मैंने आपको बहुत देर तक बिठाकर रखा है। अब समय आ गया है कि मैं अपना
भाषण समाप्त करूं। यह एक सुविधााजनक बिंदु है, जहां मुझे रूक जाना चाहिए। लेकिन
संभवतः हिन्दू श्रोताओं के बीच में ऐसे विषय पर मेरा अंतिम भाषण है, जो विषय हिन्दुओं
के लिए प्राणाधाार है। इससे पहले कि मैं भाषण देना बंद करूं, मैं हिन्दुओं के सामने ऐसे
प्रश्न रखना चाहता हूं, जिसको मैं अति महत्वपूर्ण समझता हूं और मैं उन्हें उन पर विचार
करने के लिए आमंत्रित करता हूं।
सबसे पहले हिन्दुओं को विचार करना चाहिए कि क्या वे आस्था, आदतें, नैतिकता
और जीवन के प्रति धाारणा के बारे में नृजाति-विज्ञानियों के शांतिपूर्ण दृष्टिकोण को मानना
काफ़ी मानते हैं जो संसार के अलग-अलग लोगों में भिन्न-भिन्न रूप में पाए जाते हैं, या
यह क्या आवश्यक नहीं है कि यह पता लगाने का प्रयास किया जाए कि संसार में किस
प्रकार कीे नैतिकता, आस्था तथा दृष्टिकोण रखने वालो लोग पनपे हैं, मजबूत हुए हैं तथा
उन्होंने इस पृथ्वी पर राज किया है। जैसाकि कि प्रोसफ़ेर कारवर ने कहा है, ‘‘नैतिकता
और धार्म जो नैतिक स्वीकृति और अस्वीकृति की संगठित अभिव्यक्ति है, अस्तित्व के संदर्भ
में महत्वपूर्ण तत्व हैं जो आक्रमण और रक्षा के सच्चे हथियार, दांत और पंजे, सींग और
खुर, फ़र और पंख, अर्थात् सब कुछ हैं। सामाजिक समूह, समुदाय, आदिम निवासी या
राष्ट्र जो नैतिकता की अव्यवहार्य योजनाएं विकसित कर लेते हैं या इनके अंतर्गत ऐसे
सामाजिक कर्म विकसित कर लेते हैं जो उन्हें अस्तित्व के लिए कमजोर और अक्षम बनाते
हैं, आदतन स्वीकृति की भावना पैदा करते हैं, जब कि वे सामाजिक कर्म जो उन्हें मजबूत
और विस्तार के लिए समर्थ बनाते हैं, आदतन तिरस्कार की भावना पैदा करते हैं और अंततः
अस्तित्व के संघर्ष में मिट जाते हैं। इन आदतों की स्वीकृति या अस्वीकृति ही द्धये धार्म और
नैतिकता के परिणाम हैंऋ इन्हें उसी प्रकार पंगु बना देती है, जिस प्रकार मक्षिका के एक
जातिप्रथा-उन्मूलन
92 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
ओर दो पंख हों तथा दूसरी ओर कोई पंख न हो तो मक्षिका उड़ ही नहीं पाएगा। इस
बात पर बहस बेकार है कि एक व्यवस्था अच्छी है तो दूसरी व्यवस्था भी अच्छी होगी।‘‘
इसलिए नैतिकता और धार्म केवल पसंद और नापसंदगी के मुद्दे नहीं हैं। आप नैतिकता की
व्यवस्था को अत्यधिक नापसंद कर सकते हैं, जिसे एक राष्ट्र में सार्वभौमिक रूप से लागू
किया जाए तो वह राष्ट्र पृथ्वी पर एक सबसे मजबूत राष्ट्र बन जाएगा। आपकी नापसंदगी
के बाद भी ऐसा राष्ट्र मजबूत हो जाएगा। आप किसी एक नैतिकता की व्यवस्था और
न्याय के आदर्श को अत्यधिाक पसंद कर सकते हैं, जो यदि किसी राष्ट्र में सार्वभौमिक
रूप से लागू किया जाए तो वह राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के साथ संघर्ष में खड़ा नहीं रह पाएगा।
आपकी इस प्रशंसा के बावजूद ऐसा राष्ट्र अंततः लुप्त हो जाएगा। हिन्दुओं को अपने धार्म
