हिन्दू धार्म प्रचारमूलक धार्म था या नहीं, यह विवादास्पद है। कुछ लोगों का विचार है
कि यह प्रचारमूलक धार्म कभी नहीं रहा। दूसरों की यह मान्यता है कि यह प्रचारमूलक
था तथापि यह स्वीकार करना ही होगा कि किसी समय यह प्रचारमूलक आवश्यक रहा
होगा, क्योंकि यह अगर ऐसा न होता तो इसका प्रसार पूरे भारत में सर्व= न हो पाता।
यह तथ्य भी अवश्य स्वीकार करना होगा कि आज यह प्रचारमूलक नहीं रह पाया है।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि हिन्दू धार्म प्रचारमूलक धार्म था या नहीं। असली सवाल यह
कि हिन्दू धार्म प्रचारमूलक क्यों नहीं रह पाया? मेरे पास इसका यह जवाब है कि हिन्दू
धर्म तब से प्रचारमूलक धार्म नहीं रह गया, जब से हिन्दुओं में जातिप्रथा का उद्गम हुआ।
जातिप्रथा धार्म-परिवर्तन नहीं होने देती। धार्म-परिवर्तन में सिफ़र् यही समस्या नहीं होती
कि नई धारणाएं और नए सि)ांत अपना लिए जाएं बल्कि दूसरी ओर सबसे बड़ी समस्या
इसमें यह पैदा होती है कि धार्म-परिवर्तित व्यक्ति को किस जाति में स्वीकार किया जाए?
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जो भी हिन्दू अन्य धार्मियों को अपने धार्म में शामिल करना चाहता है, उसे यह समस्या
अनिवार्य रूप से झेलनी पड़ती है। किसी क्लब की सदस्यता तो सबसे लिए समान रूप
से खुली रहती है, किन्तु किसी जाति विशेष की सदस्यता हर ऐरे-गैरे के लिए नहीं खुली
रहती। जाति का नियम ही यह है कि उसकी सदस्यता उसी जाति में उत्पन्न व्यक्ति
को प्राप्त होती है। जातियां स्व-शासित होती हैं। किसी को कहीं भी यह अधिाकार नहीं
है कि किसी जाति को किसी बात के लिए विवश करे कि वह अपने सामाजिक जीवन
में किसी नव-आगंतुक को स्वीकार कर ले। हिन्दू समाज अनेक जातियों का समूह है,
और क्योंकि हर-एक जाति एक बंद निगमित संस्था की तरह है, इसलिए धार्म-परिवर्तित
व्यक्ति के लिए द्धकिसी भी जाति मेंऋ कहीं कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार इस जातिप्रथा
ने ही हिन्दुओं को हिन्दू धर्म फ़ैलाने से रोका और अन्य धाार्मिक समुदायों को इसमें लीन
होने से रोका। अतः जब तक जातिप्रथा रहेगी, हिन्दू धार्म को प्रचारात्मक धार्म नहीं बनाया
जा सकता और शुि) न केवल मूर्खता होगी, बल्कि निरर्थक भी होगी।