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अब मैं समाजवादियों की ओर आता हूं। क्या समाजवादी लोग सामाजिक व्यवस्था से
उत्पन्न समस्या की उपेक्षा कर सकते हैं? भारत के समाजवादी यूरोप में अपने साथियों
का अनुसरण करते हुए इतिहास की आर्थिक व्याख्या को भारत के तथ्यों पर लागू करना
चाहते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। उसके कार्यकलाप और आकांक्षाएं
आर्थिक तथ्यों से परिब) और संपत्ति सत्ता का एकमा= स्रोत है। इसलिए वे इस बात
का प्रचार करते हैं कि राजनीतिक और सामाजिक सुधाार केवल भारी भ्रम है और संपत्ति
के समानीकरण द्वारा आर्थिक सुधाारों को अन्य हर प्रकार के सुधाारों से वरीयता दी जानी
चाहिए। ऐसे विषयों में से प्रत्येक विषय पर कोई भी चर्चा कर सकता है कि समाजवादियों
का यह सि)ांत आर्थिक सुधाार पर आधाारित है और प्रत्येक प्रकार के सुधाार पर वरीयता
दी जानी चाहिएं। किसी की भी यह धाारणा हो सकती है कि आर्थिक प्रेरणा ही मा= ऐसी
प्रेरणा नहीं है, जिससे व्यक्ति प्रेरित होता है। मानव समाज का कोई भी विद्यार्थी इस बात
को स्वीकार नहीं कर सकता कि आर्थिक शक्ति ही एकमा= शक्ति है। किसी व्यक्ति का
सामाजिक स्तर ही अक्सर शक्ति का स्रोत बन जाता है और उसके प्रभाव से उसका
प्राधिकार प्रदर्शित होता है, जैसाकि महात्माओं का सामान्य व्यक्ति के ऊपर प्रभाव रहा है।
भारत में लखपति लोग अकिंचन, साधाुओं और फ़कीरों की आज्ञा क्यों मानते हैं? भारत में
लाखों दरिद्र अपनी मामूली चीजों को भी जो उनकी एकमा= संपत्ति होती है, बेचकर बनारस
और मक्का क्यों जाते हैं? भारत के इतिहास में इस बात का चि=ण है कि धार्म सत्ता का
स्रोत है, जहां पुजारी को सामान्य व्यक्ति से अधिाक महत्व प्राप्त है और कभी-कभी तो
यह प्रथम मजिस्ट्रेट से भी अधिाक होता है। भारत में हर चीज, यहां तक कि हड़ताल और
चुनाव पर भी आसानी से धार्म का प्रभाव पड़ता है और वह ऐसी घटनाओं को धाार्मिक मोड़
दे देता है। व्यक्ति के ऊपर धार्म की शक्ति का एक और उदाहरण देने के लिए हम रोम
के प्लेबियन का मामला लेते हैं। यह मामला इस मुद्दे पर व्यापक प्रकाश डालता है। प्लेब
लोगों ने रोमन गणराज्य के अधाीन सर्वेच्च कार्यकारी सत्ता में भागीदार होने के लिए लड़ाई
लड़ी थी और उन्होंने प्लेबियनों की असेम्बली कोमिटिया सेंचूरियाटा द्वारा गठित पृथक
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निर्वाचन मंडल द्वारा निर्वाचित एक प्लेबियन वाणिज्य दूत की नियुक्ति कराने में सफ़लता
प्राप्त की थी। वे अपना ही एक कांसुल द्धवाणिज्य दूतऋ चाहते थे, क्येांकि वे महसूस करते
थे कि पेट्रिशियन वाणिज्य दूत प्रशासन के मामले में प्लेबियनों के साथ भेदभाव करते हैं।
उन्होंने स्पष्टतः एक बड़ा लाभ प्राप्त किया था, क्योंकि रोम के गणराज्यीय संविधाान के
अधीन एक वाणिज्य दूत द्धकांसुलऋ को दूसरे वाणिज्य दूत के कार्य को वीटों करने की
शक्ति प्राप्त थी। किन्तु क्या वास्तव में उन्हें कोई लाभ हुआ? उत्तर है, नहीं? प्लेबियनों को
