आपको सफ़लता मिलने के अवसर क्या हैं? सुधाार की विभिन्न किस्में हैं। एक किस्म
वह है जो लोगों की धाार्मिक धाारणा से संबंधिात नहीं है, लेकिन उसका स्वरूप विशु) रूप
से धार्म निरपेक्षता वाला है। सुधाार की दूसरी किस्म का संबंधा लोगों की धाार्मिक भावना
से है। सामाजिक सुधाारों की इन किस्मों के दो प्रकार हैं। एक में, सुधाार धार्म के सि)
शंतों के अनुरूप होता है और उन लोगों से जो इन सि)ांतों से विचलित हो गए हैं, यह
कहा जाता है कि वे उनको फि़र से स्वीकार कर लें और उनका पालन करें। दूसरे प्रकार
के सुधार में, न केवल धाार्मिक सि)ांतों में हस्तक्षेप किया जाता है, बल्कि उनका पूर्ण रूप से
विरोधा किया जाता है और लोगों से यह कहा जाता है कि वे इन सि)ांतों का पालन न
करें और उनकी सत्ता की अवज्ञा करें। जाति-व्यवस्था ऐसे कुछ धाार्मिक विश्वासों का
स्वाभाविक परिणाम हैं, जो शास्=-सम्मत हैं। शास्त्रें के बारे में यह विश्वास किया जाता
है कि ईश्वर द्वारा प्रेरित उन _षियों का आदेश निहित है, जो अलौकिक प्रज्ञा से सम्पन्न
थे। अतः _षियों की आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यदि उल्लंघन किया
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जाएगा तो पाप लगेगा। सुधाार का एक और प्रकार है – वह है, ‘जाति-व्यवस्था को नष्ट
करना‘। यह सुधाार तीसरे वर्ग के अंतर्गत आता है। लोगों से जातपांत त्यागने के लिए
कहने का अर्थ, उनको मूल धाार्मिक धाारणाओं के विपरीत चलने के लिए कहना है। यह
स्पष्ट है कि सुधाार का पहला और दूसरा मार्ग सरल है। लेकिन तीसरे मार्ग के सुधाार में
अत्यधिाक कार्य करना होगा, जो प्रायः असंभव सा है। हिन्दू सामाजिक-व्यवस्था को पवि=
मानते हैं। जाति-व्यवस्था का आधाार ईश्वरीय है। अतः आपको इस पवि=ता और देवत्व
को नष्ट करना होगा, जो जाति व्यवस्था में समाया हुआ है। अंतिम विश्लेषण के रूप में,
इसका अर्थ यह है कि आपको शास्त्रें और वेदों की सत्ता समाप्त करनी होगी।
मैंने जाति-व्यवस्था समाप्त करने के उपाय और साधानों से संबंधिात प्रश्न पर जोर
इसलिए दिया है, क्योंकि मेरे लिए आदर्श से अवगत होने के अपेक्षाकृत उचित उपायों
और साधानों की जानकारी प्राप्त कर लेना अधिाक महत्वपूर्ण है। यदि आपको वास्तविक
उपाय और साधानों की जानकारी नहीं है तो आपके सभी प्रयास निष्फ़ल रहेंगे। यदि मेरा
विश्लेषण सही है तो आपका कार्य भी भगीरथ प्रयत्न से कम नहीं होगा। केवल आप ही
यह कह सकते हैं कि क्या आप इस कार्य को सम्पन्न कर सकेंगे।
मेरे विचार से यह कार्य प्रायः असंभव है। शायद आप यह जानना चाहेंगे कि मैं ऐसा
क्यों सोचता हूं। जिन कारणों से मैंने यह दृष्टिकोण अपनाया है, उनमें से ऐसे कुछ कारणों
का उल्लेख करूंगा। जिन्हें मैं अत्यंत महत्वपूर्ण समझता हूं। उन कारणों में से एक है विद्वेष भाव,
जो ब्राह्मणों ने इस समस्या के प्रति प्रदर्शित किया है। ब्राह्मण राजनीतिक तथा आर्थिक
सुधाार के मामलों के आंदोलन में सदैव अग्रसर रहते हैं। लेकिन जात पांत के बंधन
तोड़ने के लिए बनाई गई सेना में वे शिविर-अनुयायी द्धकैम्प फ़ोलोअर्सऋ के रूप में भी नहीं
पाए जाते। क्या ऐसी आशा की जा सकती है कि भविष्य में इस मामले में ब्राह्मण लोग
नेतृत्व करेंगे? मैं कहता हूं, नहीं। आप पूछ सकते हैं, क्यों? आप दलील दे सकते हैं कि
