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मैं महात्मा का बड़ा आभारी हूं कि उन्होंने जाति पर जातपांत तोड़क मंडल के लिए
लिखे गए मेरे भाषण पर अपने समाचार-प= ‘हरिजन‘ में विचार व्यक्त करके मुझे सम्मानित
किया है। मेरे भाषण के पुनरावलोकन के परिशीलन से पता चलता है कि महात्मा मेरे
जाति पर व्यक्त किए गए विचारों से पूरी तरह असहमत हैं। मैं अपने विरोधियों के
वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहता हूं, जब तक अन्यथा कार्यवाही करने के विशेष कारण
मुझे मजबूर न करें। यदि मेरा विरोधी क्षुद्र और अज्ञात व्यक्ति होता तो मैं उसके पीछे
नहीं पड़ता। लेकिन मेरे विरोधी महात्मा स्वयं हैं, इसलिए मैं महसूस करता हूं कि मुझे
उन मुद्दों पर प्रत्युत्तर देने का प्रयास अवश्य करना चाहिए, जो उन्होंने उठाए हैं। यद्यपि
मैं आभारी हूं, उन्होंने मेरा सम्मान किया है, मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि महात्मा ने
मुझ पर आरोप लगाया है कि भाषण न देने के बाद भी भाषण इसलिए प्रकाशित किया
है कि मेरा प्रचार हो और लोग मुझे ‘भूल‘न जाएं। महात्मा चाहे जो कहें, भाषण प्रकाशित
करने का मेरा उद्देश्य केवल यह था कि हिन्दू सोचें और अपनी स्थिति को जानें। अगर
मैं ऐसा कहूं कि मैं अपने प्रचार के पीछे नहीं हूं क्योंकि मेरी इच्छा और आवश्यकता से
अधिक मेरी प्रसिि) पहले से ही है। लेकिन यदि मान भी लिया जाए कि मैंने प्रसिि)
पाने के उद्देश्य से भाषण छापा है तो मेरे ऊपर पत्थर कौन फ़ेंक सकता था? निश्चित
रूप से वे नहीं, जो महात्मा की तरह कांच के मकान में रहते हैं।
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प्रयोजन के अलावा, भाषण में उठाए गए प्रश्न के बारे में महात्मा को क्या कहना है?
पहली बात यह है कि जो भी मेरा भाषण पढ़ेगा, उसे अहसास होगा कि महात्मा ने मेरे द्वारा
उठाए गए मुद्दों को पूरी तरह छोड़ दिया है और उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं, वे मुद्दे उस भाषण
से उत्पन्न नहीं होते, जिसे उन्होंने हिन्दुओं के लिए मेरा अभियोग-प= बताने में प्रसन्नता
अनुभव की है। प्रमुख मुद्दे जिन्हें मैंने अपने भाषण में उठाए हैं, उनको निम्नलिखित रूप
में सूचीब) किया जा सकता है।
द्ध1ऋ यह कि जातपांत ने हिन्दुओं को बरबाद किया है।
द्ध2ऋ यह कि हिन्दू समाज को चातुर्वर्ण्य के आधार पर पुनर्गठित करना असंभव है,
क्योंकि वर्ण-व्यवस्था रिसते हुए एक बर्तन की तरह है या उस आदमी की
तरह है, जो नाक की सीध में दौड़ रहा है। यह अपने गुणों के कारण अपने
को कायम रखने में अक्षम है तथा इसमें जाति-व्यवस्था के रूप में विकृत हो
जाने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है जब कि वर्ण का उल्लंघन करने पर कानूनी रोक
नहीं लगती।
द्ध3ऋ यह कि चातुर्वर्ण्य के आधार पर हिन्दू समाज को पुनर्गठित करना हानिकारक
है, क्योंकि वर्ण-व्यवस्था ज्ञात प्राप्त करने के अवसर से वंचित कर लोगों को
निम्नकोटि बनाती है तथा अस्= धारण करने से वंचित कर उन्हें दुर्बल बनाती
है।
द्ध4ऋ यह कि हिन्दू समाज को ऐसे धर्म के आधार पर पुनर्गठित करना चाहिए, जिसमें
स्वतं=ता, समानता और भ्रातृत्व के सि)ांत को मान्यता दी जाए।
द्ध5ऋ यह कि इस लक्ष्य को पाने के लिए जाति और वर्ण के पीछे धार्मिक पवि=ता
की भावना को नष्ट किया जाना चाहिए।
द्ध6ऋ यह कि जाति और वर्ण की पवि=ता केवल तभी नष्ट हो सकती है, जब शास्त्रें
की दिव्य सत्ता को अलग कर दिया जाए।
ऐसा देखा गया कि महात्मा द्वारा उठाए गए प्रश्न मुद्दे से बिल्कुल अलग हैं, जिससे
भाषण के मुख्य तर्क उसमें खो गए थे।
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मैं महात्मा द्वारा उठाए गए प्रश्न के सार को जांचना चाहूंगा। महात्मा ने पहला प्रश्न
उठाया है कि मेरे द्वारा उ)ृत उदाहरण प्रामाणिक नहीं हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इस
विषय का विशेषज्ञ नहीं हूं। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि जो उदाहरण मैंने उ)ृत किए
हैं, वे श्री तिलक के लेखों से लिए गए हैं, जो संस्कृत भाषा और हिन्दू शास्त्रें के जानेमाने विद्वान थे। उन्होंने दूसरी बात यह कही है कि शास्= की व्याख्या विद्वानों द्वारा नहीं,
बल्कि संतों द्वारा की जानी चाहिए और जैसा संतों ने समझा है कि शास्= जातपांत और
