिता द्वारा देखभाल, शिक्षा,

ज्ञान-विज्ञान का संचय और उसे बर्बर की अपेक्षा अधिक सक्षम मनुष्य बनाने वाले सभी

साधन के रूप में प्राप्त होते हैं, और द्ध3ऋ उसकी अपनी कोशिशें। इन तीनों पहलुओं की दृष्टि

से निःसंदेह मनुष्य असमान है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या उनके असमान होने के कारण

हम भी उन्हें असमान मानकर व्यवहार करें। इस प्रश्न का जवाब समानता के विरोधिायों को

अवश्य देना होगा। जहां तक व्यक्तिवादियों का दृष्टिकोण है, लोगों को इसलिए असमान

माना जाना चाहिए, क्योंकि उनके प्रयत्न भी असमान होते हैं। प्रत्येक मनुष्य की शक्ति

के पूर्ण विकास के लिए उसे अधिाक से अधिाक प्रोत्साहन देना वांछनीय है। लेकिन अगर

मनुष्य को उल्लिखित दो कारणों से असमान मानकर उसके साथ व्यवहार किया जाए

तो उसका क्या परिणाम होगा? स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जन्म, शिक्षा, परिवार का नाम,

व्यावसायिक संबंधा और विरासत में मिली संपत्ति की दृष्टि से बेहतर है, वह अधिाक अच्छा

माना जाता है। किन्तु ऐसी स्थितियों में जो चयन होगा, उसे योग्य व्यक्ति का चयन नहीं

कहा जाएगा। चयन विशेषाधिाकार-प्राप्त व्यक्ति का होगा। इसलिए यदि हम तीसरे कारण

से लोगों को असमान मानने पर बाधय होते हैं, तो यह भी उपयुक्त प्रतीत होता है कि

पहले दो कारणों से हम लोगों को यथासंभव एक समान समझें। दूसरी ओर, यह भी तर्क

दिया जा सकता है कि यदि समाज के लिए अपने सदस्यों का अधिाकतम सहयोग लेना

अच्छा है, ऐसा तभी संभव हो सकता है, जब कि प्रत्येक कार्य के आरंभ में उन्हें यथासंभव

जातिप्रथा-उन्मूलन

68 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय

एक समान मानकर उनसे व्यवहार किया जाए। यह एक कारण है, जिसके फ़लस्वरूप

हम एक समानता को अस्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन समानता को स्वीकार करने का

एक अन्य कारण भी है। एक राजनीतिज्ञ को असंख्य लोगों से व्यवहार करना पड़ता है।

उसके पास न तो समय है और न यह जानकारी कि वह प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग

पहचाने और तदनुसार यथोचित व्यवहार करे, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता या

उसकी सामर्थ्य के अनुसार व्यवहार करे। मनुष्यों के प्रति न्यायोचित व्यवहार कितना ही

वांछनीय या तर्कसंगत हो, तथापि विशाल जनसंख्या को वर्गीकृत करना या उन्हें अलगअलग करना संभव नहीं है। इसलिए राजनीतिज्ञ को एक सरल और व्यापक नियम का

पालन करना चाहिए और वह सरल और व्यापक नियम यह है कि सभी लोगों को एक

समान माना जाए, इसलिए नहीं कि सब समान हैं, बल्कि इसलिए कि उनका वर्गीकरण

या उन्हें अलग-अलग करना असंभव है। समानता का सि)ांत पूर्णतः भ्रांतिपूर्ण है, लेकिन

कुल मिलाकर यही तरीका है, जिससे कोई राजनीतिज्ञ राजनीति कर सकता है, क्योंकि

राजनीति पूर्णतः व्यावहारिक विषय है, जिसकी कसौटी भी पूर्णतः व्यावहारिक होती है।