इसका कोई कारण नहीं है कि ब्राह्मणों को सामाजिक सुधाार से क्यों दूर रहना चाहिए।
आप तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि ब्राह्मण यह जानते हैं कि हिन्दू समाज का अभिशाप
जाति व्यवस्था है ओर एक प्रबु) वर्ग के रूप में उनसे यह आशा नहीं की जा सकती
कि वे इसके परिणामों के प्रति उदासीन रहेंगे। आप यह भी तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं
कि ब्राह्मण दो प्रकार के हैं एक तो धार्मनिरपेक्ष ब्राह्मण और दूसरे पुरोहित ब्राह्मण। यदि
पुरोहित ब्राह्मण जातपांत समाप्त करने वाले लोगों की तरफ़ से हथियार नहीं उठाता
है, तो धार्मनिरपेक्ष ब्राह्मण उठाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये सारी बातें ऊपर से
बहुत ही विश्वसनीय लगती हैं। लेकिन इन सब बातों में हम यह भूल गए हैं कि यदि
जाति-व्यवस्था समाप्त हो जाती है तो ब्राह्मण जाति पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
इन तथ्यों को धयान में रखते हुए क्या यह आशा करना उचित है कि ब्राह्मण लोग ऐसे
आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए सहमत होंगे, जिसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण जाति की
शक्ति और सम्मान नष्ट हो जाएगा? क्या धार्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों से यह आशा करना उचित
जातिप्रथा-उन्मूलन
82 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
होगा कि वे पुरोहित ब्राह्मणों के विरु) किए गए आंदोलन में भाग लेंगे? मेरे निर्णय के
अनुसार धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों और पुरोहित ब्राह्मणों में भेद करना व्यर्थ है। वे दोनों आपस
में रिश्तेदार हैं। वे एक शरीर की दो भुजाएं हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का अस्तित्व
बनाए रखने हेतु लड़ने के लिए बाधय है। इस संबंधा में मुझे प्रो- डाइसी की सारगर्भित
टिप्पणियां याद आती हैं, जो उन्होंने अपने ‘इंगलिश कांस्टिट्यूशन‘ में दी हैं। संसद की
विधाायी सर्वोच्चता की वास्तविकता परिसीमा के संबंधा में डाइसी ने कहा है – ‘किसी भी
प्रभुतासंपन्न, विश्ोषतः संसद द्वारा सत्ता का वास्तविक प्रयोग दो परिसीमाओं से परिब)
या नियंत्रित है। इनमें एक बाह्य और दूसरी आंतरिक परिसीमा है। किसी प्रभुतासम्पन्न
की वास्तविक शक्ति की बाह्य सीमा ऐसी संभावना या निश्चितता को कहा जाता है कि
उसकी प्रजा या अधिाकांश प्रजा उसके कानूनों की अवज्ञा या विरोधा करेगी। प्रभुसत्ता के
प्रयोग की आंतरिक सीमा स्वयं प्रभुसत्ता के स्वरूप से उत्पन्न होती है। निरकुंश शासक
भी अपने चरि= के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है, जिसका निर्माण उसकी
परिस्थिति, तत्समय प्रवृत्त नैतिक भावनाओं और उस समाज के आधाार पर होता है, जिससे
वह संबंधिात है। सुल्तान अगर चाहता भी तो मुस्लिम विश्व के धार्म को परिवर्तित नहीं कर
सका। लेकिन यदि वह ऐसा कर भी सकता था तो यह बिल्कुल असंभव था कि मुस्लिम
धार्म का अधयक्ष मुस्लिम धार्म को समाप्त करना चाहेगा। सुल्तान की शक्ति का प्रयोग करने
से संब) आंतरिक व्यवस्था भी इतनी ही मजबूत थी, जितनी कि बाह्य परिसीमा। लोग
कभी-कभी व्यर्थ का प्रश्न पूछते हैं कि पोप ने अमुक सुधाार लागू क्यों नहीं किया? इसका