ऐसा कोई भी प्लेबियन वाणिज्य दूत नहीं मिल सका, जिसे शक्तिशाली व्यक्ति कहा जा
सके और पेट्रिशियन वाणिज्य दूत से स्वतं= काम कर सके। साधाारणतया इस तथ्य को
धयान में रखते हुए कि प्लेबियनों को एक शक्तिशाली प्लेबियन वाणिज्य दूत मिल सकता
था, यदि उसका चुनाव पृथक प्लेबियन निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता। प्रश्न यह है
कि वे अपना एक मजबूत प्लेबियन वाणिज्य दूत क्यों प्राप्त नहीं कर सके? इस प्रश्न
के उत्तर से पता चलता है कि लोगों के दिमाग पर धार्म का कितना प्रभाव पड़ता है।
सारी रोम की जनता में यह एक मान्य प्रथा थी कि कोई भी अधिाकारी तब तक अपने
कार्यालय की ड्यूटी नहीं संभाल सकता, जब तक कि डेल्फ़ी का ओरेकल यह घोषित
न कर दे कि वह देवी को स्वीकार्य है। डेल्फ़ी की देवी के मंदिर के प्रभारी पुजारी
सभी पेट्रिशियन थे। इसलिए जब कभी प्लेबियन किसी ऐसे वाणिज्य दूत को चुनते
जो पेट्रोशियनों के विरोधाी दल का माना जाता था, या यदि भारत में प्रचलित शब्द का
प्रयोग करें तो कहेंगे सांप्रदायिक माना जात था, ऐसी स्थिति में ओरेकल सदा ही यह
घोषणा कर देता था कि वह देवी को स्वीकार्य नहीं है। इस प्रकार प्लेबियन को अपने
अधिाकारों के लिए धोखा दिया जाता था। लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि प्लेबियनों
ने स्वयं को इस प्रकार धाोखा खाने दिया, क्योंकि पेट्रोशियनों की भांति उनका भी दृढ़
विश्वास था कि किसी अधिाकारी द्वारा अपने कर्तव्य का भार ग्रहण करने के लिए देवी
का अनुमोदन पहली शर्त है और जनता द्वारा निर्वाचन ही काफ़ी नहीं है। यदि प्लेबियन
इस बात का दावा करते कि निर्वाचन ही पर्याप्त है और देवी का अनुमोदन आवश्यक
नहीं है तो वे उस राजनीतिक अधिाकार का पूरा लाभ उठा सकते थे, जो उन्हें प्राप्त था।
किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे एक ऐसा अन्य व्यक्ति चुनने पर सहमत हो गए, जो
उनके लिए कम उपयुक्त था, किन्तु देवी के लिए अधिाक उपयुक्त था, अर्थात् पेट्रिशियनों
के लिए अधिाक अनुकूल था। धार्म त्यागने की अपेक्षा प्लेबियनों ने उस भौतिक लाभ को
त्याग दिया, जिसके लिए उन्होंनें इतना कड़ा संघर्ष किया था। क्या इससे यह प्रकट
नहीं होता कि धार्म यदि धान से अधिक नहीं, तो उसके बराबर शक्ति का स्रोत हो सकता
है? भारत के समाजवादियों का भ्रम इस कल्पना में निहित है कि चूंकि आम य ूरा ेपीय
समाज म े ं स ंपत्ति सत्ता क े स ्रा ेत क े रूप म े ं अभिभावी ह ै, इसलिए यही बात भारत क े
स ंब ंधा म े ं भी सही ह ै आ ैर यही बात भ ूतकाल म े ं य ूरा ेप क े स ंब ंधा म े ं भी सत्य थी। धाम र्,
सामाजिक प ्रतिष्ठा आ ैर स ंपत्ति, ये सभी सत्ता और प्राधिाकार के स्रोत हैं जो एक आदमी
के पास द ूसर े की आजादी पर नियं=ण करने के लिए होते हैं। एक स्थिति में एक बात
अभिभावी होती है, तो दूसरी स्थिति में अन्य बात अभिभावी होती है। यही एकमा= अंतर
जातिप्रथा-उन्मूलन
52 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
है। यदि स्वतं=ता आदर्श है, यदि स्वतं=ता का अर्थ इस प्रभुत्व का विनाश है जो किसी
