जातिप्रथा से आर्थिक उन्नति नहीं होती। जातिप्रथा से न तो नस्ल या प्रजाति में
सुधार हुआ है और न ही होगा। लेकिन इससे एक बात अवश्य सि) हुई है कि इससे
हिन्दू समाज पूरी तरह छिन्न-भिन्न और हताश हो गया है।
सबसे पहले हमें यह महत्वपूर्ण तथ्य समझना होगा कि हिन्दू समाज एक मिथक
मा= हैं हिन्दू नाम स्वयं विदेशी नाम है। यह नाम मुसलमानों ने भारतवासियों को दिया
था, ताकि वे उन्हें अपने से अलग कर सकें। मुसलमानों के भारत पर आक्रमण से पहले
लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख नहीं मिलता। उन्हें अपने लिए
किसी समान नाम की जरूरत महसूस नहीं हुई थी, क्योंकि उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि
वे किसी विशेष समुदाय के हैं। वस्तुतः हिन्दू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं। यह
अनेक जातियों का समवेत रूप है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व से परिचित है। वह अपने
सभी समुदायों में व्याप्त है और सबको स्वयं में समाविष्ट किए हुए है और इसी में उसका
अस्तित्व है। जातियों का कोई मिला-जुला संघ भी नहीं है। किसी भी जाति को यह
महसूस नहीं होता कि वह अन्य जातियों से जुड़ी हुई है – सिफ़र् उस समय को छोड़कर,
जातिप्रथा-उन्मूलन
58 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते हैं। अन्य सभी अवसरों पर तो प्रत्येक जाति यह कोशिश
करती है कि वह अपनी अलग सत्ता को ठीक से बनाए रखे ओर दूसरों से स्पष्ट रूप से
अलग रहे। प्रत्येक जाति अपनों में ही खान-पान और शादी ब्याह का संबंधा रखती है,
यहां तक कि हर जाति अपना एक अलग पहनावा तक निश्चित करती है। इस बात से
अलग दूसरा कारण क्या हो सकता है कि भारत के नर-नारी असंख्य किस्मों के परिधाान
पहनते हैं, जो कि पर्यटकों के लिए हैरानी का कारण है। दरअसल, हर आदर्श हिन्दू उस
चूहे की तरह है जो अपने ही बिल में घुसा रहता है और दूसरों के संपर्क में नहीं आना
चाहता। हिन्दुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है, जिसे समाजविज्ञानी-‘समग्र वर्ग की
चेतना‘ कहते हैं। उनकी चेतना समग्र वर्ग से संबंधिात नहीं है। हरके हिन्दू में जो चेतना
पाई जाती है, वह उसकी अपनी ही जाति के बारे में होती है। किसी कारण यह कहा
जाता है कि हिन्दू लोग अपना समाज या राष्ट्र नहीं बना सकते। लेकिन अनेक भारतीयों
की देशभक्ति की भावना उन्हें यह मानने की अनुमति नहीं देती कि वे एक राष्ट्र नहीं है
अथवा वह विभिन्न समुदायों का मा= एक अव्यवस्थित समूह है। वे इस पर आग्रह करते
हैं कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता है, जो
हिन्दुओं के जीवन की विशेषता है, क्योंकि उनकी आदतों, प्रथाओं, विश्वासों ओर विचारों
में एकरूपता है, जो भारत में सर्व= दृष्टिगत होती है। इसमें संदेह नहीं कि उनके स्वभाव,
रीति-रिवाजों, धाारणाओं और विचारों में समानता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल
लेना स्वीकार्य नहीं होगा कि हिन्दू जनता को हिन्दू समाज की स्थिति प्राप्त है, ऐसा मान
लेने का अर्थ है – समाज-रचना के अपरिहार्य तत्त्वों को सही रूप में न समझना। केवल
भौतिक दृष्टि से पास-पास रहने के कारण लोगों को उस व्यक्ति से अधिाक समाज की
संज्ञा नहीं दी जा सकती जो अपने समाज से मीलों दूर रहने पर अपने समाज का सदस्य
नहीं रहता है। दूसरी बात यह है कि केवल आदतों, रीति-रिवाजों, धाारणाओं और विचारों
की समानता होने से ही व्यक्तियों को ‘समाज‘ नहीं कहा जा सकता। चीजें भौतिक रूप
से एक से दूसरे व्यक्ति के पास पहुंच सकती हैं – जैसे ईंटें। इसी तरह एक समुदाय
की आदतें, रीति-रिवाज, धाारणाएं और विचार भी दूसरे समुदाय द्वारा अपनाए जा सकते
हैं और इस तरह दोनों समुदायों में समानता प्रतीत हो।
संस्कृति विकीर्ण होकर फ़ैलती है और इसी कारण पास-पास न रहते हुए भी अनेक
आदिम जातियों की आदतों, रीति-रिवाजों, धाारणाओं और विचारों में समानता दिखाई देती
हैं। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता क्योंकि इन आदिम जातियों में समानता है, इसलिए
उनका एक समाज है। कुछ बातों में समानता एक समाज के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं
है। लोग एक समाज का निर्माण करते हैं, क्योंकि वे समान रूप से व्यवहार करते हैं।
व्यवहार में समभाव का होना समानुरूप से व्यवहार करने से सर्वथा भिन्न है। चीजों को
समभाव रूप में अपनाने का एकमा= उपाय यही है कि सभी का एक-दूसरे से पूरा-पूरा
संपर्क रहे। इसी बात को दूसरे ढंग से कह सकते हैं कि समाज आपसी संपर्क और आपसी
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संवाद को सतत जारी रखकर ही अपने अस्तित्व को बनाए रखता है। मूर्तरूप से कहा जाए
तो सिफ़र् यही काफ़ी नहीं है कि सभी लोग वैसे ही आचरण करें, जैसे अन्य लोग कर रहे
हैं। अगर अलग-अलग लोग एक जैसा ही सब कुछ कर रहे हैं, तो भी उन्हें उसी समाज
के अंग नहीं माना जा सकता। यह इससे सि) होता है कि हिन्दुओं की विभिन्न जातियों
के लोग एक से ही त्यौहार मनाते हैं। लेकिन अलग-अलग जातियों द्वारा उन्हीं त्यौहार के
मनाए जाते रहने के बावजूद वे एक समाज में नहीं बंधा पाए हैं। इसके लिए यह अनिवार्य
है कि सभी लोग किसी सामूहिक कार्य में इस प्रकार मिल-जुलकर बराबरी से हिस्सा लें
या भागीदारी करें कि उन सभी में भी वे ही भाव हों जिनसे शेष अन्य लोग अनुप्रमणित
होते हैं। लोगों को जो चीज आपस में एक सू= में बांधाती है और उन्हें एक समाज में पूरी
तरह शामिल करती है, वह यह हैं कि हरेक व्यक्ति को सामाजिक गतिविधिायों में इस तरह
हिस्सेदार या भागीदार बनाया जाए, ताकि उसकी सफ़लता में उसे स्वयं अपनी सफ़लता
और उसकी किलता में अपनी किलता दिखाई दे। जातिप्रथा इस प्रकार की सामूहिक
गतिविधिायों का आयोजन नहीं होने देती और सामूहिक गतिविधिायों को इस प्रकार वर्जित
करके ही उसने हिन्दुओं को एक ऐसे समाज के रूप में उभरने से रोका है, जिसमें सभी
समुदाय एक होकर जिएं और उनमें एक ही चेतना व्याप्त हो जाए।