क्या आप तर्क का प्रश्न उठा सकते हैं और हिन्दुओं से यह कह सकते हैं कि वे
जाति-व्यवस्था को समाप्त करें, क्योंकि वह तर्क के विरु) है? इससे यह प्रश्न उठता है:
क्या हिन्दू अपने तर्क का प्रयोग करने के लिए स्वतं= हैं? मनु ने तीन अनुशास्तियां विहित
की हैं, जिनके अनुसार प्रत्येक हिन्दू को आचरण करना चाहिए:
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः
यहां तर्क का प्रयोग करने के लिए कोई स्थान नहीं है हिन्दु को ‘स्मृति‘ या ‘सदाचार‘
का पालन करना होगा। वह किसी अन्य का पालन नहीं कर सकता। इस संबंधा में सबसे
पहला प्रश्न यह उठता है कि यदि वेंदों और स्मृतियों के अर्थों के संबंधा में कोई संदेह
उठता है तो उनके पाठ का निर्वचन कैसे किया जाएगा? इस महत्वपूर्ण प्रश्न के संबंधा में
मनु के निश्चित विचार हैं। वे कहते हैं:
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्रश्रयात् द्विजः।
स साधाुभिर्बहिष्कार्यों नास्तिको वेद निन्दकः।।
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इस नियम के अनुसार वेदों और स्मृतियों की व्याख्या करने वाले सि)ांत के रूप में
तर्कणावाद को पूर्णतः निराकृत किया गया है। इसे नास्तिकता के समान ही अनैतिक माना
गया है और इसके लिए ‘बहिष्कार‘ करने की दंड-व्यवस्था की गई है। इस प्रकार जहां
कोई विषय वेद या स्मृति से संबंधिात होगा, वहां हिन्दू तर्कपूर्ण विचार नहीं कर सकता।
यहां तक कि जहां वेदों और स्मृतियों में उन विषयों पर विरोधा है जिनमें उन्होंने स्पष्ट
निषेधाज्ञा जारी कर रखी है, वहां भी तर्क का प्रयोग नहंी किया जाएगा। यदि दो श्रुतियों
में विरोधा है तो उनकी प्रामाणिकता समान मानी जाएगी। दोनों में से किसी एक का पालन
किया जा सकता है। लेकिन यह ज्ञात करने का कोई प्रयास नहीं किया जाएगा कि तर्क
के आधाार पर कौन सी श्रुति प्रामाणिक है। इसे मनु ने इस प्रकार स्पष्ट किया है:
श्रुतिद्वैधां तु य= स्याप्त= धार्मावुभौ स्मृतो।
‘‘यदि ‘श्रुति‘ और ‘स्मृति‘ के बीच विरोधा है तो ‘श्रुति‘ को प्रामाणिक माना जाएगा।‘‘ इनके
विषय में भी यह ज्ञात करने का प्रयास नहीं किया जाएगा कि तर्क के आधाार पर दोनों में से
कौन सी प्रामाणिक है। इसका उल्लेख मनु ने निम्नलिखित श्लोक में किया है:
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टः।
सर्वास्ता निष्फ़लाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि तः स्मृताः।।
इसके अतिरिक्त, यदि दो स्मृतियों में विरोधा है तो ‘मनु स्मृति‘ को प्रामाणिक माना
जाएगा, लेकिन यह प्रयास नहीं किया जाएगा कि तर्क के आधाार पर कौन सी स्मृति
प्रामाणिक है। वृहस्पति द्वारा दी गई व्यवस्था इस प्रकार है:
वेदायत्वोपनिबंधाृत्वत् प्रमाण्यं हि मनोः स्मृतं।
मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सान शस्यते।।
अतः यह स्पष्ट है कि कोई भी हिन्दू उस किसी भी विषय में जिसमें श्रुतियों और
स्मृतियों ने सुस्पष्ट निर्देश दे दिया है, अपनी तर्क शक्ति का प्रयोग करने के लिए स्वतं=
नहीं है। ‘महाभारत‘ में भी यही नियम विहित किया गया है:
पुराणं मानवो धार्मः सांगा वेदश्चिकित्सितं।
आज्ञासि)ानिक चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः।।
हिन्दू को इन निर्देशों का पालन करना होगा। जाति तथा वर्ण ऐसे विषय हैं, जिन पर
वेदों और स्मृतियों में विचार किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि यदि किसी
हिन्दू से तर्क करने का आग्रह किया जाए तो उस पर कोई असर नहीं होता। जहां तक
जाति और वर्ण का संबंधा है, शास्त्रें में केवल यही नहीं कहा गया है कि हिन्दू किसी
प्रश्न पर निर्णय लेने में तर्क का आधाार नहीं ले सकता, बल्कि यह भी कहा गया है कि
जाति और वर्ण-व्यवस्था में उसके विश्वास के आधाार की समीक्षा तार्किक ढंग से नहीं की
जाएगी। अनेक गैर-हिन्दू लोगों के लिए यह मौन मनोरंजन का विषय साबित होगा, जब
वे यह देखेंगे कि कुछ अवसरों जैसे रेल यात्र तथा विदेश यात्र में अनेक हिन्दू जाति का
जातिप्रथा-उन्मूलन
86 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
बंधान तोड़ देते हैं, लेकिन फि़र भी वे अपने शेष जीवन में जाति-व्यवस्था को बनाए रखने
का प्रयास करते रहते हैं। यदि इस घटना की व्याख्या की जाए तो ज्ञात होगा कि हिन्दुओं
की तर्क शक्ति पर एक और नियं=ण है। मनुष्य का जीवन सामान्यतः आभ्यासिक तथा
अचिंतनशील होता है। किसी धार्म, विश्वास या ज्ञान के कल्पित रूप के संबंधा में सक्रिय,
संगत एवं श्रमसाधय विचार की दृष्टि से द्धउसके समर्थक आधाार तथा संभावित निष्कर्षों के
परिप्रेक्ष्य मेंऋ चिंतनशील विचार यदा-कदा और केवल धार्मसंकट में किया जाता है। किसी
हिन्दू के जीवन में रेल यात्रएं और विदेश यात्रएं वास्तव में ऐसे ही धार्मसंकट होते हैं। ऐसे
अवसरों पर किसी हिन्दू से यह आशा करना स्वाभाविक है कि वह अपने आपसे यह पूछे
कि जब वह सदैव जाति-व्यवस्था का पालन नहीं कर सकता तो वह जाति-व्यवस्था को
मानता ही क्यों है। लेकिन वह यह प्रश्न अपने आपसे नहीं करता है। वह एक कदम पर
जातपांत को तोड़ देता है और दूसरे कदम पर कोई प्रश्न उठाए बिना उसका पालन करने
लगता है। ऐसा आश्चार्यजनक आचरण करने का कारण शास्त्रें के नियम में मिलेगा जो
उसे यह निर्देश देता है कि उसे यथासंभव जाति-व्यवस्था का पालन करना चाहिए और
पालन न करने की स्थिति में उसे प्रायश्चित करना चाहिए। प्रायश्चित के इस सि)ांत
के अनुसार शास्त्रें ने समझौते वाली भावना का पालन करते हुए जाति-व्यवस्था को हमेशा
के लिए जीवनदान दे दिया और चिंतनशील विचारों की अभिव्यक्ति को दबा दिया, क्योंकि
ऐसा न करने पर जाति-व्यवस्था की धारणा नष्ट हो सकती थी।
ऐसे अनेक समाज सुधाारक हुए हैं, जिन्होंने जातिप्रथा तथा अस्पृश्यता का उन्मूलन
करने के लिए कार्य किया है। उनमें रामानुज, कबीर आदि प्रमुख हैं। क्या आप इन समाज
सुधाारकों के कार्यों का समर्थन कर सकते हैं और हिन्दुओं को उपदेश दे सकते हैं कि वे
उनका पालन करें? यह सच है कि मनु ने श्रुति और स्मृति के साथ अनुशास्ति के रूप में
सदाचार को भी शामिल कर दिया है। वास्तव में सदाचार को शास्त्रें के अपेक्षाकृत उच्च
स्थान प्रदान किया गया है:
