डॉ- अम्बेडकर का अभ्यारोपण
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पाठकों को याद होगा कि डॉ- अम्बेडकर ने लाहौर के जातपांत तोड़क मंडल के
वार्षिक सम्मेलन की अधयक्षता विगत मई माह में करनी थी। लेकिन स्वागत समिति ने
डॉ- अम्बेडकर का भाषण अस्वीकार्य होने पर सम्मेलन का आयोजन ही स्थगित कर दिया
था। अपनी पसंद के अधयक्ष का भाषण आपत्तिजनक पाए जाने पर उसे स्वागत समिति
द्वारा अस्वीकार करना कहां तक न्याय संगत है, जब कि उस भाषण पर प्रश्न उठाने
के अवसर खुले थे। समिति जातपांत और हिन्दू धार्म-ग्रंथों के बारे में डॉ- अम्बेडकर के
दृष्टिकोण से परिचित थी। उन्हें पता था कि डॉ- अम्बेडकर खुले शब्दों में हिन्दू धार्म छोड़ने
का फ़ैसला दे चुके थे। डॉ- अम्बेडकर से इस भाषण को कम करने की अपेक्षा ही नहीं
करनी चाहिए थी। समिति ने जनता को एक ऐसे व्यक्ति के विचार सुनने से वंचित किया
है, जिसने अपने लिए समाज में एक अद्वितीय स्थान बना लिया है। चाहे वह भविष्य में
कोई भी आवरण ओढ़ ले, डॉ- अम्बेडकर अपने आपको भुलाने का अवसर नहीं देंगे।
सवागत समिति डॉ- अम्बेडकर को पराजित नहीं कर पाई। उन्होंने यह भाषण अपने
खर्चें पर प्रकाशित करके प्रत्युत्तर दे दिया है। उन्होंने प्रकाशित भाषण की कीमत आठ
आना रखी। मेरा सुझाव है कि इसकी कीमत घटाकर दो आना नहीं तो कम से कम चार
आना कर दी जाए।
कोई भी सुधाारक इस भाषण की उपेक्षा नहीं कर सकता। रूढ़िवादी लोग इसे पढ़कर
लाभान्वित होंगे। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भाषण पर आपत्ति उठाने का अवसर खुला
नहीं है। डॉ- अम्बेडकर हिन्दू धार्म के लिए एक चुनौती हैं। एक हिन्दू के रूप में उनका
पालन-पोषण हुआ, एक हिन्दू राजा द्वारा पढ़ाए गए लेकिन वह तथाकथित सवर्णों से घृणा
करते हैं, क्योंकि उन्होंने उनके साथ एवं उनके लोगों के साथ इतना दुर्व्यवहार किया है कि
डॉ- अम्बेडकर ने उसी धार्म को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया है, जो सबकी सामूहिक
धरोहर है। उन्होंने अपनी घृणा को उस धार्म के मानने वालों के एक हिस्से के विरु)
मोड़ दिया है।
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लेकिन इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर, किसी व्यवस्था या संस्था की
परख उसके प्रतिनिधिायों के व्यवहार से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त डॉ- अम्बेडकर
ने पाया कि सवर्ण हिन्दुओं के बहुमत ने अपने सह-धार्मावलंबियों के साथ उनको अछूत
मानकर धर्मशास्=ीय आधाार पर अमानवीय व्यवहार किया है और जब उन्होंने खोज की,
तो छुआछूत और उसके उपलक्षणों को मानने वालों के विरु) बहुत अधिाक प्रमाण उन्हें
मिले। भाषण के लेखक ने अपने कथन के समर्थन में अधयाय और श्लोकों के प्रमाण देकर
तीन आरोप लगाए हैं – पहला, अमानवीय व्यवहार करना, दूसरा, अत्याचार करने वालों
ने निर्लज्जता से उसे सही बताया, और तीसरा, यह कहना कि धार्मशास्त्रें में ऐसे व्यवहार
को उचित माना गया है।
कोई भी हिन्दू जो अपनी आस्था को जीवन से अधिाक मानता है, वह दोषारोपण