एक व्यक्ति को किसी दूसरे के ऊपर प्राप्त है, तो स्पष्ट है कि इस बात पर बल नहीं
दिया जा सकता कि आर्थिक सुधाार ही एक इस प्रकार का सुधाार है, जिसे हासिल किया
जाना चाहिए। यदि शक्ति और प्रभुत्व का स्रोत किसी विशेष समय अथवा किसी विशेष
सामाजिक तथा धाार्मिक समाज में मौजूद है, तो सामाजिक सुधाार और धाार्मिक सुधाार को
आवश्यक सुधाार के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
इस प्रकार कोई भी व्यक्ति भारत के समाजवादियों द्वारा अपनाई गई इतिहास की
आर्थिक व्याख्या के सि)ांत पर प्रहार कर सकता है। किन्तु मैं इस बात को स्वीकार करता
हूं कि इतिहास की आर्थिक व्याख्या इस समाजवादी दावे की वैधाता के लिए आवश्यक नहीं
है कि संपत्ति का समानीकरण ही एकमा= वास्तविक सुधाार है और इसे अन्य सभी बातों
से वरीयता दी जानी चाहिए। फि़र भी, मैं समाजवादियों से पूछना चाहता हूं कि क्या आप
पहले सामाजिक व्यवस्था में सुधाार लाए बिना आर्थिक सुधाार कर सकते हैं? ऐसा प्रतीत
होता है कि भारत के समाजवादियों ने इस प्रश्न पर विचार नहीं किया हैं? मैं उनके साथ
अन्याय नहीं करना चाहता। मैं एक प= का उ)रण देता हूं, जो एक प्रमुख समाजवादी
ने मेरे एक मि= को कुछ दिन पहले लिखा था। इसमें उसने कहा था, ‘‘मैं इस बात पर
विश्वास नहीं करता कि जब तक एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का दमन और इस प्रकार का
दुर्व्यवहार रहेगा, तब तक हम भारत में एक मुक्त समाज का निर्माण कर सकेंगे। जैसा कि
मैं एक समाजवादी आदर्श में विश्वास करता हूं, तो मैं अवश्य ही विभिन्न वर्गों और समूहों
के बीच संपूर्ण समानता के व्यवहार में विश्वास करता हूं। मैं समझता हूं कि समाजवाद
इसका तथा अन्य समस्याओं का एकमा= सही समाधाान है।‘‘ अब मैं यह प्रश्न पूछता हूं
कि क्या किसी समाजवादी के लिए यह कहना काफ़ी है कि ‘‘मैं विभिन्न वर्गों के साथ
व्यवहार में पूर्ण समानता में विश्वास करता हूं।‘‘ यह कहना कि ऐसा विश्वास पर्याप्त है,
समाजवाद में जो कुछ निहित है, उसके संबंधा में कोई जानकारी नहीं है। यदि समाजवाद
एक व्यावहारिक कार्यक्रम है और केवल एक दूर का आदर्श नहीं है, तो किसी समाजवादी
के लिए यह प्रश्न नहीं है कि क्या आप समानता में विश्वास करते हो? उसके लिए
प्रश्न यह है कि क्या वह इस बात को नापसंद करता है कि एक वर्ग एक व्यवस्था या
एक सि)ांत के रूप में दूसरे वर्ग के साथ दुर्व्यवहार करता रहे और उसका दमन करता
रहे और इस तरह अत्याचार और दमन को चलते रहते देखता रहे और इस प्रकार एक
वर्ग दूसरे से अलग हो जाए। अब मैं अपनी बात को पूरी तरह स्पष्ट करने के लिए उन
कारणों का विश्लेषण करूंगा जो समाजवाद की प्राप्ति में निहित हैं। अब यह स्पष्ट है
कि समाजवादियों द्वारा अपेक्षित आर्थिक सुधाार तब तक नहीं हो सकते, जब तक कि
सत्ता को हथियाने के लिए क्रांति नहीं होती। सत्ता को सर्वहारा वर्ग द्वारा हथियाना जाना
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चाहिए। मेरा पहला प्रश्न है कि क्या भारत का सर्वहारा वर्ग यह क्रांति लाने के लिए संगठित