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छुआछूत का समर्थन नहीं करते हैं। पहले प्रश्न के बारे में, मैं महात्मा से पूछना चाहता
हूं कि इससे किसी को क्या लाभ या हानि होगी यदि गद्यांश अंतर्वेशित है और संतों
द्वारा उनकी व्याख्या अलग-अलग की गई है। आम लोग असली मूलपाठ और अंतर्वेशित
मूलपाठ में अंतर नहीं कर पाते हैं। आम लोग यह भी नहीं जानते कि शास्त्रें के मूलपाठ
क्या है। वे इतने अनपढ़ हैं कि शास्त्रें में क्या लिखा है, यह भी नहीं जानते। जो उनसे
कहा जाता है, वे उसी पर विश्वास कर लेते हैं, और उनसे कहा गया है कि शास्त्रें में
जातपांत और छुआछूत की प्रथा को धार्मिक कर्तव्य माना गया है।
जहां तक संतों का प्रश्न है तो मानना पड़ेगा कि विद्वान लोगों की तुलना में संतों
के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे शोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे
निष्प्रभावी दो कारणों से रहे हैं। पहला, किसी भी संत ने जाति-व्यवस्था पर कभी भी
हमला नहीं किया। इसके विपरीत वे जातपांत की व्यवस्था के पक्के विश्वासी रहे हैं। उनमें
से अधिकतर उसी जाति के होकर जिए और मरे जिस जाति के वे थे। ज्ञानदेव ब्राह्मण
के रूप में अपनी प्रतिष्ठा से इतने उत्कट रूप से जुड़े हुए थे कि जब ब्राह्मणों ने उन्हें
समाज में बने रहने से इन्कार कर दिया, तो उन्होंने ब्राह्मणों के पद की मान्यता पाने
के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया था और संत एकनाथ जो अछूतों को छूने तथा
उनके साथ भोजन करने का साहस दिखाने के लिए धर्मात्मा बने हुए हैं, उन्होंने ऐसा
इसलिए नहीं किया कि वे जातपांत और छुआछूत के विरु) थे, जब कि उनकी मान्यता
यह थी कि प्रदूषण को पवि= गंगा नदी द्धअंत्याजाचा विटाल ज्यासी। गंगास्नाने शु)त्व
न्यासी। ‘एकनाथी भागवत, अ-28, ओ 191ऋ में स्नान कर धोाया जा सकता है। जहां तक
मेरा अध्ययन है किसी भी संत ने जातपांत और छुआछूत के विरु) कोई अभियान नहीं
चलाया। मनुष्यों के बीच चल रहे संघर्ष से वे चिंतित नहीं थे। वे मनुष्य और ईश्वर के
बीच संबंध के लिए ही चिंतित थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी थी कि सारे मनुष्य बराबर
हैं। यह एक बहुत अलग और बहुत अहानिकर प्रस्ताव है, जिसकी शिक्षा देने में किसी
को काई परेशानी नहीं होगी या जिसके मानने में कोई खतरा नहीं है। दूसरा कारण यह
है कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही है, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया है कि संत जाति
का बंधन तोड़ सकते हैं, लेकिन आम आदमी ये बंधन नहीं तोड़ सकता। इसलिए संत
अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बने। वह सम्मान योग्य धर्मपरायण व्यक्ति बने रहे। लोग
जाति और छुआछूत में पक्का विश्वास करते हैं। यह दर्शाता है कि शास्त्रें की शिक्षाओं
के विरु) धर्मपरायण जीवन तथा आदर्शपूर्ण उपदेशों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा
है। इस प्रकार इस बात से कोई सांत्वना नहीं मिलती कि संत थे या एक महात्मा है, जो
शास्त्रें को थोड़े से विद्वानों और कई अज्ञानियों से अलग तरीके से समझते हैं। यह कि
आम लोग शास्त्रें के बारे में गलत विचार रखते हैं, उसी तथ्य को ही ध्यान में रखना
चाहिए और उसी को ध्यान में रखना पड़ेगा। शास्त्रें की सत्ता को समाप्त किए बिना और
कैसा व्यवहार किया जाए, जो आज भी लोगों के आचरण को संचालित करते हैं, इस प्रश्न
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पर महात्मा ने विचार नहीं किया है। लेकिन शास्त्रें की जकड़ से मुक्त कराने की जो भी
प्रभावशाली योजना महात्मा बताएं, उन्हें यह मानना चाहिए कि किसी संत के धर्मपरायण
जीवन से यह स्वयं ऊंचे उठ सकते हैं लेकिन आम आदमी की संत और महात्माओं के
प्रति यही मनोवृत्ति है कि वे उनका सम्मान करते हैं, लेकिन अनुसरण नहीं करते। इससे
कोई कुछ अधिक नहीं कर सकता।
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तीसरा प्रश्न महात्मा ने उठाया है कि चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लूवर, रामकृष्ण
परमहंस इत्यादि द्वारा ज्ञापित धर्म गुण रहित नहीं हो सकता, जैसा कि मैंने बताया है,
और यह कि किसी भी धर्म को सबसे खराब नमूने से नहीं, बल्कि सबसे अच्छे परिणाम से