के महत्व को कम करके आंकलन नहीं कर सकता है। डॉ- अम्बेडकर द्धइस अमानवीय
व्यवहार सेऋ घृणा करने वाले अकेले व्यक्ति नहीं हैं। लेकिन वह इसके सबसे अधिाक दृढ़
प्रतिज्ञ प्रतिवादक हैं तथा इसका प्रतिपादन करने वालों में सबसे योग्य व्यक्ति हैं। भगवान
का धन्यवाद है कि अगली पंक्ति के नेता में वे सबसे अकेले हैं और तब भी व थोड़ से
अल्पसंख्यक लोगों का प्रतिनिधिात्व करते हैं। लेकिन जो भी वे कहते हैं वह थोड़ा कम
या ज्यादा जोर से दलित वर्ग के नेताओं द्वारा दुहराया जाता है। उदाहरण के लिए,
रायबहादुर एम- सी- राजा तथा दीवान बहादुर श्रीनिवासन न केवल हिन्दू धार्म छोड़ देने
की धामकी देते हैं, बल्कि हरिजनों के बहुत बड़े वर्ग के शर्मनाक प्रतीड़न की क्षतिपूर्ति के
लिए इसको-साहजनक पाते हैं।
हम यह नहीं कह सकते हैं कि यह तथ्य धयान देने योग्य नहीं है, क्योंकि कई नेता
डॉ- अम्बेडकर के कथन की अवहेलना कर हिन्दू बने रहेंगे। सवर्णों को अपनी मान्यता
तथा व्यवहार को सही करना होगा। सवर्णों में जो विद्वान हैं तथा प्रभावशाली हैं, उन्हें
धर्मशास्त्रें की अधिाकृत तथा सही व्याख्या करनी होगी। डॉ- अम्बेडकर के अभियोग-प=
ने जो प्रश्न उठाए हैं, वे इस प्रकार हैं:
द्ध1ऋ धार्मशास्= क्या हैं?
द्ध2ऋ क्या छपे हुए मूलपाठ को धार्मशास्त्रें का अंगभूत हिस्सा माना जाए, या इसके
किसी हिस्से को अनधिाकृत रूप से अस्वीकृत माना जाए?
द्ध3ऋ छुआछूत, जाति, प्रतिष्ठा की समानता, रोटी-बेटी के संबंधा के प्रश्न पर धर्मशास्त्रें
के मान्य व परिशोधिात अंश का क्या उत्तर दिया जाए?
द्धइन सब प्रश्नों का डॉ- अम्बेडकर ने अपने भाषण में विशद् विवेचन किया हैऋ। इन
प्रश्नों के उत्तर तथा डॉ- अम्बेडकर के शोधापूर्ण भाषण में निहित गलतियों पर मैं अपना
वक्तव्य अगले अंक में दूंगा।
द्ध‘हरिजन‘ जुलाई 1936ऋ
जातिप्रथा-उन्मूलन
96 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
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‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ सहित वेद, उपनिषद, स्मृतियां और पुराण हिन्दू धार्मशास्=
हैं। लेकिन यही अंतिम सूची नहीं है। प्रत्येक युग और पीढ़ी ने इस सूची में कुछ न कुछ
जोड़ा है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि जो कुछ छपा है या हाथ से लिखा गया है,
वही धार्मशास्= नहीं है। उदाहरण के लिए, स्मृतियों में बहुत कुछ है लेकिन उसे ईश्वर
की वाणी नहीं स्वीकार किया जा सकता है। इस प्रकार कई उदाहरण जो डॉ- अम्बेडकर
ने स्मृतियों से दिए हैं, उन्हें अधिाकृत नहीं माना जा सकता। सही धार्म ग्रंथ उन्हें ही कहा
जा सकता, जो शाश्वत हैं तथा अंतःकरण को छूते हैं, अर्थात् उन लोगों के हृदय को
आकर्षित करते हैं, जिनके ज्ञान चक्षु खुले हों। उसे ईश्वर की वाणी नहीं माना जा सकता,
जो तर्क की कसौटी पर खरी न उतरे, या जिसे आधयात्मिक प्रयोग में न लाया जा सके।
और यदि आपके पास धार्मग्रंथ का परिशोधिात संस्करण है तो भी आपको उसकी टीका
