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अध्याय – 23 – सिद्धांतों पर आधारित धर्म बनाम नियमों पर आधारित धर्म

कुछ लोग नहीं समझ सकते कि धार्म के विनाश से मेरा आशय क्या है( कुछ को यह

धाारणा विद्रोही लग सकती है और कुछ को यह क्रांतिकारी विचार लग सकता है। इसलिए

मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहता हूं। मैं नहीं जानता कि क्या आप सि)ांतों और नियमों

में भेद करते हैं या नहीं। लेकिन मैं इनके बीच भेद मानता हूं। मैं न केवल इनको अलगअलग मानता हूं, बल्कि यह भी मानता हूं कि इनमें भेद वास्तविक और महत्वपूर्ण है। नियम

व्यावहारिक होते हैं इनके निर्धाारित मानदंड के अनुसार काम करने के प्रथागत रास्ते हैं।

परंतु सि)ांत बौि)क होते हैं, ये चीजों को परखने के उपयोगी साधान हैं। ये नियमकर्ता

को बताते हैं कि किसी कार्य को करने के लिए कौन सी कार्यविधिा अपनाई जाए। सि)ांत

कोई निश्चित कार्यविधिा निर्धाारित नहीं करते। नियम खाना बनाने की विधिा की तरह बताते

जातिप्रथा-उन्मूलन

88 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय

हैं कि क्या किया जाए और कैसे किया जाए। सि)ांत, जैसे न्याय के सि)ांत प्रमुख शीर्ष

बताते हैं, जिसके संदर्भ में उसे अपनी इच्छाओं और लक्ष्यों के दिशाकोण पर विचार करना

होता है, ये उसे सुझाव देकर उसका मार्गदर्शन करते हैं कि उसे किन महत्वपूर्ण बातों

को धयान में रखना चाहिए। नियम और सि)ांतों का भेद उसके किए गए कार्य के गुण

और विषय-वस्तु से अंतर स्पष्ट हो जाता है। कोई अच्छा कार्य करना जिसे नियम अच्छा

मानते हैं, तथा सि)ांतों के परिप्रेक्ष्य में अच्छा कर्म करना, दो अलग-अलग बाते हैं। सि)ांत

गलत भी हो सकता है, लेकिन इसके अंतर्गत किया गया कर्म सचेतन होता है और

इसका एक उत्तरदायित्व होता है। नियम सही हो सकता है और इसके अंतर्गत किया

गया कर्म मशीनी होता है। कोई धाार्मिक कर्म सही कर्म न भी हो किन्तु इस कर्म का एक

उत्तरदायित्व होता है। इस उत्तरदायित्व के कारण धार्म केवल सि)ांतों पर आधाारित होता

है। यह नियमों का विषय नहीं हो सकता जिस क्षण सि)ांत विकृत होकर नियम में बदल

जाता है, उसी समय यह धार्म नहीं रह जाता क्योंकि वह उत्तरदायित्व को समाप्त कर

देता है जो वास्तविक धार्मिक कर्म का सार होता है। हिन्दू धार्म क्या है? क्या वे सि)ांतों

का समूह है या नियम-संहिता? वेदों और स्मृतियों में वर्णित हिन्दू धार्म कुछ भी नहीं है, यह

केवल बलि, सामाजिक, राजनैतिक तथा स्वच्छता के नियम और विनियमन का मिलाजुला

पुंज है। हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं, वह और कुछ भी नहीं केवल आदेशों तथा निषेधााज्ञों का

पुलिंदा है। आधयात्मिक सि)ांतों के रूप में धार्म यथार्थ में सार्वभौमिक होता है, जो सारी

प्रजातियों और देशों पर हर काल में समान रूप से लागू होता है। ये तत्व हिन्दू धार्म में

विद्यमान नहीं हैं और यदि हैं भी तो ये हिन्दू के जीवन को संचालित नहीं करते। हिन्दू के

लिए ‘धार्म‘ शब्द का अर्थ स्पष्ट रूप से आदेशों और निषेधाज्ञों से है और धार्म शब्द वेदों और