परखना होगा। मैं इस वक्तव्य के प्रत्येक शब्द से सहमत हूं। लेकिन मैं बिल्कुल नहीं समझ
पाया कि महात्मा इससे क्या सि) करना चाहते हैं। यह सत्य है कि धर्म को सबसे खराब
नमूने से नहीं, बल्कि सबसे अच्छे से परखना चाहिए, लेकिन क्या मामला यहीं समाप्त हो
जाता है? मैं कहता हूं-नहीं। प्रश्न अभी भी उठता है कि सबसे खराब इतने अधिक क्यों
हैं और सबसे अच्छे इतने थोड़े से क्यों? मेरे दिमाग से इसके दो कल्पनीय उत्तर हैं: द्ध1ऋ
कुछ अपने मूल दुराग्रह के कारण सबसे खराब हैं, जो नैतिक रूप से शिक्षणीय नहीं हैं,
इसलिए धर्म के आदर्श के दूर-दूर तक पहुंचने में अक्षम हैं, या द्ध2ऋ धर्म का आदर्श पूरी
तरह गलत आदर्श है, जिसने अधिकतर लोगों के जीवन में गलत नैतिक मोड़ दिया है और
गलत आदर्श के बावजूद सबसे अच्छे लोग बने रहे-वास्तव में गलत मोड को सही दिशा
की ओर मोड़ दिया है। इन दो स्पष्टीकरणों में से मैं पहले को मानने के लिए तैयार नहीं
हूं और मुझे विश्वास है कि महात्मा भी इसके विपरीत जाने को जोर नहीं देंगे। मेरे विचार
में दूसरा स्पष्टीकरण ही तर्कपूर्ण और उचित हैं, जब तक कि महात्मा के पास कोई तीसरा
विकल्प यह समझाने के लिए न हो कि सबसे खराब इतने अधिक क्यों हैं और सबसे अच्छे
इतने थोड़े से क्यों हैं। यदि दूसरा स्पष्टीकरण ही एकमा= स्पष्टीकरण है, तब स्पष्ट रूप
से महात्मा का यह कथन कि धर्म की परख उससे सबसे अच्छे मानने वालों से होती है,
हमको कहीं नहीं ले जाता है, सिवाय इसके कि उन बहुत से लोगों पर दया आती है जो
गलत हो गए हैं, क्योंकि वे गलत आदर्शों की पूजा करने को बाध्य हैं।
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महात्मा ने तर्क दिया है कि यदि संतों के उदाहरण को अपनाएं तो हिन्दू धर्म सहनीय
हो जाएगा।’ महात्मा का यह तर्क भी अन्य कारण से गलत सि) होता है। चैतन्य जैसे
सुविख्यात संत का नाम लेकर मोटे और सबसे सरल तरीके से महात्मा सुझाव देना चाहते
’ इस संबंधा में श्री एच-एन-बेल्सफ़ोर द्वारा लिखित भव्य लेख मोरालिटी एंड द सोशल स्ट्रकचर द्धनैतिकता एवं
सामाजिक संरचनाऋ देखें, जो अप्रैल, 1936 के ‘आर्य पथ‘ में प्रकाशित हुआ है।
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हैं कि ढांचे में मूलभूत परिवर्तन किए बिना हिन्दू समाज सहनीय और खुशहाल हो सकता
है, यदि बड़ी जाति के हिन्दुओं को इस बात के लिए राजी किया जाए कि वे छोटी जाति
के हिन्दू से व्यवहार करते समय उच्च स्तर की नैतिकता अपनाएंगे। मैं इस विचारधारा का
पूरी तरह विरोधी हूं। मैं उस बड़ी जाति के हिन्दू का सम्मान करता हूं, जो अपने जीवन में
उच्च सामाजिक आदर्श अपनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों के बिना भारत में रहना
आज से भी अधिक भद्दा और कम खुशहाल होगा। फि़र भी, जो इस बात पर निर्भर हैं कि
वह बड़ी जाति के हिन्दू को एक अच्छा इंसान बनाएंगे तथा व्यक्ति चरि= सुधारेंगे, वह
मेरे विचार से अपनी शक्ति बरबाद कर रहा है और एक भ्रम पाले हुए है। क्या व्यक्तिगत
चरि= शस्= बनाने वाले को एक अच्छा आदमी बना सकता है, अर्थात् जो आदमी गोला
बेचता हो, वह ऐसा गोला बनाए जो न फ़टे और गैस जहर न फ़ैलाएं? अगर ऐसा नहीं हो
सकता तो आप कैसे मान सकते हैं कि जाति की चेतना से भरा व्यक्ति अपने व्यक्तिगत
चरि= के कारण अच्छा व्यक्ति हो सकता है, अर्थात् वह व्यक्ति अपने साथियों के साथ
मि=ता तथा समान व्यवहार कैसे करेगा? सच बात यह है कि वह अपने साथियों को जाति
के आधार पर ऊंच और नीच मानेगा, किसी भी हालत में वह अपनी जाति वालों से जैसा
बर्ताव करेगा, वैसा दूसरों से नहीं करेगा। उससे यह आशा नहीं की जा सकती है कि
वह अपने साथियों के साथ रिस्तेदारों जैसा बर्ताव करेगा और उन्हें समान मानेगा। सच
बात तो यह है कि हिन्दू अपनी जाति के बाहर वाले व्यक्ति को पराया मानता है, उसके
साथ भेदभाव करके भी दंड मुक्त रह सकता है और बिना शर्म किए उसके साथ धोखा
कर सकता है या दाव-पेंच खेल सकता है। कहने का मतलब है कि बेहतर और बदतर
हिन्दू मिल सकता है। लेकिन एक अच्छा हिन्दू नहीं मिल सकता। ऐसा इसलिए नहीं है
कि उसके व्यक्तिगत चरि= में कोई कमी है। असल में, अपने साथियों के साथ उसके
संबंधों का आधार ही गलत है। सबसे अच्छा आदमी भी सदाचारी नहीं माना जा सकता,
अगर उसका उसके साथियों के साथ संबंधों का आधार ही मूलभूत रूप से गलत है। एक
गुलाम के लिए उसका मालिक बेहतर या बदतर हो सकता है। लेकिन मालिक अच्छा