की आवश्यकता पड़ेगी। सबसे अच्छा टीकाकार कौन है? आवश्यक रूप से विद्वान नहीं
हो सकता। फि़र भी विद्वता आवश्यक है। लेकिन धार्म विद्वता पर नहीं चलता। धार्म साधूसंतों और उनके जीवन एवं कथन पर चलता है। साधाू-संतों के संचित अनुभव को लोग
मानते हैं व युगों तक प्रेरणा पाते हैं, जब कि धार्मग्रंथों के सबसे अच्छे विद्वान टीकाकारों
को लोग भुला देते हैं।
जातपांत का धार्म से कोई मतलब नहीं है। जाति एक रीति -रिवाज है, जिसके
उद्गम को मैं नहीं जानता और न ही अपनी आधयात्मिक क्षुधाा की संतुष्टि के लिए जानना
चाहता हूं। मैं नहीं जानता कि जाति आधयात्मिक व राष्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक
है। वर्ण और आश्रम व्यवस्था ऐसी संस्थाएं हैं, जिनको जातपांत से कुछ लेना-देना नहीं
है। वर्ण-व्यवस्था का नियम सिखाता है कि पैतृक धांधाा अपनाकर हम अपनी रोजी-रोटी
कमा सकते हैं। यह हमारे अधिाकार को ही नहीं, बल्कि कर्तव्य को भी परिभाषित करता
है। वर्ण-व्यवस्था अवश्य ही व्यवसाय के संदर्भ में बनी है, जो केवल मानवता के कल्याण
के लिए है और किसी अन्य के लिए नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि कोई भी व्यवसाय
न तो अत्यधिक नीचा है, न ही अत्यधिाक ऊंचा। सारे व्यवसाय अच्छे विधिा-सम्मत तथा
स्तर में एक दम एक समान हैं। ब्राह्मण का आधयात्मिक शिक्षक का व्यवसाय तथा सफ़ाई
करने वाले का व्यवसाय एक समान है, जो भगवान के सामने एक जैसे पुण्य के काम हैं
और उसके समक्ष एक समय में पूरा काम करने पर समान पारिश्रमिक के अधिाकारी हैं।
दोनों को जीवनयापन का अधिाकार है और कुछ नहीं। आज भी गांवों में ऐसी विधिा-सम्मत
स्वस्थ परंपरा जारी है। 600 की आबादी वाले गांव में रहकर मैंने पाया कि ब्राह्मण सहित
विभिन्न व्यवसाय में रत लोगों में कोई असमानता नहीं है। मैंने पाया कि आज के बुरे
दिनों में ब्राह्मण को सभी खुले हाथ से भीख देते हैं। उसके बदले ब्राह्मण के पास जो
भी आधयात्मिक खजाना है, वह उसे बांटता है। वर्ण-व्यवस्था के विकृत स्वरूप की जांच
करना गलत और अनुचित होगा, जब उसके नियम का उल्लंघन होता है। किसी वर्ण में
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रहकर श्रेष्ठता का दावा झूठा होगा और इस कानून को नकारात्मक माना जाएगा। वर्णव्यवस्था के कानून में छुआछूत की मान्यता निहित नहीं हैं? द्धहिन्दू धार्म का सार है कि सत्य
ही ईश्वर तथा अहिंसा मानव परिवारों का कानून हैऋ। मुझे पता है कि हिन्दू धार्म की मेरी
इस व्याख्या का डॉ- अम्बेडकर के अलावा कई लोग प्रतिवाद करेंगे। इससे मेरी स्थिति पर
कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। इस व्याख्या के आधाार पर मैं लगभग आधाी शताब्दी तक जिया हूं
तथा मैंने भरसक इन्हीं मान्यताओं को जीवन में उतारने का प्रयास किया है।
मेरे विचार से डॉ- अम्बेडकर ने अपने भाषण में संदेहपूर्ण प्रमाणिकता और मूल्य तथा
गिरे हुए हिन्दुओं के शोचनीय मिथ्या निरुपण को, जो धार्म के सही उदाहरण नहीं है,
चुनकर गंभीर गलती की है। जिन मानकों को डॉ- अम्बेडकर ने अपनाया है, उससे तो
