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अध्याय – 8 – आदिवासियों की सुध क्यों नहीं ली हिंदुओं ने ?

देश के विभिन्न असम्मिलित क्षेत्रें और अंशतः सम्मिलित क्षेत्रें के बारे में आजकल जो

चर्चा चल रही है, उससे भारत में मूल जन-जातियों की स्थिति पर लोगों का धयान गया

है। इन जातियों के लोगों की संख्या कम से कम लगभग एक करोड़ तीस लाख होगी।

यदि हम इस प्रश्न को छोड़ दें कि नए संविधाान में उन्हें सम्मिलित न करना सही है या

गलत, सच यह है कि हालांकि हमारा देश इस बात पर गर्व करता है कि हमारी सभ्यता

हजारों वर्ष पुरानी है, ये मूल आदिम जातियां इसी पुरानी असभ्य स्थिति में रह रही है। न

केवल वे असभ्य स्थिति में हैं, बल्कि कुछ जातियों के काम-धांधो भी इसी प्रकार के हैं कि

उन सबको आपराधिाक जातियों में वर्गीकृत कर दिया गया है। इसी तरह हमारी आज की

भरी-पूरी सभ्यता की अवस्था में भी एक करोड़ तीस लाख आदमी अभी भी जंगलियों की

तरह रह रहे हैं और वंश-परंपरागत अपराधिायों का जीवन बिता रहे हैं। लेकिन हिन्दुओं

को इसमें कभी कोई शर्म महसूस नहीं हुई। मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी घटना है, जो

अन्य= कहीं नहीं है। इस शर्मनाक स्थिति का क्या कारण है? इन आदिम जातियों को सभ्य

बनाने का और उन्हें सम्मानजक ढंग से जीविका दिलाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया?

हिन्दू लोग उनकी इस बर्बर अवस्था का यह कारण बताएंगे कि वे जन्म से ही जंगली हैं।

वे यह कभी नहीं मानेंगे कि ये आदिम जातियां इस कारण जंगली की जंगली रह गई है,

क्योंकि हिन्दू लोगों ने उन्हें सभ्य बनाने, उन्हें चिकित्सीय सहायता देने, उन्हें सुधाारने और

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उन्हें अच्छा नागरिक बनाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। अब मान लें कि कोई हिन्दू

भी इन मूल निवासियों के लिए वह सब कुछ करना चाहता है, जो ईसाई प्रचारक कर

रहा है तो क्या वह वैसा कर पाता? मैं कहता हूं, नहीं। मूल निवासियों को सभ्य बनाने

का आशय होगा, अपने ही लोगों की तरह उन्हें अपना बनाना, उनके बीच जाकर रहना

और उनके बीच बंधाुता की भावना विकसित करने की कोशिश करते रहना। किसी हिन्दू

के लिए ऐसा करना कैसे संभव है? उसकी पूरी जिंदगी अपनी जाति को बनाए रखने की

भरसक कोशिश तक ही सीमित है। जाति ही उसकी वह अमूल्य निधिा है, जिसकी उसे

हर कीमत पर रक्षा करनी है। उसे यह कभी सहन नहीं हो सकता कि वह उस निधिा को

उन मूल आदिम जातियों से संपर्क करने में गंवा दे, जिन्हें वैदिक-काल से ही नीच अनार्यों

का अंश माना जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दुओं को पतित मानवता के उत्थान

की कर्तव्य-भावना सिखाई ही नहीं जा सकती। लेकिन कठिनाई यह है कि चाहे उनमें

कितनी ही कर्तव्य-भावना क्यों न भर दी जाए, उनकी अपनी जाति की रक्षा की उनकी

कर्तव्य-भावना उन पर हमेशा विजय पा लेगी। इसलिए जाति ही वह मुख्य स्पष्टीकरण है,

जिसके कारण हिन्दुओं ने स्वयं सभ्य हो जाने के बावजूद जंगली जातियों को जंगली ही

बने रहने दिया है और इसमें उन्हें न तो लज्जा का अनुभव होता है, न ही बुरा लगता है

और न कोई पश्चात्ताप होता है। हिन्दू यह नहीं समझ पाए हैं कि इन मूल निवासियों से उन्हें

कभी खतरा हो सकता है। अगर ये जंगली लोग जंगली ही बने रहे, तो शायद उनसे हिन्दुओं

को कोई खतरा न हो। लेकिन अगर गैर-हिन्दू उन्हें अपना लें और अपने धार्म में उनका

धर्म-परिवर्तन कर लें, तो हिन्दुओं के श=ुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो

उसका कारण स्वयं हिन्दू लोग और उनकी जातिप्रथा होगी।