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अध्याय – 9 – ब्राह्मणों ने निम्न जातियों को उनका सामाजिक स्तर सुधारने से क्यों रोका ?

हिन्दुओं ने न केवल वन्य जातियों को सभ्य बनाने का मानवतावादी कार्य करने का

कोई प्रयास नहीं किया, बल्कि ऊंची जाति वाले हिन्दुओं ने जान-बूझकर हिन्दू समाज

की निचली जातियों को ऊंची जाति के सांस्कृतिक स्तर पर ऊपर उठने की मोहलत नहीं

दी। मैं उसके दो उदाहरण देता हूं: एक है सुनार समुदाय जाति और दूसरा पाठारे प्रभु

समुदाय। ये दोनों ही समुदाय महाराष्ट्र में काफ़ी मशहूर हैं। ये दोनों ही समुदाय ब्राह्मणों

के तौर-तरीकों और आदतों को अपनाने की कोशिश करते हुए अपनी सामाजिक हैसियत

बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। शेष अन्य समुदाय भी ऐसा ही करते थे। सुनार लोग अपने

को दैवज्ञ ब्राह्मण बताते थे और धाोती को दोहरी करके पहनते थे तथा ‘नमस्कार‘ कहकर

अभिवादन करते थे। धाोती को पहनने का यह ढंग और नमस्कार करना, ये दोनों ही

ब्राह्मणों के खास रिवाज थे। ब्राह्मणों ने उनकी इस नकल को पसंद नहीं किया और

न ही सुनारों के इस प्रयास को पसंद किया कि लोग उन्हें भी ब्राह्मण समझें। उन्होंने

पेशवा के प्राधिाकार से सुनारों के ब्राह्मणों वाले तौर-तरीके अपनाने के प्रयास को बंद

जातिप्रथा-उन्मूलन

62 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय

कराने में सफ़लता प्राप्त कर ली। उन्होंने बंबई स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी परिषद् के

अधयक्ष से सुनारों के विरु) निषेधाज्ञा भी जारी करवा दी। पाठारे प्रभु संप्रदाय में किसी

समय विधावाओं के पुनर्विवाह की प्रथा थी। लेकिन उस जाति के कुछ लोग विधावाओं के

पुनर्विवाह की प्रथा को कुछ समय के बाद सामाजिक पिछड़ेपन का प्रतीक मानने लगे,

जिसका खास कारण यह था कि यह ब्राह्मणों में प्रचलित प्रथा के प्रतिकूल थी। इसलिए

पाठारे प्रभु समुदाय के कुछ लोगों ने अपने समुदाय का स्तर ऊंचा करने के लिए अपनी

जाति में प्रचलित विधावा विवाह प्रथा को रोकने का प्रयत्न किया। पूरा समुदाय दो खेमों

में बंट गया। एक पुनर्विवाह के पक्ष में और दूसरा विपक्ष में। पेशवा ने उन लोगों का पक्ष

लिया, जो विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में थे ओर इस तरह उन्होंने पाठारे प्रभु समुदाय

को ब्राह्मणों के तौर-तरीके अपनाने से रोक दिया। हिन्दू लोग मुसलमानों की इसलिए

आलोचना करते हैं कि उन्होंने तलवार के बल पर अपना धार्म फ़ैलाया। वे ईसाई धार्म का

भी इसलिए उपहास करते हैं कि वे धर्म न्यायाधिाकरण के आदेश से काम करते हैं। लेकिन

यदि सच पूछा जाए तो हमारे आदर का अधिाक पा= कौन है? वे मुसलमान या ईसाई

जो बलपूर्वक अनिच्छुक व्यक्तियों को वह सब करने के लिए विवश कर देते हैं जिसे वे

उनकी मुक्ति के लिए आवश्यक समझते हैं, अथवा वे हिन्दू जो ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने

नहीं देते, जो दूसरों को अंधोरे में रखने की कोशिश करते रहते हैं, जो अपने बौि)क और

सामाजिक दाय को उन लोगों के साथ मिल-बांटना नहीं चाहते, जो उस दाय को अंगीकृत

करने के लिए पूरी तरह तैयार और इच्छुक हैं? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि

अगर मुसलमानों को क्रूर माना जाए तो हिन्दुओं को भी निकृष्ट माना जाना चाहिए और

निकृष्टता क्रूरता से भी अधिाक निंदनीय है।