सही उत्तर यह है कि एक क्रांतिकारी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो पोप बन जाए और जब
कोई आदमी पोप बन जाएगा, तब वह एक क्रांतिकारी बनना नहीं चाहेगा।‘‘ मेरे विचार से
ये अभ्युतियां भारत के ब्राह्मणों पर भी समान रूप से लागू होती हैं और कोई भी व्यक्ति
यह कह सकता है कि यदि कोई व्यक्ति पोप बन जाता है तो एक क्रांतिकारी बनने की
उसकी इच्छा नहीं होती। जो व्यक्ति ब्राह्मण पैदा हुआ है, वह एक क्रांतिकारी बनने की
इच्छा बहुत कम करता है। वास्तव में, सामाजिक सुधाार के मामले में किसी ब्राह्मण से एक
क्रांतिकारी बनने की आशा करना उतना ही बेकार है जितना कि ब्रिटिश संसद से यह
आशा करना, जैसा कि लेस्ली स्टीफ़न ने कहा था कि वह ऐसा अधिानियम पारित करेंगे,
जिसके अनुसार सभी नीली आंखों वाले बच्चों की हत्या कर दी जाएगी।
आपमें से कुछ यह कहेंगे कि यह एक मामूली बात है कि जातिप्रथा समाप्त करने
के आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए ब्राह्मण आगे आएं अथवा नहीं। मेरे विचार से इस
दृष्टिकोण का अपनाया जाना समाज के बुि)जीवी वर्ग द्वारा अदा की गई भूमिका की उपेक्षा
करना होगा। चाहे आप इस सि)ांत को मानें या न मानें कि एक महान पुरुष इतिहास
का निर्माता होता है, लेकिन आपको इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि प्रत्येक देश
में बुि)जीवी वर्ग सर्वाधिाक प्रभावशाली वर्ग रहा है, वह भले ही शासक वर्ग न रहा हो।
बुि)शाली वर्ग वह है, जो दूरदर्शी होता है, सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर
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सकता है। किसी भी देश की अधिाकांश जनता विचारशील एवं क्रियाशील जीवन व्यतीत
नहीं करती। ऐसे लोग प्रायः बुि)जीवी वर्ग का अनुकरण और अनुगमन करते हैं। यह
कहने में कोई अतिशयोंक्ति नहीं होगी कि किसी देश का संपूर्ण भविष्य उसके बुि)जीवी
वर्ग पर निर्भर होता है। यदि बुि)जीवी वर्ग ईमानदार, स्वतं= और निष्पक्ष है तो उस पर
यह भरोसा किया जा सकता है कि संकट की घड़ी में वह पहल करेगा और उचित नेतृत्व
प्रदान करेगा। यह ठीक है कि प्रज्ञा अपने आपमें कोई गुण नहीं है। यह केवल साधान
है और साधान का प्रयोग उस लक्ष्य पर निर्भर है, जिसे एक बुि)मान व्यक्ति प्राप्त करने
का प्रयत्न करता है। बुि)मान व्यक्ति भला हो सकता है, लेकिन साथ ही वह दुष्ट भी
हो सकता है। उसी प्रकार बुि)जीवी वर्ग उच्च विचारों वाले व्यक्तियों का एक दल हो
सकता है, जो सहायता करने के लिए तैयार रहता है और पथभ्रष्ट लोगों को सही रास्ते
पर लाने के लिए तैयार रहता है। बुि)जीवी वर्ग धाोखेबाजों का एक गिरोह या संकीर्ण
गुट के वकीलों का निकाय हो सकता है, जहां से उसे सहायता मिलती है। आपको यह
सोचकर खेद होगा कि भारत में बुि)जीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का ही दूसरा नाम है। आप
इस बात पर खेद व्यक्त करेंगे कि ये दोनों एक हैं। बुि)जीवी वर्ग का अस्तित्व किसी
एक जाति से आब) होना चाहिए, और इस बुि)जीवी वर्ग को ब्राह्मण जाति के हितों एवं
आकांक्षाओं में साझेदारी करनी चाहिए, जिसने अपने आपको देश के हितों के बजाए उस
जाति के हितों का अभिरक्षक समझ रखा है। सारी स्थिति अत्यंत खेदजनक हो सकती
है। लेकिन सच्चाई यह है कि ब्राह्मण लोग ही हिन्दुओं का बुि)जीवी वर्ग है। यह केवल