नहीं हो सकता। अच्छा आदमी मालिक नहीं हो सकता और मालिक अच्छा आदमी नहीं
हो सकता। यही ऊंची जाति और नीची जाति के संबंधों के बीच लागू होता है। अन्य ऊंची
जातियों के लोगों की तुलना में नीची जाति के व्यक्ति के लिए ऊंची जाति का आदमी
बेहतर या बदतर हो सकता है। ऊंची जाति का व्यक्ति अच्छा नहीं हो सकता, जब तक
उसके पास ऊंची जाति का भेद करने के लिए छोटी जाति मौजूद है। छोटी जाति के
लिए यह अच्छा नहीं है कि उसकी चेतना में यह बात बैठी है कि उसके ऊपर बड़ी जाति
है। मैंने अपने भाषण में दलील दी थी कि वर्ण और जाति पर आधारित समाज एक ऐसा
समाज है जो गलत संबंधों पर आधारित है। मैंने आशा की थी कि महात्मा मेरी दलीलों को
नष्ट कर देंगे। लेकिन ऐसा करने की बजाए उन्होंने पृष्ठभूमि बताए बिना केवल चातुर्वर्ण्य
में अपना विश्वास दोहराया है।
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महात्मा जी उपदेश देते हैं, क्या उसी के अनुसार आचरण करते हैं? जिस बहस का
व्यापक रूप में प्रयोग होता है, उसमें व्यक्तिगत उल्लेख पसंद नहीं किया जाता है। लेकिन
जब कोई किसी सि)ांत का उपदेश देता है और धर्म सि)ांत मानकर उसे धारण कर लेता
है तो यह उत्सुकता पैदा होती है कि वह जो उपदेश देता, उस पर कितना आचरण करता
है। हो सकता है कि आचरण करने में असफ़लता का कारण यह हो कि आदर्श इतना
अधिक ऊंचा हैं कि उसे प्राप्त करना संभव नहीं है। आचरण करने में असफ़लता का कारण
व्यक्ति का अंतर्जातीय पाखंड भी हो सकता है। किसी भी स्थिति में उन्होंने अपने आचरण
को परीक्षण के लिए खोलकर रख दिया है और मुझे दोष नहीं दिया जाना चाहिए, यदि मैं
पूछूं कि अपने आदर्श को उन्होंने अपने जीवन में उतारने के लिए कितना प्रयास किया है।
महात्मा जन्म से बनिया है। उनके पूर्वजों ने मं=ी-पद पाने के लिए व्यापार करना छोड़
दिया था, जो कि ब्राह्मण का पेशा है। अपने जीवन में महात्मा बनने से पहले, जब पेशा
चुनने का अवसर आया तो उन्होंने तराजू की बजाए वकालत को प्राथमिकता दी। वकालत
का परित्याग कर वह आधे संत और आधे राजनीतिज्ञ बन गए। उन्होंने व्यापार को कभी
छुआ तक नहीं, जो उनका पैतृक पेशा है। उनका सबसे छोटा पु= – मैं केवल उस पु=
की बात कर रहा हूं, जो अपने पिता का अनुयायी है – जो वैश्य के घर में जन्मा, लेकिन
उसने एक ब्राह्मण लड़की से विवाह किया तथा जिसने एक बड़े पूंजीपति के समाचार-प=
में नौकरी को चुना है। ऐसी जानकारी नहीं है कि महात्मा ने पैतृक पेशा न अपनाने के
लिए उसकी कभी निंदा की हो। किसी आदर्श को उसके सबसे खराब नमूने से परखना
गलत होगा और यह उदारता नहीं होगी। लेकिन निःसंदेह महात्मा के पास इससे बेहतर
नमूना नहीं है और यदि वह इस आदर्श को अपनाने में असफ़ल होते हैं तो यह आदर्श
एक असंभव आदर्श है, जो आदमी की व्यावहारिक मूल प्रवृत्तियों के बिल्कुल विपरीत है।
कार्लाइल के विद्यार्थी जानते हैं कि किसी विषय पर सोचने से पहले वे उस पर बोलते थे।
क्या जातपांत के मामले में महात्मा के साथ ऐसा तो नहीं हुआ होगा। अन्यथा जो प्रश्न
मेरे मन में आते हैं, वे उनसे छूटे नहीं होते। कोई भी पेशा कब पैतृक पेशा बन जाता है,
जिसे अपनाना आदमी के लिए बाध्यकारी हो जाए? क्या व्यक्ति को अपना पैतृक पेशा
ही अपनाना चाहिए, चाहे वह क्षमता के अनुकूल और लाभकारी नहीं हो? क्या आदमी को
अपना पैतृक पेशा ही अपनाना चाहिए, वह अनैतिक पेशा ही क्यों न हो? यदि प्रत्येक को
अपना पैतृक पेशा ही जारी रखना पड़े, तो इसका अर्थ होगा कि किसी आदमी को दलाल
का पेशा इसलिए जारी रखना पड़ेगा, क्योंकि उसके दादा दलाल थे और किसी औरत
को इसलिए वेश्या का पेशा अपनाना पड़ेगा, क्योंकि उसकी दादी एक वेश्या थी। क्या
महात्मा अपने सि)ांत के इस तार्किक परिणाम को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? मेरे
लिए उनका पैतृक पेशा अपनाने का आदर्श न केवल असंभव, बल्कि अव्यावहारिक आदर्श
भी है, उसके अलावा नैतिक रूप से भी यह अरक्षणी आदर्श है।
जातिप्रथा-उन्मूलन 105
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महात्मा जीवन भर ब्राह्मण बने रहने में महान उत्कर्ष देखते हैं। इस तथ्य को छोड़
भी दिया जाए तो ऐसे कई ब्राह्मण हैं, जो जीवन भर ब्राह्मण बने रहना नहीं चाहते। हम
उन ब्राह्मणों के बारे में क्या कहें, जो अपनी पुरोहिताई का पैतृक पेशा अपना लेते हैं?