प्रत्येक विद्यमान धार्म संभवतः असफ़ल हो जाएगा।
अपने योग्यतापूर्ण भाषण में डाक्टर ने अपने मुद्दे को अत्यधिाक सि) करने की कोशिश
की है। क्या चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लूवर, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन
राय, महर्षि देवेन्द्र-नाथ टैगोर, विवेकानंद व अन्य विद्वानों द्वारा सिखाया धार्म पूरी तरह
गुणरहित है, जैसा कि डॉ- अम्बेकर ने अपने भाषण में बताया है। कोई धार्म उसे सबसे
खराब उदाहरण से नहीं, बल्कि सबसे अच्छे परिणाम से परखा जाना चाहिए। यदि हम
इसे सुधाार न पाए तो केवल इस प्रकार के मानक की आकांक्षा ही की जा सकती है।
द्ध‘हरिजन‘ 18 जुलाई 1936ऋ
वर्ण बनाम जाति
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श्री संत रामजी, जातपांत तोड़क मंडल, लाहौर, ने इच्छा व्यक्त की कि उनका
निम्नलिखित व्यक्तव्य प्रकाशित किया जाए।
‘‘मैंने डॉ- अम्बेडकर और जातपांत तोड़क मंडल, लाहौर के बारे में आपकी टिप्पणी
पढ़ी। इस संबंधा में मैं निवेदन करना चाहता हूं:
हमने डॉ- अम्बेडकर को अपने सम्मेलन की अधयक्षता करने के लिए नहीं बुलाया
क्योंकि वे दलित वर्ग के हैं, चूंकि हम लोग छूत और अछूत में भेद नहीं करते हैं। इसके
विपरीत हमने डॉ- अम्बेडकर का चुनाव इसलिए किया कि हिन्दू समाज की गंभीर बीमारी
का निदान उनका और हमारा एक जैसा है, अर्थात उनका भी यही मत था कि हिन्दुओं
में विघटन और पतन का मूल कारण जाति-व्यवस्था है। डाक्टर की डाक्टरेट की थीसीस
का विषय भी जाति-व्यवस्था था। उन्होंने इस विषय पर संपूर्ण रूप से अधययन किया हुआ
था। हमारे सम्मेलन का उद्देश्य जाति-व्यवस्था समाप्त करने के लिए हिन्दुओं को राजी
करना था, लेकिन एक गैर-हिन्दू की सामाजिक और धाार्मिक मामलों में सलाह कोई प्रभाव
जातिप्रथा-उन्मूलन
98 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
नहीं डाल सकती। डाक्टर अपने भाषण के पूरक भाग में यह बात कहने पर अड़े रहे कि
हिन्दू के रूप में उनका यह अंतिम भाषण है, जो सम्मेलन के हित में अप्रासांगिक और
घातक था। इसलिए हमने उनसे निवेदन किया था कि वे अपने भाषण से वह वाक्य निकाल
दें, क्योंकि वही बात कहने के लिए उन्हें कोई अन्य अवसर भी मिल सकते थे। लेकिन
उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया, ऐसी स्थिति में हमने देखा कि केवल सम्मेलन का
दिखावा करने का कोई प्रयोजन नहीं था। इस सबके बावजूद उनके भाषण की मैं प्रशंसा
करता हूं, क्योंकि इस विषय पर यह सबसे विद्वतापूर्ण थीसिस है, जिसका अन्य भारतीय
भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए।‘‘ ‘‘इसके अलावा, मैं इस ओर आपका धयान आकर्षित
करना चाहता हूं कि जाति और वर्ण में जो आपने दार्शनिक अंतर बताया है, वह इतना
अधिाक सूक्ष्म है, जो आम आदमी की समझ में नहीं आता है, क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि में
जाति और वर्ण एक ही चीज हैं चूंकि दोनों का कृत्य एक समान है, अर्थात् अंतर्जातीय