हो जाएगा? ऐसे कार्य के लिए व्यक्तियों को कौन प्रेरित करेगा? मुझे लगता है कि अन्य
बातें समान रहने पर, केवल एक बात जो किसी व्यक्ति को इस बात की कार्यवाही करने
के लिए प्रेरित करेगी, वह यह भावना है कि दूसरा आदमी जिसके साथ वह काम कर रहा
है, वह समानता, भाईचारा और इनसे भी बढ़कर न्याय की भावना से प्रेरित है। लोग जब
तक यह नहीं जानेंगे कि क्रांति के बाद उनके साथ समानता का व्यवहार होगा और जाति
और नस्ल का कोई भेदभाव नहीं होगा, तब तक वे संपत्ति के समानीकरण हेतु क्रांति में
शामिल नहीं होंगे। क्रांति का नेतृत्व करने वाले किसी समाजवादी का यह आश्वासन कि
मैं जातिप्रथा में विश्वास नहीं करता, मेरे विचार में काफ़ी नहीं है। आश्वासन ऐसा होना
चाहिए जिसकी गहरी बुनियाद हो, अर्थात एक देशवासी का मानसिक व्यवहार दूसरे के
प्रति व्यक्तिगत समानता और भाईचारे की भावना से भरा हो। क्या यह कहा जा सकता
है कि भारत का सर्वहारा वर्ग गरीब होने के नाते गरीब होते हुए भी गरीब और अमीर के
अंतर के अलावा कोई दूसरा अंतर नहीं मानता? क्या यह कहा जा सकता है कि भारत
के गरीब लोग जातियां, नस्ल, ऊंच या नीच के ऐसे भेदों को नहीं मानते? यदि सच्चाई
यह है कि वे मानते हैं, तो इस प्रकार के सर्वहारा से अमीरों के विरु) कार्यवाही करने में
किस एकता की अपेक्षा की जा सकती है? यदि सर्वहारा वर्ग संगठित रूप में मोर्चा नहीं
लगाता तो क्रांति कैसे हो सकती है? तर्क के लिए मान लिया जाए कि सौभाग्य से क्रांति
हो जाती है और समाजवादी सत्ता में आ जाते हैं, तो क्या उन्हें उन समस्याओं से नहीं
निपटना होगा, जो भारत में प्रचलित विशेष सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न हुई हैं? मैं नहीं
समझता कि उन पक्षपातों द्वारा उत्पन्न समस्याओं का सामना किए बिना, जो भारतीय
लोगों में ऊंच-नीच, स्वच्छ-अस्वच्छ के भदेभाव पैदा करती हैं, भारत में कोई सामाजिक
राज्य एक सैकंड भी कार्य कर सकता है। यदि समाजवादी अच्छी सूक्तियां बोलने से ही
संतुष्ट नहीं हैं, और यदि समाजवादी समाजवाद को एक निश्चित वास्तविकता में बदलने
के इच्छुक हैं, तो उन्हें स्वीकार करना होगा कि सामाजिक सुधाार की समस्या मूलभूत
समस्या है और वे इससे बचकर नहीं भाग सकते। भारत में फ़ैली सामाजिक व्यवस्था एक
ऐसा मामला है, जिससे समाजवादी को निपटना होगा। जब तक वह ऐसा नहीं करेगा,
तब तक वह अपनी क्रांति नहीं ला सकता और यदि सौभाग्य से वह क्रांति लाता भी है तो
उसे अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए इस समस्या से जूझना होगा। मेरे विचार से यह
एक ऐसा तथ्य है, जो निर्विवाद है। यदि वह क्रांति से पहले जाति की समस्या पर धयान
नहीं देता है, तो उसे क्रांति के बाद उस पर धयान देना पड़ेगा। इसे हम दूसरी प्रकार यूं
कह सकते हैं कि चाहे आप किसी भी दिशा में देखें, जाति एक ऐसा दैत्य है, जो आपके
मार्ग में खड़ा है। आप जब तक इस दैत्य को नहीं मारोगे, आप न कोई राजनीतिक सुधार
कर सकते हैं, न कोई आर्थिक सुधाार।
जातिप्रथा-उन्मूलन
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