क्या वे पैतृक पेशा अपनाने के सि)ांत की वजह से ऐसा करते हैं, या गंदे आर्थिक लाभ
के इरादे से ऐसा करते हैं? महात्मा इन प्रश्नों से चिंतित प्रतीत नहीं होते। वह इस बात
से संतुष्ट हैं कि ‘‘सच्चे ब्राह्मण वे हैं, जो मुफ्त में उन्हें दी जा रही भिक्षा पर जीते हैं और
जितना भी उनके पास आध्यात्मिक खजाना है, उसे वे मुफ्त में बांट रहे हैं।‘पुश्तैनी ब्राह्मण
पुजारी महात्मा को आध्यात्मिक खजाना ढोते हुए प्रतीत होते हैं। लेकिन पुश्तैनी ब्राह्मण
के अन्य चि= भी खींचे जा सकते हैं। ब्राह्मण विष्णु का पुजारी हो सकता है, जो प्रेम के
देवता हैं। वह शंकर का पुजारी भी हो सकता है, जो विनाश के देवता हैं। वह बु) गया
में भी पुजारी हो सकता है और बु) की पूजा कर सकता है, जो मानवता के महानतम्
शिक्षक हैं, जिन्होंने सबसे श्रेष्ठ सि)ांत ‘प्रेम‘ का पाठ पढ़ाया है। वह ‘काली‘ का पुजारी
भी हो सकता है, जो ऐसी देवी है जिसकी खून की प्यास बुझाने के लिए रोज एक पशु
की बलि देनी पड़ती है, वह राम के मंदिर का पुजारी भी होगा, जो ‘क्षत्रिय‘ भगवान है।
वह परशुराम के मंदिर का पुजारी भी हो सकता है जो ऐसा भगवान है, जिसने क्षत्रियों
का नाश करने के लिए अवतार लिया था। वह ब्रह्मा का पुजारी भी हो सकता है, जिसने
संसार की रचना की है। वह पीर का पुजारी भी हो सकता है, जिसका भगवान अल्ला
संसार के ऊपर ब्रह्मा का आध्यात्मिक प्रभुत्व का दावा बरदाश्त नहीं करेगा। कोई यह
नहीं कह सकता कि जीवन का यह चि= सही नहीं है। अगर यह सही चि= है तो कोई
नहीं जानता कि उन देवताओं और देवियों के प्रति भक्ति को धारण करने के बारे में क्या
कहा जाए कि उनके लक्षण इतने विरोधात्मक हैं कि कोई ईमानदार व्यक्ति उन सभी
का भक्त नहीं हो सकता। हिन्दू लोग इस असाधारण तथ्य को अपने धर्म का महानतम
सदगुण मानते हैं – जैसे कि इनकी उदारता, इनकी सहनशीलता की भावना। इस सहज
दृष्टिकाेंण के विपरीत कहा जा सकता है कि सहनशीलता और उदारता वास्तव में उदासीन
या शिथिल सि)ांत निरपेक्षता के अलावा और अधिक प्रशंसनीय नहीं हैं। इन दो प्रवृत्तियों
में बाहरी तौर पर भेद करना मुश्किल है। लेकिन अत्यावश्यक रूप से वास्तविक गुणों में
ये इतने अधिक भिन्न हैं कि गहराई से जांच करने वाला एक-दूसरे को एक जैसा मानने
की गलती नहीं कर सकता। यह कि एक व्यक्ति जो बहुत सारे देवी-देवताओं का सम्मान
करता है, उसे सहनशीलता की भावना का सबूत माना जा सकता है, लेकिन क्या यह
समय के साथ चलने की इच्छा से पैदा हुए पाखंड का सबूत नहीं है? मेरी पक्की धारणा
है कि यह केवल पाखंड है। अगर यह दृष्टिकोण अच्छे आधार पर स्थापित है तो कोई
पूछ सकता है कि उस व्यक्ति के पास कौन सा आध्यात्मिक खजाना है, जो किसी
भी देवी-देवता की पूजा और आराधना करने के लिए तैयार है? न केवल ऐसा व्यक्ति
आध्यात्मिक खजाने से दिवालिया हो गया है, बल्कि पुजारी के महान पेशे को बिना अस्था
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और बिना विश्वास के इसलिए अपनाता है, क्योंकि साधारणतः वह पैतृक पेशा है, जो एक
मशीनी प्रक्रिया के अंतर्गत पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया गया है। एक सदगुणों का संरक्षण
नहीं है, यह वास्तव में एक महान पेशे का दुरुपयोग है, जो धर्म की सेवा के अतिरिक्त
और कुछ नहीं है।
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महात्मा इस सि)ांत से क्यों चिपके हुए हैं कि हर व्यक्ति को अपना पैतृक पेशा अपनाना
चाहिए। उन्होंने इसका कारण कहीं नहीं बतलाया है। लेकिन कोई कारण तो होना चाहिए,
यद्यपि उन्हें खुले आम कहने की चिंता नहीं है। वर्षों पहले उन्होंने अपने समाचार प= ‘यंग
इंडिया‘ में जाति बनाम वर्ग विषय पर लिखते हुए कहा था कि जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था
से बेहतर है, क्योंकि जाति द्वारा समाज में स्थिरता लाने के लिए सबसे उत्तम और संभव
सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। यदि यही कारण है कि महात्मा इस विचार से
चिपके हुए हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को पैतृक पेशा ही अपनाना चाहिए तो वे सामाजिक
जीवन के मिथ्या विचार से चिपके हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक स्थिरता चाहता है और
व्यक्तियों और वर्गों के संबंधों में कुछ सामंजस्य स्थापित होना ही चाहिए, जिससे समाज
में स्थिरता कायम हो सके। मेरा विश्वास है कि दो बातें कोई भी नहीं चाहता है। पहली
बात जो कोई नहीं चाहता वह है निश्चल संबंध, कुछ ऐसा जिसे बदला न जा सके, कुछ
ऐसा जो सार्वकालिक रूप से स्थिर रहे। स्थायित्व भी जरूरी है, लेकिन वह बदलाव की
कीमत पर नहीं होना चाहिए, क्योंकि बदलाव अवश्यंभावी है। दूसरी बात जो कोई नहीं
चाहता, वह है केवल सामंजस्य। सामंजस्य की भी आवश्यकता है, लेकिन वह सामाजिक