स्मृतियों में इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा ऐसा ही टीकाकारों द्वारा समझा गया है। वेदों

में प्रयुक्त ‘धार्म‘ शब्द का तात्पर्य धाार्मिक अधयादेशों या अनुष्ठानों से है। वहां तक कि जेमिनी

ने अपनी ‘पूर्व मीमांसा‘ में धार्म की परिभाषा इस प्रकार की है, ‘‘एक इच्छित लक्ष्य या परिण्

शाम जो आदेशार्थ है। जिसे वैदिक परिच्छेदों में बताया गया है।‘‘ सरल और सीधी भाषा

में कहा जाए तो हिन्दू ‘धार्म‘ को कानून या अधिाक से अधिक कानूनी वर्ग-नीति मानते हैं।

स्पष्ट रूप से कहा जाए तो मैं इस अधयादेशीय संहिता को ‘धार्म‘ मानने से इन्कार करता

हूं। गलत रूप से धर्म कही जाने वाली इस अधयादेशीय संहिता की पहली बुराई यह है

कि यह नैतिक जीवन की स्वतं=ता और स्वेच्छा से वंचित करती है तथा बाहर से थोपे

गए नियमों द्वारा चिंतित और चाटुकार बना देती है। इसके अंतर्गत आदर्शें के प्रति निष्ठा

नहीं है, केवल आदेशों का पालन ही आवश्यक है। इस अधयादेशीय संहिता की सबसे बड़ी

बुराई यह है कि इसमें वर्णित कानून कल, आज ओर हमेशा के लिए एक ही हैं। ये कानून

असमान हैं तथा सभी वर्गों पर समान रूप से लागू नहीं होते। इस असमानता को चिरस्थायी

बना दिया गया है क्योंकि इसे सभी पीढ़ियों के लिए एक ही प्रकार से लागू किया गया है।

आपत्तिजनक बात यह नहीं है कि इस संहिता को किसी पेगम्बर या कानूनदाता कहे जाने

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वाले महान व्यक्ति ने बनाया है। आपत्तिजनक बात यह है कि इस संहिता को अंतिमता व

स्थिरता प्रदान की गई है। मन की प्रसन्नता किसी व्यक्ति की अवस्थाओं तथा परिस्थितियों

के अनुार बदलती रहती है। मन की प्रसन्नता अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग

काल में भी बदलती रहती है। इस स्थिति में मानवता कब तक शिकंजे में जकड़े और अपंग

बने रहकर इस बाहरी कानून की संहिता को सहन कर सकती है? इसलिए यह कहने में

मुझे कोई झिझक नहीं है कि ऐसे धार्म को नष्ट किया जाना चाहिए तथा ऐसे धार्म को नष्ट

करने का कार्य अधर्म नहीं कहलाएगा। वास्तव में, मैं कहता हूं कि आपका परम कर्तव्य यह

है कि आप इस मुखौटे को उतार दो जो गलत रूप से कानून को धार्म बताता है। आपके

लिए यह एक आवश्यक कार्य है। एक बार आप लोगों को साफ़-साफ़ बता देते हैं कि

यह धर्म, धर्म नहीं है, यह वस्तुतः एक कानून है। तब आप यह कहने की स्थिति में होंगे

कि इसमें संशोधान किया जाए या इसे समाप्त किया जाए। जब तक लोग इसे धार्म मानते

रहेंगे, तब तक वे इसमें संशोधान के लिए तैयार नहीं होंगे, क्योंकि यदि आमतौर पर कहा

जाए तो धर्म को बदल डालने का विचार मान्य नहीं होता है। लेकिन कानून की धाारणा

बदलाव की धाारणा से जुड़ी होती है और जब आप समझ जाते हैं कि यह धार्म एक पुराना

तथा पुरातत्वीय है, तब तो इसे बदलने के लिए तैयार हो जाएंगे क्योंकि लोग जानते हैं

कि कानून बदला जा सकता है।