यद्यद्दाचर्यते येन धाम्यं वाऽधार्म्यमेव वा।
देशस्याचरणं नित्यं चरितं ति)कीर्तितम्।।
सदाचार-भले ही शास्त्रें के अनुसार धार्म्य या अधार्म्य हो या शास्त्रें के प्रतिकूल हो,
लेकिन उसका पालन करना होगा। सदाचार का अर्थ क्या है? यदि कोई व्यक्ति यह मानता
है कि सदाचार का अर्थ किसी भले या धाार्मिक व्यक्ति के उचित या नेक कार्यों से है तो
यह उसकी सबसे बड़ी गलती होगी। सदाचार का अर्थ नेक कार्यों या नेक व्यक्ति के
कार्यों से नहीं है। इसका अर्थ अच्छी या बुरी – प्रचाीन प्रथा से है। यह बात निम्नलिखित
श्लोक में स्पष्ट की गई है:
यस्मिन् देशे य आचारः पारंपर्यक्रमागतः।
वर्णानां किल सर्वेषां स सदाचार उच्यते।।
लोगों को इस विचार के विरु) चेतावनी देने के लिए कि सदाचार का अर्थ नेक
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कार्यों या नेक व्यक्ति के कार्यों से नहीं है और इस बात की आशंका करते हुए कि लोग
इसका अर्थ वैसा ही समझ सकते हैं और नेक व्यक्तियों के कार्यों का अनुसरण कर सकते
हैं, स्मृतियों में हिन्दुओं को स्पष्ट आज्ञा दी गई है कि वे नेक कार्यों के लिए देवताओं का
भी अनुसरण न करें, यदि वे श्रुति, स्मृति और सदाचार के प्रतिकूल हैं। इसे आप चाहे
असाधारण या अत्यंत विकृत विचार कह सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘न देव
चरितं चरेत्‘ एक निषेधााज्ञा है, जो हिन्दुओं को उनके शास्त्रें द्वारा दी गई है। किसी भी
सुधाारक के शास्त्रगार में तर्क और नैतिकता-दो ही शक्तिशाली हथियार होते हैं। यदि
उससे ये दोनों हथियार छीन लिए जाएं तो वह कार्य करने में असशक्त हो जाएगा।
आप जाति-व्यवस्था को कैसे समाप्त कर पाएंगे, जब लोगों को यह सोचने की स्वतं=ता
नहीं है कि क्या यह नैतिकता के अनुकूल है? जाति-व्यवस्था के चारों तरफ़ बनाई गई
दीवार अभेद्य है और जिस सामग्री से इसका निर्माण किया गया है, उसमें तर्क और
नैतिकता जैसी कोई ज्वलनशील वस्तु नहीं है। इसी दीवार के पीछे ब्राह्मणों की फ़ौज
खड़ी है – उन ब्राह्मणों की जो एक बुि)जीवी वर्ग हैं, उन ब्राह्मणों की जो हिन्दुओं के
प्राकृतिक नेता हैं, उन ब्राह्मणों की जो वहां मा= भाड़े के सैनिकों के रूप नहीं हैं, बल्कि
अपने देश के लिए लड़ती हुई सेना के रूप में हैं। अब आप समझ गए होंगे कि मैं ऐसा
क्यों सोचता हूं कि हिन्दुओं की जातिप्रथा को समाप्त करना प्रायः असंभव है। बहरहाल,
इसे समाप्त करने से पहले कई युग बीत जाएंगे। चाहे कार्य करने में समय लगता है
या चाहे उसे तुरंत किया जा सकता है, लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि
आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और
शास्त्रें में डाइनामाइट लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्= किसी भी तर्क से अलग
हटाते हैं और वेद तथा शास्= किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं। आपको ‘‘श्रुति‘ और
‘स्मृति‘ के धार्म को नष्ट करना ही चाहिए। इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। यही
मेरा सोचा-विचारा हुआ विचार है।