न्याय की बलि देकर नहीं किया जाना चाहिए। क्या यह कहा जा सकता है कि जाति के
आधार पर सामंजस्य अर्थात् अपने पैतृक व्यवसाय के आधार पर सामंजस्य होने से इन
दो बुराइयों से बचना संभव है? मैं मानता हूं कि ऐसा नहीं है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि
सबसे अच्छे संभव सामंजस्य की बात तो दूर, यह सबसे खराब प्रकार का सामंजस्य है,
क्योंकि यह सामाजिक सामंजस्य के दोनों सि)ांतों जैसे धारा प्रवाहिकता और समानता
का उल्लंघन करता है।
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कुछ लोग सोचते हैं कि महात्मा ने बहुत प्रगति की है, क्योंकि वह अब केवल वर्ण में
विश्वास करते हैं और जाति में विश्वास नहीं करते हैं। यह भी सत्य है कि एक समय था,
जब महात्मा पूर्णरूप से कुलीन सनातनी हिन्दू थे। वह वेदों, उपनिषदों, पुराणों और जो
भी हिन्दू ग्रंथ हैं, उनमें विश्वास करते थे। इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी विश्वास
करते थे। वह जाति में विश्वास करते थे और पूरी शक्ति से एक रूढ़िवादी की तरह
इसका समर्थन करते थे। उन्होंने सहभोज, सहपान और अंतर्जातीय विवाह की मांग की
निंदा की थी और कहा था कि सहभोज का विरोध करना चाहिए, क्योंकि इससे बहुत हद
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तक ‘‘इच्छा शक्ति पैदा करने और सामाजिक शु)ता बनाए रखने में मदद मिलती है।‘‘
यह अच्छी बात है कि उन्होंने पाखंडपूर्ण मूर्खता का परित्याग कर दिया है और स्वीकार
किया है कि ‘‘जातपांत आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास, दोनों के लिए हानिप्रद है‘‘ और
हो सकता है कि उनके पु= का जाति के बाहर विवाह इन्हीं विचारों के परिवर्तन की देन
है। लेकिन क्या महात्मा ने वास्तव में प्रगति की है? वर्ण की प्रकृति क्या है, जिसे महात्मा
मानते हैं। क्या वह यही वेदों की धारणा है, जिसे दयानंद सरस्वती और उनके अनुयायियों,
आर्यसमाजियों ने प्रतिपादित किया है? वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति
वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो। महात्मा की वर्ण
की धारणा का सार यह है कि व्यक्ति पैतृक पेशा ही अपनाए चाहे वह उसकी स्वाभाविक
योग्यता के अनुरूप हो या न हो। जाति और वर्ण में क्या अंतर है, जो महात्मा ने समझा
है। मैं कोई अंतर नहीं पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसमें मैं कोई अंतर नहीं
पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसके अनुसार तो वर्ण ही जाति का दूसरा नाम है,
इसका सीधा कारण यह है कि दोनों का सार एक है-अर्थात् पैतृक पेशा अपनाना, प्रगति
करना तो दूर, महात्मा ने अवनति की है। वर्ण की वैदिक धारणा की व्याख्या करके उन्होंने
जो उत्कृष्ट था उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है। यद्यपि मैं वैदिक वर्ण-व्यवस्था
को अस्वीकार करता हूं, जिसका कारण मैंने अपने भाषण में बताया है। लेकिन मैं मानता
हूं कि स्वामी दयानंद व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सि)ांत की जो व्याख्या की
है, बुि)मत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है। मैं यह व्याख्या नहीं मानता है कि जन्म किसी
व्यक्ति का समाज में स्थान निश्चित करने का निर्धारक तत्व हो। वह केवल योग्यता को
मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मुर्खतापूर्ण
बनाते हैं, बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं। वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं हैं। वर्ण
इस सि)ांत पर टिका हुआ है कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, जब कि जाति
का सि)ांत है कि प्रत्येक को उसके जन्म के अनुसार। दोनों में इतना ही अंतर है, जिता
खड़िया और पनीर में। वास्तव में दोनो विपरीत हैं। अगर महात्मा विश्वास करते हैं, जो
वह अवश्य करते हैं, कि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाना चाहिए, तो निश्चित रूप
से जातपांत की वकालत कर रहे हैं तथा इसको वर्ण-व्यवस्था बताकर न केवल परिभाषिक
झूठ बोल रहे है।, बल्कि बदतर और हैरान करने वाली भ्रांति फ़ैला रहे हैं। मेरा मानना
है कि सारी भ्रांति इस कारण से है कि महात्मा की धारणा निश्चित और स्पष्ट नहीं है
कि वर्ण क्या है और जाति क्या है तथा हिन्दूवाद के संरक्षण के लिए इसमें से किसकी
जरूरत है। उन्होंने कहा है और वह आशा करते हैं कि वह अपने विचार बदलने के लिए
कोई रहस्यवादी कारण नहीं ढूंढेंगे कि जाति हिन्दू धर्म का सार नहीं है। क्या वे वर्ण को
हिन्दू धर्म का सार मानते हैं? अभी भी कोई सुनिश्चित उत्तर नहीं दे सकता है। उनका
लेख ‘डॉ- अम्बेडकर का अभ्यारोपण‘ पढ़ने वाले भी कहेंगे, ‘नहीं‘। अपने लेख में वह नहीं