बुि)जीवी वर्ग ही नहीं है, बल्कि यह वह वर्ग है जिसका कि शेष हिन्दू लोग बहुत आदर
करते हैं। हिन्दुओं को यह पढ़ाया जाता है कि ब्राह्मण भूदेव हैं – ‘वर्णानाम् ब्राह्मणों गुरु‘।
हिन्दुओं को यह पढ़ाया जाता है कि उनके शिक्षक केवल ब्राह्मण ही हो सकते हैं। मनु
ने कहा है, ‘‘यदि यह पूछा जाए कि धार्म के उन विषयों में क्या किया जाएगा, जिनका
कि विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, तो उत्तर यह है कि शिष्ट ब्राह्मण जो भी
प्रस्तुत करेंगे, वह विधिामान्य होगा‘‘
अनाम्रातेषु धार्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत्।
यं शिष्टा ब्राह्मण ब्रूयुः सधार्मः स्यादशडिड्ढ-कतः।।
जब ऐसा बुि)जीवी वर्ग जिसने शेष हिन्दू समाज पर नियं=ण कर रखा है जातिव्यवस्था में सुधाार करने का विरोधाी है, तभी मुझे जातिप्रथा समाप्त करने वाले आंदोलन
का सफ़ल होना नितांत असंभव दिखाई देता है।
मैं यह क्यों कहता हूं कि यह कार्य असंभव है, इसका दूसरा कारण तब स्पष्ट होगा,
जब आप यह याद रखेंगे कि जाति-व्यवस्था के दो पक्ष हैं। पहले पक्ष के अनुसार मनुष्यों
को अलग-अलग समुदायों में विभाजित किया जाता है। जाति-व्यवस्था के दूसरे पक्ष के
अनुसार सामाजिक दर्जे में इन समुदायों का सोपानिक क्रम निर्धाारित किया जाता है। प्रत्येक
जाति को गर्व है और इस बात से संतुष्टि है कि वह जाति-क्रम में किसी अन्य जाति से
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ऊंची है। इस श्रेणीकरण के बाह्य लक्षण के रूप में सामाजिक और धाार्मिक अधिाकारों का
भी एक श्रेणीकरण है, जिन्हें शास्=ीय रूप से ‘‘अष्टाधिाकार‘‘ और ‘‘संस्कार‘‘ कहा जाता है।
किसी जाति का दर्जा जितना ऊंचा होगा, उतने ही अधिाक उसके अधिाकार होंगे। जिस
जाति का दर्जा जितना नीचा होगा, उतने ही कम उसके अधिाकार होंगे। समुदायों के इस
श्रेणीकरण तथा जातियों के इस सोपान ने जाति-व्यवस्था के विरु) एक सामूहिक मोर्चा
खोलना असंभव बना दिया है। यदि कोई जाति अपने से ऊंची जाति के साथ रोटी-बेटी
का संबंधा करने के अधिाकार दावा करती है तो उसका तत्काल निषेधा कर दिया जाता है
और शरारती लोग जिनमें अनेक ब्राह्मण भी शामिल हैं, यह कहते हैं कि यह रोटी-बेटी
का संबंधा अपने से नीची जाति तक ही अनुमत होगा। सभी लोग जाति-व्यवस्था के दास
हैं। लेकिन सभी दासों का दर्जा बराबर नहीं है। आर्थिक क्रांति लाने हेतु सर्वहारा वर्ग
को उत्तेजित करने के लिए कार्ल मार्क्स ने उनसे यह कहा था – ‘‘दासता को छोड़कर
आपका और कुछ नहीं जाएगा।‘‘ जिस कलात्मक ढंग से विभिन्न जातियों में सामाजिक
और धाार्मिक अधिाकार वितरित द्धकिसी जाति को ज्यादा तो कुछ को कमऋ किए गए थे,
कार्ल मार्क्स के नारे का वह कलात्मक ढंग जाति-व्यवस्था के विरु) हिन्दुओं को उत्तेजित
करने के लिए एकदम बेकार है। जातियां उच्च और अवर प्रभुसत्ताओं की श्रेणीकृत व्यवस्था
होती हैं। वे अपने दर्जे के लिए सतर्क होती हैं ओर यह जानती है कि यदि जातियों का
सामान्य विलय हुआ तो उनमें से कुछ की प्रतिष्ठा और शक्ति दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत
अधिाक समाप्त हो जाएगी। इसे सैनिक भाषा में यों कहा जाएगा कि आप जाति-व्यवस्था
पर आक्रमण करने के लिए हिन्दुओं की आम लामबंदी नहीं कर सकते।