और नैतिकता को अस्तित्व के मूल्यों के संदर्भ में परखना चाहिए।
दूसरी बात यह है कि हिन्दुओं को इस पर विचार करना चाहिए कि उन्हें अपनी संपूर्ण
सामाजिक धारोहर को सुरक्षित रखना है या जो उपयोगी हो उसे चुनकर भावी पीढ़ियों
को केवल उतना ही हस्तांतरित करना है और उससे अधिाक बिल्कुल नहीं। प्राफ़ेेसर जॉन
डिवी, जो मेरे शिक्षक रहे हैं तथा जिनका मैं _णी हूं, ने कहा है, ‘‘प्रत्येक समाज छोटी सी
बातों से, अतीत की सूखी लकड़ियों से तथा निश्चित रूप से विकृत चीजों से भार-ग्रस्त
हो जाता है। चूंकि समाज अधिाक प्रबु) हो जाता है, इसलिए यह महसूस करता है कि
वह संरक्षण के लिए उत्तरदायी नहीं है और अपनी वर्तमान समग्र उपलब्धिायों के प्रेषण के
लिए भी उत्तरदायी नहीं है, परंतु वह केवल इस बात का उत्तरदायी है कि अधिाक श्रेष्ठ
भावी समाज का निर्माण किया जाएं‘‘ यहां तक कि बर्क फ्रांस की क्रांति में निहित सि)ांतों
के बदलाव का तीव्र विरोधा करने के बावजूद यह मानने को बाधय हुआ कि ‘‘ऐसा राज्य
जो बदलाव के साधान से रहित है, वह राज्य के रक्षण के साधानों से भी रहित है। बदलाव
के साधान के बिना ऐसे राज्य को संविधाान के उस भाग का नुकसान होने का भी जोखिम
उठाना पड़ेगा, जिस भाग की यह धार्मनिष्ठा से रक्षा करना चाहता है।‘‘ बर्क ने राज्य के
बारे में जो कहा है, वही बात समाज के बारे में भी लागू होती है।
तीसरी बात यह है कि हिन्दुओं को अतीत की पूजा बंद करने पर विचार करना चाहिए।
इस पूजा के गलत परिणामों के बारे में प्राफ़ेेसर डिवी ने कहा है, ‘‘व्यक्ति केवल वर्तमान में
जी सकता है। वर्तमान, भूतकाल के बाद नहीं आता या इसे भूतकाल का परिणाम ही नहीं
मानेंगे। जीवन इसी में है कि अतीत को वर्तमान के पीछे छोड़ दिया जाए। अतीत के परिणामों
के अधययन से ही वर्तमान को समझने में मदद नहीं मिलेगी। अतीत का तथा अतीत की
धारोहर का वर्तमान में प्रवेश करने को ही महत्वपूर्ण समझना, अन्यथा नहीं। अतीत के
रिकार्ड तथा अवशेष को बनाने में हुई गल्तियों को शिक्षा का प्रमुख साधान बना देने से
अतीत को हम वर्तमान का विरोधाी बना देते हैं तथा वर्तमान केा हम बहुत कुछ अतीत की
नकल बना देते हैं।’’ ऐसा सि)ांत जो वर्तमान के जीने एवं आगे बढने के कर्म को छोटा
मानता है, वर्तमान को रिक्त समझता है तथा भविष्य को बहुत दूर। ऐसा सि)ांत प्रगति
का दुश्मन है और जीवन के तेज व अनवरत प्रवाह में बाधाा पैदा करता है।
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चौथा, क्या हिन्दुओं को इस पर विचार कर मान नहीं लेना चाहिए कि कुछ भी स्थिर नहीं
है, कुछ भी शाश्वत नहीं है और न ही कुछ सनातन है, हर चीज परिवर्तनशील है, व्यक्ति और
समाज के लिए परिवर्तन जीवन का नियम है। एक बदलते हुए समाज में पुराने मूल्यों में सतत
क्रांतिकारी बदलाव आना चाहिए तथा हिन्दुओं को यह महसूस करना चाहिए कि यदि कार्यों
को मापने के कुछ मानक हैं तो उन मानकों को सुधाारने के लिए तैयार रहना चाहिए।