बताते कि वर्ण का धर्म सि)ांत हिन्दूवादी पंथ का एक आवश्यक हिस्सा है। वर्ण को हिन्दू
धर्म का सार बताने की बजाए, वह कहते हैं कि ‘‘हिन्दू धर्म का सार इस कथन में निहित
जातिप्रथा-उन्मूलन
108 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
है कि एक ओर केवल एक सत्य ही ईश्वर है और अहिंसा मानव परिवार का एक कानून
इसकी सुस्पष्ट स्वीकृति है।‘‘ लेकिन श्री संत राम के प= के उत्तर में लिखे लेख के पढ़ने
वाले ‘हां‘ कहेंगे। उस लेख में उन्होंने कहा है कि एक मुसलमान कैसे मुसलमान रह सकता
है यदि वह कुरान को अस्वीकार करता है, या एक ईसाई कैसे ईसाई रह सकता है यदि
वह बाइबल को अस्वीकार करता है? यदि जाति और वर्ण विनिमय शब्द है और यदि वर्ण
शास्त्रें का अंगभूत भाग है जो हिन्दू धर्म को परिभाषित करता है, तो मैं नहीं जानता कि
जाति, अर्थात् वर्ण को अस्वीकार करने वाला अपने आपको हिन्दू कैसे कहलवा सकता
है।‘‘ फि़र यह छलकपट क्यों? महात्मा हिचकिचा क्यों रहे हैं? वह किसको प्रसन्न करना
चाहते हैं? क्या संत सत्य का अर्थ समझने में असफ़ल हो गए हैं? या क्या राजनीतिज्ञ
संत के रास्ते में रोड़ा बन रहे हैं, महात्मा की भ्रांति का वास्तविक कारण क्या इन दो
साधनों से पता लगाया जा सकता है? पहला है, महात्मा का स्वभाव। वह प्रत्येक बात
में बच्चे जैसी सरलता और बच्चे जैसा स्वयं को धोखा देने वाला स्वभाव रखते हैं। बच्चे
की तरह वह किसी भी बात में जिसे वह चाहते हैं, विश्वास करने लगते हैं। इसलिए हमें
प्रतीक्षा करनी चाहिए कि उन्होंने जिस तरह जाति में विश्वास करना छोड़ दिया है, उसी
तरह वे वर्ण में विश्वास करना छोड़ देंगे। दूसरा साधन उनकी महात्मा और राजनीतिज्ञ
की दोहरी भूमिका है। महात्मा के रूप में वह शायद राजनीति का आध्यात्मीकरण करने
को कोशिश कर रहे हैं। इसमें वह सफ़ल हुए हों या न हुए हों, राजनीति ने उनका
व्यापारीकरण कर दिया है।
राजनीतिज्ञ को यह जानना जरूरी है कि समाज पूर्ण सत्य को सहन नहीं कर सकता
और उन्हें पूर्ण सत्य नहीं बोलना चाहिए। अगर वह पूर्ण सत्य बोल रहे हैं तो यह उनकी
राजनीति के लिए खराब होगा। महात्मा जाति और वर्ण का समर्थन हमेशा क्यों कर रहे हैं,
क्योंकि उन्हें डर है कि यदि उन्होंने इसका विरोध किया तो वे राजनीति में अपना स्थान
खो देंगे। उनकी भ्रांति का कोई भी कारण हो, महात्मा को यह कह दिया जाना चाहिए
कि वह अपने आपको धोखा दे रहे हैं तथा वर्ण के नाम पर जाति को उपदेश देकर लोगों
को धोखा दे रहे हैं।
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महात्मा कहते हैं कि हिन्दू और हिन्दू धर्म की जांच करने के लिए जो मानक मैंने अपनाए
हैं, उन मानकों के आधार पर प्रत्येक वर्तमान धर्म शायद असफ़ल हो जाएगा। यह शिकायत
हो सकती है कि मेरे मानक ऊंचे हैं और यह सच हो सकता है। लेकिन प्रश्न यह नहीं है
कि ये मानक ऊंचे हैं या नीचे हैं। प्रश्न यह है कि यह मानक लागू करने के लिए उचित हैं
या नहीं। किसी अन्य मानक को कोई अर्थ नहीं है, अगर यह माना जाए कि धर्म आवश्यक
रूप से लोगों के कल्याण के लिए होता है। अब मैं कहता हूं कि हिन्दू तथा हिन्दू धर्म को
जांचने के लिए जो मानक मैंने लागू किए हैं, वे सबसे अधिक उपयुक्त हैं और इससे बेहतर
मानक नहीं जानता हूं। यह निष्कर्ष सत्य हो सकता है कि यदि मेरे मानक लागू किए
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जाएं, तो प्रत्येक वर्तमान धर्म असफ़ल हो जाएगा। लेकिन यह तथ्य हिन्दू और हिन्दू धर्म
के हिमायती महात्मा को दिलासा या और अधिक आधार नहीं देता कि एक पागल आदमी
के होने से दूसरे पागल आदमी को दिलासा हो या एक अपराधी के होने से दूसरे अपराधी
को दिलासा हो। मैं महात्मा को आश्वासन देना चाहता हूं कि यह केवल हिन्दू और हिन्दू
धर्म की असफ़लता नहीं है, जिसने मेरे मन में धृणा और अवमानना की भावना भर दी है,
जिसका मुझ पर आरोप लगाया गया है। मैं मानता हूं कि यह दुयिा एक अपूर्ण दुनिया
है और जो भी इसमें जीना चाहता है, उसे अपूर्णता को सहन करना चाहिए। लेकिन जब
कि मैं समाज की अपूर्णता तथा कमियों में जीने के लिए तैयार हूं, जिसमें मुझे कठिनाई
से आगे बढ़ना मेरी नियति है तो मैं महसूस करता हूं कि उस समाज में जीने के लिए मैं
सहमत नहीं हूं जो गलत आदर्शों को संजोए रखता है या एक ऐसा समाज जिसके आदर्श
सही हैं, परंतु वह अपने सामाजिक जीवन को उन आदर्शों के अनुरूप ढालना नहीं चाहता
है। अगर मुझे हिन्दू और हिन्दू धर्म से ऊब पैदा होती है तो यह इसलिए है, क्योंकि मुझे
विश्वास है कि वे गलत सि)ांतों और गलत सामाजिक जीवन का पोषण करते हैं। हिन्दू
और हिन्दू धर्म से मेरा झगड़ा उनके सामाजिक आचरण की अपूर्णता से नहीं है। यह बहुत
अधिक मौलिक है। यह झगड़ा उनके सि)ांतों से है।