विवाह और सहभोज पर रोक। आपका वर्ण-व्यवस्था का सि)ांत वर्तमान में अव्यावहारिक
है और निकट भविष्य में इसके पुनरुत्थान की कोई आशा नहीं है। केवल हिन्दू जातपांत
के गुलाम हैं तथा इसे वे नष्ट नहीं करना चाहते। अतः जब आप काल्पनिक वर्ण-व्यवस्था
की वकालत करते हैं तो वे जातपांत से चिपकने को न्यायसंगत पाते हैं। इस प्रकार आप
वर्ण भेद की उपयोगिता से समाज सुधाार को क्षति पहुंचा रहे हैं, क्योंकि इससे हमारे
रास्ते में रोड़ा अटकता है। वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर हमला किए बिना छुआछूत मिटाने
की कोशिश करना रोग के बाहरी लक्षणों का इलाज करने या पानी की सतह पर लकीर
खींचने जैसा है। द्विज लोग हृदय के किसी कोने से भी तथाकथित छूत और अछूत शूद्रों
को सामाजिक समानता नहीं देना चाहते हैं, इसलिए वे जातपांत को तोड़ने तथा छुआछूत
को मिटाने में उदारता दिखाने से इन्कार करते हैं, जिसका साधाारण अर्थ है कि वे इस मुद्दे
से बचना चाहते हैं। छुआछूत मिटानो के लिए शास्त्रें की मदद लेने का अर्थ है, कीचड़
साफ़ करना।
श्री संत रामजी के प= का प्रथम पैराग्राफ़ अंतिम पैरे को रद्द करता है। यदि
मंडल शास्त्रें की मदद लेना अस्वीकार करता है तो वह बिल्कुल वही कर रहा है, जो
डॉ- अम्बेडकर कर रहे हैं, अर्थात् हिन्दू न बने रहने तक कैसे वह डॉ- अम्बेडकर के
भाषण पर आपत्ति उठा सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि हिन्दू के रूप में उनका यह
अंतिम भाषण है? स्थिति पूरी तरह अतर्क-संगत हो जाती है, विशेष तौर पर जब मंडल
के प्रवक्ता बनने का दावा करते हुए श्री संत राम डॉ- अम्बेडकर के भाषण के तर्कों की
मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।
यहां यह पूछना उचित है कि यदि शास्त्रें को अस्वीकार करता है तो मंडल किस
बात में विश्वास रखता है। कुरान को अस्वीकार कर कोई मुसलमान कैसे बना रह सकता
है और बाईबल को अस्वीकार कर कोई ईसाई कैसे बना रह सकता है? यदि जाति और
वर्ण एक दूसरे के पर्याय हैं और वर्ण शास्त्रें का अंगभूत हिस्सा है, जिसमें हिन्दू धार्म की
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परिभाषा निहित है तो मैं नहीं समझता कि जाति अर्थात् वर्ण को अस्वीकार कर कोई हिन्दू
कैसे कहला सकता है।
श्री संत राम शास्त्रें को कीचड़ मानते हैं। जहां तक मुझे याद है डॉ- अम्बेडकर ने
शास्त्रें को ऐसा विलक्षण नाम नहीं दिया है। मेरा अर्थ निश्चित रूप से यही है कि यदि
शास्= छुआछूत का समर्थन करते हैं तो मैं अपने को हिन्दू कहलाना नहीं चाहूंगा। इसी प्रकार
यदि शास्= जातपांत का समर्थन करते हैं तो मैं अपने आपको हिन्दू कहलाना या रहना नहीं
चाहूंगा, क्योंकि सहभोज और अंतर्जातीय विवाह से मुझे बिल्कुल भी संकोच नहीं है। मैं शास्=
और उसकी व्याख्या के बारे में अपनी स्थिति को दोहराना नहीं चाहता हूं। मैं श्री संत राम
को साहसिक सुझाव देना चाहता हूं कि यहीं तर्कपूर्ण, सही और नैतिक रक्षात्मक स्थिति है
और हिन्दू परम्परा में इसे उचित प्रामाणिक सि) करने का आधार मौजूद है।
द्ध‘हरिजन‘ 15 अगस्त 1936ऋ