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मुझे प्रतीत होता है कि हिन्दू समाज को नैतिक पुनरुद्वार की आवश्यकता है, जिसे
विलंबित करना खतरनाक होगा। प्रश्न यह है कि इस नैतिक पुनरुद्वार को कौन निर्धारित
और नियंत्रित कर सकता है? स्पष्ट रूप से वे लोग जो अपना बौि)क पुनरुद्वार कर
चुके हैं और वे जो इतने ईमानदार हैं कि बौि)क उ)ार से पैदा हुए दृढ़ विश्वास को
दिखाने का साहस जिनके पास है। इस मानक से जांचने से पता चलता है कि माने हुए
हिन्दू नेता, मेरे विचार से इस कार्य के लिए बिल्कुल अयोग्य है। यह कहना असंभव है
कि वे प्रारंभिक रूप से भी बौि)क पुनरुद्वार कर चुके हैं। अगर उन्होंने अपना बौि)क
पुनरुद्वार कर लिया है तो वे न तो अशिक्षित बहुसंख्या की तरह अपने आपको धोखा देंगे
और न ही वे आदिम अज्ञान का फ़ायदा ही उठाएंगे, जैसा कि आजकल देखा जाता है।
टुकड़े-टुकड़े होते हिन्दू समाज के बावजूद भी ये नेतागण निर्लज्जता से पुराने सि)ांतों
की दुहाई देंगे, जिनका हर हालत में वर्तमान से संबंध समाप्त हो चुका है( जो आरंभिक
दिनों में कितने भी उपयुक्त रहे हो। वे अब मार्गदर्शक की बजाए, एक चेतावनी बन चुके
हैं। वे प्रारंभिक सि)ांतों के प्रति अभी भी रहस्यपूर्ण सम्मान रखते हैं, जो उन्हें अनिच्छुक
नहीं, बल्कि समाज की नींव की जांच करने का विरोधी बनाते हैं। हिन्दू लोग वास्तव में
अपनी मान्यता के निर्माण में अविश्सनीय रूप से ध्यान नहीं देते। यही हाल हिन्दू नेताओं
का है। बदलर बात यह है कि अब कोई उनकी संगति छुड़ाने का प्रस्ताव करता है तो
वे अपनी मान्यताओं के लिए अवैध भावावेश से भर जाते हैं। महात्मा कोई अपवाद नहीं।
ऐसा लगता है कि महात्मा सोचने में विश्वास नहीं करते। वह संतों का अनुसरण करने
जातिप्रथा-उन्मूलन
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को प्राथमिकता देते हैं। एक रूढ़िवादी की तरह वे पवि= धारणा में श्रृ)ा रखते हैं उन्हें
डर है कि यदि एक बार उन्होंने सोचना शुरू किया तो कई आदर्शों और मान्यताओं का
जिनसे वह चिपके हुए हैं, सत्यानाश हो जाएगा। प्रत्येक को उनसे सहानुभूमि होनी चाहिए।
स्वतं= सोच का प्रत्येक कार्य स्पष्टतया स्थिर दुनिया के कुछ भाग को संकट में डाल देता
है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि संतों पर निर्भर रहकर ही हम सत्य को नहीं
जान सकते। आखिर, संत भी मनुष्य हैं और जैसा कि लार्ड बेलफ़ोर ने कहा है, ‘‘सूअर
की थूथनी से अधिक मनुष्य का दिमाग सत्य का पता लगाने वाला उपकरण नहीं है।‘‘
जहां तक वह सोचते हैं, मुझे वह हिन्दुओं के पुरातन ढांचे के लिए समर्थन ढूंढने हेतु बुि)
का दुरुपयोग करते प्रतीत होते हैं। वह इसके सबसे प्रभावशाली समर्थक हैं और इसलिए
हिन्दुओं के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
महात्मा से अलग ऐसे हिन्दु नेता भी हैं, जो केवल विश्वास और अनुसरण करने
से ही संतुष्ट नहीं है। वे सोचने का साहस करते हैं और अपनी सोच के परिणाम के
अनुसार कार्य करते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश या तो वे बेईमान लोग हैं या जब लोगों को
सही मार्गदर्शन देने का प्रश्न उठता है तो वे उदासीन बन जाते हैं। लगभग सभी ब्राह्मणों
ने जाति के नियम का उल्लंघन किया है। जूते बेचने वाले ब्राह्मणों की संख्या उनसे
अधिक है, जिन्होंने पुरोहिताई छोड़ दी है। उन्होंने न केवल ऐसे व्यवसाय अपना लिए हैं
जो उनके लिए शास्त्रें द्वारा वर्जित हैं। लेकिन ऐसे कितने ब्राह्मण हैं जो रोज जाति का
नियम तोड़ते हैं, जो जाति और शास्त्रें के विरु) उपदेश देंगे? क्योंकि उसकी मूल प्रवृत्ति
और नैतिक विवेक उनकी दृढ़ धारणा का समर्थन नहीं कर सकता लेकिन ऐसे सैंकड़ों हैं
जो रोज जाति को तोड़ते हैं तथा शास्त्रें को रौदते हैं लेकिन जो जाति के सि)ांत और
शास्त्रें की पवि=ता के कट्टर समर्थक हैं। यह दोगलापन क्यों? क्योंकि वे महसूस करते
हैं कि यदि जाति का जुआ लोगों ने उतार फ़ेंका, तो ब्राह्मण वर्ण की सत्ता और सम्मान
के लिए वे संकट पैदा कर देंगे। बुि)जीवी वर्ग की इस बेईमानी से आम लोग उनके
विचारों के फ़ल से वंचित हो जाते हैं। यह एक लज्जाजनक तथ्य है।
मैथ्यू आरनोल्ड के शब्द हैं कि ‘‘हिन्दू दो दुनिया में विचर रहे है-एक है मृत
दुनिया और दूसरी शक्ति रहित जन्म लेने वाली।‘‘ उन्हें क्या करना चाहिए? महात्मा जिससे
वे मार्गदर्शन की अपील करते हैं, वह सोचने में विश्वास नहीं करते, इसलिए मार्गदर्शन
नहीं कर सकते जो अनुभव की कसौटी पर खरा उतरे। बुि)जीवी वर्ग जिनकी ओर लोग
मार्गदर्शन के लिए निहारते हैं, वे या तो अधिक बेईमान हैं या उदासीन, इसलिए सही
दिशा की ओर जाने की शिक्षा उन्हें नहीं मिल पाती है। इस त्रसदी की स्थिति में हम
विलाप करते हुए कह सकते हैं-अरे हिन्दुओं, तुम्हारे नेतागण ऐसे हैं।